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‘हम देखेंगे’ वाली इक़बाल बानो: काले रंग की साड़ी पहनकर नज़्म गाने से पहले जनता से कहा ‘देखिये’ हम तो फैज़ का कलाम गायेंगे, हो सकता है कि हमें गिरफ्तार किया जाए

साल
1985,
जब पाकिस्तान में जनरल ज़िया उल हक़ की तानाशाही चरम पर थी, उन्होंने एक फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी, फैज़ साहब से जनरल ज़िया नाराज़गी जगजाहिर थी। उनकी नज़्मेंग़ज़लें पाकिस्तान के रेडियो, टीवी पर प्रसारित नहीं होती थीं।

 

अब इकबाल बानो (Iqbal
Bano)
ने इस तानाशाही से भिड़ने की ठान ली। उन्होंने इन फैसलों की मुख़ालफ़त करते हुए मुनादी करवा दी कि इक रोज़ वे इन पाबंदियों को तोड़ नए दौर का फलसफ़ा लिखेगी। इसके लिए इकबाल बानो ने लाहौर स्टेडियम का इंतेख़ाब किया।

 

पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इकबाल बानो को रोकने के लिए हर कोशिश की। मगर इसके बावजूद इकबाल बानो का साथ देने के लिए भारी तादाद में लोग स्टेडियम में पहुंचे। एक अनुमान के मुताबिक पचास हज़ार लोगों की भीड़ इस वाक़ये के गवाह बनने के लिए इकठ्ठा हो गई।

भारत
में पलीबढ़ीं इकबाल बानो ने जियाउलहक के फरमान के खिलाफ साड़ी पहनकर फैज़ की नज़्महम देखेंगे गाई
और इस तरह खुद के साथसाथ इस नज्म को भी अमर कर दिया।

 

रोहतक के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी दसेक साल की उस दुबली मुस्लिम लड़की की एक सबसे पक्की हिन्दू सहेली थी. सहेली और उसकी बहन अपने संगीतप्रेमी पिता के निर्देशन में क्लासिकल गाना सीख रही थीं। एक दिन उस लड़की ने उनके सामने ऐसे ही कुछ गा दिया। शाम को सहेली के पिता उसे घर छोड़ने गए और उसके पिता से बोलेमेरी बेटियां अच्छा गा लेती हैं पर आपकी बेटी को ईश्वर से गायन का आशीर्वाद मिला हुआ है. संगीत की तालीम दी जाए तो वह बहुत नाम कमाएगी

 

यूँ
1945
के आसपास उस लड़की के लिए दिल्ली घराने के एक बड़े उस्ताद की शागिर्दी में भर्ती किये जाने की राह खुली. उस्ताद की संगत में जल्द ही उसने दादरा और ठुमरी जैसी शास्त्रीय विधाओं में प्रवीणता हासिल कर ली। पार्टीशन के 4-5
साल तक वह दिल्ली में गाना सीखती रही।

 

17 की हुईं तो उम्र में उनसे काफी बड़े एक पाकिस्तानी जमींदार को उनसे इश्क हो गया। जल्द ही इस शर्त पर दोनों का निकाह हुआ कि शादी के बाद भी उस की संगीत यात्रा पर कोई रोक नहीं आने दी जाएगी. पति ने अपना वादा अपनी मौत यानी 1980 तक निभाया।

 

यूँ हमें इक़बाल बानो नसीब हुईं. “हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगेवाली इक़बाल बानो!

इक़बाल बानो की गायकी का सफ़र उनकी जिन्दगी जैसा ही हैरतअंगेज रहा. कौन सोच सकता था दादरा और ठुमरी जैसी कोमल चीजें गातेगाते वह दुबली लड़की उर्दूफारसी की गजलें गाने लगेगी और भारतपाकिस्तान से आगे ईरानअफगानिस्तान तक अपनी आवाज का झंडा गाड़ देगी. उसकी आवाज में एक ठहराव था और गायकी में शास्त्रीयता को बरतने की तमीज।

 

फिर
1977
का साल उसके मुल्क में अपने साथ जिया उल हक जैसा क्रूर तानाशाह लेकर आया। धार्मिक कट्टरता के पक्षधर इस निरंकुश फ़ौजी शासक ने तय करना शुरू किया कि क्या रहेगा और क्या नहीं. इस क्रम में सबसे पहले उसने अपने विरोधियों को कुचलना शुरू किया।

 

उसके बाद डेमोक्रेसी और स्त्रियों की बारी आई। जिया उल हक ने यह तक तय कर दिया कि औरतें क्या पहन सकती हैं और क्या नहीं. पाकिस्तान की औरतों के साड़ी पहनने पर इसलिए पाबंदी लग गयी कि वह हिन्दू औरतों का पहनावा थी।

 

कलासंगीतकविता
जैसी चीजों को गहरा दचका भी इस दौर में लगा।फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को मुल्कबदर कर दिया गया. हबीब जालिब को जेल भेज दिया गया। उस्ताद मेहदी हसन का एक अल्बम बैन हुआ। शायरोंकलाकारों को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगे. करीब बारह साल के उस दौर की पाशविकताओं और अत्याचारों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है।

 

पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इकबाल बानो को रोकने के लिए हर कोशिश की। मगर इसके बावजूद इकबाल बानो का साथ देने के लिए भारी तादाद में लोग स्टेडियम में पहुंचे। एक अनुमान के मुताबिक पचास हज़ार लोगों की भीड़ इस वाक़ये के गवाह बनने के लिए इकठ्ठा हो गई।

 

ऐसे माहौल में इक़बाल बानो ने विद्रोह और इन्कलाब के शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को गाना शुरू किया। सन
1981
में जब उन्होंने पहली बार फ़ैज़ को गाया, निर्वासित फ़ैज़ बेरूत में रह रहे थे और उनकी शायरी प्रतिबंधित थी।

 

उसके बाद जमाने ने इक़बाल बानो का जो रूप देखा उसकी खुद उन्हें कल्पना नहीं रही होगी। बीस साल पहले उनकी आवाज कोमल, तीखी और सुन्दर हुआ करती थीअनुभव और संघर्ष के ताप ने अब उसे किसी पुराने दरख्त के तने जैसा मजबूत, दरदरा और पायेदार बना दिया था. अचानक सारा मुल्क पिछले ही साल विधवा हुई इस प्रौढ़ औरत की तरफ उम्मीद से देखने लगा था। 

 

गुप्त
महफ़िलें जमाई जातीं. प्रतिबंधित कविताएं गाई जातीं. स्कूलयुनिवर्सिटियों में पर्चे बांटे जाते. इक़बाल बानो हर जगह होतीं।

 

फिर
1986
की 13 फरवरी को लाहौर के अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडीटोरियम में वह तारीखी महफ़िल सजी. पूरा हॉल भर चुकने के बाद भी हॉल के बाहर भीड़ बढ़ती जा रही थी।आयोजकों ने जोखिम उठाते हुए गेट खोल दिए। सीढियों पर, फर्श पर, गलियारों मेंजिसे जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गया।

 

जब उन्होंने स्टेज पर आकर माइक संभाला तो उनके आदाब की आवाज के साथ ही पूरा स्टेडियम गुलजार हो उठा। उन्होंने चहकती भीड़ के बीच फैज़ साहब की नज़्म गाने से पहले जनता से कहादेखिये, हम तो फैज़ का कलाम गायेंगे, हो सकता है कि हमें गिरफ्तार किया जाए।

लेकिन हम जेल में भी फैज़ की नज़्म हुक्मरानों को सुनाएंगे। इस जादुई आवाज़ के सामने हजारों की भीड़ से अटा पड़ा पूरा स्टेडियम सन्न रह गया था। मानों यहां सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई नहीं दे रही हो, फिर अचानक तबले की धमक के साथ यह खामोशी ठूठी और शहनाई गूंज उठी।

हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है, जो लौहअज़ल में लिक्खा है

हम देखेंगे

 

इस नज्म के शुरू होते ही समूचे हॉल में बिजली दौड़ने लगी. सुनने वालों के रोंगटे खड़े होना शुरू हुए ।दर्द के नश्तरों से बिंधी, इक़बाल बानो की पकी हुई आवाज के तिलिस्म ने धीरेधीरे हर किसी को अपनी आगोश में लेना शुरू किया। अजब दीवानगी का आलम तारीं होने लगा. लोगों ने बाकायदा लयबद्ध तालियों से इक़बाल बानो का साथ देना शुरू किया।

फिर नज्म का वह हिस्सा आया:

जब ज़ुल्मसितम के कोहगरां रुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले ये धरती धड़धड़ धड़केगी

और अहलहकम के सर ऊपर जब बिजली कड़कड़ कड़केगी

जब अर्जख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहलसफ़ा, मरदूदहरम मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

 

भीड़ तालियाँ बजाने लगी. इन्कलाब और इक़बाल बानो की जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू हो गए. इस शोरोगुल के थामने तक इक़बाल बानो को गाना बंद करना पड़ा।

 

स्टेडियम में तालियों की गडगडाहट का इतना जबरदस्त शोर था कि लोगों का जज्बा देखकर पुलिस हिम्मत नहीं जुटा पाई और वो किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकी। इकबाल बानो ने महफिल का समां बांधे रखा और लोग उनके साथ देते रहें।

उन्होंने फिर गाना शुरू किया. इस दफ़ा लोग बेकाबू होकर रोने लगे.कई बरसों की रुलाई दबाये बैठा एक मुल्क सांस लेना शुरू कर रहा था।

 

उस रात अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के आयोजकोंमैनेजरों के घर छापे पड़े. पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रोग्राम की सारी रेकॉर्डिंग्स जब्त कर जला दीं. किसी तरह एक प्रति स्मगल होकर दुबई पहुँच गयी. उसके बाद फ़ैज़इक़बाल बानो की उस जुगलबंदी का नया इतिहास लिखा जाना शुरू हुआ. दुनिया भर के युवा आज भी उसे लिख रहे हैं।

इकबाल बानो से इस नज़्म को सुनने के बाद देश के युवाओं ने जियाउलहक की तानाशाही हुकूमत खिलाफ बगावती तेवर अपना लिए थे। इकबाल बानो ने जियाउलहक के फरमान के खिलाफ साड़ी पहनकर फैज़ की नज़्महम देखेंगे गाना गाकर पाकिस्तान की सियासत में भूचाल ला दिया था।

 

इक़बाल
बानो आज तक महक रही हैं. पता है 13 फरवरी 1986 की उस रात की कंसर्ट में इक़बाल बानो क्या पहन कर गई थीं?

काले
रंग की साड़ी!

 

1970
में इकबाल बानो के शोहर का इंतकाल हो गया. इसके बाद वे मुल्तान से लाहौर चली आईं और फिर यहीं की होकर रह गयीं। इस दौर में फैज़ अहमद फैज़, नासिर काज़मी (दिल में एक लहर सी उठी है अभी…) जैसे शायरों के कलाम उन्होंने तसल्लीबख्श गाये जो खूब पसंद भी किये गए।

 

कहते हैं कि फैज़ की नज़्महम देखेंगेको गाकर इकबाल बानो ने इस नज्म को और इस नज़्म ने इकबाल बानो को अमर कर दिया. 1974 में उन्हें पाकिस्तान सरकार नेतगमाइम्तियाज़से नवाज़ा।

 

फैज़ की नज़्महम देखेंगेको गाकर इकबाल बानो लोगों के जेहन में हमेशा के लिए कैद हो गई। उनकी इस आवाज में गाई गई ये नज्म फिर से हमेशा के लिए अमर हो उठी।इस नज़्म की वजह से फैज़ साहब और खुद इकबाल बानो हमेशा के लिए जिंदा हो गए।

फिर ये किस्सा यूं ख़त्म हुआ कि चंद रोज़ वे बीमार रहीं और 21 अप्रैल,
2009
में लाहौर में उनका इंतेकाल हो गया. लेकिन उनके सुनने वालों के लिए इकबाल बानो हमेशा हैं और रहेंगी।

The
End

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