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ग्रेटा गार्बो विश्व सिनेमा की जादुई अभिनेत्री:उन्नीस वर्ष की आयु तक नाई की दुकान में दाढ़ी पर साबुन-झाग वाली लड़की के रूप में काम किया.

by Engr. Maqbool Akram
January 1, 2023
in Uncategorized
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ग्रेटा
गार्बो (1905 –1990) Sweden में एक गरीब घर में पैदा हुई। एक बाल बनाने के सैलून में उन्नीस वर्ष की आयु तक दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम करती रही।

एक अमरीकी यात्री ने– जब वह उसकी दाढ़ी पर साबुन लगा रही थी–आईने में उसका चेहरा देखा और कहा कि बहुत सुंदर है! बहुत सुंदर है!ग्रेटा ने उससे कहा, क्या कहते हैं आप? मुझे आज छह वर्ष हो गए लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाते, किसी ने मुझसे कभी नहीं कहा कि मैं सुंदर हूं। आप कहते क्या हैं? मैं सुंदर हूं?

उस अमरीकन ने कहा, बहुत सुंदर! मैंने बहुत कम इतनी सुंदर स्त्रियां देखी हैं।

ग्रेटागार्बो ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: मैं उसी दिन पहली दफा सुंदर हो गई। एक आदमी ने मुझे सुंदर कहा था। मुझे खुद भी खयाल नहीं था। मैं उस दिन घर लौटी और आईने के सामने खड़ी हुई और मुझे पता लगा कि मैं दूसरी औरत हो गई हूं!

 

वह लड़की जो उन्नीस साल की उम्र तक केवल साबुन लगाने का काम करती रही थी, वह अमरीका की बाद में श्रेष्ठतम अभिनेत्री साबित हुई। और उसने जो धन्यवाद दिया, उसी अमरीकी को दिया, जिसने उसे पहली दफा सुंदर कहा था। उसने कहा कि अगर उस आदमी ने उस दिन वे दो शब्द न कहे होते तो शायद मैं जीवन भर वही साबुन लगाने का काम करती रहती। मुझे खयाल ही नहीं था कि मैं सुंदर भी हूं।

 

हिटलर भी उसका दीवाना था।1936 की फिल्म ‘कमील’ में उसका काम देख कर वह ऐसा बौराया कि उसने न सिर्फ अपने सलाहकार गॉयबल्स के साथ उस फिल्म को तीन बार देखा।

ग्रेटा को बाकायदा फैन मेल तक भेजी. पांच साल बाद जब वह आधी दुनिया पर राज कर रहा था उसने ग्रेटा गार्बो को जर्मनी आने का न्यौता दिया. ग्रेटा ने हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दिया।

 

ग्रेटा के दीवाने दुनिया में फैले हुए थे। उसका रहस्यमय चेहरा, घनी पलकों वाली आँखें और चलने का अटपटा लेकिन आकर्षक तरीका – सब कुछ जैसे लोगों को रटा हुआ था. उसके करियर की शुरुआत साइलेंट फिल्मों से हुई थी और बगैर एक भी शब्द बोले वह बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी स्टार के रूप में स्थापित हो चुकी थी।

शुरुआती दौर में ही उसकी ऐसा जलवा बना कि हॉलीवुड के निर्देशक उसे किसी भी कीमत पर उसके देश स्वीडन से अपने यहां लाना चाहते थे।

 

हॉलीवुड की साइलेंट फिल्मों ने उसे एक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बना दिया.

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच झूल रहे आर्थिक–सामाजिक विपन्नता के उस दौर में ग्रेटा गार्बो के चेहरे की इमेज एक स्थाई रिलीफ की बन गई जिसे देखकर आप सब कुछ हो सकते थे, उदास या दुखी नहीं. जब उसे किसी अपने की मौत का शोक मनाता दिखाया जाता, आप उसकी आँखों से गिर रहे आंसुओं तक से मोहब्बत कर सकते थे।

 

नई फिल्म के आने पर लोगों की उत्सुकता इस बात को लेकर होती थी कि उसकी एंट्री कैसे होगी. लोग फकत उस एक सीन को दर्जनों बार देखने जाया करते. सिनेमा हॉलों के बाहर हुजूम लग जाता था।

 

फिर
1930
के साल फिल्मों ने बोलना शुरू किया यानी टॉकीज़ का ज़माना आ गया. ‘अन्ना क्रिस्टी’ ग्रेटा गार्बो की पहली बोलती हुई फिल्म थी।

प्रचार
के लिए लगाए गए विशालकाय होर्डिंग्स में दो शब्द लिखे गए – ‘गार्बो टॉक्स’।

 

‘अन्ना क्रिस्टी’ में ग्रेटा गार्बो की एंट्री हॉलीवुड के इतिहास के सबसे यादगार दृश्यों में से है. मशहूर लेखक बोर्हेस ने उसके बारे में लिखा है:  

 

“मैं ग्रेटा गार्बो से मोहब्बत करता था जैसा कि मेरे समय का हर आदमी करता था. ‘अन्ना क्रिस्टी’ में ग्रेटा रात और कोहरे से निकल कर आती थी और नाविकों के एक शराबख़ाने में प्रवेश करती थी. बार का काउन्टर लम्बा था. उसने हौले–हौले चलना शुरू किया … और दुनिया भर के हम सारे पुरुष जानते थे कि उस के रुकने के बाद हम पहली दफ़ा ग्रेटा गार्बो की आवाज़ सुनेंगे, और वह ऐसा होगा मानो ख़ुद ईश्वर बोलने वाला हो।

दरवाजे से मेज तक का रास्ता वाक़ई काफ़ी लम्बा था. जब वह उसके आख़िरी छोर पर पहुंची और मेज पर बैठ कर उसने अपनी ऊबड़खाबड़ आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा – “गिव मी अ व्हिस्की“, हम सब के भीतर एक झुरझुरी सी मच गई”।

 

मशहूर दार्शनिक रोलां बार्थ ने ग्रेटा के चेहरे को बीसवीं शताब्दी के चुनिन्दा मिथकों में शुमार करते हुए कहा था कि उसका चेहरा एक विचार था।

अपने करियर के चरम पर 1941 में कुल छत्तीस साल की उम्र में उसने कहा कि वह अस्थाई रूप से रिटायर हो रही है. उसने बाद उसने कभी अभिनय नहीं किया।

 

जिंदगी में उसने मात्र 28 फ़िल्में की और सिने–जगत में न केवल स्थान बनाया वरन अमर हो गई। उसके दिवानों की कमी न थी, हालांकि वह पत्रकारों से बचती थी। बहुत कम लोग ऐसा निर्णय ले पाते हैं, जैसा निर्णय उसने लिया।

 

1941 में वह अपने कैरियर के उरूज पर थी। वह सबसे अधिक फीस ले रही थी और उसका जलवा ऐसा था कि वह निर्देशकों को अपने मनमाफ़िक नचा सकती थी। स्क्रिप्ट, सह–अभिनेताओं यहां तक कि निर्देशकों के चुनाव में दखल रखती थी।

इसी ऊंचाई पर अचानक उसने फिल्मों से सन्यास का निर्णय लिया। इसके बाद वह आधी सदी और जीवित रही मगर न फिल्में बनाई, न अन्य कोई काम किया। वह समाजसेवी
(
जैसा कि अक्सर धनी–मानी लोग करते हैं) भी नहीं बनी।

 

खूबसूरत चेहरे, बड़ी–बड़ी आंखों, गहरी पलकों की मालकिन ग्रेटा गार्बो नाजुक और निजी पलों को या प्रेम को परदे पर अभिव्यक्त करने में दक्ष थी।

 

वह एक पल में अपनी भौंहें सिकोड़ सकती थी, मनोरंजन कर सकती थी, उसकी कठोरता तत्काल पिघल सकती थी। कहने का मतलब है कि वह एक कुशल अभिनेत्री थी जो अपनी उपस्थिति से पूरे परदे को भर सकती थी। अपने बल पर फ़िल्म को सफ़ल बना सकती थी। और निर्देशक उसकी प्रतिभा का पूरा उपयोग नहीं कर उसे कुछ गिनी–चुनी भूमिकाओं में समेट रहे थे।

एमजीएम उसके व्यक्तित्व को लेकर स्पष्ट नहीं था और उन लोगों ने उसे खिलाड़ी, हास्यजनक अजीबोगरीब भूमिकाएं दीं। उन्होंने
1939
में कॉमेडी फ़िल्म ‘नेनाच्का’ के प्रचार में लिखा, ‘गार्बो लाफ़्स!’ उन्होंने उसके जैसा दिल खोल कर हंसने वाला इसके पहले नहीं देखा था।

 

ये उसका चेहरा ही था जो उसे अन्य समकालीन अभिनेत्रियों से अलग करता था।

उस समय कई खूबसूरत अभिनेत्रियां हॉलीवुड में थीं मगर किसी का चेहरा इतना भावप्रवण न था और न ही कोई आवश्यकता पड़ने पर ऐसा भावहीन चेहरा दिखा सकती थी, जैसा ग्रेटा गार्बो अपना चेहरा संभव कर पाती थी। उसने ‘क्वीन क्रिस्टीना’ के एक दृश्य में प्रस्तुत किया है।

 

यह जमाना क्लोजअप्स के आगमन का था और उसका पूरा परिणाम चाहे वह भावात्मक हो अथवा मांसल–कामुक ग्रेटा के असाधारण चेहरे के रूप में परदे पर था। उसका मूक अभिनय उसके सवाक अभिनय से बेहतर था, इसमें कोई शक नहीं।

 

अनाथ, प्रतिभाशाली सिने–निर्देशक मौरिस स्टिलर अपने लिए अभिनेत्री खोज रहा था।

उसने ग्रेटा गार्बो को देखा, उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसे प्रथम स्त्री नोबेल पुरस्कृत लेखक सेलमा लेगरलॉफ के उपन्यास पर आधारित अपनी फ़िल्म ‘द स्टोरी ऑफ़ गोस्टा बर्लिंग’ (दि अटोनमेंट ऑफ़ गोस्टा बर्लिंग) में नायिका बनाया।

 

यह मैत्री आजीवन कायम रही।मौरिस ने उसे तराशा। वे प्रेमी नहीं थे क्योंकि मौरिस समलैंगी था और शायद ग्रेटा भी। मगर दोस्ती ऐसी थी कि जब हॉलीवुड ने मौरिस को फिल्म बनाने के लिए बुलाया तो उसने शर्त रखी कि आएंगे तो दोनों, नहीं तो वह नहीं आ रहा।

 

ग्रेटा गार्बो शर्मीली थी मगर बहुत पहले से अभिनेत्री बनने का सपना पाल रही थी। पंद्रह वर्ष की उम्र में वह एक डिपार्टमेंटल स्टोर के विज्ञापन केलिए कैमरे के सामने खड़ी हुई।
1925
में मौरिस स्टिलर और ग्रेटा गार्बो अमेरिका चले। वहां भाग्य ने अजीब खेल दिखाया।

 

अभिनेत्री के रूप में ग्रेटा चमक गई और मौरिस के सितारे डूब गए। मौरिस स्टिलर को लगा अब उसकी जरूरत नहीं है, वह स्वीडन वापस लौट आया और वहीं 1928 में पैंतालिस वर्ष की उम्र में ग्रेटा गार्बो का फोटो मुट्ठी में जकड़े हुए मर गया।

 

ग्रेटा की चमकती प्रसिद्धि उसे कभी खराब नहीं लगी। बस वह चाहता था कि ग्रेटा सदा खुश और संतुष्ट रहे।

क्या ग्रेटा गार्बो खुश और असंतुष्ट रही? पता नहीं।

हां, मौरिस का सोग मनाने वह स्वीडन आई और मौरिस के वकील के साथ उसके स्टोरहाउस में एक–एक चीज छूती रही, उसकी स्मृति में काफी कुछ बुदबुदाती रही। ऐसा ही एक दृश्य उसे लेकर फ़िल्म ‘क्वीन क्रिस्टीना’ (1933) में है, जहां नायिका (ग्रेटा गार्बो) सराय में अपने मृत प्रेमी की प्रत्येक चीज छू कर घूमती  है। इस फ़िल्म में स्वीडन की रानी को अपने प्रेम और अपनी जिम्मेदारियों के बीच चुनाव करना है। वह स्पेन के दूत के प्रेम में पड़ती है जबकि उससे राजसी परिवार में शादी करने की अपेक्षा की जा रही है।

ग्रेटा गार्बो ने कभी शादी नहीं की, उसके बच्चे नहीं हुए, वह चाहती भी नहीं थी। वैसे कई लोगों से उसके रोमांटिक रिश्ते थे। अभिनेता जॉन गिल्बर्ट, कंडक्टर लिओपोल्ड स्टोकोवस्की, लेखिका मर्सीडीज डे एकॉस्टा, अभिनेत्री तथा स्क्रीनराइटर सल्का वियर्टेल उसके संगी थे। उसे क्रॉस ड्रेसिंग पसंद थी। उसने
1932
में फ़िल्म ‘ग्रैंड होटल’ में रूसी बैलेरीना की भूमिका की। और
1932
में ही वह ‘माता हारी’ भी थी।

 

ग्रेटा गार्बो ने अपने लिए क्यों चुना अकेलापन

हर समय फटॉग्रफर्स और पत्रकारों से घिरी रहने वालीं ग्रेटा गार्बो ने एक दिन सारी लाइमलाइट से दूर हो जाने का फैसला किया। वह फिल्मों में काम करती रहीं, उनका स्टारडम बना रहा लेकिन उन्होंने अपने लिए अकेलापन चुन लिया।

 

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि मुझे अकेलापन चाहिए और फिर वह मीडिया के सामने नहीं आईं।

पूरी दुनिया हैरान रह गई। शूटिंग के लिए आतीं, काम करतीं, फिल्म रिलीज हो जाती, सुपरहिट भी हो जाती, हर जुबान पर ग्रेटा गार्बो का नाम होता लेकिन वह खुद कहीं नहीं दिखतीं।

 

वह बीसवीं सदी की सबसे रहस्यमय महिलाओं में से रहीं।

ऐसा क्या हुआ था उनके साथ? इसका सीधा जवाब तो किसी के पास नहीं लेकिन बरसों सेउनके जीवन पर रिसर्च कर रहे लेखकों का मानना है कि गार्बो के अकेलेपन के पीछे उनका प्रेम–जीवन था।

 

15 साल की उम्र में एक विज्ञापन में काम करते ही वह सितारा बन गईं। उनकी शुरुआती जोड़ी बनी, उस समय के सितारे जॉन गिल्बर्ट के साथ जो हफ्ते भर में ही गार्बो के प्रेम में पड़ गए। गिल्बर्ट ने उन्हें अभिनय की बारीकियां और सितारों का रुआब सिखाया।

 

गार्बो महान और माहिर अभिनेत्री कहलाईं और विशेषज्ञ उनकी अदाओं में गिल्बर्ट की छाप अंत तक पाते रहे। दोनों लगभग डेढ़ साल एक ही छत के नीचे रहे। इस दौरान गिल्बर्ट ने बीसियों बार उनसे शादी का अनुरोध किया लेकिन गार्बो हर बार इनकार कर देती थीं।

एक रोज उन्होंने ‘हां’ बोल दी और शादी की तारीख तय हो गई।गिल्बर्ट तैयार होकर तय जगह पहुंच गए लेकिन गार्बो आईं ही नहीं।

वहां से उनके संबंध बिगड़ने शुरू हो गए। गिल्बर्ट को इतना सदमा लगा कि वह अपने काम को उपेक्षित करने लगे और जल्द ही उनका करियर डूब गया लेकिन ग्रेटा गार्बो कामयाबी की नई–नई सीढ़ियां चढ़ती रहीं। उनका प्रेम और वियोग
1930
के दशक की सबसे चर्चित खबरों में से था लेकिन किसी को भी उनके अलगाव का असल कारण नहीं पता था।

 

बरसों बाद, खुद ग्रेटा गार्बो ने इस राज पर से परदा उठाया।

गार्बो आजादी पसंद युवती थीं। वह गिल्बर्ट के प्रेम से घबराती थीं। उन्हें लगता था कि शादी कर लेने के बाद गिल्बर्ट किसी भी साधारण पति की तरह उन पर हुक्म चलाएंगे और गार्बो की सारी आजादी समाप्त हो जाएगी।

वह आसपास ऐसी ही महिलाओं को देखती थीं। उन्होंने जिंदगी भर शादी नहीं की और कई बार इशारों में इसका कारण गिल्बर्ट के साथ हुए प्रेम और अलगाव को बताया। हालांकि आगे चलकर उनके जीवन में और भी प्रेमी आए लेकिन गिल्बर्ट के दिए भावनात्मक झटके को वह ताउम्र भुला नहीं पाईं। उन्होंने जो अकेलापन चुना था, उसके पीछे भी संभवत: यही कारण था।

 

उन्होंने जीवन अपनी शर्तों पर जिया। जो लोग जीवन को अपनी तरह से जीते हैं, उनके सामने हमेशा एक खतरा रहता है कि वे जीवन के किसी मोड़ पर अकेले पड़ जाएंगे। गार्बो ने खुद ही अकेलापन चुनकर उस खतरे को ही समाप्त कर दिया। इसे उनका एटिट्यूड और गुरूर भी माना गया।

 

महानतम अभिनेत्रियों में से एक होने के बाद भी गार्बो को ऑस्कर पुरस्कार नहीं मिल पाया।

1954
में जब उन्हें लाइफटाइम ऑनरेरी ऑस्कर देने का ऐलान हुआ तो वह उसे लेने भी नहीं गईं। 84 साल का लंबा जीवन जीने के बाद
1990
में उनकी मृत्यु हुई लेकिन उससे पहले वह न्यू यॉर्क में टूरिस्टों के आकर्षण का बड़ा केंद्र बन गई थीं।

 


उम्र
के आखिरी दशक में वह हर शाम अपने कुछ मित्रों के साथ वॉक पर निकलती थीं, तब उन्हें देखने के लिए सड़क के दोनों ओर पर्यटकों, पत्रकारों और फटॉग्रफर्स की भीड़ लगी रहती थी। हालांकि, तब भी उन्होंने किसी को इंटरव्यू नहीं दिया। बस, मित्रों के साथ सिर झुकाए, छड़ी पकड़ वॉक करती रहतीं।

The
End

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

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