368 वर्ष पहले भारत का मुगल इतिहास एक ऐसे मोड़ पर था जहाँ खून, विश्वासघात और सत्ता की भूख ने रिश्तों को चूर-चूर कर दिया।
औरंगजेब, जो एक साहसी योद्धा और कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरा, ने देहली के तख़्त के लिए अपने ही भाइयों—दारा शिकोह, शाह शुजा और मुराद बख्श—को एक-एक कर रास्ते से हटा दिया।
सत्ता की इस अंधी दौड़ में उसने न केवल अपने भाइयों को बल्कि अपने बेटे सुल्तान को भी बख्शा नहीं।
यह कहानी सिर्फ तख़्त की नहीं, बल्कि उस साम्राज्य की है जो खून से सींचा गया, और जिसकी नींव रिश्तों की राख पर रखी गई थी।
368 साल पहले, 29 मई 1658 को, सामूगढ़ की लड़ाई में औरंगजेब ने अपने भाइयों दारा शिकोह, शाह शुजा और मुराद बख्श को पराजित करके दिल्ली का सिंहासन प्राप्त किया। इस युद्ध में औरंगजेब ने दारा शिकोह को बुरी तरह हराया और बाद में उसे कैद कर लिया और मार डाला.
यह युद्ध शाहजहां की बीमारी के बाद उनके बेटों के बीच उत्तराधिकार के लिए छिड़े संघर्ष का हिस्सा था। मुराद बख्श को भी बाद में ग्वालियर के किले में कैद कर लिया गया था।
औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को भी आगरा किले में कैद कर दिया था.
मुगलों में सबसे बड़े बेटे को राजगद्दी मिलने की परंपरा नहीं थी। मध्य एशियाई परंपरा के अनुसार, सम्राट की मृत्यु के बाद सभी पुरुष सदस्यों का राजगद्दी पर समान अधिकार होता था।
इस मामले में, राजगद्दी के चार दावेदार थे-दारा (सबसे बड़ा), शुजा, मुराद और औरंगजेब। दारा सम्राट का पसंदीदा पुत्र था, इसलिए यह माना जाता था कि वह हिंदुस्तान का अगला बादशाह बनेगा। हालाँकि, परंपरा के अनुसार, चारों ने ही राजगद्दी पर अपना दावा पेश किया।
मुगल काल का इतिहास देखेंगे तो पाएंगे कि सिंहासन के लिए मुगलों के बीच काफी रक्तपात हुआ. दारा शिकोह को भी उसके भाई औरंगजेब ने मरवा दिया. इन दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ था.
सत्ता संघर्षऔरंगजेब ने अपने बेटे सुल्तान को भी नहीं छोड़ा.
जब औरंगजेब को लगा कि उसका बेटा सुल्तान भी उसके लिए खतरा साबित हो सकता है तो उसे खत्म कराने में पीछे नहीं हटा. इस कहानी की शुरुआत तब होती है तब जब औरंगजेब दारा शिकोह को रास्ते से हटाते हुए खुद सल्तनत पर कब्जा करने की फिराक में था.
इस पूरे किस्से को विदेशी चिकित्सक फ्रांस्वा बर्नियर ने अपने संस्मरण में दर्ज किया. बर्नियर 1658 में हिन्दुस्तान पहुंचा और दारा शिकोह का करीबी मित्र बना. इस दौरान मुगल साम्राज्य की कई दिलचस्प बातें संस्मरण में लिखीं.
शाहजहां और औरंगजेब बन गए थे दुश्मन-सामूगढ़ की जंग में औरंगजेब ने दारा को हरा दिया था.
सत्ता के षडयंत्र में उसके साथ शामिल भाई मुराद बख्श को लेकर वो आगरा की तरफ बढ़ चला. महल पहुंचने के बाद उसने शाहजहां को पैगाम भिजवाया. वफादारी की कसमों को जिक्र करते हुए उसने लिखा कि वो बादशाह शाहजहां का हुक्म सुनने आगरा आया हूं.
यह वो समय था जब पिता-पुत्र का एक-दूसरे पर भरोसा बुरी तरह टूट चुका था. शाहजहां अच्छी तरह जाते थे कि औरंगजेब के कहने और करने में जमीन आसमान का फर्क है.
शाहजहां ने बनावटी जवाब भेजा कि मुझे मालूम है कि दारा का बर्ताव ठीक नहीं है. इसलिए वो बिना कोई देरी अपने पिता के पास आए. यह पैगाम पढ़ने के बाद औरंगजेब की महल में जाने की हिम्मत नहीं हुई.
औरंगजेब को यह भी शक था कि कहीं यह पैगाम उसकी बहन जहांआरा ने न भिजवाया हो क्योंकि वो हर हाल में चाहती थी कि दारा ही बादशाह बने. अगर ऐसा हुआ और वो महल के अंदर गया तो बागी रुख अपनाने के लिए उसका मरना तय है. शाहजहां अपनी उस बेटी की बातों पर आंख बंद करके भरोसा करते थे.
इसलिए कई दिनों तक औरंगजेब ने महल के अंदर जाने की हिम्मत नहीं जुटाई. इस बीच औरंगजब के बड़े बेटे सुल्तान ने महल को कब्जे में ले लिया.
कब्जा करने से ठीक पहले सुल्तान आगरा के किले में दाखिल हुआ और कहा कि वो औरंगजेब का पैगाम लाया है.
यह सुनते ही पहरेदारों ने उसे काबू में कर लिया. ऐसा होता देखकर सुल्तान के साथियों ने पहरेदारों को घेरे में लेते हुए महल पर कब्जा कर लिया.
शाहजहां हैरान थे कि जो फंदा उसने दुश्मन के लिए बनाया था उसमें उसका अपना ही फंस गया. इसकी जानकारी मिलते ही शाहजहां ने सुल्तान को संदेश भिजवाया कि वो उसे बादशाह बनवा देगा, लेकिन फिलहाल उसे मेरा साथ देना होगा.
अगर सुल्तान ने बादशाह की बात मान ली होती तो अपने पिता की जगह वो मुगल बादशाह बनता.
औरंगजेब का हौसला टूट जाता और पिता के खिलाफ साजिश करने पर उसका भाई मुराद भी साथ छोड़ देता, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.
सुल्तान ने न तो शाहजहां की बात मानी और न उसने मिलने गया. सुल्तान ने शाहजहां से हर गेट की चाबियां मांगी ताकि वो औरंगजेब को पूरी सुरक्षा के साथ महल में ला सके.

आखिर ऐसा ही हुआ. पूरी सुरक्षा में औरंगजेब की एंट्री हुई, लेकिन अब भी उसे डर सता रहा था कि कहीं कोई दूसरा आगरा पर कब्जा न कर ले.
औरंगजेब को सबसे ज्यादा खतरा अपनी करीबियों से था.
इसमें सबसे बड़ा बेटा सुल्तान मोहम्मद और मीर जुमला से था. मीर जुमला वो शख्स था जिसने औरंगजेब को गोलकुंडा पर हमला करने और खजाना लूटने में मदद की थी.
सुल्तान से खतरा इसलिए भी था क्योंकि जिस महल में वो खुद एंट्री नहीं कर पा रहा था उसमें बेटे सुल्तान ने बिना उससे पूछे कब्जा कर लिया था. वहीं, मीर जुमला से इसलिए डर था क्योंकि वो साहसी और जोशीला होने के साथ बुद्धिमान भी था. बहुत महत्वकांक्षी था.
औरंगजेब ने दोनों को सुल्तान और मीर जुमला को आगरा से दूर भेजने की योजना बनाई. दारा को कमजोर करने के बाद दूसरे भाई शाह शूजा को गिरफ्तार करने के लिए एक सेना बनाई बनाई. इस सेना की कमान मीर जुमला को दी. कहा, तुम बंगाल पर कब्जा करो और गवर्नर बनने की तैयारी करो.
अब उसने सुल्तान को आगरा से दूर करने के लिए उसे षडयंत्र का हिस्सा बनाया. कहा- जब तक शाह शुजा को हराया नहीं जाता तब तक यह कहना मुश्किल होगा कि तुमने कोई इतिहास रचा है. इस तरह औरंगजेब ने दोनों को रवाना किया और आगरा पर पूरी तरह राज करना शुरू कर दिया.
शाह शुजा को रास्ते से हटाने के लिए मिशन में दोनों साथ भेजे गए थे. मिशन के बीच दोनों के बीच तनातनी हो गई.
सुल्तान चाहता था कि फौज की कमान मीर के पास नहीं, बल्कि उसके पास हो. वो अपनी कामयाबी की कहानी कहता रहता था. वह कहता था, उसके कारण ही आगरा का किला औरंगजेब को मिला.
ये बातें औरंगजेब तक पहुंच गईं. इसकी जानकारी सुल्तान को भी मिल गई. उसे लगा कि पिता औरंगजेब उसे गिरफ्तार करा सकते हैं, इससे बचने के लिए वो शाह शुजा के पास जा पहुंचा.
शाह शुजा को लगा कि इसमें औरंगजेब की कोई चाल है, इसलिए उसने भी सुल्तान की कोई मदद नहीं की. अंतत: सुल्तान दोनों तरफ से उम्मीद हार गया.
अंतत: वही हुआ जिसका डर था. औरंगजेब के हुक्म के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया और ग्वालियर के किले में ले जाया गया.
कुछ समय बाद शाहजादे को दिल्ली में यमुना किनारे बने सलीमगढ़ के किले में रखा. करीब एक साल तक कैद में रखने के बाद 1676 में जहर देकर मरवा दिया.
मुगल बादशाह शाहजहां 1657 के सितंबर माह में गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। वो मूत्र संबंधी समस्याओं और कब्ज से जूझ रहे थे।
इस कारण लंबे समय तक जनता को झरोखा दर्शन नहीं दे रहे थे। इससे अटकलें लगने लगीं कि कहीं बादशाह का इंतकाल तो नहीं हो गया।
इन्हीं अटकलों के बीच शाहजहां के चार पुत्रों दारा शिकोह, शाह शुजा, औरंगजेब और मुराद बख्श के बीच शाही सिंहासन पर वर्चस्व का बेहद भयावह संघर्ष छिड़ गया।
यह संघर्ष 28 मई को दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच युद्ध में तब्दील हुआ। आइए, 368 वर्ष पहले आज ही के दिन सामुगढ़ के मैदान में हुए युद्ध की कहानी जानते हैं।
शाहजहां ने अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को अपना उत्तराधिकारी नामित किया था।
शाहजहां की मृत्यु की अफवाहों के बीच औरगंजेब ने मुराद और कुछ हद तक शुजा के साथ गुप्त पत्राचार शुरू कर दिया। उसने मुराद के साथ गठबंधन करने में सफल रहा।
औरंगजेब ने अपनी जीत पर मुराद को पंजाब, सिंध, काबुल और कश्मीर सहित मुगल क्षेत्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा देने का वादा किया। हालांकि, यह गठबंधन औरंगजेब की ओर से एक रणनीतिक छल था, क्योंकि उसने बाद में मुराद को धोखा देकर मार डाला।
शाही परिवार में जब गुटबंदी का दौर चरम पर था, तब राजकुमारी जहांआरा बेगम ने बड़े पैमाने पर दारा का समर्थन किया तो उनकी बहन रोशनआरा बेगम ने औरंगजेब का खुलकर साथ दिया।

शाह शुजा सैन्य कार्रवाई शुरू करने वाले पहले भाइयों में से था, जिसने अपनी सेना को बंगाल से आगरा की ओर मार्च किया।
जवाब में दारा शिकोह ने शुजा को रोकने के लिए एक पर्याप्त शाही सेना भेजी।
बहादुरपुर की लड़ाई 24 फरवरी, 1658 को बनारस से लगभग 5 मील उत्तर-पूर्व में हुई ।
इस मुकाबले में शुजा की सेना निर्णायक रूप से पराजित हुई, और उसे बंगाल की ओर पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
उधर, औरंगजेब और मुराद ने आगरा की ओर उत्तर की ओर अपना संयुक्त मार्च शुरू किया। इसी क्रम में दोनों की सेनाएं गंभीर नदी पर धर्मत गांव में इकट्ठा हुईं।
यहीं उनका सामना शाहजहां की भेजी गई शाही सेना से हुआ, जिसकी कमान महाराजा जसवंत सिंह राठौर ने संभाली थी।
वो दारा शिकोह के सहयोगी थे। 15 अप्रैल, 1658 को नर्मदा नदी के तट पर लड़ी गई धर्मत की लड़ाई में औरंगजेब और मुराद ने निर्णायक जीत हासिल की।

सामुगढ़ की लड़ाई
सामूगढ़ की लड़ाई दारा शिकोह (सबसे बड़े बेटे और उत्तराधिकारी) और उसके तीन छोटे भाइयों औरंगजेब , शाह शुजा और मुराद बख्श (शाहजहाँ के तीसरे और चौथे बेटे) के बीच लड़ी गई दूसरी लड़ाई थी , ताकि यह तय किया जा सके कि उनके पिता के बाद सिंहासन का उत्तराधिकारी कौन होगा।
सामुगढ़ की निर्णायक लड़ाई 28 मई, 1658 को लड़ी गई थी। यह युद्ध आगरा से लगभग 16 से 20 किमी पूर्व या दक्षिण-पूर्व में यमुना नदी के दक्षिण में स्थित सामुगढ़ गांव के पास एक विशाल, धूल भरे मैदान में लड़ा गया था।
तब भीषण गर्मी और भट्ठी जैसी तपा देने वाली धूप थी। इस लड़ाई में दारा शिकोह ने एक बड़ी गलती की। वो हाथी से उतर गए। सैनिकों ने हाथी पर बने होदे को खाली देखा तो उन्हें लगा कि राजा मारे गए या युद्ध मैदान से भाग गए। उनमें घोर निराशा छा गई और एक जीतती हुई सेना हार गई।
दोनों पक्षों के पास लगभग 50,000 से 60,000 सैनिक थे, हालाँकि औरंगज़ेब एक बेहतर सेनापति था और उसकी सेना अधिक अनुभवी थी। दारा अपने हाड़ा राजपूतों और बरहा के सैयदों पर निर्भर था, लेकिन उसकी सेना का बड़ा हिस्सा जल्दबाजी में भर्ती किया गया था और उसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं था।
दारा अति आत्मविश्वासी भी था और उसने अपने पिता के साम्राज्य के कुलीन वर्ग से मदद लेने की कोशिश नहीं की।
दारा शिकोह ने तोपों से युद्ध शुरू किया, जो एक घंटे तक जारी रहा। रुस्तम खान के नेतृत्व में दारा की घुड़सवार सेना ने सैफ शिकन खान के नेतृत्व में औरंगजेब की तोपखाने पर हमला किया, रुस्तम पर जल्द ही औरंगजेब की पैदल सेना ने हमला कर दिया और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर हमला करना शुरू कर दिया।
हालाँकि, रुस्तम के लड़ते हुए मारे जाने और उसके मरने के बाद उसके आदमी भाग जाने के कारण दारा का नेतृत्व कमज़ोर होता गया।
औरंगजेब की सेना में, बहादुर खान गंभीर रूप से घायल हो गया और अपने घोड़े से गिर गया, लेकिन औरंगजेब ने बहादुर की सहायता के लिए शेख मीर के नेतृत्व में तुरंत सुदृढीकरण भेजा।
दारा के राजपूत, जो दारा की सेना के अग्रिम और दाहिने हिस्से का गठन करते थे, औरगजेब के आगे घुसने में सक्षम थे और उन्होंने जुल्फिकार और मुराद पर हमला किया।
लड़ाई में मुराद घायल हो गया और औरंगजेब के बाएं हिस्से को राजपूतों ने पूरी तरह से हरा दिया, जिन्होंने अब औरंगजेब के केंद्र पर हमला किया।
हालाँकि, औरंगजेब ने राजपूतों को काटने और उनकी बढ़त को रोकने के लिए अपनी संख्या का इस्तेमाल किया। राजपूतों को गिरता देख दारा शिकोह अनिर्णायक हो गया और उसने अपने हाथी से उतरकर पीछे हटने का फैसला किया।
शुरुआत में दोनों के बीच कांटे की टक्कर हुई. दारा शिकोह एक समय अपने भाई औंरगजेब पर भारी पड़ रहे थे. दरअसल युद्द के समय दारा हाथी पर बैठा था.
खलीलउल्लाह खान ने उन्हें सलाह दी कि वो इससे उतर कर घोड़े पर बैठें क्योंकि हाथी पर बैठने से आपको दुश्मन आसानी से निशाना बना सकते हैं. दारा ने सलाह मान ली और वो घोड़े पर सवार हो गया.


यहीं से पूरे युद्ध का माहौल बदल गया. दारा के सैनिकों ने देखा कि हौदे में कोई नहीं है. उन्हें लगा कि या तो दारा मारे जा चुके हैं नहीं तो पकड़े गए है. इस अफवाह के फैलने के बाद दारा के सैनिक युद्ध के रण से पीछे की तरफ जानेलगे.
इस युद्द में इटालियन इतिहासकार मनूची के हवाले से बता गया कि दारा ने जब अपने सैनिकों को आगे बढ़ने का हुक्म दिया तो उसके सैनिक तोप पीछे ही छोड़ आए.
ये ही गलती उन्हें भारी पड़ी और दारा शिकोह को मैदान छोड़कर भागना पड़ा और उसका बादशाह बनने का सपना टूट गया.
दारा शिकोह की सेना गोइंदवाल भाग गई जहाँ गुरु हर राय ने अपनी सेना, अकाल सेना को औरंगज़ेब की सेना को दारा शिकोह का पीछा करने से रोकने और विलंब करने के लिए तैनात किया था।
अपनी जीत के बाद, औरंगजेब ने अपने भाई मुराद और पिता शाहजहाँ को कैद कर लिया, जबकि दारा भाग निकला और उसने फिर से औरंगजेब से लड़ने की कोशिश की लेकिन वह हार गया और 1659 में उसे मार दिया गया।

आलमगीर की उपाधि के साथ गद्दी पर बैठा औरंगजेब
इस जीत के बाद, औरंगजेब ने तेजी से अपने प्रतिद्वंद्वियों मुराद बख्श और शाह शुजा को समाप्त कर दिया और अपने पिता शाहजहां को आगरा किले में कैद कर लिया।
21 जुलाई, 1658 को दिल्ली में ‘आलमगीर’ की उपाधि के साथ उनका राज्याभिषेक हुआ, जिसने मुगल सिंहासन पर उनके प्रभुत्व को मजबूत किया।
उधर, दारा शिकोह सामुगढ़ की लड़ाई में अपनी विनाशकारी हार के बाद युद्धक्षेत्र से भाग गए।
वो आगरा से दिल्ली, फिर लाहौर, मुल्तान और अंततः सिंध में थट्टा तक गए। फिर कच्छ के कठिन रण से होकर काठियावाड़ तक पहुंच।
वहां उन्हें गुजरात के गवर्नर शाह नवाज खान से अस्थायी राहत और सहायता मिली, जिन्होंने दारा को एक नई सेना भर्ती करने में मदद करने के लिए खजाना खोल दिया। दारा इस सेना के साथ आगरा की तरफ बढ़े।
औरंगजेब की सेना के साथ उनका सामना अजमेर के पास देओराई में हुई। वहां, 12 से 14 अप्रैल, 1659 के बीच दोनों के बीच लड़ाई हुई। इस लड़ाई में भी दारा की हार हुई और वो कंधार की तरफ भाग गए।
उत्तराधिकार की लड़ाई अफ़गान सरदार मलिक जीवन द्वारा विश्वासघात के बाद दारा के पकड़े जाने के साथ समाप्त हुई.
जिसकी जान शाहजहाँ ने दारा की मध्यस्थता से पहले ही बख्श दी थी। 1659 ई. की गर्मियों में औरंगजेब के आदेश पर उन्हें दिल्ली भेजा गया।
इसके बाद जो हुआ, वह मध्ययुगीन मानकों के हिसाब से भी अस्वीकार्य था। दारा और उनके छोटे बेटे सिफिर को फटे-पुराने कपड़े पहनाकर एक बूढ़े हाथी पर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया।

मुगल दरबार में आने वाले फ्रांसीसी यात्री फ्रैंकोइस बर्नियर ने हमें बताया कि इस तमाशे को देखने के लिए इकट्ठा हुई भीड़ पिता और बेटे के अपमान से हैरान रह गई थी।
अपमान के अगले दिन औरंगजेब के सीधे आदेश पर दारा का सिर काटकर हत्या कर दी गई।
कुछ समकालीन स्रोतों ने उल्लेख किया कि औरंगजेब ने फांसी को सही ठहराने के लिए दारा के इस्लाम से धर्मत्याग का हवाला दिया। दूसरों ने बस दारा की मौत का उल्लेख किया। औरंगजेब के लिए, इसका मतलब बस उसके शासन के एक विरोधी का अंत था।
शायद दारा इस तरह की मौत के लायक नहीं था। बादशाह के बाद के कार्यों से पता चलता है कि उसने दारा के पूर्व समर्थकों के साथ सम्मान और उदारता से व्यवहार किया और अपने भाई के सैनिकों और उनके मुख्य सलाहकारों को बिना किसी प्रतिशोध के अपने प्रशासन में स्वागत किया।
औरंगजेब ने दारा शिकोह का सिर मंगवाया और उसे विकृत करवाया, फिर जेल में बंद रखे गए पिता शाहजहां को इसकी सूचना भिजवाई। दारा के अवशेषों को दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के भीतर एक अज्ञात कब्र में दफनाया गया है।

1670 के दशक में, औरंगजेब ने अपनी बेटी जुबातुन्निसा की शादी दारा के छोटे बेटे सिफिर शुकोह से और अपने बेटे अकबर की शादी दारा के बड़े बेटे सुलेमान शुकोह की बेटी से कर दी।
तो यहाँ, आप एक जटिल चरित्र के दिमाग को काम करते हुए देखते हैं, जो एक मारे गए प्रतिद्वंद्वी के परिवार को मनाने की कोशिश कर रहा है।
The End
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