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धुंआ धुंआ ज़िंदगी-लाइफ़ इन मेट्रो; ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी आ गया. और वे दोनों ‘एक्स’ हो गए. (नंद किशोर बर्वे)

by Engr. Maqbool Akram
May 2, 2025
in Stories
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उस जन सैलाब के साथ वे लोकल के उस डिब्बे में चढ़ गईं. रोज़ की तरह. मुंबईकरों की ज़िंदगी कही जानेवाली लोकल की खट-खट के साथ क़दम मिलाने को मजबूर अधिकांश लोगों की ज़िंदगी इसी तरह खटते हुए गुज़रती जाती है. एकाध स्टेशन जाते न जाते उनको बैठने की जगह मिल गई. उन्होंने अगले स्टेशन से चढ़नेवाली अपनी मित्र के लिए भी जगह रोक कर रख ली. अगला स्टेशन आते ही वैसी ही चढ़-उतर के बीच उनकी मित्र किसी तरह उन तक पहुहेलो, हाय.

इधर-उधर की कुछ हल्की-फुल्की बातों के बाद वृंदा ने अणिमा से पूछा,‘‘क्या हुआ कल?’’इस पर बाक़ी दोनों मित्रों जूली और ज़ाहिदा ने भी अपनी उत्सुक नज़रें उसपर गड़ा दीं. अणिमा ने एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ी और मौन खिड़की के बाहर देखने लगी. हालांकि अंदर ही अंदर वह व्यग्र भी थी और उग्र भी. उसके मौन पर जब जूली ने उससे फिर पूछना चाहा तो वृंदा ने उसे इशारे से चुप रहने को कहा. और वे अपने अपने वॉट्सऐप में खो गईं.

अचानक ज़ाहिदा खिलखिलाकर हंस पड़ी. उसके पास कोई मज़ेदार जोक आया था. उसने हंसते-हंसते पढ़कर सुनाया तो जूली और वृंदा भी उसके साथ हंस पड़ीं. मगर अणिमा अभी भी अनमनी-सी ही थी. कुछ देर तक लोकल अपनी गति से चलती-रुकती रही. लोग चढ़ते-उतरते रहे. इस बीच अणिमा ने सामान्य होने की कोशिश की, पर असफल रही.

‘‘साला अड़ियल,’’ उसके मुंह से निकल ही गया. इसके साथ ही मानो उसके मुंह में कुनैन घुल गया हो.
‘‘हां, सारे मर्द एक जैसे ही होते हैं. अड़ियल. कोई कम तो कोई ज़्यादा.’’ वृंदा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उससे सहमति जताई. ‘‘कल तेरी काउंसलिंग थी ना? क्या हुआ उसमें?’’ वृंदा ने दोबारा सहानुभूति-पूर्वक पूछा.

‘‘काउंसलिंग! हुंह. जाके पैर ना फ टे बिवाई वो का जाने पीर पराई?’’ अणिमा ने जैसे इस मुहावरे में अपने मन की बात कहने की कोशिश की. जिन्होंने कभी शादी नहीं की या जो ख़ुद अपना घर तोड़कर बैठे हैं, वे हमें बता रहे हैं कि शादी कैसे बनाए रखें? यही होती है काउंसलिंग. कल भी वही हुआ जो हमेशा होता है. वह अपनी बात पर अड़ा था और मैं उसे राजी करने की कोशिश कर रही थी,’’ अणिमा के मन का सारा ग़ुबार एक ही बार में निकल पड़ा.

‘‘अरे पर उसे प्रॉब्लम क्या है? शादी के बाद जैसे लड़के अपने माता-पिता की देखभाल करते हैं, वैसे ही ज़रूरत पड़ने पर लड़कियां अपने माता-पिता की देखरेख कर लें तो कौन सा अनर्थ होने वाला है?’’ ज़ाहिदा के शब्दों में उत्तेजना और समझाइश का मिलाजुला भाव था.

असल में ये चारों मित्र अपने अपने कारणों से दुखी हैं. सभी को लगता है कि बाक़ियों का दुख मुझसे अधिक है. और यही दिलासा उन्हें वर्तमान में बने रहने की हिम्मत देती है. चारों की पारिवारिक सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि अलग अलग होने के बावजूद जो एक बात साझा थी, वह थी उनके वैवाहिक जीवन की उठापटक. कोई उस संघर्ष को पार कर चुकी है तो किसी की लड़ाई अभी जारी है.

अणिमा, जो आज के घटनाक्रम की केंद्र बिंदु है, अपने माता-पिता की इकलौती संतान है. अच्छे खाते-पीते घर की बेटी को उन्होंने अपने से भी ज़्यादा संपन्न परिवार में ब्याहा है. नासिक के पास गांव में पली-बढ़ी और शादी के बाद ठिकाना हुआ मुंबई. माता-पिता वहीं गांव में खेती करते हैं, लेकिन अब उन पर वृद्धावस्था हावी होने लगी है. इसी कारण अक्सर बीमार रहते हैं. प्रोस्टेट कैंसर के बाद उसके बाबा और भी कमज़ोर हो गए हैं.

परिणाम ये कि खेती नहीं कर पाते. बेचारी मां अकेली खेती देखें या उन्हें? इसलिए वे अब खेती को हिस्सेदारी में देना चाहते हैं. माता-पिता को उनके जीवन के संध्या काल में संतान नहीं देखे तो कौन देखे? पिता यदि वृद्ध हैं तो मां भी उनकी हमक़दम ही होती है. दो-चार क़दम पीछे ही सही. ऐसे में अणिमा उनके पास अक्सर ही मुंबई से गांव आती-जाती रहती है. ख़ासतौर पर वीकएंड्स में. उसके पति से उसकी इसी बात को लेकर तकरार होती रहती है.

अणिमा का अपने गांव जाना उसे फूटी आंख नहीं सुहाता. अणिमा के अपने तर्क हैं, अपने माता-पिता की देखभाल के. दोनों ही अपने अपने स्टैंड पर क़ायम हैं. इसका परिणाम अंतत: तलाक़ तक आ पहुंचा है. परिवार कोर्ट में अणिमा ने ही तलाक़ के लिए आवेदन किया है.

हालांकि वह जानती थी कि ऐसा करने से वह अपने पति से पर्याप्त मुआवज़ा नहीं ले सकेगी. ‘मुझे पैसों की नहीं माता-पिता के साथ रहने की ज़्यादा ज़रूरत है’ वह कहती है. परिवार कोर्ट ने कल इसी सिलसिले में उन दोनों को समझाइश देने के लिए बुलाया था. और इसी के बारे में बाक़ी मित्र जानना चाह रही थीं.

‘‘देख लो यार ज़िंदगी समझौतों का दूसरा नाम है,’’ ज़ाहिदा ने कहा. इस घटनाक्रम से वह ख़ुद को जोड़कर देखने लगी. वह उत्तर प्रदेश के छोटे–से शहर में जन्मी और पली–बढ़ी.

अपनी जन्मजात सुंदरता के कारण वह हमेशा से ही ग्लैमर की दुनिया की ओर आकर्षित थी. घर-परिवार के विरोध के बावजूद एक दिन घर से भागी और अगली सुबह मुंबई में थी. गांठ का पैसा ख़त्म होते-होते उसे एकबारगी लगा कि मुंबई उतनी आसान नहीं है, जितनी वह सुनहरे पर्दे पर दिखती है. लेकिन वापसी के सारे रास्ते तो वह ख़ुद ही बंद कर आई थी इसलिए जैसे भी हो यहीं रहने की मजबूरी थी.

धारदार हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. उसने वही किया भी. जो भी मिला उसे इस्तेमाल करते हुए वह आगे बढ़ती गई. बहुत कुछ खोने के बावजूद वह पहुंची सिर्फ़ एक्स्ट्रा तक! कभी-कभार किसी फ़िल्म या सीरियल में छोटे-मोटे रोल मिल जाते.

जिस ‘कास्टिंग काउच’ की चर्चा अक्सर होती है, उसे उसने बरसों भोगा है. शुरू में उसने लोगों का इस्तेमाल किया और लोग अब उसको इस्तेमाल कर रहे हैं.

अब हालांकि उसने शादी कर ली है, लेकिन उसका अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ता है. उसका शौहर उसे अक्सर ही इस बात का ताना देता है कि उसने सब कुछ जानते हुए भी उससे शादी की है. वह ड्रग ऐडिक्ट है और बेरोज़गार भी. ज़ाहिदा ही घर चलाती है फिर भी ज़ाहिदा पर उसकी मनमानी चलती ही रहती है. वह ज़रा भी मुंह खोलती है तो वह तलाक़ की धमकी देता है.

वह चाहती है कि उसकी भी एक औलाद हो, जो उसके बुढ़ापे का सहारा बन सके. लेकिन ज़ाहिदा की उम्र अब ढलने लगी है. वह अब चाहकर भी मां नहीं बन सकती क्योंकि वह इतने एबॉर्शन करवा चुकी है कि उसका शरीर खोखला हो गया है. वह तो भला हो उस प्रोड्यूसर का, जिसने उसे अपने ऑफ़िस में नौकरी दे रखी है.

अपने शबाब के दिनों वह तब उससे मिली थी जब उसकी पत्नी का देहांत हुआ ही था. ऐसे में ज़ाहिदा ने उसकी ज़रूरतें पूरी कीं. वह कम से कम इतना भला तो है कि उसने ज़ाहिदा को अब तक अपने यहां नौकरी पर रखा है. यहीं उसे अशफ़ाक मिला था, जो अब उसका शौहर है.

 

‘‘बाय-बाय अपना ठिकाना तो आ गया,’’ ज़ाहिदा ने कहा और वह उस स्टेशन पर उतर गई. ‘‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती. है ना?’’ अणिमा ने कहा उसकी इस बात पर जूली और वृंदा ने सहमति जताई. उनकी बातों में ज़ाहिदा के लिए सहानुभूति होने के बावजूद थोड़ा-सा उपहास भी था.

‘‘तेरा सोना क्या कहता है? तू तो कहती है कि वह भी मिलावटी सोना है?’’ अणिमा ने वृंदा से पूछा.

‘‘हां वह मिलावटी ही निकला. खरा सोना तो जैसे आजकल खदानों से निकलना ही बंद हो गया है. हमको शुरू में लगता है कि यह थोड़ा अलग है, लेकिन समय बीतने के साथ यह भ्रम टूटने लगता है,’’ वृंदा ने कहा और उसका मूड ऑफ़ होने लगा. अणिमा उसके बारे में सोचने लगी.

वृंदा से उसकी दोस्ती महज दो-तीन साल पुरानी है, जब अणिमा शादी के बाद मुंबई आई. तब वह स्टेशन के पास के मंदिर में रोज़ाना दर्शन के लिए आती. वहीं उनकी पहचान हुई फिर दोस्ती. वृंदा जन्म से मुंबईकर है. उसके पापा ने उसकी मम्मी के रहते हुए ही दूसरी शादी कर ली थी. इस कारण वृंदा के होश संभालते न संभालते वे उन लोगों से अलग रहने लगे थे.

वृंदा और उसके छोटे भाई को मां ने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मां, पिता दोनों का प्यार देकर पाला-पोसा और पढ़ाया. अब वृंदा की उम्र शादी लायक है, बल्कि ईमानदारी से कहें तो शादी की उम्र निकल रही है. लेकिन अपने पिता की बेवफ़ाई से मां को हुई पीड़ा को उसने बहुत शिद्दत से देखा और महसूस किया है इसलिए वह शादी की हिम्मत नहीं जुटा पाती है. मां उसको समझा-समझाकर थक गई है.

‘‘आपने शादी करके क्या सुख पाया? ’’ वह अक्सर ही मां से पूछती है. इस बात का मां के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं होता. फिर भी वे कहती हैं, ‘‘दुनियादारी चलाने के लिए शादी ज़रूरी है.’’
‘‘मुझे नहीं चलानी दुनियादारी,’’ वह उखड़ जाती है.

‘‘अच्छा सोच अगर मैंने शादी नहीं की होती तो तू और मोनू कहां से आते? जो तुम आज मेरा सहारा हो न सिर्फ़ जीने का, बल्कि मेरे एकाकीपन का भी,’’ मां उसे प्यार से समझाती. वह इस पर चुप हो जाती.

‘‘ठीक है मैं सोचती हूं,’’ एक दिन उसने मां का मन रखने के लिये यूं ही कह क्या दिया, बस उसी दिन से मां हर रोज़ रात के खाने पर उसकी ओर उत्सुकता से देखती तो वह उनसे आंख नहीं मिला पाती.

‘‘मेरे ऑफ़िस की एक कलीग का भाई है इंदौर में. उसका ख़ुद का बिज़नेस है कंस्ट्रक्शन का. वे लोग एक संस्कारवान लड़की देख रहे हैं. तू कहे तो मैं बात करूं?’’ एक दिन मां ने उससे सीधे ही पूछा.

‘‘इंदौर… हुंह! मुझे नहीं जाना मुंबई से बाहर. मुंबई के अलावा भी कोई शहर है क्या रहने लायक?’’ वृंदा ने आउट राइट वीटो कर दिया.

एक दिन वह शाम को अपने एक कलीग के साथ आई. उसे मां और भाई से मिलवाया. बातचीत में वृंदा ने कहा कि यदि वे लोग चाहेंगे तो अब वह उनके साथ ही रहेगा, ताकि उसका रहन-सहन बात व्यवहार देखा परखा जा सके. और सब ठीक रहा तो वह उससे शादी कर लेगी. जब मां और भाई ने विरोध किया तो वृंदा ने फिर उसके साथ कहीं और रहने की बात कही.

मां को अंतत: यह सोचकर हार माननी पड़ी कि वे लोग यहीं रहेंगे तो कम से कम लड़की आंखों के सामने तो रहेगी. ‘लोग क्या कहेंगे’ का टेंशन तो वे अपने पति से अलगाव के समय ही छोड़ चुकी थीं. माधव, यही नाम था उसका उनके साथ रहने लगा. इस बात पर भाई घर छोड़कर चला गया. थोड़े दिन सब ठीक चला.

वृंदा की मां यह सोचकर मन ही मन ख़ुश थी कि चलो बेटी का घर बस जाएगा, लेकिन माधव जल्दी अपने मूल रूप में सामने आने लगा. वह वृंदा से शारीरिक संबंधों के लिए कहने लगा. वृंदा इसके लिए क़तई तैयार नहीं थी. एक दिन वह उसपर बुरी तरह बिफर पड़ी. उस रात को तो हद ही हो गई. माधव उसके कमरे में चुपके से दाख़िल हो गया और ज़्यादती पर उतर आया.

 

मां की मदद से ही वह ख़ुद को बचा सकी. उसी समय उन्होंने उसको अपने घर से निकाल दिया. और वृंदा बुरी तरह हर्ट होकर फिर अकेली हो गई. अब मां भी बहुत वृद्ध हो चली हैं. ऐसे में मां की पूरी ज़िम्मेदारी वृंदा पर ही आ गई. ‘‘मैंने आपसे ही शादी कर ली है समझो,’’ वह मां से अक्सर मज़ाक में कहती है. अगले स्टेशन पर वृंदा और अणिमा उतर गईं. फिर रह गई जूली अकेली. वह अगले स्टेशन पर उतरती है इसलिए उन दोनों के साथ ही गेट तक आ गई थी.

‘‘हेलो जूली कैसी हो?’’ अचानक उसके पीछे से आवाज़ आई. वह आवाज़ से ही पहचान गई कि वह उसका एक्स हस्बंड गगन है, जो सीखचों के पार दूसरे कोच में खड़ा था.

‘‘ठीक हूं,’’ उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और अपने मोबाइल से खेलने लगी.
‘‘अब तक नाराज़ हो?’’ गगन ने मनुहार से पूछा.
‘‘नहीं.’’
‘‘मुझे तुमसे कुछ बात करनी है.’’
‘‘लेकिन मुझे नहीं करनी, प्लीज़. आप अपना काम कीजिए,’’

उसने दबी ज़ुबान से लेकिन दृढ़ शब्दों में कहा तो गगन थोड़ा सहम गया. हालांकि स्टेशन का फ़ासला कुछ ही मिनटों का था लेकिन जूली को उस समय वे कुछ मिनट कई दिनों के समान लगे. इन कुछ पलों में गगन को पिछले साल डेढ़ साल की घटनाओं का स्मरण हो आया. उस समय गगन और जूली दोनों एक ही ऑफ़िस में थे. शुरुआती हेलो, हाय के बाद वे मित्रता और प्यार के पड़ावों से गुज़रते हुए जल्दी ही शादी के स्टेशन पर आकर खड़े हो गए.

गगन और जूली के बीच धर्म का कोई झगड़ा नहीं था, बल्कि रहन-सहन, खान-पान और पारिवारिक पृष्ठभूमि का बड़ा फ़र्क़ था. मित्रों और परिवार की तमाम समझाईश के बावजूद दोनों ने किसी की एक नहीं सुनी. शादी के बाद जल्दी ही दोनों को लगा कि परस्पर जीवन निर्वाह मुश्क़िल ही नहीं नामुमक़िन है. उन्होंने महसूस किया कि ज़िंदगी के शादी जैसे बडे़ फ़ैसले जल्दबाज़ी में नहीं लिए जाने चाहिए.

ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी ही आ गया. और वे दोनों ‘एक्स’ हो गए.

इसी दौरान जूली ने अपना जॉब भी स्विच किया. साथ ही गगन के हिसाब से अपनी शिफ़्ट भी, ताकि आते-जाते उससे सामना न हो. गगन आज किसी तरह से मैनेज करके उससे मिलने आया था. लेकिन जूली से ऐसे व्यवहार की उसको बिल्कुल उम्मीद नहीं थी. इसी कारण वह व्यथित हो गया था, पर उसके पास जूली की बेरुख़ी को सहने के सिवा कोई चारा न था.

 

अपने वैवाहिक दिनों में भी दोनों परस्पर एक दूसरे को न समझ पाने को आरोप लगाते थे. शायद आज भी यही हुआ. इतने में स्टेशन आ गया. जूली की तो जैसे जान में जान आई. वह जल्दी से उतरकर भीड़ में खो गई. गगन की बेचैन आंखें उसे खोजती ही रह गईं.

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short  Hindi story with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.

 

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

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March 17, 2025
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