Blogs of Engr. Maqbool Akram

एक रात:(रबीन्द्रनाथ टैगोर): आज संसार छोड़कर सुरबाला मेरे पास आकर खड़ी थी। केवल एक और लहर की ज़रूरत थी जो सदैव के लिए हमें एक कर देती।

एक ही पाठशाला में सुरबाला के साथ पढ़ा हूं, और बउबउ (छोटी लड़कियों का खेल, जिसमें लड़कियां घूंघट निकालकर बहू बनने का अभिनय करती हैं) खेला हूं। उसके घर जाने पर सुरबाला की मां मुझे बड़ा प्यार करतीं और हम दोनों को साथ बिठाकर कहतीं, ‘वाह, कितनी सुन्दर जोड़ी है।

 

छोटा था, किन्तु बात का अभिप्राय प्रायः समझ लेता था। सुरबाला पर अन्य सर्वसाधारण की अपेक्षा मेरा कुछ विशेष अधिकार था, यह धारणा मेरे मन में बद्धमूल हो गई थी। इस अधिकारमद से मत्त होकर उस पर मैं शासन और अत्याचार करता होऊं, ऐसी बात थी। वह भी सहिष्णुभाव से हर तरह से मेरी फरमाइश पूरी करती और दण्ड वहन करती।

 

मुहल्ले में उसके रूप की प्रशंसा थी, किन्तु बर्बर बालक की दृष्टि में उस सौन्दर्य का कोई महत्त्व नहीं थामैं तो बस यही जानता था कि सुरबाला ने अपने पिता के घर में मेरा प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए ही जन्म लिया है, इसीलिए वह विशेष रूप से मेरी अवहेलना की पात्री

 

मेरे पिता चौधरी जमींदार के नायब थे। उनकी इच्छा थी, मेरे काम करने योग्य होते ही मुझे जमींदारीसरिश्ते का काम सिखाकर कहीं गुमाश्तागिरी दिला दें। किन्तु मैं मनहीमन इसका विरोधी था।

 

हमारे मुहल्ले के नीलरतन जिस तरह भागकर कलकत्ता में पढ़नालिखना सीखकर कलक्टर साहब के नाजिर हो गए थे उसी तरह मेरे जीवन का लक्ष्य भी अत्युच्च था,‘कलक्टर का नाजिर बन सका तो जजी अदालत का हेड क्लर्क हो जाऊंगा’, मैंने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था।

Rabindranath Tagore


मैं हमेशा देखता कि मेरे पिता इन अदालत जीवियों का बहुत सम्मान करते थेअनेक अवसरों पर मछलीतरकारी, रुपए पैसे से उनकी पूजा अर्चना करनी पड़ती, यह बात भी मैं बाल्यावस्था से ही जानता था; इसलिए मैंने अदालत के छोटे कर्मचारी, यहां तक कि हरकारों को भी अपने हृदय में बड़े सम्मान का स्थान दे रखा था।

 

नीलरतन के दृष्टांत से उत्साहित होकर मैं एक दिन विशेष सुविधा पाकर कलकत्ता भाग गया। पहले तो गांव के एक परिचित व्यक्ति के घर ठहरा, उसके बाद पढ़ाई के लिए पिता से भी थोड़ीबहुत सहायता मिलने लग गई

 

पढ़नालिखना नियमपूर्वक चलने लगा। इसके अतिरिक्त मैं सभासमितियों में भी योग देता। देश के लिए प्राणविसर्जन करने की तत्काल आवश्यकता है, इस विषय में मुझे कोई सन्देह था।

 

किन्तु, यह दुस्साध्य कार्य किस, प्रकार किया जा सकता है, यह मैं नहीं जानता था; इसका कोई दृष्टांत ही दिखाई पड़ता था। पर इससे मेरे उत्साह में कोई कमी नहीं आई। हम देहाती थे, कम उम्र में ही प्रौढ़ बुद्धि रखने वाले कलकत्ता वालों की तरह हर चीज का मज़ाक उड़ाना हमने नहीं सीखा था;

 

इसलिए हम लोग चन्दे की किताब लेकर भूखेप्यासे दोपहर की धूप से दरदर भीख मांगते फिरते, किनारे खड़े होकर विज्ञापन बांटते, सभास्थल में जोकर बेंचकुर्सी लगाते, दलपति के बारे में किसी के कुछ कहने पर कमर बांधकर मारपीट करने पर उतारू हो जाते। शहर के लड़के हमारे ये लक्षण देखकर हमें गंवार कहते।

 

आया तो था नाजिर सरिश्तेदार बनने, पर मैजिनी, गैरीबाल्डी बनने की तैयारी करने लग गया। इसी समय मेरे पिता और सुरबाला के पिता ने एकमत होकर सुरबाला के साथ मेरा विवाह कर देने का निश्चय किया।

 

मैं पन्द्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता भाग आया था, उस समय सुरबाला की अवस्था आठ वर्ष थी; अब मैं अठारह वर्ष का था। पिता के अनुसार मेरे विवाह की आयु धीरेधीरे निकली जा रही थी। पर मैंने मनहीमन यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि आजीवन अविवाहित रहकर स्वदेश के लिए मर मिटूंगा। मैंने पिता से कहा, ‘पढ़ाई पूरी किए बिना मैं विवाह नहीं कर

 

दोचार महीने के बाद ही ख़बर मिली कि वक़ील रामलोचन बाबू के साथ सुरबाला का विवाह हो गया है। मैं तो पतित भारत की चंदावसूली के काम में व्यस्त था, मुझे यह समाचार अत्यन्त तुच्छ मालूम पड़ा।

एन्ट्रेंस पास कर लिया था, फ़र्स्ट ईयर आर्ट्स में जाने का विचार था कि तभी पिता की मृत्यु हो गई। परिवार में मैं अकेला नहीं था; माता थीं और दो बहनें। अतएव कॉलेज छोड़कर काम की तलाश में निकलना पड़ा। बहुत कोशिशों के बाद नोआखाली डिवीज़न के एक छोटेसे शहर के एन्ट्रेंस स्कूल में असिस्टेंट मास्टर का पद मिला।

 

सोचा, ‘मेरे उपयुक्त काम मिल गया। उपदेश तथा उत्साह प्रदान करके प्रत्येक विद्यार्थी को भावी भारत का सेनापति बना दूंगा।काम आरम्भ कर दिया। देखा, भारतवर्ष के भविष्य की अपेक्षा आसन्न इम्तहान की चिन्ता कहीं ज़्यादा की जाती थी। छात्रों को ग्रामर और एलजेबरा के बाहर की कोई बात बताते ही हेडमास्टर नाराज़ हो जाते। दो एक महीने में मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया।

 

हमारे जैसे प्रतिभाहीन लोग घर में बैठकर तो अनेक प्रकार की कल्पनाएं करते रहते हैं, पर अन्त में कर्मक्षेत्र में उतरते ही कन्धे पर हल का बोझ ढोते हुए पीछे से पूंछ मरोड़ी जाने पर भी सिर झुकाए सहिष्णु भाव से प्रतिदिन खेत गोड़ने का काम कर संध्या को भरपेट चारा पाकर ही सन्तुष्ट रहते हैं; फिर कूदफांद करने का उत्साह नहीं बचता। 

आग लगने के डर से एकएक मास्टर को स्कूल में ही रहना पड़ता। मैं अकेला था, इसलिए यह भार मेरे ही ऊपर पड़ा। स्कूल के बड़े आठचाला से सटी हुई एक झोंपड़ी में मैं रहता।

 

स्कूल बस्ती से कुछ दूर एक बड़ी पुष्कणी के किनारे था। चारों ओर सुपारी, नारियल और मदार के पेड़ तथा स्कूल से लगे आपस में सटे हुए नीम के दो पुराने विशाल पेड़ छाया देते रहते।

 

अभी तक मैंने एक बात का उल्लेख नहीं किया, मैंने उसे उस योग्य ही समझा। यहां के सरकारी वक़ील रामलोचन राय का घर हमारे स्कूल के पास ही था और उनके साथ उनकी स्त्री मेरी बाल्यसखी सुरबाला थी, यह मैं जानता था।

 

रामलोचन बाबू के साथ मेरा परिचय हुआ। सुरबाला के साथ मेरा बचपन में परिचय था यह रामलोचन बाबू जानते थे या नहीं, मैं नहीं जानता। मैंने भी नया परिचय होने के कारण उस विषय में कुछ कहना उचित समझा। यही नहीं सुरबाला किसी समय मेरे जीवन के साथ किसी रूप में जुड़ी हुई थी, यह बात मेरे मन में ठीक तरह से उठी ही नहीं।

 

एक दिन छुट्टी के रोज रामलोचन बाबू से भेंट करने उनके घर गया था। याद नहीं किस विषय पर बातचीत हो रही थी, शायद वर्तमान भारतवर्ष दुरव्यस्था के सम्बन्ध में। यह बात थी कि वे उसके लिए विशेष चिंतित और उदास थे, किन्तु विषय ऐसा था कि हुक्का पीतेपीते उस पर एकडेढ़ घण्टे तक यों ही शौक़िया दुःख प्रकट किया जा सकता था।

 

तभी बगल के कमरे में चूड़ियों की हल्कीसी खनखनाहट, साड़ी की सरसराहट और पैरों की भी कुछ आहट सुनाई पड़ी। मैं अच्छी तरह समझ गया कि जंगले की संध से कोई कौतूहलपूर्ण आंखें मुझे देख रही हैं।

 

मुझे तत्काल वे आंखें याद ही आईंविश्वास, सरलता और बालसुलभ प्रीति से छलछलाती दो बड़ीबड़ी आंखें, कालीकाली पुतलियां घनी काली पलकें, और स्थिर स्निग्ध दृष्टि। सहसा मेरे हृत्पिंड को मानो किसी ने अपनी कड़ी मुट्ठी में भींच लिया। वेदना से मेरा अन्तर झनझना उठा।

 

लौटकर घर गया, किन्तु वह व्यथा बनी रही। पढ़नालिखना, जो भी करता किसी तरह मन का भार दूर हो पाता। शाम के समय मैं कुछ शांतचित्त होकर सोचने लगा कि आखिर ऐसा हुआ क्यों। उत्तर में मन बोल उठा,‘तुम्हारी वह सुरबाला कहां गई?’ मैंने कहा, ‘मैंने तो उसे स्वेच्छा से ही छोड़ दिया था। वह क्या मेरे लिए ही बैठी रहती।

 

मन के भीतर से कोई बोला, ‘उस समय जिसे चाहते ही पा सकते थे अब उसे सिर पटककर मर जाने पर भी एक बार देखने तक का अधिकार तुम्हें नहीं मिल सकता। बाल्यावस्था की वह सुरबाला तुम्हारे कितने ही निकट क्यों रहे, चाहे तुम उसकी चूड़ियों की खनक सुनते रहो, उसके बालों की सुगन् की महक पाते रहो, किन्तु तुम्हारे बीच में एक दीवार बराबर बनी रहेगी।

 

मैंने कहा, ‘जाने भी दो, सुरबाला मेरी कौन है?’

उत्तर मिला, ‘आज सुरबाला तुम्हारी कोई नहीं है, लेकिन सुरबाला तुम्हारी क्या नहीं हो सकती थी?’

 

सच बात है, सुरबाला मेरी क्या नहीं हो सकती थी। जो मेरी सबसे अधिक अंतरंग, सबसे निकटवर्त्तिनी, मेरे जीवन के समस्त सुखदुःख की सहभागिनी हो सकती थी। वह अब इतनी दूर, इतनी पराई हो गई है कि आज उसको देखना और बात करना भी अपराध है, उसके विषय में सोचना पाप है।

 

और यह रामलोचन जाने कहां से गया, बस दोएक रटेरटाए मन्त्र पढ़कर सुरबाला को पलक मारते ही एक झपटरे में धरती के और सब लोगों से छीन ले गया।

 

रामलोचन के घर की दीवारों में जो सुरबाला थी, वह रामलोचन की भी अपेक्षा मेरी अधिक थी। यह बात मैं किसी भी प्रकार मन से नहीं निकाल पाता था। शायद यह बात असंगत थी फिर भी अस्वाभाविक नहीं थी।

 

तबसे और किसी भी काम में मन नहीं लग सका। दोपहर के समय क्लास में जब छात्र गुनगुनाते रहते, बाहर सन्नाटा छाया रहता, नीम की निंबौलियों की महक होती तब भीतर कुछ होता। मन कुछ चाहता मगर उसका रूप साफ होता। स्कूल की छुट्टी होने पर अपने बड़े कमरे में अकेले मन लगता, लेकिन यदि कोई मिलने चला आए तो भी मन बड़ा अझेल हो जाता।

 

सन्ध्या समय पुष्करिणी के किनारे सुपारीनारियल के वृक्षों की अर्थहीन मर्मर ध्वनि सुनतेसुनते सोचता, ‘मनुष्यसमाज एक जटिल भ्रमजाल है। ठीक समय पर ठीक काम करना किसी को नहीं समझता, बाद में अनुपयुक्त समय पर अनुचित वासना लेकर अस्थिर होकर मर जाता है।

 

तुम्हारे जैसा आदमी सुरबाला का पति होकर आजीवन बड़े सुख से रह सकता था; तुम तो होने चले थे गैरीबाल्डी, और अन्त में हुए एक देहाती स्कूल के असिस्टेंट मास्टर! और रामलोचन राय वक़ील विवाह करके सरकारी वक़ील बनकर अच्छा खासा रोज़गार करने लगा।

 

जिस दिन दूध में धुएं की बू आती, वह सुरबाला को डांट देता और जिस दिन उसका मन प्रसन् रहता उस दिन सुरबाला के लिए गहने बनवा देता। अपने मोटी थुलथुली देह पर अचकन डाले, वह परम संतुष्ट रहता। वह कभी भी तालाब के किनारे बैठकर आकाश के तारों की ओर देखता हुआ आहें भरते हुए शाम नहीं गुज़ारता।

 

एक बड़े मुक़द्दमे में रामलोचन कुछ दिन के लिए बाहर गया था। अपने स्कूलभवन में मैं जिस तरह अकेला था, शायद उस दिन सुरबाला भी अपने घर में उसी तरह अकेली थी।

 

मुझे याद है, उस दिन सोमवार था। सवेरे से ही आकाश में बादल थे। दस बजे से टपटप बारिश शुरू हो गई थी। आकाश की दशा देखकर हैड– मास्टर ने जल्दी छुट्टी कर दी। कालेकाले मेघ सारे दिन आकाश में घूमते रहे।

दूसरे दिन तीसरे पहर से मूसलाधार बारिश शुरू हुई और आंधी चलने लगी। ज्योंज्यों रात होने लगी बारिश और आंधी का वेग भी बढ़ने लगा। पहले पुरवैया चल रही थी। फिर उत्तर तथा उत्तरपूर्व की ओर से हवा बहने लगी।

 

उस रात सोने का प्रयल करना व्यर्थ था। ख़याल आया, ‘इस दुर्योग के समय सुरबाला घर में अकेली है!’ हमारा स्कूलभवन उनके घर की अपेक्षा कहीं अधिक मज़बूत था, कई बार मन में आया, ‘उसे स्कूलभवन में बुला लाऊं और मैं पुष्करिणी के किनारे रात बिता लूं।किन्तु किसी भी तरह तय नहीं कर पाया।

 

रात एकडेढ़ पहर गई होगी कि सहसा बाढ़ आने की आवाज़ सुनाई पड़ी। समुद्र बढ़ा रहा था। घर से बाहर निकला। सुरबाला के घर की ओर चला। रास्ते में अपनी पृष्करिणी का किनारा पड़ावहां तक आतेआते पानी मेरे घुटनों तक पहुंच गया था। मैं ज्यों ही किनारे पर जाकर खड़ा हुआ त्यों ही एक और तरंग पहुंची।

 

हमारे तालाब के किनारे का एक हिस्सा लगभग दसग्यारह हाथ ऊंचा था। जिस समय मैं किनारे पर चढ़ा उसी समय विपरीत दिशा से एक और व्यक्ति भी चढ़ा। व्यक्ति कौन था यह सिर से लेकर पैर तक मेरी संपूर्ण अन्तरात्मा समझ गई थी। और उसने भी मुझे पहचान लिया था इसमें मुझे सन्देह नहीं।

 

और तो सबकुछ डूबा हुआ था, केवल पांचछह हाथ के उस द्वीप पर हम दोनों प्राणी आकर खड़े हुए थे।

 

प्रलयकाल था। आकाश से तारे ग़ायब। धरती के सब प्रदीप बुझे हुए थेउस समय कोई बात करने में भी हानि नहीं थीकिन्तु एक भी शब्द निकला। दोनों केवल अन्धकार की ओर ताकते रहे।

आज संसार छोड़कर सुरबाला मेरे पास आकर खड़ी थी। मुझे छोड़कर आज सुरबाला का कोई नहीं था। कब से बीते हुए उस शैशवकाल में सुरबाला किसी जन्मान्तर के बाद किसी प्राचीन रहस्यान्धकार पर उतराती हुई इस सूर्य चन्द्रालोकित जनाकीर्ण पृथ्वी के ऊपर मेरी ही बगल में आकर खड़ी हुई थी।

 

जन्मस्त्रोत ने उस नवकलिका को मेरे पास लाकर फेंक दिया था, मृत्युस्त्रोत ने उस विकसित पुष्प को भी मेरे ही पास ला फेंका। इस समय केवल एक और लहर की ज़रूरत थी जो सदैव के लिए हमें एक कर देती।

वह लहर आए। पतिपुत्र, घरधनजन को लेकर सुरबाला चिरकाल तक सुख से रहे। मैंने इसी रात में महाप्रलय के किनारे अनन्त आनन्द का स्वाद पा लिया।

 

रात समाप्त होने को आई। आंधी थम गई। पानी उतर गया। सुरबाला बिना कुछ कहे घर चली गई, मैं भी बिना कुछ कहे अपने घर चला आया। मैंने सोचा, ‘मैं नाजिर भी नहीं हुआ, सरिश्तेदार भी नहीं हुआ, गैरीबाल्डी भी नहीं हुआ, मैं एक टूटेफूटे स्कूल का असिस्टेंट मास्टर रह गया, मेरे इस सम्पूर्ण जीवन में केवल क्षणभर के लिए एक अनन्त रात्रि का उदय हुआ था। शायद वही जीवन की एकमात्र चरम सार्थकता थी।

The End

अस्वीकरणब्लॉगर ने नेटविकिपीडिया पर उपलब्ध सामग्री और छवियों की मदद से यह संक्षिप्त लेख तैयार किया है। पाठ को रोचक बनाने के लिए इस ब्लॉग पर चित्र पोस्ट किए गए हैं। सामग्री और चित्र मूल लेखकों के कॉपी राइट हैं। इन सामग्रियों का कॉपीराइट संबंधित स्वामियों के पास है। ब्लॉगर मूल लेखकों का आभारी है।

 

Scroll to Top