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मीराजी : खुद को तबाह कर देने पर आमादा एक जीनियस शायर.उन्हें मीरा सेन के लंबे बाल बेहद पसंद थे. सो अपने बाल भी बढ़ा लिए. जब महबूब को हासिल होने की आस न रही उसी के नाम पर अपना नाम रख लिया मीराजी.

by Engr. Maqbool Akram
December 4, 2022
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नाम मोहम्मद सनाउल्लाह डार (1912 – 1949) . दुबली काया, लंबे, तैरने वाले बाल, एक बदमाश की तरह मूंछ, अधिक आकार की बालियां, एक रंगीन हेडगियर, और गर्दन के चारों ओर मोती की एक स्ट्रिंग लटकाए हुए, बिलकुल कोलेरिज के कवि के वर्णन में फिट बैठते थे। कंधे पर थैला जिसके भीतर शायरी और अफ़साने लिखे कागजों का बण्डल और किसी तरह हासिल की गई शराब की बोतल.

 

हद दर्जे का गंदा, नाखूनों में अटका महीनों का मैल. आख़िरी बार कब नहाया था याद नहीं.एक प्रेरित “चमत्कारी आँखें उड़ते हुए बाल“, ऐसे लगते थे शहद खाते थे और स्वर्ग से लाया दूध पीते थे। उनके कवि मित्र और पूर्व वर्ग के साथी मेहर लाल सोनी ज़िया फतेहाबाद ने याद किया कि एकमात्र समय मीराजी ने अपने लंबे बाल काटे थे, जब वह आल इंडिया रेडिओ में शामिल होने गए थे।

Poet Mirajee

मंटो ने मीरा जी का स्केच लिखा है, जिसका नाम है ‘तीन गोले‘ उसमें मंटो ने बताया है कि एक ज़माने में न जाने कहाँ से उनके हाथ लोहे के तीन गोले लग गए थे, हर वक़्त उन्हें खनकाते घूमा करते।

 

जेब में हमेशा तीन गोल पत्थर रखता था और उन पर सिगरेट की डब्बियों से निकली चमकीली पन्नियाँ इस सलीके से चिपकाए रखता कि वे चांदी के नज़र आते. कभी उन गोलों को आदम, हव्वा और उनकी औलाद यानी खुद बताता कभी मोहब्बत की नींव में लगने वाले तीन भारी पत्थर – हुस्न, इश्क़ और मौत.

 

फ्रांस का एक शायर है, बहुत मशहूर चार्ल्स बौदलेयर।वो मीरा जी को बहुत पसंद था, उनकी पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं के शायरों पर बड़ी गहरी नज़र थी, इसलिए उन्होंने अपनी एक किताब ‘मशरिक़ ओ मग़रिब के नग़मे‘ में ईस्ट और वेस्ट के बहुत से बा–कमाल शायरों की कविताओं को न सिर्फ़ उर्दू में ट्रांसलेट किया बल्कि उनके परिचय के तौर पर लम्बे लम्बे आर्टिकल्स भी लिखे।

 

मीरा जी बहुत पढ़ा करते थे, उन्हें क्राइम मैगज़ीन्स बहुत पसंद आते थे, हर समय उनके पास एक न एक इस तरह का मैगज़ीन रहा ही करता था।

 

जेब में हमेशा तीन गोल पत्थर रखता था और उन पर सिगरेट की डब्बियों से निकली चमकीली पन्नियाँ इस सलीके से चिपकाए रखता कि वे चांदी के नज़र आते. कभी उन गोलों को आदम, हव्वा और उनकी औलाद यानी खुद बताता कभी मोहब्बत की नींव में लगने वाले तीन भारी पत्थर – हुस्न, इश्क़ और मौत.

 

इस दुनिया में मोहब्बत तो बहुतेरे लोग करते हैं. इकतरफा इश्क के भी अनेक किस्से हैं. लेकिन इश्क में माशूका के नाम पर अपना नाम रख लेना एक अभूतपूर्व घटना थी. वह शख्स उर्दू का अजीम शायर मीराजी है जिसकी शायरी की कद्र उसके इंतकाल के बाद लगातार बढ़ती जा रही है. वह फैज, फिराक, मजाज़, साहिर की तरह अमर हो गया.

 

और कैसी अजब तो उसकी मोहब्बत, उसकी हीर! जब उसके हासिल होने की आस न रही उसने उसी महबूब के नाम पर अपना नाम रख लिया – मीराजी.

 

उन्हें
मीरा
सेन
के
लंबे
बाल
बेहद
पसंद
थे.
सो
उन्होंने
अपने
बाल
भी
बढ़ा
लिए.

जब वह स्कूल में थे। लाहौर में काम करने वाले बेंगाली अकाउंटेंट की बेटी मीरा सेन से मुलाक़ात हुवी, और प्यार की गहराई में डूब गया।

 

जिसकी चाहत में उसने अपनी जिन्दगी का भुरकस निकाल लिया। मीराजी ने अपना कलमी नाम सेन अपनाया। समृद्ध परिवेश में पाला गया, मीराजी ने अपने घर और परिवार को छोड़ दिया और बेघर भटकने वाले जीवन का नेतृत्व करने का फैसला किया, ज्यादातर अपने दोस्तों के साथ रहना और अपने गाने बेचकर जीवित बनाना।

जब
उसके हासिल होने की आस न रही उसने उसी महबूब के नाम पर अपना नाम रख लिया – मीराजी.


उन्होंने इश्क़ पर अपना सब कुछ वार दिया और पहचाने गए हवस के जज़्बे की वजह से। उन्होंने एक नज़्म में लिखा है:

क्या इश्क़ जो इक लम्हे का हो

वो इश्क़ नहीं कहलायेगा

तुम उसको हवस क्यों कहते हो

 

ज़माना हर अच्छी–बुरी चीज के किस्से माँगता है. उसे दूसरों की तबाही के किस्से सुनने का ख़ास शौक है. मीराजी उर्दू शायरी की तारीख में एक ऐसा ही मशहूर तबाह किस्सा है जिसकी सोहबत मंटो से भी रही, राजा मेहदी अली खान और अख्तर उल ईमान से भी. मंटो से लेकर एजाज़ अहमद तक जाने कितनों ने मीराजी का किस्सा लिखा और उसकी आवारगी , शराबनोशी, गन्दगी और सेक्स को लेकर उसके ऑब्सेशन का कल्ट बना दिया.

सने भाषा और विषयवस्तु की हर स्थापित तहजीब को नकारा. दुनिया भर का साहित्य पढ़ा. लाहौर की पंजाब मेमोरियल लाइब्रेरी का लाइब्रेरियन बताता था कि किताबें पढ़ने का उसके भीतर ऐसा जुनून था कि वह लाइब्रेरी खुलने से पहले पहुँच गेट खुलने का इन्तजार करता मिलता और उसके बंद हो जाने पर बाहर निकलने वाला आख़िरी होता.

 

उसने खूब पढ़ा और पढ़कर जो हासिल किया उसे अपने लेखों के जरिये संसार में बांटा जिनमें वह पूरब और पच्छिम के शायरों से उर्दू संसार का परिचय कराया करता. ये आर्टिकल ‘मशरिक और मगरिब के नगमे’ के नाम से किताब की सूरत में छपे.

जिसके भीतर फ़्रांस के बौदलेयर और मालार्मे, रूस के पुश्किन, चीन के ली पो, इंग्लैण्ड के डी. एच. लॉरेंस और कैथरीन मैन्सफील्ड, अमेरिका के वॉल्ट व्हिटमैन और एडगर एलन पो और प्राचीन भारत के चंडीदास और विद्यापति जैसे नाम नमूदार होते है. मीराजी ने इन सबकी चुनी कविताओं का दिलकश अनुवाद भी किया.

 

मोहब्बत में मिली असफलता ने उसकी शायरी को आत्मा अता फरमाई. उसकी ग़ज़लों और नज्मों से जो शायर उभर कर आता है वह कभी घनघोर रूमान में तपा हुआ क्लासिकल प्रेमी है तो कभी आदमी–औरत के जिस्मानी रिश्ते की बखिया उधेड़ता कोई उस्ताद मनोवैज्ञानिक.

 

किसी धर्म या मज़हब को मानते नहीं थे। घर छोड़ कर चले आये थे और कभी पलट कर नहीं गए, मगर कभी कभार अपनी माँ को याद किया करते थे, उनके छोटे भाई ने उनकी बहुत सी नज़्मों को रद्दी में बेच दिया था, इस बात से कभी दुखी भी हुआ करते थे।

उसके यहां अजन्ता की गुफाओं से लेकर धोबीघाट और मंदिर की देवदासियों से लेकर दफ्तरों में जिन्दगी घिसने वाले अदने क्लर्कों की आश्चर्यजनक आवाजाही चलती रहती है. मीराजी का कुल काम दो हजार से अधिक पन्नों में बिखरा पड़ा है. वह भी तब जब उसने ऐसी अराजक जिन्दगी जी कि कुल सैंतीस की उम्र में तमाम हो गया. 

तीस–पैंतीस
बरस पहले गुलाम अली ने ‘हसीन लम्हे’ टाइटल से गजलों का एक यादगार अल्बम निकाला. उसमे उन्होंने मीराजी को भी गाया:

 

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया

क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया

क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो

कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया

कैसे दिन थे कैसी रातें कैसी बातें घातें थीं

मन बालक है पहले प्यार का सुंदर सपना भूल गया

अँधियारे से एक किरन ने झाँक के देखा शरमाई

धुँदली छब तो याद रही कैसा था चेहरा भूल गया

 याद के फेर में आ कर दिल पर ऐसी कारी चोट लगी

दुख में सुख है सुख में दुख है भेद ये न्यारा भूल गया

एक नज़र की एक ही पल की बात है डोरी साँसों की

एक नज़र का नूर मिटा जब इक पल बीता भूल गया

सूझ–बूझ की बात नहीं है मन–मौजी है मस्ताना

लहर लहर से जा सर पटका सागर गहरा भूल गया

 

मीराजी के पुरखों का घर कश्मीर में था जहां से वे कुछ पीढ़ी पहले गुजरांवाला आ बसे थे. पिता मुंशी महताबुद्दीन रेलवे में ठेकेदारी करते थे जिनकी दूसरी बीवी सरदार बेगम से मीराजी हुए थे – लाहौर में 25 मई 1912 को. लाहौर से गुजरात, गुजरात से बम्बई, बम्बई से पूना और फिर वापस बम्बई जहाँ 3 नवम्बर 1949 को आख़िरी सांस – मोटामोटी इन जगहों पर मैट्रिक फेल मीराजी की मुख़्तसर जिन्दगी बनी–बिगड़ी.

 

सैंतीस
साल के इस अंतराल में एक बचपन था, क्रूर बाप के अत्याचारों तले लगातार कुचली जाती एक माँ थी, स्कूल के संगी थे, पहली मोहब्बत थी, रोजगार की तलाश थी, किताबें थीं, एक बेचैन रूह और उससे जनम लेने वाली शायरी थी. मीराजी
एक इंट्रोवर्ट शायर थे. दुर्भाग्य से उन्हें समझने में लोगों को भूल हुई.

Poet Mirajee

इसी अंतराल में मंटो ने होना था जो जब तक संभव हुआ उसकी रोज की दारू की खुराक के लिए हर रोज साढ़े सात रुपये अलग से जुगाड़ रखता, अख्तर उल ईमान ने होना था जिसने उसे उसकी गन्दगी और बास के बावजूद किसी सगे की तरह अपने घर में पनाह दी. इसी अंतराल में खुद मीराजी ने भी होना था, शायरी ने होना था, तसव्वुर के वीरान फैलाव ने होना था और सारी दुनिया की आवारागर्दियों ने होना था.

 

जब मीरा जी की किताब छपती थी तो उन्हें पैसे मिला करते थे।

एक
दफ़ा जब वो शराब ख़ाने से निकले तो किसी पुल के नीचे एक ठेले वाला मुंह लटकाये खड़ा था, हलकी हलकी बरसात हो रही थी, मीरा जी ने पूछा, मियाँ बरसात हो रही है, रात का बारह बज रहा है, अभी तक यहाँ क्यों खड़े हो, उसने बताया के आज बिक्री ही नहीं हुई, सामान ज्यों का त्यों पड़ा है, घर जाने की हिम्मत ही नहीं होती।मीरा जी ने अपनी जेब से बचे हुए पैसे निकाल कर उसे दिए और कहा ‘जाओ! घर जाओ!’ वो ऐसा हर बार करते और अगले दिन पाई पाई को मोहताज हो जाते और दोस्तों से उधार मांग कर काम चलाते।

 

अख़्तर–उल–ईमान, उनके कवि मित्र, जो खुद मीराजी और नून मीम राशिद से प्रभावित थे, और जिनके साथ मीराजी ने पूना और बॉम्बे में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे, ने बताया कि उनके अत्यधिक पीने, सिगरेट धूम्रपान और यौन अपव्यय ने उनकी ताकत को दूर कर दिया और अपने यकृत को क्षतिग्रस्त कर दिया।

 

फिर, उन्हें मानसिक बीमारी की अतिरिक्त पीड़ा आई, जिसके लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्हें बिजली के झटके दिए गए थे ताकि उनके पागलपन का इलाज किया जा सके। अंत 3 नवंबर, 1949 को बॉम्बे के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में 4 बजे उनकी मौत होगई।इस अजीम शायर के मरने पर उनकी लाश को कंधा देने वाले केवल 4 लोग ही मौजूद थे.

 

मीरा जी के साथ वक़्त–ए–आख़िर में अगर कोई था तो वो अख़्तर उल ईमान और उनकी बेगम थीं !

The
End

अस्वीकरण–ब्लॉगर ने नेट–विकिपीडिया पर उपलब्ध सामग्री और छवियों की मदद से यह संक्षिप्त लेख तैयार किया है। पाठ को रोचक बनाने के लिए इस ब्लॉग पर चित्र पोस्ट किए गए हैं। सामग्री और चित्र मूल लेखकों के कॉपी राइट हैं। इन सामग्रियों का कॉपीराइट संबंधित स्वामियों के पास है। ब्लॉगर मूल लेखकों का आभारी है। 


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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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