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बातें अवध की: जब आखिरी नवाब वाजिद अली शाह बेगम हजरतमहल से हीरों की शतरंज हार गए

वाजिद अली शाह को लेकर इतिहास और इतिहासकारों के अपने अलग मत हैं. यदि हम इसका भी आंकलन करें तो मिलता है कि तकरीबन 9 वर्षों तक अवध के सिंहासन पर बैठने वाले वाजिद अली शाह को विरासत में एक कमजोर और लगभग उजड़ा हुआ राज्य मिला था. एक ऐसा राज्य जहां उसके राजा के पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं.

 

ज्ञात हो कि वाजिद अली शाह से पहले के जितने भी नवाब हुए वो अंग्रेज़ों से प्लासी और बक्सर जैसा महत्वपूर्ण युद्ध पहले ही लड़ और हार चुके थे. इतिहासकारों की मानें तो इस हार के बाद अवध को अंग्रेज़ों को भारी जुर्माना देना पड़ता था. ऐसे में वाजिद अली शाह की स्थिति खुदखुद हमारे सामने जाती है कि उनका वैसा हाल क्यों था जैसा हमें इतिहास ने बताया.

वर्ष
1847
में 13 फरवरी को नवाब वाजिद अली शाह गद्दी पर बैठे तो अवध पर अंग्रेजों का शिकंजा बेहद कस चुका था, और उसके बुरे दिनों के बादल गहरे हो चले थे। फिर भी उसका खजाना नवाबों की कई पीढ़ियों द्वारा संचित मालोजर से भरपूर था।

 

लखनऊविद योगेश प्रवीन अपनी पुस्तकनवाबी के जलवे में लिखते हैं कि दो नवाबोंगाजाउद्दीन हैदर और नासिरुद्दीन हैदर ने गोमती के तट पर ऐतिहासिक इमारतछतरमंजिल बनवाई थी।

 उसके सुनहरे छत्र की परछाईं दिन में ठीक बारह बजे जिस जगह दिखाई देती थी, वहीं से गोमती के नीचे से होकर उस तहखाने तक जाने का गुप्त रास्ता बना हुआ था, जहां कड़ी पहरेदारी में उक्त खजाना अवस्थित था।

 

एक दिन छतरमंजिल में आराम फरमातेफरमाते वाजिद
अली शाह को जाने क्या सूझी कि उन्होंने वजीरेआला अमीनुद्दौला को बुलाकर खजाना देखने की ख्वाहिश जता दी। कहते हैं कि अमीनुद्दौला कतई नहीं चाहते थे कि नवाब खजाने का मुआयना करने जाएं। इसलिए उन्होंने उन्हें वहां जाने से रोकने को बहानों पर बहाने बनाने शुरू कर दिए।

 

लेकिन
जिद्दी वाजिद
ने उनकी
एक नहीं
सुनी। उनके
साथ गुप्त
रास्ते की
दुश्वारियां
झेलकर खजाने
तक पहुंचे
तो उसमें
जमा हीरेपन्नों,
मोतीमणियों
वगैरह का
अंबार देखकर
उनकी आंखें
फटी की
फटी रह
गईं। उन्होंने
सोचा होगा,
इतनी दौलत
से बुरे
दिनों को
बहुत दिनों
तक टाला
जा सकता
है।

 

वह खुशखुश वहां से लौटने लगे तो अमीनुद्दौला ने कहा कि पुरखों के दौलतखाने से उनका बिना किसी सौगात के यों खाली हाथ लौटना सिर्फ अपशकुन होगा, बल्कि शोभा भी नहीं देगा।

Begum Hazrat Mahal

इसलिए वह अपनी पसंद की कुछ चीजें छांट लें और ले जाएं। इस पर वाजिद ने तीन चीजें पसंद कीं। ये तीनों चीजें थींएक हीरों की शतरंज, एक मोतियों की छड़ी और एक पन्ने की कटोरी।

 

आगे चलकर इन तीनों चीजों ने अपनेअपने तरीके से सूबे के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया। इतिहासकारों ने लिखा है कि वाजिद अली शाह जब भी शतरंज खेलते, उस हीरों की शतरंज से ही खेलते। एक दिन अपनी सबसे प्यारी बेगम हजरतमहल के साथ खेल रहे थे तो बाजी हार गए और पहले से तय शर्त के मुताबिक बेगम ने वह अनमोल शतरंज अपने पास रख ली।

 

सन
1856
में अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर कलकत्ता के मटियाबुर्ज भेज दिया तो बेगम ने इस शतरंज को अपने सुनहरे दिनों की निशानी मानकर कलेजे से लगाए रखा। यहां तक कि सन 1857 में अंग्रेजों से दोदो हाथ के वक्त भी उसे जतन से सहेजे रखा।

Chatter Manzil–Lucknow

लेकिन आखिरकार अंग्रेज जीत गए और बेगम को अपने बेटे बिरजिस कदर समेत भागकर नेपाल जाना पड़ा। वहां उन्हें राणा के शरणागत होना पड़ा और उसका अहसान चुकाने के लिए यह शतरंज उसे दे देनी पड़ी।

 

मोतियों की छ़ड़ी और पन्ने की कटोरी वाजिद अपने साथ मटियाबुर्ज ले गए थे, लेकिन अक्टूबर,
1875
में प्रिंस ऑफ वेल्स कहे जाने वाले महारानी विक्टोरिया के सबसे बड़े बेटे अलबर्ट एडवर्ड भारत यात्रा पर आए और उनसे मिले तो नजराने के तौर पर छड़ी उन्हें दे देनी पड़ी। प्रिंस ब्रिटेन वापस लौटे तो उन्होंने वह छड़ी अपने म्यूजियम के हवाले कर दी।

लेकिन पन्ने की कटोरी ने आखिरी वक्त तक वाजिद का साथ निभाया। निर्वासन के दौर में उनकी मुफलिसी हद से बाहर हो गई तो उन्होंने उसको बेचकर कुछ पैसे जुटाने की सोची।

 

लेकिन बिक्री के लिए उसे कलकत्ते के रत्न बाजार में भेजा तो रत्नफरोशों ने अपने हाथ खड़े कर दिए। दरअसल, उनमें से किसी की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह उस बेशकीमती कटोरी की कीमत अदा कर सकता।

 

घूमफिर कर कटोरी फिर मटियाबुर्ज लौट आई तो मुफलिसी के मारे वाजिद ने झुंझलाकर उसे जमीन पर दे मारा। इससे वह टुकड़ेटुकड़े हो गई और तब रत्नफरोशों के लिए उसके अलगअलग टुकड़े खरीदना संभव हुआ।

 

कई टुकड़े कलकत्ता से बाहर बहुत दूरदूर तक, यहां तक कि उत्तर भारत के बाजारों में भी बिके। जिस लखनऊ के दरोदीवार पर हसरत की नजर रखकर वाजिद मटियाबुर्ज जाने को मजबूर हुए थे, उसमें आज भी जौहरियों द्वारा पन्ने की सबसे कीमती किस्मकटोरी का पन्ना कहकर ही बेची जाती है।


(From:–“Lucknow Nama” By Dr
Yogesh Praveen)

The End

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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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