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Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

by Engr. Maqbool Akram
March 18, 2025
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जब मैं पेशावर से चली तो मैंने छका छक इत्मिनान का सांस लिया। मेरे डिब्बों में ज़्यादा–तर हिंदू लोग बैठे हुए थे। ये लोग पेशावर से हुई मरदान से, कोहाट से, चारसदा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नूँ नौशहरा से, मांसहरा से आए थे और पाकिस्तान में जानो माल को महफ़ूज़ न पाकर हिन्दोस्तान का रुख कर रहे थे, स्टेशन पर ज़बरदस्त पहरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे।

 

इन लोगों को जो पाकिस्तान में पनाह गजीं और हिन्दोस्तान में शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन का सांस न आया जब तक मैंने पंजाब की रूमानख़ेज़ सरज़मीन की तरफ़ क़दम न बढ़ाए, ये लोग शक्ल–ओ–सूरत से बिल्कुल पठान मालूम होते थे, गोरे चिट्टे मज़बूत हाथ पांव, सिर पर कुलाह और लुंगी, और जिस्म पर क़मीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी कभी निहायत करख़्त क़िस्म की पंजाबी में बात करते थे।

 

उनकी हिफ़ाज़त के लिए हर डिब्बे में दो सिपाही बंदूक़ें लेकर खड़े थे। वजीह बल्लोची सिपाही अपनी पगड़ियों के अक़ब मोर के छत्तर की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाए हुए हाथ में जदीद राइफ़लें लिए हुए उन पठानों और उनके बीवी बच्चों की तरफ़ मुस्कुरा मुस्कुरा कर देख रहे थे जो एक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर–ए–असर उस सरज़मीन से भागे जा रहे थे जहां वो हज़ारों साल से रहते चले आए थे जिसकी संगलाख़ सरज़मीन से उन्होंने तवानाई हासिल की थी।


जिसके बर्फ़ाब चश्मों से उन्होंने पानी पिया था। आज ये वतन यकलख़्त बेगाना हो गया था और उसने अपने मेहरबान सीने के किवाड़ उन परबंद कर दिए थे और वो एक नए देस के तपते हुए मैदानों का तसव्वुर दिल में लिए बादिल–ए–नाख़्वासता वहां से रुख़्सत हो रहे थे। इस अमर की मसर्रत ज़रूर थी कि उनकी जानें बच गई थीं।

 

उनका बहुत सा माल–ओ–मता और उनकी बहुओं, बेटीयों, माओं और बीवीयों की आबरू महफ़ूज़ थी लेकिन उनका दिल रो रहा था और आँखें सरहद के पथरीले सीने पर यों गड़ी हुई थीं गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हैं और उसके शफ़क़त भरे मामता के फ़व्वारे से पूछना चाहती हैं, बोल माँ आज किस जुर्म की पादाश में तू ने अपने बेटों को घर से निकाल दिया है। अपनी बहुओं को इस ख़ूबसूरत आँगन से महरूम कर दिया है।

 

जहां वो कल तक सुहाग की रानियां बनी बैठी थीं। अपनी अलबेली कुँवारियों को जो अंगूर की बेल की तरह तेरी छाती से लिपट रही थीं झिंझोड़ कर अलग कर दिया है। किस लिए आज ये देस बिदेस हो गया है।

 

मैं चलती जा रही थी और डिब्बों में बैठी हुई मख़लूक़ अपने वतन की सतह–ए–मुर्तफ़े उसके बुलंद–ओ–बाला चटानों, उसके मर्ग़–ज़ारों, उसकी शादाब वादियों, कुंजों और बाग़ों की तरफ़ यूं देख रही थी, जैसे हर जाने–पहचाने मंज़र को अपने सीने में छिपा कर ले जाना चाहती हो जैसे निगाह हर लहज़ा रुक जाये, और मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस अज़ीम रंज–ओ–अलम के बारे मेरे क़दम भारी हुए जा रहे हैं और रेल की पटरी मुझे जवाब दिए जा रही है।

 

हुस्न अबदाल तक लोग यूँही मह्ज़ुं अफ़्सुर्दा यासो नकबत की तस्वीर बने रहे। हुस्न अबदाल के स्टेशन पर बहुत से सिख आए हुए थे। पंजा साहिब से लंबी लंबी किरपानें लिए चेहरों पर हवाईयां उड़ी हुई बाल बच्चे सहमे सहमे से, ऐसा मालूम होता था कि अपनी ही तलवार के घाव से ये लोग ख़ुद मर जाऐंगे।

 

डिब्बों में बैठ कर उन लोगों ने इत्मिनान का सांस लिया और फिर दूसरे सरहद के हिंदू और सिख पठानों से गुफ़्तगु शुरू हो गई। किसी का घर–बार जल गया था कोई सिर्फ़ एक क़मीज़ और शलवार में भागा था, किसी के पांव में जूती न थी और कोई इतना होशयार था कि अपने घर की टूटी चारपाई तक उठा लाया था।

जिन लोगों का वाक़ई बहुत नुक़्सान हुआ था वो लोग गुम–सुम बैठे हुए थे। ख़ामोश , चुप–चाप और जिसके पास कभी कुछ न हुआ था वो अपनी लाखों की जायदाद खोने का ग़म कर रहा था और दूसरों को अपनी फ़र्ज़ी इमारत के क़िस्से सुना सुना कर मरऊब कर रहा था और मुसलमानों को गालियां दे रहा था।

 

बल्लोची सिपाही एक पर वक़ार अंदाज़ में दरवाज़ों पर राइफ़लें थामें खड़े थे और कभी कभी एक दूसरे की तरफ़ कनखियों से देखकर मुस्कुरा उठते। तकशीला के स्टेशन पर मुझे बहुत अर्से तक खड़ा रहना पड़ा, ना जाने किस का इंतिज़ार था, शायद आस–पास के गांव से हिंदू पनाह गज़ीं आरहे थे, जब गार्ड ने स्टेशन मास्टर से बार–बार पूछा तो उसने कहा ये गाड़ी आगे न जा सकेगी।

 

एक घंटा और गुज़र गया। अब लोगों ने अपना सामान ख़ुर्द–ओ–नोश खोला और खाने लगे, सहमे सहमे बच्चे क़हक़हे लगाने लगे और मासूम कुंवारियां दरीचों से बाहर झाँकने लगीं और बड़े बूढ़े हुक़्क़े गुड़गुड़ाने लगे। थोड़ी देर के बाद दूर से शोर सुनाई दिया और ढोलों के पीटने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं।

 

हिंदू पनाह गज़ीनों का जत्था आ रहा था शायद, लोगों ने सर निकाल कर इधर उधर देखा। जत्था दूर से आ रहा था और नारे लगा रहा था। वक़्त गुज़रता था जत्था क़रीब आता गया, ढोलों की आवाज़ तेज़ होती गई। जत्थे के क़रीब आते ही गोलियों की आवाज़ कानों में आई और लोगों ने अपने सर खिड़कियों से पीछे हटा लिए।

 

ये हिंदूओं का जत्था था जो आस–पास के गांव से आ रहा था, गांव के मुसलमान लोग उसे अपनी हिफ़ाज़त में ला रहे थे। चुनांचे हर एक मुसलमान ने एक काफ़िर की लाश अपने कंधे पर उठा रखी थी जिसने जान बचा कर गांव से भागने की कोशिश की थी। दो सौ लाशें थीं।

 

मजमें ने ये लाशें निहायत इत्मिनान से स्टेशन पहुंच कर बल्लोची दस्ते के सपुर्द कीं और कहा कि वो इन मुहाजिरीन को निहायत हिफ़ाज़त से हिन्दोस्तान की सरहद पर ले जाये, चुनांचे बल्लोची सिपाहियों ने निहायत ख़ंदापेशानी से इस बात का ज़िम्मा लिया और हर डिब्बे में पंद्रह बीस लाशें रख दी गईं।

 

इसके बाद मजमा ने हवा में फ़ायर किया और गाड़ी चलाने के लिए स्टेशन मास्टर को हुक्म दिया। मैं चलने लगी थी कि फिर मुझे रोक दिया गया और मजमा ने सरग़ने में हिंदू पनाह गज़ीनों से कहा कि दो सौ आदमीयों के चले जाने से उनके गांव वीरान हो जाऐंगे और उनकी तिजारत तबाह हो जाएगी इसलिए वो गाड़ी में से दो सौ आदमी उतार कर अपने गांव ले जाऐंगे।

 

चाहे कुछ भी हो। वो अपने मुल्क को यूं बर्बाद होता हुआ नहीं देख सकते। इस पर बल्लोची सिपाहियों ने उनके फ़हम–ओ–ज़का और उनकी फ़िरासत तबा की दाद दी और उनकी वतन दोस्ती को सराहा। चुनांचे इस पर बल्लोची सिपाहियों ने हर डिब्बे से कुछ आदमी निकाल कर मजमा के हवाले किए। पूरे दो सौ आदमी निकाले गए। एक कम न एक ज़्यादा।

 

लाइन लगाओ काफ़िरों! सरग़ने ने कहा। सरग़ना अपने इलाक़े का सबसे बड़ा जागीरदार था और अपने लहू की रवानी में मुक़द्दस जिहाद की गूंज सुन रहा था। काफ़िर पत्थर के बुत बने खड़े थे। मजमा के लोगों ने उन्हें उठा उठा कर लाइन में खड़ा किया। दो सौ आदमी, दो सौ ज़िंदा लाशें, चेहरे सुते हुए। आँखें फ़िज़ा में तीरों की बारिश सी महसूस करती हुई। पहल बल्लोची सिपाहियों ने की। पंद्रह आदमी फ़ायर से गिर गए।

 

ये तक्षिला का स्टेशन था। बीस और आदमी गिर गए। यहां एशिया की सबसे बड़ी यूनीवर्सिटी थी और लाखों तालिब–इल्म उस तहज़ीब–ओ–तमद्दुन के गहवारे से कस्ब–ए–फ़ैज़ करते थे। पच्चास और मारे गए। तक्षिला के अजाइबघर में इतने ख़ूबसूरत बुत थे, इतने हुस्न संग तराशी के नादिर नमूने, क़दीम तहज़ीब के झिलमिलाते हुए चिराग़।

krishan Chandra (Auther  of thisc Story — “Peshawar Express “

 

पच्चास और मारे गए। पस–ए–मंज़र में सरकोप का महल था और खेलों का एमफ़ी थेटर और मेलों तक फैले हुए एक वसीअ शहर के खन्डर, तक्षिला की गुज़श्ता अज़मत के पुर शिकोह मज़हर। तीस और मारे गए। यहां कनिष्क ने हुकूमत की थी और लोगों को अमन–ओ–आश्ती और हुस्न–ओ–दौलत से माला–माल किया था। पच्चीस और मारे गए।

 

यहां बुद्ध का नग़मा–ए–इरफ़ाँ गूँजा था, यहां भिक्षुओं ने अमन–ओ–सुलह–ओ–आश्ती का दर्स–ए–हयात दिया था। अब आख़िरी गिरोह की अजल आ गई थी। यहां पहली बार हिन्दोस्तान की सरहद पर इस्लाम का पर्चम लहराया था। मुसावात और अखुत और इन्सानियत का पर्चम। सब मर गए। अल्लाहु–अकबर।

 

फ़र्श ख़ून से लाल था। जब मैं प्लेटफार्म से गुज़री तो मेरे पांव रेल की पटरी से फिस्ले जाते थे जैसे में अभी गिर जाऊँगी और गिर कर बाक़ीमांदा मुसाफ़िरों को भी ख़त्म कर डालूंगी। हर डिब्बे में मौत आ गई थी और लाशें दरमियान में रख दी गई थीं और ज़िंदा लाशों का हुजूम चारों तरफ़ था और बल्लोची सिपाही मुस्कुरा रहे थे।

 

कहीं कोई बच्चा रोने लगा किसी बूढ़ी माँ ने सिसकी ली। किसी के लुटे हुए सुहाग ने आह की और चीख़ती चिल्लाती रावलपिंडी के प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई।

 

यहां से कोई पनाह गज़ीं गाड़ी में सवार न हुआ। एक डिब्बे में चंद मुसलमान नौजवान पंद्रह बीस बुर्क़ापोश औरतों को लेकर सवार हुए। हर नौजवान राइफ़ल से मुसल्लह था। एक डिब्बे में बहुत सा सामान–ए–जंग लादा गया, मशीन गनें, और कारतूस, पिस्तौल और राइफ़लें। झेलम और गुजर ख़ां के दरमियानी इलाक़े में मुझे सिंगल खींच कर खड़ा कर दिया गया।

 

मैं रुक गई। मुसल्लह नौजवान गाड़ी से उतरने लगे। बुर्क़ापोश ख़वातीन ने शोर मचाना शुरू किया। हम  हिंदू हैं, हम सिख हैं। हमें ज़बरदस्ती ले जा रहे हैं। उन्होंने बुर्के फाड़ डाले और चिल्लाना शुरू किया। नौजवान मुसलमान हंसते हुए उन्हें घसीट कर गाड़ी से निकाल लाए। हाँ ये हिंदू औरतें हैं, हम उन्हें रावलपिंडी से उनके आरामदेह घरों, उनके ख़ुशहाल घरानों, उनके इज़्ज़तदार माँ–बाप से छीन कर लाए हैं।

अब ये हमारी हैं, हम उनके साथ जो चाहे सुलूक करेंगे। अगर किसी में हिम्मत है तो उन्हें हमसे छीन कर ले जाये। सरहद के दो नौजवान हिंदू पठान छलांग मार कर गाड़ी से उतर गए, बल्लोची सिपाहियों ने निहायत इत्मिनान से फ़ायर कर के उन्हें ख़त्म कर दिया। पंद्रह बीस नौजवान और निकले, उन्हें मुसल्लह मुसलमानों के गिरोह ने मिनटों में ख़त्म कर दिया। दरअसल गोश्त की दीवार लोहे की गोली का मुक़ाबला नहीं कर सकती।

 

नौजवान हिंदू औरतों को घसीट कर जंगल में ले गए, मैं और मुँह छुपा कर वहां से भागी। काला, ख़ौफ़नाक स्याह धुआँ मेरे मुँह से निकल रहा था।

 

जैसे कायनात पर ख़बासत की स्याही छा गई थी और सांस मेरे सीने में यूं उलझने लगी जैसे ये आहनी छाती अभी फट जाएगी और अंदर भड़कते हुए लाल लाल शोले इस जंगल को ख़ाक–ए–सियाह कर डालेंगे जो उस वक़्त मेरे आगे पीछे फैला हुआ था और जिसने इन पंद्रह औरतों को चश्म ज़दन में निगल लिया था।

 लाला मूसा के क़रीब लाशों से इतनी मकरूह सड़ांध निकलने 

लगी कि बल्लोची सिपाही उन्हें बाहर फेंकने पर मजबूर हो गए।

वो हाथ के इशारे से एक आदमी को बुलाते और उससे कहते, 

“उसकी लाश को उठा कर यहां लाओ, दरवाज़े पर।”

और जब वो आदमी एक लाश उठा कर दरवाज़े पर लाता तो वो 

उसे गाड़ी से बाहर धक्का दे देते।

थोड़ी देर में सब लाशें एक-एक हमराही के साथ बाहर फेंक दी 

गईं और डिब्बों में आदमी कम हो जाने से टांगें फैलाने की 

जगह भी हो गई।

फिर लाला मूसा गुज़र गया और वज़ीर आबाद आ गया।

 

वज़ीर आबाद का मशहूर जंक्शन, वज़ीर आबाद का मशहूर शहर, जहां हिन्दोस्तान भर के लिए छुरियां और चाक़ू तैयार होते हैं। वज़ीर आबाद जहां हिंदू और मुसलमान सदियों से बैसाखी का मेला बड़ी धूम–धाम से मनाते हैं और उस की ख़ुशियों में इकट्ठे हिस्सा लेते हैं, वज़ीर आबाद का स्टेशन लाशों से पटा हुआ था। शायद ये लोग बैसाखी का मेला देखने आए थे।

 

लाशों का मेला शहर में धुआँ उठ रहा था और स्टेशन के क़रीब अंग्रेज़ी बैंड की सदा सुनाई दे रही थी और हुजूम की पुरशोर तालियों और क़हक़हों की आवाज़ें भी सुनाई दे रही थीं। चंद मिन्टों में हुजूम स्टेशन पर आ गया। आगे आगे देहाती नाचते गाते आरहे थे और उनके पीछे नंगी औरतों का हुजूम, मादर–ज़ाद नंगी औरतें, बूढ़ी, नौजवान, बच्चीयां, दादीयां और पोतीया, माएं और बहूएं और बेटियां, कुंवारियां और हामिला औरतें, नाचते गाते हुए मर्दों के नर्ग़े में थीं।

 

औरतें हिंदू और सिख थीं और मर्द मुसलमान थे और दोनों ने मिलकर ये अजीब बैसाखी मनाई थी, औरतों के बाल खुले हुए थे। उनके जिस्मों पर ज़ख़्मों के निशान थे और वो इस तरह सीधी तन कर चल रही थीं जैसे हज़ारों कपड़ों में उनके जिस्म छुपे हों, जैसे उनकी रूहों पुर सुकून आमेज़ मौत के दबीज़ साये छा गए हों।

 

 उनकी निगाहों का जलाल द्रौपदी को भी शरमाता था और होंट दाँतों के अंदर यूं भिंचे हुए थे गोया किसी मुहीब लावे का मुँह–बंद किए हुए हैं। शायद अभी ये लावा फट पड़ेगा और अपनी आतिश–फ़िशानी से दुनिया को जहन्नुम राज़ बना देगा। मजमें से आवाज़ें आईं। “पाकिस्तान ज़िंदाबाद।“

“इस्लाम ज़िंदाबाद।“

“क़ाइद–ए–आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ज़िंदाबाद।“

 

नाचते थिरकते हुए क़दम परे हट गए और अब ये अजीब–ओ–ग़रीब हुजूम डिब्बों के ऐन सामने था। डिब्बों में बैठी हुई औरतों ने घूँघट काढ़ लिए और डिब्बे की खिड़कियाँ यके बाद दीगरे बंद होने लगीं। बल्लोची सिपाहियों ने कहा, खिड़कियाँ मत बंद करो, हवा रुकती है, खिड़कियाँ बंद होती गईं।

 

बल्लोची सिपाहियों ने बंदूक़ें तान लीं। ठाएं, ठाएं फिर भी खिड़कियाँ बंद होती गईं और फिर डिब्बे में एक खिड़की भी न खुली रही। हाँ कुछ पनाह गज़ीं ज़रूर मर गए।

 

नंगी औरतें पनाह गज़ीनों के साथ बिठा दी गईं और मैं इस्लाम ज़िंदाबाद और क़ाइद–ए–आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ज़िंदाबाद के नारों के दरमियान रुख़्सत हुई।

 

गाड़ी में बैठा हुआ एक बच्चा लुढ़कता लुढ़कता एक बूढ़ी दादी के पास चला गया और उससे पूछने लगा, “माँ तुम नहा के आई हो?” दादी ने अपने आँसूओं को रोकते हुए कहा, “हाँ नन्हे, आज मुझे मेरे वतन के बेटों ने, भाईयों ने नहलाया है।” “तुम्हारे कपड़े कहाँ है अम्मां?”

 

“उन पर मेरे सुहाग के ख़ून के छींटे थे बेटा। वो लोग उन्हें धोने के लिए ले गए हैं।“

 

दो नंगी लड़कियों ने गाड़ी से छलांग लगा दी और मैं चीख़ती चिल्लाती आगे भागी और लाहौर पहुंच कर दम लिया। मुझे एक नंबर प्लेटफार्म पर खड़ा किया गया। नंबर 2 प्लेटफार्म पर दूसरी गाड़ी खड़ी थी। ये अमृतसर से आई थी और उसमें मुसलमान पनाह गज़ीं बंद थे। थोड़ी देर के बाद मुस्लिम ख़िदमतगार मेरे डिब्बों की तलाशी लेने लगे और ज़ेवर और नक़दी और दूसरा क़ीमती सामान मुहाजिरीन से ले लिया गया।

 

उसके बाद चार–सौ आदमी डिब्बों से निकाल कर स्टेशन पर खड़े किए थे। ये मज़बह के बकरे थे क्योंकि अभी अभी नंबर 2 प्लेटफार्म पर जो मुस्लिम मुहाजिरीन की गाड़ी आकर रुकी थी उसमें चार–सौ मुसलमान मुसाफ़िर कम थे और पच्चास मुस्लिम औरतें अग़वा कर ली गई थीं, इसलिए यहां पर भी पच्चास औरतें चुन–चुन कर निकाल ली गईं और चार–सौ हिन्दोस्तानी मुसाफ़िरों को तहे तेग़ किया गया ताकि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान में आबादी का तवाज़ुन बरक़रार रहे।

 

मुस्लिम ख़िदमतगारों ने एक दायरा बना रखा था और छुरे हाथ में थे। दायरे में बारी-बारी एक मुहाजिर उनके छुरे की ज़द में आता था और बड़ी चाबुकदस्ती और मश्शाक़ी से हलाक कर दिया जाता था। चंद मिनटों में चार सौ आदमी ख़त्म कर दिए गए और फिर मैं आगे चली। अब मुझे अपने जिस्म के ज़र्रे-ज़र्रे से घिन्न आने लगी।

 

इस क़दर पलीद और मुतअफ़्फ़िन महसूस कर रही थी। जैसे मुझे शैतान ने सीधा जहन्नुम से धक्का देकर पंजाब में भेज दिया हो। अटारी पहुंच कर फ़िज़ा बदल सी गई। मुग़लपुरा ही से बल्लोची सिपाही बदले गए थे और उनकी जगह डोगरों और सिख सिपाहियों ने ले ली थी। लेकिन अटारी पहुंच कर तो मुसलमानों की इतनी लाशें हिंदू मुहाजिर ने देखीं कि उनके दिल फ़र्त–ए–मसर्रत से बाग़ बाग़ हो गए।

 

आज़ाद हिन्दोस्तान की सरहद आ गई थी वर्ना इतना हसीन मंज़र किस तरह देखने को मिलता और जब मैं अमृतसर स्टेशन पर पहुंची तो सिखों के नारों ने ज़मीन–आसमान को गूँजा दिया। यहां भी मुसलमानों की लाशों के ढेर के ढेर थे और हिंदू जाट और सिख और डोगरे हर डिब्बे में झांक कर पूछते थे, कोई शिकार है, मतलब ये कि कोई मुसलमान है। एक डिब्बे में चार हिंदू ब्राह्मण सवार हुए। सर घुटा हुआ, लंबी चोटी, राम–नाम की धोती बाँधे, हरिद्वार का सफ़र कर रहे थे।

 

यहां हर डिब्बे में आठ दस सिख और जाट भी बैठ गए, ये लोग राइफ़लों और बल्लमों से मुसल्लह थे और मशरिक़ी पंजाब में शिकार की तलाश में जा रहे थे। उनमें से एक के दिल में कुछ शुब्हा सा हुआ। उसने एक ब्राह्मण से पूछा, “ब्राह्मण देवता किधर जा रहे हो?” “हरिद्वा,। तीर्थ करने।” “हरिद्वार जा रहे हो कि पाकिस्तान जा रहे हो।” “मियां अल्लाह अल्लाह करो।”

 

दूसरे ब्राह्मण के मुँह से निकला। जाट हंसा, “तो आओ अल्लाह अल्लाह करें।” ऊँथा सहां, शिकार मिल गया भई आ ओर हीदा अल्लाह बेली करिए। इतना कह कर जाट ने बल्लम नक़ली ब्राह्मण के सीने में मारा। दूसरे ब्राह्मण भागने लगे। जाटों ने उन्हें पकड़ लिया।

 

 “ऐसे नहीं ब्राह्मण देवता, ज़रा डाक्टरी मुआइना कराते जाओ। हरिद्वार जाने से पहले डाक्टरी मुआइना बहुत ज़रूरी होता है।” डाक्टरी मुआइने से मुराद ये थी कि वो लोग ख़त्ना देखते थे और जिसके ख़त्ना हुआ होता उसे वहीं मार डालते। चारों मुसलमान जो ब्राह्मण का रूप बदल कर अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे। वहीं मार डाले गए और मैं आगे चली।

 

रास्ते में एक जगह जंगल में मुझे खड़ा कर दिया गया और मुहाजिरीन और सिपाही और जाट और सिख सब निकल कर जंगल की तरफ़ भागने लगे। मैंने सोचा शायद मुसलमानों की बहुत बड़ी फ़ौज उन पर हमला करने के लिए आ रही है।

 

इतने में क्या देखती हूँ कि जंगल में बहुत सारे मुसलमान मुज़ारे अपने बीवी–बच्चों को लिए छुपे बैठे हैं। सिरी अस्त अकाल और हिंदू धरम की जय के नारों की गूंज से जंगल काँप उठा, और वो लोग नर्ग़े में ले लिए गए। आधे घंटे में सब सफ़ाया हो गया।

 

बुड्ढे, जवान, औरतें और बच्चे सब मार डाले गए। एक जाट के नेज़े पर एक नन्हे बच्चे की लाश थी और वो इस से हवा में घुमा घुमा कर कह रहा था, आई बैसाखी। आई बैसाखी जटा लाए हे हे। जालंधर से उधर पठानों का एक गांव था। यहां पर गाड़ी रोक कर लोग गांव में घुस गए।

 

सिपाही और मुहाजिरीन और जाट पठानों ने मुक़ाबिल किया। लेकिन आख़िर में मारे गए, बच्चे और मर्द हलाक हो गए तो औरतों की बारी आई और वहीं इसी खुले मैदान में जहां गेहूँ के खलियान लगाए जाते थे और सरसों के फूल मुस्कुराते थे और इफ़्फ़त मआब बीबियाँ अपने खाविंदों की निगाह–ए–शौक़ की ताब न ला कर कमज़ोर शाख़ों की तरह झुकी झुकी जाती थीं।

 

इसी वसीअ मैदान में जहां पंजाब के दिल ने हीर–राँझे और सोहनी–महीनवाल की ला–फ़ानी उलफ़त के तराने गाय थे। उन्हें शीशम, सरस और पीपल के दरख़्तों तले वक़्ती चकले आबाद हुए। पच्चास औरतें और पाँच सौ ख़ाविंद, पच्चास भेड़ें और पाँच सौ क़स्साब, पच्चास सोहनियाँ और पाँच महिंवाल, शायद अब चनाब में कभी तुग़्यानी न आएगी।

 

शायद अब कोई वारिस शाह की हीरो न गायगा। शायद अब मिर्ज़ा साहिबान की दास्तान उलफ़तो इफ़्फ़त इन मैदानों में कभी न गूँजेगी। लाखों बार लानत हो इन राहनुमाओं पर और उनकी सात पुश्तों पर, जिन्होंने इस ख़ूबसूरत पंजाब, इस अलबेले प्यारे, सुनहरे पंजाब के टुकड़े टुकड़े कर दिए थे और इसकी पाकीज़ा रूह को गहना दिया था।

 

इसके मज़बूत जिस्म में नफ़रत की पीप भर दी थी, आज पंजाब मर गया था, उसके नग़मे गुंग हो गए थे, उसके गीत मुर्दा, उसकी ज़बान मुर्दा, उसका बेबाक निडर भोला भाला दिल मुर्दा, और न महसूस करते हुए और आँख और कान न रखते हुए भी मैंने पंजाब की मौत देखी और ख़ौफ़ से और हैरत से मेरे क़दम इस पटरी पर रुक गए।

 

पठान मर्दों और औरतों की लाशें उठाए जाट और सिख और डोगरे और सरहदी हिंदू वापस आए और मैं आगे चली। आगे एक नहर आती थी ज़रा ज़रा वक़फ़े के बाद मैं रोक दी जाती, जूंही कोई डिब्बा नहर के पुल पर से गुज़रता, लाशों को ऐन नीचे नहर के पानी में गिरा दिया जाता। इस तरह जब हर डिब्बे के रुकने के बाद सब लाशें पानी में गिरा दी गईं तो लोगों ने देसी शराब की बोतलें खोलीं और मैं ख़ून और शराब और नफ़रत की भाप उगलती हुई आगे बढ़ी।

 

लुधियाना पहुंच कर लुटेरे गाड़ी से उतर गए और शहर में जा कर उन्होंने मुसलमानों के मुहल्लों का पता ढूंढ निकाला और वहां हमला किया और लूट मार की और माल–ए–ग़नीमत अपने काँधों पर लादे हुए तीन चार घंटों के बाद स्टेशन पर वापस आए जब तक लूट मार न हो चुकी। जब तक दस बीस मुसलमानों का ख़ून न हो चुकता।

 

जब तक सब मुहाजिरीन अपनी नफ़रत को आलूदा न कर लेते मेरा आगे बढ़ना दुशवार किया नामुमकिन था, मेरी रूह में इतने घाव थे और मेरे जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा गंदे नापाक ख़ूनियों के क़हक़हों से इस तरह रच गया था कि मुझे ग़ुसल की शदीद ज़रूरत महसूस हुई। लेकिन मुझे मालूम था कि इस सफ़र में कोई मुझे नहाने न देगा।

 

अंबाला स्टेशन पर रात के वक़्त मेरे एक फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे में एक मुसलमान डिप्टी कमिशनर और उसके बीवी–बच्चे सवार हुए। इस डिब्बे में एक सरदार साहिब और उनकी बीवी भी थे, फ़ौजियों के पहरे में मुसलमान डिप्टी कमिशनर को सवार कर दिया गया और फ़ौजियों को उनकी जानो माल की सख़्त ताकीद कर दी गई।

 

रात के दो बजे मैं अंबाले से चली और दस मील आगे जा कर रोक दी गई। फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा अंदर से बंद था। इसलिए खिड़की के शीशे तोड़ कर लोग अंदर घुस गए और डिप्टी कमिशनर और उसकी बीवी और उसके छोटे छोटे बच्चों को क़त्ल किया गया ।

 

डिप्टी कमिशनर की एक नौजवान लड़की थी और बड़ी ख़ूबसूरत, वो किसी कॉलेज में पढ़ती थी। दो एक नौजवानों ने सोचा उसे बचा लिया जाये। ये हुस्न, ये रानाई, ये ताज़गी ये जवानी किसी के काम आ सकती है। इतना सोच कर उन्होंने जल्दी से लड़की और जे़वरात के बक्स को सँभाला और गाड़ी से उतर कर जंगल में चले गए।

लड़की के हाथ में एक किताब थी। यहां ये कान्फ़्रैंस शुरू हुई कि लड़की को छोड़ दिया जाये या मार दिया जाये। लड़की ने कहा, मुझे मारते क्यों हो? मुझे हिंदू कर लू। मैं तुम्हारे मज़हब में दाख़िल हो जाती हूँ। तुम में से कोई एक मुझसे ब्याह कर ले।

 

मेरी जान लेने से क्या फ़ायदा! ठीक तो कहती है, एक बोला। मेरे ख़्याल में, दूसरे ने क़ता कलाम करते हुए और लड़की के पेट में छुरा घोंपते हुए कहा, मेरे ख़्याल में इसे ख़त्म कर देना ही बेहतर है। चलो गाड़ी में वापस चलो।

 

क्या कान्फ़्रैंस लगा रखी है तुमने। लड़की जंगल में घास के फ़र्श पर तड़प–तड़प कर मर गई।

 

उसकी किताब उसके ख़ून से तर–ब–तर हो गई। किताब का उनवान था, “इश्तिराकीयत अमल और फ़लसफ़ा अज़ जान स्ट्रैटजी।“

 

वो ज़हीन लड़की होगी। उसके दिल में अपने मुल्क-ओ-क़ौम 

की ख़िदमत के इरादे होंगे। उसकी रूह में किसी से मुहब्बत 

करने, किसी को चाहने, किसी को गले लग जाने, किसी बच्चे 

को दूध पिलाने का जज़्बा होगा। वो लड़की थी, वो माँ थी, वो 

बीवी थी, वो महबूबा थी। वो कायनात की तख़्लीक़ का मुक़द्दस 

राज़ थी और अब उसकी लाश जंगल में पड़ी थी, जहां गीदड़, 

गिद्ध और कव्वे उसकी लाश को नोच-नोच कर खा रहे थे। 

इश्तिराकीयत, फ़लसफ़ा और अमल वहशी दरिंदे उन्हें नोच नोच कर खा रहे थे और कोई नहीं बोलता और कोई आगे नहीं बढ़ता और कोई अवाम में से इन्क़िलाब का दरवाज़ा नहीं खोलता और मैं रात की तारीकी आग और शरारों को छुपा के आगे बढ़ रही हूँ और मेरे डिब्बों में लोग शराब पी रहे हैं और महात्मा गांधी के जय कारे बुला रहे हैं।

 

एक अर्से के बाद मैं बंबई वापिस आई हूँ, यहां मुझे नहला–धुला कर शैड में रख दिया गया है।

 

मेरे डिब्बों में अब शराब के भपारे नहीं हैं, ख़ून के छींटे नहीं हैं, वहशी ख़ूनी क़हक़हे नहीं हैं मगर रात की तन्हाई में जैसे भूत जाग उठते हैं, मुर्दा रूहें बेदार हो जाती हैं और ज़ख्मियों की चीख़ें और औरतों के बैन और बच्चों की पुकार, हर तरफ़ फ़िज़ा में गूँजने लगती है और मैं चाहती हूँ कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर न ले जाये।

 

मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलना चाहती हूँ कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर न ले जाये। मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलना चाहती, मैं इस ख़ौफ़नाक सफ़र पर दुबारा नहीं जाना चाहती।

 

अब मैं उस वक़्त जाऊँगी, जब मेरे सफ़र पर दो तरफ़ा सुनहरे गेहूँ के खलियान लहराएँगे और सरसों के फूल झूम–झूम कर पंजाब के रसीले उलफ़त भरे गीत गाएँगे और किसान हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर खेत काटेंगे।

 

बीज बोएँगे, हरे हरे खेतों में नलाई करेंगे और उनके दिलों में मह्र–ओ–वफ़ा और आँखों में शर्म और रूहों में औरत के लिए प्यार और मुहब्बत और इज़्ज़त का जज़्बा होगा।

 

मैं लकड़ी की एक बेजान गाड़ी हूँ लेकिन फिर भी मैं चाहती हूँ कि इस ख़ून और गोश्त और नफ़रत के बोझ से मुझे न लादा जाये। मैं क़हतज़दा इलाक़ों में अनाज ढोऊँगी। मैं कोयला और तेल और लोहा लेकर कारख़ानों में जाऊँगी मैं किसानों के लिए नए हल और नई खाद मुहय्या करूँगी। मैं अपने डिब्बों में किसानों और मज़दूरों को ख़ुशहाल टोलियां लेकर जाऊँगी, और बाइस्मत औरतों की मीठी निगाहें अपने मर्दों का दिल टटोल रही होंगी।

The End 

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Express: By Sri Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative
that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.” with
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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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