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Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

by Engr. Maqbool Akram
March 17, 2025
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 कर्बला का युद्ध या करबाला की लड़ाई, वर्तमान इराक़ में कर्बला शहर में इस्लामिक कैलेंडर 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर, 680 ईस्वी) में हुई थी। इस लड़ाई में एक तरफ उमय्यद खलीफा की सेनाएँ थीं, जो मुस्लिम दुनिया पर अपना शासन मजबूत करना चाहती थीं। दूसरी तरफ इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद के पोते हुसैन इब्न अली के नेतृत्व में एक छोटा सा दल था, जो इस्लाम के नेतृत्व का एक प्रतिद्वंद्वी दावेदार था।

 

10 अक्टूबर, 680 ई. को सुबह नमाज़ के समय से ही जंग छिड़, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असग़र (इमाम हुसैन के बेटे) के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हज़रत क़ासिम (इमाम हुसैन के भतीजे) को ज़िंदा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन–मोहम्मद (इमाम हुसैन के भांजे) के सिर पर तलवार से वार कर शहीद कर दिया था।

 

नाटक का कथानक

हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति पैदा हुई कि ख़िलाफ़त का पद उनके चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को न मिलकर हज़रत अबु बकर
को

मिला। हज़रत मुहम्मद ने स्वयं ही व्यवस्था की थी कि खल़ीफ़ा सर्व–सम्मति से चुना जाया करे, और सर्व–सम्मति से हज़रत अबु बकर चुने गए।

हज़रत अबु बकर के बाद हज़रत उमर फ़ारूक़
उनके

बाद हज़रत उस्मान तीसरे
खलीफा हुवे
।कुछ लोगों ने उसकी हत्या कर डाली। उसमान के संबंधियों को संदेह हुआ कि यह हत्या हज़रत अली की ही प्रेरणा से हुई है।

 

अतएव उसमान के बाद अली खल़ीफा तो हुए, किंतु उसमान के एक आत्मीय संबंधी ने जिसका नाम मुआबिया था, और जो शाम–प्रांत का सूबेदार था, अली के हाथों पर वैयत न की, अर्थात् अली को खल़ीफ़ा नहीं स्वीकार किया।

अली ने मुआबिया को दंड देने के लिए सेना नियुक्त की। लड़ाइयाँ हुईं, किंतु पाँच वर्ष की लगातार लड़ाई के बाद अंत को मुआबिया की ही विजय हुई।

 

हजरत अली अपने प्रतिद्वंदी के समान कूटनीतिज्ञ न थे। वह अभी मुआबिया को दबाने के लिए एक नई सेना संगठित करने की चिंता में ही थे कि एक हत्यारे ने उनका वध कर डाला।

 

मुआबिया ने घोषणा की थी कि अपने बाद मैं अपने पुत्र को खलीफ़ा नामजद न करूंगा, वरन हज़रत अली के ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनाऊँगा। किंतु जब इसका अंत–काल निकट आया, तो उसने अपने पुत्र यजीद को खलीफ़ा बना दिया। हसन इसके पहले ही मर चुके थे। उनके छोटे भाई हज़रत हुसैन खिलाफ़त के उम्मीदवार थे, किंतु मुआबिया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाकर हुसैन को निराश कर दिया।

 

खलीफ़ा हो जाने के बाद यजीद को सबसे अधिक भय हुसैन का था, क्योंकि वह हज़रत अली के बेटे और हज़रत मुहम्मद के नवासे (दौहित्र) थे। उनकी माता का नाम फ़ातिमा जोहरा था, जो मुसलिम विदूषियों में सबसे श्रेष्ठ थी। हुसैन बड़े विद्वान, सच्चरित्र, शांत–प्रकृति, नम्र, सहिष्णु, ज्ञानी, उदार और धार्मिक पुरुष थे। वह वीर थे, ऐसे वीर कि अरब में कोई उनकी समता का न था।

 

किंतु वह राजनीतिक छल–प्रपंच और कुत्सित व्यवहारों से अपरिचित थे। यजीद इन सब बातों में निपुण था। उसने अपने पिता और मुआबिया से कूटनीति की शिक्षा पाई थी। उसके गोत्र (कबीले) के सब लोग कूटनीति के पंडित थे। धर्म को वे केवल स्वार्थ का साधन समझते थे। भोग–विलास एवं ऐश्वर्य का उनको चस्का पड़ चुका था। ऐसे भोग–लिप्सु प्राणियों के सामने सत्यव्रती हुसैन की भला कब तक चल सकती थी और चली भी नहीं।

 

यजीद ने मदीने के सूबेदार को लिखा कि तुम हुसैन से मेरे नाम पर बैयत अर्थात् उनसे मेरे खलीफ़ा होने की शपथ लो। मतलब यह कि यह गुप्त रीति से उन्हें कत्ल करने का षड्यंत्र रचने लगा। हुसैन ने बैयत लेने से इनकार किया। यजीद ने समझ लिया कि हुसैन बगावत करना चाहते हैं, अतएव वह उसे लड़ने के लिए शक्ति–संचय करने लगा।

 

कूफ़ा–प्रांत के लोगों को हुसैन से प्रेम था। वे उन्हीं को अपना खलीफ़ा बनाने के पक्ष में थे। यजीद को जब यह बात मालूम हुई, तो उसने कूफ़ा के नेताओं को धमकाना और नाना प्रकार के कष्ट देना आरंभ किया। कूफ़ा निवासियों ने हुसैन के पास, जो उस समय मदीने से मक्के चले गए थे, संदेशा भेजा कि आप आकर हमें इस संकट से मुक्त कीजिए। हुसैन ने इस संदेश का कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह राज्य के लिए खून बहाना नहीं चाहते थे।

 

इधर कूफ़ा में हुसैन के प्रेमियों की संख्या बढ़ने लगी। लोग उनके नाम पर बैयत करने लगे। थोड़े ही दिनों में इन लोगों की संख्या २० हजार तक पहुंच गई। इस बीच में इन्होंने हुसैन की सेवा में दो संदेश और भेजे, किंतु हुसैन ने उसका भी कुछ उत्तर नहीं दिया।

 

अंत को कूफ़ावालों ने एक अत्यन्त आग्रहपूर्ण पत्र लिखा, जिसमें हुसैन को हज़रत मुहम्मद और दीन–इस्लाम के निहोरे अपनी सहायता करने को बुलाया। उन्होंने बहुत अनुनय–विनय के बाद लिखा था– ‘‘अगर आप न आए, तो कल क़यामत के दिन अल्लाह–ताला के हुजूर में हम आप पर दावा करेंगे कि या इलाही, हुसैन ने हमारे ऊपर अत्याचार किया था, क्योंकि हमारे ऊपर अत्याचार किया था, क्योकि हमारे ऊपर अत्याचार होते देखकर वह खामोश बैठे रहे।

 

और, सब लोग फरियाद करेंगे कि ऐ खुदा हुसैन से हमारा बदला दिला दे। उस समय आप क्या जवाब देंगे, और खुदा को क्या मुँह दिखायेंगे?’’

 

धर्म–प्राण हुसैन ने जब यह पत्र पढ़ा, तो उनके रोंएं खड़े हो आए, और उनका हृदय जल के समान तरल हो गया। उनके गालों पर धर्मानुराग के आँसू बहने लगे। उन्होंने तत्काल उन लोगों के नाम एक आश्वासन पत्र लिखा– ‘‘मैं शीघ्र ही तुम्हारी सहायता को आऊँगा’’ और अपने चचेरे भाई मुसलिम के हाथ उन्होंने यह पत्र कूफ़ावालों के पास भेज दिया।

 

मुसलिम मार्ग की कठिनाइयां झेलते हुए कूफ़ा पहुँचे। उस समय कूफ़ा का सूबेदार एक शांत पुरुष था। उसने लोगों को समझाया– ‘‘नगर में कोई उपद्रव न होने पावे। मैं उस समय तक किसी से न बोलूंगा, जब तक कोई मुझे क्लेश न पहुँचावेगा।

जिस समय यजीद को मुसलिम के कूफ़ा पहुंचने का समाचार मिला, तो उसने एक दूसरे सूबेदार को कूफ़ा में नियुक्त किया जिसका नाम ‘ओबैद बिन जियाद’ था। यह बड़ा निष्ठुर और कुटिल प्रकृति का मनुष्य था। इसने आते ही आते कूफ़ा में एक सभा की, जिसमें घोषणा की गई कि ‘‘जो लोग यजीद के नाम पर बैयत लेगें, उनके साथ किसी तरह की रियायत न की जाएगी। हम उसे सूली पर चढ़ा देंगे, और उसकी जागीर या वृत्ति जब्त कर लेंगे।“

 

इस घोषणा ने यथेष्ट प्रभाव डाला। कूफ़ावालों के हृदय कांप उठे। जियाद को वे भली–भाँति जानते थे। उस दिन जब मुसलिम भी मसजिद में नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़े हुए, तो किसी ने उनका साथ न दिया। जिन लोगों ने पहले हुसैन की सेवा में आवेदन–पत्र भेजा था, उनका कहीं पता न था। सभी के साहस छूट गए थे।

 

मुसलिम ने एक बार कुछ लोगों की सहायता से जियाद को घेर लिया। किंतु जियाद ने अपने एक विश्वास–पात्र सेवक के मकान की छत पर चढ़कर लोगों को यह संदेशा दिया कि ‘जो लोग यजीद की मदद करेंगे, उन्हें जागीर दी जायेगी, और जो लोग बगावत करेंगे, उन्हें ऐसा दंड दिया जायेगा कि कोई उनके नाम को रोनेवाला भी न रहेगा।“ नेतागण यह धमकी सुनकर दहल उठे और मुसलिम को छोड़–छोड़कर दस–दस, बीस–बीस आदमी विदा होने लगे।

 

यहां तक कि मुसलिम वहां अकेला रह गया। विवश हो उसने एक वृद्धा के घर में शरण लेकर अपनी जान बचाई। दूसरे दिन जब ओबैदुल्लाह को मालूम हुआ कि गिरफ्तार करने के लिए भेजा। असहाय मुसलिम ने तलवार खींच ली, और शत्रुओं पर टूट पड़े। पर अकेले कर ही क्या सकते थे। थोड़ी देर में जख्मी होकर गिर पड़े। उस समय सूबेदार से उनकी जो बातें हुईं, उनसे विदित होता है कि वह कैसे वीर पुरुष थे। गवर्नर उनकी भय–शून्य बातों से और भी गरम हो गया। उसने तुरंत कत्ल करा दिया।

 

हुसैन, अपने पूज्य पिता की भाँति, साधुओं का–सा सरल जीवन व्यतीत करने के लिए बनाए गए थे। कोई चतुर मनुष्य होता, तो उस समय दुर्गम पहाड़ियों में जा छिपता, और यमन के प्राकृतिक दुर्गों में बैठकर चारों ओर से सेना एकत्र करता।

 

देश
में उनका जितना मान था, और लोगों को उन पर जितनी भक्ति थी, उसके देखते २०–२५ हज़ार सेना एकत्र कर लेना उनके लिए कठिन न था।

 

इतना ही नहीं, उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं खलीफ़ा बनना चाहता हूं। वह सदैव यही कहते रहे कि मुझे लौट जाने दो मैं किसी से लड़ाई नहीं करना चाहता। उनकी आत्मा इतनी उच्च थी कि वह सांसारिक राज्य–भोग के लिए संग्राम–क्षेत्र में उतरकर उसे कलुषित नहीं करना चाहते थे।

 

उनके जीवन का उद्देश्य आत्मशुद्धि और धार्मिक जीवन था। वह कूफ़ा में जाने को इसलिए सहमत नहीं हुए थे कि वहां अपनी खिलाफ़त स्थापित करें, बल्कि इसलिए कि वह अपने सहधर्मियों की विपत्तियों को देख न सकते थे। वह कूफ़ा जाते समय अपने सब संबंधियों से स्पष्ट शब्दों में कह गए थे कि मैं शहीद होने जा रहा हूं। यहां तक कि एक स्वप्न का भी उल्लेख करते थे, जिसमें आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

 

उनकी टेक केवल यह थी कि मैं यजीद के नाम पर बैयत न करूंगा। इसका कारण यही था कि यजीद मद्यप, व्यभिचारी और इस्लाम धर्म के नियमों का पालन न करने वाला था। यदि यजीद ने उनकी हत्या कराने की चेष्टा न की होती, तो वह शांतिपूर्वक मदीने में जीवन–भर पड़े रहते। पर समस्या यह थी कि उनके जीवित रहते हुए यजीद को अपना स्थान सुरक्षित नहीं मालूम हो सकता था।

 

उसके निष्कंटक राज्य भोग के लिए हुसैन का उसके मार्ग से सदा के लिए हट जाना परम आवश्यक था। और, इस हेतु कि खिलाफत एक धर्म–प्रधान संस्था थी, अतः यजीद को हुसैन के रण–क्षेत्र में आने का उतना भय न था, जितना उनके शांति–सेवन का। क्योंकि शांति सेवन से जनता पर उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। इसीलिए यजीद ने यह भी कहा था कि हुसैन का केवल उसके नाम पर बैयत लेना ही पर्याप्त नहीं, उन्हें उसके दरबार में भी आना चाहिए।

 

यजीद को उनकी बैयत पर विश्वास न था। वह उन्हें किसी भांति अपने दरबार में बुलाकर उनकी जीवन–लीला को समाप्त कर देना चाहता था। इसलिए यह धारणा कि हुसैन अपने खिलाफ़त कायम करने के लिए कूफ़ा गए, निर्मूल सिद्ध होती है। वह कूफ़ा इसलिए गए कि अत्याचार पीड़ित कूफ़ा निवासियों की सहायता करें। उन्हें प्राण–रक्षा के लिए कोई जगह न दिखाई देती थी।

यदि वह खिलाफ़त के उद्देश्य से कूफ़ा जाते, तो अपने कुटुंब के केवल ७२ प्राणियों के साथ न जाते जिनमें बाल–वृद्ध सभी थे।

 

कूफा़वालों पर कितना ही विश्वास होने पर भी वह अपने साथ अधिक मनुष्यों को लाने का प्रयत्न करते। इसके सिवा उन्हें यह बात पहले से ज्ञात थी कि कूफ़ा के लोग अपने वचनों पर दृढ़ रहने वाले नहीं हैं।

 

उन्हें कई बार इसका प्रमाण भी मिल चुका था कि थोड़े–से प्रलोभन पर भी वे अपने वचनों में विमुख हो जाते हैं। हुसैन के इष्ट–मित्रों ने उनका ध्यान कूफ़ावालों की इस दुर्बलता की ओर खींचा भी, पर हुसैन ने उनकी सलाह न मानी। वह शहादत का प्याला पीने के लिए, अपने को धर्म की वेदी पर बलि देने के लिए विकल हो रहे थे।

 

इससे हितैषियों के मना करने पर भी वह कूफ़ा चले गए। दैव–संयोग से यह तिथि वही थी, जिस दिन कूफ़ा में मुसलिम शहीद हुए थे। १८ दिन की कठिन यात्रा के बाद वह नाहनेवा के समीप, कर्बला के मैदान में पहुंचे, जो फ़रात नदी के किनारे था। इस मैदान में न कोई बस्ती थी, न कोई वृक्ष। कूफ़ा के गवर्नर की आज्ञा से वह इसी निर्जन और निर्जल स्थान में डेरे डालने को विवश किये गए।

 

शत्रुओं की सेना हुसैन के पीछे–पीछे मक्के से ही आ रही थी और सेनाएं भी चारों ओर फैला दी गई थीं कि हुसैन किसी गुप्त मार्ग से कूफ़ा न पहुँच जाये। कर्बला पहुंचने के एक दिन पहले उन्हें हुर की सेना मिली। हुसैन ने हुर को बुलाकर पूछा– ‘‘तुम मेरे पक्ष में हो, या विपक्ष में?’’ हुर ने कहा– ‘‘मैं आपसे लड़ने के लिए भेजा गया हूं।“

 

जब तीसरा पहर हुआ, तो हुसैन नमाज पढ़ने के लिए खड़े हुए, और उन्होंने हुर से पूछा– ‘‘तू क्या मेरे पीछे खड़ा होकर नमाज पढ़ेगा?’’ हुर ने हुसैन के पीछे खड़े होकर नमाज पढ़ना स्वीकार किया। हुसैन ने अपने साथियों के साथ हुर की सेना को भी नमाज पढ़ाई। हुर ने यजीद की बैयत ली थी। पर वह सद्विचारशील पुरुष था।

 

हज़रत मोहम्मद के नवासे से लड़ने में उसे संकोच होता था। वह बड़े धर्म–संकट में पड़ा। वह सच्चे हृदय से चाहता था कि हुसैन मक्का लौट जायें। प्रकट रूप से तो हुसैन को ओबैदुल्लाह के पास ले चलने की धमकी देता था। पर हृदय से उन्हें अपने हाथों कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहता था।

 

उसने खुले हुए शब्दों में हुसैन से कहा– ‘‘यदि मुझसे कोई ऐसा अनुचित कार्य हो गया, जिससे आपको कोई कष्ट पहुंचा, तो मेरे लोक और परलोक, दोनों बिगड़ जायेंगे। और, यदि मैं आपको ओबैदुल्लाह के पास न ले जाऊं; तो कूफ़ा में नहीं घुस सकता।

 

हाँ, संसार विस्तृत है, कयामत के दिन आपके नाना की कृपा दृष्टि से वंचित होने की अपेक्षा कहीं यही अच्छा है कि किसी दूसरी ओर निकल जाऊं। आप मुख्य मार्ग को छोड़कर किसी अज्ञात मार्ग से कहीं और चले जायें। मैं कूफ़ा के गवर्नर (अर्थात् ‘आमिल’) को लिख दूंगा कि हुसैन से मेरी भेंट नहीं हुई, वह किसी दूसरी ओर चले गए हैं।

 

मैं आपको कसम दिलाता हूं कि अपने पर दया कीजिए, और कूफ़ा न जाइए। पर हुसैन ने कहा– ‘‘तुम मुझे मौत से क्यों डराते हो? मैं तो शहीद होने के लिए ही चला हूं।“उस समय यदि हुसैन हुर की सेना पर आक्रमण करते, तो संभव था, उसे परास्त कर देते, पर अपने इष्ट–मित्रों के अनुरोध करने पर भी उन्होंने यहीं कहा– ‘‘हम लड़ाई के मैदान में अग्रसर न होंगे, यह हमारी नीति के विरुद्ध है।“

 

इधर हुसैन और उनके आत्मीय तथा सहायकगण तो अपने–अपने खीमे गाड़ रहे थे, और उधर ओबैदुल्लाह– कूफ़ा का गर्वनर– लड़ाई की तैयारी कर रहा था। उसने ‘उमर–बिन–साद’ नाम के एक योद्धा को बुलाकर हुसैन की हत्या करने के लिये नियुक्त किया, और इसके बदले में ‘रै सूबे के आमिल का उच्च पद देने को कहा।

 

उमर–बिन–साद विवेकहीन प्राणी न था। वह भली–भांति जानता था कि हुसैन की हत्या करने से मेरे मुख पर ऐसी कालिमा लग जायेगी, किंतु ‘रै’ सूबे का उच्च पद उसे असमंजस में डाले हुए था। उसके संबंधियों ने समझाया– ‘‘तुम हुसैन की हत्या करने का बीड़ा न उठाओ, इसका परिणाम अच्छा न होगा।“

 

उमर ने जाकर ओबैदुल्लाह से कहा– ‘‘मेरे सिर पर हुसैन के वध का भार न रखिए।“ परंतु ‘रै’ की गवर्नरी छोड़ने को वह तैयार न हो सका। अतएव अब ओबैदुल्लाह ने साफ़–साफ़ कह दिया कि ‘रै’ का उच्च पद हुसैन की हत्या किए बिना नहीं मिल सकता। यदि तुम्हें यह सौदा महंगा जंचता हो, तो कोई जबरदस्ती नहीं है। किसी और को यह पद दिया जायेगा।“

 

तो उमर का आसन डोल गया। वह इस निषिद्ध कार्य के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी आत्मा को ऐश्वर्य–लालसा के हाथ बेच दिया। ओबैदुल्लाह ने प्रसन्न होकर उसे बहुत कुछ इनाम–इकराम दिया, और चार हज़ार सैनिक साथ नियुक्त कर दिए। उमर–बिन–साद की आत्मा अब भी उसे क्षुब्ध करती रही।

 

वह सारी रात पड़ा अपनी अवस्था या दुरवस्था पर विचार करता रहा। वह जिस विचार से देखता, उसी से अपना यह कर्म घृणित जान पड़ता था। प्रातःकाल वह फिर कूफ़ा के गवर्नर के पास गया। उसने फिर अपनी लाचारी दिखाई। परंतु ‘रै’ की सूबेदारी ने उस पर फिर विजय पाई।

 

जब वह चलने लगा, तो ओबैदुल्लाह ने उसे कड़ी ताक़ीद कर दी कि हुसैन और उनके साथी फ़रात–नदी के समीप किसी तरह न आने पावें, और एक घूंट पानी भी न पी सकें। हुर की १०००० सेनाएं भी उमर के साथ आ मिली।

 

इस प्रकार उमर के साथ पांच हजार सैनिक हो गए। उमर अब भी यही चाहता था कि हुसैन के साथ लड़ना न पड़े। उसने एक दूत उनके पास भेजकर पूछा– ‘‘आप अब क्या निश्चय करते हैं?’’ हुसैन ने कहा– ‘कूफ़ावालों ने मुझसे दग़ा की है। उन्होंने अपने कष्ट की कथा कहकर मुझे यहां बुलाया और अब वह मेरे शत्रु हो गए हैं। ऐसी दशा में मैं मक्के लौट जाना चाहता हूँ, यदि मुझसे जबरदस्ती रोका न जाये।“

उमर मन से प्रसन्न हुआ कि शायद अब कलंक से बच जाऊं। उसने यह समाचार तुरंत ओबैदुल्लाह को लिख भेजा। किंतु वहां तो हुसैन की हत्या करने का निश्चय हो चुका था। उसने उमर को उत्तर दिया ‘‘हुसैन से बैयत लो, और यदि वह इस पर राजी न हो, तो मेरे पास लाओ।’’

 

शत्रुओं को, इतनी सेना जमा कर लेने पर भी, सहसा हुसैन पर आक्रमण करते डर लगता था कि कहीं जनता में उपद्रव न मच जाये। इसलिये इधर तो उमर–बिन–साद कर्बला को चला, और उधर ओबैदुल्लाह ने कूफ़ा की जामा मसजिद में लोगों को जमा किया। उसने एक व्याख्या न देकर उन्हें समझाया– ‘यजीद के खानदान ने तुम लोगों पर कितना न्याययुक्त शासन किया है, और वे तुम्हारे साथ कितनी उदारता से पेश आए हैं!

 

यजीद ने अपने सुशासन से देश को कितना समृद्धिपूर्ण बना दिया है! रास्ते में अब चोरों और लुटेरों का कोई खटका नहीं है। न्यायालयों में सच्चा, निष्पक्ष न्याय होता है। उसने कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिए हैं। राजभक्तों की जागीरें बढ़ा दी गई हैं, विद्रोहियों के कोर्ट तहस–नहस कर दिए गए हैं, जिससे वे तुम्हारी शांति में बाधक न हो सकें।

 

तुम्हारे जीवन–निर्वाह के लिए उसने चिरस्थायी सुविधाएं दे रखी हैं। ये सब उसकी दयाशीलता और उदारता के प्रमाण हैं। यजीद ने मेरे नाम फ़रमान भेजा है कि तुम्हारे ऊपर विशेष कृपा–दृष्टि करूं, और जिसे एक दीनार वृत्ति मिलती है, उनकी वृत्ति सौ दीनार कर दूं। इसी तरह वेतन में भी वृद्धि कर दूँ, और तुम्हें उसके शत्रु हुसैन से लड़ने के लिये भेजूं।

 

यदि
तुम अपनी उन्नति और वृद्धि चाहते हो तो तुरंत तैयार हो जाओ। विलंब करने से काम बिगड़ जायेगा।’’

यह व्याख्यान सुनते ही स्वार्थ के मतवाले नेता लोग, धर्माधर्म के विचार को तिलांजलि देकर,
समर–भूमि में चलने की तैयारी करने लगे। ‘शिमर’ ने चार हजार सवार जमा किए, और वह बिन–साद से जा मिला। रिकाब ने दो हजार, हसीन के चार हजार, मसायर ने तीन हज़ार और अन्य एक सरदार ने दो हजार के पास अब पूरे २२ सहस्र सैनिक हो गए।

 

कैसी दिल्लगी है कि ७२ आदमियों को परास्त करने के लिये इतनी बड़ी सेना खड़ी हो जाये! उन बहत्तर आदमियों में भी कितने ही बालक और कितने ही वृद्ध थे।

 

फिर प्यास ने सभी को अधमरा कर रखा था। किंतु शत्रुओं के अवस्था को भली–भांति समझकर यह तैयारी की थी। हुसैन ही शक्ति न्याय और सत्य की शक्ति थी। यह यजीद और हुसैन का संग्राम न था। यह इस्लाम धार्मिक जन–सत्ता का पूर्व इस्लाम की राज–सत्ता से संघर्ष था। हुसैन उन सब व्यवस्थाओं के पक्ष में थे, जिनका हज़रत मोहम्मद द्वारा प्रादुर्भाव हुआ था। मगर यजीद उन सभी बातों का प्रतिपक्षी था।

 

दैवयोग से इस समय अधर्म ने धर्म को पैरों–तले दबा लिया था, पर यह अवस्था एक क्षण में परिवर्तित हो सकती थी, और इसके लक्षण भी प्रकट होने लगे थे। बहुतेरे सैनिक जाने को तो चले जाते थे, परंतु अधर्म के विचार से सेना से भाग आते थे। जब ओबैदुल्लाह को यह बात मालुम हुई, तो उसने कई निरीक्षण नियुक्त किए। उनका काम यहीं था कि भागनेवालों का पता लगावे। कई सिपाही इस प्रकार जान से मार डाले गए। यह चाल ठीक पड़ी। भगोड़े भयभीत होकर फिर सेना में जा मिले।

 

इस संगाम में सबसे घोर निर्दयता जो शत्रुओं ने हुसैन के साथ की, वह पानी का बंद कर देना था। ओबैदुल्लाह ने उमर को कड़ी ताक़ीद कर दी थी कि हुसैन के आदमी नदी के समीप न जाने पावें। यहां तक की वे कुएं खोदकर भी पानी न निकालनें पावें।

 

एक सेना फ़रात–नदी की रक्षा करने कि लिये भेज दी गई। उसने हुसैन की सेना और नदी के बीच में डेरा जमाया। नदी की ओर जाने का कोई रास्ता न रहा। थोड़े नहीं, छः हजार सिपाही नदी का पहरा दे रहे थे। हुसैन ने यह ढंग देखा, तो स्वयं इन सिपाहियों के सामने गए, और उन पर प्रभाव डालने की कोशिश की, पर उन पर कुछ असर न हुआ।

Kathakar of “KARBALA”–Munshi Prem Changra

लाचार
होकर वह लौट आए। उस समय प्यास के मारे इनका कंठ सूखा जाता था, स्त्रियां और बच्चे बिलख रहे थे, किंतु उन पाषाण–हृदय पिशाचों को इन पर दया न आती थी।

 

शहीद होने के तीन दिन पहले हुसैन और अन्य प्राणी प्यास के मारे बेहोश हो गए। तब हुसैन ने अपने प्रिय बंधु अब्बास को बुलाकर, उन्हें बीस सवार तथा तीस पैदल देकर, उनसे कहा– ‘‘अपने साथ बीस–मश्कें ले जाओ और पानी से भर लाओ।“ अब्बास ने सहर्ष इस आदेश को स्वीकार किया। वह नदी के किनारे पहुंचे। पहरेदार ने पुकारा– कौन हैं?’’ इधर उस पहरेदार का एक भाई भी था। वह बोला– ‘‘मैं हूं, तेरे चाचा का बेटा, पानी पीने आया हूं।“

 

पहरेदार ने कहा– पी ले।“ भाई ने उत्तर दिया– ‘‘कैसे पी लूं?’’ जब हुसैन और उनके बाल–बच्चे प्यासे मर रहे हैं, तो मैं किस मुंह से पी लूं?’’ पहरेदार ने कहा– यह तो जानता हूं, पर करूं क्या, हुक्म से मजबूर हूं!’’ अब्बास के आदमी मश्के लेकर नदी की ओर गए, और पानी भर लिया। रक्षक–दल ने इनको रोकने की चेष्टा की, पर ये लोग पानी लिए हुए बच निकले।

 

हुसैन ने फिर अंतिम बार संधि करने का प्रयास किया। उन्होंने उमर–बिनसाद को संदेसा भेजा कि ‘‘आज मुझसे रात को, दोनों सेनाओं के बीच में, मिलना।“ उमर निश्चित समय पर आया। हुसैन से उसकी बहुत देर तक एकांत में बात हुई। हुसैन ने संधि की तीन बातें बताई– (१) या तो हम लोगों को मक्के वापस जाने दिया जाये, (२) या सीमा–प्रांत की ओर शांतिपूर्वक चले जाने की अनुमति मिले, (३) या मैं यजीद के पास भेज दिया जाऊं।

 

उमर ने ओबैदुल्लाह को यह शुभ सूचना सुनाई, और वह उसे मानने के लिये तैयार भी मालूम होता था, किंतु शिमर ने जोर दिया कि दुश्मन चंगुल में आ फंसा है, तो उसे निकलने न दो, नहीं तो उसकी शक्ति इतनी बढ़ जायेगी कि तुम उसका सामना न कर सकोगे। उमर मज़बूत हो गया।

 

मोहर्रम की ९ वीं तारीख को, अर्थात हुसैन की शहादत से एक दिन पहले, कूफ़ा के दिहातों से कुछ लोग हुसैन की सहायता करने आए। औबेदुल्लाह को यह बात मालूम हुई, तो उसने उन आदमियों को भगा दिया, और उमर को लिखा– ‘‘अब तुरंत हुसैन पर आक्रमण करो, नहीं तो इस टाल–मटोल की तुम्हें सज़ा दी जायेगी।“ फिर क्या था; प्रातःकाल बाइस हज़ार योद्धाओं की सेना हुसैन से लड़ने चली। जुगून की चमक को बुझाने के लिये मेघ–मंडल का प्रकोप हुआ।

 

हुसैन को मालूम हुआ, तो वह घबराए। उन्हें यह अन्याय मालूम हुआ कि अपने साथ अपने साथियों और सहायकों के भी प्राणों की आहुति दें। उन्होंने इन लोगों को इसका एक अवसर देना उचित समझा कि वे चाहें, तो अपनी जान बचावें, क्योंकि यजीद को उन लोगों से कोई शत्रुता न थी।

 

इसलिए उन्होंने उमर–बिन–साद को पैग़ाम भेजा कि हमें एक रात के लिये मोहलत दो। उमर ने अन्य सहायकों तथा परिवारवालों को बुलाकर कहा– ‘‘कल ज़रूर यह भूमि मेरे खून से लाल हो जायेगी। मैंने तुम लोगों का हृदय से अनुगृहीत हूं कि तुमने मेरा साथ दिया। मैं अल्लाहताला से दुआ करता हूं कि वह तुम्हें इस नेकी का जवाब दे।

 

तुमसे अधिक वीरात्मा और पवित्र हृदयवाले मनुष्य संसार में न होंगे मैं तुम लोगों को सहर्ष आज्ञा देता हूं कि तुममें से जिसकी जहाँ इच्छा हो, चल जाय, मैं किसी को दबाना नहीं चाहता, न किसी को मजबूर करता हूं। किंतु इतना अनुरोध अवश्य करूँगा कि तुममें से प्रत्येक मनुष्य मेरे आत्मीय जनों में से एक–एक को अपने साथ ले ले। संभव है, खुदा तुम्हें तबाही से बचा ले, क्योंकि शत्रु मेरे रुधिर का प्यासा है। मुझे पा जाने पर उसकी और किसी की तलाश न होगी।

 

यह कहकर उन्होंने इसलिये चिराग़ बुझा दिया कि जाने वालों को संकोचवश वहां न रहना पड़े। कितना महान्, पवित्र और निस्वार्थ आत्मसमर्पण है।

 

किंतु इस वाक्य का समाप्त होना था कि सब लोग चिल्ला उठे– ‘‘हम ऐसा नहीं कर सकते। खुदा वह दिन न दिखावे कि हम आपके बाद जीते रहें। हम दूसरों को क्या मुँह दिखायेंगे? उनसे क्या यह कहेंगे कि हम अपने स्वामी, अपने बंधु तथा इष्ट मित्र को शत्रुओं के बीच में छोड़ आए, उनके साथ एक भाला भी न चलाया, हम अपने को, अपने धन को और अपने कुल को आपके चरणों पर न्योछावर कर देंगे।“

 

इस तरह ९ वीं तारीख, मोहर्रम की रात, आधी कटी। शेष रात्रि लोगों ने ईश्वर–प्रार्थना में काटी। हुसैन ने एक रात की मोहलत इसलिये नहीं ली थी कि समर की रही–सही तैयारी पूरी कर ले। प्रातःकाल तब सब लोग सिजदे करते और अपनी मुक्ति के लिये दुआएं मांगते रहे।

 

प्रभात
हुआ– वह
प्रभात, जिनकी संसार के इतिहास में उपमा नहीं है? किसकी आँखों ने यह अलौकिक दृश्य देखा होगा कि ७२ आदमी बाइस हजार योद्धाओं के सम्मुख खड़े हुसैन के पीछे सुबह की नमाज इसलिये पढ़ रहे हैं कि अपने इमाम के पीछे नमाज पढ़ने का शायद यह अंतिम सौभाग्य है।

वे कैसे रणधीर पुरुष हैं, जो जानते हैं कि एक क्षण में हम सब–के–सब इस आंधी में उड़ जायेंगे लेकिन फिर भी पर्वत की भांति अचल खड़े हैं, मानों संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उन्हें भयभीत कर सके। किसी के मुख पर चिंता नहीं, कोई निराश और हताश नहीं है।

 

युद्ध के उन्माद ने, अपने सच्चे स्वामी के प्रति अटल विश्वास ने, उनके मुख को तेजस्वी बना दिया है। किसी के हृदय में कोई अभिलाषा नहीं है। अगर कोई अभिलाषा है, तो यही कि कैसे अपने स्वामी की रक्षा करें।

 

इसे
सेना कौन कहेगा, जिसके दमन को बाइस हजार योद्धा एकत्र किए गए थे। इन बहत्तर प्राणियों में एक भी ऐसा न था, जो सर्वथा लड़ाई के योग्य हो। सब–के–सब भूख–प्यास से तड़प रहे थे। कितनों के शरीर पर तो मांस का नाम तक नहीं था, और उन्हें बिना ठोकर खाए दो पग चलना भी कठिन था। इस प्राण–पीड़ा के समय ये लोग उस सेना से लड़ने को तैयार थे, जिसमें अरब देश के वे चुने हुए जवान थे, जिन पर अरब को गर्व हो सकता था।

 

उन दिनों समर की दो पद्वतियाँ थीं– एक तो सम्मिलित, जिसमें समस्त सेना मिलकर लड़ती थी, और दूसरी व्यक्तिगत, जिसमें दोनों दलों से एक–एक योद्धा निकलकर लड़ते थे। हुसैन के साथ इतने कम आदमी थे कि सम्मिलित संग्राम में शायद वह एक क्षण भी न ठहर सकते। अतः उनके लिए दूसरी शैली ही उपयुक्त थी। एक–एक करके योद्धागण समर–क्षेत्र में आने और शहीद होने लगे।

 

लेकिन इसके पहले अंतिम बार हुसैन ने शत्रुओं से बड़ी ओजस्वी भाषा में अपनी निर्दोषिता सिद्ध की। उनके अंतिम शब्द ये थे–

 

“खुदा की कसम, मैं पद–दलित और अपमानित होकर तुम्हारी शरण न जाऊंगा, और न मैं दासों की भांति लाचार होकर यजीद की खिलाफ़त को स्वीकार करूंगा। ऐ खुदा के बंदो! मैं खुदा से शांति का प्रार्थी हूँ। और उन प्राणियों से जिन्हें, खुदा पर विश्वास नहीं है, जो ग़रूर में अंधे हो रहे हैं पनाह मांगता हूँ।“

 

शेष कथा आत्म–त्याग, प्राणसमर्पण, विशाल धैर्य और अविचल वीरता की अलौकिक और स्मरणीय गाथा है, जिसके कहने और सुनने से आंखों में आंसू उमड़ आते हैं, जिस पर रोते हुए लोगों की १३ शताब्दियां बीत गई और अभी अनंत शताब्दियां रोते बीतेंगी।

 

हुर का जिक्र पहले आ चुका है। यह वही पुरुष है, जो एक हज़ार सिपाहियों के साथ हुसैन के साथ–साथ आया था, और जिसने उन्हें इस निर्जल मरुभूमि पर ठहरने को मज़बूर किया था। उसे अभी तक आशा थी कि शायद ओबैदुल्लाह हुसैन के साथ न्याय करे। किंतु जब उसने देखा कि लड़ाई छिड़ गई, और अभी समझौते की कोई आशा नहीं है, तो अपने कृत्य पर लज्जित होकर वह हुसैन की सेना से आ मिला।

 

जब वह अनिश्चित भाव से अपने मोरचे से निकलकर हुसैन की सेना की ओर चला, तब उसी सेना के एक सिपाही ने कहा– ‘तुमको मैंने किसी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।’

 

हुर ने उत्तर दिया– ‘‘मैं स्वर्ग और नरक की दुविधा में पड़ा हुआ हूं, और सच यह है कि मैं स्वर्ग के सामने किसी चीज की हस्ती नहीं समझता, चाहे कोई मुझे मार डाले।“

 

यह
कहकर उसने घोड़े के एड़ लगाई, और हुसैन के पास आ पहुंचा। हुसैन ने उसका अपराध क्षमा कर दिया, और उसे गले से लगाया। तब हुर ने अपनी सेना को संबोधित करके कहा– ‘‘तुम लोग हुसैन की शर्ते नहीं मानते? कितने खेद की बात है कि तुमने स्वयं उन्हें बुलाया, और जब वह तुम्हारी सहायता करना चाहते हैं, किंतु तुम लोग उन्हें कहीं जाने भी नहीं देते? सबसे बड़ा अन्याय यह कह रहे हो कि उन्हें नदी से पानी नहीं लेने देते! जिस पानी को पशु और पक्षी तक पी सकते हैं, ‘वह भी उन्हें मयस्सर नहीं!’’

 

इस पर शत्रुओं ने उन पर तीरों की वर्षा कर दी, और हुर भी लड़ते हुए वीर–गति को प्राप्त हुए। उन्हीं के साथ उनका पुत्र भी शहीद हुआ।

 

आश्चर्य होता है और दुःख भी कि इतना सब कुछ हो जाने पर भी हुसैन को इन नर–पिशाचों से कुछ कल्याण की आशा बनी हुई थी। वह जब अवसर पाते थे, तभी अपनी निर्दोषिता प्रकट करते हुए उनसे आत्मरक्षा की प्रार्थना करते थे। दुराशा में भी यह आशा इसलिये थी कि वह हज़रत मोहम्मद के नवासे थे, और उन्हें आशा होती थी कि शायद अब भी मैं उनके नाम पर इस संकट से मुक्त हो जाऊं। उनके इन सभी संभाषणों में आत्मरक्षा की इतनी विशद चिंता व्याप्त है, जो दीन चाहे न हो, पर करुण अवश्य हैं, और एक आत्मदर्शी पुरुष के लिये, जो हो कि स्वर्ग में हमारे लिये अकथनीय सुख उपस्थित है शोभा नहीं देती।

 

हुर के शहीद होने के पश्चात् हुसैन ने फिर शत्रु–सेना के सम्मुख खड़े होकर कहा–

”मैं तुमसे निवेदन करता हूं कि मेरी इन तीन बातों में से एक को मान लो।

(१) ‘‘मुझे यजीद के पास जाने दो कि उससे बहस करूं। यदि मुझे निश्चय हो जायेगा कि वह सत्य पर है, तो मैं उसकी बैयत कर लूंगा।’’

इस पर किसी पाषाण–हृदय ने कहा– ‘‘तुम्हें यजीद के पास न जाने देंगे। तुम मधुरभाषी हो, अपनी बातों में उसे फंसा लोगे, और इस समय मुक्त होकर देश में विद्रोह फैला दोगे।’’

(२) ‘‘जब यह नहीं मानते, तो छोड़ दो कि मैं अपने नाना के रोज़े की मुजाविरी करूँ।“

(इस पर भी किसी ने उपर्युक्त शंका प्रकट की)

(३) ‘‘अगर ये दोनों बातें तुम्हें अस्वीकार हैं, तो मुझे और मेरे साथियों को पानी दो; क्योंकि प्राणि–मात्र को पानी लेने का हक है।’’

(इसका भी वैसा ही कठोर निराशाजनक उत्तर मिला।)

 

इस प्रश्नोत्तर के बाद हुसैन की ओर से बुरीर मैदान में आए। उधर से मुअक्कल निकला। बुरीर ने अपने प्रतिपक्षी को मार लिया और फिर खुद सेना के हाथों मारे गए। बुरीर के बाद अब्दुल्लाह निकले और दस–बीस शत्रुओं को मारकर काम आए।

 

अब्दुल्लाह के बाद उनका पुत्र, जिसका नाम वहब था, मैदान में आया था। वहब का विवाह हुए अभी केवल सत्रह दिन हुए थे। हाथ की मेहंदी तक न छूटी थी। जब उसके पिता शहीद हो गए, तो उसकी माता उससे बोलीं–

 

“मीख्वाहम कि मरा अज़ खूने–खुद शरबते दिही ताशीरे कि अजपिस्ताने मन खुरदई बर तो हलाल गरदद।“

 

कितने सुंदर शब्द है, जो शायद ही किसी वीर–माता के मुंह से निकले होंगे। भावार्थ यह है–

‘मेरी इच्छा है कि तू अपने रक्त का एक घूंट मुझे दे, जिसमें कि यह दूध जो तूने मेरे स्तन से पिया है, तुझ पर हलाल हो जाये।’

 

वहब के शहीद हो जाने के बाद क्रम से कई योद्धा निकले, और मारे गए थे इस्लामी पुस्तकों मं् तो उनकी वीरता का बड़ा प्रशंसात्मक वर्णन किया गया है। उनमें से प्रत्येक ने कई–कई सौ शुत्रओं को परास्त किया। ये भक्तों के मानने की बातें हैं। जो लोग प्यास से तड़प रहे थे, भूख से आंखों–तले, अंधेरा छा जाता था उनमें इतनी असाधारण शक्ति और वीरता कहां से आ गई? उमर–विन–साद की सेना में ‘शिमर’ बड़ा क्रूर और दुष्ट आदमी था।

 

इस समर में हुसैन और उनके साथियों के साथ जिस अपमान–मिश्रित निर्दयता का व्यवहार किया गया। उसका दायित्व इसी शिमर के सिर है। यह धार्मिक संग्राम था, और इतिहास साक्षी है कि धार्मिक संग्राम में पाशविक प्रवृत्तियां अत्यंत प्रचंड रूप धारण कर लेती हैं। पर इस संग्राम में ऐसे प्रतिष्ठित प्राणी के साथ जितनी घोर दुष्टता और दुर्जनता दिखाई गई, उसकी उपमा संसार के धार्मिक संग्रामों में भी मुश्किल से मिलेगी।

 

हुसैन के जितने साथी शहीद हुए, प्रायः उन सभी की लाशों को पैरों तले रौंदा गया, उनके सिर काटकर भालों पर उछाले और पैरों से ठुकराए गए। पर कोई भी अपमान और बड़ी–से–बड़ी निर्दयता उनकी उस कीर्ति को नहीं मिटा सकती, जो इस्लाम के इतिहास का आज भी गौरव बढ़ा रही है।

 

अब निज कुटुंब के योद्धाओं की बारी आई। इस वंश के पूर्वज हाशिम नाम के एक पुरुष थे। इसीलिए हज़रत मोहम्द का वंश हाशिम कहलाता है। इस संग्राम में पहला हाशिमी जो क्षेत्र में आया, वह अब्दुल्ला था। यह उसी मुसलिम नाम के वीर का बालक था, जो पहले शहीद हो चुका था।

 

उसके बाद कुटुंब के और वीर निकले। जाफ़र इमाम हसन के तीन बेटे, अब्बास के कई भाई, हज़रत अली के कई बेटे और सब बारी–बारी से लड़कर शहीद हुए। हज़रत अब्बास से हुसैन ने कहा– ‘‘मैं बहुत प्यासा हूं।“ संध्या हो गई थी। अब्बास पानी लाने चले, पर रास्ते में घिर गए।

 

वह असाधारण वीर पुरुष थे। हाशिमी लोगों में इतनी वीरता से कोई नहीं लड़ा। एक हाथ कट गया, तो दूसरे हाथ से लड़े। जब वह हाथ भी कट गया, तो जमीन पर गिर पड़े। उनके मरने का हुसैन को अत्यंत शोक हुआ। बोले– ‘‘अब मेरी कमर टूट गई।“

 

अब्बास के बाद हुसैन के नौजवान बेटे अकबर मैदान में उतरे। हुसैन ने अपने हाथों उन्हें शस्त्रों से सुसज्जित किया। आह! कितना हृदय–विदारक दृश्य है। बेटे ने खड़े होकर हुसैन से जाने की आज्ञा मांगी, पिता का वीर हृदय अधीर हो गया। हुसैन ने निराशा और शोक से अली अकबर को देखा, फिर आँखें नीची कर लीं और रो दिए। जब वह शहीद हो गया तो शोक–विहृल पिता ने जाकर लाश के मुंह पर अपना मुंह रख दिया, और कहा– ‘‘बेटा, तुम्हारे बाद अब जीवन को धिक्कार है।’’ पुत्र–प्रेम की इहलोक की ममता के आदर्श पर, गौरव पर कितनी बड़ी विजय है?

 

अब हुसैन अकेले रह गए। केवल एक सात वर्ष का भतीजा और हसन का एक दुधमुंहां पोता बाकी था। हुसैन घोड़े पर सवार महिलाओं के खीमों की ओर आए, और बोले– ‘‘बच्चे को लाओ, क्योंकि अब उसे कोई प्यार करने वाला न रहेगा।“ स्त्रियों ने शिशु को उनकी गोद में रख दिया। वह अभी उसे प्यार कर रहे थे कि अकस्मात् एक तीर उसकी छाती में लगा, और वह हुसैन की गोद में ही चल बसा?उन्होंने तुरंत तलवार से गड्ढा खोदा, और बच्चे की लाश वहीं गाड़ दी?

 

फिर अपने भतीजे को शत्रुओं के सामने खड़ा करके बोले– ‘‘ऐ अत्याचारियों, तुम्हारी निगाह में मैं पापी हूं, पर इस बालक ने तो कोई अपराध नहीं किया, इसे क्यों प्यासा मारते हो?’’ यह सुनकर किसी नर–पिशाच ने एक तीर चलाया, जो बालक के गले को छेदता हुआ हुसैन की बांह में गड़ गया। तीर के निकलते ही बालक की क्रीड़ाओं का अंत हो गया।

 

हुसैन अब रण–क्षेत्र की ओर चले। अब तक रण में जाने वालों को वह अपने खीमे के द्वार तक पहुंचाने आया करते थे। उन्हें पहुंचाने वाला अब कोई मर्द न था। तब आपकी बहन जैनब ने आपको रोकर विदा किया। हुसैन अपनी पुत्री सकीना को बहुत प्यार करते थे।

जब वह रोने लगी, तो आपने उसे छाती से लगाया, और तत्काल शोक के आवेग में कई शेर पढ़े, जिनका एक–एक शब्द करुण–रस में डूबा हुआ है। उनके रण–क्षेत्र में आते ही शत्रुओं में खलबली पड़ गई, जैसे गीदड़ों में शेर आ गया। हुसैन तलवार चलाने लगे, और इतनी वीरता से लड़े कि दुश्मनों के छक्के छूट गए। जिधर उनका घोड़ा बिजली की तरह कड़ककर जाता था, लोग काई की भांति फट जाते थे। कोई सामने आने की हिम्मत न कर सकता था। इस भांति सिपाहियों के दलों को चीरते–फाड़ते वह फ़रात के किनारे पहुंच गए, और पानी पीना चाहते थे कि किसी ने कपट भाव से कहा–

 

“तुम यहाँ पानी पी रहे हो, उधर सेना स्त्रियों के खीमों में घुसी जा रही है।“इतना सुनते ही लपककर इधर आए, तो ज्ञात हुआ कि किसी ने छल किया है। फिर मैदान में पहुँचे, और शत्रु–दल का संहार करने लगे।

 

यहाँ तक कि शिमर ने तीन सेनाओं को मिलाकर उन पर हमला करने की आज्ञा दी। इतना ही नहीं बग़ल से और पीछे से भी उन पर तीरों की बौछार होने लगी।

 

यहाँ
तक कि जख़्मों से चूर होकर वह जमीन पर गिर पड़े, और शिमर की आज्ञा से एक सैनिक ने उनका सिर काट लिया। कहते हैं, जैनब यह दृश्य देखने के लिये खीमें से बाहर निकल आई थी। उसी समय उमर–बिन–साद से उसका सामना हो गया। तब वह बोली– ‘‘क्यों उमर, हुसैन इस बेकसी से मारे जायें, और तुम देखते रहो।“उमर का दिल भर आया आंखें सजल हो गई और कई बूंदें डाढ़ी पर गिर पड़ी।

हुसैन की शहादत के बाद शत्रुओं ने उनकी लाश की जो दुर्गति की, वह इतिहास की अत्यंत लज्जाजनक घटना है। उससे यह भली–भांति प्रकट हो जाता है कि मानव–हृदय कितना नीचे गिर सकता है।ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी धर्म–संचालक के नवासों को अपने नाना के अनुयायियों के हाथों पर बुरा दिन देखना पड़ा हो।


The
End

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Saar of Karbala (Play): Munshi Premchand katha samrat” with help of materials
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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

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March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

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March 17, 2025
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