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इब्ने इंशा एक शायर एक जोगी: इस बस्ती के इक कूचे में, इंशा नाम का दीवाना इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफसाना

by Engr. Maqbool Akram
June 18, 2024
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इंशा का जन्म भारत के पंजाब के जालंधर जिले के फिल्लौर तहसील में हुआ था । उनके पिता राजस्थान से थे । १९४६ में, उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री प्राप्त की और उसके बाद १९५३ में कराची विश्वविद्यालय से एमए किया । वे रेडियो पाकिस्तान, संस्कृति मंत्रालय और पाकिस्तान के राष्ट्रीय पुस्तक केंद्र सहित विभिन्न सरकारी सेवाओं से जुड़े थे।

 

उन्होंने कुछ समय के लिए संयुक्त राष्ट्र में भी काम किया और इसने उन्हें कई स्थानों की यात्रा करने में सक्षम बनाया, जिनमें से सभी ने उनके यात्रा वृत्तांतों को प्रेरित किया।

 

इब्ने इंशा का असली नाम शेर मोहम्मद खान था. वो पंजाब में पैदा हुए लेकिन उर्दू ज़ुबान पर उनकी पकड़ इतनी ज़बरदस्त है कि दिल्ली  वाले भी उनसे पनाह मांगते थे. वो दिल्ली के रोडे थे और उनकी ज़ुबान सनद मानी जाती है.

 

उनकी शायरी उर्दू के दूसरे शायरों से इन मायनों में अलग है कि वहां पंजाबी रंग व आहंग नुमायाँ है. लोक गीतों का असर साफ़ दिखता है और वो हिंदी के शब्दों का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. उनकी शायरी अमीर खुसरो के ज़्यादा क़रीब है.

Ibn- e – Insha (The Poet)

 अपने युवा वर्षों में, इब्न–ए–इंशा कुछ समय के लिए लाहौर में प्रसिद्ध फ़िल्म कवि साहिर लुधियानवी के साथ भी रहे थे। वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन में भी सक्रिय थे।

 

इंशा का अपनी पत्नी
के साथ कभी पति-पत्नी जैसा रिश्ता रहा ही नहीं. परेशान हो कर इंशा ने सुसाइड की भी
कोशिश की थी, शादीशुदा
ज़िंदगी में बहुत सारे मसले थे. बीवी से तालुक़ात बिल्कुल अच्छे नहीं थे. बचपन में रिश्ते में शादी कर दी गयी थी और दोनो के दरमियान कभी भी मियाँ बीवी जैसा रिश्ता नहीं रहा.

 

इंशा ने कई बार ख़ुदकुशी की भी कोशिश की. आगे चल कर इंशा को एक शादीशुदा औरत से प्यार हो गया. इंशा अपने शायर बनने का क्रेडिट उसी महबूबा को देते हैं. और वो उस पर अपनी सारी कमाई लुटाने लगे. एक बार मुफ़्ती ने टोका तो आंसू भरी आँखों से कहा कि तुम देखते नहीं, उसने मुझे शायर बना दिया।

 

उर्दू के शायरों के ताल्लुक़ से एक लतीफ़ा बहुत मशहूर है कि अगर उनकी शादी नाकाम हो जाती है तो शायरी बहुत कामयाब हो जाती है और अगर शादी कामयाब हो जाती है तो शायरी नाकाम हो जाती है. अल्लामा इक़बाल से लेकर एक बड़ी तादाद है उर्दू शायरों की जिनका विवाहित जीवन तो नाकाम रहा लेकिन शायरी बहुत कामयाब रही.


इब्ने इंशा गंभीर बीमारी से जूझते हुए इलाज के लिए लंदन गए, और वो वहां अपने पैरों पर ना लौट सके।

 

उनकी सबसे प्रसिद्ध ग़ज़ल इंशा जी उठो अब कूच करो एक प्रभावशाली क्लासिक ग़ज़ल है।


वह कविता और गीत जिसने जाहिर तौर पर तीन लोगों (अमानत अली खान, इब्ने इंशा और असद अमानत अली) की जान ले ली थी।


1970 के दशक की शुरुआत में उन्होंने एक कविता लिखी थी, जिसने उनकी ख्याति को काफ़ी बढ़ा दिया था।

 

 इसका नाम था इंशा जी उठो ।

‘इंशा’
जी
उठो
अब
कूच
करो
इस
शहर
में
जी
को
लगाना
क्या

वहशी
को
सुकूँ
से
क्या
मतलब
जोगी
का
नगर
में
ठिकाना
क्या

इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही

जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या

 

शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में

क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या

 

फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो ये एक घड़ी

जो दिल में है लब पर आने दो शरमाना क्या घबराना क्या

 

उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है

उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़्साना क्या

 

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें

जिसे देख सकें पर छू न सकें वौ दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या

 

उस को भी जला दुखते हुए मन को इक शोला लाल भबूका बन

यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या

 

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे

दीवानों की सी बात करे तो और करे दीवाना क्या

 

यह कविता एक उदास आदमी के बारे में है, जो एक समारोह में (संभवतः वेश्यालय में) रात बिताने के बाद, अचानक उठकर जाने का निर्णय लेता है – न केवल उस स्थान को, बल्कि शहर को भी।

 

वह अपने घर की ओर वापस चलता है और सुबह के शुरुआती घंटों में पहुँच जाता है। वह सोचता है कि वह अपनी प्रेमिका को क्या बहाना देगा। वह एक गलत समझा गया आदमी है जो अर्थहीन अस्तित्व में अर्थ ढूँढ़ रहा है।

 

क्या यह कविता की शक्ति है जो मृत्यु का गीत बनाती है या यह महज संयोग है?

इस कविता ने जल्द ही प्रसिद्ध पूर्वी शास्त्रीय और ग़ज़ल गायक अमानत अली खान का ध्यान आकर्षित कर लिया।

 

अमानत ऐसे शब्दों की तलाश में थी जो शहरी जीवन (कराची और लाहौर में) की दयनीयता को दर्शा सकें।

 

किसी ने उन्हें इब्ने इंशा का इंशा जी उठो दिया और अमानत ने तुरंत इसे गाने की इच्छा व्यक्त की।

 

उन्होंने इब्ने इंशा से मुलाकात की और उन्हें बताया कि वे ग़ज़ल को कैसे गाने की योजना बना रहे हैं। इंशा इस बात से बहुत प्रभावित हुए कि कैसे अमानत ने खुद को कविता के निराश नायक की तरह बदल लिया

Ustad Amanat Ali Khan

अमानत अली खान अचानक निधन हो गया।

जनवरी
1974
में जब अमानत अली खान ने पहली बार पाकिस्तान टेलीविजन (PTV) पर ग़ज़ल पेश की, तो चैनल पर तुरंत ही इस ग़ज़ल को फिर से प्रसारित करने की मांग करने वाले पत्रों की बाढ़ आ गई। यह गायक की सबसे बड़ी हिट बन गई।

 

लेकिन इस जीत का आनंद लेने के कुछ ही महीनों बाद, अमानत अली खान का अचानक निधन हो गया। वह सिर्फ 52 साल के थे।

 

फिर जनवरी 1978 में, अमानत अली खान द्वारा रचित इंशा जी उठो का 1974 में पीटीवी पर पहली बार प्रसारण होने के ठीक चार साल बाद, कविता के लेखक इब्ने इंशा की मृत्यु हो गई।

1977 में उन्हें कैंसर हुआ और वे इलाज के लिए लंदन चले गए। अस्पताल में रहते हुए उन्होंने अपने करीबी दोस्तों को कई पत्र लिखे। अपने आखिरी पत्र में उन्होंने इंशा जी उठो की सफलता और अमानत अली खान की मौत पर आश्चर्य व्यक्त किया। फिर अपनी बिगड़ती हालत पर दुख जताते हुए उन्होंने लिखा: ‘ये मनहूस ग़ज़ल कितनों की जान ले लेगी…?’

 

अगले ही दिन उनका निधन हो गया। वह सिर्फ 50 वर्ष के थे।असद अमानत अली खान का ठीक वैसे ही जैसे उनके पिता की मृत्यु के समय थी।

अमानत अली के बेटे असद अमानत अली भी एक प्रतिभाशाली पूर्वी शास्त्रीय और ग़ज़ल गायक थे। 1974 में अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने नियमित रूप से टीवी पर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। लेकिन अपने पिता के विपरीत, असद ने उर्दू फिल्मों के लिए गायन (‘पार्श्व गायक‘ के रूप में) में भी कदम रखा। 1980 के दशक में उन्हें पर्याप्त पहचान और प्रसिद्धि मिली।

Asad Amanat Ali Khan

वे हमेशा ग़ज़ल संगीत समारोहों में लोकप्रिय रहे, अपनी खुद की मशहूर ग़ज़लें, फ़िल्मी गीत और अपने पिता के गीत गाते रहे। 2006 में, उन्होंने पीटीवी के लिए एक संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने इंशा जी उठो गाकर समापन किया। संयोग से, यह उनका आखिरी संगीत कार्यक्रम था और इंशा जी उठो उनका आखिरी गाना था।

 

कुछ महीने बाद, उनकी मृत्यु भी अचानक हो गई, ठीक वैसे ही जैसे 33 साल पहले उनके पिता की हुई थी। असद की उम्र भी 52 साल थी, ठीक वैसे ही जैसे उनके पिता की मृत्यु के समय थी।

 

संगीत समारोहों (और टीवी पर) के दौरान, अक्सर प्रशंसक उनसे इंशा जी उठो गाने के लिए कहते हैं। वह लगभग हमेशा मना कर देते हैं। इसलिए नहीं कि वह इसे गाने से डरते हैं, बल्कि इसलिए कि
2007
में उनके भाई की मृत्यु के बाद (और उससे पहले, 1974 में उनके पिता के निधन के बाद), शफ़क़त के पैतृक परिवार ने शफ़क़त से कभी भी इंशा जी उठो न गाने की विनती की थी

 

जब सब माया है, जब सब निरर्थक है फिर हमारी उपलब्धि का भी क्या मतलब है?

जो अपने मस्तिष्क से लड़ रहा है वो किसी को क्या छलेगा? जब शहर के लोग ना रस्ता दें तो दीवानों की सी ना बात करे तो और करे दीवाना क्या?

 

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें

जिसे देख सकें पर छू न सकें वह दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या

 

उसको भी जला दुखते हुए मन, एक शोला लाल भभूका बन

यूं आंसू बन बह जाना क्या, यूँ माटी में मिल जाना क्या

 

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यों बन में न जा बिसराम करें

दीवानों की सी ना बात करे तो और करे दीवाना क्या

 

इब्न–ए–इंशा साहब की शायरी में आपको इश्क, मोहब्बत, या व्यंग जैसे तमाम एहसास सराबोर मिलेंगे.

 

इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना

इस बस्ती के इक कूचे में

 

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

इक नार पे जान को हार गया, मशहूर है उस का अफसाना

 

उस नार में ऐसा रूप ना था, जिस रूप से दिन की धुप दबे

इस शहर में क्या क्या गोरी है, महताब रुखे गुलनार लबे

कुछ बात थी उस की बातों में, कुछ भेद थे उस के चितवन में

वही भेद के जोत जगाते हैं, किसी चाहने वाले के मन में

उसे अपना बनाने की धुन में, हुआ आप ही आप से बेगाना

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

न चंचल खेल जवानी के, ना प्यार की अल्हड घातें थी

बस राह में उन का मिलना था और फ़ोन पे उन की बातें थी

इस इश्क पे हम भी हंसते थे, बे हासिल सा बे हासिल था?

इक जोर बिफरते सागर में, ना कश्ती थी ना साहिल था

जो बात थी इन के जी में थी, जो भेद था यक्सर अनजाना

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

इक रोज़ मगर बरखा रुत में, वो भादों थी या सावन था

दीवार पे बीच सुमंदर के, यह देखने वालों ने देखा

मस्ताना हाथ में हाथ दिए, यह एक कगर पे बैठे थे

यूँ शाम हुई फिर रात हुई, जब सैलानी घर लौट गए

क्या रात थी वो – जी चाहता है उस रात पे लिखें अफसाना

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहोत पैमान बहोत

वो जिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं, नुकसान बहोत

वो नार यह कह कर दूर हुई – “मजबूरी साजन मजबूरी“

यह वेह्शत से रंजूर हुए और रंजूरी सी रंजूरी

उस रोज़ हमें मालूम हुआ, उस शख्स का मुश्किल समझाना

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

गो आग से छाती जलती थी, गो आँख से दरया बहता था

हर एक से दुःख नहीं कहता था, चुप रहता था ग़म सहता था

नादाँ हैं वो जो छेडते हैं, इस आलम में दीवानों को

उस शख्स से एक जवाब मिला, सब अपनों को बेगानों को

“कुछ और कहो तो सुनता हों, इस बाब में कुछ मत फरमाना“

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

अब आगे का तहकीक नहीं, गो सुनने को हम सुनते थे

उस नार की जो जो बातें थी, उस नार के जो जो किस्से थे

इक शाम जो उस को बुलवाया, कुछ समझाया बेचारे ने

उस रात यह किस्सा पाक किया, कुछ खा ही लिया दुखयारे ने

क्या बात हुई, किस टार हुई? अखबार से लोगों ने जाना

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

 

हार बात की खोज तो ठीक नहीं, तुम हम को कहानी कहने दो

उस नार का नाम मकाम है क्या, इस बात पे पर्दा रहने दो

हम से भी सौदा मुमकिन है, तुम से भी जफा हो सकती है

यह अपना बयाँ हो सकता है, यह अपनी कथा हो सकती है

वो नार भी आखिर पछताई, किस काम का ऐसा पछताना?

इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना 


फ़र्ज़ करो हम अहल–ए–वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों…

फ़र्ज़ करो हम अहल–ए–वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों

 

फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो

 

फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हम ने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूँढे हम ने बहाने हों

 

फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सच–मुच के मय–ख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूटा झूटी पीत हमारी हो

 

फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बजोग का हम ने ढोंग रचाया हो

 

फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो

 

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा….. कुछ ने कहा ये चांद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा– इब्न–ए–इंशा

 

इनकी सबसे मशहूर ग़ज़ल रही है ‘कल चौदहवीं की रात थी…‘, जिसे जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ भी दी और ग़ज़ल आज भी ग़ज़ल प्रेमियों के
दिलों पर राज़ करती है. पढ़ें उन्हीं इब्न-ए-इंशा के मशहूर शेर
…

 

जगजीत सिंह की आवाज़ में गायी उनकी ग़ज़ल “कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा” से हमने भी अपनी रातों को मुनव्वर किया है.

 

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा…..

कल चौदहवीं की रात थी, शब–भर रहा चर्चा तेरा

कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा

 

हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए

हम हँस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा

 

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं महफ़िलें

हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा

 

कूचे को तेरे छोड़कर जोगी ही बन जाएँ मगर

जंगल तेरे, पर्बत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा

 

हाँ हाँ तेरी सूरत हसीं, लेकिन तू ऐसा भी नहीं

इक शख़्स के अशआर से, शोहरा हुआ क्या क्या तेरा

 

बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल

आशिक़ तेरा, रुस्वा तेरा, शाइर तेरा, इंशा तेरा

 

“फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हूँ / फ़र्ज़ करो दीवाने हूँ”, ये नज़्म भी सबको याद है. इसके अंदर जो एक छुपा हुआ फ़्लर्टेशन है वो सिर्फ़ इंशा जी का ख़ास है.

 

इब्ने इंशा को चाँद से बड़ी दिलचस्पी थी. उनकी शायरी की एक किताब का शीर्षक चाँद से ही शुरू होता है. उनकी शायरी की किताबों में “बस्ती के एक कुचा में”, “चाँद नगर” और “दिले वहशी” हैं. वैसे चाँद से उनको बहुत मोहब्बत थी.

 

गद्य में उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो उनके सफरनामे (यात्रा वृतांत) पर मुशतमिल है, जैसे “इब्ने बतूता के ताकूब में”, “दुनिया गोल है”, “नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर”. आख़री किताब उनकी मृत्यु के बाद छपी और उसका शीर्षक उनके एक शेर से ही लिया गया है– “नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया”.

 

असल में उनके सारे सफ़रनामे उनकी उन याददाश्तों पर आधारित हैं जो उन्होंने काम के सिलसिले में दूरदराज़ के मुल्कों के सफ़र के दौरान में जो देखा और महसूस किया और फिर उसे अपनी नज़र से लिखा. ये सफ़रनामे ज़ुबान और बयान के लिहाज़ से पढ़ने के लायक़ हैं.

 

इब्ने इंशा इलाज के लिए लंदन गये थे लेकिन वो अपने पैरों पर चल कर वापस नहीं आये. इस दौरान उन्होंने जो कुछ लिखा वो एक किताब की शक्ल में उनके मरने के बाद प्रकाशित हुआ. इसका नाम “नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर” है और ये इब्ने इंशा की आख़री किताब है.

मौत से कुछ दिन पहले उन्होंने एक कविता लिखी थी जो सम्भवतः सबसे ज़्यादा दिल को छूने वाली है. ये एक ऐसे आदमी के एहसासात हैं जिसने मौत से तो हार मान ली है लेकिन वो ना टूटा है और ना ही डरा है. हां, ज़िंदा रहने की उसकी इच्छा और बढ़ गयी है. इस दर्द को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है.

 

अब उम्र की नक़दी ख़त्म हुई / अब हम को उधार की हाजत है

है कोई जो साहूकार बने / है कोई जो देवनहार बने

 

इब्ने इंशा को यूं तो ‘फ़र्ज़ करो‘ और ‘कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा‘ जैसी रचनाओं के लिए जाना जाता है लेकिन उनकी रचनाओं के वटवृक्ष में ‘यह बच्चा किसका बच्चा है‘ जैसी मजबूत डाल भी है. यह वृक्ष जितना ऊंचा है उतनी ही गहरी हैं इसकी जड़ें.

 

इक बार कहो तुम मेरी हो.

हम घूम चुके बस्ती बन में

इक आस की फाँस लिए मन में

कोई साजन हो कोई प्यारा हो

कोई दीपक हो, कोई तारा हो

जब जीवन रात अँधेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

 

जब सावन बादल छाए हों

जब फागुन फूल खिलाए हों

जब चंदा रूप लुटाता हो

जब सूरज धूप नहाता हो

या शाम ने बस्ती घेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

 

हाँ दिल का दामन फैला है

क्यूँ गोरी का दिल मैला है

हम कब तक पीत के धोके में

तुम कब तक दूर झरोके में

कब दीद से दिल को सेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

 

क्या झगड़ा सूद ख़सारे का

ये काज नहीं बंजारे का

सब सोना रूपा ले जाए

सब दुनिया, दुनिया ले जाए

तुम एक मुझे बहुतेरी हो

इक बार कहो तुम मेरी हो

 –जब सब माया है, जब सब निरर्थक है फिर हमारी उपलब्धि का भी क्या मतलब है?’

वो लड़की थी जो चाँद नगर की रानी थी

वो लड़की थी जो चाँद नगर की रानी थी

सब माया है,

सब ढलती फिरती छाया है

इस इश्क़ में हम ने जो खोया जो पाया है

जो तुम ने कहा है, ‘फ़ैज़‘ ने जो फ़रमाया है

सब माया है… 

 

सब माया है

हां गाहे गाहे दीद की दौलत हाथ आई

या एक वो लज़्ज़त नाम है जिस का रुस्वाई

बस इस के सिवा तो जो भी सवाब कमाया है

सब माया है…

 

सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है, गर जान नहीं

जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं

तब शम्अ पे देने जान पतिंगा आया है

सब माया है…

 

सब माया है

मालूम हमें सब क़ैस मियां का क़िस्सा भी

सब एक से हैं, ये रांझा भी ये ‘इंशा‘ भी

फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया है

सब माया है…

 

क्यूं दर्द के नामे लिखते लिखते रात करो

जिस सात समुंदर पार की नार की बात करो

उस नार से कोई एक ने धोका खाया है?

सब माया है…

 

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें

तुम जानते हो हम क्यूंकर उस का नाम लिखें

दिल उस की भी चौखट चूम के वापस आया है

सब माया है…

 

सब माया है

वो लड़की भी जो चाँद–नगर की रानी थी

वो जिस की अल्हड़ आँखों में हैरानी थी

आज उस ने भी पैग़ाम यही भिजवाया है

सब माया है…

 

सब माया है

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं

वो जान के धोके खाते, धोके देते हैं

हाँ ठोक–बजा कर हम ने हुक्म लगाया है

सब माया है…

 

सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है

इस शहर से दूर इक कुटिया हम ने बनाई है

और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है

सब माया है…

 

ये नज़्म है इब्ने इंशा की, इसे गाया है अताउल्ला खां साहब ने। ‘इंशा‘ ने शायरी के प्रचलित तौर–तरीकों से अलग अपनी रचनाओं के एक नया सौंदर्य–बोध ईजाद किया।

 

सब माया है, सब ढलती–फिरती छाया है जैसा फ़कीरी अंदाज ‘इंशा‘ के यहाँ ही संभव है। ‘इंशा‘ अपने आप में एक अलहदा शायर और कवि थे जो ‘कबीर‘ और ‘नजीर‘ की परम्परा से आते हैं।

 

इसीलिए उनकी कविताओं– ‘चाँद‘ उनकी कविताओं में कई जगह आता है, असल में इंशा बिम्बों के कवि हैं, चाँद उनका प्रिय प्रतीक है। ‘चाँद‘ के ज़रिए वे बहुत सी बातें कह जाते हैं। ‘कातिक का चाँद‘ उनकी अद्भुत कविता है। इब्ने इंशा की शायरी में ज़बान का अलग चटख़ारा होता है, एक अल्हड़पन होता है, जैसे कोई अल्हड़ नदी अपने आप में मस्त, बेपरवाही बह रही हो।

 

उनकी नज्मों और कविताओं में सादगी झलकती रहती है, यही कारण है कि जो भी उन्हें पढ़ता है, खिंचा चला आता है। अपने अंदाज–ए–बयां के लिए भी इंशा मशहूर हुए। इंशाजी ख़ामोशी को ज़बान देने वाले शायर थे। 

 

रात के ख़्वाब सुनाएं किसको…

रात के ख़्वाब सुनाएं किसको रात के ख़्वाब सुहाने थे

धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने–पहचाने थे

 

ज़िद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग

होंट उनके ग़ज़लों के मिसरे आंखों में अफ़्साने थे

 

वहशत का उनवान हमारी उनमें से जो नार बनी

देखेंगे तो लोग कहेंगे ‘इंशा‘-जी दीवाने थे

 

ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी

इससे उनको मिलना था तो इसके लाख बहाने थे

 

हमको सारी रात जगाया जलते–बुझते तारों ने

हम क्यूं उनके दर पर उतरे कितने और ठिकाने थे

 

Ibn-e-Insha
Famous Poems:
इब्न–ए–इंशा साहब की शायरी में आपको इश्क, मोहब्बत, या व्यंग जैसे तमाम एहसास सराबोर मिलेंगे.
इब्ने इंशा जी की चंद मशहूर ग़ज़लें

 

(1)
उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा

उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा

वो शहर वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा

 

वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगी

वो दर्द कि उट्ठा था यहाँ याद रहेगा

 

हम शौक़ के शोले की लपक भूल भी जाएँ

वो शम–ए–फ़सुर्दा का धुआँ याद रहेगा

 

हाँ बज़्म–ए–शबाना में हमा–शौक़ जो उस दिन

हम थे तिरी जानिब निगराँ याद रहेगा

 

कुछ ‘मीर‘ के अबयात थे कुछ ‘फ़ैज़‘ के मिसरे

इक दर्द का था जिन में बयाँ याद रहेगा

 

आँखों में सुलगती हुई वहशत के जिलौ में

वो हैरत ओ हसरत का जहाँ याद रहेगा

 

जाँ–बख़्श सी उस बर्ग–ए–गुल–ए–तर की तरावत

वो लम्स–ए–अज़ीज़–ए–दो–जहाँ याद रहेगा

 

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे

तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा

 

(2)
जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में

जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में

लैला तो ऐ क़ैस मिलेगी दिल के दौलत–ख़ाने में

 

जनम जनम के सातों दुख हैं उस के माथे पर तहरीर

अपना आप मिटाना होगा ये तहरीर मिटाने में

 

महफ़िल में उस शख़्स के होते कैफ़ कहाँ से आता है

पैमाने से आँखों में या आँखों से पैमाने में

 

किस का किस का हाल सुनाया तू ने ऐ अफ़्साना–गो

हम ने एक तुझी को ढूँडा इस सारे अफ़्साने में

 

इस बस्ती में इतने घर थे इतने चेहरे इतने लोग

और किसी के दर पे न पहुँचा ऐसा होश दिवाने में

 

(3)
सुनते हैं फिर छुप छुप उन के

सुनते हैं फिर छुप छुप उन के घर में आते जाते हो

‘इंशा‘ साहब नाहक़ जी को वहशत में उलझाते हो

 

दिल की बात छुपानी मुश्किल लेकिन ख़ूब छुपाते हो

बन में दाना शहर के अंदर दीवाने कहलाते हो

 

बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ

आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो

 

पीत में ऐसे लाख जतन हैं लेकिन इक दिन सब नाकाम

आप जहाँ में रुस्वा होगे वाज़ हमें फ़रमाते हो

 

हम से नाम जुनूँ का क़ाइम हम से दश्त की आबादी

हम से दर्द का शिकवा करते हम को ज़ख़्म दिखाते हो

 

(4) जोग बिजोग की बातें झूठी

जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो

फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो

 

सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो,

नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो

 

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,

सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो

 

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,

लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो

 

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,

हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो

 

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,

जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो

 

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग,

‘मीर‘, ‘नज़ीर‘, ‘कबीर‘, और ‘इन्शा‘ सब का एक घराना हो

 

(5)
ये बातें झूटी बातें हैं

ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

 

हैं लाखों रोग ज़माने में क्यूँ इश्क़ है रुस्वा बे–चारा

हैं और भी वजहें वहशत की इंसान को रखतीं दुखियारा

हाँ बे–कल बे–कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा

पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा

ये बातें झूटी बातें ये लोगों ने फैलाईं हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

 

ये बात अजीब सुनाते हो वो दुनिया से बे–आस हुए

इक नाम सुना और ग़श खाया इक ज़िक्र पे आप उदास हुए

वो इल्म में अफ़लातून सुने वो शेर में तुलसीदास हुए

वो तीस बरस के होते हैं वो बी–ए एम–ए पास हुए

ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

 

गर इश्क़ किया है तब क्या है क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं

जो जान लिए बिन टल न सके ये ऐसी भी उफ़्ताद नहीं

ये बात तो तुम भी मानोगे वो ‘क़ैस‘ नहीं फ़रहाद नहीं

क्या हिज्र का दारू मुश्किल है क्या वस्ल के नुस्ख़े याद नहीं

ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

 

वो लड़की अच्छी लड़की है तुम नाम न लो हम जान गए

वो जिस के लम्बे गेसू हैं पहचान गए पहचान गए

हाँ साथ हमारे ‘इंशा‘ भी इस घर में थे मेहमान गए

पर उस से तो कुछ बात न की अंजान रहे अंजान गए

ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

 

जो हम से कहो हम करते हैं क्या ‘इंशा‘ को समझाना है

उस लड़की से भी कह लेंगे गो अब कुछ और ज़माना है

या छोड़ें या तकमील करें ये इश्क़ है या अफ़साना है

ये कैसा गोरख–धंदा है ये कैसा ताना–बाना है

ये बातें कैसी बातें हैं जो लोगों ने फैलाई हैं

तुम ‘इंशा‘-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा‘-जी सौदाई हैं

The End

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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