Blogs of Engr. Maqbool Akram

हाफ़िज़ हुसैन दीन (कहानी सआदत हसन मंटो ) ज़फ़र शाह ऊपर गया तो मालूम हुआ कि बीबी बिलक़ीस भी नहीं है

हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त रमज़ान अली था, जिस ने ज़फ़र शाह से उस का तआरुफ़ कराया।

वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उन की आँखें देखती नहीं थीं मगर ज़फ़र शाह ने यूं महसूस किया कि उस को एक नई बसारत मिल गई है।

ज़फ़र शाह ज़ईफ़-उल-एतिका़द था। उस को पीरों फ़क़ीरों से बड़ी अक़ीदत थी।

जब हाफ़िज़ हुसैन दीन उस के पास आया तो उस ने उस को अपने फ़्लैट के नीचे मोटर गिरज में ठहराया…… उस को वो वाईट हाऊस कहता था।

ज़फ़र शाह सय्यद था। मगर उस को ऐसा मालूम होता था कि वो मुकम्मल सय्यद नहीं है। चुनांचे उस ने हाफ़िज़ हुसैन दीन की ख़िदमत में गुज़ारिश की कि वो उस की तकमील करदें।

हाफ़िज़ साहिब ने थोड़ी देर बाद अपनी बे-नूर आँखें घुमा कर उस को जवाब दिया। “बेटा…… तू पूरा बनना चाहता है तो ग़ौस-ए-आज़म जीलानी से इजाज़त लेना पड़ेगी।”

हाफ़िज़ साहिब ने फिर अपनी बे-नूर आँखें घुमाईं। “उन के हुज़ूर में तो फ़रिश्तों के भी पर जलते हैं।”

ज़फ़र शाह को बड़ी ना-उम्मीदी हुई। “आप साहब-ए-कशफ़ हैं…… कोई मुदावा तो होगा।
“हाफ़िज़ साहिब ने अपने सर को ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दी। “हाँ चिल्ला काटना पड़ेगा मुझे।”
“अगर आप को ज़हमत न हो तो अपने इस ख़ादिम के लिए काट लीजिए।”
“सोचूंगा।”

“हाफ़िज़ हुसैन दीन एक महीने तक सोचता रहा। इस दौरान ज़फ़र शाह ने उन की ख़ातिर-ओ-मुदारात में कोई कसर उठा न रखी। हाफ़िज़ साहब के लिए सुबह उठते ही डेढ़ पाओ बादाम तोड़ता। 

उन के मग़ज़ निकाल कर सरदाई तैय्यार करता। दोपहर को एक सैर गोश्त भुनवा के उस की ख़िदमत में पेश करता। शाम को बालाई मिली हुई चाय पिलाता। रात को एक मुर्ग़ मुसल्लम हाज़िर करता।

ये सिलसिला चलता रहा। आख़िर हाफ़िज़ हुसैन ने ज़फ़र शाह से कहा। “अब मुझे आवाज़ें आनी शुरू होगई हैं।”

ज़फ़र शाह ने पूछा। “कैसी आवाज़ें क़िबला।”
“तुम्हारे मुतअल्लिक़।”
“क्या कहती हैं।”
“तुम ऐसी बातों के मुतअल्लिक़ मत पूछा करो।”
“माफ़ी चाहता हूँ।”

हाफ़िज़ साहब ने टटोल टटोल कर मुर्ग़ की टांग उठाई और उसे दाँतों से काटते हुए कहा। “तुम असल में मुनकिर हो…… आज़माना चाहते हो तो किसी कुवें पर चलो।”

ज़फ़र शाह थरथरा गया। “हुज़ूर मैं आप को आज़माना नहीं चाहता…… आप का हर लफ़्ज़ सदाक़त से लबरेज़ है।”

हाफ़िज़ साहब ने सर को ज़ोर से जुंबिश दी। “नहीं …… हम चाहते हैं कि तुम हमें आज़माओ…… खाना खालें तो हमें किसी भी कुवें पर ले चलो।”
“वहां क्या होगा क़िबला।”

“मेरा मामूल आवाज़ देगा…… वो कुँआं पानी से लबालब भर जाएगा और तुम्हारे पांव गीले हुए

ज़फ़र शाह डर गया था। हाफ़िज़ हुसैन दीन जिस लहजे में बातें कर रहा था बड़ा पुर-हैबत था…… लेकिन उस ने इस ख़ौफ़ पर क़ाबू पाकर हाफ़िज़ साहब से कहा।

“जी नहीं…… आप की ज़ात-ए-अक़्दस मेरे साथ होगी तो डर का सवाल ही पैदा नहीं होता।”

जब सारा मुर्ग़ ख़त्म होगया तो हाफ़िज़ साहब ने ज़फ़र शाह से कहा। “मेरे हाथ धुलवाओ…… और किसी कुवें पर ले चलो।”

ज़फ़र शाह ने उस के हाथ धुलवाए तोलिए से पोंछे और उसे एक कुवें पर ले गया जो शहर से काफ़ी दूर था ज़फ़र शाह चादर लपेट कर उस की मुंडेर के पास बैठ गया।

मगर हाफ़िज़ साहब ने चिल्ला कर कहा। “पाँच क़दम पीछे हट जाओ…… मैं पढ़ने वाला हूँ। कुवें का पानी लबालब भर जाएगा…… तुम डर जाओगे।”

ज़फ़र शाह डर कर दस क़दम पीछे हट गया। हाफ़िज़ साहिब ने पढ़ना शुरू कर दिया। रमज़ान अली भी साथ था जिस ने ज़फ़र शाह से हाफ़िज़ साहब का तआरुफ़ कराया था…… वो दूर बैठा मूंगफली खा रहा था।

हाफ़िज़ साहब ने कुवें पर आने से पहले ज़फ़र शाह से कहा था कि दो सेर चावल, डेढ़ सेर शकर और पाओ भर काली मिर्चों की ज़रूरत है जो उस का मामूल खा जाएगा…… ये तमाम चीज़ें हाफ़िज़ साहब की चादर में बंधी थीं।

देर तक हाफ़िज़ हुसैन दीन मालूम नहीं किस ज़बान में पढ़ता रहा। मगर उस के मामूल की कोई आवाज़ न आई…… न कुवें का पानी ऊपर । हाफ़िज़ ने चावल, शकर और मिर्चें कुवें में फेंक दीं।

फिर भी कुछ न हुआ…… चंद लमहात सुकूत तारी रहा। इस के बाद हाफ़िज़ पर जज़ब की सी कैफ़ियत तारी हुई और वो बुलंद आवाज़ में बोला।

“ज़फ़र शाह को कराची ले जाओ…… उस से पाँच सौ रुपय लो और गुजरांवाला में ज़मीन अलॉट करालो।”

ज़फ़र शाह ने पाँच सौ रुपय हाफ़िज़ की ख़िदमत में पेश कर दिए। उस ने ये रुपय अपनी जेब में डाल कर उस से बड़े जलाल में कहा…… “ज़फ़र शाह…… तू ये रुपय दे कर समझता है मुझ पर कोई एहसान किया।”

ज़फ़र शाह ने सर-ता-पा उज्ज़ बन कर कहा। “नहीं हुज़ूर मैंने तो आप के इरशाद की तामील की है।” हाफ़िज़ हुसैन दीन का लहजा ज़रा नर्म होगया। “देखो सर्दियों का मौसम है, हमें एक धुस्से की ज़रूरत है।”

“चलिए अभी ख़रीद लेते हैं।”
“दो घोड़े की बोसकी की क़मीस और एक पंप शो।”

ज़फ़र शाह ने गुलामों की तरह कहा। “हुज़ूर आप के हुक्म की तामील हो जाएगी।”
हाफ़िज़ साहब के हुक्म की तामील होगई। पाँच सौ रुपय का धुस्सा। पच्चास रुपय की क़राक़ुली की टोपी। बीस रुपय का पंप शो…… ज़फ़र शाह ख़ुश था कि उस ने एक पहुंचे हुए बुज़ुर्ग की ख़िदमत की।

हाफ़िज़ साहिब वाईट हाऊस में सौ रहे थे कि अचानक बड़बड़ाने लगे। ज़फ़र शाह फ़र्श पर लेटा था। उस की आँख लगने ही वाली थी कि चौंक कर सुनने लगा।

हाफ़िज़ साहिब कह रहे थे “हुक्म हुआ है…… अभी अभी हुक्म हुआ है कि हाफ़िज़ हुसैन दीन तुम दरिया रावी जाओ और वहां चिल्ला काटो …… चिल्ला काटो…… वहां तुम अपने मामूल से बात कर सकोगे।”

ज़फ़र शाह, हाफ़िज़ को टैक्सी में दरयाए रावी पर ले गया। वहां हाफ़िज़ छियालीस घंटे मालूम नहीं क्या कुछ पढ़ता रहा।

इस के बाद उस ने ऐसी आवाज़ में जो उस की अपनी नहीं थी कहा……

“ज़फ़र शाह से तीन सौ रुपया और लो…… अपने भाई की आँखों का ईलाज करो…… तुम इतने ग़ाफ़िल क्यों हो…… अगर तुम ने ईलाज न कराया तो वो भी तुम्हारी तरह अंधा होजाएगा।”

ज़फ़र शाह ने तीन सौ रुपय और दे दिए। हाफ़ित हुसैन दीन ने अपनी बे-नूर आँखें घुमाईं जिस में मुसर्रत की झलक नज़र आ सकती थी।

और कहा “डाकखाने में मेरे बारह सौ रुपय जमा हैं…… तुम कुछ फ़िक्र न करो पहले पाँच सौ और ये तीन सौ …… कुल आठ सौ हुए…… मैं तुम्हें अदा कर दूँगा।”

ज़फ़र शाह बहुत मुतअस्सिर हुआ। “जी नहीं…… अदायगी की क्या ज़रूरत है…… आप की ख़िदमत करना मेरा फ़र्ज़ है।”

ज़फ़र शाह देर तक हाफ़िज़ की ख़िदमत करता रहा। इस के इवज़ हाफ़िज़ ने चालीस दिन का चिल्ला काटा मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ।

ज़फ़र शाह ने वैसे कई मर्तबा महसूस किया कि वो पूरा सय्यद बन गया है और उस की ततहीर होगई है मगर बाद में उस को मायूसी हुई क्योंकि वो अपने में कोई फ़र्क़ न देखता उस की तश्फ़्फी नहीं हुई थी।

उस ने समझा कि शायद उस ने हाफ़िज़ साहब की ख़िदमत पूरी तरह अदा नहीं की। जिस की वजह से उस की उम्मीद बर नहीं आई।

चुनांचे उस ने हाफ़िज़ साहब को रोज़ाना एक मुर्ग़ खिलाना शुरू कर दिया। बादामों की तादाद बढ़ा दी। दूध की मिक़दार भी ज़्यादा कर दी।

एक दिन उस ने हाफ़िज़ साहब से कहा। “पीर साहब …… मेरे हाल पर करम फ़रमाईए मेरी मुराद कभी तो पूरी होगी या नहीं।”

हाफ़िज़ हुसैन दीन ने बड़े पीराना अंदाज़ में जवाब दया “होगी…… ज़रूर होगी…… हम इतने चिल्ले काट चुके हैं ऐसा मालूम होता है कि अल्लाह तबारक-ओ-ताला तुम से नाराज़ हैं…… तुम ने ज़रूर अपनी ज़िंदगी में कोई गुनाह क्या होगा।”


ज़फ़र शाह ने कुछ देर सोचा। “हुज़ूर …… मैंने …… ऐसा कोई गुनाह नहीं किया जो……”
हाफ़िज़ साहिब ने उस की बात काट कर कहा। “नहीं ज़रूर क्या होगा…… ज़रा सोचो…… ”
ज़फ़र शाह ने कुछ देर सोचा। “एक मर्तबा अपने वालिद साहब के बटोई से आठ आने चुराए थे।”

“ये कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं…… और सोचो…… कभी तुम ने किसी लड़की को बुरी निगाहों से देखा था?”
ज़फ़र शाह ने हिचकिचाहट के बाद जवाब दिया।

“हाँ पीर-ओ-मुर्शिद…… सिर्फ़ एक मर्तबा।”
“कौन थी वो लड़की?”
“जी मेरे चचा की।”
“कहाँ रहती है?”
“जी उसी घर में।

“हाफ़िज़ साहब ने हुक्म दिया। “बुलाओ उस को …… क्या तुम इस से शादी करना चाहते हो?”
“जी हाँ …… हमारी मंगनी क़रीब क़रीब तै हो चुकी है।”

हाफ़िज़ साहब ने बड़े पुर-जलाल लहजे में कहा। “ज़फ़र शाह…… बुलाओ उस को …… तुम ने मुझ से पहले ही ये बात कह दी होती तो मुझे बेकार इतना वक़्त ज़ाए न करना पड़ता।”

ज़फ़र शाह शश-ओ-पंज में पड़ गया। वो हाफ़िज़ साहब का हुक्म टाल नहीं सकता था और फिर अपनी होने वाली मंगेतर से ये भी नहीं कह सकता था।

 वो हाफ़िज़ साहब को मिले…… बादल-ए-नाख़्वास्ता ऊपर गया। बिलकीस बैठी नावेल पढ़ रही थी। ज़फ़र शाह को देख कर ज़रा सिमट गई और कहा…… “आप मेरे कमरे में कैसे आगए।”

ज़फ़र शाह ने दबे दबे लहजे में जवाब दिया। “वो …… जो हाफ़िज़ साहब आए हुए हैं ना…… ”
बिलक़ीस ने नावेल एक तरफ़ रख दिया। “हाँ हाँ …… मैंने उन्हें कई मर्तबा देखा है…… क्या बात है।”
“बात ये है कि तुम से मिलना चाहते हैं।”

बिलक़ीस ने हैरत का इज़हार किया। “वो मुझ से क्यों मिलना चाहते हैं…… उन की तो आँखें ही नहीं।

“वो तुम से चंद बातें करना चाहते हैं…… बड़े साहब-ए-कशफ़ बुज़ुर्ग हैं…… उन की बात से मुम्किन है हम दोनों का भला हो जाये।”

हाफ़िज़ साहब ने कहा। “देखो हम तुम से बहुत ख़ुश हैं।

आज हमारी तबीयत चाहती है कि तुम्में भी ख़ुश करदें। जाओ बाज़ार से चार तोले नौशादर, एक तौला चूना, दस तोले शिंगरफ़ और एक मिट्टी का कूज़ा ले आओ…… जितना उस का वज़न है उतना ही सोना बन जाएगा।”

ज़फ़र शाह भागा भागा बाज़ार गया। और ये चीज़ें ले आया। जब अपने वाईट हाऊस पहुंचा तो किवाड़ खुले थे और इस में कोई नहीं था। ऊपर गया तो मालूम हुआ कि बीबी बिलक़ीस भी नहीं है।

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short story with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Picture of Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
Scroll to Top