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रज़्ज़ो बाजी ( क़ाज़ी अबदुस्सत्तार ) : रज़्ज़ो बाजी जिनकी कहानियों से मेरा तख़य्युल आबाद था पहली बार देखने वाला था।पंद्रह साल पहले का‎ एक दिन जब मैं बी.ए. में पढ़ता था और मुहर्रम करने घरआया हुआ था।

सीतापुर में तहसील सिधाली अपनी झीलों और शिकारियों के लिए मशहूर थी। अब झीलों में धान ‎बोया जाता है। बंदूक़ें बेच कर चक्कियाँ लगाई गई हैं, और लाइसेंस पर मिले हुए कारतूस “ब्लैक” कर ‎के शेरवानियाँ बनाई जाती हैं।

यहाँ छोटे-छोटे क़स्बों का ज़ंजीरा फैला हुआ था, जिनमें शुयूख़ आबाद ‎थे जो अपने मफ़रूर माज़ी की याद में नामों के आगे ख़ान लगाते थे और हर क़िस्म के शिकार के ‎लिए गुंडे, कुत्ते और शिकरे पालते थे।

उनमें सारनपुर के बड़े भैया रखू चचा और छोटे भैया पाचू चचा बहुत मुमताज़ थे। मैंने रखू चचा का ‎बुढ़ापा देखा है। उनके सफ़ेद अबरुओं के नीचे टर्नती आँखों से चिनगारियाँ और आवाज़ से लपटें ‎निकलती थीं। रज़्ज़ो बाजी उन्ही रखू चचा की इकलौती बेटी थीं।

मैंने लड़कपन में रज़्ज़ो बाजी के ‎हुस्न और उस जहेज़ के अफ़साने सुने थे, जिसे उनकी दो सौतेली साहिब-ए-जायदाद माएँ जोड़-जोड़ ‎कर मर गई थीं। शादी-ब्याह की महफ़िलों में मीरासनें इतने लक़लक़े से उनका ज़िक्र करतीं कि टेढ़े ‎बेनचे लोग भी उनकी ड्योढ़ी पर मंडलाने लगते।

जब रज़्ज़ो बाजी की माँ मर गईं और रखू चचा पर फ़ालिज गिरा तो उन्होंने मजबूर हो कर एक ‎रिश्ता क़ुबूल कर लिया। मगर रज़्ज़ो बाजी पर ऐन-मंगनी के दिन जिन्नात आ गए और रज़्ज़ो बाजी ‎की ड्योढ़ी से रिश्ते के ‘कागा’ हमेशा के लिए उड़ गए।

जब रखू चचा मर गए तो पाचू चचा उनके ‎साथ तमाम हिंदोस्तान की दरगाहों का पैकरमा करते रहे लेकिन जिन्नातों को न जाना था, न गए। ‎फिर रज़्ज़ो बाजी की उ’म्र ऐसा पैमाना बन गई, जिसके क़रीब पहुँचने के ख़ौफ़ से सूखी हुई कुँवारियाँ ‎लरज़ उठतीं।

जब भी रज़्ज़ो बाजी का ज़िक्र होता, मेरे वुजूद में एक टूटा हुआ काँटा खटकने लगता और मैं अपने ‎यादों के कारवाँ को किसी फ़र्ज़ी मसरूफ़ियत के सहरा में धकेल देता। रज़्ज़ो बाजी का जब रजिस्ट्री ‎लिफ़ाफ़ा मुझे मिला तो मैं ऐसा बद-हवास हुआ कि ख़त फाड़ दिया।

लिखा था कि वो हज करने जा ‎रही हैं और मैं फ़ौरन सारंगपुर पहुँच जाऊँ, लेकिन इस तरह कि गोया मैं उनसे नहीं पाचू चचा से ‎मिलने आया हूँ, और ये भी कि मैं ख़त पढ़ने के बा’द फ़ौरन जला दूँ।

मैंने रज़्ज़ो बाजी के एक हुक्म ‎की फ़ौरी तामील कर दी। ख़त के शोलों के उस पार एक दिन चमक रहा था। पंद्रह साल पहले का ‎एक दिन जब मैं बी.ए. में पढ़ता था और मुहर्रम करने घर आया हुआ था।

मुहर्रम की कोई तारीख़ थी और सारंगपुर का सिपाही ख़बर लाया था कि दूसरे दिन मिसरख स्टेशन ‎पर शाम की गाड़ी से सवारियाँ उतरेंगी। हमारी बस्ती के मुहर्रम सारे ज़िले में मशहूर थे; ये मशहूर ‎मुहर्रम हमारे घर से वाबस्ता थे; और दूर-दूर से अ’ज़ीज़-ओ-अक़ारिब मुहर्रम देखने आया करते थे, ‎हमारा घर शादी के घरों की तरह घम-घमाने लगता था। इस ख़बर ने मेरे वजूद में क़ुमक़ुमे जला ‎दिए।

मैं रज़्ज़ो बाजी को, जिनकी कहानियों से मेरा तख़य्युल आबाद था, पहली बार देखने वाला था। ई’द ‎की चाँद-रात के मानिंद वो रात बड़ी मुश्किल से गुज़री और सुब्ह होते ही मैं इंतिज़ामात में मसरूफ़ ‎हो गया। छोटे-छोटे अद्धे, जिनको फिरक और लहड़ो भी कहते हैं, सँवारे गए। बैल साबुन से नहलाए ‎गए।

उनको नई अँधेरियाँ, संगोटियाँ और हुमेलें पहनाई गईं। धराऊ झूलें और पर्दे निकाले गए। घोड़े ‎के अयाल तराशे गए। ज़ीन पर पालिश की गई और सियाह अत्लस का फट्टा बाँधा गया, जो उसके ‎सफ़ेद जिस्म पर फूट निकला।

साथ जाने वाले आदमियों में अपनी नई क़मीसें बाँट दीं और जेब ‎ख़र्च से धोतियाँ ख़रीदीं और दोपहर ही से कलफ़ लगी बिरजस पर लाँग बूट पहन कर तैयार हो गया, ‎और दो बजते बजते सवार हो गया, जब कि छ: मील का रास्ता मेरे घोड़े के लिए चालीस मिनट से ‎किसी तरह ज़ियादा न था।

स्टेशन मास्टर को, जो हमारे तहाइफ़ से ज़ेर-ए-बार रहता था, इत्तिला दी कि हमारे ख़ास मेहमान ‎आने वाले हैं और मुसाफ़िरख़ाने के पूरे कमरे पर क़ब्ज़ा जमा’ लिया। गाड़ी वक़्त पर आई, लेकिन ‎ऐसी ख़ुशी हुई जैसे कई दिन के इंतिज़ार के बा’द आई हो।

फ़र्स्ट क्लास के दरवाज़े में सारंगपुर का ‎मोनोग्राम लगाए एक बूढ़ा सिपाही खड़ा था। डिब्बे से मुसाफ़िरख़ाना तक क़नातें लगादी गईं, आगे ‎आगे फूफी-जान थीं। एक रिश्ते से रखू चचा हमारे चचा थे और दूसरे रिश्ते से उनकी बीवी हमारी ‎फूफी थीं ।

मैं जो कभी हवाई बंदूक़ हाथ में लेकर न चला था। आज बारह बोर की पंज-‎फेरी इस उम्मीद पर लादे हुए था कि अगर उड़ता हुआ ताऊस गिरा लिया तो रज़्ज़ो बाजी ज़रूर ‎मुतअ’स्सिर हो जाएँगी।

कच्ची सड़क के दोनों तरफ़ फैले हुए धुंद हारी के जंगल पर मेरी निगाहें ‎मंडला रही थीं और मैं दुआ’ माँग रहा था कि दूर किसी झाड़ी से कोई ताऊस उठे और इतने क़रीब ‎से गुज़रे कि मैं शिकार कर लूँ कि फूफी-जान का अद्धा रुक गया।

मैं घोड़ा चमका कर क़रीब पहुँचा। ‎आज से ज़ियादा किसी जानवर के नख़रे भले न लगे थे।
‎“मेरा तो इस ताबूत में दम घुटा जा रहा है।”‎
रज़्ज़ो बाजी की आवाज़ थी। जाड़ों की सुब्ह की तरह साफ़ और चमकदार!‎

‎“आप मेरे अद्धे पर आ जाइए।”‎
“मगर उस पर पर्दा कहाँ है?”‎
‎“मैं अभी बँधवाता हूँ।”‎

पर्दा बँध रहा था कि फूफी-जान ने हुक्म दिया, “किसी बूढ़े आदमी से कहो उनका अद्धा हाँके और ‎किसी औ’रत को बिठाल दो।”‎
‎“अद्धा तो मैं ख़ुद हाँकूंगा।”‎
“अरे तू! अद्धा हाँकेगा?”‎

उन्होंने छोटा सा क़हक़हा लगाया और मैं घोड़े से फाँद पड़ा। साथ ही किसी सिपाही ने मेरी ताई’द ‎की।

“ऐसा-वैसा हाँकत हैं भैया! बैलन की जान निकाल लेत हैं।”‎
चारों ओर साफों का पर्दा बाँध दिया गया। रज़्ज़ो बाजी सवार हुईं और बोलीं, “इस पर इतनी जगह ‎कहाँ है कि बुआ भी धाँस ली जाएँ।”‎

क़ब्ल इसके कि बुआ अपने अद्धे से उतरें, मैंने बैल जुड़वा दिए और पैंठ लेकर जोर पर बैठ गया ‎और बढ़ने का इशारा कर दिया। फूफीजान ने कुछ कहा लेकिन पाँच जोड़ बैलों के घने घुँघरूओं की ‎तुंद झंकार में उनकी बात डूब गई।

जब हवास कुछ दुरुस्त हुए और दिमाग़ कुछ सोचने पर रज़ामंद ‎हुआ तो जैसे रज़्ज़ो बाजी ने अपने आपसे कहा, “अम्मी के अद्धे की सारी धूल हमीं को फाँकना है।”

मैंने फ़ौरन लीख बदली। आदमी ने रासें खींच कर मुझे निकल जाने दिया। ज़ालिम बैलों को दोबारा ‎लीख पर लाने के लिए मैंने एक के पैंठ और दूसरे के ठोकर मार दी और मेरी महमेज़ उसकी रान में ‎चुभ गई।

वो तड़पा और क़ाबू से निकल गया, और अचानक रज़्ज़ो बाजी के हाथ मेरी कमर के गिर्द ‎आ गए और मेरा बायाँ शाना उनके चेहरे के लम्स से सुलग रहा था और आसाब में फुल-झड़ियाँ छूट ‎रही थीं।

“रोको।”‎

उन्होंने पहली बार मुझे हुक्म दिया। मैंने सीने तक रासें खींच लीं। बैल दुलकी चलने लगे। मैंने झाँक ‎कर देखा। साँप की तरह रेंगती हुई सड़क पर दूर तक दरख़्तों के संतरी खड़े थे और एक सिपाही मेरे ‎घोड़े पर सवार साये के मानिंद मेरे पीछे लगा था।

रज़्ज़ो बाजी ने बुर्क़े का ऊपरी हिस्सा उतार दिया ‎था, और वो सुर्ख़ बाल जिन पर उनके हुस्न की शोहरत का दार-ओ-मदार था, चेहरे के गिर्द पड़े दहक ‎रहे थे और वो एक तरफ़ का पर्दा झुका कर जंगल की बहार देख रही थीं।

उनके हाथों की क़ातिल गिरफ़्त ने एक-बार फिर मेरे चुटकी ली और मैंने बैलों को छेड़ दिया, और ‎एक-बार फिर उनके सफ़ेद रेशमी हाथ मेरी कमर को नसीब हो गए लेकिन अब वो मुझे डाँट रही थीं ‎और मैं बैलों को फटकार रहा था।

उनका सर मेरी पुश्त पर रखा था, और मैं उड़ती हुई रेशमी लपटों ‎को देख सकता था। फिर वो बाग़ नज़र आने लगा जिनके साये से आबादी शुरू’ हो जाती है। मिसरख ‎से मेरे घर का रास्ता कभी इतनी जल्दी नहीं ख़त्म हुआ, इतना दिलकश नहीं मा’लूम हुआ, मैंने ‎अद्धा रोका, पर्दा बराबर किया।

सिपाही को जोर पर बिठा कर ख़ुद घोड़े पर सवार हुआ। बस्ती में बैल हाँकते हुए दाख़िल होना ‎शायान-ए-शान न था। रज़्ज़ो बाजी मुझे देख रही थीं और मुस्कुरा रही थीं। जब वो उतर कर डेवढी ‎में दाख़िल हुईं तो मैंने पहली बार उनका सरापा देखा ।

और उनके सामने मीरासिनों की तमाम ‎कहानियाँ हेच मा’लूम हुईं। वो मुझसे थोड़े दिनों बड़ी थीं, लेकिन जब उन्होंने मेरी पीठ पर सर रखा ‎और ठुनक कर कहा कि घर पहुँच कर वो अपनी भाबी जान और मेरी अम्माँ से मरम्मत कराएँगी तो ‎वो मुझे बहुत छोटी सी मा’लूम हुईं। जैसे मैंने उनकी गुड़ियाँ नोच कर फेंक दी हों और वो मुझे ‎धमकियाँ दे रही हों।

मैं जो मुहरर्म में सारा-सारा दिन और आधी रात बाहर गुज़ारा करता था इस साल बाहर जाने का ‎नाम न लेता था और बहाने ढूँढ-ढूँढ कर अंदर मंडलाया करता था। नौवीं की रात साल भर में वाहिद ‎रात होती थी, जब हमारे घर की बीबियाँ बस्ती में ज़ियारत को निकलती थीं। पूरा एहतिमाम किया ‎जाता था कि वो पहचानी न जाएँ।

बुर्क़ों के बजाए वो मोटी-मोटी चादर ओढ़ कर निकलती थीं, ‎लेकिन दूर चलते सिपाहियों को देखकर लोग जान जाते थे और औ’रतें तक रास्ता छोड़ देती थीं।

‎जब रात ढलने लगी और सब लोग सूती चादरें ओढ़ कर या’नी भेस बदल कर जाने को तैयार हुए तो ‎पता चला कि रज़्ज़ो बाजी सो गई हैं। किसी ने जगाया तो पता चला कि सर में दर्द है और मैं ‎उठकर बाहर चला आया।

जब बीबियों के पीछे चलते हुए सिपाहियों की लाठियाँ और लालटेनें फाटक ‎से निकलने वाली सड़क पर खो गईं तब मैं अंदर आया।

वो दालान में सियाह कामदानी के दुपट्टे ‎का पल्लू सर पर डाले सो रही थीं। एक औ’रत पंखा झल रही थी दूसरी उनकी पाएँती पड़े खटोले पर ‎बैठी ऊँघ रही थी। मैंने उनकी सफ़ेद गुदाज़ कलाई पर मीठी सी चुटकी ली। उन्होंने मुँह खोल दिया।

‎“चलिए आपको ताज़िये दिखा लाएँ।”‎
वो उठ कर बैठ गईं। मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, जिसे उन्होंने औ’रतों को देखकर जल्दी से छुड़ा ‎लिया और खड़ी हो गईं।

‎“मेरे सर में बहुत दर्द हो रहा है।”‎
‎“ज़ियारत की बरकत से दूर हो जाएगा।”‎
मैंने बड़े जज़्बे से कहा, उन्होंने कपड़ों पर निगाह डाली।

“अगर इनसे ख़राब कपड़े आपके पास हों तो पहन लीजिए।”‎
और मैंने उनके पलंग से चिकन की चादर उठा कर उनके शानों पर डाल दी।

अपने ताज़िये के पास बैठी हुई भीड़ से चंद पासी मुंतख़ब किए। उनको बंदूक़ और टार्च लेने की ‎हिदायत की और रज़्ज़ो बाजी को लिए हुए सड़क पर आ गया।

मुझे बीबियों के रास्ते मा’लूम थे जो ‎मुहर्रम के जुलूस की तरह मुक़र्रर थे और मैं मुख़ालिफ़ सिम्त में चल रहा था।

कटा हुआ चाँद तिहाई ‎आसमान पर रौशन था और हम बस्ती के बाहर निकल आए थे और मैं ख़ुद अपने मंसूबे से लरज़ ‎रहा था। फिर वो तालाब आ गया जिसके पास टीले पर मंदिर खड़ा था और सामने इमलियों के दाएरे ‎में लखौरी ईंटों का कुँआ था, मैंने अपने रूमाल से पुख़्ता जगह साफ़ की।

नौख़ेज़ पासियों को हुक्म ‎दिया कि वो मंदिर के अंदर जा कर बैठ जाएँ। अब हद्द-ए-निगाह तक दमकते पानी और आबादी के ‎धुँदले ख़ुतूत के अ’लावा कुछ न था।

हमारे चारों तरफ़ इमली के दरख़्तों का घना साया पहरा दे रहा ‎था। मैंने अपना गला साफ़ किया। उनके पास बैठ कर पहली बार उनको मुख़ातिब किया।

‎“ये कुँआ देख रही हैं आप?”, मुझे ख़ुद अपनी आवाज़ भयानक मा’लूम हुई।
‎“ये जिन्नातों का कुँआ है।”‎
उन्होंने पूरी शरबती आँखों को कानों तक खोल दिया और मेरी तरफ़ ज़रा-सा सरक आईं।
‎“इसमें जिन्नात रहते हैं।”‎

वो मेरे और क़रीब आ गईं। उनका ज़ानू मेरे जिस्म से मस करने लगा, मैं भाटों की तरह ला-‎तअ’ल्लुक़ लहजे में कह रहा था, “ये जिन्नात मेरे एक दादा के शागिर्द थे। जब दादा मियाँ इस कुएँ ‎में डूब कर मर गए तो जिन्नातों ने यहाँ अपना बसेरा कर लिया।”

उन्होंने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया, चादर उनके शानों से ढलक गई। घुटी-घुटी आवाज़ में बड़े कर्ब से ‎बोलीं, “चलो! यहाँ से भाग चलो।”‎

और उनका सर मेरे शाने पर ढलक आया और रज़्ज़ो बाजी (क़ाज़ी अबदुस्सत्तार )‎“मुहर्रम की इस रात के आख़िरी हिस्से में जो शख़्स इस कुएँ से अपने दिल की एक मुराद माँगता है ‎वो पूरी होती है।”‎

वो मुझको मज़बूती से पकड़े हुए थीं, और मैं उस दुनिया में था जो पहली बार मेरे हवास ने ‎दरियाफ़्त की थी।
‎“आप ज़रा देर के लिए छोड़ दीजिए। मैं एक दुआ’ माँग लूँ… आज के बा’द फिर कभी इस कुएँ में ‎कोई दुआ’ न माँगूँगा।”‎

वो तड़प कर उठीं और मुझको तक़रीबन घसीटती हुई चलीं। जब पासी खड़े हो गए तब वो मुझसे ‎अलग हुईं। सड़क पर आ कर मचल गईं कि घर जाऊँगी मगर मैं उनको बहलाता हुआ इमामबाड़े की ‎तरफ़ चला।

ये इमामबाड़ा नवाब नक़ी अली की उस बहन ने बनवाया था, जो वाजिद अली शाह की ‎महल थी। आज भी उसकी औलाद मौजूद है जो इमामबाड़े वालियों के नाम से मशहूर है और ये ‎इमारत उन्ही के अ’मल में है।

यहाँ करबला-ए-मुअल्ला से लाई हुई ज़रीह रखी है। औ’रतें अपने बालों की एक लट बाँध कर मुराद ‎माँगती हैं। जब पूरी हो जाती है, तो अपनी लट खोल ले जाती हैं। एक पासी ने दौड़ कर इमामबाड़ा ‎मर्दों से ख़ाली करा दिया। फाटक में औ’रतों का हुजूम खड़ा था।

बस्ती की तारीख़ में ये पहला ‎वाक़िआ’ था कि मेरे घर का कोई फ़र्द किसी औ’रत के साथ मुहर्रम देखने निकला हो। ज़ियारत ‎करने निकला हो।

दालान के पास एक गदबदी सी लड़की मेरे जूते खोलने आई। मैंने रज़्ज़ो बाजी की ‎तरफ़ इशारा कर दिया। वो उनके सैंडल खोलने लगी।

जब मैं उस हाल में दाख़िल होने लगा जिसमें सोने के पानी की ज़रीह रखी थी तो वही लड़की ‎भागती हुई आई और बोली, “बिटिया साहिब कह रही हैं कि आप बाहर ही रहें।”‎

मैं बाहर ही खड़ा रहा। जब मैं उनके साथ इमामबाड़े से निकल रहा था अन-गिनत मर्द मुझे कनखियों ‎से घूर रहे थे। औ’रतें घूँघट से झाँक रही थीं और मेरे आसाब की कमान खिंची हुई थी कि एक ‎औ’रत ने दूसरी औ’रत से पूछा,‎

‎“कौन हैं?”‎
‎“बड़े भैया की दुल्हन हैं।”‎

और मैं लड़खड़ा गया। रज़्ज़ो बाजी के सर से चादर का झोंपा ढलक गया। जब सड़क वीरान हो गई ‎तो मैंने देखा कि रज़्ज़ो बाजी का चेहरा लंबी चौड़ी मुस्कुराहट से रौशन है। मैं उनके बिल्कुल क़रीब ‎हो गया।

“आप बहुत ख़ुश हैं।”‎
“ऊँ! हाँ! न माँगते देर, न मिलते देर।”‎
और मैं इस जुमले के मआनी सोचता रहा।

और मैं इस जुमले के मआनी सोचता रहा।

फिर हमारे मुक़द्दर में कोई ऐसी रात न लिखी गई जो उनके क़ुर्ब से महक सकती। एक-आध बार ‎उनकी सूरत देखने को मिली भी तो इस तरह जैसे कोई चाँद देख ले।

और जब मैं सारंगपुर की ‎ड्योढी पर यक्के से उतरा तो देर तक किसी आदमी की तलाश में खड़ा रहा, दिन-दहाड़े वहाँ ऐसा ‎सन्नाटा था, जैसे उस शानदार बोसीदा इमारत में आदमियों के बजाए, रूहें आबाद हों।

मैं दोहरी ‎ड्योढी के अंदरूनी दरवाज़े पर जा कर खड़ा हो गया और आवाज़ दी, “मैं अंदर आ जाऊँ।“
‎एक बूढ़ी फटी हुई आवाज़ ने पूछा, “आप कौन हैं?”‎
“मैं चिड़हट्टा का अज्जन हूँ।”‎
‎“अरे… आइए… भैया आ जाइए।”‎

भारी पुख़्ता सेहन पर मेरे जूते गूँज रहे थे। बारह-दरूँ के दोहरे दालान की स्पेनी मेहराबों के पीछे लाँबे ‎कमरों के ऊँचे-ऊँचे दरवाज़े खुले थे और दूसरी तरफ़ की इमारत नज़र आ रही थी।

कमरे में क़दम ‎रखते ही मैं चौंक पड़ा, या डर गया। दूर तक फैले हुए सफ़ेद चौके पर सफ़ेद कपड़े पहने हुए भारी ‎भरकम रज़्ज़ो बाजी खड़ी थीं, चुना हुआ सफ़ेद दुपट्टा उनके शानों पर पड़ा था और सुर्ख़-ओ-सफ़ेद ‎बाल उनकी पीठ पर ढेर थे।

वो गर्दन घुमाए मुझे देख रही थीं। उतरती हुई शाम की मद्धम रौशनी ‎में उनके ज़र्द चेहरे की सियाह शिकनें साफ़ नज़र आ रही थीं, वो कानों में बेले के फूल और हाथों में ‎सिर्फ़ गजरे पहने थीं। मैं उनकी निगाह की वीरानी से काँप उठा।

हम एक दूसरे को देख रहे थे। ‎देखते रहे। सदियाँ गुज़र गईं। किसी में न पलक झपकने की ताक़त थी, न ज़बान खोलने का हौसला ‎फिर जैसे वो अपनी आवाज़ का सहारा ले कर तख़्त पर ढह गईं।

‎“तुम ऐसे हो गए! अज्जन? बैठ जाओ।”‎
मैं चौके के कोने पर टिक गया।

“मुझे इस तरह क्या देख रहे हो? मुझ पर जो गुज़री वो अगर पत्थरों पर गुज़रती तो चूर-चूर हो ‎जाते। लेकिन तुमको क्या हो गया? कैसे काले दुबले खपटा से हो गए हो।

नौकर हो ना! अच्छी भली ‎तनख़्वाह पाते हो। ज़ाहिदा जैसी बीवी है, फूल ऐसे बच्चे हैं, न क़र्ज़ है न मुक़द्दमे-बाज़ी, तुम बोलते ‎क्यों नहीं? क्या चुप का रोज़ा रख लिया।”‎

मैंने दिल में सोचा जिन्नातों का साया है न इन पर।
‎“आपने पंद्रह बरस बा’द रोज़ा तोड़ने को कहा भी तो उस वक़्त, कि ज़बान ज़ाएक़ा भूल चुकी और ‎मैदा क़ुबूल करने की सलाहियत खो चुका।”‎

उन्होंने मुझे इस तरह देखा जैसे मेरे सिर पर सींग निकल आए हों। वो बूढ़ी औ’रत मेरे सूटकेस को ‎नीचे से लिए हुए चली आ रही थी, फिर पाचू चचा आ गए। दुबले-पतले से पाचू चचा जिनके शिकार ‎की एक ज़माने में धूम थी।

रात का खाना खा कर देर तक बातें होती रहीं, जब रज़्ज़ो बाजी उठ गईं तो चची-जान ने सरगोशी में ‎कहा, “आज नौचंदी जुमेरात है। बिटिया पर जिन्न का साया है।

वो आने वाले हैं। तुम्हारा बिस्तर ‎अपनी तरफ़ लगवाया था, लेकिन बिटिया ने उठवा लिया, अगर डरना तो आवाज़ दे लेना या चले ‎आना, बीच का दरवाज़ा खुला रहता है।”‎

जुमेरात का नाम सुनकर मेरे रौंगटे खड़े हो गए, ख़ामोश रहा। उनके हाथ से गिलौरियाँ लेकर मुँह में ‎दबाईं और खड़ा हो गया। वो अपने सबसे छोटे बच्चे को थपकती रहीं। पाचू चचा मुझे भेजने आए, ‎दालान में दो बिस्तर लगे थे।

उनके दरमियान एक खटोला पड़ा था, जिस पर रज़्ज़ो बाजी की बुआ ढेर थीं। पाचू चचा मुझे सेहन ‎में छोड़ कर लालटेन लिए हुए रुख़्सत हो गए। एक काला झबरा कुत्ता एक तरफ़ से निकला और मुझे ‎सूँघता हुआ चला गया। फिर एक दरवाज़े से रज़्ज़ो बाजी निकलीं और सारे में मुश्क की ख़ुश-बू फैल ‎गई।

उनके कपड़े नए और फूल ताज़े थे। सेहन में अक्तूबर की चाँदनी का फ़र्श बिछा हुआ था। ‎बरसाती में कुर्सियों पर हम बैठे ठंडी सफ़ेद गाढ़ी काफ़ी पी रहे थे, गुफ़्तगू के लिए अल्फ़ाज़ पकड़ने ‎की कोशिश कर रहे थे।

‎“ये जिन्नातों का क्या क़िस्सा है रज़्ज़ो बाजी?”‎
मुझे अपनी आवाज़ पर हैरत हुई। मैंने ये गोली किस तरह दाग़ दी थी। उन्होंने प्याली रख दी, ‎मुस्कुराईं। वो पहली मुस्कुराहट उ’म्र-भर के ग़मों से ज़ियादा ग़म-ज़दा थी।

‎“मैंने तुमको इसीलिए बुलाया है।”‎
‎“काश आपने इससे पहले बुलाया होता।”‎

‎“ब्याह की तरह बे-हयाई की भी एक उ’म्र होती है अज्जन! दस बरस पहले क्या ये मुम्किन था कि ‎तुम इस तरह खुले ख़ज़ाने आधी रात को मुझसे बातें कर रहे होते? आज तुम घर-बार वाले हो। मैं ‎खूसट हो गई हूँ और चची-जान का बावर्ची-ख़ाना मेरी जायदाद से रौशन है।

ख़ैर छोड़ो इन बातों को, मैं हज करने जा रही हूँ और हज करने वाले हर उस शख़्स से माफ़ी माँगते ‎हैं जिसके साथ उन्होंने कोई ज़्यादती की हो। तुमको मा’लूम है मुझ पर जिन्नात कब आए? आज से ‎दस साल पहले और तुमको मा’लूम है तुम्हारी शादी को कितने बरस हुए?

दस साल, तुमको इन ‎दोनों बातों में कोई रिश्ता नहीं मा’लूम होता? तुमने चिड़हटा के सफ़र में क्या किया? तुम मुहर्रम की ‎नौवीं तारीख़ मुझे कहाँ कहाँ घसीटते फिरे? तुम उस भयानक कुएँ से मेरे सामने क्या माँगना चाहते ‎थे।

तुमने अब्बास-ए-अलम को बोसा देकर मुझे कनखियों से देखते हुए किसे पाने की आरज़ू की थी? ‎जाओ अपने इमामबाड़े की ज़रीह को ग़ौर से देखो। मेरे बालों की सुर्ख़ लट आज भी बँधी नज़र ‎आएगी।

अगर खिचड़ी न हो गई हो। क्या मैंने इमाम हुसैन से सिर्फ़ एक अदद शौहर माँगने के लिए ‎ये जतन किए थे? सारंगपुर की नाइनों और मीरासिनों से पूछो कि वो रिश्ते लाते-लाते थक गईं, ‎लेकिन मैं इंकार करते न थकती।

क्या मुझसे तुम ये चाहते थे कि मैं सारंगपुर से सत्तू बाँध कर चलूँ ‎और चिड़हट्टा की ड्योढी पर धुनी रमा कर बैठ जाऊँ और जब तुम बरामद हो तो अपना आँचल ‎फैला कर कहूँ कि हुज़ूर मुझको अपने निकाह में क़ुबूल कर लें कि ज़िंदगी सुवारत हो जाएगी।

तुमने ‎रखू मियाँ की बेटी से वो बात चाही जो रखू मियाँ की तवाइफ़ों से भी मुम्किन न थी।”‎

‎“लेकिन रज़्ज़ो बाजी।”‎

‎“मुझ पर जिन्नात नहीं आते हैं अज्जन मियाँ! मैं जिन्नातों को ख़ुद बुला लाती हूँ। अगर जिन्नात न ‎आते तो कोई दूल्हा आ चुका होता और तब अगर जिन्नातों का कुँआ, अब्बासी अलम और ज़रीह ‎मुबारक तीनों मेरे दामन को एक मुराद से भर देने की ख़्वाहिश करते तो मैं क्या करती? किस मुँह ‎से क्या कहती।

इसलिए मैंने ये खेल खेला था। इसी तरह जिस तरह चिड़हट्टे में तुम मुझसे खेल रहे ‎थे। न उसमें तुम्हारे लिए कोई हक़ीक़त थी और न उसमें रज़्ज़ो के लिए कोई सच्चाई है। ये हज मैं ‎अपने बाप के लिए करने जा रही हूँ, जो मेरे बोझ से कुचल कर मर गए।

जिन्होंने मरते वक़्त भी ‎अपनी उक़्बा के लिए नहीं, मेरी दुनिया के लिए दुआ’ की। इसलिए मैंने तुमको मुआ’फ़ किया। अगर ‎तुम ज़ाहिदा को मुझ पर सौत बना कर ले आते तो भी मुआ’फ़ कर देती।”‎

वो नरकुल के दरख़्त की तरह लरज़ रही थीं। उनका चेहरा दोनों हाथों में छुपा हुआ था। दो रंगी शाल ‎शानों से ढलक गई थी।

सुर्ख़ बालों में बराबर से पिरोए हुए चाँदी के तार जगमगा रहे थे, और मुझे ‎महसूस हो रहा था, जैसे ज़िंदगी राएगाँ चली गई। जैसे मेरी बीवी ने मुझे इत्तिला दी हो कि मेरे बच्चे, ‎मेरे बच्चे नहीं हैं।

The End

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Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
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