Blogs of Engr. Maqbool Akram

चुप (मुमताज़ मुफ़्ती) : चुप जीनां मुँह पर उंगली रखे मुस्कुरा रही थी। उन दिनों तो ‘चुप’ में बहुत मज़ा था। अब हमारी ‘चुप’ भी पसंद नहीं

जीनां ने चची की नज़र बचा, माथे पर प्यारी तेवरी चढ़ा कर क़ासिम को घूरा और फिर नशे की शलवार के उठाए हुए पाईंचे को मुस्कुरा कर नीचे खींच लिया और अज़ सर-ए-नौ चची से बातों में मसरूफ़ हो गई।

क़ासिम चौंक कर शर्मिंदा सा हो गया और फिर मासूमाना अंदाज़ से चारपाई पर पड़े हुए रूमाल पर काढ़ी हुई बेल को ग़ौर से देखने लगा।

उसका दिल ख़्वाह मख़्वाह धक धक कर रहा था और वो महसूस कर रहा था गोया उसने किसी जुर्म का इर्तिकाब क्या हो।

क़ासिम कई बार यूं चोरी चोरी जीनां के जिस्म की तरफ़ देखता हुआ पकड़ा जा चुका था।

जीनां के मुस्कुरा देने के बावजूद वो शर्म से पानी पानी हो जाता और उसकी निगाहें छुपने के लिए कोने तलाश करतीं। न जाने क्यों यूं अनजाने में उसकी नज़र जीनां के जिस्म के पेच-ओ-ख़म या उभार पर जा पड़ती और वहीं गड़ जाती। उस वक़्त वो क़तई भूल जाता कि किधर देख रहा है या कुछ देख रहा है।

मुसीबत ये थी कि बात तभी वक़ूअ में आती जब जीनां के पास कोई न कोई हमसाई बैठी होती। फिर जब जीनां अकेली रह जाती तो वो मुस्कुरा कर पूछती, क्या देखते रहते हो तुम क़ासी?

मैं… मैं नहीं तो। वो घबरा जाता और जीनां हँसती मुस़्काती और फिर प्यार से कहती, किसी के सामने यूं पागलों की तरह नहीं देखा करते बिल्लू।

अगरचे अकेले में भी जीनां का पाइंचा अक्सर ऊपर उठ जाता और दुपट्टा बार-बार छाती से यूं नीचे ढलक जाता कि सांटल में मलबूस उभार नुमायां हो जाते।

लेकिन उस वक़्त क़ासिम को उधर देखने की हिम्मत न पड़ती हालाँकि जीनां बज़ाहिर शिद्दत से काम में मुनहमिक होती।

लेकिन क़ासिम बेक़रार हो कर उठ बैठता, अब मैं जाता हूँ। वो नज़र उठाती और फिर लाड भरी तेवरी चढ़ा कर कहती, बैठो भी। जाओगे कहाँ? काम है एक। क़ासिम की निगाहें कोनों में छुपने की कोशिश करतीं।

कोई नहीं काम वाम। फिर कर लेना। लेकिन वो चला जाता जैसे कोई जाने पर मजबूर हो और आप ही आप बैठी मुस़्काती रहती। उस रोज़ जब वो जाने लगा तो वो मशीन चलाते हुए बोली, क़ासी ज़रा यहां तो आना… एक बात पूछूँ बताओगे? वो रुक गया, यहां आओ, बैठ जाओ।

वो उसकी तरफ़ देखे बिना बोली, वो उसके पास ज़मीन पर बैठ गया। वो ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई।

फिर दफ़्अतन अपना बाज़ू उसकी गर्दन में डाल कर उसके सर को अपनी रानों में रखकर थपकने लगी, सच सच बताना क़ासी। दो एक मर्तबा क़ासिम ने सर उठाने की कोशिश की लेकिन नशे की रेशमीं नर्मी।

ख़स की हल्की हल्की ख़ुशबू और जिस्म की मद्धम मख़मली गर्मी… उसकी क़ुव्वत-ए-हरकत शल हो गई। तुम मेरी तरफ़ इस तरह क्यों घूरते रहते हो… हूँ? उसने एक प्यार भरा थप्पड़ मार कर कहा, बताओ भी… हूँ। क़ासिम ने पूरा ज़ोर लगा कर सर उठा लिया। वो अनजाने जज़्बात की शिद्दत से भूत बना हुआ था।

आँखें अंगारा हो रही थीं। मुँह नबात की तरह सुर्ख़ और सांस फूला हुआ था। हैं… ये तुम्हें क्या हुआ? वो मुँह पक्का कर के पूछने लगी। कुछ भी नहीं।

क़ासिम ने मुँह मोड़ कर कहा। ख़फ़ा हो गए क्या? उसने अज़ सर-ए-नौ मशीन चलाते हुए पूछा और दुपट्टा मुँह में डाल कर हंसी रोकने लगी। नहीं, नहीं कुछ भी नहीं। वो बोला, अच्छा अब मैं जाता हूँ। और बाहर निकल गया।

उसके बाद जब वो अकेले होते, क़ासिम उठ बैठता। अच्छा अब मैं जाता हूँ। लेकिन इसके बावजूद मुँह मोड़ कर खड़ा रहता और वो मुस्कुराहट भींच कर कहती, अच्छा… एक बात तो सुनो।

और वो मासूम अंदाज़ से पूछता, क्या बात है? यहां आओ, बैठ जाओ। वो मुँह पका कर के कहती।

वो उसके पास बैठ कर और भी मासूमाना अंदाज़ से पूछता, क्या है? मअन हिनाई हाथ हरकत में आ जाते और क़ासिम का सर मख़मली, मुअत्तर तकिया पर जा टिकता और वो हिनाई हाथ उसे थपकने लगते। उसके तन-बदन में फुलझड़ियां चलने लगतीं।

नसों में धुनकी बजने लगती। आँखों में सुर्ख़ डोरे दौड़ जाते। सांस फूल जाता। लेकिन वो ज़्यादा देर तक बर्दाश्त न कर सकता। एक रंगीन इज़्तिराब उसे बेक़रार कर देता और वो उठ बैठता, अब मैं जाता हूँ। और वो नीची निगाह किए मुस़्काती, मुस्काए जाती।

फिर न जाने उसे क्या हुआ। एक रंगीन बेक़रारी सी छा गई। वो चारपाई पर बैठा दुआएं मांगता कि वो अकेले हों। उस वक़्त आँखें यूं चढ़ी होतीं जैसे पी कर आया है। जिस्म में हवाएं छुटीं। जीनां नीची नज़र से उसे देख देखकर मुस्कुराती और फिर आँख बचा कर कोई न कोई शरारत कर देती।

मसलन जब चची या बड़ी बी की नज़र उधर हो तो जीनां जैसे बे ख़बरी में कोई कपड़ा अपनी गोद में डाल लेती और नीची निगाह से क़ासिम की तरफ़ देखकर उसे थपकने लगती

और क़ासिम… उफ़ वो बेचारा तड़प उठता और जीनां मुँह में दुपट्टा ठूँस कर हंसी रोकने की कोशिश करती

या वो दोनों हाथ क़ासिम की तरफ़ बढ़ा कर फिर अपनी गोद की तरफ़ इशारा करती गोया बुला रही हो और चची या बड़ी बी का ध्यान उधर होता तो जीनां बड़ी सरगर्मी से कपड़ा सीने में मसरूफ़ हो जाती और मज़ीद छेड़ने के ख़याल से अपने ध्यान बैठी पूछती, क़ासिम आज इस क़दर चुप बैठे हो। लड़ कर तो नहीं आए अम्मां से?

फिर जब वो अकेले रह जाते तो क़ासिम चुपके से उठकर आप ही आप जीनां के पास आ बैठता। दो एक मर्तबा मुल्तजी निगाहों से उसे हिनाई हाथ की तरफ़ देखता जो शिद्दत से काम में मसरूफ़ होता

और फिर आप ही आप उसका सर झुक कर उस मुअत्तर सिरहाने पर टिक जाता या जब वो उसके पास आकर बैठता तो वो मुँह पका कर के कहती, क्यों… क्या है? और जब उसका सर वहां टिक जाता तो हल्का सा थप्पड़ मार कर कहती, बहुत शरीर होते जा रहे हो। कोई देख ले तो। कुछ शर्म किया करो।

एक दिन जब वो सर टिकाए पड़ा था। वो बोली, क़ासी क्या है तुम्हें? यूं पड़े रहते हो, गुम-सुम। मज़ा आता है क्या? उस रोज़ सर उठा लेने की बजाय न जाने कहाँ से उसे ज़बान मिल गई। बोली, मुझे तुमसे मुहब्बत… मअन जीनां ने उसका सर दबा कर उसका मुँह बंद कर दिया, चुप।

वो बोली, कोई सुन ले तो। ब्याहता से प्यार नहीं करते। उन्हें पता चल जाये तो मेरी नाक चोटी काट, घर से निकाल दें।सुना बिल्लू।

वो उठ बैठा लेकिन उस रोज़ दौड़ते डोरों की बजाय उसकी आँखें छलक रही थीं। अब मेरा क्या होगा? आँसूओं ने उसका गला दबा दिया और जीनां के बुलाने के बावजूद वो चला गया। हस्ब-ए-मामूल चोरी चोरी ग़ुस्लख़ाने में मुँह पर ठंडे पानी के छींटे देने लगा।

न जाने लोग क्या समझने लगें। माना कि वो अपनी है पर बेटा उस की इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है और लोगों का क्या एतबार। क़ासिम धक से रह गया और वो चुप चाप चारपाई पर जा लेटा। जी चाहता था कि चीख़ें मार मार कर रो पड़े।

शायद इसलिए कि क़ासी न आया था या वाक़ई उसे काले धागे की ज़रूरत थी। जीनां मुस्कुराती हुई आई, भाभी। उसने क़ासिम की माँ को मुख़ातिब कर के कहा, काला धागा होगा थोड़ा सा। और फिर बातों ही बातों में इधर उधर देखकर बोली, क़ासिम कहाँ है।

नज़र नहीं आया। कहीं गया होगा। अंदर बैठा होगा। क़ासिम की माँ ने जवाब दिया। उधर नहीं आया आज। जीनां ने झिझक कर पूछा, ख़ैर तो है। मैंने ही मना कर दिया था। भाभी बोली, देख बेटी अल्लाह रखे… अब वो जवान है। न जाने कोई क्या समझ ले। बेटी किसी के मुँह पर हाथ नहीं रखा जाता और मुहल्ले वालियों को तो तुम जानती हो।

वो बात निकालती हैं जो किसी की सुध-बुध में नहीं होती और फिर तुम्हारी इज़्ज़त। क्यों बेटी… क्या बुरा किया मैंने जो उसे जाने से रोक दिया। एक साअत के लिए वो चुप सी हो गई। लेकिन जल्द ही मुस्कुरा कर बोली, ठीक तो है भाभी। तुम न करो मेरा ख़्याल तो कौन करे।

तुमसे ज़्यादा मेरा कौन है। तुम बड़ी सियानी हो भाभी। ये कह कर वो उठ खड़ी हुई। कहाँ छुपा बैठा है? और अंदर चली गई। क़ासी का मुँह ज़र्द हो रहा था और आँखें भरी हुई थीं। उसे यूं चुप देखकर वो मुस्कुराई और उसके पहलू में गुदगुदी करते हुए बोली, चुप। फिर ब आवाज़ बुलंद कहने लगी, मुझे डी.ऐम.सी का एक डिब्बा लादोगे क़ासी।

सभी रंग हों उस में, और फिर उसकी उंगली पकड़ कर काट लिया। क़ासी हँसने लगा तो मुँह पर उंगली रखकर बोली, चुप। अब तो ज़िंदगी हराम हो गई। क़ासी ने उसके कान में कहा, अब मैं क्या करूँगा। मेरा क्या बनेगा। हुँह ज़िंदगी हराम हो गई। बस इतनी सी बात पर घबरा गए। फिर ब आवाज़ बुलंद कहने लगी, डिब्बे में लाल गोला ज़रूर हो।

मुझे लाल तागे की ज़रूरत है। जीनां ने ये कह कर उसके कान से मुँह लगा दिया, रात को एक बजे बैठक की तीसरी खिड़की खुली होगी।

ज़रूर आना। एक आन के लिए वो हैरान रह गया। ज़रूर आना। वो उस का सर बदन से मस करते हुए बोली और फिर ब आवाज़ बुलंद उसे डिब्बे के लिए ताकीद करती हुई बाहर निकल आई। आज न सही, कल ज़रूर आना। ये कह कर वो चली गई।

उस रात मोहल्ले भर की आवाज़ें गली में आकर गूंजतीं और फिर क़ासिम के दिल में धक धक बजतीं। अजीब सी डरावनी आवाज़ें। उस रात वो आवाज़ें एक न ख़त्म होने वाले तसलसुल में पहाड़ी नाले की तरह बह रही थीं। बहे जा रही थीं। मुहल्ला उन आवाज़ों की मदद से उससे इंतिक़ाम ले रहा था।

बच्चे खेल रहे थे। उनका खेल उसे बुरा लग रहा था। न जाने माएं इतनी देर बच्चों को बाहर रहने की इजाज़त क्यों देती हैं। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उनकी आवाज़ें मद्धम होती गईं। फिर दूर मुहल्ला की मस्जिद में मुल्ला की अज़ान गूँजी। ऐसा मालूम होता था जैसे कोई चीख़ें मार कर रो रहा हो।

किस क़दर उदास आवाज़ थी जिसे वो भयानक तर बना रहा था। एक साअत के लिए ख़ामोशी छा गई। कराहती हुई ख़ामोशी, दरवाज़े खुल रहे थे या बंद हो रहे थे। उफ़ किस क़दर शोर मचा रहे थे। वो दरवाज़े, गोया रेंग रेंग कर शिकायत कर रहे हों।

क्या खिड़की भी खुलते वक़्त शोर मचाएगी। वो सोच में पड़ गया। नमाज़ी वापस आ रहे थे। उनके हर क़दम पर उसके दिल में धक सी होती। तौबा! उस गली में चलने से मुहल्ला भर गूँजता है। चरर… चूँ दरवाज़े एक एक कर के बंद हो रहे थे।

न जाने क्या हो रहा था उस रोज़। गोया तमाम मुहल्ला तप-ए-दिक़ का बीमार था। उखड़ खड़दम। अहम अहम… आहम। या शायद वो सब तफ़रीहन खांस रहे थे। तम्सख़र भरी खांसी जैसे वो सब उस भेद से वाक़िफ़ थे।

टन-टन… बारह… उसने धड़कते हुए दिल से सुना। लेकिन आवाज़ें थीं कि थमतीं ही न थीं। कभी कोई बच्चा बिलबिला उठता और माँ लोरी देना शुरू कर देती। कभी कोई बूढ्ढा खांस खांस कर मोहल्ले भर को अज़ सर-ए-नौ जगा देता। न जाने वो सब यूंही बेदार रहने के आदी थे या उसी रात हालात बिगड़े हुए थे।

दूसरे कमरे में अम्मां की करवटों से चारपाई चटख़ रही थी। अम्मां क्यों यूं करवटें ले रही थी। कहीं वो उसका भेद जानती न हो कहीं। चलने लगे तो उठकर हाथ न पकड़ ले अम्मां। उसका दिल धक से रह जाता। शायद जीनां न आए और वो मुज़्तरिब हो जाता। उफ़ वो कुत्ते कैसी भयानक आवाज़ में रो रहे थे।

शायद इसलिए कि वो जीनां की गोद में सर रखकर रोता रहा। मुझे तुझसे मुहब्बत है। मैं तुम्हारे बग़ैर जी न सकूँगा और वो हिनाई हाथ प्यार से उसे थपकता रहा और वो आवाज़ें गूँजती रहीं या शायद इसलिए कि वो सारा सारा दिन आहें भरता, करवटें बदलता और चुप चाप पड़ा रहता।

रात को अलैहदा कमरे में सोने की ज़िद करता और फिर जीनां डी.ऐम.सी का गोला मंगवाने आती तो उस के कान खड़े हो जाते।

आँखें झूमतीं और वो भूल जाता कि अम्मां के पास मुहल्ले वालियाँ बैठी थीं, या वैसे ही जीनां का ज़िक्र छिड़ जाता तो उसके कान खड़े हो जाते या शायद उसकी ये वजह हो कि जीनां कि मियां रोज़ बरोज़ बीवी से झगड़ा करने लगे थे।

हालाँकि जीनां बज़ाहिर उनका इतना रख-रखाव करती थी, फिर उन दिनों तो वो और भी दिलचस्पी ज़ाहिर करने लगी थी। मगर मियां को न जाने क्यों ऐसे महसूस होता, गोया वो तवज्जा सिर्फ़ दिखलावा थी और वो रोज़ बरोज़ उनसे बे परवाह होती जा रही थी।

मुम्किन है इसकी वजह मुहल्ले की दीवारें हों जो इस क़दर पुरानी और वफ़ादार थीं कि जीनां का ये रवैय्या बर्दाश्त न कर सकती हों। इस लिए उन्होंने वो राज़ उछाल दिया। बहरहाल वजह चाहे कोई हो, बात निकल गई। जैसा कि उसे निकल जाने की बुरी आदत है।

पहले दबी दबी सरगोशियाँ हुईं। ये अपना क़ासिम… नवाब बी बी का लड़का… ए है ऐसा तो नहीं दिखे था। पर चाची जीनां तो राह चलते को लपेट लेती है।

न बड़ी बी। मेरे मन तो नहीं लगती ये बात। अभी कल का बच्चा ही तो है और वो अल्लाह रखे। भरी मुटियार। उंह। मैं कहती हूँ बी-बी, जब भी जाओ। इतनी आओ भगत से मिलती है क्या कहूं। लोगों का क्या है, जिसे चाहा उछाल दिया। पर भाभी! ज़रा उसे देखो तो, अल्लाह मारे नशे की शलवार है।

सांटल की क़मीज़ है और क्या मजाल है हाथों पर मेहंदी ख़ुश्क हो जाये। हाँ बहन रहती तो बन-ठन कर है। ये तो मानती हूँ मैं। अल्लाह जाने सच्ची बात मुँह पर कह देना, मेरी आदत ही ऐसी है। तू उसके मियां की बात छोड़, मैं कहती हूँ, वो तो बुध्धू है… बुध्धू।

वो क्या जाने कि बीवी को कैसे रखा जाता है। आए री क्या हो गया ज़माने को?क़ासिम ने महसूस किया कि लोग उसकी तरफ़ मुस्तफ़सिराना निगाहों से देखने लगे हैं। पहले तो वो शर्मिंदा हो गया।

फिर उसे ख़्याल आया। कहीं बैठक की तीसरी खिड़की हमेशा के लिए बंद न हो जाये। उसका दिल डूब गया। लेकिन जूँ-जूँ मुहल्ले में बात बढ़ती गई। जीनां की मुस्कुराहट और भी रसीली होती गई और उसकी चुप और भी दिलनवाज़।

बस डर गए? वो हँसती। हम क्या इन बातों से डर जाऐंगे? उस का हिनाई हाथ भी गर्म होता गया और उसका सिंगार और भी मुअत्तर। लेकिन इन बातों के बावजूद क़ासिम के दिल में एक फाँस सी खनकने लगी।

जब कभी किसी वजह से बैठक की तीसरी खिड़की न खुलती तो मअन उसे ख़याल आता कि वो अपने मियां के पहलू में पड़ी है और वो मुअत्तर गोद किसी और को घेरे हुए है।

वो हिना आलूद हाथ किसी और के हाथ में है। इस ख़याल से उसके दिल पर साँप लोट जाता और वो तड़प-तड़प कर रात काट देता। फिर जब कभी वो मिलते तो शिकवा करता। रो-रो कर गिला करता लेकिन वो हाथ थपक थपककर उसे ख़ामोश करा देता।

उधर क़ासिम और जीनां की बातों से मुहल्ला गूँजने लगा। मद्धम आवाज़ें बुलंद होती गईं। सरगोशियाँ धमकी की सूरत में उभर आईं।

इशारे खुले ताने बन गए। मैं कहती हूँ चाची, रात को दोनों मिलते हैं। मस्जिद के मुल्ला ने अपनी आँख से देखा है। तुम उस के मियां की बात छोड़ो बीबी। आँख का अंधा नाम चिराग़ दीन।

उसे क्या पता चलेगा कि बीवी ग़ायब है। सुना है चाची एक रोज़ मियां को शक पड़ गया पर जीनां… तौबा उसके सर पर तो हराम सवार है।

न जाने कैसे मुआमला रफ़ा दफ़ा और ऐसी बात बनाई कि वो बुध्धू डाँटने डपटने की बजाय उल्टा परेशान हो गया। पेट में दर्द है क्या। तुम चलो, मैं ढूंढ लाता हूँ दवा। अब तबीयत कैसी है… हुँह। वहां तो और ही दर्द था भाभी। जभी तो फाहा रखवाने आई थी।

मस्जिद का मुल्ला कहता है बड़ी बी… ए है उसका क्या है? अपनी हमीदां कहती है बी-बी। मैं तो उनकी आवाज़ें सुनती रहती हूँ। कान पक गए हैं। पड़ोसन जो हुई उनकी और फिर दीवार भी एक इंटी है।

तौबा, अल्लाह बचाए हरामकारी की आवाज़ों से, न जाने क्या करते रहते हैं दोनों? कभी हंसते हैं, कभी रोते हैं और कभी यूं दंगा करने की आवाज़ आती है जैसे कोई कबड्डी खेल रहा हो।

पर मामी, अपना घरवाला मौजूद हो तो झक मारने का मतलब तू छोड़ इस बात को। मैं कहूं चोरी का मज़ा चोरी का सर हराम चड़ा है। पर मामी तू छोड़ इस बात को।

दुल्हन तुझे क्या मालूम क्या मज़ा है इस चुप में। अल्लाह बचाए, अल्लाह अपना फ़ज़ल-ओ-करम रखे। पर मैं कहूं, ये चुप खा जाती है। बस अब तो समझ ले आप ही।

फिर ये बातें मद्धम पड़ गईं। मद्धम तर हो गईं। हत्ता कि बात आम हो कर नज़रों से ओझल हो गई। ग़ालिबन उन लोगों ने उसे एक खुला राज़ तस्लीम कर लिया और उनके लिए मज़ीद तहक़ीक़ में दिलचस्पी न रही। न जाने जीनां किस मिट्टी से बनी थी।

उसकी हर बात निराली थी। जूँ-जूँ लोग उसे मशकूक निगाहों से देखते गए, उसकी मुस्कुराहटें और भी रवां होती गईं। हत्ता कि वो मुहल्ले वालियों से और भी हंस हंसकर मिलने लगी।

हालाँकि वो जानती थी कि वही उसकी पीठ पीछे बातें करती हैं और क़ासिम…? क़ासिम से मिलने की ख़्वाहिश उस पर हावी होती गई।

हंस हंसकर उससे मिलती। उसके ख़दशात पर उसे चिढ़ाती। मज़ाक़ उड़ाती। उसकी रेशमीं गोद और भी गर्म और मुअत्तर हो गई।

मगर जब बात आम हो गई और लोगों ने दिलचस्पी लेना बंद कर दी तो न जाने उसे क्या हुआ… उसने दफ़्अतन क़ासिम में दिलचस्पी लेना बंद कर दी जैसे लोगों की चुप ने उसकी चुप को बेमानी कर दिया हो। अब बैठक की तीसरी खिड़की अक्सर बंद रहने लगी।

आधी रात को क़ासिम उसे उंगली से ठोंकता और बंद पाता तो पागलों की तरह वापस आ जाता और फिर बार-बार जा कर उसे आज़माता। उसके इलावा अब जीनां को डी.ऐम.सी के तागे की ज़रूरत भी न पड़ती। इस लिए वो क़ासिम के घर न आती।

जब से खिड़की बंद होना शुरू हुई क़ासिम पागल सा हो गया। वो रात भर तड़प-तड़प कर गुज़ार देता और जीनां का मियां तो एक तरफ़, उसे हर तरफ़ चलता फिरता राहगीर जीनां के नशे की शलवार की तहों में गेंद बना हुआ दिखाई देता।

ताज्जुब ये होता कि अब उसे जीनां की लापरवाई का शिकवा करने का मौक़ा मिलता तो वो बेपर्वाई से कहती, कोई देख लेगा, तभी चैन आएगा तुम्हें। मुझे घर से निकलवाने की ठान रखी है क्या-क्या करूँ मैं, वो सारी रात जाग कर काटते हैं।

दो एक मर्तबा ढीट बन कर किसी न किसी बहाने वो जीनां की तरफ़ गया भी। अव़्वल तो वहां कोई न कोई बैठी होती और जब न होती तो भी जीनां सीने के काम में इस क़दर मसरूफ़ होती कि आँख उठा कर भी न देखती।

एक दिन जब वो इधर गया तो देखा कि जीनां के पास उसका मामूं ज़ाद भाई मोमिन बैठा है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह कभी वो ख़ुद बैठा करता था।

उसने महसूस किया कि मोमिन का सर भी किसी तरह रेशमीं, मुअत्तर तकिया से उठा है। उस पर दीवानगी का आलम तारी हो गया और जीनां के बुलाने के बावजूद चला आया। उस वक़्त उसका जी चाहता कि किसी खम्बे से टकरा कर अपना सर फोड़ ले।

नागाह वो वाक़िया पेश आया। न जाने क्या हुआ? आधी रात को जीनां की चीख़ें सुनकर मुहल्ले वालियाँ इकट्ठी हो गईं। देखा तो जीनां का ख़ावंद पसली के दर्द से तड़प रहा है और वो पास बैठी आँसू बहा रही है।

डाक्टर बुलवाए गए। हकीम आए, मगर बेसूद, सुबह दस बजे के क़रीब मियां ने जान दे दी और जीनां की पुरदर्द चीख़ों से मुहल्ला काँप उठा।

लेकिन इसके बावजूद दबी हुई सरगोशियाँ अज़ सर-ए-नौ जाग पड़ीं। कोई बोली, अब क़दर जानी जब वो मर गया। किसी ने कहा, अभी क्या है, अभी तो जानेगी। बेचारा ऐसा नेक था, उफ़ तक न की और ये बी बी होली खेलने में मसरूफ़ लगी रही। चाची ने सर पीट लिया।

कहने लगी, आए हाए-री, तुम क्या जानो… उसके लच्छन। मैं कहती हूँ, न जाने कुछ देकर मार दिया हो। हैं चाची बस। तू चुप रह, हाए-री जवान मियां को तड़पा तड़पा कर मार डाला। वो मना करता था उसे। उसके सामने तो खेलती रही अपने खेल, फिर जान ले लेना…? या अल्लाह तू ही इज़्ज़त रखने वाला है।

हम तो किसी को मुँह नहीं दिखा सकते। मुहल्ले की नाक काट दी, मैं कहती हूँ अगर सरकार को पता चल गया तो, वो तो क़ब्र भी खोद लेंगे। बस भाभी बस, तू छोड़। अब इस बात को दफ़ा कर, समझ… कुछ हुआ ही नहीं।

जब क़ासिम की माँ ने सुना कि बेटा जीनां से ब्याह करने पर तुला हुआ है तो उसने सर पीट लिया। अपना सर पीटने के सिवा वो कर ही क्या सकती थी। क़ासिम अब जवान था। अपनी नौकरी पर था। हर माह सौ पच्चास उसकी झोली में डालता था।

अलबत्ता उसने एक दो मर्तबा उसे समझाने की कोशिश ज़रूर की मगर बेटा तो घर-बार छोड़ने के लिए तैयार था। इसलिए वो चुप हो गई। अगरचे अंदर ही अंदर घुलने लगी और जीनां के मुताल्लिक़ ऐसी दुआएं मांगने लगी कि अगर वो पूरी हो जाएं तो क़ासिम सर पीट कर घर से बाहर निकल जाता।

मुहल्ले वालियों ने सुना कि क़ासिम का पैग़ाम जीनां की तरफ़ गया है तो चारों तरफ़ फिर से चर्चा होने लगा। कुछ सुना तुमने चाची…? बस तू चुप कर रह। आजकल तो आँखों से अंधे और कानों से बहरे हो कर बैठ रहो, तब गुज़ारा होता है। पर चाची कभी सुनने में न आया था कि बेवा को कुँवारा लड़का पैग़ाम भेजे…

मैं कहती हूँ, बेवा मर जाती थी मगर दूसरी शादी का नाम न लेती थी और अगर कोई पैग़ाम लाता भी तो उसका मुंहतोड़ जवाब देती। लेकिन आज न जाने क्या ज़माना आया है। पर चाची वो तो लड़के से सात आठ साल बड़ी होगी।

ए अपनी फ़ातिमा से दो एक साल ही छोटी है। आए हाय क्या कहती हो तुम। दिखने का क्या बहन, हार सिंगार कर के बैठ जाओ। मुँह पर वो अल्लाह मारा क्या कहते हैं, उसे आटा लगा लो तो तुम भी छोटी दिखोगी। दिखने की क्या है? उस से तो उम्र छोटी नहीं हो जाती।

क़ासिम का ख़याल था कि जब जीनां ब्याह का पैग़ाम सुनेगी तो उठकर नाचने लगेगी लेकिन जब उसने देखा कि वो सोच में पड़ गई तो जल कर राख हो गया। फिर… उसे मोमिन का ख़्याल आया और ग़ुस्से से मुँह लाल हो गया।

साफ़ इनकार क्यों नहीं कर देती तुम? उसने घूर कर जीनां की तरफ़ देखा। जीनां मशीन चलाने में लगी रही। फिर आँख उठाए बग़ैर कहा, तुम तो क़ासी ही रहे। क़ासी रहता तो तुम इस क़दर लापरवाह क्यों हो जातीं? वो बोला, मैं तो लापरवाह नहीं। उसने सूई में धागा पिरोते हुए कहा, मुझे जवाब दो। वो बोला, इस की आवाज़ में मिन्नत की झलक थी। जवाब दो।

मैं यूं इंतिज़ार में घुल घुल कर मरना नहीं चाहता। अच्छा! जीनां ने आह भर कर कहा, तुम्हारी ख़ुशी इसी में है तो यही सही जीनां उसका सर उस रेशमीं तकिए पर जा टिका। ए हे कोई देख लेगा।

वो बोली। देख ले, उसने जैसे नींद में कहा, कहीं मोमिन न आ जाये। जीनां ने सरसरी तौर कहा, मोमिन… उसके दिल पर तीर सा लगा और वो उठ बैठा, मोमिन आ जाये तो उसे जान से न मार दूं। वो गुर्राया।

उसके निकाह पर मुहल्ले वालियों ने क्या-क्या न कहा। कोई बोली, लो. ये यूसुफ़ ज़ुलेख़ा का क़िस्सा भी अपनी आँखों से देख लिया। किसी ने कहा, अभी न जाने क्या-क्या देखना बाक़ी है। अभी तेल देखो, तेल की धार देखो।

किसी ने कहा, ए हे जीनां, क्या उसे गोद में खिलाएगी। मियां न हुआ, ले पालक हुआ। चाची हंसी, बोली,

जोरू को माँ बना लेते हैं। हाँ … कोई कहने लगी। ख़ैर, चाची हराम से तो अच्छा है कि निकाह कर लें। क्यों बड़ी बी है न ये बात? मैं सच्ची कहूंगी। हाँ बहन, न जाने कब से कटे हुए थे एक दूसरे से। तू छोड़ इस बात को बीबी। आजकल के लड़कों को गोद में पड़े रहने का चसका पड़ा हुआ है।

उसके उठे और गिरे हुए पाइंचों में चंदाँ फ़र्क़ न रहा। अलबत्ता जब कभी क़ासिम उसका पाइंचा उठा हुआ देखता तो फिर वो बेक़रार हो कर अंदर चला जाता और चुप चाप पड़ा रहता।

शुरू में वो अक्सर जीनां के पास आ बैठता। लेकिन अब जीनां का हिनाई हाथ शिद्दत से काम में लगा रहता और उसकी गोद बंद रहती।

अगर कभी क़ासिम का सर वहां टिक भी जाता तो वो अपने काम में यूं मगन बैठी रहती गोया कुछ हुआ ही न हो, कभी चिड़ कर कहती, क्या बच्चों की सी बातें हैं तुम्हारी? इस पर वो महसूस करता, गोया वो गोद किसी और के लिए मख़सूस हो चुकी हो और थपकने वाला हाथ किसी और का मुंतज़िर हो।

कई मर्तबा दफ़्तर में काम करते हुए ये शक साँप की तरह डसने लगा कि दोनों बैठे हैं। वो और मोमिन और उसका सर रेशमीं तकिए पर टिका हुआ है।

ये ख़याल आते ही वो काँप उठता और वापसी पर जीनां को ढूंढता तो देखता कि जीनां यूं मगन बैठी है गोया पुराने ख़्वाब देख रही हो। किसी रंगीन माज़ी के ध्यान में मगन हो या शायद किसी मुतवक़्क़े मुस्तक़बिल के, वो चुप हो जाता।

उसे यूं देखकर जीनां मुस्कुरा कर कहती, क्या है आज सरकार को? और वो हँसने लगती। पाई हुई चीज़ को खोने का बहुत शौक़ है सरकार को? पाई हुई… वो हँसता, जिसे रंगीन ख़्वाब मयस्सर हों, वो भला तल्ख़ हक़ीक़त क्यों देखे। उसे जागने की क्या ज़रूरत, जाग कर दिखता भी क्या है। बस चुप-चाप सुनाई देती है।

उन दिनों तो ‘चुप’ में बहुत मज़ा था। अब हमारी ‘चुप’ भी पसंद नहीं और वो चिड़ कर जवाब देती, कहाँ वो ‘चुप’ और कहाँ ये… वो ग़ुस्से में आ जाता। न जाने किस-किस से चुप का खेल खेला होगा? बस खा लिया शक ने। वो जल कर कहती, जी… क़ासिम तंज़न जवाब देता, तुम तो ठहरे शक्की। अब मोमिन कैसे बनें?

या किसी रोज़ दफ़्तर से वापसी पर वो कहता, किस के इंतिज़ार में बैठी थी? और वो जल कर बोलती, कोई भी जो आ जाये। ओहो। वो संजीदगी से छेड़ता, हम तो ग़लती से आ गए। तो वापस चले जाओ। वो जल कर कहती।

इस तरह मज़ाक़ ही मज़ाक़ में वो एक दूसरे से दूर होते गए। जीनां काम में मुनहमिक रहने लगी लेकिन शायद काम तो महज़ एक दिखावा था। एक पस-ए-मंज़र, एक ओट जिसमें माज़ी के ख़्वाब देखती थी। उसके ख़्वाब क़ासिम को और भी परेशान करते।

उसे इस बात पर ग़ुस्सा आता कि वो ख़्वाबों को हक़ीक़त पर तर्जीह दे रही है। फिर उसे ख़याल आता कि शायद कोई और ख़्वाब हों, जिनका उससे ताल्लुक़ न हो। इस ख़याल पर उसे जीनां के ख़्वाबों में मोमिन की तस्वीर नज़र आने लगती।

अलबत्ता उन दिनों जब क़ासिम के माँ-बाप चंद दिन के लिए उनके पास आए तो क़ासिम ने महसूस किया कि जीनां वही पुरानी जीनां थी। उस रोज़ जब अम्मां से बातें कर रहा था तो जीनां ने आकर अंधेरे में उसकी कमर पर चुटकी भर ली और जब वो घबरा कर कुछ बोलने लगा तो बोली, चुप और हिनाई हाथ ने बढ़कर उसका मुँह बंद कर दिया।

अपनी गोद से पूछ लो कि कौन है। उसने ग़ुस्से से कहा। बस जी। वो ग़ुस्से से उठ खड़ी हुई, फिर न कहना ये बात। कहने की क्या ज़रूरत है। वो बोला, अब के आया तो हड्डियां तोड़ दूँगा। वो शेरनी की तरह बिफर गई, ज़रा हाथ लगा कर तो देखो, तुम मुझ पर हाथ उठाने वाले कौन हो?

क़ासिम की निगाहों तले अंधेरा छा गया। उसका हाथ उठा… मुहल्ले वालों ने जीनां की चीख़ें सुनीं। कोई गरज रहा था, मोमिन… मोमिन वो चीख़ रही थी, बस मैं इस घर में एक मिनट न रहूंगी।

सुना तुमने, अब मोमिन का झगड़ा है। तौबा ये औरत किसी लड़के को लिपटे बिना छोड़ेगी भी। मैं कहती हूँ उसके सर पर हराम सवार है… हाँ। मैं कहती हूँ, अच्छा किया जो मियां ने हड्डियां सेंक दीं ज़रा। पर चाची कहाँ मोमिन कहाँ जीनां।

मोमिन तो उसके बेटे के समान है। अल्लाह तेरा भला करे। जभी छाती पर लिटा रखती होगी ना? अब ख़ावंद से लड़ कर अपने भाई के पास चली गई है। न जाने वहां क्या गुल खिलाएगी। मैं जानूं अच्छा हुआ। ख़स कम जहां पाक। मर्द होता तो जाने न देता।

कमरे में बंद कर देता। अच्छा नहीं किया जो उसे जाने दिया। बल्कि वो तो और भी आज़ाद हो गई। सुना है चाची ख़त आया है। हाँ… तलाक़ माँगती है। बड़ी आई तलाक़ मांगने वाली। मेरी माने तो… सारी उम्र बिठा रखे। ख़ैर बीबी याराने के ब्याह का मज़ा तो पा लिया।

मैं पूछती हूँ, अब और किसे फंसाएगी? तुम्हें क्या मालूम, उसी रोज़ से अपना मोमिन ग़ायब है। जभी तो क़ासी सर झुकाए फिरता है। दुनिया को मुँह कैसे दिखाएगा। मैं कहती हूँ, बस एक तलाक़ न दे और जो जी चाहे करे। हुँह इन तिलों में तेल नहीं, अपनी फ़ातिमा बता रही थी कि काग़ज़ ख़रीद लिया है।

इस वाक़िया पर क़ासिम की ज़िंदगी ने एक बार फिर पल्टा खाया। उसे औरत से नफ़रत हो गई। मुहब्बत पर एतबार न रहा। औरत…? वो दाँत पीस कर कहता, औरत क्या जाने मुहब्बत किसे कहते हैं। नागिन सिर्फ़ डसना जानती है सिर्फ़ डसना।

अगर उसने तलाक़ लिख भेजी थी तो सिर्फ़ इसलिए कि मुहल्ले के लोग उसे मुस्तफ़सिराना निगाहों से देखते थे और औरतें सुबह-ओ-शाम उसकी बातें करती थीं। वो चाहता था कि इस क़िस्से को हमेशा के लिए ख़त्म कर दे और अपनी ज़िंदगी अज़ सर-ए-नौ शुरू करे।

लेकिन जब उसने सुना कि जीनां ने मोमिन से निकाह कर लिया तो वो इस बज़ाहिर बे-तअल्लुक़ी के बावजूद जो वो जीनां के मुताल्लिक़ महसूस करना चाहता था, तड़प कर रह गया।

हालाँकि वो हर वक़्त जीनां से नफ़रत पैदा करने में लगा रहता था। उसे बुरा-भला कहता था। बेवफ़ा फ़ाहिशा समझता। लेकिन कभी कभी उसकी आँखों तले रेशमीं मुअत्तर गोद आकर खुल जाती और उसका जी चाहता कि वहीं सर टिका दे। वो हिनाई हाथ उसे थपके और वो तमाम दुख भूल जाये।

फिर किसी वक़्त उसके सामने एक मुस्कुराता हुआ चेहरा आ खड़ा होता। दो होंट कहते, चुप अगरचे उस वक़्त वो ‘लाहौल’ पढ़ कर अपने आपको महफ़ूज़ कर लेता था लेकिन ये तसावीर उसे और भी परेशान कर देतीं और वो और भी खो जाता।

एक साल के बाद जीनां और मोमिन मुहल्ले में आए तो फिर चर्चा होने लगा। मुहल्ले वालियाँ बड़े इश्तियाक़ से दुल्हन देखने लगीं। अगरचे उनकी मुबारकबाद ताना आमेज़ थी लेकिन मोमिन की माँ को मुबारक तो देना ही था।

इत्तिफ़ाक़ की बात थी कि जब मोमिन और जीनां मुहल्ले में दाख़िल हुए, ऐन उस वक़्त क़ासिम गली में खड़ा चाची से बात कर रहा था। उस रोज़ वो एक सरकारी काम पर एक दिन के लिए बाहर जा रहा था और चाची से कह रहा था, हाँ चाची, सरकारी काम है।

कल रात की गाड़ी से लौट आऊँगा। पीछे आहट सुनकर वो मुड़ा तो क्या देखता है, जीनां खड़ी मुस्कुरा रही है। उसका दिल धक से रह गया। फिर आँखों तले अंधेरा छा गया और वो भागा हत्ता कि स्टेशन पर जा कर दम लिया।

उस रोज़ दिन भर वो जीनां के बारे में न सोचने की कोशिश करता रहा, दिल में एक इज़्तिराब सा खोल रहा था मगर वो तेज़ी से काम में मसरूफ़ रहा। जैसे डूबता तिनके का सहारा लेने के लिए बे-ताब हो। काम ख़त्म कर के वो रात को गाड़ी पर सवार हो ही गया। गाड़ी में बहुत भीड़ थी। इस गहमागहमी में वो क़तई भूल गया कि वो कौन है।

कहाँ जा रहा है और वहां कौन आए हुए हैं। जब वो मुहल्ले के पास पहुंचा तो एक बजने की आवाज़ आई। टन मअन वह दबे पाँव चलने लगा। गोया हर आहट उसकी दुश्मन हो। गली में पहुंच कर उसने महसूस किया जैसे वो वही पुराना क़ासी था।

दफ़्अतन एक रेशमीं मुअत्तर गोद उसकी निगाह तले झिलमिलाई। देखूं तो भला। उसके दिल में किसी ने कहा। दिल धड़कने लगा, निगाह बैठक की तीसरी खड़ी पर जा टिकी। उंगली से दबाया तो पट खुल गया और वो अन्दर चला गया। मअन सामने से उस पर टार्च की रोशनी पड़ी।

वो घबरा कर मुड़ने ही लगा था कि वो रोशनी एक हसीन चेहरे पर जा पड़ी। हाँ वही सीढ़ियों में जीनां खड़ी मुस्कुरा रही थी। तुम? वो ग़ुस्से से चिल्लाया। एक साअत में उसे सब बातें याद आ चुकी थीं। उसका जिस्म नफ़रत से खौलने लगा था। चुप जीनां ने मुँह पर उंगली रख ली।

क़ासिम का जी चाहता था कि उस हसीन चेहरे को नोच ले और कपड़े फाड़ कर बाहर निकल आए। लेकिन अचानक हिनाई हाथ बढ़ा, मैं जानती थी तुम आओगे। मैं तुम्हारी राह देख रही थी। क़ासिम का सर एक रंगीन मुअत्तर गोद पर जा टिका।

जिसकी नीम मद्धम गर्मी हिनाई हाथ के साथ साथ उसे थपकने लगी। क़ासिम ने दो एक मर्तबा जोश में आकर उठने की कोशिश की लेकिन वो ख़ुशबूदार रेशमीं बदन, मद्धम गर्मी और हिनाई हाथ… उसका ग़ुस्सा आँसू बन कर बह गया। वो फूट फूटकर बच्चों की तरह रो रहा था और वो हिनाई हाथ उसे थपक रहे थे।

चुप जीनां मुँह पर उंगली रखे मुस्कुरा रही थी।

Mumtaz Mufti--Writer of this Story "Aapa"-आपा

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Picture of Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
Scroll to Top