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परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

26 दिसंबर,
1994
की सुबह परवीन शाकिर ने अपने बेटे मुराद के साथ नाश्ता किया और ऑफिस के लिए निकल पड़ीं घर के पास ही फैज़ल चौराहे पर उनकी कार को एक यात्री बस ने बहुत जोर से टक्कर मारी कार चालक की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। शाकिर को इस्लामाबाद अस्पताल ले जाया गया जहाँ बाद में उनकी मृत्यु हो गई

 

24 नवंबर
1952
को पाकिस्तान के कराची में जन्मीं दुनिया की मशहूर शायरापरवीन शाकिरबहुत कम उम्र में दुनिया से चली गईं. उनके अपने पति से रिश्ते ठीक नहीं थे.

 

परवीन की दुखद मौत से कुछ दिन पहले ही उनका तलाक हुआ था, हादसे के बाद तमाम खयालात हवा में तैरे थे. उनके बारे में एक किस्सा मशहूर है कि जब उन्होंने
1982
मेंसेंट्रल सुपीरियर सर्विसकी लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था, जिसे देखकर वह आत्मविभोर हो उठी थीं.

 

परवीन शाकिर की ग़ज़लें अपनेआप में एक मिसाल है. उनकी ग़ज़लों में कहींकहीं प्रेम का सूफियाना रूप मिलता है, तो कहीं प्रेम में डूबी एक मासूमसी लड़की. जिस तरह इब्ने इंशा को अपनी रचनाओं में चांद बहुत प्यारा था, उसी तरह परवीन शाकिर को भीगा हुआ जंगल. परवीन शाकिर की किताबख़ुशबूका प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने हिंदी में भी किया है, जिसमें उनकी गज़लोंनज़्मों और शायरियों की बहार है।

 

उर्दू शायरी में उनके लफ्ज़ एक युग का प्रतिनिधित्व करते हैं. वर्ष 1977 में प्रकाशित अपने पहले संकलन में उन्होंने लिखा था, ‘जब हौले से चलती हुई हवा ने फूल को चूमा था तो ख़ुशबू पैदा हुई…’ परवीन शाकिर पाकिस्तान की उन कवयित्रियों में से एक हैं, जिनके शेरों और ग़ज़लों में लोकगीत की सादगी भी है और लय भीक्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी और नज़ाकत भी. उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम है.

 

परवीन शाकिर की प्रमुख कृतियों मेंख़ुशबू, ‘सदबर्ग, ‘रहमतों की बारिश, ‘ख़ुदकलामी, ‘इंकार, ‘खुली आंखों में सपना, औरमाहतमाम शामिल हैं. उनके पास अंग्रेजी साहित्य, लिग्विंसटिक्स एवं बैंक एडमिनिस्ट्रेशन की तीनतीन स्नातकोत्तर डिग्रियां थीं. वह नौ वर्षों तक अध्यापन के पेशे में रहीं और बाद में प्रशासक बन गईं.

परवीन शाकिर एक पत्नी के साथसाथ मां भी थीं, कवियित्री भी और रोज़ी कमाने वाली एक बहादुर औरत भी. अपनी गज़लों के माध्यम से उन्होंने प्रेम के जितने आयामों को छुआ, उतना कोई पुरुष कवि चाह कर भी नहीं कर पाया. क्योंकि औरत की बात करने की पहली शर्त ही है औरत होना, औरत के संघर्षों को जीना और अपने औरत होने को भीतर तक महसूस करना.

 

परवीन शाकिर ने उस दौर में यौन नज़दीकियों, गर्भावस्था, प्रसव, बेवफ़ाई, वियोग और तलाक जैसे विषयों को छुआ, जिस पर उनके समकालीन पुरुष कवियों की कम ही नज़र गई. उनकी भाषा सरल हो या साहित्यिक लेकिन उससे यह आभास ज़रूर मिलता है, कि उसमें संयम और सावधानी को तरजीह दी गई.

 

परवीन शाकिर जितनी पाकिस्तान में लोकप्रिय है उससे कहीं ज्यादा वह भारत में लोकप्रिय हैं।

 

गुलाम अली, आबिदा परवीन, तसव्वुर खानम, ताहिरा सय्यद, टीना सानी और मेहदी हसन जैसे गायकों ने उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाजें दीं। दुनिया भर के मुशायरों में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के साथ, उन्होंने टेलीविजन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, साक्षात्कार दिए और अपने समकालीनों के साथ अदब पर चर्चायें की।

 

सैय्यद शाकिर हुसैन और अफ़ज़लउननिशा की बेटी सैय्यदा परवीन बानो शाकिर का जन्म 24 नवंबर, 1952 को पाकिस्तान के कराची में हुआ उनके पिता बिहार के रहने वाले थे और भारत के विभाजन से दो साल पहले 1945 में नौकरी की तलाश में कराची चले गए थे। उनकी माँ भारत के पटना के रहने वाली थीं और शाकिर हुसैन से शादी के बाद उनकी मां भी कराची गईं।

 

उनके पिता सैयद शाकिर हुसैन, पाकिस्तान के टेलीफोन और टेलीग्राफ विभाग में एक क्लर्क के रूप में नौकरी करते थे। परवीन शाकिर की माँ ने एक बच्ची के रूप में उन्हें संवेदनशील और बहुत जिद्दी बताया है उनका कहना है कि परवीन को नंगे पांव रहना अच्छा लगता था और उनकी यह आदत पूरे जीवन बनी रही

 

परवीन शाकिर घरेलू कामों से विरक्त और काफी हद तक अनजान, लेकिन बौद्धिक कामों में हमेशा बहुत आगे थीं परवीन शाकिर के बारे में ये छोटीछोटी बातें हमें उनके व्यक्तित्व और स्वतंत्र स्वभाव को समझने में मदद करती हैं। जब वह एक स्त्री के दृष्टिकोण से प्रेम, रोमांस, मन और शरीर के इच्छाओं के बारे में खुलकर बात करती हैं तो उत्साही प्रकृति, संवेदनशीलता और जिद, ये सब उनकी रचनाओं में आते हैं

 

उस काल और संदर्भ को देखते हुए परवीन की रचनायें वास्तव में महिलाओं के बारे में समाज के नियमों और रूढ़ियों को चुनौतियाँ देती हैं और सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक परम्पराओं तथा प्रचलित मान्यताओं को भी प्रभावित करती है।

 

परवीन शाकिर ने रिजविया गर्ल्स हाई स्कूल से मैट्रिक करने के बाद उन्होंने
1968
में सर सैयद कन्या महाविद्यालय में दाखिला लिया और
1971
कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जिसके बाद शाकिर ने कराची विश्वविद्यालय में पोस्टग्रेजुएट में दाखिला लिया और उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई की और
1972
में मास्टर डिग्री हासिल की।

 

अंगरेजी में पोस्टग्रेजुएशन के बाद उन्होंने अब्दुल्ला गर्ल कालेज में लेक्चरर के रूप में काम करना शुरू किया। साथ ही शाकिर ने दैनिक अखबारजंगके लिएगोशाचश्मके नाम से स्तम्भ भी लिखना शुरू किया। शादी के तीन वर्ष बाद
1980
में उन्होंने ने कराची विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा विज्ञान में एम.. की डिग्री हासिल की।

 

धीरेधीरे शाकिर का मन अध्यापन से ऊबने लगा इसकी वजह बच्चों का अंग्रेजी विषय में रूचि होना था परवीन कहती हैं किक्लास में पढ़ाते समय कभीकभी उन्हें लगता था की दीवारों से बात कर रही हैं।उन्होंने इस स्थिति से छुटकारा पाने की सोच ली

 

दिनरात मेहनत करके
1981
में शाकिर ने पाकिस्तान की सीनियर सिविल सर्विस (भारत की भारतीय प्रशासनिक सेवा के समकक्ष) की परीक्षा दी और सफलता की मेरिट में दूसरा स्थान प्राप्त किया

 

जब
उन्होंने 1981 अपनी सिविल सर्विस परीक्षा दी, तो परीक्षा में एक प्रश्न उनकी अपनी ग़ज़लों और नज्मों पर था 1983 में उन्हें सीमा शुल्क और आबकारी विभाग में प्रशिक्षण जारी रखने के लिए चुना गया था हालांकि, शाकिर ने सिविल सेवा में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था और वह विदेश सेवा में जाना चाहती थीं। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। पाकिस्तान के तत्कालीन मार्शल लॉ तानाशाह, जनरल जियाउलहक़, ने महिलाओं को विदेश सेवा में काम करने से रोक दिया। परवीन शाकिर को इसका हमेशा दुख रहा। बाद में पाकिस्तान टीवी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने में बेहद भरे मन से कहा था

 

मै फारेन सर्विस में जाना चाहती थी और सेलेक्ट भी हो गयी थी यह मेरी पहली पसंद थी और मैंने इसे हासिल भी कर लिया। लेकिन वो ज़माना ठीक नहीं था। 1983 में जो जनरल साहब हम पर हुकूमत करते थे उन्होंने ने एक आर्डिनेंस जारी किया कि लेडी अफसर की पोस्टिंग बाहर बिल्कुल नहीं होगी। मै औरत थी; यह मेरा ज़ुर्म था जो वो माफ़ नहीं कर सकते थे। हमें अपनी दूसरी पसंद कस्टम्स में आना पड़ा

 

परवीन शाकिर में पढ़ने और ज्ञान प्राप्त करने की ऐसी ललक थी की नौकरी में आने के बाद भी प्रयास जारी रखे।
1991
में उन्हें हारवर्ड विश्वविद्यालय प्रोग्राम में भाग लेने के लिए फुलब्राइट छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया था ।फुलब्राइट स्कालरशिप के दौरान उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज में हर्टफोर्ड कंसोर्टियम फॉर हायर एजुकेशन के माध्यम से दक्षिण एशियाई साहित्य और सेंट जोसेफ कॉलेज में पाकिस्तान और बांग्लादेश की राजनीति और संस्कृति पर पाठ्यक्रम अलग से पढ़ाया।

 

हारवर्ड विश्वविद्यालय में परवीन शाकिर ने पढ़ाने के साथसाथ हारवर्ड न्यूज एंड व्यूज अखबार के उपसंपादक के रूप में कार्य किया। 1993 में पाकिस्तान लौटने पर शाकिर कस्टम्स और सीमा शुल्क निरिक्षण विभाग में उपनिदेशक के पद पर पदोन्नत किया गया।

 

उन्हें
फिर से विदेश जाने और पीएचडी करने में रुचि थी, और 1971 के पाकिस्तान और बांग्लादेश युद्ध पर शोध करना चाहती थीं, लेकिन 1994 में उनकी असामयिक मृत्यु के कारण वह इच्छा पूरी नहीं हो सकी।

                                

अगर हम उनकी निजी जीवन यात्रा को समझने की कोशिश करें तो सबसे अच्छा तरीका है कि हम उनकी नज़्मो और ग़ज़लों को उसी क्रम में पढ़ें जिस क्रम में संग्रह प्रकाशित हुए थे। जैसे जैसे हम शाकिर के पांच खंडों को पढ़ते हैं वैसेवैसे हम उनकी अधिकांश कविता के आत्मकथात्मक स्वर से प्रभावित होते है।

 

ऐसा भी लगता है कि शाकिर ने किताबों में कविताओं को उनकी रचना के लगभग कालानुक्रमिक क्रम में व्यवस्थित किया है। इस प्रकार उनमेंलड़कीसेप्रेमी“, एकपत्नी“, एकमाँऔर दुनिया का सामना करने वालीकामकाजी महिलाके विकास को पढ़ा जा सकता है।

 

बहुत
ही व्यक्तिगत क्षणों में एक टीवी इंटरव्यू में, (जिसका जिक्र शाकिर की बहुत करीबी मित्र रफ़ाक़त जावेद ने भी अपनी किताब, “परवीन शाकिर जैसा मैंने जाना”, में किया है) शाकिर ने कहा था, “जिन्दगी ने मेरे साथ इन्साफ नहीं किया।अखिरकार उन्होंने ऐसा क्यों कहा? हमें समझना होगा।

 

एक
मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी परवीन शाकिर को विरासत में वह सब कुछ मिला जो उस समाज का हिस्सा है माँबापपरिवार का प्यार, पढ़ने लिखने की आजादी के साथ सामाजिक रूढ़ियाँ और बेड़ियाँ भी उनके हिस्से में आयीं

 

बीस वर्ष की उम्र तक आतेआते शाकिर उर्दू ग़ज़लों और नज्मों की दुनिया में अच्छीखासी प्रसिद्धि पा चुकीं थी उन्हें बराबर मुशायरों में बुलाया जाने लगा था जवानी के ओर जब कदम बढ़े तो भावनाओं का ज्वार भी फूटा विद्यार्थी जीवन में उनका पहला प्यार अपने से सीनियर क्लास में पढने वाले एक लम्बे एवं ख़ूबसूरत लड़के से हुआ

 

लेकिन
समय के साथ उन्हें एक सरकारी अधिकारी से प्यार हुआ और शाकिर की पहली किताब, ख़ुशबू, की शायरी के पीछे का प्रेरणा श्रोत भी यही व्यक्ति था। परवीन उसके साथ शादी कर घर बसाना चाहती थीं। पर ऐसा हो सका। यद्यपि दोंनों इस्लाम को मानने वाले थे पर उनका सम्प्रदाय अलग था शाकिर शिया थीं और वो सुन्नी

 

उनकी सामाजिक स्थिति भी एक दूसरे से अलग थी। पिता सैयद शाकिर हुसैन ने सांप्रदायिक मतभेदों के आधार पर इस विवाह की अनुमति देने से इन्कार कर दिया

इस दौरान परवीन शाकिर के दुखदर्द का अहसास उनकी पहली किताबख़ुशबूके भूमिकादरीचागुलसे मिलता है परवीन लिखती हैं :

 

तेज़ जाते लम्हों की टूटती हुई दहलीज़ पर, हवा के बाज़ू थामे एक लड़की खड़ी है और सोच रही है कि इस समय आपसे क्या कहे बरस बीते, गयी रात के किसी ठहरे हुए सन्नाटे में उसने अपने रब से दुआ की थी कि उस पर उनके अंदर की लड़की को प्रकट कर दे

 

मुझे
यकीन है, यह सुन कर उसका ख़ुदा इस दुआ की सादगी पर एक बार तो जरूर मुस्कराया होगा ! (कच्ची उम्रों के लड़कियां नहीं जानती कि मोहबंधन से बड़ी यातना धरती पर आज तक नहीं उतरी) पर वह उसकी बात मान गया -– और उसे चाँद की तमन्ना करने के काम में अस्तित्व के हज़ार दरवाजे वाले शहर का जादू दे दिया गया

 

अस्तित्व नगर के सारे दरवाज़े अंदर की तरफ खुलते हैं और जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं ! बात यह नहीं कि शहरेजाँ की दीवार की मुरझाई बेलों पर किसी का सौंदर्य, बुलबुले की तरह नहीं उतरा या उस शहर के गलियों में जिंदगी ने ख़ुशबू नहीं खेली

 

यहाँ तो ऐसे मौसम भी आये कि जब बहार ने आँखों पर फूल बांध दिए और रंगों के घेरे से रिहाई दुश्वार हो गयी थी –- मगर जब हवा के दिल में पत्ते रहित शाखें गड़ जाएं तो बहार के हाथों से सारे फूल गिर जाते हैं

 

 ख़ुशबू
उसी सफ़र की कहानी है हैरान आँखों, शबनमी गालों और उदास मुस्कराहट वाली यह लड़की मानती है कि उसकी यह कहानी नई नहीं है (और यही क्या, दुनिया की कोई कहानी नई नहीं हैयह तो हमारे अंदर का कहानीकार है जो इसको ऐसा सुन्दर बुन देता है कि संसार का मन मोह ले)

 

फिर ख़ुद को पाने की तलाश में अपना आप को खो देना तो बड़ी पुरानी बात है -– पर है बहुत सच्ची और अनिवार्य! ……
सो यह लड़की जब आप से बात करेगी तो उसकी पलकें बेशक भीगी हुई होंगी –- लेकिन ज़रा गौर से देखिएगाइसका सिर उठा हुआ है।

 

परवीन शाकिर की पहली किताबख़ुशबू को विशुद्ध रूप से प्रेम और उनके साथ जुड़े सभी रंगों के कविता संग्रह की उपाधि दी जा सकती है ख़ुशबू में केवल बहुत बेबाकी से प्रेम, वियोग, विछोह, निराशा, कुढ़न आदि का इज़हार तो है ही; बेहद सादे एवं सभ्य ढंग से यौनिकता का भी वर्णन पाते हैं

 

यह सब तत्कालीन इस्लामी समाज में और वह भी एक कुआंरी लड़की द्वारा लिखा जाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी

 

परवीन शाकिर का पहली नज्मों और ग़ज़लों का संग्रहख़ुशबू
1977
में प्रकाशित हुआ यह एक तात्कालिक सनसनी बन गई और उन्हे बहुत आलोचनात्मक प्रशंसा और जनता का प्यार मिला। परवीन को इसके लिए प्रतिष्ठितअदमजी साहित्य पुरस्कारभी मिला

 

ख़ुशबूमें वह एक युवा भावुक लड़की के रूप में दिखाई देती हैं, जिसके पास केवल बहुत सौंदर्य बोध है बल्कि सुंदरता की परख के लिए आँखें भी। वह अपने स्त्रीत्व को पूरी तरह से प्यार करती है और इसे छिपाने की कभी कोशिश नहीं करती

 

परवीन शाकिर का उर्दू शायरी में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने खुलासा किया कि एक महिला अपने पूरे दिल से किसी पुरुष से कैसे प्यार करती है।

 

उनसे पहले किसी अन्य शायरा की आवाज इतनी गहराई से व्यक्त नहीं हुई थी।ख़ुशबूकी रोमांटिक यात्रा के दौरान एक अव्यक्त उदासी भी महसूस होती है। यह अंत में आता है जब वह प्यार में निराश होती है। उन्हें लगता है कि उनकी भावनाएँ पूरी नहीं हुई हैं और वह अपने पूरे प्रेम प्रसंग पर हैरान हैं।

 

यहीं से असली शायरा का जन्म होता है।ख़ुशबूएक सुंदर प्रेम कहानी है जो कविता में लिखी और कोमल भावनाओं के साथ बुनी गई है। प्यार के बारे में परवीन शाकिर ने हमेशा बहुत स्पष्ट रुख अख्तियार किया इस सिलसिले में एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे से पूछा गया कि क्या शायरी करने के लिए प्यार करना ज़रूरी है? उनका जवाब था:

 

जब कोई व्यक्ति सीखता है कि उसे किसी को प्यार करना और किसी से प्यार पाना कितना महत्वपूर्ण है, तो वह व्यक्ति सभ्य हो जाता है; प्रेम धैर्य सिखाता है और एक व्यक्ति को सहने की शक्ति देता है और आदमी को सम्पूर्ण बनाता है …..
जब अस्तित्व ने प्रेम के लिए अंतर्ज्ञान पाया, तो कविता का जन्म हुआ। 

 

उनकी शादी सितम्बर 1976 में उनके चचेरे भाई, डॉ. नसीर अली से हुई। परवीन शाकिर उस समय चौबीस साल की थीं और तब तक वह उर्दू के दुनियां में काफी जानीमानी हस्ती बन चुकी थीं शादी के लगभग़ तीन वर्ष बाद 20 नवम्बर 1979 परवीन शाकिर ने एक खुबसूरत बेटे, सैय्यद मुराद अली, को जन्म दिया वह प्यार से अपने बेटे कोगीतू नाम से बुलाया करती थें और उसे अपनी तीसरी पुस्तक, “ख़ुदक़लामी समर्पित की।

परवीन
शाकिर को यह बात हमेशा सालती रही की बेटे के जन्म के बाद उनसे मिलने और बेटे का मुंह देखने डॉ. नसीर अली उसके जन्म के तीन दिन बाद आये किसी भी पत्नी और पहली बार माँ बनने वाली औरत के लिए यह बहुत दुख की बात थी।

 

ख़ुशबूकी संवेदनशील लड़की इन वर्षों में काफी परिपक्व हो गई थी और एक मजबूत महिला बन गई थी। उनके लिए अब दुनिया में प्यार और भावनाएं ही सब कुछ नहीं हैं। उन्होंने बहुत प्रसिद्धि और आलोचना भी देखी ख़ुशबूकी शर्मीली लड़की वैवाहिक आनंद पर स्वतंत्र रूप से लिखने वाली एक आश्वस्त महिला बन गई है।

 

 सदबर्गकी नज़्में और ग़ज़लें एक मजबूत एहसास देती हैं कि दुःख उनकी खुशियों को छीन रहा हैं। सपना टूट चुका था; दुःख पहले से कहीं अधिक गहरा था

 

बिखरते वैवाहिक जीवन की झलकसदबर्गकी भूमिका में दिखाई देती है परवीनसदबर्ग” (जो
1980
में छपी थी) की भूमिका में लिखती हैं:

 

ज़िन्दगी के मेले में रक्स की घड़ी आई तो, संड्रिला की जूतियाँ ही ग़ायब थीं, वह ख़्वाब था, वह बाग़ था, वह शहज़ादा, अच्छे रंगों की सब परियां अपने तिलस्मी देश को उड़ चुकी थीं और लहूलुहान हथेलियों से आँखों को मलती शहज़ादी जंगल में अकेली रह गयी –- और जंगल की शाम कभी तनहा नहीं आती ! भेड़िये उसके खास दोस्त होते हैं ! शहज़ादी के बचाव का सिर्फ एक ही तरीक़ा है उसे हज़ार रातों तक कहानी कहनी है.. और अभी तो सिर्फ 27 रातें ही गुज़री हैं

 

मादरज़ाद झूठों की बस्ती में जीवन जीने का और कोई हुनर नहींऔर हवा से बढ़ कर और कोई झूठा क्या होगा कि जो सुबहसवेरे फूलों को चूम कर जगाती भी है और शाम ढले अपने लालची नाखूनों से उसकी पंखुड़ियाँ भी नोच लेती हैखिलने की कीमत चुकाने में जान का नुकसान वैसे कोई बात नहीं, मगर यह पंखुड़ीपंखुड़ी हो कर दरदर फिरना यकीनन दुख देता हैहवा का कोई घर नहीं, सो वो किसी के सर पर छत नहीं देख सकती !

 

सदबर्ग के 1988 के संस्करण की भूमिका में परवीन शाकिर ने आगे जोड़ा:

 

सदबर्ग आतेआते परिदृश्य बदल चुका था -– मेरे जीवन का भी और उस धरती का भी जिसके होने से मेरा होना है –- संसार की युद्धभूमि में हमने कई लड़ाइयां एक साथ हारीं और बहुत ख़्वाबों पर इकट्ठे मिट्टी बराबर की

सदबर्ग की ग़ज़लें और नज़्में परवीन शाकिर के जिंदगी के सबसे मुश्किल समय की हैं और उनमे चारों तरफ निराशा और कड़वाहट का ही माहौल दिखाई देता है बेटे के जन्म के बाद एक बार उम्मीद बनी की डा. नसीर और शाकिर के संबंधो में सुधार आएगा

 

अफ़सोस ऐसा हो सका वास्तव में परवीन शाकिर और डा. नसीर अली अलगअलग दुनिया के लोग थे ज़िंदगी के बारे में दोनों के विचार अलग थे 1987
में दोनों आपसी रजामंदी से एकदूसरे से अलग हो गए परवीन शाकिर को बेटे मुराद से बेपनाह मुहब्बत थी वो मुराद के बिना ज़िंदगी सोच भी नहीं सकती थीं

 

उन्होंने बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के मुराद के पालनपोषण की जिम्मेदारी ख़ुद ली और तलाकनामे की यह शर्त भी स्वीकार कर ली जिसमें कहा गया था कि अगर परवीन शाकिर ने दूसरा विवाह किया तो बेटा मुराद उनसे लेकर पिता को दे दिया जाएगा

 

डा. नसीर ने तो तलाक़ के एक वर्ष के अंदर ही दूसरी शादी कर ली लेकिन परवीन शाकिर अपने जीवन के शेष वर्षों में अविवाहित रहीं बेटा मुराद उनके जीवन का कितना बड़ा हिस्सा था यह शाकिर द्वारा बेटे के लिए लिखी गयी कई नज्मों से समझा जा सकता है

 

उस समय जहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी काफी परेशानी भरी चल रही थी उसी दरम्यान उनका तीसरा संग्रहखुदकलामीआया जो परवीन शाकिर को एक स्वावलम्बी, स्वतंत्र, कामकाज़ी एवं दृढ़ महिला के साथसाथ एक ममतामयी माँ की मजबूत छवि प्रस्तुत करता है।

 

उनके सभी अँधेरे उनके बेटे की आँखों की रौशनी में धीमे पड़ गए। इन नज़्मों और ग़ज़लों में एक महिला की गर्भावस्था और माँ होने की भावनाओं का सुंदर वर्णन मिलता है। वह दुनिया में एक नया जीवन लाने के लिए बहुत खुश है और अपने बच्चे को पूरी तरह से प्यार करती है

 

इस संग्रह की कुछ नज़्में और ग़ज़लें उनके पेशेवर जीवन के संघर्ष को दर्शाती हैं। ऐसा लगता है कि वह कठिन समय में बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच सामजस्य बनाने के कोशिश कर रही हैं और अपने को पेशेवर जीवन, घरेलू कर्तव्यों और मातृत्व के बीच विभाजित महसूस करती है। उनके अंदर की शायरा को अपने लिए समय नहीं मिलता। रीतिरिवाजों में अपनी नौकरी का जिक्र करते हुए वह लिखती हैं:

 

हिन्दसे गिध के तरह दिन मिरा खा जाते हैं।

हर्फ़
मिलने मुझसे आते हैं ज़रा शाम के बाद

 

1986
में, परवीन शाकिर को इस्लामाबाद में फेडरल ब्यूरो ऑफ़ रेवेन्यू में दूसरा सचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने अपने जन्म के शहर कराची को छोड़ दिया और राजधानी में नए जीवन की ओर बढ़ गयीं।

 

उनकी
कविता का अंतिम संग्रहइन्कारथा। यह उनके पूरे जीवन का प्रतिबिंब बनकर उभरता है। उन्होंने प्रेम की शायरी से किनारा नहीं किया लेकिन अब वह सरकारी खामियों पर भी खुल कर लिखने लगीं।

 

परवीन शाकिर की पांचवीं किताबकफ़ेआइना उनके मौत के बाद उनकी बहन नसरीन और मित्रों ने संकलित की।

 

26 दिसंबर, 1994 की सुबह परवीन शाकिर ने अपने बेटे मुराद के साथ नाश्ता किया और ऑफिस के लिए निकल पड़ीं घर के पास ही फैज़ल चौराहे पर उनकी कार को एक यात्री बस ने बहुत जोर से टक्कर मारी कार चालक की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। शाकिर को इस्लामाबाद अस्पताल ले जाया गया जहाँ बाद में उनकी मृत्यु हो गई

 


तब बयालीस वर्ष की थीं परवीन शाकिर अपने जीवन के दौरान कहा करती थी कि वह 42 साल से अधिक नहीं जियेंगी और यह सही साबित हुआ

 

उनकी
सबसे अच्छी दोस्त और शुभचिंतक, श्रीमती परवीन कादिर आगा ने अपनी किताब Teardrops, Raindrops: A biography of
Parveen Shakir
में लिखा है कि:

 

परवीन का ड्रेसिंग टेबल श्रृंगार की वस्तुओं से भरा रहता था, लेकिन मृत्यु के 15 दिनों से पहले, उसकी मेज लगभग खाली थी और उसने श्रृंगार करना लगभग बंद ही कर दिया था। जैसे कि वह अनंत काल की यात्रा के लिए तैयार थीं।

 

जिस सड़क पर दुर्घटना हुई उसका नाम परवीन शाकिर के सम्मान में
परवीन शाकिर रोडरखा गया। पाकिस्तान पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग ने
2013
में परवीन शाकिर को उनकी 19वीं पुण्यतिथि पर सम्मानित करने के लिए
10
रुपये का एक स्मारक डाक टिकट जारी किया।

 

परवीन महसूस करती थीं कि वह अपने ही परिवार, ससुराल में उर्दू सहित्य, ग़ज़लों और नज्मों के लिए अपने जुनून को समझा नहीं सकीं। एक प्रतिभाशाली शायरा और ज़हीन सिविल सरवेंट के रूप में उनकी प्रसिद्धी, प्रतिष्ठा भी उन्हें सर्वव्यापी पितृसत्तात्मक, सामाजिक रूढियों और कुरीतियों से बचा नहीं सका।

 

 सदबर्गकी भूमिका में परवीन लिखती हैं :

 

जिस मुआशरे में क़द्रों के नंबर मनसूख़ हो चुके हों और दिरहमेंख़ुद्दारी, दीनारेइज़्ज़तेनफ़स कौड़ियों के भी मोल निकलें, वहां नेकी की नुसरत को कौन आये? वहां तो समाअतें बहरी बसारतें अंधी हो जाती हैं ………. और
मेरा गुनाह यह है कि मै एक ऐसे क़बीले में पैदा हुई जहाँ सोच रखना जरायम में शामिल है

 

मगर
क़बीलेवालों से भूल यह हुई की उन्होंने मुझे पैदा होते ही ज़मीन में नहीं गाड़ा (और अब मुझे दीवार में चिन देना उनके लिए ख़लाकी तौर पर उतना आसान नहीं रहा!) मगर वो अपनी भूल से बेख़बर नहीं, सो अब मैं हूँ और मेरे होने की मजबूरी का यह अँधा कुआँ जिसके गिर्द घूमतेघूमते मेरे पांव पत्थर के हो गए हैं और आँखें पानी कीक्यों कि मैंने और लड़कियों की तरह खोपे पहनने से इन्कार कर दिया था ! और इन्कार करने वालों का अंजाम कभी अच्छा नहीं हुआ !

 

हर इन्कार पर मेरे जिस्म में एक मेख़ का और इज़ाफ़ा हो गया
मगर मेखें ठोकने वालों ने मेरी आँखों से कोई तअर्रुज़ किया
शायद वो जानते थे इन्हें बुझाने से अंदर के रौशनी में कोई फ़र्क्र पड़ेगा, या फिर अपनी सफ्फ़ाकियों से लुफ़्तअन्दोज़ होने के लिए वे एक गूंगे गवाह के तालिब थे और मै हैरान हूँ की इस गवाही से मेरी आँखे अब तक पथरायीं क्यों नहीं!

 

शुरुआती आवाज़, तड़प, शाकिर की मौत से पहले गंभीर और सवालिया हो गई। यह विकास
1980
के दशक में हुआ जब उन्हें एक कस्टम अधिकारी में पाकिस्तानी प्रतिष्ठान की सीमाओं से निपटना पड़ा। बाद में एक कविता, एक वरिष्ठ कार्यकारी की सलाह में, वह अपना दिल खोलती है:

 

मेरे कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारी ने

एक दिन मुझे असामान्य तरीके से अपने कार्यालय में बुलाया

और एकदो फाइलों के बारे में पूछने के बाद

असहज भाव से भौंहें सिकोड़ते हुए उन्होंने मेरी असभ्य हरकतों का जिक्र किया

 

समाज में कवयित्री की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए

उन्होंने जो कहा उसका सार

यह था कि राष्ट्र में कवि की वही भूमिका है

जो हमारे शरीर में एक अपेंडिक्स की होती

है। बिल्कुल बेकार, लेकिन कभीकभी बहुत दर्द देने में सक्षम।

इसलिए इससे छुटकारा पाने का केवल एक ही तरीका हैसर्जरी! उनके होठों पर एक हल्की मुस्कान खेली, क्योंकि उन्होंने कल्पना की थी कि उन्होंने खुद को मेरे व्यक्तित्व के अपेंडिक्स से मुक्त कर लिया है।

 

उनकी कविता वर्किंग वूमन भी धुंधली सीमाओं और अपरिहार्य दोहरे बोझ की बात करती है। यह सर्वविदित है कि शाकिर फहमीदा रियाज़ से काफी प्रेरित थे क्योंकि रियाज़ ने पहली बार आधुनिक उर्दू शायरी में एक शक्तिशाली स्त्री स्वर को सामने लाया जो पुरुष प्रधान समाज के लिए आकर्षक और चुनौतीपूर्ण दोनों था।

 

आने वाले सालों में शाकिर ने वैवाहिक समस्याओं, गर्भावस्था, कामुकता और बहुत कुछ पर विस्तार से लिखा। उनकी एक कविताबर्फ़ बारी के बादअपनी स्पष्टवादिता के लिए उल्लेखनीय है।

शाकिर का जीवन भी उनकी पारंपरिक मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि के विरुद्ध संघर्षपूर्ण रहा। उन्होंने अपने मातापिता की इच्छा के अनुसार विवाह किया: एक दुखी विवाह जो तलाक में परिणत हुआ।

 

इस वैवाहिक विकल्प ने उनके दिल को सबसे अधिक दुख पहुँचाया जब उन्हें अपने प्रेमी के साथ एक गहन संबंध समाप्त करना पड़ा, सिर्फ़ उनके साथ रहने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी।

 

यह घटना उनकी मृत्यु के बाद सार्वजनिक हुई जब उनके एक पूर्व प्रोफेसर ने एक उर्दू अख़बार में एक लंबा लेख लिखा जिसमें बताया गया कि कैसे ठुकराया हुआ प्रेमी व्याकुल था और कैसे परवीन के रोमांटिक आदर्श को एक सामाजिक रूढ़ि ने पूरी तरह से नष्ट कर दिया था।

 

परवीन ने अपने लिए एक कैरियर चुनने का साहस किया और सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया।

 

यह तलाक के कारणों में से एक बन गया, जैसा कि उनके सिविल सेवक मित्र ने बताया। पाकिस्तानी शहरी परिदृश्य में एकल मातृत्व के आने से बहुत पहले, शाकिर अपने बेटे मुराद की एक सफल, व्यापक रूप से जानी जाने वाली एकल माँ बन चुकी थीं।

 

26 दिसंबर, 1994 एक दुखद दिन था जब पाकिस्तान को उनकी दुखद और अप्रत्याशित मौत के बारे में पता चला। परवीन ने मृत्यु के बाद भी अपनी विशिष्टता बनाए रखी। पंद्रह साल बाद भी वे बेहद लोकप्रिय हैं। अगर कुछ हुआ तो, उनकी कविता की उचित रूप से पुनर्व्याख्या की गई है और जो आलोचक उन्हें एक हल्केफुल्के काव्य के रूप में खारिज करते थे, उन्हें एहसास हुआ है कि परवीन की काव्य दृष्टि में मेंहदी से रंगे हाथों और किशोर प्रेमियों के टूटे दिलों से कहीं अधिक था।

The End

 

 

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