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इतिहास की अज़ीम जंग इस्तांबुल की विजय उस्मानी सेना का सेनापति २१ वर्षीय सुल्तान महमद द्वितीय यह विजय ७ सप्ताह की घेराबन्दी के बाद मिली थी।

कुस्तुन्तुनिया एक नाकाबिल तसखिर शहर था, इसके तीन तरफ समुन्दर एक तरफ खुश्की, शहर के चारो तरफ 12 मीटर उची दीवार के 170 फिट के फासले पर मज़बूत टावर बने हुवे थे , दीवार के अंदर एक ओर दीवार थी ओर उन दोनों के बीचो बीच एक काबिले उबुर खन्दक थी ,जिसकी चौड़ाई 60 फिट ओर गहराई 100 फिट थी ,एक तीसरी दीवार ने शहर की एक लाख से ज्यादा की आबादी को अपने दामन में पनाह दे रखी थी,ओर यू ये शहर फ़तेह करना करीब करीब नामुमकिन हो गया था.

 

क़ुस्तुन्तुनिया कभी हार का मुंह ना देखने वाला शहर माना जाता था जो आज भी मूल्यवान कलात्मकसाहित्यिक और ऐतिहासिक धरोहरों से मालामाल समझा जाता है, 12 मीटर उंची दिवारों से घिरे इस शहर को भेदना उस समय किसी के लिए मुमकिन नही था। 

कुस्तुन्तुनिया की स्थापना रोमन सम्राट् कांस्टैंटाइन ने 328 . में प्राचीन नगर बाईज़ैंटियम को विस्तृत रूप देकर की थी। रोमन साम्राज्य की राजधानी के रूप में इसका आरंभ 11 मई 330 . को हुआ था।

 

कहते हैं कि जब यूनानी साम्राज्य का विस्तार हो रहा था तो प्राचीन यूनान के नायक बाइज़ैस ने मेगारा नगर को बाइज़ैन्टियम के रूप में स्थापित किया था. यह बात 667 ईसापूर्व की है. उसके बाद जब कॉंस्टैन्टीन राजा आए तो इसका नाम कॉंस्टैंटिनोपल रख दिया गया जिसे हम कुस्तुन्तुनिया के रूप में पढ़ते आए हैं. यही आज का इस्ताम्बुल शहर है.

 

कुस्तुन्तुनिया फ़तेह होने की बसारते हुजूर पाक दी आप ने फ़रमाया तुम जरूर कुस्तुन्तुनिया फ़तेह करोगे, पस बेहतर अमीर उसका अमीर होगा, ओर बेहतरीन लश्कर वो लश्कर होगा.

 

यही
फरमाने रिसालत था
,
जिसने हर दौर के मुस्लमान फातेहिन को कुस्तुन्तुनिया का परवाना बनाए रखा लेकिन पेदरपे कई हमलो का सामना करने के वजूद भी इस कदीम शहर के दरवाजे मुस्लमान फातेह के लिए ना खुल सके.

 

यह सन 1451 की बात है, जब सुल्तान मोहम्मद द्वितीय दूसरी बार गद्दी पर बैठे तो अपने से पहले के सुल्तानों की तरह उन्होंने भी क़ुस्तुन्तुनिया और पूरे इस्तांबुल को फ़तह करने का सपना देखा.

 

उन्होंने छह अप्रैल सन
1453
को पहले तो इस्तांबुल की ज़मीनी घेराबंदी का हुक्म दिया लेकिन फिर बाद में उन्होंने इसकी समुद्री घेराबंदी भी की. इस तरह समंदर की ओर से वह इस्तांबुल को जीतने के अपने सपने को सच करने में कामयाब हुए.

 

डेढ़ महीने से ज़्यादा समय की घेराबंदी के बाद इस्तांबुल अंततः 29 मई
1453
को फ़तह हो गया और सुल्तान मोहम्मद द्वितीय को सुल्तान मोहम्मद फ़ातेह (विजेता) की उपाधि दी गई.

Sultan Mehmed  Fateh

15 वी सदी के शूरू में जो तोपे बनती थी वो Sulfur, Saltpeter, ओर
Chrcoal
से गोले तय्यार किए जाते थे और इन सारी चीज़ों को मैदान जंग में ही मिक्स करके तोप में भरा जाता था, ओर जब फायर किया जाता तो ये गोला टारगेट पे गिरने के बाद धमाके से नही फटता था, धीरे धीरे जलता रहता था इस वजह से टारगेट को ज्यादा नुकसान नही होता था.

 

इस मसले की वजह से सुल्तान चाहते थे कि कोई नई तकनीक से बेहतर तोप बने जो टारगेट को ज्यादा नुकसान पोहचाए

 

सुल्तान मोहम्मद फातेह के दौर में तोप के माहिरीन ने ऐसी तोपे बनाना शूरू करदी थी जिसके गोले टारगेट से टकरा ते ही ब्लास्ट हो जाते फ़ढ़ जाते थे, गोलो के साथ तोपे भी मज़बूत हो गई थी , लोहे की जगह अब Bronze (कांसा कांस्य तांबे या ताम्रमिश्रित धातु मिश्रण) से बनने लग गई थी इसमे पहले के मुकाबले खर्चा तो ज्यादा होता था लेकिन डिजाइन बेहतर हो जाती थी.

 

उस वक़्त की तोपे 16 फुट लम्बी ओर साढ़े सात सो पाउंड वजन के गोले फेक सकती थी, सुल्तान मोहम्मद फातेह को इससे भी बड़ी तोप चाहिए थी इतनी बड़ी के कम गोलो में ज्यादा दीवार को नुकसान पोहचाया जा सके.

 

सुल्तान को जरूरत थी एक ऐसे इंजीनियर की जो इतनी पावरफूल तोप बना सके जितनी वो चाहते थे , ओर वो मिल गया हंगेरियन तोप इंजीनियर ओर्बन के रूप में.

 

इसको सुल्तान का मुकद्दर ही कहेंगे, कि हेंगरी से एक इंजीनियर ओर्बन तोपे बनाने की पेशकस लेकर कुस्तुन्तुनिया Constantine XI
Palaiologos
के पास आता हे ओर उसे तोपसाजी की पेशकस की,लेकिन इन तोपो के बदले में ओर्बन ने बोहोत बड़ी तनख्वाह ओर इनाम की पेशकस भी करदी कुस्तुन्तुनिया की माली हालत उस वक़्त बोहोत खराब थी उसपे कर्ज़ों का बोझ था Constantine XI
ने तोपों से ज्यादा खज़ाना भरने की फिकर थी.

 

वो उस्मानों के नए सुल्तान मोहम्मद फातेह को कोई खतरा नही समझता था बल्कि मोहम्मद फातेह के सुल्तान बनने पर कुस्तुन्तुनिया से लेकर फ्रांस तक यूरोपी हुक्मरानों ने एक दूसरे को मुबारकबादे दी थी के आलमी ताकत के तख्त पर एक कमजोर सुल्तान बैठा हे.

 

उसने ओर्बन तोप इंजीनियर को टाल दिया, ओर उसकी थोड़ी सी तनख्वाह मुकर्रर करदी,ताके इतना माहिर इंजीनियर कहि ओर ना चला जाए.

 

ओर्बन ने कुछ दिनों तक तो काम किया लेकिन इतनी कम तनख्वाह ओर वो भी टाइम पे ना मिलने साथ ही उसमे भी सरकारी अधिकारियों का डंडी मारने की वजह से ओर्बन ने सल्तनत उस्मानिया में नोकरी करने का फैसला किया, ओर यू सुल्तान की मुराद पूरी हो गई और उन्हें उनकी पसंद का इंजीनियर मिल गया.

 

ओर्बन इस बात को जनता था कि सुल्तान कुस्तुन्तुनिया की दीवार गिराने के लिए बे करार हे लिहाज़ा उसने अच्छी तरह कुस्तुन्तुनिया की दीवारों के जायज़ा लिया ओर वहा से निकल कर 140 मिल दूर एड्रिन शहर में सुल्तान मोहम्मद फातेह के दरबार मे पोहच गया.

Costantinntine xi Palaiogos

 सुल्तान ने उसके मुंह मांगी रकम से भी 4 गुना ज्यादा देने का वादा किया और जल्द ही काम शूरू करवाने का हुक्म भी जारी कर दिया.

 

इस सुपर तोप बनने के बाद ओर्बन ने ओर भी तोपे बनाई लेकिन वो इतनी लम्बी नही थी बल्कि उनका साइज़14 फिट से कुछ जादा होता था ओर्बन से सुल्तान ने ऐसी 60 से ज्यादा तोपे बनवाई.

 

तुर्को के कबाइली रिवाज़ के मुताबिक सुल्तान ने ये किया कि घोड़े के दूम से बना एक परचम महल के सहन में गढ़ दिया ये इस बात का ऐलान था कि सुल्तान मोहम्मद सानी जंग शूरू करने जा रहे हे.परचम गाड़ने के साथ ही सारी सल्तनत में क़ासिद दौड़ा दिए गए कि ओर तमाम अमीरों को हुक्म दिया गया की वो फ़ौज़ लेकर एड्रिन पोहच जाए.

 

यू देखते ही देखते 1453 के मौसम बहार तक 2 लाख का लश्कर हो गया जिसमें 180 बहरी जंगी जहाजो का ताकत वर बेड भी शामिल था

 

असल मे देखने मे ये लगता हे कि ये जंग एक तरफा होगी लेकिन ऐसा नही था कांस्टेनटाइन को, कई एडवांटेज हासिल थे जो उस्मानियो के पास नही थे.

 

कांस्टेनटाइन को जंग खुले मैदान में नहीं बल्कि किले की महफूज़ दीवार के पीछे से लड़ना थी.यानी उसके सिपाही महफूज़ जगहों से दुश्मन पर गोले पत्थर तीर ओर ग्रीक फायर जैसा खतरनाक केमिकल फेक सकते थे.वही ग्रीक फायर जिसकी आग पानी से भी नही भुजती थी बल्कि ओर भड़कती थी.

 

इसके मुकाबले में उस्मानी इनको तभी नुकसान पोहचा सकते थे जबकि वो दीवारों पे चाड आए, यही काम तकरीबन नामुमकिन था, ओर इसकी एक लॉजिकल रीजन वजह थी.

 

सबसे बाहर 50 फुट चौड़ी 20 गहरी खन्दक हे, जिसमे जमीन के नीचे पाइप के जरिए पानी भरा जा सकता था फिर इसके पीछे 1 पहली छोटी दीवार इसके पीछे 2 दूसरी बुलंद दीवार ओर सबसे आखिर में 3 तीसरी दीवार जिसकी बुलंदी 36 से 100 फिट तक ये आखिरी दीवार 4 मिल तक फैली हुई थी दूसरी ओर तीसरी दीवार के दरमियान एक 60 फिट चोड़ा पेलेट फार्म भी था,

 

यानी एक खन्दक 3 दीवारे ओर दीवारों के पिछे से तिरो की बारिश करते सिपाही इन सब से गुजरने के बाद ही तुर्क फ़ौज़ उन प्लेटफार्म पे पोहच सकती थी जहा उन मुहफीजो पे दु दु हमला कर सके ओर मुहफीजो के पास तीसरी दीवार के पीछे पनाह लेने की भी ऑप्शन मौजूद थी. 

Etambole during rule of Ottoman Empyre

ये था दीफाई स्ट्रक्चर जिसकी दीवारों पे चढ़ते चढ़ते लाखो की फ़ौज़ खत्म हो जाया करती थी सदियों से शहर की यही तारीख रही थी सिर्फ दीवारे ही नही बल्कि शहर का सारा नक्शा ही जंगी नुक्ते नज़र से बनाया गया था.

 

बाहर से देखे तो कुस्तुन्तुनिया के एक तरफ अबना बासफोरस यानी सकड़ा समुंद्री रास्ता, दूसरी जानिब सी, एफ़, मरमरा यानी फिर संमुन्दर ओर तीसरी तरफ़ गोल्डन हार्न यानी तीसरी तरफ भी पानी,

 

लेकिन ये गोल्डन हार्न कुस्तुन्तुनिया का एक वीकपॉइन्ट भी था, ये तंग समुंदरी रस्ता अगर कोई पार करके कुस्तुन्तुनिया की तरफ़ आजाए तो इस तरफ की दीवार बोहोत कमजोर थी, लेकिन इसका भी हल शहर के मुहफीजो ने पहले ही निकाल लिया था.

इसके रास्ते मे 30 टन वजनी एक लोहे की जंजीर दालदी थी ताके कोई जहाज घुस ना सके सिर्फ वही जहाज़ सके जिसको वो जंजीर हटा के अंदर लाते थे सुल्तान मोहम्मद अल फातेह ने कई जंगी जहाज़ भी बनवाए थे.

 

30 टन वजनी जंजीर लगा दी गई थी जैसे रोड पे बेरियर लगाया जाता हे वैसे ही ये जंजीर रास्ते के दोनो तरफ फिट करदी गई थी जंजीर के एक सिरे पर कुसरन्तुनिया तो दुसरे पर गलाटा की आबादी थी

 

जंजीर को काटा भी नही जा सकता था क्यों के इसके पीछे हिफाज़त के लिए 10 रूमी बेहरी जहाज़ खड़े हुवे थे

 

अब कांस्टेनटाइन को ये करना था की शहर में बंद होकर बैठ जाए, ओर दुश्मन एड्रिन से 140 मिल का थका देने वाला सफर तेय करके आये तो उसको जंग में मुसलसल उलझाए रखे तब तक उलझाए रखे की उस्मानी फ़ौज़ धूप गर्मी प्यास ओर बीमारियों से अदमुरी ना हो जाए

 

कुस्तुन्तुनिया को एक ओर फायदा था कि यूरोप से पोप सलेबी लश्कर उस्मानियो के मुकाबले पर भेज सकता था, ओर पोप का एक नुमाइंदा 2 हजार तीरअनदाज़ को लेकर कुस्तुन्तुनिया पहोच भी चुका था लेकिन सलेबी फ़ौज़ नही आई इसकी वजह पूरे यूरोप में उस्मानों के खिलाफ़ जंग करने को कोई तय्यार ना था.

 

ईसाई रियासत के उस दौर में उस्मानों से टकराना अपनी रियासत को ही दांव पे लगा देना था इस लिए वो ये खतरा मोल नही लेना चाहते थे.

 

29 जनवरी 1453 को एक जंगजू कमाडंर john giusriniani अपने 700
सो जंगजू के साथ कुस्तुन्तुनिया पहोच गया कांस्टेनटाइन ने giusriniani की जंगी महारत को देखते हुवे उसे अपनी फ़ौज़ का कमांडर एन चीफ बना दिया, अब कांस्टेनटाइन की फ़ौज़ 9 हजार तक पोहचा चुकी थी

 

इन सब से निपटने के लिए सुल्तान मोहम्मद अल फातेह के पास किया तय्यारी थी

 

सबसे पहले तो सुल्तान के पास एक सलेबी तीरंदाज़ से मुकाबले के लिए 20,
20
सिपाही थे.

 

दीवारे तोडने के लिए उसके पास तोपे थी जो दीवारों के साथ उप्पर बैठे मुहफीजो को भी गिरा सकती थी.180
बहरी जहाजो का बेड़ा शहर की बाहरी नाका बंदी के लिए काफी था.

 

1452 में सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अबनाएबासफोरस के यूरोपी किनारे पर शहर से 6 मिल दूर एक किले कि तामीर शूरू करदी,पुर जोश सुल्तान ने खुद मज़दूरों के साथ मेहनत करके सिर्फ साढ़े 4 माह में ये किला खड़ा कर दिया था,ये किला आज भी यही मौजूद हे.

 

किले में तोपे लगा कर चार सौ सिपाही तैनात कर दिए गए ।इस किनारे के एन सामने बसफोर्स के एशियाई किनारे पर एक किला आन्दोलो हिजार सुल्तान के पर दादा बायज़ीद अव्वल ने पहले ही बनवा रखा था, ओर ये भी आज तक मौजूद है.

 

इस किले में भी तोपे ओर फ़ौज़ लगा दी गई अब दोनों किलो के दरमियान सिर्फ आधे मिल संमुन्दर से कोई बाहरी जहाज़ तो किया एक छोटी कश्ती भी बगेर उस्मनियो की इजाज़त के नही गुजर सकती थी.

 

सुल्तान के पास सब कुछ था ।लेकिन एक चीज़ नही थी जो कांस्टेनटाइन के पास थी.वो था वक़्त.

 

बात ये थी कि सर्दी हो या गर्मी दोनो में ही कुस्तुन्तुनिया के शहर के बाहिर कोई फ़ौज़ जादा देर तक नही ठेर सकती थी, इस हमले के लिए बेहतरीन मौसम बहाल था यानी मार्च ,ओर अप्रेल का वक़्त ,ओर इसके बाद भी कोई ताकतवर फ़ौज़ एक महीना और यानी मई, तक मुहासरा बरकरार रख सकती थी इसके बाद सख्त गर्मी प्यास बीमारिया उस फ़ौज़ का मुक़द्दर बन जाया करती थी ,ओर मुहासरा खत्म करना पड़ता था.

 

यानी अब कांस्टेनटाइन 3 माह अगर उस्मानी फ़ौज़ को बाहिर रोक ले तो वो जंग जीत चुका था ओर कुस्तुन्तुनिया की हिफाज़त के इंतिज़ाम ऐसे थे कि 3 माह तक किसी भी फ़ौज़ को बाहर रोका जा सकता था.

 

इन सब बातो को जेहेन में रखकर जब सुल्तान एड्रिन से चले तो 23 मार्च 1453 की तारीख ओर जुमे का दिन था.

 

सुल्तान घोड़े पे सवार इस तरह आगे बढ़ रहे थे कि उनके दोनों तरफ घोड़ सवार सय्यद जादे थे उनके साथ उलमा किराम सीयूख की बड़ी तादाद थी ये सब लोग बुलंद आवाज़ से कामयाबी के लिए दुआ मांग रहे थे

 

सबसे आखिर में तोपे खेच कर लाई जा रही थी, सिर्फ सुपर गन को 60 बेल ओर 200
आदमी खेच रहे थे यही नही बल्कि उस्मानी फ़ौज़ के कुछ दस्ते , एक एक करके आगे बढ़ने वाले रास्तो को भी बेहतर बनाते जा रहे थे.

 

2अप्रेल को बड़ी तादाद में उस्मानी फ़ौज़ शहर में पोहचना शूरू होगई और शहर के तमाम दरवाजे आखिरी बार बन्द कर दिए गए बल्कि शहर के मरकज़ी फाटक को तो बोहोत पहले ही उखाड़ कर वहा पत्थर चुन दिए गए थे , मगरिबी दीवार वाली खन्दक पर बने तमाम पुल भी गिरा दिए गए कि उस्मानी फ़ौज़ खन्दक को पार ना कर सके. 

सुल्तान मोहम्मद फातेह 23 मार्च को जुमे के दिन चले थे और 6 अप्रेल को जुमे ही के रोज़ शाम के वक़्त शहर के सामने पोहोच गए थे.

 

कुस्तुन्तुनिया
की
चाबियां
और मुकद्दस
नक्शा
ये कैसे काशिम बिन हुस्साम को मिला

 

काशिम बिन हुस्साम को सुल्तान ने कुस्तुन्तुनिया पहले ही भेज दिया था खुफिया तरीके से जानकारी हासिल करने के लिए , आप वहा एक सलेबी बनकर गए थे, आप कुस्तुन्तुनिया का नक्शा हासिल करने की नीयत से एक टावर की 8 मंजिल पे पो होचते है , जहा आपकी एक बूढ़े बुजुर्ग पर नज़र पढ़ती है ,

 

काशिम बिन हुस्साम, देखते हे कि वो बुजुर्ग मुस्कुरा कर हाथ मे मसाल लिए दरवाजे पे खड़े हे टावर की सीडीओ पे उजाला कर रहे थे जिस उजाले के सहारे काशिम बिन हुस्साम 192
जीने चढ़कर आये थे , बुजुर्ग ने कहा बेटा अंदर आओ तुम बोहोत तेजी से जीने चढ़कर आये हो , बुजुर्ग की बाते सुनकर काशिम बिन हुस्साम हेरत में पढ़ जाते हे कुछ समझ नही आता वो समझते हे कि ये बुजुर्ग मुकद्दस की कोई चाल हे ,

 

मुकद्दस बुजुर्ग ने काशिम बिन हुस्साम को तलवार निकालते देखा तो मुस्कुरा कर बोलेनही बेटा इसकी जरूरत नहीमें तो तुम्हारा इंतिजार कर रहा था ,”आज से नही बेटा में गुज़िश्ता कई सालो से तुम्हारा मुन्तज़िर हु”, “हर रात इसी तरह हाथ मे मसाल लेकर दरवाजा खोले तुम्हारा इंतिजार करता हु”, “मुझे मालूम था तुम आओगे,एक दिन जरूर आओगे, आओ अंदर आजाओ”,

 

ये सब देख कर काशिम बिन हुस्साम हैरान थे , उन्हें कुछ समझ नही रहा था , वो बूढ़े मुकद्दस बुजुर्ग बताएमुस के साथ अंदर की ओर चलने लगे और कमरे में दाखिल हुवे , कमरे में एक लकड़ी का सन्दूक रखा था

Estambole old Walls of Constantinpole in Turkey

मुकद्दस बुजुर्ग ने फिर कहा बेटा अच्छा हुवा तुम आगए, में अब जादा ही बूढा हो चुका हूं , मेने तवील अरसे तुम्हारा इंतिजार किया हे , तुम्हारी अमानत मेरे पास हे , इसे हिफ़ाज़त के साथ अपने अमीर के पास पोहचाना तुम्हारा काम हे,

 

ये कुस्तुन्तुनिया की हजार साल पुरानी चाबियां हे मेरे लिए अब इनकी हिफ़ाज़त मुश्किल थी, शुक्र है तुम आगए,मुझे यकीन हे ,तुम्हारा अमीर कुस्तुन्तुनिया फ़तेह कर लेगा , क्यों के तुम्हारा अमीर बेहतर अमीर हे ,तुम्हारा लश्कर सबसे बेहतर लश्कर हे.

 

उन बुजुर्ग की जबान से आखिरी अल्फ़ाज़ सुनके, काशिम बिन हुस्साम के बदन का एक एक रोंगटा खड़ा हो गया , की ये तो हदीसे मुबारक के अल्फ़ाज़ हे.

 

रसूल करीम ने फरमाया था, तुम जरूर कुस्तुन्तुनिया फ़तेह करोगे, ओर इस लश्कर के अमीर बेहतर अमीर होगा, ओर वो लश्कर बेहतर लश्कर होगा,

 

पहली बार काशिम बिन हुस्साम में बोलने की हिम्मत पैदा हुई, वो बोले मुकद्दस बुजुर्ग आज ये सब मेरे लिए नाकाबिले यकीन हे, मेरा दिल कहता हे आप अल्लाह तआला के मकबूल बन्दे हे, में आपकी अमानत अपने सुल्तान के पास पोहचाने में एक लम्हे की भी देरी नही करूंगा, लेकिन में एक बात कहना चाहता हु , मुकद्दस बुजुर्ग में यहा कदीम चाबियां लेने नही मुकद्दस नक्शा हासिल करने आया था,

 

वो बुजुर्ग मुस्कुरा के बोले मुकद्दस नक्शा भी मेरे पास पोहोच चुका हे, में वो भी तुम्हारे हवाले कर दूंगा, तुम अब जादा देर ना करो जाने की तय्यारी करो लेकिन जाने से पहले में अपने चंद अल्फ़ाज़ का तुम्हे गवाह बनाना चाहता हु , फिर उन बुजुर्ग ने ये कालीमात कहे

 

मेरे परवरदिगार में गवाही देता हूं, की में तेरे सिवा, किस ओर को रब नही समझता, ओर मोहम्मद को तेरा भेजा हुवा रसूल समझता हूं

 

काशिम बिन हुस्साम की आँखे हेरत से फटी जा रही थी, वो बुजुर्ग एक तरह से कालिमा शहादत पढ़ रहे थे, ओर ये उनके मुस्लमान होने का सबूत था.

 

इसके बाद वो बुजुर्ग ने लकड़ी के सन्दूक को खोला और उसमें से भारी भरकम गठरी निकली और काशिम बिन हुस्साम की तरफ बढ़ाते हुवे कहा

 

ये कुस्तुन्तुनिया की चाबियां हे ,साढ़े आठ सौ साल से ये चाबियां एक मजाजी अरब नोजवान के इंतिजार में इस सन्दूक के अन्दर रखी हे.

 

इन्हें केसर रूमहरकुलने अपनी मौत से पहले इस सन्दूक में मुन्तक़िल किया था, इस बात से सब बेखबर हे, यहा तक कुस्तुन्तुनिया के शहनशाह उनका राज़ नही पा सका, इनमे दीवारे शहर के कदीम तहखानों के अलावा शाही महल के गुमनाम तहखानों की चाबियां भी हे, इन मक़ामात में कदीम रूम के खजाने रखे हे, जिनके असल मालिक तुम और तुम्हारा असल लश्कर हे.

 

बिल आखिर 6 अप्रैल
1453
, मुताबिक 26 रबीउलअव्वल 857 ही, के रोज़ सुल्तान मोहम्मद अल फातेह अपनी बहादुर अफवाज़ के हमराह खुश्की की जानिब से कुस्तुन्तुनिया की दीवार के सामने नमूदार हुवे, शहर के सब दरवाजे बंद थे और कुस्तुन्तुनिया का पूरा शहर दीवार पे चढ़कर दूर से धूल उड़ाते उस्मानी लश्कर को देख रहा था.

 

उन्होंने शहर की मगरिबी दीवार के सामने अपना शुर्ख तुर्क ओर सुनहरी खेमा नसफ़ कर लिया था, उसी जगह जहा उनके वालिद ने 31 बरस पहले अपना खेमा नसफ़ किया था.

 

ओर इसी पहाड़ी के सामने रोमोनोस गेट पास वो दीवार थी जिसपर सुल्तान मुराद दोम की तोपो ने गोले बरसाए थे जिससे वो किसी हद तक टूट चुकी थी और अब कुस्तुन्तुनिया इसे अपनी गुरबत के बाइस मरमत भी नही कर पाया था लेकिन ये सिर्फ एक अंदरूनी दीवार थी, जबकि बाहर वाली दीवार सही सलामत थी.

 

सुल्तान की तोपे अगर ये बाहर वाली दीवार भी तोड़ देती तो इसके बाद उस्मानी फ़ौज़ ओर शहर की राह में कोई रुकावट नही थी.

Constantinpole

यही सोच कर सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अपना खेमा लगवाया था, ताके वो अपनी निगरानी में ये अहम तरीन काम सर अंजाम दे सके.

 

इसी जगह यानी फ़ौज़ के पोजीसन के सेंटर में उनकी बेहतरीन सिपाही जेनीससेरीज़ तीर अनदाज़ ओर हमला करने वाले घोड़े सवार मुस्तेद थे, जिन्होंने मालटेपे की पहडी को घेर रखा था.

 

सुल्तान के खेमे के करीब इर्द गिर्द खन्दक खोद कर पाल नसब कर दी गई थी और भालो से आड़ भी बना दी गई थी,

 

दीवार तोड़ने के लिए सुल्तान के खेमे के सामने ही सुपर गन नसब होनी थी लेकिन वो अभी पोहची ही नही थी, क्यू के वो इतनी भारी थी उसे खेचने वाले बाकी फ़ौज़ से पीछे रह गए थे , बल्कि बाकी तोपो में से भी चंद हल्की तोपे ही साथ पोहची थी,

 

कुस्तुन्तुनिया की लम्बी हिफ़ाज़ती दीवार के 3 हिस्से थे सुल्तान ने अपनी फ़ौज़ को भी इसी तरतीब से खड़ा किया इन 3 हिस्सो में से सबसे अहम दीवार का दरमियानी हिस्सा था जो लाइक्सवेनी कहलाता था, ओर असल मे यही वो हिस्सा था जिसकी दीवार सबसे कमजोर थी इस दीवार के दोनों किनारों पर एक एक गेट था.

 

उस्मानी फ़ौज़ के बिल्कुल आगे शहर हिफ़ाज़ती दीवार से ढाई सौ गज़ के फासले पर तुर्क इंजीनयर ने एक खन्दक खोद रखी थी जो पूरी हिफ़ाज़ती दीवार की लंबाई के बराबर थी ,यानी 4 मिल लम्बी,

 

इस खन्दक के पीछे एक छोटी सी दीवार बना दी गई थी जिसके पीछे घड़े खोदकर उनमे तोपे फिट की जा चुकी थी ,सुपर गन को सुल्तान के खेमे के बिकुल सामने नस्ब किया गया था,

 

जहा से वो हिफ़ाज़ती दीवार के सबसे कमजोर हिस्से को आसानी निसाना बना सके.

 

सुल्तानि फ़ौज़ के मुकाबले में कांस्टेनटाइन ने अपनी पूरी ही फ़ौज़ यानी 9 हजार सिपाही , 4 मिल लम्बी मग़रबी दीवार पर फैला दिए.

 

सुल्तान की 70 तोपो के मुकाबले में कांस्टेनटाइन के पास सिर्फ 15 तोपे थी.इसपर मजीद ये दीवारे कमजोर हो चुकी थी इनपर रख कर अगर तोपे चलाई जाती तो झटको से दीवारे टूट सकती थी.

 

अब रहगई शहर की तीसरी तरफ गोल्डनहार्न वाली साइट की दीवार ये हिस्सा जंजीर की वजह से पहले ही महफूज़ बनाया जा चुका था इस लिए वहा कोई फ़ौज़ तैनात नही की गई.

 

सुल्तान की 180 बाज़ रिवायत के मुताबिक 140 बेहरी जहाज सी एफ़ मारमरा के बासफोरस तक पेट्रोलिंग कर रहे थे, जंजीर की वजह से ये जहाज़ गोल्डनहार्न मर दाखिल नही हो सकते थे.

 

जब की कुस्तुन्तुनिया का पूरा बेहरी बेड़ा 20 से 40 जहाजो पे मुस्तमिल था और गोल्डनहार्न कि बंदरगाह में महफूज़ खड़ा था, लेकिन अब इन सब बेहरी जहाज़ समेत सबके इम्तिहान का वक़्त पोहचा था.

 

12 अप्रेल की रात सुल्तान मोहम्मद फातेह सुपर गन के पास आए और चन्द लम्हो बाद पहले गोले के जर्ब से कुस्तुन्तुनिया की दीवारे थर्रा उठी. तोपो के साथ साथ उस्मानीयो की मन्जेकनी भी पत्थर फेक रही थी, कुस्तुन्तुनिया में रोजाना 120 गोले फायर हो रहे थे.

100, से 600 किलोग्राम गोले जब शहर के अंदर गिरते तो मिलो तक जमीन लरज़ उठती

 जवाब में दीवार के मुहाफीजो ने भी अपनी तोपे चलाने का फैसला किया , लेकिन हुवा ये की उन की सबसे बड़ी तोप फायर करते ही फट गई, वजह ये थी कि तोपे चलाने के लिए अच्छे माहिरीन ओर मुनासिब बारूद मौजूद ही नही था.

 

जदीद भारी भरकम गोलो के आगे कोई ऐसा टोटका कोई ऐसी तरकीब काम नही रही थी सिर्फ एक हफ्ते की बमबारी से बेहरूनी दीवार का बड़ा हिस्सा गिर गया था.

 

वो दीवारे जो सदियों से हर दुश्मन के हमले का मुकाबला कर रही थी ,उस्मानियो ने उसका हुलिया बिगाड़ दिया ओर उसमे जगह जगह दरारे पड़ गई , ओर फिर एक वक़्त वो आया के जबसेंट रोमानोसके दरवाजे के करीब चारो ब्रिज 30 इंच के गोले का शिकार होकर जमीन पर गिरे और सतह के बराबर हो गए,

 

28 मई 1453 , सुल्तान मोहम्मद फ़ातेह ने अपनी फौज मे फिर एलान कर दिया, के कल शहर पर हर तरफ से आखिरी हमला होगा.

 

उधर शहर के अंदर केसर शाही में कांस्टेनटाइन ने अपने सिपह सलारो ओर शहर की अवाम को जमा करके एक जलसा मुनक़्क़ीद किया, उसको मालूम हो चुका था के सुबह फैसलाकुन हमला होने वाला हे, चुनाचे इसने शहरियो को आखिरी दम तक लड़ने ओर मरने मारने की तरग़ीब दी, ओर खुद भी भरे मजमे में इसु मशीही की कसम खाकर कहा के वो अपने खून के आखिरी कतरो तक तुर्को का मुकाबला करेगा , जलसा खत्म हुवा तो तमाम सालार अपनी जिंदगी का आखिरी मारका लड़ने पोहोच गए,

 

उस्मानी फ़ौज़ रात भर जिक्र तस्बीह, ओर दुआ में मशरुफ़ रही, खुद सुल्तान मोहम्मद फातेह फजर से फारिग होकर उलमा ओर दरवेशों की खिदमत में हाजिर हुवे ओर उनसे आखिरी हमले की कामयाबी के लिए दुआ की दरखुवास्त की,

 

इस मजमे उलमा में सुल्तान के पिरो मुर्शीदहज़रत आका शम्सउद्दीन अलेह रहमाभी मौजूद थे, सुल्तान के पिरो मुर्शीद ने आखिरी हमले के रोज़ एक अलग छोटा खेमा नसब करवाया और बाहर एक दरबान को बेठा दिया के किसी सख्स को अंदर आने ना दिया जाए , ओर इस तरह सुल्तान मोहम्मद फातेह के पिरो मुर्शीद खुद दुआ में मसरूफ ही गए

 

सुल्तान मुहम्मद फातेह ने तुलुअ आफ़ताब से कुछ देर पहले अपने लश्कर को सफ़े आराअ कर के उनके सामने एक वलवला अंगेज़ तक़रीर की जिसमे ये तारीख़ी जुमला बोला

आज हम ज़ोहर की नमाज़ आयासोफ़िया में अदा करेंगे

इसके साथ ही नक्कारों, रणभेरी, तबलों और बिगुल के शोर ने रात की चुप्पी को तारतार कर दिया, लेकिन इस कान फाड़ते शोर में भी उस्मानी फौज के गगनभेदी नारे साफ सुनाई दे रहे थे जिन्होंने किले की दीवार के कमजोर हिस्सों पर हल्ला बोल दिया था.

Sofia Aya Hagia –Now a Grand Masjid

 एक तरफ ज़मीन पर और दूसरी तरफ़ समुद्र में खड़े जहाजों पर तैनात तोपों के दहानों ने आग बरसाना शुरू कर दिया. इस हमले के लिए बांजिटिनी सैनिक तैयार खड़े थे. लेकिन पिछले डेढ़ महीनों की घेराबंदी ने उनके हौंसले पस्त कर दिए थे.

 

बहुत से शहरी भी मदद के लिए दीवार तक पहुंचे थे और उन्होंने पत्थर उठाउठाकर नीचे इकट्ठा होने वाले सैनिकों पर फेंकना शुरू कर दिया था. दूसरे लोग अपनेअपने करीबी गिरिजाघरों की तरफ़ दौड़े और रोरो कर प्रार्थना शुरू कर दी.

 

पादरियों ने शहर के विभिन्न चर्चों की घंटियां पूरी ताकत से बजानी शुरू कर दी थी जिनकी टन टनाटन ने उन लोगों को भी जगा दिया जो अभी तक सो रहे थे.

 

ईसाई धर्म के सभी संप्रदायों के लोग अपने सदियों पुराने मतभेद भुलाकर एकजुट हो गए और उनकी बड़ी संख्या सबसे बड़े और पवित्र चर्च हाजिया सोफिया में इकट्ठा हो गई. सुरक्षाकर्मियों ने बड़ी जान लगाकर उस्मानी फौज के हमले रोकने की कोशिश की.

 

वे लिखते हैं किसफेद पगड़ियाँ बांधे हुए हमलावर आत्मघाती दस्ते बेजिगर शेरों की तरह हमला करते थे और उनके नारे और नगाड़ों की आवाजें ऐसी थी जैसे उनका संबंध इस दुनिया से ना हो.’ रोशनी फैलने तक तुर्की सिपाही दीवार के ऊपर पहुंच गए. 

Rumeli Castle

इस दौरान ज्यादातर सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके थे और उनका सेनापति जीववानी जस्टेनियानी गंभीर रूप से घायल होकर रणभूमि से भाग चुका था. जब पूरब से सूरज की पहली किरण दिखाई दी तो उसने देखा कि एक तुर्क सैनिक करकोपरा दरवाजे के ऊपर स्थापित बाजिंटिनी झंडा उतारकर उसकी जगह उस्मानी झंडा लहरा रहा था.

 

सुल्तान मोहम्मद सफेद घोड़े पर अपने मंत्रियों और प्रमुखों के साथ हाजिया सोफिया के चर्च पहुंचे. प्रमुख दरवाजे के पास पहुंचकर वह घोड़े से उतरे और सड़क से एक मुट्ठी धूल लेकर अपनी पगड़ी पर डाल दी. उनके साथियों की आंखों से आँसू बहने लगे. 700 साल के संघर्ष के बाद मुसलमान आखिरकार कस्तुनतुनिया फतह कर चुके थे.

 

सुल्तान ने तक़रीर ख़तम कर के अपने सालारों को भरपूर हमला करने का हौसला दिया, आज 29 मई
1453
ईस्वी का दिन था, उस्मानी फौज ने मुख़्तलिफ़ सिमतों से हमला किया, तोपों और मंजनिकों ने जाबजा शहर की दीवार में सुराख़ करने शुरू कर दिए, हमला हर तरफ से हो रहा था, लेकिन इसका ज़्यादा ज़ोर सेंट रोमानिस के दरवाजे पर था.

 

उस्मानी फौज ने जगह जगह से खंदक़ को पाट दिया, और खन्दक़ को ऊपर से उबूर करने के लिए सीढियां और कुमिनदें डाल दीं, और यूं तुलुअ आफ़ताब के साथ ही आग और खून का खौफ़नाक खेल शुरू हो गया, “सेंट रोमानिसकी दीवार तो तुर्की तोपों की गोला बारी से पहले ही मजरूह हो चुकी थी,

Final Fighting at the fall of Constantinpole

चुनांचे उस्मानी सिपाहियों ने पूरे जोश खरोश के साथ टूटी हुई दीवार के रुख़नों का इस्तेमाल किया और शहर में दाख़िल होने की कोशिश की, मगर हर मर्तबा उनकी कोशिश निहायत शख्ती से नाकाम बना दी गयी, कई मर्तबा उस्मानी लश्कर के बहादुर शहर के बुर्जों और दीवार के शक्त हिस्सों पर चढ़ जाने में कामयाब हुए, मगर अंदर सेकांस्टेनटिनीऔरनोटार्सके सिपाही कुस्तुन्तुनिया के आम शहरी हत्ता की सेहरी अवाम औरतें और बच्चे तक भी लड़ने और मुदाफ़िअत करने में मसरूफ़ हो गए.

 

हर तरफ यही हालात थे , समंदर और ख़ुश्की हर दो अतराफ़ से जोश खरोश के साथ हमला जारी था, एक अजब हंगामा रास्तख़ैर बपा था, कश्तियों के पसते लग गए, मगर दोनों तरफ से कोई फरीक़ दुआ भर देने के लिए तैयार ना था, कांस्टेनटाइन खुद घोड़े पर बैठा सुबह से बग़ैर कुछ खाये पिये इधर से उधर दौड़ता रहा, जॉन जस्टीनानी ने तलवारबाज़ी के ऐसे जौहर दिखाए की सुल्तान मुहम्मद फातेह अंगुश्त बदनदां रह गया, और बे इख़्तियार हो कर ये ख्वाहिश करने लगा किकाश ये मेरी फौज में होता”.

 

दोपहर तक उस्मानी फौज का एक सिपाही भी शहर में दाख़िल ना हो सका, ईसाईयों ने अपने मरकज़ मिल्लत को बचाने के लिए हैरतअंगेज शुजाअत का सबूत दिया और हर सिपाही जान मार कर लड़ा, वो हर मर्तबा तुर्को की बाढ़ को फसिल सहर पर बे हद पामर्दी से रोकते , ओर या दीवार से गिरजाते.

 

लेकिन सुल्तान मोहम्मद फातेह अपनी इब्तिदाई नाकामीयो से मुतासिर ना हुवे,,वो एक अज़म के साथ उठे और दीवारे शहर के नजदीक एक मकाम पर उन्होंने दो रकअत नमाज़ बा जमाअत अदा करने का हुक्म दिया

 

सुल्तान ने ताज़ा मुहिम पर रवाना होने से पहले अपने एक वजीरे खास को अपने पिरो मुर्शीद की खिदमत में रवाना किया ओर अर्ज़ की ये वक़्त खास दुवा ओर इमदाद का हे.

 

सुल्तान का वजीर जब इस मुर्शिदी, ,बन्दे खुदागाह, के खेमे के करीब पोहचा तो दरबान ने इसे अंदर जाने से मना कर दिया , लेकिन उस्मानी वजीर ने दरबान को डांटा ओर कहा के वो जरूर मुर्शीद सुल्तानि की खिदमत में हाजिर होकर सुल्तान का पैगाम पोहचायेगा.

 

ये कहकर वजीर खेमे में दाखिल हो गया,
उसने देखा के मुर्शीद सर झुकाए दुआ में मशरूफ हे, उस्मानी वजीर के दाखिल होने पर इन्होंने सर उठाया और मुस्कुराते हुवे कहा ,,,,जाओ,,,,,,कुस्तुन्तुनिया, फ़तेह हो चुका है.

 

उस्मानी वजीर को बुजुर्ग की बात पर यकीन ना आया और वो वापिस भागा लेकिन खेमे से निकलकर उसने देखा कि शहर कुस्तुन्तुनिया में उस्मानी परचम लहरा रहा था

 

दरअसल सुल्तान ने अपने वजीर को जिस वक्त अपने पिरो मुर्शीद की तरफ रवाना किया था वो वक़्त बड़ा नाजुक था, ओर फिर ठीक उसी वक़्त शहर की दीवार का वो हिस्सा जो सुल्तान के सामने था , यकायक खुद खुद गिरपड़ा ,ओर इसके गिरने से खन्दक पुर हो गई ,नतीज़न शहर में दाखिल होने का रास्ता साफ हो गया.

 

ओर दीवार का ये हिस्सा गिरा उधर एन उसी वक़्त बन्दरगाह की तरफ से बेहरी फ़ौज़ ने एक हिस्से पे कब्ज़ा करके के इस्लामी अलम, झंडा नसब कर दिया,

Sultan Mehmed Second with his Soldiers

इस अलम को बुलन्द ओर सामने की दीवार को मुहिदम देखकर सुल्तान के हमराह दस्ता जिसका सालार आगा हसन था वो शहर पर चढ़ पड़ा.

 

आगा हसन बिला तावील शहर पर चढ दौड़े, लेकिन ईसाई अभी भी हार मानने को तय्यार ना थे, ओर इसी दौरान कॉस्टेन्टाइन , को एक ओर गेहरी चोट ये आई के उसका बहादुर सिपाह सालार ,”जस्टिनानीजो गोया मुदाफअत की रूह था एक गहरा जख्म खाकर कुछ ऐसा ख़ातिफ हुवा के जंग से बिल्कुल ही किनाराकसी हो गया.

 

शहनशाह रूम नेजस्टिनानीको रोकने के लिए शदीद इसरार किया, लेकिन वो इस्लामी तलवारों से डर चुका था, चुनाचे उसने एक ना सुनी ,ओर फ़ौरन बन्दरगाह की तरफ चला गया , उसके हटते ही ईसाइयो में कमजोरी के आसार नमूदार होने लगे, चुनाचे रूमी शहनशाह ने खुद मोके पर पोहोच कर फ़ौज़ की कमान अपने हाथ मे ली.

 

लेकिन सुल्तान मोहम्मद फातेह की फ़ौज़ का हमला इतना सख्त था के ईसाईयो की जांबाज़ी जादा देर तक कायम ना रह सकी, ईसाइयो ने खूब डट कर मुकाबला किया मगर वो दस्तदस्त लड़ाई में मुस्लमानो का मुकाबला करने के एहल ना थे,

 

रूमी शहनशाह जो अब तक बेजीगरी के साथ लड़ रहा था, अपने बहादुर सिपाहियो के हौसले छोड़ देने पर उम्मिद का दामन छोड़ बैठा ओर उसने अपने चारों तरफ देखते हुवे आवाज़ बुलंद पुकारा,

किया कोई ईसाई नही हे जो मुझे अपने हाथों से क़त्ल करदे.”

Sultan Mehmed Entering Constantinpole as Winner

 लेकिन जब रोम के आखिरी केसर को कोई जवाब ना मिला तो वो उस्मानी फ़ौज़ में लड़ते हुवे मारा गया, ओर इस तरह उसकी मौत पर, 11
सो साल से कायम बेजेंटिनी सल्तनत रूम का खात्मा हो गया, जिसकी इब्तिदा भी कांस्टेनटाइन से हुई और इंतिहा भी कांस्टेनटाइन पर हुई.

 

सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अपने सिपाहियो से ये वादा किया था कि,जोहर की नमाज़आया सोफ़ियामें पढ़ेगे, चुनाचे फोरी तोर पेआया सोफियाके हाल से इबादत की नस्तिह हटा दी गई और आया सोफ़िया के हाल में सुल्तान मोहम्मद फातेह के हुक्म पर, “अल्लाहु अकबरकी सदाए गूँजने लगी.

 

सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और कस्तुनतुनिया उसकी राजधानी बनी और मुस्लिम दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया. सुल्तान फातेह के पोते सुलेमान आलीशान के दौर में कस्तुनतुनिया ने नई ऊंचाइयों को छुआ.

 

 

कस्तुनतुनिया की विजय सिर्फ एक शहर पर एक राजा के शासन का खात्मा और दूसरे शासन का प्रारंभ नहीं था. इस घटना के साथ ही दुनिया के इतिहास का एक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हुआ था. एक तरफ 27 ईसा पूर्व में स्थापित हुआ रोमन साम्राज्य 1480 साल तक किसी किसी रूप में बने रहने के बाद अपने अंजाम तक पहुंचा.

 

दूसरी ओर उस्मानी साम्राज्य ने अपना बुलंदियों को छुआ और वह अगली चार सदियों तक तक तीन महाद्वीपों, एशिया, यूरोप और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से पर बड़ी शान से हुकूमत करता रहा.
1453
ही वो साल था जिसे मध्य काल के अंत और नए युग की शुरुआत का बिंदु माना जाता है.

 

यही नहीं बल्कि कस्तुनतुनिया की विजय को सैनिक इतिहास का एक मील का पत्थर भी माना जाता है क्योंकि उसके बाद ये साबित हुआ कि अब बारूद के इस्तेमाल और बड़ी तोपों की गोलाबारी के बाद दीवारें किसी शहर की सुरक्षा के लिए काफी नहीं है.

 

शहर पर तुर्कों के कब्जे के बाद यहां से हजारों संख्या यूनानी बोलने वाले लोग भागकर यूरोप और खास तौर से इटली के विभिन्न शहरों में जा बसे. उस समय यूरोप अंधकार युग से गुज़र रहा था और प्राचीन यूनानी सभ्यता से कटा हुआ था. लेकिन इस दौरान कस्तुनतुनिया में यूनानी भाषा और संस्कृति काफी हद तक बनी रही थी.

 

यहां आने वाले मोहाजिरों के पास हीरे जवाहरात से भी बेशकीमती खजाना था. अरस्तू, अफलातून (प्लेटो), बतलिमूस, जालिनूस और फिलॉसफर विद्वान के असल यूनानी नुस्खे उनके पास थे. इन सब ने यूरोप में प्राचीन यूनानी ज्ञान को फिर से जिंदा करने में जबरदस्त किरदार अदा किया.

 

इतिहासकारों के मुताबिक उन्हीं से यूरोप के पुनर्जागरण की शुरुआत हुई जिसने आने वाली सदियों में यूरोप को बाकी दुनिया से आगे ले जाने में मदद दी. जो आज भी बरकरार है.

 

फिर भी नौजवान सुल्तान मुहम्मद को, जिसे आज दुनिया सुल्तान मोहम्मद फातेह के नाम से जानती है, 29 मई की सुबह जो शहर नज़र आया था, ये वो शहर नहीं था जिसकी शानोशौकत के अफसाने उसने बचपन से सुन रखे थे.

 

सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और कस्तुनतुनिया उसकी राजधानी बनी और मुस्लिम दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया. सुल्तान फातेह के पोते सुलेमान आलीशान के दौर में कस्तुनतुनिया ने नई ऊंचाइयों को छुआ.

  

       The End

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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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