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टूटे हुए तारे (कहानी)कृष्ण चन्दर: उसके बाल स्याह घने, मुलाइम,रात की भीगी ख़ामोशी, फिर उन बालों में सेब के चंद चटकते हुए ग़ुंचे

रात की थकन से उसके शाने अभी तक बोझल थे। आँखें ख़ुमारआलूदा और लबों पर तरेट के डाक बंगले की बीयर का कसैला ज़ायक़ा। वो बारबार अपनी ज़बान को होंटों पर फेर कर उसके फीके और बेलज़्ज़त से ज़ायक़े को दूर करने की कोशिश कर रहा था।

 

गो उस की आँखें मंदी हुई थी, लेकिन पहाड़ों के मोड़ उसे इस तरह याद थे, जैसे अलिफ़, बे की पहली सतर, और वो निहायत चाबुकदस्ती से अपनी मोटर को जिसमें सिर्फ दो आदमी बैठ सकते थे, (एक आदमी और ग़ालिबन एक औरत उन ख़तरनाक मोड़ों पर घुमाये ले जा रहा था। कहींकहीं तो ये मोड़ बहुत ख़तरनाक हो जाते।

एक तरफ़ उमूदी चट्टानें, दूसरी तरफ़ खाई, जिसकी तह में झेलम के नीले पानी और सफ़ेद झाग की एक टेढ़ी सी लकीर नज़र जाती, उन्हीं मोड़ों पर से तो कार को तेज़ चलाने में लुत्फ़ हासिल होता था। सारे जिस्म में एक फुरेरी सी जाती थी।

 

सुबह की हवा भी बर्फ़ीली और ख़ुशगवार थी, उसमें ऊंची चोटियों की और घाटियों पर फैले हुए जंगलों के जेगन की महक घुली हुई थी। कैसी अनोखी महक थी, अजीब, बेनाम सी तरताज़ा, निहालू के लबों की तरह, वो अपनी नीमवा पलकों के साए में पिछली रात के बीते हुए तरबनाक लम्हों को वापस बुलाने लगा।

 

बीयर की रंगत में डूबते हुए सूरज का सोना घुला हुआ था। उसके कसैलेपन में एक अजीब सी लताफ़त थी। रात की भीगी हुई ख़ामोशियों में दूर कहीं एक बुलबुल नग़मारेज़ थी। बुलबुल ने अपने नग़मे में ख़ामोशी और आवाज़ को यूं मिला दिया था कि दोनों एक दूसरे की सदाए बाज़गश्त मालूम होते थे।

 

और वो ये मालूम ना कर सका था कि ये ख़ामोशी कहाँ ख़त्म होती है। और ये मौसीक़ी कहाँ शुरू होती हैचाँदनीरात में सेब के फूल हंस रहे थे और निहालू के लब मुस्कुरा रहे थे।

 

वो लबजो बारबार चूमे जाने पर भी मासूम दिखाई देते थे, ऐसा मालूम होता था कि दुनिया की कोई चीज़ भी उन्हें नहीं छू सकती, कैसा अजीब एहसास था। रात की तन्हाइयों में निहालू का हुस्न ग़ैरफ़ानी और ग़ैर ज़मीनी मालूम होता था।

उसके लब, उस की आँखों की नरमी, उसके बाल स्याह घने और मुलाइम, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी, और फिर उन बालों में सेब के चंद चटकते हुए ग़ुंचे, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी में बुलबुल के मीठे नग़मे, और वो ये मालूम ना कर सका कि ख़ामोशी कहाँ शुरू होती है और ये मौसीक़ी कहाँ ख़त्म होती है।

 

लेकिन अब तो वो डाक बंगला भी बहुत पीछे रह गया था, और इस वक़्त किसी पुरस्तानी क़िले की तरह मालूम हो रहा था। मोड़ों के उलझाव में कार घूमती हुई जा रही थी और उसके तख़य्युल में निहालू के लब, जेगन की महक, बुलबुल का नग़मा और बियर का सुनहरा रंग चांदी के तार की तरह चमकती हुई सड़क पर उलझते गए।

 

नीचे झेलम का पानी वहशी राग गाने लगा और फ़िज़ा में सेब के लाखों फूल आँखें खोल कर चहचहाने लगे, और उसने सोचा कि क्यों ना वो अपनी मोटर को इसी खाई की वसीअ ख़ला पर एक बेफ़िक्र परिंदे की तरह उड़ा कर ले जाये, ये ख़्याल आते ही उसने अपने जिस्म में एक सनसनी सी महसूस की और उसकी नीमवा आँखें खुल गईं।

 

रास्ते में एक चश्मे के किनारे उसने अपनी कार ठहरा ली। और देर तक हाथ पाँवधोता रहा, आँखों को छींटे देता रहा, एक पहाड़ी गीत गुनगुनाता रहा और पानी लेकर कुलिल्याँ करता रहा, आहिस्ताआहिस्ता उस की आँखों में रचा हुआ ख़ुमार दूर हो गया और बीयर का कसैला ज़ायक़ा भी जाता रहा।

अब लब सूखे थे, आँखों में जलन सी महसूस होने लगी, प्यास और इश्तिहा भी, उसने बोतल खोल कर गर्म चाय उंडेल ली, और सर्द तोस पर मक्खन लगा कर खाने लगा, बदन में गर्मी और क़ुव्वत रही थी, शानों की थकन मादूम होने लगी, अब वो राह चलते हुए लोगों, मोटरों और लारियों को ग़ौर और दिलचस्पी से देखने लगा।

 

इस वादी में बीकानेर के मारवाड़ी अपनी भारी भरकम बीवियों को पहलगाम सैर कराने के लिए ले जा रहे थे, उस कार में एक यूरोपियन मर्द एक हाथ से कार चला रहा था और दूसरा हाथ उस की बीवी की कमर पर था। जो अपने लबों पर सुर्ख़ी लगाने में मसरूफ़ थी, इस लारी मैं बीमार क्लर्क और उनकी अधमुई बीवीयाँ बैठी थीं, और उनके बेशुमार बच्चे लारी की खिड़कियों पर खड़े ग़ुल मचा रहे थे।

 

इस लारी में सिक्ख ड्राईवर की पगड़ी ढीली हो चुकी थी और वो ऊँघता हुआ मालूम होता था, उसे ख़्याल आया कि चंद मील आगे जाकर ये सिक्ख ड्राईवर अपनी लारी को खाई की वसीअ ख़ला पर उड़ाने की कोशिश करेगा। और फिर दूसरे दिन वो अख़बार में एक छोटी सी ख़बर पढ़ लेगा, मर्री कश्मीर रोड पर एक हादिसा। लारी झेलम में जा गिरी, सब मुसाफ़िर झेलम में ग़र्क़ हो गए, ड्राईवर बाल बाल बच गयालारी मोड़ पर से गुज़र गई।

 

उसी लारी में बैठे हुए लोग जिनमें पंजाब के चंद पहलवान भी शामिल थे बहुत ख़ुशख़ुर्रम दिखाई देते थे, इस ख़ुशी में ग़ालिबन कश्मीर की नाशपातियों और औरतों की नरमी और गुदाज़ पन का बहुत हिस्सा था लेकिन उन्हें क्या मालूम कि चंद मील आगे जा कर उन्हें मौत से मुक़ाबला करने कि लिए अपनी पहलवानी का सबूत देना पड़ेगा, और ये कि थोड़ी देर में ही वो औरतों की तरह चीख़ें मारते और खाई पर नाशपातियों की तरह लुढ़कते दिखाई देंगे।

 

इस लारी में चंद रेशमी बुर्क़े सरसरा रहे थे। लेकिन कइयों ने नक़ाब उलट दिए थे, एक बदसूरत औरत ने जो एक निहायत ख़ूबसूरत बुर्क़ा पहने थी ज़ोर से पान की पीक सड़क पर फेंकी और चंद छींटें उड़ कर चश्मे के क़रीब पड़ीं और वो परे सरक गया, तीन हातू, अपने घुटे हुए सुरों पर तंग टोपियाँ पहने और काँधों पर नमक के बड़े बड़े डले उठाए गुज़र रहे थे।

 

उनके नथुने फूले हुए थे और गाल, सुर्ख़ और चपटे। पाँव में पयाल की चप्पलें थीं, उसे वो ज़र्बउलमस्ल याद आई।कश्मीर में जाके हमने देखी एक अजीब बात, औरतें हैं मिस्ल परी, आदमी जिन ज़ात…” दो गूजिरयाँ, जवान, साँवली सलोनी, गदराई हुईं, जैसे रसीली जामुन, तेज़ी से क़दम उठाते हुए गुज़र गईं।

 

एक ड्राईवर ने अपनी लारी चश्मे के किनारे ठहरा ली और इंजन और पहिए ठंडे करने लगा, लारी में एक मोटे सेठ का मोटा कुत्ता उस की तरफ़ देखकर भौंकने लगा, “टॉमी! शट अप!, टॉमी! शट अप!” मोटे सेठ ने कई बार कहा, लेकिन कुत्ता ना रुका और लारी के मोड़ पर गुज़र जाने तक भौंकता रहा।

 

अब सूरज सुब्ह और दोपहर के दरमियानी वक़्फ़े में गया था, और उसने चलने की ठानी, उसने सोचा कि आज रात वो चौमील के डाक बंगले में क़ियाम करेगा। गढ़ी तो वो आज रात किसी तरह ना पहुंच सकता था।

 

उसने अपनी ओक मैं चश्मे का साफ़शफ़्फ़ाफ़ पानी पीने के लिए भरा और फिर रुक गया, ख़ामोश क़दमों से एक औरत उसके क़रीब गई थी, नौजवान सी, और कुछ फ़र्बा अंदाम, उसने नीले फूलों वाली सूसी की एक भारी शलवार पहन रखी थी, और उस स्याह क़मीज़ पर उसकी उभरी हुई छातियों के गोल ख़म नज़र आए

 

और चश्मे का साफ़शफ़्फ़ाफ़ पानी उस की ओक से बाहर छलकने लगा, और कुछ अर्से के बाद उसके पतले, प्यासे सुर्ख़ लबों की तरफ़ देखकर उसे अपना सवाल बेमानी सा मालूम हुआ।

औरत चश्मे में से ओक भरभर कर अपनी प्यास बुझाती, और उसकी प्यास तेज़ होती गई। औरत के लब और गाल गीले हो गए और कानों के क़रीब बल खाती हुई ज़ुल्फ़ भी, और फिर यकायक दोनों की निगाहें मिलीं, औरत ने मुस्कुरा कर अपनी आँखों को ठंडे पानी के छींटे देने शुरू किए।

 

उसने पूछा, “तुम कहाँ जा रही हो?”

औरत ने कहा, “मैं नक्कर में अपने मैके गई थी, अब बुलंद कोट अपने ख़ाविंद के पास जा रही हूँ।

बुलंद कोट किधर है?”

 

औरत ने कहा।यहां से सात आठ कोस तक तो मैं इसी सड़क पर चलूंगी, फिर आगे जंगल से एक रास्ता ऊपर पहाड़ की तरफ़ चढ़ता है, वो रास्ता हमारे बुलंद कोट की तरफ़ जाता है बहुत ऊंची और सर्द जगह है।

 

तो फिर तुम वहां क्यों रहती हो। यहां देखो कितना ख़ुशगवार मौसम है, और इस चश्मे का पानी कितना ठंडा और मीठा है।

 

औरत ने हंसकर कहा, “हम बक्करवाल लोग हैं, हम भेड़ों, बकरीयों, भैंसों के गल्ले के गल्ले पालते हैं। आजकल उन ऊंचे इलाक़ों पर बहुत उम्दाउम्दा हरीहरी घास होती है, जो बर्फ़ के घुल जाने पर फूटती है, उस बारीक, नर्म और हरी दूब को हमारे मवेशी बहुत शौक़ से खाते हैं, और चश्मे तो वहां इस से भी ज़्यादा ठंडे और मीठे हैं।

 

उसने बात का रुख बदल कर कहा, “क्या तुमने कभी मोटर की सवारी की है?”

हाँ एकबार लारी में बैठी थी, जब मेरी शादी हुई थी।

कितना अरसा हुआ?”

दो साल

 

वो अपना रख़्तसफ़र बाँधने लगा, औरत की नाक पर पानी की दो बूँदें अभी तक लटक रही थीं, और गीली ज़ुल्फ़ दाहिने गाल से चिपक गई थी, उसने कहा, “तुम्हारी नाक पर पानी की दो बूँदें हैं।
और फिर वो यकायक दोनों हँसने लगे। दो बूँदें, दो साल, दो गोलाइयाँ, और उसने आहिस्ता से कहा, “आओ तुम मेरी कार में बैठ जाओ, कमअज़कम सात आठ कोस तक तो मैं तुम्हें साथ ले जा सकता हूँ।

 

उसने उस का हाथ पकड़ लिया, औरत हिचकिचाई, लेकिन मोटर का दरवाज़ा खुला था और उसने उसे अंदर धकेल दिया, और फिर क्या ये मोटर भी दो आदमियों के सफ़र के लिए ना बनाई गई थी? एक मर्द और ग़ालिबन एक औरत, और उसने ग़ैर शेअरी तौर पर अपना एक हाथ उस की कमर पर रख दिया।

 

औरत के जिस्म में एक ख़फ़ीफ़ सी झुरझुरी पैदा हुई जैसे सोए हुए समुंद्र की लहरें बेदार हो जाएं मोटर भागती गई और उस का हरनफ़स आतिशीं होता गया। आग और समुंद्र जिनमें बुलंद कोट की रिफ़अतें ग़र्क़ हो जाती हैं और वक़्त मिट जाता है

जब वो चौमेल के डाक बंगले पर पहुंचा, तो हर तरफ़ शाम की उदासी छा रही थी। सामने का स्याह पहाड़ किसी वसीअ क़िले की दीवार मालूम हो रहा था, और दरख़्तों की चोटियाँ पहरेदार की बंदूक़ें। अब वो फिर अकेला था, उसे अपने आपसे, क़िले की दीवार से, पहरेदारों की बंदूक़ो से, फ़िज़ा की तन्हाई से डर महसूस हुआ।

 

अपने आपसे डर, इस तीरगी से डर, जो उस की रूह पर छाई हुई थी, रात के गहरे सायों की तरह, जैसे वो अफ़्सुर्दगी के दलदल में अंदर ही अंदर धँसा जा रहा हो। उसने डाक बंगले के बैरे को आवाज़ देकर कहा।

 

एक वाईट हॉर्स खोल दो।और फिर उसने दस रुपय का नोट उसके हाथ में थमा दिया, जानअज़ीज़ के मुक़ाबले में दस रुपय के नोट की क्या एहमियत थी, काग़ज़ का हक़ीर टुकड़ा, बोतल अपने सामने देखकर उसने सोचा, अब मैं बच जाऊँगा, अब इस दलदल में नहीं धंसूँगा।

 

और उसने बोतल को ज़ोर से गर्दन से पकड़ लिया, शायद कहीं वो उसका दामन छुड़ा कर ना भाग जाये, उसने बैरे को आवाज़ दी।

 

जी सरकार

एक मुर्ग़ी भून लो, देखो दुबलीपतली ना हो।

बहुत अच्छा सरकार

और हाँ देखोउसने बैरे के हाथ में पाँच का नोट देकर कहा, “एकले आओ दुबली पतली ना हो। तुम्हें भी इनाम मिलेगा।

 

बैरे की बाछें खिल गईं, आँखें चमक उठीं, गर्दन की रगें एक क़स्साब की तरह तन गईं, उसने ख़ुश हो कर कहा, “हुज़ूर बेफ़िकर रहें ऐसा उम्दा चूज़ा लाऊँगा कि…”

 

जाओ, जाओ।उसने जल्दी से कहा, और बोतल को गिलास में उंडेलना शुरू किया।

 

डाक बंगले के बाग़ में बीने और रुदने बारीबारी बोल रहे थे। बीने कहते, पेंपें पीं, रुदने कहते बड़ी री री, फिर दोनों चुप हो जाते और यकायक कोई नज़र ना आने वाला परिंदा किसी दरख़्त पर फड़फड़ाने लगता, और उसने सोचा कि वो उसी वक़्त गैरज में जा कर अपनी मोटर से लिपट जाये, और आँसू बहाबहा कर कहे, “मैं अकेला हूँ, मेरी जान, में अकेला हूँ।

 

मुझे तुमसे मुहब्बत है।बड़ी री रीजीजीजीपीपीपीक्या वो जिए या पिएबोतल ख़ाली हो गई। और वो मेज़ पर सर पटक कर झुक जाने को था कि यकायक किसी ने उसके शाने को हिलाया। बैरा उसके पास खड़ा था और उसके पास एक औरत खड़ी थी।

 

तुम कौन हो?” उसने हकलाते हुए पूछा।

मेरा नाम ज़ुबेदा है।औरत ने काँपती हुई आवाज़ में कहा, वो कुर्सी का सहारा लेकर उठा और कमरे के अंदर जाने के लिए मुड़ा।

 

बैरे ने उसे सहारा देना चाहा लेकिन उसने उसे झिड़क कर कहा, “हट जाओमैं कमरे में ख़ुद चला जाऊँगा। वो उस वक़्त इस जर्री सय्याह की तरह महसूस कर रहा था। जो किसी दुश्वारगुज़ार बर्फ़िस्तान में सफ़र कर रहा हो, एक स्याह खाई सी हर तरफ़ फैली हुई थी, सिर्फ कमरे में एक कोने पर एक छोटा सा लैम्प जल रहा था, रोशनी चारों तरफ़ तारीकी का समुंद्र और बीच में रोशनी का मीनार

वो उस रोशनी की तरफ़ बढ़ता चला गया, शायद वो अब भी बच जाएगा। यकायक उसने पीछे दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ सुनी और वो रुक गया। बैरे ने औरत को अंदर धकेल कर दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया था, औरत दरवाज़े से लग कर खड़ी हो गई।

 

आओआओ…”
उसने औरत की तरफ़ हाथ हिला कर झूमते हुए कहा, “इधर आओ, रोशनी इधर है।

 

औरत हौलेहौले क़दमों से क़रीब गई थी। उसके बालों के ऐन दरमियान से एक सीधी माँग निकली हुई थी चांदी के तार की तरहऔर उसने दोनों तरफ़ बालों में पुरतकल्लुफ़ अंदाज़ में सित्था लगाया हुआ था, सत्थे का मोम बालों पर लैम्प की रोशनी के इनइकास से बारबार चमक उठता था, उसके कानों में चांदी की एकएक बाली लटक रही थी।

 

उसने औरत के शाने पर झुक कर राज़ दाराना लहजे में कहा, “क्यों? तुम उदास होतुम्हारा नाम किया है?”

 

ज़ुबेदा।उसने बेजान से लहजा में कहा।

शुबेदाशुबेदा…”
उसने हंस कर कहा।

 

शुबेदा
हूँक्या ख़ूब
उसने उसके चमकीले बालों पर हाथ फेरते हुए कहा।ये क्या हैशुबेदाप्यारी शबेदा…”

ये सित्था है। ये मोम और जंगल के जेगन से बनता है। इससे बाल ख़ूबसूरत…”

ख़ूब शूरतख़ूब शूरत शुबेदा
उसने हंसी और हिचकी के बीच के लहजे में कहा।तुम बहुत ख़ूब शूरत हो शुबेदा…”
उसने ज़ुबेदा के साफ़ और गुलाबी रुख़्सारों पर उंगलियाँ फेरते हुए कहा। फिर वो अलग हट कर खड़ा हो गया और उंगली से उसकी तरफ़ इशारा कर के कहने लगा, “तुमतुम
शुबेदा हो।? नहींतुम मेरी माँ होही ही ही।

 

और वो उसके क़रीब गया।

औरत ने यकायक उसके बाज़ुओं को झटक दिया, जैसे उसे किसी साँप ने डस लिया हो।

 

हाँहाँ…”
वो चिल्ला कर बोला।, शुबेदा माँ है, शुबेदा मेरी बहन है शुबेदा मैं गुनहगार हूँ। शुबेदा तुम यहाँ क्यों आईं। आख़हैं?”

मैं ग़रीब हूँ।ज़ुबेदा ने आहिस्ता से कहा।

ग़रीब? ही ही ही।

 

मेरा बच्चा बीमार है? जर्रा, मेरा नन्हा सा जर्रा, डागदार
(
डाक्टर) ने कहा है उसे निमोनिया हो गया है। वो चार रुपय फ़ीस माँगता है, बैरे ने मुझे सिर्फ तीन रुपय दिए हैं, ख़ुदा के लिए मुझे एक रुपया और दे दो।

 

निमोनिया? ही ही हीउसे ख़ैराती हस्पताल ले जाओ नानिमोनियानत्था जरा…”

 

यहां एक ही तो हस्पताल है।औरत ने उदास लहजे में कहा।और वो भी ख़ैरातीमेरे अल्लाहमैं क्या करूँमैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। ख़ुदा के लिए मुझे एक रुपया और दे देना। सिर्फ एक रुपया।

 

बशबशफ़िक्र ना करोनाना नन्ही शुबेदा।वो उस की गर्दन में लिपट कर कहने लगा।मैं तुम पर मरता हूँ। ख़ूबसूरत शुबेदामैं अकेला हूँमैं अकेला हूँमैं अकेला हूँमुझे तुम से मुहब्बत है, मुझे बचाओ। शुबेदाउसने उसके शाने पर सर रख दिया और फूटफूटकर रोने लगी।

 

वो सोया पड़ा था, औरत के गले में उसके बाज़ू हमाइल थे जैसेवाईट हॉर्सकी बोतल पर उसकी उंगलियाँ। लैम्प की मद्धम रोशनी झिलमिला रही थी। काली रात के सन्नाटे में नज़र ना आने वाले बीए और रोने अभी तक बहस किए जाते थेजीजीजीपीपीपीलेकिन उन्हें सुनने वाला मौजूद ना था। खाई उसके सर पर हमवार हो चुकी थी।

 

जब वो जागा तो ख़ुमार उतर चुका था, रोशनी बुझ गई थी। साए ग़ायब हो चुके थे, बीने और रोने ख़ामोश थे, सुब्ह का हल्का सा परतो चारों तरफ़ छन रहा था, वो अभी तक उस की आग़ोश में मदहोश पड़ी थी।

 

बरहना, सित्थे से आरास्ता किए हुए बाल परेशान थे और सपीद गर्दन के उन हिस्सों पर सुर्ख़सुर्ख़ निशान थे। जिन्हें वो बारबार चूमता रहा था। उसने नीमवा आँखों से उसे सर से पाँव तक देखा, सुडौल, गुदाज़, साँचे में ढला हुआ जिस्म, वो आहिस्ता से उसके पिंडे पर उंगलियाँ फेरने लगा।

 

औरत के सारे जिस्म में एक लर्ज़िश पैदा हुई, जैसे सोए हुए समुंद्र की लहरें बेदार हो जाएं। उसके लबों से एक आह सी निकली। और उसने आहिस्ता से उस मदहोशी के आलम में कहा।

 

जर्रेप्यारे नन्हे जर्रेऔर फिर उसके नीमवा लब उसी तरह आपस में मिले, जैसे माँ अपने प्यारे बेटे को चूम रही होनन्हा जर्रा? यकायक वो चौंक पड़ा, गुज़री हुई रात के मौहूम से साए उसकी आँखों के आगे आते गए। नन्हा जर्रानिमोनियाडागदार। वो काँपने लगा। तीन रुपयचार रुपयसिर्फ एक रुपया। उसने फ़ौरन अपने बाज़ू उस की गर्दन से हटा लिए।

 

नन्हा जर्राऔर उसे ऐसा मालूम हुआ। जैसे वो अपनी माँ से ज़िना कर रहा होऔर वो यकलख़्त बिस्तर से उछल कर ज़मीन पर खड़ा हो गया। और फटी फटी निगाहों से उस औरत की तरफ़ तकने लगा। जो अब जाग गई थी, और बरहना थी और सारी रात उसकी आग़ोश में रही थी।

 

वो चीख़ कर कहने लगा, “छुपा लो, छुपा लो अपने आपको इस कम्बल में। दफ़ा हो जाओ मेरे सामने से। क्यों इस तरह परेशान निगाहों से मेरी तरफ़ देख रही हो। सुनती नहीं हो क्या? मैं कहता हूँ, उट्ठो, उट्ठो मेरे बिस्तर सेये लोये लोएक रुपया दो रुपय, तीन रुपय, चार रुपय, ये सब ले लो, भागो यहाँ से, भागो भागो भागो!” और उसने उस औरत को कम्बल उड़ाकर उसके कपड़े उसके हाथ में देकर उसे कमरे से निकाल दिया।

 

बहुत देर तक वो बिस्तर पर सर पकड़े बैठा रहा। दिलदिमाग़ पर एक मुबहम सी उलझन एक मकड़ी के जाले की तरह तनी हुई थी। जो उसे बारबार परेशान कर रही थी, और वो कुछ ना सोच सकता था। बारबार अपने उलझे हुए लंबे बालों में उंगलियाँ फेर कर उस मकड़ी के जाले को दूर करने की कोशिश करता रहा आख़िर जब बैरे ने आकर उससे कहा, “साहब ग़ुस्लख़ाने में गर्म पानी धरा है।तो वो बेदिली से उठा और पोटेशियम परमेंगनेट की पिचकारी उठा कर ग़ुस्लख़ाने में घुस गया।

 

तबीय्यत बेमज़ा सी हो गई थी, और मुँह का कड़वा कसैला ज़ायक़ा होश आने पर भी दूर ना हुआ था। शाने बोझल से थे, नहा कर वो बरामदे में मेज़ पर कुहनियाँ टेक कर नाशते का इंतिज़ार करता रहा और अपने आपको कोसता रहा। होशियार बैरे ने नाश्ते पर बियर बोतल हाज़िर कर दी। बियर के ख़ुशरंग सय्याल ने आहिस्ताआहिस्ता उसके ख़्यालात की रौ को बदल दिया।

 

उसकी तबीय्यत मुज़र्रह होती गई, वो आहिस्ताआहिस्ता गुनगुनाने लगा, और सीटियाँ बजाने लगा, बीती हुई रातों के लम्हे ख़ुशगवार और दिलकश बनते चले गए, सत्थे से चमकते हुए बाल, स्याह क़मीज़ पर छातीयों के उभरे हुए ख़म, निहालू का ग़ैरफ़ानी हुस्न, बुलबुल का नग़मा, पपीए की पी, पी, और सेब के फूल।

 

चांदनी में हंसते हुए यकायक किसी रास्ते में चमकते हुए चश्मे का ठंडा पानी और मीठा पानी उस की आँखों के सामने ख़ुशी से उछलने और उबलउबल कर क़हक़हे लगाने लगा, और उसे अपनी कार की याद आई जो गैरज में पड़ी उस की राह तक रही थी। वो खड़ा हो गया। और उसने बैरे को इनाम देकर पूछा, “गढ़ी का डाक बंगला यहां से कितने मील दूर होगा।

 

एक सौ दस मील सरकार।

हाँ बैरे का क्या नाम है?”

ख़ादिम शाह, हुज़ूर।

हम्म।

बहुत अच्छा आदमी हैबैरे ने कहा।साहब लोगों का पुराना ख़ादिम है हुज़ूर।

 

डाक बंगले के क़रीब एक मोड़ काटते हुए उसे एक नीले रंग की कार मिल गई जो डाक बंगले की तरफ़ रही थी। एक भारी जिस्म और दुहरी ठोढ़ी वाला आदमी जिसने स्याह फुंदने वाली रूमी टोपी पहन रखी थी, कार चला रहा था।

 

उस की बग़ल में एक औरत बैठी हुई थी, नीली सूसी की शलवार, स्याह क़मीज़ पर छातीयों के उभरे हुए ख़म, और आँखों में आदी मुजरिमों की सी बेजान उदासी और वो दिल ही दिल में मुस्कुरायामहरम नहीं है तू ही नवाहाए राज़ का।

ग़रीब औरतों ने अपनी ख़्याली इस्मत की ख़ातिर पहाड़ों पर बुलंद कोट बनाए थे। लेकिन हक़ीक़त ये थी, कि उनके मैके और ससुराल, एक मीठे चश्मे से दूसरे मीठे चश्मे तक और एक डाक बंगले से दूसरे डाक बंगले तक महदूद थे।

 

उसने दिल ही दिल में ख़ुदावंद का लाखलाख शुक्र अदा किया जिसने उन लोगों को ग़रीब बना कर उसके लिए दिलकश रातें मुहय्या की थीं।

 

ज़ुबेदा, वाईट हॉर्स, और भुना हुआ मुर्ग़इलाही कैसीकैसी नेअमतें तूने बनाई हैं। उसके तख़य्युल में गढ़ी का डाक बंगला एक पुरस्तानी क़िला नज़र आने लगा। और उसने अपनी कार की रफ़्तार तेज़ कर दी।

 

मोटर
के आगे और पीछे, चीढ और देवादार के घने और सब्ज़ जंगलों के दरमियान चाँदी के तार की तरह चमकती हुई वो पक्की सड़क फैलती जा रही है, एक मीठे चश्मे से दूसरे चश्मे तक, एक डाक बंगले से दूसरे डाक बंगले तक, एक अमीर की जेब से दूसरे अमीर की जेब तक, ये वही नुक़रई तार है जिसने इन्सानों के दिल तारीक कर दिए हैं। औरतों की इस्मतें वीरान कर डाली हैं, और समाज की रूह को आतिशक के जहन्नुम में झुलसा दिया है।

 

The
End

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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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