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Ghoonghat: Aligarh Wali Ismat Chughtai ki Ek Kahani- दबे रंग के मिआं और गोरी बेगम का क़िस्सा

सफ़ेद चाँदनी बिछे तख़्त पर बगुले के परों से ज़्यादा सफ़ेद बालों वाली दादी बिलकुल संगमरमर का भद्दासा ढेर मालूम होती थीं। जैसे उनके जिस्म में ख़ून की एक बूँद ना हो। उनकी हल्की सुरमई आँखों की पुतलियों तक पर सफ़ेदी रींग आयी थी और जब वो अपनी बेनूर आँखें खोलतीं तो ऐसा मालूम होता, सब रौज़न बन्द हैं।

 

खिड़कियाँ दबीज़ पर्दों के पीछे सहमी छिपी बैठी हैं। उन्हें देखकर आँखें चौंधियाने लगती थीं जैसे इर्दगिर्द पिसी हुई चाँदी का ग़ुबार मुअल्लक़ हो। सफ़ेद चिनगारियाँसी फूट रही हों। उनके चेहरे पर पाकीज़गी और दोशीज़गी का नूर था। अस्सी बरस की इस कुँवारी को कभी किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया था।

 

जब वो तेराहचौदह बरस की थी तो बिलकुल फूलों का गुच्छा लगती थीं। कमर से नीचे झूलते हुए सुनहरी बाल और मैदा शहाब रंगत। शबाब ज़माने की गर्दिश ने चूस लिया, सिर्फ़ मैदा रह गया है। उनके हुस्न का ऐसा शोहरा था कि अम्माँ बावा की नींदें हराम हो गई थीं। डरते थे कहीं उन्हें जिन्नात ना उड़ा के लिए जाएँ क्योंकि वो इस धरती की मख़लूक़ नहीं लगती थीं। 

फिर उनकी मँगनी हमारी अम्माँ के मामूँ से हो गई। जितनी दुल्हन गोरी थी, उतने ही दूल्हा मियाँ स्याह भट्ट थे। रंगत को छोड़कर हुस्नमर्दानगी का नमूना थेक्या डसी हुई फटारा आँखें, तलवार की धार जैसी खड़ी नाक और मोतीयों को माँद करने वाले दाँत, मगर अपनी रंगत की स्याही से बे तरह चिड़ते थे।

 

जब मँगनी हुई तो सबने ख़ूब छेड़ा,
हाय दूल्हा हाथ लगाएगा तो दुल्हन मैली हो जाएगी।

चाँद को जानो गरहन लग जाएगा।

 

काले मियाँ उस वक़्त सतरह बरस के ख़ुदसर बिगड़े दिल बिछड़े थे। उन पर दुल्हन के हुस्न की कुछ ऐसी हैबत तारी हुई कि रात ही रात जोधपुर अपने नाना के हाँ भाग गए। दबी ज़बान से अपने हमउम्रों से कहा, “मैं शादी नहीं करूँगा।

 

ये वो ज़माना था जब चूँ चरा करने वालों को जूते से दरुस्त कर लिया जाता था। एक दफ़ा मँगनी हो जाएगी तो फिर तोड़ने की मजाल नहीं थी। नाकें कट जाने का ख़दशा होता था। और फिर दुल्हन में ऐब क्या था? यही कि वो बेइंतेहा हसीन थी। दुनिया हुस्न की दीवानी है और आप हुस्न से नालाँ, बद मज़ाक़ी की हद।

 

वो मग़रूर है,”
दबी ज़बान से कहा।

कैसे मालूम हुआ?”

 

जब कि कोई सबूत नहीं मगर हुस्न ज़ाहिर है मग़रूर होता है और काले मियाँ किसी का ग़ुरूर झेल जाएँ ये नामुमकिन। नाक पर मक्खी बिठाने के रवादार ना थे।

 

बहुत समझाया कि मियाँ, वो तुम्हारे निकाह में आने के बाद तुम्हारी मिल्कियत होगी। तुम्हारे हुक्म से दिन को रात और रात को दिन कहेगी। जिधर बिठाओगे बैठेगी, उठाओगे उट्ठेगी।

 

कुछ जूते भी पड़े और आख़िरकार काले मियाँ को पकड़ बुलाया गया और शादी कर दी गई।

 

डोमनियों ने कोई गीत गा दिया। कुछ गोरी दुल्हन और काले दूल्हा का। इस पर काले मियाँ फनफना उठे। ऊपर से किसी ने चुभता हुआ एक सहरा पढ़ दिया। फिर तो बिलकुल ही अलिफ़ हो गए। मगर किसी ने उनके तंतना को संजीदगी से ना लिया। मज़ाक़ ही समझे रहे और छेड़ते रहे।

 

दूल्हा मियाँ शमशीरबरहना बने जब दुल्हन के कमरे में पहुँचे तो लाललाल चमकदार फूलों में उलझीसुलझी दुल्हन देखकर पसीने छूट गए। उसके सफ़ेद रेशमी हाथ देखकर ख़ून सवार हो गया। जी चाहा अपनी स्याही इस सफ़ेदी में ऐसी घोट डालें कि इम्तियाज़ ही ख़त्म हो जाए।

 

काँपते हाथों से घूँघट उठाने लगे तो वो दुल्हन बिलकुल औंधी हो गई।

अच्छा तुम ख़ुद ही घूँघट उठा दो।दुल्हन और नीचे झुक गई।हम कहते हैं। घूँघट उठाओ!” डपटकर बोले।दुल्हन बिलकुल गेंद बन गई।

 

अच्छा जी इतना ग़रूर!”
दूल्हे ने जूते उतारकर बग़ल में दबाए और पाइंबाग़ वाली खिड़की से कूदकर सीधे स्टेशन, फिर जोधपुर।

 

इस ज़माने में तलाक़ वलाक का फ़ैशन नहीं चला था। शादी हो जाती थी। तो बस हो ही जाती थी। काले मियाँ सात बरस घर से ग़ायब रहे। दुल्हन ससुराल और मीका के दरमयान मुअल्लक़ रहीं।

 

माँ को रुपयापैसा भेजते रहे। घर की औरतों को पता था कि दुल्हन अनछुई रह गई। होतेहोते मर्दों तक बात पहुँची। काले मियाँ से पूछगछ की गई।

 

वो मग़रूर है।

कैसे मालूम?”

हमने कहा घूँघट उठाओ, नहीं सुना।

अजब गाऊदी हो, अमां कहीं दुल्हन ख़ुद घूँघट उठाती है। तुमने उठाया होता।

 

हरगिज़ नहीं, मैंने क़सम खायी है। वो ख़ुद घूँघट नहीं उठाएगी तो चूल्हे में जाए।

 

अमां अजब नामर्द हो। दुल्हन से घूँघट उठाने को कहते हो। फिर कहोगे वो आगे भी पेशक़दमी करे, अजी लाहौल वलाक़ुव्वा।

 

गोरी बी के माँबाप इकलौती बेटी के ग़म में घुनने लगे। बच्ची में क्या ऐब था कि दूल्हे ने हाथ ना लगाया। ऐसा अन्धेर तो ना देखा, ना सुना।

 

काले मियाँ ने अपनी मर्दानगी के सबूत में रंडीबाज़ी, लौंडेबाज़ी, मुर्ग़बाज़ी, कबूतरबाज़ी ग़रज़ कोई बाज़ी ना छोड़ी और गोरी बी घूँघट में सुलगती रहीं।

 

नानी अम्माँ की हालत ख़राब हुई तो सात बरस बाद काले मियाँ घर लौटे। इस मौक़ा को ग़नीमत समझकर फिर बीवी से उनका मिलाप कराने की कोशिश की गई। फिर से गोरी बी दुल्हन बनायी गईं। मगर काले मियाँ ने कह दिया,
अपनी माँ की क़सम खा चुका हूँ, घूँघट मैं नहीं उठाऊँगा।

 

सब ने गोरी बी को समझाया, “देखो बनू सारी उम्र का भुगतान है। शर्महया को रखो ताक़ में और जी कड़ा करके तुम आप ही घूँघट उठा देना। इसमें कुछ बेशरमी नहीं, वो तुम्हारा शौहर है। ख़ुदामजाज़ी है। उसकी फ़रमांबर्दारी तुम्हारा फ़र्ज़ है। तुम्हारी निजात उसका हुक्म मानने ही में है।

 

फिर से दुल्हन सजी, सेज सजायी, पुलाव ज़र्दा पका और दूल्हा मियाँ दुल्हन के कमरे में धकेले गए। गोरी बी अब इक्कीस बरस की नौख़ेज़ हसीना थीं। अंगअंग से जवानी फूट रही थी। आँखें बोझल थीं। साँसें भरी थीं। सात बरस उन्होंने इसी घड़ी के ख़ाब देखकर गुज़ारे थे।

 

कमसिन लड़कियों ने बीसियों राज़ बताकर दिल को धड़कना सिखा दिया था। दुल्हन के हिना आलूदा हाथ पैर देखकर काले मियाँ के सर पर जिन मंडलाने लगे। उनके सामने उनकी दुल्हन रखी थी। चौदह बरस की कच्ची कली नहीं, एक मुकम्मल गुलदस्ता। राल टपकने लगी।

 

आज ज़रूर दिन और रात को मिलकर सर्मगीं शाम का समाँ बंधेगा। उनका तजर्बेकार जिस्म शिकारी चीते की तरह मुँहज़ोर हो रहा था। उन्होंने अब तक दुल्हन की सूरत नहीं देखी थी। बदकारियों में भी इस रसभरी दुल्हन का तसव्वुर दिल पर आरे चलाता रहा था।

Ismat Chughtai- Writer of story Ghoonghat

घूँघट उठाओ। उन्होंने लरज़ती हुई आवाज़ में हुक्म दिया।दुल्हन की छंगुली भी ना हिली।घूँघट उठाओ।उन्होंने बड़ी लजाजत से रोनी आवाज़ में कहा।सुकूत तारी है

 

अगर मेरा हुक्म नहीं मानोगी तो फिर मुँह नहीं दिखाऊँगा।

दुल्हन टस से मस ना हुई।काले मियाँ ने घूँसा मारकर खिड़की खोली और पाइंबाग़ में कूद गए।इस रात के गए वो फिर वापिस ना लौटे।

 

अनछूई गोरी बी तीस साल तक उनका इंतेज़ार करती रहीं। सब मरखप गए। एक बूढ़ी ख़ाला के साथ फ़तहपुर सीकरी में रहती थीं कि सुनावनी आयीदूल्हा आए हैं।

 

दूल्हा मियाँ मोरियों में लोटपीटकर अमराज़ का पुलंदा बने आख़िरी दम वतन लौटे। दम तूरने से पहले उन्होंने इल्तिजा की कि गोरी बी से कहो जाओ कि दम निकल जाए।

 

गोरी बी खम्भे से माथा टिकाए खड़ी रहीं। फिर उन्होंने संदूक़ खोलकर अपना तारतार शहाना जोड़ा निकाला। आधे सफ़ेद सर में सुहाग का तेल डाला और घूँघट सम्भालती लबदम मरीज़ के सिरहाने पहुँचीं।

 

घूँघट उठाओ। काले मियाँ ने नज़अ के आलम में सिसकी भरी।गोरी बी के लरज़ते हुए हाथ घूँघट तक उठे और नीचे गिर गए।काले मियाँ दम तोड़ चुके थे।

 

उन्होंने वहीं उकड़ूँ बैठकर पलंग के पाए पर चूड़ियाँ तोड़ीं और घूँघट की बजाय सर पर रंडापे का सफ़ेद दुपट्टा खींच लिया।

The End




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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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