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अलीगढ के शहरयार उर्दू शायरी का शहजादा: उमराव जान और गमन जैसी फिल्म का अमर शायर

“जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने”

अखलाक मोहम्मद खान, जिन्हें शहरयार के नाम से जाना जाता है, (1936-2012) को अपनी शर्तों पर कामयाबी मिली। प्रख्यात फिल्म निर्माता यश चोपड़ा ने उन्हें “फासले” के बाद तीन फिल्मों के प्रस्ताव दिए। हालाँकि, शहरयार ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि वह उपभोक्ता की माँग के अनुसार सामान बेचने वाली एक “गाने की दुकान” बनकर रह जाना नहीं चाहते थे।

उन्हें अपने काम के लिए फुर्सत और एकांत पसंद था, जो उन्हें अलीगढ़ में मिला। अपनी शायरी में, वह वंचितों के दर्द और आम आदमी के सामाजिक सरोकारों को बयां करना पसंद करते थे। यह भावना उनकी ग़ज़ल “सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है” में सबसे सटीक रूप से उभरी, जो 1978 में मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्म “गमन” का हिस्सा बनी।

मुजफ्फर अली और शहरयार छात्र जीवन के दोस्त थे। संयोग से अली एक चित्रकार थे और एक बार शहरयार उन्हें अपनी रचित कुछ ग़ज़लें दिखाने गए। बाद में, जब अली फ़िल्म निर्माता बने, तो उन्होंने उन्हें “गमन” में इस्तेमाल किया। उन्होंने फिर “उमराव जान” में साथ काम किया। संयोग से, आशा भोंसले को इस फ़िल्म में “दिल चीज़ क्या है” ग़ज़ल के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

हालाँकि, शहरयार लगभग कवि नहीं बन पाए। अपने युवा दिनों में, वह एक एथलीट बनना चाहते थे। उनके पिता चाहते थे कि वह पुलिस में भर्ती हों। हालाँकि, शहरयार घर से भाग गए और खलील-उर-रहमान की देखरेख में अपनी कला को निखारा।

उन्होंने एएमयू में उर्दू कथा साहित्य पढ़ाना शुरू किया, जहाँ से वे उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने विश्वविद्यालय में कभी कविता नहीं पढ़ाई क्योंकि उनका मानना था कि कविता कभी पढ़ाई ही नहीं जा सकती।

उनका पहला कविता संग्रह, इस्म-ए-आज़म, 1965 में प्रकाशित हुआ था और वह एक साहित्यिक पत्रिका शेर-ओ-हिकमत का सह-संपादन भी करते थे। उन्होंने अली की आगामी परियोजना नूरजहाँ के लिए गीत भी लिखे।

बरेली के आंवला में पैदा हुए शहरयार के वालिद पुलिस इंस्पेक्टर थे। उनकी आरंभिक पढ़ाई हरदोई में हुई। वर्ष 1948 में अलीगढ़ में पढ़ने आए और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सिटी हाई स्कूल में दाखिला ले लिया। अंग्रेजी माध्यम से पढ़े शहरयार का यहीं पहली बार उर्दू से साबका हुआ।

Muzaffar Ali Director of Film Umrao J aan

यहीं से यूनिवर्सिटी पहुंचे। वर्ष 1961 में एएमयू से उर्दू में एमए किया। यहीं तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया। वर्ष 1966 में शहरयार एएमयू के उर्दू विभाग के प्रवक्ता बने। यहां ज्वाइन करने के पहले ही उनका पहला काव्य संग्रह ‘इस्म-ए-आजम’ प्रकाशित हो चुका था।

वे अच्छे हॉकी खिलाड़ी और एथलीट भी थे। उनके वालिद की इच्छा थी कि बेटा भी पुलिस अफसर बने। पिता ने दरोगा बनने का फार्म भी लाकर दिया लेकिन शहरयार ने फार्म ही नहीं भरा। झूठ बोल दिया कि फार्म भर दिया है।

‘उमराव जान’, ‘गमन’ और ‘अंजुमन’ जैसी फिल्मों के गीतकार । साहित्य अकादमी पुरस्कार (1987), ज्ञानपीठ पुरस्कार (2008)। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर और उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे।

शहरयार ने कई फिल्मों के लिए गाने लिखे। ‘उमरावजान’ के गाने तो आज भी हर किसी की जुबान पर हैं। दर्जनों नामचीन पुरस्कार पा चुके शहरयार को वर्ष 2008 में साहित्य का सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था।

पुरस्कार सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के हाथों नवाजा गया। वे उर्दू के चौथे शायर थे, जिन्हें ज्ञानपीठ से नवाजा गया। उन्होंने वर्ष 1978 में गमन, वर्ष 1981 उमरावजान और वर्ष 1986 अंजुमन के लिए गाने लिखे।

शहरयार का शाब्दिक अर्थ होता है, शहजादा। हकीकत यह है कि उर्दू शायरी की दुनिया में गालिब, फिराक और फैज जैसे दिग्गजों के साथ खड़े शहरयार वाकई शायरी की दुनिया के शहजादे हैं। साहित्य की दुनिया से बावस्ता लोग उन्हें भले ही उनकी शायरी के लिए जानें, लेकिन आमजन के लिए वह ‘उमराव जान’ के बेहतरीन गीतों के रचनाकार हैं।

इसके बावजूद उन्होंने फिल्मों में लगातार क्यों नहीं लिखा? इस पर उनका जवाब था, ‘मेरे पास मौके थे, लेकिन अगर मैं पूरी जिंदगी फिल्मी गीतों को ऑफर कर देता, तो शायद बहुत खराब काम करता। तब लोगों की मेरे बारे में राय दूसरी होती।’

शहरयार के अनुसार, ‘फिल्मों में फुलटाइम काम करने का मतलब है कि आपके पास कोई च्वाइस नहीं रहती। मुंबई में कम पैसों में जिंदा नहीं रहा जा सकता। उसके लिए फिर आपको दूसरों के इशारे पर काम करना पड़ता है।’

फिल्मों से जिस तरह उन्होंने संतुलित दूरी रखी, वैसी ही मुशायरों से भी। शहरयार मानते थे कि फिल्मों की तरह मुशायरे भी शायरी को दूर तक पहुंचाते हैं, लेकिन ‘इधर मुशायरों का जो कैरेक्टर हो गया है, उसमें मैं खुद को फिट नहीं पाता। हम जो नहीं कर सकते, उसे जान लें तो बहुत जल्दी पहचान सकेंगे कि हम क्या कर सकते हैं।’

उर्दू शायरी में मीलों सफर तय करके करोड़ों दिलों में बस चुके शहरयार आखिरी दिनों में तन्हा थे। ये तन्हाई बीमारी से आई थी या अपनों के दूर जाने की वजह से, कुछ साफ नहीं। बड़ा बेटा हुमायूं शहरयार। दुबई में उनका इनवेस्टमेंट का कारोबार है।

बेटी हैं सायमां शहरयार। वो डॉक्टर हैं, दामाद भी डॉक्टर हैं। बड़े बेटे की पत्नी जर्मन हैं। गोल्फ की चैंपियन। बेटा भी हॉकी खिलाड़ी रहा है। वहीं अफेयर हुआ और फिर निकाह। छोटा बेटा फरीदूं शहरयार टीवी डायरेक्टर है।

शहरयार से वैचारिक मतभेद होने के बाद पत्नी प्रो. नजमा दिल्ली में रह रही थीं। वो भी साहित्यकार हैं और कई किताबें लिख चुकी हैं। शहरयार अकेले होकर भी दोस्ती के दायरे को बड़े सधे अंदाज में बढ़ाते थे।

सुबह कुछ दोस्तों के साथ गपशप, दोपहर को लौटना। खाना खाने के बाद चार बजे सो जाना। शाम को फिर मिलना-जुलना और अलीगढ़ क्लब में नियमित रूप से जाना। यहां एक ही दोस्त के साथ बैठते थे। जो लोग उनके करीब नहीं पहुंच पाए, वो उन्हें गुरूरवाला ही समझते रहे।

बीमार पड़े तो तमाम दोस्त आते रहे। उनकी गजलें, नज्मों पर शोध करने वाले छात्र भी उनसे मिलने-जुलने आते। वे मिलते हर किसी से थे। बीमारी के दिनों में कभी बड़ा बेटा यहां होता तो कभी छोटा।

कथाकार डॉ. प्रेमकुमार ने एक रोज छेड़ा, बीमारी में सबसे ज्यादा कौन याद आया? कुछ देर की चुप्पी के बाद सपाट अंदाज में जवाब दिया, ‘ज्यादा व्यादा क्या? कभी कोई, कभी कोई..’ वो जान चुके थे कि सवाल क्यों फेंका गया है।

डॉ. कुमार पीछे पड़ गए तो चौकन्ने होकर बोले, ‘.मेरा बेटा कह रहा था कि वो पूछती हैं अब्बा कि आप बात करेंगे..। मैंने कह दिया..मैं नहीं..।’ इतना कहने के बाद उनकी सांस फूलने-सी लगी थी। चेहरे पर पीड़ा के भाव थे।

Rekha in Film Umrao Jaan

अकेलेपन की बेबसी उनकी शायरी में भी दिखती है..
कोई नहीं जो हमसे इतना भी पूछे।
जाग रहे हो किसके लिए, क्यों सोये नहीं।
दुख है अकेलेपन का, मगर ये नाज भी है।
भीड़ में अब तक इंसानों की खोये नहीं।

उमराव जान की चिलमनों के उस पार एक उदास और बेकरार दुनिया थी। अस्सी के दशक के आसपास बड़े होने वाले इसकी धड़कन को बहुत करीब से सुन सकते थे। यह वह दौर था जब शायरी का राजकुमार शहरयार अपने नग्मों के लिए जाना जा रहा था। ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है…हदे-निगाह तक जहा गुबार ही गुबार है। शहरयार की शायरी में हमेशा एक शहर बसता था, पीछे छूटे किसी रिश्ते का अहसास बसता था।

ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है… साहित्य और सिनेमा से वाबस्ता अधिकांश लोग ये जानते हैं कि क्लासिक फि़ल्म ‘उमराव जान’ के लिए मक़बूल शायर शहरयार ने ऐसी पुरकशिश ग़ज़लें लिखीं ।

लेकिन ये कम लोग जानते हैं कि मुज़फ्फर अली को यह फि़ल्म बनाने का मशविरा भी शहरयार ने ही दिया था. लखनऊ को परदे पर उतारने की मंशा रखने वाले मुज़फ्फर को अपने दोस्त का यह सुझाव पसंद आया और चित्रपट की दुनिया में एक दिन ‘उमराव जान’ संग-ए-मील साबित हुई।

उनका कहा यहाँ क़ाबिले ग़ौर है-“मैंने अपने रंजो ग़म सुनाने के लिए शायरी नहीं की. मेरी कोशिश रही कि सोसाईटी और अवाम की सचाई को कहूँ.”
यक़ीनन शहरयार के इस जुमले की जाँच ‘गमन’ की ग़ज़ल में होती है…
“सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है?
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है?”

अखलाक मोहम्मद खान, जिन्हें शहरयार के नाम से जाना जाता है, ने कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद को अलीगढ़ में अंतिम सांस ली, उन्होंने शुद्ध और लोकप्रिय कविता की दुनिया में समान सहजता से अपनी जगह बनाई।

1-दिल चीज़ क्या है / फ़िल्म “उमराव जान”1981

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये

बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये

 इस अंजुमन में आपको आना है बारबार

दीवारदर को ग़ौर से पहचान लीजिये

 माना के दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास

लेकिन ये क्या के ग़ैर का एहसान लीजिये

कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ

मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये

2-इन आँखों की मस्ती के / फ़िल्म “उमराव जान” 1981


इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं

इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं

इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं

इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

3-जुस्तजू जिस की थी / शहरयार Umrao Jaan (1981)


जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने

तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने

कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझको तो बस ख़्वाब में देखा हमने

ऐ “अदा” और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा हमने

4- सीने में जलन / 1979 फ़िल्म “गमन” 1979


सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up on Poet “Shaharyaar Saheb” with help of materials and images available on net. Images and videos on this blog are posted to make the text interesting.The materials videos and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.

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Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
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