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पिंजरा : वह पिंजरे को पिंजरा ही समझेगी और उड़ने का प्रयास न करेगी (कहानी उपेन्द्र नाथ अश्क)

शांति ने ऊब कर काग़ज़ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और उठकर अनमनी-सी कमरे में घूमने लगी। उसका मन स्वस्थ नहीं था, लिखते-लिखते उसका ध्यान बँट जाता था।

केवल चार पंक्तियाँ वह लिखना चाहती थी; पर वह जो कुछ लिखना चाहती थी, उससे लिखा न जाता था। भावावेश में कुछ-का-कुछ लिख जाती थी। छ: पत्र वह फाड़ चुकी थी, यह सातवाँ था।

घूमते-घूमते, वह चुपचाप खिड़की में जा खड़ी हुई। संध्या का सूरज दूर पश्चिम में डूब रहा था। माली ने क्यारियों में पानी छोड़ दिया था और दिन-भर के मुरझाए फूल जैसे जीवन-दान पाकर खिल उठे थे।

हल्की-हल्की ठंडी हवा चलने लगी थी। शांति ने दूर सूरज की ओर निगाह दौड़ाई—पीली-पीली सुनहरी किरणें, जैसे डूबने से पहले, उन छोटे-छोटे बच्चों के खेल में जी-भर हिस्सा ले लेना चाहती थीं, जो सामने के मैदान की हरी-भरी घास पर उन्मुक्त खेल रहे थे।

सड़क पर दो कमीन युवतियाँ, हँसती चुहलें करती, उछलती-कूदती चली जा रही थीं। शांति ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ा और मुड़कर उसने अपने इर्द-गिर्द एक थकी हुई निगाह दौड़ार्इ, छत पर बड़ा पंखा धीमी आवाज़ से अनवरत चल रहा था।

दरवाज़ों पर भारी पर्दे हिल रहे थे और भारी कोच और उन पर रखे हुए रेशमी गद्दे, गलीचे और दरमियान में रखे हुए छोटे-छोटे अठकोने मेज़ और उन पर पीतल के नन्हें-नन्हें हाथी और फूलदान—

उसने अपने-आपको उस पक्षी-सा महसूस किया, जो विशाल, स्वच्छंद आकाश के नीचे, खुली स्वतंत्र हवा में आम की डाली से बँधे हुए पिंजरे में लटक रहा हो।

तभी नौकर उसके छोटे लड़के को जैसे बरबस खींचता-सा लाया। धोबी की लड़की के साथ वह खेल रहा था। आव देखा न ताव और शांति ने लड़के को पीट दिया—क्यों तू उन कमीनों के साथ खेलता है, क्यों खेलता है तू! इतने बड़े बाप का बेटा होकर!

और उसकी आवाज़ चीख़ की हद को पहुँच गई। हैरान-से खड़े नौकर ने बढ़कर ज़बरदस्ती बच्चे को छुड़ा लिया। शांति जाकर धम-से कोच में धँस गई और उसकी आँखों से अनायास ही आँसू बह निकले!

तब वहीं बैठे-बैठे उसकी आँखों के सामने अतीत के कई चित्र फिर गए! उसके पति तब लांडरी का काम करते थे। बाइबिल सोसाइटी के सामने, जहाँ आज एक दंदानसाज बड़े धड़ल्ले से लोगों के दाँत उखाड़ने में निमग्न रहते हैं; उनकी लांडरी थी।

आय अच्छी थी; पर ख़र्च भी कम न था। 35 रुपया तो दुकान का किराया ही देना पड़ता था और फिर कपड़े धोने और इस्तरी करने के लिए जो तबेला ले रखा था, उसका किराया अलग था।

इसके अतिरिक्त धोबियों को वेतन, कोयले, मसाला और सौ दूसरे पचड़े! इस सब ख़र्च की व्यवस्था के बाद जो थोड़ा-बहुत बचता था, उससे बड़ी कठिनाई के साथ घर का ख़र्च चलता था और घर उन्होंने दुकान के पीछे ही महीलाल स्ट्रीट में ले रखा था।

महीलाल स्ट्रीट जैसी अब है, वैसी ही तब भी थी। मकानों का रूप यद्यपि इन दस वर्षों में कुछ बदल गया है। किंतु मकानों में कुछ अधिक अंतर नहीं आया।

अब भी इस इलाक़े में कमीन बसते हैं और तब भी बसते थे। सील-भरी अँधेरी कोठरियाँ चमारों, धीवरों और शुद्ध हिंदुओं का निवास स्थान थीं।

एक ही कोठरी में रसोई, बैठक, शयन-गृह—और वह भी ऐसा, जिसमें सास-ससुर, बेटा-बहू, लड़कियाँ-लड़के, सब एक साथ सोते हों।

जिस मकान में शांति रहती थी, उसके नीचे टेंडी चमार अपने आठ लड़के-लड़कियों के साथ रहता था, दूसरी चौड़ी गली में मारवाड़ी की दुकान थी और जिधर दरवाज़ा था, उधर भंगी रहते थे।

उनके दरवाज़े से ज़रा ही परे भंगियों ने तंदूर लगा रखा था, जिसका धुआँ सुबह-शाम उनकी रसोई में आ जाया करता था, जिससे शांति को प्राय: रसोई की खिड़की बंद रखनी पड़ती थी।

दिन-रात वहाँ चारपाइयाँ बिछी रहती थीं और कपड़ा बचाकर निकलना प्रायः असंभव होता था।

गर्मियों के दिन थे और म्यूनिसिपैलिटी का नल काफ़ी दूर अनारकली के पास था, इसलिए ग़रीब लोगों की सहूलियत के ख़याल से शांति ने अपने पति की सिफ़ारिश पर नीचे डेवढ़ी के नल से उन्हें पानी लेने की इजाज़त दे दी;

किंतु जब उन्हें उस मकान में आए कुछ दिन बीते, तो शांति को मालूम हो गया कि यह उदारता बड़ी महँगी पड़ेगी।

एक दिन जब उसके पति नहाने के बाद साबुन की डिबिया नीचे ही भूल आए और शांति उसे उठाने गई, तो उसने उसे नदारद पाया, फिर कुछ दिन बाद तौलिया ग़ायब हो गया, और इसी तरह दूसरे-तीसरे कोई-न-कोई चीज़ गुम होने लगी।

हारकर एक दिन शांति ने अपने पति के पीछे पड़कर नल की टोंटी पर लकड़ी का छोटा-सा बक्सा लगवा दिया और चाबी उसकी अपने पास रख ली।

दूसरे दिन, जब एक ही धोती से शरीर ढाँपे वह पसीने से निचुड़ती हुई, चूल्हे के आगे बैठी रोटी की व्यवस्था कर रही थी, तो उसने अपने सामने एक काली-सी लड़की को खड़ी पाया।

लड़की उसकी समवयस्क ही थी। रंग उसका बेहद काला था और शरीर पर उसने अत्यंत मैली-कुचैली धोती और बंडी पहन रखी थी।

वह अपने गहरे काले बालों में सरसों ही का तेल डालती होगी, क्योंकि उसके मस्तक पर बालों के नीचे पसीने के कारण तेल में मिली हुई मैल की एक रेखा बन रही थी।

चौड़ा-सा मुँह और चपटी-सी नाक! शांति के हृदय में क्रोध और घृणा का तूफ़ान उमड़ आया।

आज तक घर में जमादारिन के अतिरिक्त नीचे रहने वाली किसी कमीन लड़की को ऊपर आने का साहस न हुआ था और न स्वयं ही उसने किसी से बातचीत करने की कोशिश की थी।

लड़की मुस्कुरा रही थी, और उसकी आँखों में विचित्र-सी चमक थी।‘क्या बात है?’—जैसे आँखों-ही-आँखों में शांति ने क्रोध से पूछा। तनिक मुस्कुराते हुए लड़की ने प्रार्थना की कि बीबीजी, पानी लेना है।

हमारा नल भंगी-चमारों के लिए नहीं!’
‘हम भंगी हैं न चमार!…’
‘फिर कौन हो?’
‘मैं बीबीजी, सामने के मंदिर के पुजारी की लड़की…।’

लेकिन शांति ने आगे न सुना था। उसे लड़की से बातें करते-करते घिन आती थी। धोती के छोर से चाबी खोलकर उसने फेंक दी।

इस काले-कलूटे शरीर में दिल काला न था। और शीघ्र ही शांति को इस बात का पता चल गया। रोज़ ही पानी लेने के वक़्त चाबी के लिए गोमती आती। गली में पूर्बियों का जो मंदिर था, वह उसके पुजारी की लड़की थी।

अमीरों के मंदिरों के पुजारी भी मोटरों मे घूमते हैं। यह मंदिर था ग़रीब पूर्बियों का, जिनमें प्रायः सब चौकीदार, चपरासी, साईस अथवा मज़दूर थे। पुजारी का कुटुंब भी खुली गली के एक ओर भंगियों की चारपाइयों के सामने सोता था।

और जब रात को कोई ताँगा उधर गुज़रता, तो प्रायः किसी-न-किसी की चारपाई उसके साथ घिसटती हुई चली जाती! मंदिर में कुआँ तो था; पर जब से इधर नल आया, उस पर डोल और रस्सी कभी ही रही ।

और फिर जब समीप ही किसी की डेवढ़ी के नल से पानी मिल जाए, तो कुएँ पर बाज़ू तोड़ने की क्या ज़रूरत है, इसलिए गोमती पानी लेने और कुछ पानी

लेने के बहाने बातें करने रोज़ ही सुबह-शाम आ जाती। बटलोही नल के नीचे रखकर जिसमें सदैव पान के कुछ पत्ते तैरा करते, वह ऊपर चली आती और फिर बातों-बातों में भूल जाती कि वह पानी लेने आई है।

और उस समय तक न उठती जब तक उसकी बुढ़िया दादी गली में अपनी चारपाई पर बैठी हुई चीख़-चीख़कर गालियाँ देती हुई उसे न पुकारती।

इसका यह मतलब नहीं, कि इस बीच में शांति और गोमती में मित्रता हो गई थी। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि शांति जब रसोई में खाना बनाती अथवा अंदर कमरे में बैठी कपड़े सीती, तो उसको गोमती का सीढ़ियों में बैठकर बातें करते रहना बुरा नहीं लगता था।

कई तरह की बातें होती—मुहल्ले के भंगियों की बातें, चमारों के घरेलू झगड़ों की बातें और फिर कुछ गोमती की निजी बातें।

इस बीच में शांति को मालूम हो गया कि गोमती का विवाह हुए वर्षों बीत चुके हैं। पर उसने अपने पति की सूरत नहीं देखी! बेकार है, इसलिए न वह उसे लेने आता है और न उसके पिता उसे उसके साथ भेजते हैं।

कई बार छेड़ने की ग़र्ज़ से, या कई बार मात्र आनंद लेने की ग़र्ज़ से ही शांति उससे उसके पति के संबंध में और उसके अपने मनोभावों के संबंध में प्रश्न पूछती। उत्तर देते समय गोमती शरमा जाती थी।

किंतु इतना सब होते हुए भी उसकी जगह वहीं सीढ़ियों में ही बनी रही।फिर किस प्रकार पुजारी की वह काली-कलूटी लड़की वहाँ से उठकर, उसके इतने समीप आ गई।

कि शांति ने एक बार अनायास आलिंगन में लेकर कह दिया—आज से तुम मेरी बहन हुई गोमती—वह सब आज भी शांति को स्मरण था।

सर्दियों की रात थी और अनारकली में सब ओर धुआँ-धुआँ हो रहा था। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे लाहौर के समस्त तंदूरों, होटलों, घरों और कारख़ानों से सारे दिन उठने वाले धुएँ ने साँझ होते ही इकट्ठे होकर अनारकली पर आक्रमण कर दिया हो।

शांति अपने नन्हें को कंधे से लगाए, हाथों में कुछ हल्के-फुल्के लिफ़ाफ़े थामे क्रय-विक्रय करके चली आ रही थी। वह कई दिन के अनुरोध के बाद अपने पति को इधर ला सकी थी और उन्होंने जी-भर खाया-पिया और ख़रीद किया था।

अनारकली के मध्य बंगाली रसगुल्लों की जो दुकान है, वहाँ से रसगुल्ले खाने को शांति का बड़ा मन होता था; पर उसके पति को कभी इतनी फ़ुर्सत ही न हुई थी कि वहाँ तक सिर्फ़ रसगुल्ले खाने के लिए जा सकें।

अस्पताल रोड के सिरे पर हलवाई के साथ चाट वाले की जो दुकान है, वहाँ से चाट खाने को शांति की बड़ी इच्छा थी; पर चाट—ऐसी निकम्मी चीज़ खाने के लिए काम छोड़कर जाने का अवकाश शांति के पति के पास कहाँ?

कई दिनों से वह अपने उम्मी के लिए कुछ गर्म कपड़ों के टुकड़े ख़रीदना चाहती थी। सर्दी बढ़ रही थी और उसके पास एक भी कोट न था। और फिर गर्म कपड़ा न सही, वह चाहती थी कि कुछ ऊन ही मोल ले ली जाए, ताकि नन्हें का स्वेटर बुन दिया जाए।

पर उसके पति ‘हूँ’-‘हाँ’ करके टाल जाते थे, किंतु उस दिन वह निरंतर महीने भर तक अनुरोध करने के बाद उन्हें अपने साथ अनारकली ले जाने में सफल हुई थी।

और उस दिन उन्होंने जी-भर बंगाली के रसगुल्ले और चाटवाले की चटपटी चाट खाई थी, बल्कि घलुए में मोहन के पकौड़े और मटरों वाले आलुओं के स्वाद भी चक्खे थे।

फिर उम्मी के लिए कपड़ा भी ख़रीदा था और ऊन भी मोल ली थी और दो आने दर्जन ब्लेडों वाली गुडवोग की डिबिया तथा एक कोलगेट साबुन की दो आने वाली टिकिया उसके पति ने भी ख़रीदी थी।

कई दिनों से वे उन्हीं पुराने ब्लेडों को शीशे के ग्लास में तेज़ करके नहाने वाले साबुन से ही हजामत बनाते आ रहे थे और उस दिन शांति ने यह सब ख़रीदने के लिए उन्हें विवश कर दिया था।

और दोनों जने यह सब ख़रीदकर ख़र्च करने के आनंद की अनुभूति से पुलकित चले आ रहे थे।

दिसंबर का महीना था और सूखा जाड़ा पड़ रहा था। शांति ने अपने सस्ते, पर गर्म शाल को नन्हें के गिर्द और अच्छी तरह लपेटते हुए अचानक कहा—निगोड़ा सूखा जाड़ा पड़ रहा है। सुनती हूँ नगर में बीमारी फैल रही है।

पर उसके पति चुपचाप धुएँ के कारण कड़वी हो जाने वाली अपनी आँखों को रूमाल से मलते चले आ रहे थे।

शांति ने फिर कहा—हमारी अपनी गली में कई लोग बीमार हो गए हैं। परसों टेंडी चमार का लड़का निमोनिया से मर गया।

तभी शाल में लिपटा-लिपटा बच्चा हल्के-हल्के दो बार खाँसा और शांति ने उसे और भी अच्छी तरह शाल में लपेट लिया।

उसकी बात को सुनी-अनसुनी करके उसके पति ने कहा—आज बेहद बद-परहेज़ी की है, पेट में सख़्त गड़बड़ी हो रही है।

घर आकर शांति ने जब लड़के को चारपाई पर लिटाया और मस्तक पर हाथ फेरते हुए उसके बालों को पिछली तरफ़ किया, तो वह चौंककर पीछे हटी।

उसने डरी हुई निगाहों से अपने पति की ओर देखा। वे सिर को हाथों में दबाए नाली पर बैठे थे।

उम्मी का माथा तो तवे की तरह तप रहा है—उसने बड़ी कठिनाई से गले को अचानक अवरुद्ध कर देने वाली किसी चीज़ को बरबस रोककर कहा।

लेकिन उसके पति को क़ै हुई।शांति का कंठ अवरुद्ध-सा होने लगा था और उसकी आँखें भर-सी आर्इ थीं; पर अपने पति को क़ै करते देख बच्चे का ख़याल छोड़ वह उनकी ओर भागी।

पानी लाकर उनको कुल्ला कराया। निढाल से होकर वे चारपाई पर पड़ गए; पर कुछ ही क्षण बाद उन्हें फिर क़ै हुई।

शांति के हाथ-पाँव फूल गए। घर में वह अकेली। सास, माँ पास नहीं, कोई दूसरा नाता-रिश्ता भी समीप नहीं और नौकर—नौकर रखने की गुंजाइश ही कभी नहीं निकली। वह कुछ क्षण के लिए घबरा गई।

एक उड़ी-उड़ी-सी दृष्टि उसने अपने ज्वर से तपते हुए बच्चे और बदहज़मी से निढाल पति पर डाली। अचानक उसे गोमती का ख़याल आया। शांति अकेली कभी गली में नहीं उतरी थी। पर सब संकोच छोड़ वह भागी-भागी नीचे गई।

अपनी कोठरी के बाहर, गली की ओर, मात्र ईटों के छोटे-से पर्दे की ओट से बने हुए, रसोईघर में बैठी गोमती रोटी बेल रही थी और चूल्हे की आग से उसका काला मुख चमक-सा रहा था। शांति ने देखा—उसका बड़ा भाई अभी खाना खाकर उठा है।

तब आगे बढ़कर उसने इशारे से गोमती को बुलाया। तवे को नीचे उतार और लकड़ी को बाहर खींचकर गोमती उसी तरह भागी आर्इ।

तब विनीत भाव से संक्षेप में शांति ने अपने पति तथा बच्चे की हालत का उल्लेख किया और फिर प्रार्थना की कि वह अपने भाई से कहकर तत्काल किसी डाक्टर को बुला दे।

उनकी लांडरी के साथ ही जिस डाक्टर की दुकान है, वह सुना है पास ही लाजपति रोड पर रहता है, यदि वह आ जाए, तो बहुत ही अच्छा हो। और फिर साड़ी के छोर से पाँच रुपये का एक नोट खोल, शांति ने गोमती के हाथ में रख दिया।

फ़ीस पहले ही क्यों न देनी पड़े: पर डाक्टर को ले अवश्य आए। और फिर चलते-चलते उसने यह भी प्रार्थना की कि रोटी पकाकर संभव हो, तो तुम ही ज़रा आ जाना, उम्मी…।

शांति का गला भर आया था। गोमती ने कहा था—आप घबराएँ नहीं, मैं अभी भाई को भेज देती हूँ और मैं भी अभी आर्इ और यह कहकर वह भागती-सी चली गई थी।

शांति वापस मुड़ी, तो सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उसने महसूस किया कि शंका और भय से उसके पाँव काँप रहे हैं और उसका दिल धक-धक कर रहा है।

ऊपर जाकर उसने देखा—उसके पति ऊपर से उतर रहे हैं। हाथ में उनके ख़ाली लोटा है, चेहरा पहले से भी पीला हो गया है, और माथे पर पसीना छूट गया है।

शांति के उड़े हुए चेहरे को देखकर उन्होंने हँसने का प्रयत्न करते हुए कहा—घबराओ नहीं, सर्दियों में हैज़ा नहीं होता।

शांति ने रोते हुए कहा—आप ऊपर क्यों गए, वहीं नाली पर बैठ जाते; किंतु जब पति ने नाली की ओर और फिर चारपाई पर पड़े हुए बीमार बच्चे की ओर इशारा किया, तो शांति चुप हो गई।

उसने पहले सहारा देकर पति को बिस्तर पर लिटाया, फिर नाली पर पानी गिराया, फिर दूसरे कमरे में बिस्तर बिछा, बच्चे को उस पर लिटा आर्इ।

तभी गोमती आ गई। खाना तो सब खा चुके थे, अपने हिस्से का आटा उठा, आग बुझा, वह भाग आर्इ थी।

शांति ने कहा—मैं उम्मी को उधर कमरे में लिटा आर्इ हूँ। मुझे डर है उसे सर्दी लग गई है। साँस उसे और भी कठिनाई से आने लगी है और खाँसी भी बढ़ गई है।

निचली कोठरी में पड़े हुए पुराने लिहाफ़ से कपड़े ले लो और अँगीठी में कोयले डाल उसकी छाती पर ज़रा उससे सेंक दो। इनके पेट में गड़बड़ है। मैं इधर इसका कुछ उपचार करती हूँ। कुछ नहीं तो गर्म पानी करके बोतल ही फेरती हूँ।

गोमती ने कहा—इन्हें बीबीजी कोई हाज़मे की चीज़ दो। हमारे घर तुम्मे की अजवाइन है! मैं उसमें से कुछ लेती आर्इ हूँ, जब तक डाक्टर आए, उसे ही ज़रा गर्म पानी से इन्हें दे दो।

बिना किसी तरह की हिचकिचाहट के शांति ने मैली-सी पुड़िया में बँधी काली-सी अजवाइन ले ली थी और गोमती अँगीठी में कोयले डाल नीचे कपड़े लेने भाग गई थी।

बाहर शाम बढ़ चली थी। वहीं कमरे के अँधेरे में बैठे-बैठे शांति की आँखों के आगे चिंता और फ़िक्र के वे सब दिन-रात फिर गए। उनके पति को हैज़ा तो न था; किंतु गैस्ट्रोएन्टिराइटिस (Gastroenteritis) तीव्र क़िस्म का था।

डाक्टर के आने तक शांति ने गोमती के कहने पर उन्हें तुम्मे की अजवाइन दी थी, प्याज़ भी सुँघाया था और गोमती अँगीठी उठाकर दूसरे कमरे में बच्चे की छाती पर सेंक देने चली गई थी।

डाक्टर के आने पर मालूम हो गया था कि उसे निमोनिया हो गया है और अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है।

शांति अपने पति और अपने बच्चे, दोनों की एक साथ कैसे तीमारदारी करती, उसने अपनी विवशता से गोमती की ओर देखा था; पर उसे होंठ हिलाने की ज़रूरत न पड़ी थी, बच्चे की सेवा-शुश्रूषा का समस्त भार गोमती ने अपने कंधों पर ले लिया था।

शांति को मालूम भी न हुआ था कि वह कब घर जाती है, कब घरवालों को खाना खिलाती है या खाती है या खिलाती खाती भी है या नहीं।

उसने तो जब देखा, उसे छाया की भाँति बच्चे के पास पाया। कई दिन तक एक ही जून खाकर गोमती ने बच्चे की तीमारदारी की थी।

दोपहर का समय था, उसके पति दुकान पर गए हुए थे। उम्मी को भी अब आराम था और वह उसकी गोद से लगा सोया पड़ा था और उसके पास ही फ़र्श पर टाट बिछाए गोमती पुराने ऊन के धागों से स्वेटर बुनना सीख रही थी।

इतने दिनों की थकी-हारी-उनींदी शांति की पलकें धीरे-धीरे बंद हो रही थी, वह उन्हें खोलती थी; पर वे फिर बंद हो-हो जाती थी। आख़िर वह वैसी ही पड़ी-पड़ी सो गई थी।

जब वह फिर उठी, तो उसने देखा, उम्मी रो रहा है, और गोमती उसे बड़े प्यार से सुरीली आवाज़ में थपक-थपककर लोरी दे रही है। शांति ने फिर आँखें बंद कर ली। उसने सुना गोमती धीमे-धीमे स्वर से गा रही थी—

‘आ री कक्को, जा री कक्को, जंगल पक्को बेर
भय्या हाथे ढेला, चिड़ैया उड़े जा।’
और फिर—
‘आ री चिड़ैया! दो पप्पड़ पकाए जा!
भय्या हाथे ढेला, चिड़ैया उड़े जा!’

बच्चा चुप कर गया था। लोरी ख़त्म करके उसने बच्चे को गले से लगाकर चूम लिया। शांति ने अर्ध-निमीलित आँखों से देखा, बच्चे के पीले ज़र्द सूखे-से मुख पर गोमती का काला स्वस्थ मुख झुका हुआ है।

सुख के आँसू उसकी आँखों में उमड़ आए। उसने उठकर गोमती से बच्चे को ले लिया था और जब वह फिर टाट पर बैठने लगी थी, तो दूसरे हाथ से शांति ने उसका हाथ पकड़ चारपाई पर बिठाते हुए, उसे अपने बाज़ू से बाँध लिया था और कहा था—आज से तुम मेरी बहिन हुई गोमती!

आँखें बंद किए शांति इन्हीं स्मृतियों में गुम थी, उसकी आँखों से चुपचाप आँसू बह रहे थे कि अचानक उसके पति अंदर दाख़िल हुए।

 

किसी ज़माने में लांडरी चलाने वाले और समय पड़ने पर, स्वयं अपने हाथ से इस्तरी गर्म करके कपड़ों को प्रेस करने में भी हिचकिचाहट न महसूस करने वाले ला० दीनदयाल और लाहौर की प्रसिद्ध फ़र्म ‘दीनदयाल एण्ड सन्स’ के मालिक प्रख्यात शेयर ब्रोकर लाला दीनदयाल में महान अंतर था।

इस दस वर्ष के अर्से में उनके बाल यद्यपि पक गए थे, किंतु शरीर कहीं अधिक स्थूल हो गया था।

ढीले-ढाले और प्रायः लांडरी के मालिक होते हुए भी मैले कपड़े पहनने की जगह अब उन्होंने अत्यंत बढ़िया क़िस्म का रेशमी सूट पहन रखा था और पाँवों में श्वेत रेशमी जुराबें तथा काले सेंडल पहने हुए थे।

शांति ने झट रूमाल से आँखें पोंछ ली।

बिजली का बटन दबाते हुए उन्होंने कहा—यहाँ अँधेरे में क्या पड़ी हो। उठो बाहर बाग़ में घूमो-फिरो और फिर बोले—इन्द्रानी का फ़ोन आया था कि बहिन यदि चाहें, तो आज सिनेमा देखा जाए।

बहिन—दिल-ही-दिल में विषाद से शांति मुस्कुरार्इ और उसके सामने एक ओर काली-कलूटी-सी लड़की का चित्र खिंच गया, जिसे कभी उसने बहिन कहा था। किंतु प्रकट उसने सिर्फ़ इतना कहा—मेरी तबीयत ठीक नहीं!

मुँह फुलाए हुए ला० दीनदयाल बाहर चले गए।तब आँखों को फिर एक बार पोंछकर और तनिक स्वस्थ होकर, शांति मेज़ के पास आर्इ और कुर्सी पर बैठ, पैड अपनी ओर को खिसका, क़लम उठाकर उसने लिखा—

 

.

बहिन गोमती,
तुम्हारी बहिन अब बड़ी बन गई है। बड़े आदमी की बीबी है। बड़े आदमियों की बीबियाँ अब उसकी बहनें है। पिंजरे में बंद पक्षी को कब इजाज़त होती है कि स्वच्छंद, स्वतंत्र विहार करने वाले अपने हमजोलियों से मिले? मैंने तुम्हें कल फिर आने के लिए कहा था; पर अब तुम कल न आना। अपनी इस बंदिनी बहिन को भूलने की कोशिश करना।
—शांति

इस बार उसने एक पंक्ति भी नहीं काटी और न काग़ज़ ही फाड़ा। हाँ, एक बार लिखते-लिखते फिर आँखें भर आने से जो एक-दो आँसुओं की बूँदें पत्र पर अनायास ही गिर पड़ी थीं, उन्हें उसने ब्लाटिंग पेपर से सुखा दिया था।

फिर पत्र को लिफ़ाफ़े में बंद करके उसने नौकर को आवाज़ दी और उसके हाथ में लिफ़ाफ़ा देकर कहा कि महीलाल स्ट्रीट में पूर्बियों के मंदिर के पुजारी की लड़की गोमती को दे आए।

और फिर समझाते हुए कहा—गोमती, कुछ ही दिन हुए अपनी ससुराल से आई है।

पत्र लेकर नौकर चला ही था कि शांति ने उसे फिर आवाज़ दी और पत्र उसके हाथ से लेकर फाड़ डाला। फिर धीरे से उसने कहा—तुम गोमती से कहना कि बीबी अचानक आज मैके जा रही है और दो महीने तक वापस न लौटेंगी।

यह कहकर वह फिर खिड़की में जा खड़ी हुई और अस्त हो जाने वाले सूरज के स्थान पर ऊपर की ओर बढ़ते हुए अँधेरे को देखने लगी।

 

बात इतनी ही थी कि आज दोपहर को जब वे ब्रिज खेल रहे थे, तब नौकर ने आकर ख़बर दी थी कि महीलाल स्ट्रीट के पुजारी की लड़की गोमती आई है।

तब खेल को बीच ही में छोड़कर, और भूलकर कि उसके पार्टनर राय साहब लाला बिहारीलाल है, वह भाग गई थी और उसने गोमती को अपनी भुजाओं में भींच लिया था और फिर वह उसे अपने कमरे में ले गई थी, तब दोनों बहुत देर तक अपने दुःख-सुख की बातें करती रही थीं।

शांति ने जाना था कि किस प्रकार गोमती का पति काम करने लगा, उसे ले गया और उसे चार बच्चों की माँ बना दिया और गोमती ने उम्मी का और दूसरे बच्चों का हाल पूछा था।

ला० दीनदयाल इस बीच में कई बार बुलाने आए थे, पर वह न गई थी और जब दूसरे दिन आने का वादा लेकर उसने गोमती को विदा किया था, तो उसके पति ने कहा था—तुम्हें शर्म नहीं आती, उस उजड्ड और गँवार औरत को लेकर तुम बैठी रहीं, तुम्हें मेरी इज़्ज़त का ज़रा भी ख़याल नहीं।

उसे बग़ल में लिए उन सबके सामने से गुज़र गईं। राय साहब और उनकी पत्नी हँसने लगे और आख़िर प्रतीक्षा कर-करके चले गए…!

इसके बाद उन्होंने और भी बहुत कुछ कहा था, लेकिन शांति ने तो फ़ैसला कर लिया था कि वह पिंजरे को पिंजरा ही समझेगी और उड़ने का प्रयास न करेगी।

The End

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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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