अवध के बादशाह नसीरुद्दीन हैदर, 1827 से 1837 तक अवध के नवाब रहे। वे गाजी-उद-दीन हैदर के बेटे थे ।
अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर की हत्या के बारे में यह वाक्यांश “जिस पर दिल था कुर्बान उसी ने जान ले ली” एक प्रसिद्ध कहावत है जो उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करती है।यह वाक्यांश उनकी प्रेमिका, डोली, द्वारा उन्हें जहर दिए जाने की घटना को संदर्भित करता है ।
बादशाह ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के शासन काल से ही शाहज़ादा मिर्जा सुलेमां जाह उफ़ नसीरुद्वीन हैदर के बिगड़े दिल के परपुजे हमेशा कुछ फ़ाहिशा औरतों के हाथों ठीक होते रहे और नतीजा ये हुआ कि उनका बेड़ा उन्हीं हाथों ग़र्क हुवा ।
बादशाह शाह आलम के दोनों बेटे मिर्ज़ा जहाँदारशाहु और शाहजादा सुलेमां शिकोह दोनों ही दिल्ली छोड़कर बारी-बारी से लखनऊ आए थे। मिर्जा सुलेमां शिकोह नवाब आसफ़्दौला के अहद से शहर लखनऊ में आबाद थे और अवध का शाही ख़ज्ञाना उनके परिवार का पूरा खर्च बाक़ायदा बरदाश्त करता रहा।
सन् १८१६ में जब नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर को बादशाहत मिली तो जश्ते ताजपोशी में शाहे अवध और शाहज़ादा देहली के बीच कुछ दिलशिकनी हो गई । लखनऊ और दिल्ली की इस आपसी अनबन का नतीजा यह हुआ कि सुलेमां शिकोह साहब छतर मज़िल का पड़ोस छोड़कर अपनी पुरानी महलसरा में लौट गये ।
ऐसी हालत सें इस’ बदगुमानी को नया मोड़ देने की ग़रज़ से शाहे अवध अव्वल ने अपने वज़ीरे आज़म नवाब आग्रामीर को शाहज़ादा सुलेमां शिकोह की ड्योढ़ी पर भेजां और अपने वलीभहद मिर्जा सुलेमांजाह (नसीरुद्दीत हैदर) के लिए उनकी बेटी का हाथ माँगा ।
उधर दिल्ली वाले अवध के बादशाह से कुछ इस क़दर नाराज़ बेठे थे कि पैग़ाम क़बूल नहीं कियां और इस शादी से साफ़ इत्तकार कर दिया ।
शाहे अवध भला कब अपनी ये तौहीन बसरदाश्त करते ! उन्होंने भी तनख्वाहें बन्द कर दीं जिससे उस खानदान को बड़ी मुसीबतों का सपमना करना पड़ा। ये शाही नस्लः के लोग थे, इसलिए कोई भी पेशा अड्तियार करना उनकी शान के सरासर ख़िलाफ़ था। उनके पास कुछ जमा पूँजी भी नहीं थी जो कुछ पाया था उसे खाया और खब उड़ाया।
बहरहाल इसी कशमकश में भुते चने चबाने की नौबत भी आ पहुँची। गदिश के ये दिन देखकर उनकी बेगम नवाब नवाजिश मेहर ने उन्हें समझाया कि मिर्याँ बेज़र का इन्सान बेपर का परिन्दा होता है, इसलिए अब खैरियत इसी में है कि हम लोग इस शादी के लिए रज़ामन्द हो जायें ।

इस तरह नवाब नसीरुद्दीन हैदर की पहली शादी मिर्जा सुलेमां शिकोह की बेटी सल्ताना बेगम से हुई | घर वाले इन्हें प्यार से बुआ सुल्ताना भी कहा करते थे । जब सुलेमां शिकोह’ की बेटी दोलत सराए सुल्तानी में पहुँची तो उसे “नवाब सुल्तान बहू साहिबा का खिताब मिला |
मगर अफ़सोस कि दिल्ली के बादशाह शाह आलम की इस पोती से नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने सिरफ़े तीन दिन का वास्ता रखा। जब सन् १८३७ में शाहजादा नसीरुद्दीन हैदर का जश्ने जुलूस हुआ तो दस्तूर और हक़ के अनुसार सुल्तान बहू ‘मलिकए आलम सुल्ताने अवध’ के ओहदे से सरफ़राज हुई ।
इस तरह उस नसीबों की मारी बेगम का रुतबा तो बढ़ गया लेकिन वो गरीब हुस्तबाग़ की हरमसरा में बैठकर तमाम उम्र अपने शौहर का मुँह देखने को तरसती रही।
क्योंकि बादशाह के दिल पर हुकूमत करने वाली आवारा और बदजात औरतों की पूरी फ़ौज थी जिनसे उन्हे कभी फुरसत ही न मिली । उधर सुल्तान बहू के खून और खानदान की ये शान थी कि उन्होंने मरते दम तक अपने आँचल पर कोई दाग नहीं लगने दिया और इज्जत के साथ कबला’ शरीफ़ में जन्नतनशीन हुई।
नसीरुद्दीन हैदर के परीखाना में कई लड़कियाँ थीं जो कभी पसंद की जाती थीं, तो कभी नापसंद। हालाँकि, हर एक को कमोबेश नियमित रूप से एक उचित मासिक भत्ता मिलता था, जो उनके पति के चले जाने के बहुत समय बाद भी ‘पेंशन’ के रूप में जारी रहता था।
नवाब नासिर की एक अंग्रेज़ पत्नी, एम्मा, जॉर्ज हॉपकिंस वाल्टर्स की बेटी थीं, जो एक सैनिक थे और जिन्होंने विधवा श्रीमती व्हार्टी से विवाह किया था। एम्मा को महल का नाम मुख़दरा आलिया दिया गया था।
बादशाह ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के शासन काल से ही शाहज़ादा मिर्जा सुलेमां जाह उफ़ नसीरुद्वीन हैदर के बिगड़े दिल के परपुजे हमेशा कुछ फ़ाहिशा औरतों के हाथों ठीक होते रहे और नतीजा ये हुआ कि उनका बेड़ा उन्हीं हाथों ग़क्े हुआ।
उस ज़माने में लखनऊ के क़रीब हसनपुर बन्धवा से आई हुई एक नामी- गिरामी डोमनी शहर में दोनों हाथों से दौलत समेट रही

उसके साथ उसकी बेटी हुसेती अपने रूप का जादू जगा रही थी। इस चढ़ते चाँद का ये आलम था कि तमाम शहर उसकी चाँदनी में सराबोर हो चला था। बड़े-बड़े रसिक-रईसों की ड्योढ़ियों पर शादी-बारातों के मोौक़े पर हुसनी के मुजरों की महफ़िलें हुआ करती थीं ।
जब गुलमेंह॒दिया झाड़ों में झिलमिलाती तमाम शमाओं के साये में ये सरापा शमा अँगड़ाई लेकर नाचने खड़ी होती तो उसका नूर पाने वाले परवानों का मजमा लग जाता। उन्हीं जांनिसारों के बीच नसीरुद्दीन भी उस कमंद में आ गया ।
इसके बाद हुसैनी के हुश्त का दामन नज़ रबाज़ों की गिरफ्त से छूट गया और वह महफ़िल की शमा शाही हरम का चराग़ बन गई।
चूँकि हुसैनी नाम के साथ शहर के तमाम मनचलों की बदनीयती जुड़ी थी इसलिए नसीरुद्दीन हैदर ने उसके बेपनाह हुश्न को देखते हुए उसे एकनया नाम ‘खरशीद महल’ दिया। ‘ जब ख़रशीद से शादी करने का सवाल हुआ उसकी नसस््लो-तसब का पता लगता मुश्किल था।

उसकी माँ की मरज़ी के अनुसार ही भिर्जा हुसैन बेग नाम के एक सरकारी नौकर को हुसनी का बाप कहा जाने लगा। मिर्जा बेग सवारों में नौकर थे मगर अब उस डोमनी के साथ आकर जौहरी मुहल्ले में रहने लगे ।
खूरशीदमहल के नाम नवाबगंज (बाराबंकी) की छः लाख रुपये सालाना आमदनी की एक जागीर लिखी जा चुकी थी | खरशीदमहल की ड्योढ़ी पर त्तमाम ख़ादिमें-कनीज़ें, दारोगा और सिपाही तैनात रहते थे ।
इस पिंगला की शानो-शौकत का सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ। १८ अक्तूबर, १८२७ में नसीरुद्दीन हैदर शाहे अवध हुए।
तख्तनशीनी ने रातोंरात तमाम बेगमों को मलिका बना दिया था | एक दिन नए-नए ताजदार ने अपनी नई नवेली के प्रेम में विभोर होकर हँसी-हँसी मे अपना ताज उसके सर पर रख दिया और उसे ताजमहल कहने लगे ।
इस महल की ताजपोशी के लिए उसी दम बादशाह ने एक लाख रुपया सालाना की सलवन (रायबरेली) की जागीर उसके दामन में डाल दी।
इससे पहले यह रुतबा किसी मलिका को हासिल नहीं हुआ था। इसी ताजमहल के अद्वितीय रूप-सजावट की चर्चा में फनी पाकंस नाम की एक फ्रांसीसी पर्यटक महिला ने अपनी डायरी के पन्ने भर दिये है। नसीरुद्दीन हैदर की मौत के बाद ताजमहल की ऐथाशी ने ऐसा जोर पकड़ा किसारे शहर में बदनाम हो गई।
जब उसने अपनी पालकी से पैर निकाल दिया तो नवाब वाजिद अली शाह ने उस विधवा बेगम के महल पर पहरे बिठाल दिये लेकिन उसके रंग-ढंग पर कभी काबू नहीं पाया जा सका।
इसी तरह बादशाह नसीरुद्दीन ने अपनी एक दरबारी तवायफ़ हुसैनी को भी महलसरा में दाखिल कर दिया था। हुसनी जात की डोमनी थी, और दौलतगज चौक की रहने वाली थी। वैसे ये हुसैनी मामूली शकल-सू रत की लड़की थी लेकिन उसके नाच-गाने के हुनर और नाज़ो-अन्दाज़ ने बादशाह पर भरपुर जादू डाल रखा था।
१० दिसम्बर, १८३१ को नसीरुद्दीन हैदर ने चुपचाप उस डोमनी से शादी कर ली। अब क्योंकि हुसैती को उस नाम से पुकार लेना हराम हो चुका था, अतः हुसेनी बादशाहमहल बन चुकी थी।

उसकी महफ़िल के दीवाने उसकी एक झलक देख पाने के लिए तरसने लगे थे। यह शादी चोरी से की गयी थी। इसलिए इस बेगम के नाम कोई जागीर नहीं लिखी जा सकी ।
और इसमें क्या शक है कि बेगम बेजागीर और नवाब बेमुल्क दो कौड़ी के माने जाते है । नसीरुद्दीन की रैगरेलियों का कोई अंत नहीं था। उनकी इन्हीं कमजोरियों के लिए अंग्रेज़ों ने उनके नाम पर दाग लगाये है।
फ़ैनी पाकेस ने बादशाहमहल के लिए लिखा है, “पता नहीं क्यों ये एकदम मामूली लड़की बादशाह के दिलो- दिमाग़ पर छायी हुई है। लगभग १४ महीने पहले यही तवायफ़ रेजीडेंसी में २४ रुपये रोज पर मुजरा करती थी। दरअसल यह ऐसे नीच तबक़े की औरत थी कि शायद कोई कोचवान भी उससे शादी न करता ।
नसीरुद्दीन हैदर तो उन दिनों हर घड़ी बादशाहमहल पर सिछावर रहते थे और यहाँ तक कि ताजमहल जैसी क़बूल सूरत मलिका की भी क़द्र कम कर बैठे थे।
इस बदमाश लड़की का’ महल में पाँव पड़ जाने से ही ताजमहल का सूरज बुझने लगा था और ताजमहल उस रंजोग़म को ग़लत करने मे मयनोशी का सहारा लेने लगी थी।
ये वो ज़माना था जब बादशाह का बायाँ हाथ ताजमहल के हाथों में रहता था’ और दायाँ हाथ बादशाहमहल की मुद्िवयों में क़ैद हो गया था। बादशाह सलामत जब कम्पनी सरकार के गवनेर-जनरल के स्वागत में कानपुर गये तो ताजमहल और बादशाहमहल उनके साथ-साथ सिद्धि बनकर कानपुर तक गयी थीं ।
बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के हरम में सिर्फ़ ताजमहल और बादशाहमहल ही हुसेनी नाम से नहीं आई थीं। इनके अलावा तीन हुसैनी नाम की नाचते वालियाँ और भाई जो बाद में बेगमें बन गईं। उन्हें साहबमहल’, भूरमहल और सुल्तानमहल के नाम से पुकारा जाता था ।
नसीरुद्दीन की कामुकता और विला- सिता का अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके दिलबहुलाव के लिए सौ तवायफ़ें शहराती और सौ तवायफ़ें देहाती महल में नौकर थीं।
उनके हरे हरम के इल्तज़ामकार राजा ग्रालिब जंग थे। और उनके खास दौलत लाला राम- प्रसाद उस ऐशखाने में परियों के मजमे लगवाते थे। करमबख्श नाम की एक क़स्बन, जो ऐशमहल कहलाती थी, उस मह॒फ़िले आराइश की दारोगा बनी हुई थी।

नसीरुद्दीन हैदर, अवध के नवाब ने अपनी प्रेमिका डोली पर बहुत विश्वास किया और उस पर बहुत खर्च किया. लेकिन डोली ने वजीर और रेजिडेंट के साथ मिलकर, नसीरुद्दीन हैदर को जहर देकर मार डाला।
यह घटना 7-8 जुलाई, 1837 की रात को हुई थी. नसीरुद्दीन हैदर को रौशनउद्दौला के घर में डोली द्वारा बनाया गया जहरीला तरबूज का शरबत पिलाया गया था. इस घटना के बाद, डोली भाग गई क्योंकि उसे डर था कि जब राज खुलेगा तो उसे कड़ी सजा दी जाएगी।
दरअसल, नासिरुद्दीन (जो अपने पिता गाजीउद्दीन हैदर की तरह खुद को नवाब के बजाय बादशाह कहलवाते थे) की दो अंतरंग सेविकाओं ने अंग्रेज रेजिडेंट कर्नल लो और वजीर रौशनउद्दौला से मिलकर उन्हें शरबत में जहर दे दिया था। ये दोनों सगी बहनें थीं।
बड़ी बहन डोली बादशाह को पंखा झलती, जबकि छोटी बहन धनिया उन्हें पान खिलाती थी। दोनों उनकी पांच खास महिला सेविकाओं में थीं। दोनों की बादशाह के शयनकक्ष तक में बेरोकटोक आवाजाही थी। नासिरुद्दीन डोली को ‘बड़ी’ तो धनिया को ‘छोटी’ कहते थे।
ज्यादा खूबसूरत और ज्यादा तेज-तर्रार छोटी ने कुछ ही दिनों में बड़ी के कान काटकर खुद को बादशाह की निगाह में चढ़ा लिया। वहीं बड़ी ने चोरी-छिपे वजीर रौशनउद्दौला पर डोरे डालकर प्यार की पेंग बढ़ाई।
इधर छोटी ने बादशाह की इतनी ‘सेवा’ की कि उन्होंने उसे जनानखाने की दारोगा बना दिया। फिर तो वह पांच सौ रुपये महीना तनख्वाह के साथ भरपूर इनाम-इकराम भी पाने लगी। गजब यह कि कमर में तलवार बांधकर शान से निकलती तो दरबारी, रईस और सरदार उसके सामने बिछ-बिछ जाते।
इसी बीच बादशाह बाप बने और उसे इनाम देने लगे। उसने यह कहकर उन्हें और प्रभावित कर लिया कि हुजूर, शहर के पश्चिम में बुद्धेश्वर महादेव मंदिर की राह में आने वाले बरसाती नाले पर पुल बनवाकर लोगों की दिक्कत दूर कर दें तो वह समझेगी कि उन्होंने उसे बहुत बड़ा इनाम दे दिया।
बादशाह ने वह पुल तो बनवाया ही, उसको बेशकीमती भेंटों और पचास हजार रुपये की थैली से भी नवाजा। बादशाह और फिदा हों, इसके लिए उसने इस रकम से एक मस्जिद और एक इमामबाड़ा तामीर करा डाला।

इस पर बादशाह ने उसे अफजलउन्निशा का खिताब व चौदह पारचे की खिलअत भी अता कर दी, साथ ही मड़ियांव छावनी के पास उसके नाम पर साठ एकड़ का बाग भी लगवा दिया।
लेकिन एक दिन उसने कोई और ख्वाहिश जताई और बादशाह उसे पूरी करने के बजाय उसको झिड़कने व अपने अहसान गिनाने लगे, तो वह उनसे बदला लेने की सोचने लगी।
यही वक्त था, जब वजीर व रेजिडेंट बादशाह को रास्ते से हटाने की सोच रहे थे। उनकी साजिश और छोटी की बदले की आग का मेल हुआ। 7-8 जुलाई, 1837 की रात उसने बादशाह को रौशनउद्दौला के घर में डोली द्वारा बनाया तरबूज का जहरीला शरबत पिला दिया। बादशाह मौत की नींद सो गए।
लेकिन साजिश का भंडाफोड़ हुआ तो पासा पलट गया। नए नवाब ने वजीर रौशनउद्दौला की सारी संपत्ति जब्त करके उनसे वजारत छीन ली और जेल में डाल दिया। उनके प्रेम में डूबी डोली को लगा कि जैसे ही राज खुलेगा कि बादशाह के लिए जहरीला शरबत उसी ने बनाया था, नवाब उसे भी कड़ी सजा देंगे।
तो बिना देर किए अपने एक अन्य आशिक के साथ वह फुर्र हो गई। अलबत्ता, धनिया को खासी जलालत के साथ देश-निकाला झेलना पड़ा और बाकी जिंदगी गंगा पार कानपुर में काटनी पड़ी।
The End
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