Blogs of Engr. Maqbool Akram

वक़्त की रेत पर एक दास्ताँ ए इश्क (कहानी) – प्यार करना और उसे खो देना, उसे कभी प्यार ही न करने से बेहतर है

“प्रेम के बिना जीवन उस पेड़ की तरह है जिसमें फूल या फल नहीं हैं।”
“प्रेम की कोई और इच्छा नहीं होती, सिवाय खुद को पूरा करने के। पिघलकर उस बहती हुई नदी की तरह हो जाना जो रात में अपनी धुन गाती है। भोर में एक पंख लगे दिल के साथ जागना और प्रेम के एक और दिन के लिए धन्यवाद देना।”(खलील जिब्रान, द प्रोफेट)

यह उद्धरण प्रेम को एक ऐसी शक्ति के रूप में दर्शाता है जो जीवन को अर्थ और सुंदरता प्रदान करती है। प्रेम केवल एक भावना नहीं है, बल्कि एक चिंगारी है जो आत्मा को प्रकाशित करती है और अस्तित्व को समृद्ध बनाती है।

“Life without love is like a tree without blossoms or fruit.”
“Love has no other desire but to fulfill itself. To melt and be like a running brook that sings its melody to the night. To wake at dawn with a winged heart and give thanks for another day of loving”
(Kahill Gibran, The Prophet)

राहुल एक संघर्षशील चित्रकार हैं। पेंटिंग उसका जुनून है। उसकी इच्छा है कि उसकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी शहर के सबसे बड़े और मशहूर आर्ट गैलरी में हो। आर्ट गैलरी वाले उसकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी अपनी आर्ट गैलरी में करने को तैयार नहीं थे ।

तब राहुल ने अपने गुरु से अपनी ख्वाहिश का इज़हार किया। उसके गुरु की सिफारिश पर आर्ट गैलरी वाले राहुल की पेंटिंग्स की एक्सहिबिशन अपनी गैलरी में करने को राज़ी हो गए

“एक नम सी शाम थी, समंदर की हल्की हवा अंदर तक उतर रही थी। आर्ट एग्ज़ीबिशन की वो गैलरी किसी ख्वाब का गलियारा लग रही थी — दीवारों पर टंगे रंगों के ज़रिए कुछ अनकहे अफ़साने लटके थे। तभी रजनी वहां दाख़िल हुई — गुलाबी साड़ी में, जैसे वसंत ने किसी कैनवास पर क़दम रख दिए हों। अर्जुन, एक कोने में अपनी टूटी नावों की उदासी समेटे खड़ा था।

उसकी नज़रें रंग बेच रही थीं, पर दिल बेचारा अपनी ही पेंटिंग में खोया हुआ था। रजनी रुक गई एक अधूरी पेंटिंग के सामने — ‘एक नाव, एक सूना किनारा’ — और मुस्कुराकर बोली, ‘कभी इन नावों पर प्यार की सवारी हुई है?’ बस, उसी पल वक़्त ठहर गया, और दो अलग ज़िंदगियाँ, एक ही फ्रेम में उतर गईं…”

राहुल, जो एक संघर्षरत चित्रकार था, अपनी कुछ पेंटिंग्स वहाँ प्रदर्शित कर रहा था। मगर उसकी पेंटिंग्स में रंग कम, दर्द ज़्यादा था—फीके आसमान, बंजर ज़मीन, और अकेली नावें।

“आपकी नावें इतनी उदास क्यों होती हैं? कभी किसी ने प्यार नहीं किया इन्हें?”
राहुल चौंका। उसकी आँखों में पहली बार किसी ने उस दर्द को पढ़ा था जो वह रंगों में छुपाता था।
“नावें भी इंसानों जैसी होती हैं… कई बार लौटने की तमन्ना लिए किनारे से दूर चली जाती हैं।”

उस शाम के बाद, रजनी हर हफ़्ते उस गैलरी में आती रही। धीरे-धीरे दोनों के बीच मौन संवाद पनपने लगा — कभी चाय की चुस्कियों में, कभी रेत पर चलती  खामोशियों में।

तब से, हर शाम वो यहाँ मिलते रहे—नाव की छाँव में, बेंच की गोद में, समंदर की आवाज़ों के बीच। वक़्त रेत की तरह उँगलियों से फिसलता गया, मगर उनके प्यार की लकीरें गहरी होती रहीं।

नीला समंदर शांत था उस दिन। जैसे सदियों से कोई राज़ छुपाए बैठा हो। लहरें बस किनारे को छूकर लौट जाती थीं, जैसे किसी बिछड़े आशिक़ की झिझक। उस सुनसान किनारे पर एक पुरानी नाव पड़ी थी—जर्जर, थकी हुई, पर अब भी उम्मीद से भरी। उसके पास ही एक लकड़ी की बेंच थी, जिस पर नमकभरी हवा ने वक़्त की परतें जमा दी थीं।

वहीं बैठी थी रजनी, साड़ी के आँचल को उँगलियों से मरोड़ती, और आँखों से समंदर का छोर नापती। बेंच पर अब भी उसकी गर्मी बाकी थी, जो कुछ देर पहले बैठे राहुल की मौजूदगी का एहसास दिला रही थी। वो जा चुका था… शायद हमेशा के लिए।

इसी नाव के पास, जब वो अपनी टूटी नाव की पेंटिंग लेकर बैठा था और रजनी ने हँसकर पूछा था — “ये रंग धुंधले क्यों हैं?”
राहुल बोला था, “क्योंकि अब ज़िंदगी उतनी रंगीन नहीं रही।”
रजनी ने कहा था, “तो फिर मैं थोड़ी रंगत ले आऊँ?”

पर आज… राहुल ने बस इतना कहा, ” रजनी, तुम्हारे लिए बेहतर ज़िंदगी है। मेरे साथ रहकर बस समंदर की लहरें ही होंगी, किनारे नहीं।”
रजनी चुप रही। शायद वो जवाब दे भी नहीं सकती थी। उसके आँसू लहरों में घुल गए थे।

अब, नाव वहीं है। बेंच भी वहीं। समंदर अब भी उसी तरह साँस ले रहा है। बस एक फर्क है—रजनी अब हर शाम यहाँ आकर रेत पर एक नाम लिखती है—” राहुल “—और लहरें उसे चुपचाप मिटा जाती हैं।

जैसे इश्क़ का दस्तावेज़ हो, जो हर बार लिखा जाता है, हर बार मिटा दिया जाता है… मगर दिल में कहीं अमिट रह जाता है।

“वो नाव, वो बेंच, और समंदर
तीनों जानते हैं मेरा हाल
क्योंकि तूने वादा वहीं किया था
जहाँ अब मैं तन्हा हूँ हर साल

राहुल जानता था कि रजनी का संसार उससे बहुत अलग है।
रजनी एक सम्मानित परिवार से थी, जहाँ स्थिरता, समाज की मर्यादा और भविष्य की सुरक्षा को महत्व दिया जाता था।राहुल का जीवन अभी भी संघर्षों से भरा था — आर्थिक असुरक्षा, पहचान की तलाश, और अपनी कला के लिए जूझना।

उसे डर था कि:
“रजनी ने मेरी आत्मा से प्यार किया है, पर मेरी ज़िंदगी उसे थका देगी।”
राहुल को लगा कि वो रजनी को उस जीवन से बाँध रहा है जिसमें आज भी निश्चितता नहीं, बस उम्मीद है।
इसीलिए, एक शाम वह चुपचाप बोला:

“तू जिस घर की खिड़की से समंदर देखती है, मैं उस समंदर में अपनी नाव संभाल भी नहीं पाता।”
उसे लगा माया को आज़ाद कर देना ही सबसे बड़ा प्यार है।
क्या रजनी इस फैसले से टूट गई? शायद हाँ।क्या राहुल सही था? शायद नहीं।

पर जैसे समंदर हर बार लहरें लौटाता है — कौन जाने, किसी शाम वो नाव फिर किनारे आ लगे… और वो बेंच फिर से दो लोगों के कंधों का बोझ बाँटे।

इश्क़ अधूरा हो सकता है — पर ख़त्म नहीं।
“रंग अधूरे, इश्क़ मुकम्मल”

मौसम बदलने लगे थे, समंदर अब थोड़ा बेचैन रहता था।बेंच पर अब अक्सर बस हवा बैठती थी, और नाव की आँखों में इंतज़ार थमता नहीं था

 रजनी अब भी आती थी, हर उस शाम, वही बेंच, वही नाव, और वही रेत पर नंगे पाँव चलती थी।

एक दिन राहुल फिर आया, बहुत देर तक चुप बैठा रहा।
उसके हाथ में एक पेंटिंग थी—नई, मगर अंदर तक पुरानी।

उसने कहा—
“रजनी, ये आख़िरी रंग हैं मेरे पास, और आख़िरी सच भी।”
“मैं तुझे पा सकता था… लेकिन फिर तू वैसी न रहती जैसी इन हवाओं में गूंजती है।”

रजनी की आँखें भर आईं, पर उसने कुछ नहीं कहा।
बस धीरे से वो पेंटिंग खोली… उसमें एक नाव थी—लेकिन अब भी अकेली।
“क्यों नहीं बनाया इसमें दूसरा किरदार?

राहुल बोला—
“क्योंकि सच्चा इश्क़ उस तस्वीर में नहीं होता जो पूरी हो जाए…
बल्कि उसमें होता है, जो अधूरी रह जाए… मगर आँखें बंद करते ही दिखे।”

उस दिन दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामा — सिर्फ एक पल के लिए।
फिर राहुल चला गया, और रजनी वहीं रह गई — एक अधूरी तस्वीर के पास, एक अधूरी मोहब्बत के साथ।अब भी वो बेंच वहीं है, नाव भी। कभी-कभी रजनी आती है, एक नाम रेत पर लिखकर लौट जाती है।

इश्क़, यादें और कहानियाँ — कभी ख़त्म नहीं होतीं। जिस कहानी का एन्ड ओके न हो वो कहानी समाप्त नहीं होती।कहानी कब समाप्त होगी जब राहुल और रजनी फिर मिलेंगे.लेकिन कब ,कहाँ और कैसे।
फिर मिलेंगे… किसी बेंच पर, किसी शाम, किसी अधूरी पंक्ति के साथ।

The End

Scroll to Top