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तीन कन्या (कहानी):”तो जाइए, अपनी तीन कन्याओं का ढोल गले से बाँध घूमती रहिए, मैं जा रहा हूँ। समझ लीजिए, फिर कभी नहीं आऊँगा। एक बार फिर पूछता हूँ, बेबी, चलोगी मेरे साथ घूमने?” (शिवानी)

विभाजन से पूर्व, शिलांग जाने के लिए सबसे सुगम यात्रा, स्टीमर से हबीगंज पार कर रेलमार्ग से सम्पूर्ण की जाती थी। मुझे भी शिलांग इसी पथ से जाना था। ब्रह्मपुत्र के समुद्र जैसे वक्ष को चीरती, मछली की दुर्गन्ध से बसाती स्टीमर घाट पर लगते ही मैंने सामने खड़ी अनीता की मामी को पहचान लिया था। मुझे हबीगंज में रहने की असुविधा होगी, यह जानकर मेरी सहपाठिन अनीता ने अपनी मामी को पत्र लिख दिया था।


तुम्हें स्टीमर से लिवा ले जाएंगी। मामी को कैसे पहचानोगी, पूछती हो?’’

वह जोर से हँसी, ‘शंखसा रंग, लम्बा कद, माथे से भी बड़ा जूड़ा और गोद में मोम की गुड़ियासी बेबी।अनीता के वर्णन में कहीं भी अतिशयोक्ति दोष नहीं था। गोद में बेबी तो नहीं थी, पर साथ में दो दुबलीपतली रिकेटी साँवली लड़कियाँ थीं। इतनी सुन्दरी मामी की ऐसी घिनौनी जुड़वाँ पुत्रियाँ कैसे हो गई होंगी?

 

मैं सोच रही थी, कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिन्हें चेष्टा करने पर भी दुहराया नहीं जाता। दोनों लड़कियाँ ऐसी ही थीं। मुझे लेने मामी अपनी विक्टोरिया गाड़ी लाई थीं, गाड़ी का कलेवर जीर्णशीर्ण हो गया था। किन्तु खिड़कियों पर रेशमी झालर के परदे लगे थे और कोचवान की ठसकेदार मूँछें और भड़कीली वेशभूषा देखकर स्वामिनी का रोब मुझ पर यथेष्ट छाने लगा था।

विक्टोरिया गाड़ी चली, तो मामी ने परदा खोल दिया, ‘लो देखो, यह मेरा हबीगंज! एक नर्सरी राइम में तुमने भी तो पढ़ा होगा, एक टेढ़ा शहर था, जहाँ का बूढ़ा, उसकी लाठी, यहाँ तक कि माइलस्टोन भी टेढ़ा था। ऐसा ही टेढ़ा शहर है यह।

सचमुच मैं दंग रह गई थी। हर मकान की छत टेढ़ी; खिड़की टेढ़ी, द्वार टेढ़े, यहाँ तक कि पेड़ों के तने भी मुझे अजीब भुतहेसे टेढ़ेमेढ़े लग रहे थे।सुना, बहुत पहले भूकम्प के भयानक भृकुटिविलास ने अभागे हबीगंज की सृष्टि लय कर दी थी।

 

मामी बोलीं,
अभी भी छठेछमाहे भूकम्प होता रहता है, इसी से हर मकान की नींव, देख रही हो ना, जमीन से कितनी ऊँची है। यह लो, यह गया हमारा बंकिम महल तीनों मीनारें टेढ़ी होकर लद गईं। चौथी टूटी, तो फिर बनाई ही नहीं  

आओ शुनद्दो।मामी ने बाहर से ही पुकारा, ‘नीतार हिन्दुस्तानी ऐसे छे (अजी सुनते हो, नीता की हिन्दुस्तानी सहेली गई है) पर यह तो हम बंगालियों से भी अच्छी बंगला बोलती है। वह हँसकर मुझे अपने पति के कमरे में खींच ले गई। जहाज से छपछप लेटे, सवा गज की हुक्के की ज़रीदार नली गुड़गुड़ाते मामा बाबू उठ बैठे, ‘ऐशो माँ, ऐशो।

 

यह है मेरा टेढ़ा बूढ़ा देयर वॉज क्रूकेड मैन।कहती मामी हँसतीहँसती दुहरी हो गईं। सचमुच ही उनका बूढ़ा टेढ़ा था। पक्षाघात से उसके दोनों पैर दो विभिन्न दिशाओं को मुड़ेतुडे़ थे। बड़ीबड़ी आँखें, बैल कीसी भावनाहीन, फटीफटी बाहर को निकली और डरावनी लगती थीं। नाक सुडौल और खड्ग की धारसी तीखी थी।

 

मूँछें और दाढ़ी बुन्देलखंडी रजवाड़ों की सज्जा से बीच में विभक्त कर कान तक उठाकर चिपकाई लगती थीं। क्षणभर को मुझे लगा था, बूढ़ा नकली दाढ़ीमूँछें लगाकर किसी सस्ती नौटंकी में अभिनय कर लौटा है।

 

अप्सरासी सुन्दरी मामी और डाकू केसे भयानक चेहरेवाला वह बूढ़ा! रातभर मुझे वहीं रहना था। जाने कैसे अनजान भय की सिहरन मेरी रीढ़ की हड्डी से सरसराती नीचेऊपर उतरने लगी।

 

 तोमाके देख मेये भय पेयेछे गो’ (तुम्हें देखकर लड़की डर गई है, जी), मामी ने हँसकर अपने पति से कहा।

 

बूढ़ा बड़ी देर तक होहो कर हँसता रहा और हँसने से उसकी रामढोलसी तोंद थुलथुल करती हिलती ही रही थी।

 

मामी का महल वास्तव में दर्शनीय था, दर्जनों नौकरानियाँ थीं। कोई मछली काट रही है, कोई कमरे पोंछ रही है। कोई उनकी दो काली मरघिन्नी लड़कियों को घुमा रही है। मामी ने बड़े यत्न से मुझे दो दिन रखा। तीसरे दिन मैंने जाने की जिद की, तो तुनक गईं, ‘वाहवाह, पहली बार ननिहाल आई हो, ऐसे कैसे जाओगी!’

 

ढाका की फूलदार साड़ी, नूतन गुड़ के सन्देश, घर के नारियल का तेल और भी जाने क्याक्या उपहार साथ में रखकर बड़े स्नेह से मामी ने विदा दी थी। गोदी की छोटी लड़की बेबी को साथ लेकर वह मुझे पहुँचाने स्टेशन भी आई थीं, ‘इसी मार्ग से लौटोगी, समझीं। कहीं गुवाहाटी होकर मत चली जाना।

 

उन्होंने कहा था। पर मुझे फिर गुवाहाटी से होकर ही जाना पड़ा। मामी से एक कृतज्ञतापत्र की विदा लेकर मैं लौट आई थी।

अचानक
बीस वर्ष बाद उनसे ऐसे फिर मिलना होगा, सोच ही कौन सकता था? मेरे बंगले के सामने का चैराहा, शायद प्रयाग का सबसे मुखर चैराहा है। एक सड़क सीधी संगम को चली जाती है। माघ मेले की इन्द्रधनुषी भीड़ का संगम पहले इसी चैराहे पर होता है।

 

काकरेजी कछोटा कसे पैंजना झमकातीं बुन्देल ललनाएँ, नाक की दाईंबाईं ओर हीरे की लौंगों के नन्हें सर्चलाइट जगमगाती दक्षिणी तीर्थयात्रियों से भरे ताँगों का जुलूस दिन डूबने तक सड़क की रंगीनी बनाए रखता है।

 

मेडिकल कॉलेज को जाती कतारबद्ध श्वेताम्बरी नर्सों को देखकर कभीकभी दंग रह जाती हूँ। एकसा ठप्पा, एकसी हँसी और एकसे जूड़े। लगता है, एक ही नमूना पेटेंट करा दर्जनों परिचारिकाएँ बनवा ली गई हैं।

 

कभीकभी इमली को ताककर फेंका गया ढेला, गलत निशाने पर बैठता है और देखतेदेखते ही उद्दण्ड स्कूली बालकों की वानर सेना मेरी खिड़की का शीशा चूरचूर कर देती है।


 

ऐसे ही एक ढेले का शब्द सुनकर मैं बाहर निकली तो देखा,
ढेला खिड़की पर नहीं, रिक्शा पर जाती एक महिला के माथे पर लग गया है। रिक्शावाला एक से एक चुनी गालियाँ देता दहाड़ रहा है और आसपास छोटीमोटी भीड़ जमने लगी है।

 

महिला बेहद घबराई लग रही थी और उनका छोटासा रूमाल खून से रंग गया था। मुझे जाने क्यों उस संभ्रांत महिला की अपदस्थता देखकर तरस गया।

 

आइए ना, भीतर घाव धोकर डेटोल लगाने से ठीक रहेगा। पास ही अस्पताल भी है, हो तो ड्रेसिंग करवा लीजिएगा।मैंने कहा।

 

भीड़ हट गई। महिला ने बड़ी कृतज्ञता से रूमाल हटाया और मैंने पहचान लिया। कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो बीस क्या, चालीस वर्ष तक भी इजिप्शियन ममी की भाँति सुरक्षित रहते हैं।

 

मामी
का चेहरा भी शायद ऐसा ही था। चिकने चेहरे पर वयस की झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। स्वस्थ दाँतों की मुस्कान अभी भी उतनी ही स्निग्ध थी। मैंने उन्हें पहचान लिया था, पर मुझे यह देखकर बड़ा आनन्द रहा था कि उन्होंने मुझे अब तक नहीं पहचाना था। मैंने बड़े यत्न से आरामकुर्सी में लिटा दिया और घाव धोने लगी।

 

इतना बदमाश है ये लेरका लोग, इस्कूल जाएगा नहीं, खाली फाकी देगा और बदमाशी करेगा!” उन्होंने कहा, तो मुझे हँसी आई।

 

मामी! पहचाना नहीं क्या? देयर वाज क्रूकेड मैन…”मामी ने मुझे गौर से देखा, “ माँ, यही तो सोच रही थी मैं। कहाँ देखा है इस लड़की को!” मामी मुझसे लिपट गईं।

 

अब मेरा टेढ़ा बूढ़ा कहाँ रह गया, बेटी! रह गया है यह निगोड़ा टेढ़ा कपाल।

 

आप यहाँ कब आईं, मामी?’’ मैंने पूछा। फिर तो मामी ने मुझे कई समाचार दे दिए।

 

अनीता एक सरदार से विवाह कर नाईजीरिया चली गई थी। मामा बाबू की मृत्यु के पश्चात अपने बंकिम महल और साथ सैकड़ों बीघा जमीन बेचबाच मामी प्रयाग में बस गई थीं। लड़कियाँ यहीं पढ़लिखकर बड़ी हुईं।

 

बंगाल में उनका गुजारा नहीं हो सकता! “पूड़ीपराँठा खाना सीख गई हैं, अब क्या बंगाल की झाल मछली और पालकर का घंट खा पाएँगी? सोचा, एक से एक अच्छे बंगाली परिवार यू.पी. में बिखरे पड़े हैं, कहींकहीं ठिकाने लगा दूँगी, पर कहाँ?”

 

अब तो तीनों पढ़ चुकी होंगी?” मैंने पूछा।तुमसे क्या छिपाऊँ, बड़ी सोना रीना पच्चीसवें में है, बेबी को इसी चैत में बाईसवाँ लगेगा। बेबी की चिन्ता नहीं है, उसकी तो सगाई हो गई है।

 

तब बेबी की शादी चट से कर क्यों नहीं देतीं, मामी?”

आहा, मेये आबार की बोले! (देखो, लड़की क्या कहती है!) सबसे छोटी की कर दूँ तो दुनिया यही कहेगी कि खरा माल तो बिक गया, खोटा रह गया। हिन्दू गृहस्थ के यहाँ जो रीति चली आई है, वही तो होगी। तुम कल अवश्य आना, बेटी! तीनों बहनों को देखोगी, तो पहचान ही नहीं पाओगी


अपने पार्क रोड के बंगले का पूरा नक्शा खींचकर मामी ने मुझे थमाया।दूसरे दिन सुबह ही मैं चल दी। इलाहाबाद की पार्क रोड मुझे किसी सुन्दरी किशोरी विधवासी लगती है। सुन्दरढे बंगले, उद्यानों में झूमते ऊदेनीले पुष्पगुच्छ, मेडिकल कॉलेज के नये चित्र से सजे चंडीगढ़ी सज्जा के बंगले, पर सब बेजान और मुर्दा।

 

कभी घंटे टनटनाता एकआध फायर ब्रिगेड उस सड़क से निकल जाता है, तब लगता है, उस निष्प्राण सड़क की निःस्पन्द नाड़ी फड़कने लगी है, पर फिर वही मनहूसी छा जाती है। उस दिन एक गन्दा बुर्का ओढे़ एक मुस्लिम महिला सड़क से लगी जीर्ण मजार पर बेले का गजरा चढ़ा, लोबान जला रही थी। उसी लोबान का मीठा धुआँ पूरी सड़क पर फैल गया था।

 

उस मीठी घुटन में मामी के बंगले का नम्बर ढूँढ़ रही थी कि अपनी तीनों तन्वी कन्याओं के साथ मामी मुझे दिख गईं। लोहे के भारी जंगलों पर बड़ेबड़े अक्षरों में कुत्ते से सावधान रहने की चेतावनी टँगी थी। कतारबद्ध गमलों में स्थलपद्म और कठाल चंपा देखकर लगा, जैसे जोड़ासाँको के ही आसपास कहीं पहुँच गई हूँ।

 

वाह मामी, आप तो बंगाल की स्वर्गीय सुषमा को यू.पी. में खींच लाईं।मैंने कहा।

माँ के गुलाब देखिएगा, मामी, तीन वर्षों से लगातार इनाम जीत रही हैंसोना बोली।

मामी
के गुलाब वास्तव में सवा लाख के थे। ऐसे हृष्टपुष्ट गुलाब मैंने बहुत कम देखे थे; किन्तु उनके गुलाब से भी सुन्दर उनकी तीसरी कन्या बेबी थी, इसमें कोई सन्देह नहीं।

 

या तो दो साँवली बहनों के बीच में खड़ी रहने से या गुलाबी, पीले गुलाबों की मद्धिम आभा से बेबी का रंग गहरा गुलाबी लग रहा था। ऐसा रंग बंगाली लड़कियों में देखने को कम मिलता है। आँखें बहुत बड़ी नहीं थीं, किन्तु प्रत्यंचासी भवों के बीच लापरवाही से खींची गई तिलकनुमा काजल की बिन्दी बड़ी प्यारी लग रही थी। नाक बहुत पतली होने के कारण अधरपुट खुलखुल जाते थे।

 

लम्बे
बालों का ढीला जूड़ा बारबार खुलकर उसके कन्धों पर ढुलका जा रहा था और मामी की वह जूड़ा बाँधनेवाली अनूठी कन्या उतनी ही गाँठों में मेरा मन बाँधती जा रही थी। सोना और रीना भी शायद बहन के साथ नहीं देखी जातीं, जो यथेष्ट रूप से आकर्षक थीं। दोनों जुड़वाँ होने पर भी पहचानी जा सकती थीं।

 

सोना की आँखें बड़ी थीं, रीना की साधारण। सोना की नाक रीना की अपेक्षा अधिक तीखी थी, किन्तु रंग दोनों का जुड़वाँ था। अपने रंग को पाउडर की मरीचिका से छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया गया था, केशविन्यास में ही किसी प्रकार का आडम्बर था, इसी से दोनों बहनों की सादगी मुझे और भी अच्छी लगी।

 

वाह, कितना बढ़िया मकान है, मामी, आपका!” मैंने कहा, “इलाहाबाद में तो मकानों की बड़ी तंगी है।

 

आर बोलो केनो माँ!” मामी बोलीं, “हमने इस मरे मकान के लिए क्या कम कष्ट उठाया है! वह तो मकानमालिक का लड़का हमारे प्रतुल के साथ पढ़ा है। प्रतुल से हमारी बेबी की सगाई हुई है, बताया तो था शायद तुम्हें। बड़ा अच्छा लड़का है, बेटी। दो साल पहले आई.पी.एस. में आया था। आजकल सहारनपुर में एस.पी. है।

 

कब है शादी?” मैं प्रश्न पूछते ही खिसिया गई। मामी तो अपनी विवशता पहले ही बता चुकी थीं। सोना, रीना और बेबी मेरी चाय की तैयारी करने भीतर चली गई थीं। मामी फिर वही उत्तर दुहराने लगीं, “यही तो दिनरात प्रतुल भी पूछता है। चार वर्ष पहले सगाई हो गई थी।

 

अब तो कभीकभी लड़का बुरी तरह झुँझलाने भी लगा है। कोई और होता, तो धत्ता बता देती, पर हाथ में आए रत्न को कैसे गँवा दूँ? इसी से दुधारू गाय की लात भी सहती रहती हूँ। सोनारीना के लिए दिनरात एक कर लड़के ढूँढ़ रही हूँ।

 

विवाह कर क्यों नहीं देतीं, मामी, आजकल यह सब कौन मानता है? मेरी ही छोटी ननद…” मैं बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि मामी की तीनों कन्याएँ खानपान का बहुतसा सामान लेकर गईं। बड़ी देर तक गपशप में घर लौटना भी भूल गई। फिर तो प्रायः ही तीनों बहनें मेरे यहाँ जातीं।

 

सोना नागपुर में डॉक्टर थी, रीना चंडीगढ़ में पढ़ रही थी, बेबी की सगाई हो चुकी थी, इसी से वह माँ के पास रह घर का काम सीख रही थी; पर मुझे उसे देखकर लगता था, चार वर्षों में उसने घर का आवश्यकता से अधिक काम सीख लिया था और वह अपनी दो कुँआरी बहनों और विधवा माँ के सहवास में बुरी तरह ऊबने लगी थी।

 

इसी बीच मेरे पति को विज्ञान परिषद् के एक जलसे में तीन महीने के लिए वियना जाना पड़ा। उस बीहड़ बंगले में रहने का मुझे साहस नहीं हुआ। सामने भयावने कम्पनी बाग के अहाते में ही आये दिन राहगीरों को छुरा मारने की घटनाएँ अखबार में छपती रहतीं। मैंने मामी की शरण ली।

 

क्या अपने सुन्दर बंगले के दो कमरे सबलेट करने की कृपा करेंगी?”

माँ, सबलेट ना और कुछ! तू अपनी ननिहाल जाती तो वहाँ भी किराया देती क्या?”

 

उसी दिन मैं अपना सामान ले आई। मेरा अपना चूल्हा फिर मामी के यहाँ जल ही कहाँ पाया। नित्य ही मुझे मामी की रसोई में जीमने का निमन्त्रण रहा। कल सोना जा रही है, उसे चन्द्रपूली बहुत पसन्द हैं। रीना के साथ मछली के कटलेट बनाकर रखे जा रहे हैं। बिना मांसमछली के बेबी के गले के नीचे गस्सा नहीं उतरता।

 

पति के विदेशगमन से प्रोषिता पत्नियों की कलाइयों के कंगनों का, विरहदुख से बाँहों के अनन्त बन जाने का वर्णन प्राचीन कवियों ने किया है, पर यहाँ तो मामी की स्निग्ध स्नेह छाया में खाखाकर मेरी कलाइयाँ ही बाँहें बनी जा रही थीं। मामी के कार्य करने की पटुता एवं क्षमता भी देखते ही बनती थी!

 

उनका
हर कार्य इतना सुघड़ और स्वच्छ होता था कि जी में आता, उनकी प्रौढ़, लम्बी अँगुलियाँ चूम लूँ। जिस उम्र में स्त्रिायाँ अकारण ही चिड़चिड़ाने लगती हैं, वही उम्र थी मामी की, पर जब देखो तब उनका चेहरा ताजे फूलसा खिला रहता।

 

दोनों लड़कियाँ नौकरी पर चली गई थीं, अकेली बेबी माँ के पास बनी थी। उस लड़की की एकान्तप्रियता एवं अनोखा अस्वाभाविक गाम्भीर्य मुझे कभीकभी भ्रम में डाल देता। लड़की का स्वभाव ही ऐसा है या माँ के कठोर अनुशासन से सधे अवांछित कौमार्य ने उसे इतना उदासीन बना दिया है।

 

लगता था, टुकड़ेटुकडे़ कर देने पर भी लड़की के हृदय की बात कभी भी कोई नहीं जान पाएगा। उसे पहननेओढ़ने का शौक था, घूमने का। उसे पढ़ने में रुचि थी, गानेबजाने में। कभीकभी काॅसस्टिच की कढ़ाई लेकर बैठ जाती, तो दिनभर में एक गद्दी काढ़कर पूरी कर देती, कभी दो दिन में स्वेटर तैयार कर लेती, कभी पट्टियाँ बुनबुनकर उधेड़ती रहती, कभी सनक सवार होती तो पूरे घर की सफाई कर डालती।उसे भी अपनी माँ की भाँति सफाई का खब्त था।

 

मुझे उस सुन्दरी लड़की की इसी आदत को देखकर कभीकभी उसके भविष्य के लिए बड़ी चिन्ता होती। मेरी कुछ ऐसी धारणा है कि जो नारी सफाई के पीछे मरीमिटी जाती है, उसका वैवाहिक जीवन उतना सुखी नहीं हो पाता।

 

जिसका सारा समय यही सोचने में बीत जाता है कि उसकी पलँगों पर बिछे पलँगपोशों की समानान्तर रेखाओं का माप, कितने इंच और कितने सेंटीमीटर की परिधि में बँधा रहना चाहिए; मेज पर सजी पुस्तकों की जिल्दों का रंग कैसे मैच किया जाए कि सुन्दर लगे या बक्स में साड़ियों की तह कैसे पिरामिड के स्तूपाकार गड्ढों में सजाई जाए; उसके पास अपनी गृहस्थी की मुख्य समस्याओं के मनन के लिए कभीकभी बहुत कम समय रह जाता है।

 

उस
नारी का पति कभी तौलिये की लुंगी बाँधे कमरों में इधरउधर नहीं घूम पाता। बिस्तर की सिलवट बिगाड़ने का दुस्साहस करने पर गृहस्थी में तूफान खड़ा हो जाता है।

 

उस गृह के बच्चे सजेसँवरे गुलदस्तों में बँधेकटे पुष्पगुच्छों की ही भाँति सुन्दर, पर निर्जीव लगते हैं। अपने गृह को आवश्यकता से अधिक सज्जा प्रदान करने में कभीकभी ऐसी कलात्मक रुचि की नारी के हृदय का अन्तरंगकक्ष बिना झाड़ा ही रह जाता है और उसमें प्रयत्न की मकड़ी अपना तानाबाना बुन लेती है।

 

सज्जा या आर्डर पुरुष का गुण है। इधरउधर चीज फेंकने, रुचि से कपड़े पहनने, दाढ़ी बढ़ा, बीमार मजनूँ की सूरत लिए इधरउधर घूमनेवाला पुरुष जिस लापरवाही से अपने व्यक्तित्व की अवहेलना करता है, उसी लापरवाही से कभी अपने परिवार की भी अवहेलना कर सकता है।

 

स्त्री की जितनी ही अस्तव्यस्त गृहस्थी होगी, उतना ही सुलझा उसका पारिवारिक जीवन रहेगा। इसी से मामी के कैक्टस की एक सौ अट्ठाईस किस्में, इटैलियन ब्रोकेड से मढ़ा सोफा और बगदाद कालीन देखकर मुझे लगता, जिस दिन मामी और उनकी तीन कन्याएँ अपने इस बनावटी आडम्बर की केंचुली से बाहर निकलकर खड़ी होंगी, उसी दिन उन तीनों को एकसाथ राजपुत्र से सुपात्र जुट जाएँगे।

 

जिस गृहस्वामिनी के कालीन पर ही पैर रखने में भय होता था, उसकी पुत्रियों का हाथ कोई भला पकड़ेगा ही किस दुस्साहस से!

 

एक दिन मैं बरामदे में बैठी अखबार देख रही थी कि मामी दौड़ती आईं, “आज प्रतुल रहा है, मार्ग में शायद एक रात यहाँ भी रुकेगा। तुम्हें अगर आपत्ति हो, तो तुम्हारे ही कमरे को उसके लिए खाली कर दूँ, एक उसी कमरे में एटैच्ड बाथ है।

 

मैंने स्वयं ही अपनी सूक्ष्म गृहस्थी बटोरकर मामी और बेबी के कमरे में डेरा डाल लिया और बड़ी उत्सुकता से प्रतुल की प्रतीक्षा में बैठ गई। मामी और बेबी ने स्टेशन चलने के लिए बड़ा आग्रह भी किया, पर मैं टाल गई। उस परिवार से मेरी कितनी ही अन्तरंग घनिष्ठता क्यों हो, उस भावी जामाता से तो मेरा किसी प्रकार का परिचय नहीं था।


बल्कि मैं यदि बेबी की माँ होती, तो लड़की को अकेली ही स्टेशन भेज देती।

जब माँबेटी प्रतुल के साथ लौटीं, तो मैं छत पर खड़ी थी। पहले तो मुझे लगा, वह प्रतुल नहीं, बंगला चलचित्र का लोकप्रिय नायक सौमित्र चटर्जी ही चला रहा है। उसे लेकर मामी ऊपर आईं तो मैं ही उसके लिए चाय बना लाई। मैं देख रही थी, लड़के की आँखें एक सेकंड के लिए भी बेबी को नहीं छोड़ रही थीं।यह तुम्हारा गुसलखाना है, बेटा!” मामी बड़े स्नेह से बोलीं, “वैसे तुम तो कई बार पहले भी चुके हो।

 

जी हाँ, पर जिस रूप में आना चाहता हूँ, उस रूप में तो अभी कहाँ पाया हूँ।कह वह आनन्दी युवक एक लाड़भीनी दृष्टि से अपनी वाग्दत्ता की ओर देखकर मुस्कराया।

 

मैं नहाधोकर आता हूँ। बेबी, तुम तैयार हो जाओ। आप खाने के लिए कोई तैयारी मत कीजिएगा, माँ! हम दोनों आजक्वालिटीमें खाएँगे। ठीक है बेबी?” उसने कुरते के बटन खोलतेखोलते कहा और तौलिया पकड़कर उठ गया।

 

हाँ मैं तो तैयार ही हूँ।बेबी उस दिन जितनी सुन्दर लग रही थी, उतनी पहले कभी भी नहीं लगी।

 

बेबी उठकर बाहर जाने लगी, तो मैं उठ गई। अचानक आँधी की भाँति मामी ने आकर उसका हाथ पकड़ा और फुसफुसाने लगीं, ‘बोका मेये (मूर्ख लड़की)! इतनी देर से, तुम अकेली उसके साथक्वालिटीजाओगी? जरा भी अक्ल नहीं है छोकरी को। लोग देखेंगे, तो क्या कहेंगे!”

 

बेबी का खिला चेहरा अचानक सूखकर लटक गया।

हद करती हैं, मामी!” मैंने उस सरल लड़की का पक्ष लिया, “कौन क्या कहेगा? सभी को पता है कि दोनों इंगेज्ड हैं। आजकल कौन ऐसा दामाद है, जो विवाह से पहले ससुराल नहीं हो आता?”

 

नहाधोकर गुनगुनाता प्रतुल बाहर गया, “ बेबी, एक गिलास पानी तो ले आओ, गला सूख गया है।उसके पानी से भीगे बालों की लटें छल्लेसी बनाती ललाट पर फैल गई थीं। स्पष्ट था कि वह मातापुत्री के तनाव से अनभिज्ञ था।

 

वाह, आप तो अभी से बेचारी लड़की पर हुकूमत चलाने लगे।मैंने परिहास कर मामी को हँसाने की चेष्टा की, पर मामी नहीं हँसीं।

 

दोष, क्या मेरा है? देखिए ना, चार साल से ललाट पर मेरा रिजर्वेशन स्लिप लटकाए यह बेहया लड़की घूम रही है।

 

बेबी पानी लेकर लौटी, किन्तु जिस समझबूझ से पानी मँगाकर प्रतुल कमरे में चला गया था, वह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पाया। प्यासे की प्यास बहुत गहरी थी। जलवाहिका के साथसाथ मामी भी कमरे में जम गईं और देश की बिगड़ती खाद्यान्न स्थिति का लेखाजोखा देतीं, भावी जामाता को बोर करने लगीं।

 

मैं अपने कमरे से सब सुन रही थी। मामी उन दोनों को एक क्षण भी एकान्त का सुअवसर देने के मूड में नहीं थीं। मुझे मनहीमन मामी की अल्पबुद्धि पर क्षोभ हो रहा था। जामाता कितना बढ़ गया है, इसका उन्हें कोई ध्यान ही नहीं था। मैं तो उन्हें पहले भी कई बार समझा चुकी थी। लम्बी सगाइयाँ विदेशियों को शोभा देती हैं, हम भारतीयों को नहीं।

 

उनकी सगाई संयम की दुहाई नहीं माँगती, आदर्श के घेरे में नहीं बाँधी जाती, इसी से उस सगाई को सुगमता से निभाया जा सकता है, पर संस्काररज्जुबद्धा मामी की समझ में कुछ नहीं आया था।

 

हुआ वही, जो मुझे भय था। रात के आठ बजे, नौ, दस, ग्यारह, सब एकएक कर बजते रहे, पर मामी बेबी के पीछे निरन्तर छायासी घूम रही थीं।

 

प्तुल का कंठस्वर क्रमशः ऊँचा होता जा रहा था, “यह आपकी सरासर ज्यादती है। बेबी मेरी वाग्दत्ता पत्नी है। मैं इसे जब चाहूँ, घुमाने ले जा सकता हूँ।

 

सच पूछिए तो मैं इस लम्बी सगाई से ऊब गया हूँ। पता नहीं, कब आपकी गुणवन्ती कन्याओं का विवाह हो और कब मेरे इस नीरस क्यू का अन्त हो। जितनी बार भी आया हूँ, आपने यही असहयोग आन्दोलन किया है। आज इस बात का फैसला करके रहूँगा।

 

मामी ने उत्तर में पता नहीं क्या गुनगुन की कि लड़के का पारा एकदम ही चढ़ गया, “तो जाइए, अपनी तीन कन्याओं का ढोल गले से बाँध घूमती रहिए, मैं जा रहा हूँ। समझ लीजिए, फिर कभी नहीं आऊँगा। एक बार फिर पूछता हूँ, बेबी, चलोगी मेरे साथ घूमने?”

 

मैं अपने कमरे से चीखचीखकर उत्तर देना चाह रही थी, ‘हाँ, चलेगी, प्रतुल, अवश्य चलेगी।बड़े प्रयत्न से मैंने अपने को रोका। बेबी का उत्तर कतिपय विवश सिसकियों में आया, पर मामी का कठोर कंठस्वर अचानक कर्कश होकर गूँज उठा, “नहीं, नहीं, सौ बार नहीं! क्या समझा है, रायबहादुर बनर्जी परिवार की कुँआरी लड़की रात, आधी रात चैकबाजार में घूमती फिरेगी?”

 

कितना नासमझ मूर्ख युवक है वह, मैं सोचने लगी। ऐसे अवसरों पर छलबल से भी तो काम लिया जा सकता है। यदि वह यहाँ पहले चुका है तो अवश्य जान ही गया होगा कि मामी के कमरे का द्वार रातभर खुला रहता है, यही उनकी एकमात्र दुर्बलता है। बन्द दरवाजे के भीतर उन्हें नींद नहीं आती।

 

बेबी की खाट एकदम द्वार से सटी लगी है और एक बार नींद आने पर मामी के कानों में नगाडे़ पीटकर भी कोई उन्हें नहीं जगा सकता। इतनी भी बुद्धि नहीं है, तो लड़की को लेकर भाग क्यों नहीं जाता।

ठीक है, मैं जा रहा हूँ।प्रतुल शायद सचमुच ही चला गया, क्योंकि बेबी की सिसकियाँ मेरे कमरे के निकट आती गईं। मामी उसे निश्चय ही घसीटकर ला रही थीं, क्योंकि बीचबीच मेंबोकामेये’ (पागल लड़की) का स्वर रहा था।

 

अचानक भद्दसी आवाज हुई और कटे पेड़सी बेबी मेरे पाश्र्व के पलँग पर गिरी।

 

मेरी समझ में नहीं आया, उसे आश्वासन दूँ, या नींद का बहाना बनाकर लेटी रहूँ। नींद का बहाना बनाने में ही मुझे लाभ दिखा।

 

प्रतुल सचमुच ही लौटकर नहीं आया। बेबी कई दिनों तक अपने कमरे में सिसकती रही। मुझे उस मूर्ख लड़की की अकर्मण्यता पर बड़ा दुख होता, पर बचपन से ही माँ के कठोर अनुशासन ने उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़कर रख दी थी।

 

कोई बात नहीं।मामी कहतीं, “बंगाल की धरणी क्या योग्य युवकों से एकदम रीती हो गई है? इसी वर्ष दो लड़के आई.पी.एस. में आए हैं। एक का तो पिता भी डी.आई.जी. है। बरीशाल में उसकी ननिहाल है। वहीं मेरी बड़दी हैं। आज ही लिखती हूँ। ऐसेऐसे बीसियों प्रतुल तेरी जूतियाँ चाटेंगेपर बेबी को जैसे जूतियाँ चटवाने की कोई आकांक्षा नहीं थी।

 

इसी बीच मैं अपने बंगले में लौट आई थी। पति और बच्चों के साथ जब पहाड़ यात्रा से लौटी, तो मामी से मिलने गई। बेबी की दोनों बहनें छुट्टियों में फिर आई हुई थीं, और तीन कन्याओं की उपस्थिति ने बहुत हद तक पिछली उदासी झाड़पोंछ दी थी। फिर एकसे रंगों के कार्डिगन बुने जाने लगे थे। फिर से तीन दिन के तीनतीन शो सिनेमा देखे जा रहे थे। किन्तु तीन जोड़ा आँखों में एक जोड़ा आँखों की उदासी अभी भी पूर्ववत् थी।

 

कल हम लोग सब माघ मेला जायेंगे, अमावस का नहान है। वहाँ एक सौ नब्बे वर्ष के एक बाबाजी आए हैं, सबके प्रश्नों के उत्तर देते हैं। आप भी चलिए ना, बड़ा आनन्द आएगा।सोना बोली।

 

माँ को हम प्रश्न नहीं पूछने देंगी।मँझली रीना सबसे मुखर और हठीली थी। मैं जानती हूँ, यह क्या पूछेंगी।

क्या?” मैंने हँसकर पूछा।

 

वही निरर्थक प्रश्न हम तीनों का विवाह कब होगा?…सिली!” कहकर वह हँसने लगी।

पर आपको चलना होगा, माशी!”

 

आपको चलना ही होगा।बेबी ने कहा, तो मैं उसकी करुण याचनापूर्ण दृष्टि का निमन्त्रण टाल नहीं सकी। कभी मैंने उसका पक्ष लिया था, शायद उस कृतज्ञता को भूल नहीं पाई थी बेचारी।

 

मामी ने एक बड़ासा बजरा किराए पर ले लिया था। अन्य यात्रियों से भरी नावों की अपेक्षा हमारा हल्काफुल्का बजरा सर्राटे से तैरा जा रहा था। तीन कन्याएँ,
एकदूसरे से माथे सटाए, एकसे रंगों के तीन कार्डिगन, मशीन की तेजी से खटाखट बुनती जा रही थीं। अचानक गीत गाती ग्रामीण स्त्रिायों से भरी एक नाव हमारे पास से गुजर गई।

 

 देख रीना, वह नीली साड़ीवाली ग्राम्या कितनी सुन्दर लग रही है!” सोना ने कहा औरदेखूँ, दीदीकहती दोनों बहनें आगे की ओर झुक गईं। नाव तिरछी हो गई। मैंने भी उत्सुकतावश नीली साड़ीवाली को देखने के लिए दृष्टि फेरी।

 

मैंने जिसे देखा, उसे शायद तीन कन्याएं नहीं देख पाईं। एक सरकारी पुलिस की नाव में, तीनचार लाल पगड़ीधारी रोबदार थानेदार खड़े थे, जैसे लखनऊ के बने मिट्टी के खिलौने हों। स्वयं नाव खेता, कन्धे में कैमरा लटकाए, पाश्र्व में अपनी अग्निवर्ण सुन्दरी असमी पत्नी को लिए, प्रतुल मुस्कराता खड़ा था। मैं मामी से सुन चुकी थी कि उसने एक असमी बरुआ लड़की से विवाह कर लिया है।

 

कहिए, कैसी हैं, आप सब? खूब भेंट हुई!” वह अपनी नाव को तेजी से खेता एकदम इतने निकट ले आया कि उस रोबदार सरकारी नाव की टक्कर खाकर हमारा जीर्णशीर्ण बजरा डगमगा गया।

 लग रहा था, उसने जानबूझकर ही ऐसा किया है, क्योंकि उसकी दुष्टतापूर्ण आँखें प्रतिशोध की चिनगारियाँ बरसा रही थीं। वह केवल बनियान और पैण्ट पहने नाव चला रहा था, नीली जर्सी गले से बँधी झूल रही थी। नंगीचैड़ी ताम्रवर्णी छाती दर्पणसी चमक रही थी।

मामी प्रस्तर प्रतिमासी चुपचाप बैठी थीं। सोना और रीना को जैसे साँप सूँघ गया था। दोनों के हाथ की बुनाई गोदी में गिर गई थी। अकेली बेबी मन्त्रमुग्ध दृष्टि से अपने खोए उस रत्न को निहार रही थी, जिसे उसने अयत्न और अवज्ञा से गँवा दिया था। उस दृष्टि में द्वेष था, घृणा, प्रतिशोध था, करुणा। था केवल प्रेम, अबाध, निश्छल प्रेम।

 

जानती हैं, मिसेज बनर्जी!” उसने मामी की ओर देखकर कहा, तो तीनों बहनें चैंक पड़ीं। आज तक उसने मामी को कभी इस विदेशी सम्बोधन से नहीं डँसा था।

 

मेरी इस पत्नी को विवाह से पूर्व,
मेरे साथ रात, आधी रात घूमने में कभी कोई आपत्ति नहीं रही।
वह हँसा और धीमे अंगे्रजी चलचित्र के नायक के स्वर में फुसफुसाया,
गुड बाई एंड गुड लक, तीन कन्या!” हमारी नाव को फिर एक क्रूर टक्कर से डगमगाता वह तीरसा निकल गया।

 

मामी का चेहरा क्रोध और अपमान से क्रमशः लाल से सफेद पड़ता जा रहा था, किन्तु उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। मैं सोच रही थी कि खानदान और ब्रीडिंग का खरा सोना ऐसे ही अवसरों पर कसौटी को नहीं छलता।दोनों बहनें गोद की बुनाई को उठा, सींक से नीचे गिर गए फन्दों को पिरोने लगी थीं।

 

अकेली बेबी अभी भी अचल बुनाई थामे, लहरें काटती तीरसी भागी जाती।उसी नाव को एकटक देख रही थी, जिसके पीछे खड़े तीन थानेदारों के झब्बेदार रेशमी साफों की झालरों के बीच से दिखती, प्रतुल के गले से बँधी, उसी की बुनी नीली जर्सी की निर्जीव बाँहें धीरेधीरे ओझल होती जा रही थीं।

 

मुझे लगा, यह त्रिवेणीतट नहीं ब्रह्मपुत्र का विस्तृत वक्ष है, जिसके तट से दिखती हबीगंज की टेढ़ीमेढ़ी बस्ती के बीच, तीन टेढ़ी और चैथी टूटी मीनार लिये अभिशप्त बनर्जी परिवार का बंकिम महल चुपचाप खड़ा है।

 

चार मीनारों में जो चैथी मीनार भूकम्प के धक्के से टूटकर बिखर गई थी, वह फिर कभी नहीं बनाई गई।मामी ने कहा था। सोचती हूँ, आज भाग्य का भूकम्प, जो फिर वही क्रम दुहरा रहा है, उसका अंत भी क्या वैसा ही रहेगा?

The End

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Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
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