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अपराजिता: कहानी उस स्त्री की, जिसने हारना नहीं सीखा (लेखिका: शिवानी)

आरती ने अपना चेहरा दर्पण में देखा और फिर सिहरकर दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. दर्पण में, अपने सांवले, साधारण चेहरे के साथ, उसे उसी प्रतिबिम्ब की प्रेतछाया फिर त्रस्त कर गई थी, जिसने उसे कई रातों से सोने नहीं दिया था.

 

यह अदर्शी प्रतिबिम्ब, उसे बारबार अंगूठा दिखाकर कह रहा था,‘क्या खाकर मेरी बराबरी करोगी, आरती सक्सेना! प्रतिभा को तो मनुष्य अपने परिश्रम से भी संवार सकता है, किन्तु कितना ही परिश्रम क्यों कर ले, विधाता के दिए कुत्सित चेहरे को वह क्या संवार सकता है? देख लिया है ना मेरा चेहरा? मेरे यौवन, मेरे सौन्दर्य के सम्मुख अब क्या तुम्हारी अफ़सरी टिक सकती है?’

 

आरती की सूजी आंखों की पलकें, अभी भी अश्रुसिक्त थीं क्या कहेगी वह अब अपने मित्रों से? फिर मित्र भी क्या उसके साधारण स्तर के थे? वह कुछ भी कहें, तब भी उसके उदास चेहरे की एकएक रेखा को वे खुली पुस्तकसा ही बांच लेने में समर्थ थे. आरती की असाधारण प्रतिभा के स्तर के मित्र जुटना भी सहज नहीं था.

 

अपने
गहन अध्ययन, अनुपम
शौर्य एवं असाधारण
योग्यता के ही कारण आज वह सचिवालय की उस ऊंची कुर्सी पर आसीन थी. इसी से, उन्नत नासिका
या कर्णचुम्बी आयत नयनों के अभाव
में भी, उसका
साधारण चेहरा एक अनोखी ही आभा से बुद्धिदीप्त रहता.

 

वैसे देखा जाता, तो वह देखने में साधारण ही नहीं, साधारण के स्तर से भी बहुत नीचे ही उतरती थी. संकुचित ललाट, जुड़ी घनी भौंहें, और तीखे तेवर उसे और भी उग्र बनाकर देखनेवाले को सहमा देते.

 

उसका एकमात्र दर्शनीय अवयव, उसकी शरबती आंखें थीं, जो परिवेश के साथ क़दम मिलातीं, बिजली की गति से, अपना रूप बदलती रहती थीं. जहां प्रणयी पति को देखते ही उन बड़ी मदभरी आंखों में रस का सागर छलकने लगता वहीं पर कलुआ जैसे कुख्यात तस्कर को कभी उन्हीं तरल आंखों के सहसा ज्वालामुखी बन उठे अग्निगर्भा तेज ने पक्षाघात कासा झटका दे दिया था.

 

जब, आरती ने उस छोटेसे पिछड़े इलाक़े में, अपने आबकारी विभाग की कलक्टरी का पदभार पहली बार संभाला था, वह रूखी मर्दानी अफ़सर जितनी ही कर्मठ, योग्य थी, उतनी ही ईमानदार और प्रतिभासम्पन्न थी.

एक तस्कर ने तो, उसे पकड़े जाने पर, पचास हज़ार के उत्कोच का प्रलोभन भी दिखाया था, किन्तु शायद वह रुपए के लिए, निरीह सम्पन्न महाजनों के प्राण हरनेवाला हृदयहीन डकैत नहीं जानता था कि रुपए के मोह ने आरती सक्सेना को कभी उसकी कर्तव्यनिष्ठा से नहीं डिगाया.

 

चाहती, तो वह उसी क्षण, पलपल दुगुनी घोषित की जा रही उत्कोचराशि को ग्रहण कर, जीवनभर अपने रूपवान कृशकाय सहचर के साथ, चैन की बंसी बजा सकती थी. फिर तो, रातआधी रात को, किसी की सुदूरस्थित ग्राम में तस्करों के अड्डे का सन्धान पाते ही, वह गुर्राती भूखी नरभक्षिणीसी ही, शिकार की खोज में निकलने लगी.

 

एक तो उसका ज़िला नेपाल की सरहद से सटा था, उस पर सीमान्त का गहन अरण्य उनका प्रिय अड्डा था. चार ही महीनों में उसने तीन छापे मारकर लाखों की हशीश, अफीम बरामद कर ली थी. एक दिन, वह ऐसे ही थकानप्रद दौरे से, जीप धड़धड़ाती अपने बंगले में पहुंची ही थी कि तहसील का एक धूर्त नापित उसे सूचना दे गया थाकलुआ हमारे ही गांव के ठाकुरों की बरात में आया है सरकार, पूरे साठसत्तर हजार का माल लिए है.’

 

कलुआ के आतंक ने उन दिनों समीपस्थ प्रत्येक ग्राम को थर्राकर रख दिया था. वह एक कुख्यात तस्कर ही नहीं, एक नृशंस डकैत भी था. दिनदहाड़े, समृद्ध ग्रामीणों के यहां अपनी बहुमूल्य पोटलियां छिपा, वह प्रतिवेशी ग्रामों की समृद्धि को, किसी गर्त में छिपाए हड्डी के टुकड़े की भांति सूंघता, चोर कुत्तेसा ही पहुंच जाता और बल्लमभाले, देशी बारूद के धमाके से, पूरे ग्राम को आतंकित कर, सम्पन्न श्रीमन्त को भी पथ का भिखारी बना जाता.

 

कहा जाता था कि उसके अचूक निशाने की कीर्ति से ही सहमकर, कोई भी पुलिस की टुकड़ी उससे आज तक मोर्चा नहीं ले पाई थी. उसी अचूक निशाने के स्वामी को, अपने अचूक निशाने से पराजित कर, दुःसाहसी आरती सक्सेना ने, अपने पूरे ज़िले को अपनी खाकी ट्यूनिक की जेब में डाल लिया था.

 

वह जब भी छापा मारने निकलती, हमेशा मर्दानी वर्दी का ही परिधान धारण किए रहती, साड़ी के छहगजी जंजाल में, अपनी प्रशासकीय योग्यता को उलझाना उसे पसन्द नहीं था, इसीलिए उसने अपने ऐसे शत्रुसन्धानी दौरों के लिए एकसाथ कई खाकी वर्दियां सिला ली थीं. पौरुष को वह अपने अर्जित पौरुष से ही, आज तक पराजित करती चली आई थी.

 

वह इस बात का पूरापूरा ध्यान रखती थी कि किसी नन्हीसी तुरपन से भी, नारी की ललितललाम छटा छिटक पाए! दूर से देखने पर तो, किसी भी अपरिचित को, उसे देख किसी रोबदार, गठीले पुरुष का भी भ्रम हो सकता था.

Shivani–Writer of this dtory “Aprajita”

एक बार तो, उसके एक मित्र की नन्ही पुत्री ने कह दिया, ‘हाय बुआ, आप अगर वो आठ आनेवाली नकली मूंछें लगा लें तो और भी अच्छी लगेंगी.’

 

कलुआ के अड्डे पर छापा मारने भी वह अपनी उसी मर्दानी वर्दी में निकल पड़ी थी. फिर जिस छलबल से, वह साक्षात् चामुण्डा का रूप धारण कर, उस चिक्षुर से मोर्चा लेने, अपने गणों सहित, उस ग्राम में पहुंची और छिपकर, पेड़ के पत्तों से एकाकार हो गई, वह घटना पूरे शहर में एक दन्तकथा बन गई थी.

 

विदेशी ठर्रे और बनैले सुअर के तामसी अपच से उन्मत्त कलुआ, बरातियों का मनोरंजन, उसी की गुणगाथा से कर रहा थाअजी, यहां कैसेकैसे अफसरों को थूक चटा दिया, यह तीन कौड़ी की मेहरारू क्या खाकर कलुआ से जूझेगी! सूई उछालकर भी, अपने निशाने से उड़ा सकता है कलुआ! किसकी छाती में हैं इतने बाल जो इस छाती को बन्दूक के धमाके से दागे!’

 

वह बड़े गर्व से, अपनी लोमश छाती का प्रदर्शन कर ही रहा था कि पत्तों के गहन अन्तराल से सन्नाती गोली उसकी कनपटी का स्पर्श करती एक पल को, उसकी बोलती बन्द कर गई. फिर तो, कलुआ का वीभत्स चेहरा और भी वीभत्स हो उठा था.

 

देखतेहीदेखते विवाह का मंडप ख़ाली हो गया, कच्ची मिट्टी के बने घरों के द्वार पटापट बन्द हो गए, पर उस भगदड़ के बीच भी, कलुआ अपनी वनकेसरी कीसी गर्जना से दिशाएं गुंजाने लगा था,‘मर्द है तो सामने आकर लड़, जनखों की तरह छिपकर गोली क्यों चलाता है?’

 

वह अब बन्दूक ताने, दांत पीसता शत्रु के शरसन्धान की दिशा को ढूंढ़ने लगा था. मर्द होकर भी वह जवांमर्द के ही साहस से पेड़ से कूद गई थी. आमनेसामने की टक्कर में पहली बार, उस अचूक निशानेबाज़ का निशाना आरती के कन्धों को छूता व्यर्थ निकल गया था.

 

उसका एक कारण और भी था, जिसने सर्वदा पुरुषप्रतिद्वंद्वी की ही आग उगलती आंखें देखी थीं, वह एक क्षण को उस अन्धकार में किसी वन्यपशु कीसी जलती उन आंखों के अस्वाभाविक तेज से, सहसा चैकन्ना हो गया था.

फिर उत्तेजना, क्रोध और पेड़ से लगाई गई ऊंची छलांग ने आरती का ढीला बंधा जूड़ा खोलकर कन्धों पर बिखेर दिया था.

 

खुले केश, तमतमाया चेहरा और आरक्त चक्षुओं की उस ज्वलन्त दृष्टि ने कलुआ का सन्तुलन छीन लिया. उसके मोटे होंठों से भद्दी अश्लील गाली आधी ही निकली थी कि आरती की कुमुक ने उसे घेरकर जकड़ लिया. आरती को प्रशस्ति तो प्रचुर मिली ही थी, साथ ही उसके अनुपम शौर्यप्रदर्शन ने उसे उसी दिन से, पुरुष सहकर्मियों की बिरादरी में बिना किसी रोकटोक के प्रवेश की अनुमति दे दी थी.

 

उसकी
स्वयं की महिमा
के साथसाथ फिर निरन्तर उसके
पद की गरिमा
भी बढ़ती ही चली गई थी. कुछ अंशों में, आरती की योग्यता
को उसके सुखी
दाम्पत्य जीवन ने ही घिसमांजकर
और भी परिष्कृत
कर दिया था; उसके निकटतम मित्रों
को भी कभीकभी आश्चर्य होता
कि एक़दम ही अनमोल जोड़ी होने
पर भी, दोनों
में स्वाभाविक खटपट
तो दूर, सामान्यसी बहस भी कभी नहीं होती
थी.

 

लगता था, दोनों ने ही बड़ी समझदारी से कुछ ऐसा समझौता कर लिया था कि उनके जीवन में एक दर्शनीय मशीनी तत्परता गई थी. दिनभर दोनों समानान्तर रेखाओंसे विलग रहते और सन्ध्या होते ही वे दो रेखाएं एकदूसरे का अस्तित्व मिटा एकाकार हो जातीं. दोनों के स्वभाव में कोई साम्य था; चेहरेमोहरे और शरीर की बनावट में ही!

 

आरती हृष्टपुष्ट ऊंची महिला थी, उसके मदाक्रान्त प्रौढ़त्व ने, समय से कुछ पूर्व ही किसी बिन
बुलाए

अवांछित अतिथि की भांति टपककर, उसके यौवन को दुःसाहस से पीछे ढकेल दिया था, जीवन के तैंतीस वसन्तों में ही कनपटी के बालों से सफेदी झांकने लगी थी, सचिवालय के कठिन कार्यभार ने, चेहरे को सिकोड़ दिया था, पुरुषों के निरन्तर साहचर्य से, उठनेबैठने, हंसनेबोलने में पुरुषोचित गरिमा गई थी.

 

अराल अंगुलियों को, यत्न से किया गया मैनीक्योर भी, अब नहीं संवार पाता था, दिनभर कलम पकड़ने से, अंगुलियों में गांठें उभर आई थीं. फिर भी, उसकी सज्जा, वाणी, हंसी में कहीं भी शैथिल्य नहीं रहता.

 

वहीं पर उसके पति रामभजन सक्सेना के नाम में ही किसी अर्दली केसे नाम की खनक नहीं थी, पूरे व्यक्तित्व में ही सदैव, किसी दीवार के ढह पड़ने कासा खतरा बना रहता. आरती प्राणान्तक चेष्टा से ही अपने उस निपट गंवार पति को एक सुसंस्कृत नागरिक बना पाई थी.

 

पितृगृह की समृद्धि में पालिता आरती, ब्याहकर ससुराल आई तो उसका यही सुदर्शन सहचर, मुंह में दतौन दबा, लोटा लेकर दिशाजंगल जाया करता था. नाम का तो ग्रेजुएट था, किन्तु सभ्य शिष्टाचार की वर्णमाला से, उसका सामान्यसा भी परिचय नहीं था. अंग्रेज़ी बोलना तो दूर, पढ़ने में भी वह बुरी तरह हकलाता था.

 

उसी देहाती भजन का कायाकल्प कर दिया था आरती ने. शरीर अभी भी कृश था, किन्तु उसकी वही कृशता उसके सुकुमार चेहरे को और भी कमनीय बना देती थी, वह ऐसा चेहरा था, जिसे कभी पारसी थिएटर कम्पनियां सजाधजाकर, नारी रूप में अवतरित कर, लाखों दर्शकों के हृदय विजित किया करती थीं.

 

आरती के लिए वह भोला पति एक मोहक शिशुसा ही था, जिसे तरहतरह के उपहारों से लादकर भी, उसे कभी पूर्ण सन्तोष नहीं होता था और वह भी, पत्नीप्रदत्त प्रत्येक अलभ्य दामी उपहार के हाथ में आते ही, अबोध शिशुसा ही किलक उठता. कहीं भी कोई अच्छा कपड़ा देखती, आरती चट से भजन के लिए ख़रीद लेती, चैक की जाने किनकिन संकरी गलियों में घूम, वह उसके लिए चिकन के जालीदार कुर्ते बनवाती, कहीं से कारचोबी के नागरा बनवा लाती और कहीं से कोल्हापुरी चप्पलें.

 

पत्नी की कलात्मक सुरुचि बेजोड़ थी और उसी का संस्पर्श, उसके मोम की डलीसे पति को भी लग गया था. कान्वेंट शिक्षिता आरती की त्रुटिहीन उच्चारण ही भजन की जिह्म पर नहीं उतरा, उसके अदब, कायदे, नम्रता, शिष्टाचार की छाया भी, उसे निरन्तर अपने आरक्षण में घेरे, साथसाथ चलने लगी थी.

 

आरती की दृष्टि में, उसके पति का सबसे बड़ा आकर्षण था नारीमात्र के प्रति उसकी उदासीनता.

 

 उसकी मित्रपत्नियां, मिलनेवालियों में एकसेएक आकर्षक मुखराचपला उर्वशियां थीं, किन्तु मजाल थी कि कभी भजन उनसे हंसीचुहल तो कर ले! नारीरूप की प्रेरणाशक्ति उसके भोले महादेव का कभी स्पर्श भी नहीं कर पाती थी. उसका संसार, उसका प्रणयनिवेदन केवल अपनी रोबदार पत्नी तक ही सीमित था, वही उसकी एकमात्र उपास्य थी और वह उसका एकमात्र उपासक!

 

जब तक सास जीवित रहीं, आरती की त्रुटिहीन सेवा के बावजूद, उससे असन्तुष्ट ही रहीं,‘हम तो उसी दिन जान गई थीं, जब बचुआ उन्हें ब्याह के लाए थे. अजी, कुछ जनानी लकार हो तो गोद भी भरे!’
वैसे बचुआ, उसे अपने मन से ब्याहकर नहीं लाए थे, उनके दूरदर्शी पिता ने ही उन्हें वह उपहार भेंट किया था.

 

आकण्ठ
कर्ज में डूबे,
मुंशीजी का वह अकर्मण्य मन्दबुद्धि पुत्र,
कई असफलताओं के पश्चात, ग्रैजुएट बन पाया था, फिर पिता के ही एक मित्र ने, उसके लिए वनस्पति
घी फ़ैक्टरी में एक छोटीमोटी
नौकरी भी ढूंढ़
दी थी. जब कर्जदारों ने मुंशीजी
के द्वार खटखटाकर
कुंडी का लगभग
उन्मूलन ही कर दिया था और गिरवी पड़े मकान
की कुर्सी का भय, उन्हें बुरी
तरह त्रस्त कर रहा था, तभी यह रिश्ता आया था.

 

पहले तो वह चौंके, फिर उनका विवेक जाग्रत हो गया. रिश्ता उन्हें मंजूर था, पर तगड़े तिलक के अतिरिक्त, अपने सुदर्शन पुत्र की अन्तिम नीलामी बोली में, वह चाहते थे कि समधी उनका पूरा कर्ज़ उतार बंधक पड़ा पुश्तैनी मकान भी छुड़ा दें. आरती के पिता, अवकाशप्राप्त ज़िलाधीश थे, किन्तु अवकाशप्राप्तिपूर्व नौकरी ने, उन्हें जिनजिन ज़िलों का सम्राट बनाया, वहांवहां से उन्होंने महमूद गजनवी कीसी ही हृदयहीनता से, लूटपाटकर यथेष्ट समृद्धि बटोरी थी.

 

फिर आरती उनकी एकमात्र सन्तान थी. यह विधाता का सरासर अन्याय था कि पुत्री के चेहरे को वह सामान्यसा लावण्य भी नहीं प्रदान कर सके, नहीं तो आज पढ़ीलिखी पुत्री को, उन्हें ऐसे बहाना पड़ता! सुदर्शन जामाता के कमनीय चेहरे पर रीझकर ही उन्होंने यह रिश्ता भेजा था.

 

बुड्ढा डाइबिटिक था और बुढ़िया को दिल का पुराना रोग़ था, आख़िर सासससुर कितने दिन जिएंगे? ईश्वर ने चाहा तो कुछ ही दिनों में बेटी का मैदान साफ़ हो जाएगा और वे भजन को गृहजामाता बना, अपने गृह का स्थायी सदस्य बना लेंगे. किन्तु जब उनकी काल्पनिक योजना साकार हुई तो उनके भजन को स्थायी सदस्य बनाने के सपने मिट्टी में मिल गए.

 

मातापिता को एकसाथ ही ट्रेनदुर्घटना में खोकर आरती विक्षिप्तसी हो गई थी. किन्तु कठिनसेकठिन परिस्थितियों से भी उसने आज तक कभी हार नहीं मानी थी. ससुराल का बेढंगा मकान बेच, उसने पिता की कोठी को किराए पर उठा दिया, फिर पति की नाममात्र की नौकरी छुड़वा, उसे साथ लेकर वह अपनी नौकरी संभालने चल दी.

 

भजन का वास्तविक कायाकल्प, उसके इसी निरंकुश राज्यकाल से आरम्भ हुआ था. उसकी अप्रतिम खिसियायी हंसी को, बरबस धारण कराए गए मौनव्रत ने मिटा दिया, अकारण की गुनगुनाहट, और बीचबीच में कन्धे उचकाने के बदअभ्यास को भी, रोबदार पत्नी की कनखियों की मार ने, सदा के लिए मुक्ति दिला दी.

 

यही नहीं, रातरात पढ़ाकर, आरती ने उसे जाने कब एमए की परीक्षा भी ठेलठालकर उत्तीर्ण करा दी. फिर तो अपनी मित्रमंडली में वह अपने पति का परिचय पठनपाठन प्रेमी विद्वान के रूप में देने लगी,‘इन्हें क्या कभी अपनी रिसर्च से फ़ुर्सत मिलती है? जब देखो तब मोटीमोटी किताबें लिए किसी कोने में बैठे रहते हैं!’

 

वास्तविकता एक़दम उसके कथन के विपरीत होती. बेचारा भजन कोने में स्वेच्छा से नहीं बैठता था, उसे बैठा दिया जाता था, जिससे आरती की बौद्धिक गोष्ठी के बीच, वह कहीं अपना कोई सस्तासा चुटकुला सुना बैठे.

 

एकदो बार वह आरती को, उसके मित्रों के सम्मुख ऐसे चुटकुले सुनाकर, बुरी तरह अपदस्थ कर चुका था. आरती एक लोकप्रिय वरिष्ठ अफ़सर थी. आए दिन उसके यहां गोष्ठी जमती, उसकी मौलिक परिहासप्रियता, आनन्दी स्वभाव, उदार मेज़बानी उसकी गोष्ठियों को और भी मधुर बना देती.

 

उसके दिए गए सहभोजों की शहर में विशेष ख्याति थी, जब भी उसके यहां पार्टी होती, वह रुपया पानी की भांति बहा देती. भजन, ऐसे अवसरों पर, अपनी पूरी सामर्थ से जुट जाता. जाने किनकिन मंडियों में घूमघूमकर पसेरियों में सब्ज़ी खरीदता, फिर स्वस्थ बकरे की एकएक रान की जांचपरख कर बोटियां कटवाता.

 

यहां तक कि मसाला पीसने में भी उसे नौकर पर विश्वास नहीं होता! आरती दफ़्तर से लौटती तो देखती कच्छाबनियान पहने वह सिलबट्टे से जूझता, पसीनापसीना हो रहा है.
भजन, दिस इज़ टू मच! तुम इन हरामखोर पड़ोसियों को नहीं जानते! कहीं जान गए तो मेरी ही बदनामी करेंगे,’
वह कहती.

 

किसे क्या पता कि हमने मसाले पीसे हैं,’
वह बड़े भोलेपन से हंसकर फिर मसाला पीसने लगता.

 

बहादुर ने तो देख लिया है, घर का भेदी, हर नौकर विभीषण होता है भजन. किसी ने कभी फुसलाया तो चट से उगल आएगा कि मेमसाहब साहब से मसाले भी पिसवाती हैं.’

 

कभीकभी आरती रुआंसी हो जाती. पर भजन को किसी के कहनेसुनने की चिन्ता नहीं रहती. जब आरती ड्राइंग रूम की और अपनी सज्जा में व्यस्त रहती, वह रायते के लिए दही मथ रहा होता.

 

घर का नेपाली नौकर बहादुर ही उसका एकमात्र मित्र था, उसे भी यह मसाला पीसनेवाला, मेम साहब के ब्लाउज पेटीकोट में इस्तरी करनेवाला साहब बहुत पसन्द था. उसे कभी डांटता, डपटता. आरती को कभीकभी मीटिंग से लौटने में बड़ी देर हो जाती तो देखती, स्वामी और भृत्य दोनों परमानन्द से रेडियो लगाकर फ़िल्मी गाने सुन रहे हैं.


 

कितनी भाग्यवान हो तुम आरती!’ उसकी मित्र सीमा चक्रवर्ती कहती थी,‘तुम्हारे पति की जगह कहीं मेरा हरेन्द्र होता तो ऐसी दावत के बाद मेरी खैर नहीं रहती. तुम तो जानती ही हो, वह एलाइड में है और मैं आईएएस हूं. इस कॉम्प्लेक्स से वह कभी मुक्त नहीं हो पाता. कई दावतें ऐसी होती हैं, जहां केवल मुझे ही निमन्त्रित किया जाता है. बस, फिर यह समझ लो कि पूरा महीनाभर वह दावत मेरे सिर से निकलती रहती है…’

 

आरती गर्व से मुस्करा देती, किन्तु सहसा एक ही रात में वह उसकी सहज स्वाभाविक गर्वोन्मत्त मुस्कराहट सूखे अधरों पर ही सूखकर विलुप्त हो गई थी. आज पहली बार जीवनोदधि की उद्धत आनन्दी तरंगों के बीच एक अदृश्य चट्टान की भयावह उपस्थिति उसे त्रस्त कर गई थी.

 

कुछ ही क्षणों में उसका जीवनपोत, उससे टकराकर चूरचूर हो जाएगा. दिनभर की क्लान्ति के पश्चात् कभीकभी जब भजन अपने लजीले प्रणयनिवेदन के साथ, डरतेडरते उसे बांहों में खींचने की चेष्टा करता तो वह इस बुरी तरह से डपट देती कि बेचारा सहमकर पत्थर बन जाता, आज उन्हीं बांहों के विस्तृत घेरों में स्वयं ही सिमटकर खो जाने को उसका हृदय व्याकुल हो रहा था.

 

विवाह से पूर्व, डाइटिंग के चक्कर में जब वह ग्रासभर खाना खाकर ही उठ जाती थी, तो उसकी मां उसे टोकती थी,‘बेटी, ऐसे ही खाना कम करोगी तो एक दिन आंतें सिकुड़ जाएंगी और भूख एक़दम ही मर जाएगी.’यही शायद भजन की अभूख का कारण भी था. उस क्षुधार्थ भिक्षुक को उसने ही तो तीव्र भर्त्सना से जाने कितनी बार द्वार से भूखा ही लौटा दिया था.

 

पर तब वह क्या जानती थी कि उसके शिशुसे सरल पति को उस मायावी गुरु का चक्कर बांध रहा है? कुछ महीनों से वह पति की विचित्र गतिविधि को देख शंकित अवश्य हुई थी, पर फिर अफ़सरों का शत्रु मार्च का महीना सिर पर चढ़ आया था, जाने कितने बिल, कितनी फ़ाइलें और चिड़ियाघर के बन्द पिंजरे में गुर्राते बब्बर शेर कीसी गर्जना में उसके सचिव कलेजा बीचबीच में अलग ही धड़का रहे थे, क्या करती बेचारी.

 

थकीमांदी आती और भजन से थोड़ा इधरउधर की बातें कर सो जाती. अचानक एक दिन आरती की नींद टूटी तो देखा पार्श्व के पलंग से भजन ग़ायब है.उसने सोचा, शायद बाथरूम गया है, वह फिर नींद में डूब गई. थोड़ी देर बाद अपने कद्दावर एल्सेशियन का भौंकना सुन, वह चौंककर उठ बैठी.

 

पलंग अभी भी ख़ाली था. जिस कोने की ओर मुंह किए जैकी भौंक रहा था, उधर ही उसकी दृष्टि स्वयं मुड़ गई. जाने कब से उसके पार्श्व से उतर, भजन चटाई बिछा शीर्षासन की मुद्रा में मूर्तिसा स्थिर उल्टा लटका था! उसकी सतर देह काठसी तनी थी, सिर के बालों ने लम्बोतरे चेहरे को पूरी तरह ढंक लिया था. जैकी स्वामी की परिचित देहगन्ध से भी आश्वस्त नहीं हो पा रहा था.

 

चुप कर जैकी.’आरती ने उसे झपटा, फिर अपनी झुंझलाहट को यथासाध्य संयत कर, उसने उल्टे लटके भजन के कान के पास मुंह सटाकर पुकाराभजन, भजन डार्लिंग!’

 

पर भजन डार्लिंग ने तो जैसे परमपद पा लिया था, संसार में होकर भी वह संसार में नहीं था. आरती का साहसी कलेजा भी बुरी तरह धड़क उठा. दिल्ली, मसूरी, मद्रास की वह अपनी सारी अफ़सरी कवायद भूलबिसरकर रह गई.

 

बड़ी देर बाद वह सीधा होकर बैठा, तो आरती सहमकर स्वयं ही पीछे हट गई. यह तो उसका पति नहीं था! चेहरे पर की दिव्य मुसकान और अर्धोन्मीलित दृष्टि जाने किस अदृश्य शान्ति के सागर में डुबकियां लगा रही थी.


यह सब क्या कर रहे हो भजन, इतनी ठंड में नंगे बदन?’
वह चिन्तातुरव्यग्र होकर पति को बरबस पार्श्व में खींच लाई और कम्बल उढ़ा दिया,‘यू हैव वेरी वीक चेस्ट भजन! याद नहीं पिछली बार इन्हीं दिनों तुम्हें ब्रांकोन्यूमोनिया हो गया था? इस बार कुछ हो गया तो मैं कुछ कर भी नहीं पाऊंगी. तुम्हें पता है ना, मुझे एक सेमिनार में नैनीताल जाना है!’

 

भजन ने कोई उत्तर नहीं दिया. बड़ी देर तक पति का हाथ मुट्ठी में कसकर दाबेदाबे ही, आरती फिर गहरी नींद में डूब गई. जब उठी तो उसका पार्श्व पर्यंक फिर सूना था. उसने ड्रेसिंग गाउन डाला, सब कमरे देखे, बाथरूम देखा; फिर बहादुर की पेशी की.

क्यों बहादुर, साहब कहीं गए हैं क्या?’

 

उस एक प्रश्न को पूछने में, उस आत्मसम्मानी प्रखर
नारी की कितनी
ही सूखी सिसकियां
कंठप्राचीर से टकराटकराकर, उसका
कलेजा निचोड़ गई थीं! उसका पति, आज तक उससे
बिना पूछे, कभी बाथरूम तक नहीं
गया था, यह हरामखोर बहादुर भी जानता था. फिर उसी से, आज पति के पलायन
की क़ैफियत मांगने
में वह धरती
में धंस गई थी.

 

जी, साब तो आजकल रोज दुपहर में गुरुजी के पास जाता है. आज जल्दी चला गया!’ उसका चपटा चेहरा स्वामी की कीर्ति से उद्भासित हो, और भी चपटा लगने लगा था.

 

गुरुजी? कौन गुरुजी?’

नागा बाबा है हजोर, तन पर बस्तर नहीं! साब हमको भी एक दिन ले गया था. कहता था बहादुर, हम भजनानन्द बन गया तो तुमको भी साथ ले जाएगा!’

 

आरती को लगा, वह बेहोश होकर उसी मूर्ख के सामने कहीं कोई दृश्य उपस्थित कर बैठे.

 

ठीक है, तुम नाश्ता तैयार करो साहब के आने पर ही मैं चाय पियूंगी.’

और जाने कब तक वह अवश कुर्सी में ही बैठी रही थी. जिसे उसने किसी जंगली भेड़िये की मांद से छुड़ाएबुल्फ बाय की ही भांति, अपने बुद्धिनैपुण्य से, सुसंस्कृत समाज का सम्मानित सदस्य बना लिया था, वह उसके किस अयत्न से प्रताड़ित होकर, सहसा अनुशासन का बन्धन तोड़ गया था? जब वह लौटा, तो उसके नग्न तन पर, देहाती लाल अंगोछे का ह्नस्व परिधान देख, आरती का चेहरा तमतमा उठा.

 

कहीं उसकी सुरुचिपूर्ण मित्रों की बिरादरी उसे देख लेती, तो वह कहां मुंह छिपाती फिरती? किन्तु उस अद्भुत अनुशासनप्रिय नारी को, विधाता ने, हाथ में आई शक्ति का दुरुपयोग करना नहीं सिखाया था. हृदय क्रोध की उत्तुंग तरंगों से उद्वेलित होने पर भी, वह जिह्ना को संयम के अंकुश से साधने में समर्थ थी.

 

वह जानती थी कि व्यर्थ की चिलगोहार मचाकर, वह अपने नौकर की, इधरउधर बातें लगाने की प्रवृत्ति को ही प्रश्रय देगी. आज तक उसका विवाहाकाश दाम्पत्यजीवन की कटुता से कभी म्लान नहीं हुआ.

 

आओ, भजन,’
उसने अपने मधुर स्मित से अपने निगरगंड सहचर का आह्नान किया,‘मैं कब से चाय लेकर बैठी हूं!’

 

नित्य की भांति, उस दिन भी आरती की मेज दर्पणसी चमक रही थी. चांदी का टीसेट, दो प्लेटों में पांच अंडे, कुरकुरे टोस्ट, पौरिज और चांदी की तश्तरी में मेवे.

 

कृपण पिता की अटूट धनराशि की, आरती के नित्यप्रति के भोजों में ऐसी ही तृतीय गति होती थी.

 

तुम खा लो! बहादुर से कहो मेरे लिए एक गिलास दूध ले आए. मैं आज से अंडा नहीं खाऊंगा!’

स्वर की अस्वाभाविक दृढ़ता ने आरती के कलेजे में खंजरसा धंसा दिया.

 

ऐसा दुःसाहस? जिसने इतने वर्षों से कभी धेला भी कमाकर नहीं दिया, वह आज कह रहा है कि यह नहीं खाएगा! वह नहीं खाएगा! उसके टुकड़ों पर पलनेवाले देहाती, लंठगंवार की ऐसी स्पर्धा? किसने उसके इस नम्र अश्व को ऐसा अबाध्य बना दिया कि वह लगाम मुंह में ले ही नहीं रहा था? फिर भी, आरती बिना कुछ कहे, चुपचाप नाश्ता करती रही. दूध पीकर वह बिना उससे कुछ बोले ही जाने लगा, तो पलभर के लिए ठिठका,‘आरती, आज मैं रात तक लौटूंगा, स्वामीजी के यहां बनारस से उनके गुरुभाई रहे हैं, तुम खाना खा लेना!’

 

स्तब्ध आरती, हाथपरहाथ धरे बैठी ही रही थी, उसकी अफ़सरी, विद्या, वैभव व्यर्थ होकर उसे विद्रूप का अंगूठा दिखा रहे थे. वह फिर उस दिन भूखी ही दफ़्तर चली गई थी. जीवन में पहली बार, उसे अपनी निरीह विवशता पर दया रही थी.

 

खटाखट मशीनी गति से फ़ाइलों को निबटाने में आज तक उसकी अपूर्व ख्याति थी, किन्तु आज मेज पर फ़ाइलों का अम्बार लगा था और उसकी शक्ति ही चुक गई थी; आज तक वह अपने अनुभवी पिता की ही सीख पर चलती आई थी,
बेटी, फ़ाइलों को हमेशा घोड़े समझकर ही खटाखट दौड़ाती रहना. बहुत दिनों तक अस्तबल में बंधा घोड़ा, खुलने पर, कभीकभी मालिक को भी गिरा देता है.’

 

पर आज उसकी कलम अचल होकर बारबार बिदक रही थी. क्या, वह स्वयं अपने इस दुर्भाग्य के लिए उत्तरदायिनी नहीं थी? अफ़सरी की अकड़ में तनी, वह भूल गई थी कि वह एक पत्नी भी है. एक म्यान की दो तलवारें ही आज परस्पर टकरा गई थीं. इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह एक कुशल अफ़सर की ख्याति का सर्वोच्च सम्मान पा चुकी थी. कैसेकैसे खूंखार नरव्याघ्र से सचिवों से उसने आज तक डटकर ही मोर्चा लिया था!

 

विधानसभा के प्रश्न हों, या शासनसम्बन्धी कोई नया सुझाव बिना उसकी सम्मति के आज तक उसके किसी भी सचिव ने कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया था. हाथ में कलम थामते ही उसका कुत्सित चेहरा एक अनोखी आभा से उद्भासित हो उठता. उलझी से उलझी फाइल के झाड़झंखाड़ को भी वह कलम से ऐसे उखाड़कर सुलझा देती कि लगता कोई अनुभवकुशल माली जंगल बनी बंजर भूमि को खुरपी से गोड़गाड़ सुघड़ बना गया है. वास्तव में, उस नारी की सृष्टि विधाता ने दफ़्तर की कुर्सी के लिए ही की थी.

 

उसकी गोदी के लिए यदि शिशु किलकता भी तो वह किलक कभी स्वाभाविक नहीं लग सकती थी. दिनभर की थकीमांदी घर लौटती तो भजन उसका हंसकर स्वागत करने द्वार पर खड़ा रहता. सन्ध्या होते ही वह उसे बगल में बिठाकर अपनी मित्रमंडली से मिलने पहुंच जाती.

 

वहां कभीकभी भजन के निरीह पौरुष को लेकर उसके मित्र परिहास की चुटकियां भी लेते, किन्तु स्वयं आरती के शब्दों में उसका बौद्धिक पति, उनके तुच्छ हासपरिहास में कभी भाग नहीं ले सकता था, इसी से बेचारे के हाथ में ज़बर्दस्ती किसी जटिल पुस्तक का गरिष्ठ चिखौना ठूंस उसे अलग बिठा दिया जाता.

 

आज अपने उसी निरीह पति की अनुशासनहीनता उसे डंक देने लगी थी. फिर उसके नाज़ुक चेहरे, भोली हंसी से भी अधिक आकर्षक थी उसकी निस्वार्थ सेवाभावना. पूरी गृहस्थी का भार स्वेच्छा से ढोने के दास्य भाव की वह इतनी आदी हो चुकी थी कि उसके बिना उसके जीवन का एकएक पल व्यर्थ हो उठा था.

 

एक दिन जब वह दफ़्तर से लौटी तो भजन घर पर नहीं था. संकोचवश वह बहादुर से कुछ नहीं पूछ पाई, पर जब रात तक भी वह लौटा तब वह शंकित होने लगी. बहादुर से कुछ पूछती भी कैसे? यह उसके लिए कितनी लज्जा की बात होगी कि घर के नौकर से वह यह पूछे कि साहब कहां गए हैं.

 

और कोई साहब होता, तो शायद पत्नी को पूछने में संकोच नहीं होता, किन्तु बहादुर तो जानता था कि उसके साहब की दिनचर्या की एकएक पलघटिका भी मेमसाहब के आंचल की गांठ में अब तक बंधी रही है. वह उदास बैठी चाय पी रही थी कि सिर झुकाए बहादुर स्वयं ही आकर उसके सामने खड़ा हो गया.

 

मेम साब,’ उसने कांपते कंठ से उसे सम्बोधित कर फिर अपना सिर झुका लिया.

क्या बात है?’ स्वर में अभी भी अनुशासन की कड़क थी.

साहब चला गया, मेम साहब, अब कभी नहीं आएगा.’

क्या?’ उत्तेजित होकर आरती कुर्सी से उठ गई थी.

हां, मेम साहब, साहब को गुरुजी ने दीच्छा दे दिया है. आज हमसे बोला,‘बहादुर, अब हम जा रहा है, कभी नहीं लौटेगा!’

 

भजन के इस दुसाहसी पलायन ने आरती की चेतना ही हर ली थी. जाने कब तक, वह मूर्तिसी अडिग उसी कुर्सी पर बैठी रही थी.
मेम साहब,’
बहादुर के सहमे स्वर ने उसे एक बार फिर चौंका दिया.

 

क्या है, बहादुर?’
उसने अपने उद्वेलित हृदय की उमड़ती तरंगों को अपने संयत, कठोर स्वर से दबा दिया.

मेम साहब, घर से तार आया है, मां बहुत बीमार हैआज की गाड़ी से ही जाना होगा!’

ठीक है, तुम जा सकते हो.’

 

बहादुर आश्चर्य से अपनी उस सनकी मालकिन को देखता ही रह गया था. पहले क्या कभी उसने एक दिन की भी छुट्टी ऐसे दे दी थी? छुट्टी का नाम लेते ही तो वह भड़क उठती थी! किन्तु आज वह बहादुर की छुट्टी के समाचार से प्रसन्न ही हुई थी.

 

वही तो भजन के पलायन का एकमात्र साक्षी था. वह चला गया, तो अपने दुर्भाग्यप्रकरण को अपने ही तक सीमित रख सकती थी. भाड़ में जाए भजन! गोबर का कीड़ा गोबर में सड़सड़कर मरना चाहे तो दोष उसका नहीं था.

 

अपने एकान्त को उसे अब अपनी बहुचर्चित गरिमा के साथ ही स्वीकार करना होगा. बहादुर को घर भेज, वह दफ़्तर चली गई. जब लौटी तब सूना घर उसे एक बार फिर काट खाने को दौड़ा. नहीं, ऐसे हथियार डालकर काम नहीं चलेगा. उसे एक और अवसर अपने उस मूर्खअकर्मण्य पति को देना ही होगा. डूबती मूंडी को, बाल पकड़कर एक बार खींचकर देखेगी, और फिर भी यदि वह डूबना चाहे तो डूबे.

 

सारी रात वह बेचैन करवटें बदलती रही, फिर पौ फटने से पहले ही वह नहाधोकर तैयार हो गई. पति के निठल्ले गुरु का पता लगाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हो सकती थी. शहर से दूर जिस अरण्य में उस रमते जोगी का आश्रम था, उसका पूरा नक्शा वह बहादुर से पूछपाछकर अपनी डायरी में उतार चुकी थी.

 

पड़ोस के फ़्लैटों की पूरी कतार जब गहरी नींद में डूबी थी, आरती सक्सेना अपने फ़्लैट में ताला लगा, कार निकालकर अकेली ही अपने मूर्ख पति को ढूंढ़ने निकल पड़ी. किन्तु दुर्भाग्य उसके साथ शायद क़दमसेक़दम मिलाकर चल रहा था. लोहेलक्कड़ से भरे एक ट्रक की टक्कर के पश्चात, उसे चालक की भद्दी गाली और उड़ती जटिल दाढ़ी की ही झलक दिखी. फिर ललाट से बहती अपनी ही रक्तधारा को देख वह चीख मारकर बेहोश हो गई थी.

 

जब होश आया तो वह अस्पताल में थी. उसके असंख्य मित्रों की चिन्तातुर दृष्टि उसे सहसा फिर दुर्बल बना गई. वह जीवित रह गई इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता था? निश्चय ही उसके अन्तरंग मित्र भजन को ढूंढ़ते रहे होंगे.

 

क्या कहेगी अब वह उनसे? पत्नी की ऐसी दुखभरी अवस्था में, उसे ख़बर करने के लिए उससे पता मांगेंगे, तो क्या वह उन्हें उस अरण्य का पता दे पाएगी? क्लान्तअवसन्न पलकों को, उसने अकारण ही मूंद लिया. चोट उतनी गहरी नहीं थी, ललाट पर सामान्यसा घाव था, बायें पैर की हड्डी में छोटीसी दरार गई थी, यह सचमुच ही दैवी कृपा थी कि उस जहाजसे विशाल ट्रक की टक्कर भी, उसकी नाज़ुक कार का बाल बांका कर पाई थी, स्वयं उसका ही.

 

उसके मित्रों ने ही कार की मरम्मत करा दी और पन्द्रह दिनों में वह स्वस्थ होकर घर लौट आई. इसी बीच मित्र उससे बारबार भजन का पता पूछते रहते,‘एक पत्र तो उन्हें लिखना ही चाहिए, तार आप भले ही दें! आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है! नौकर है, कोई आत्मीय! हमारा भी तो कुछ कर्तव्य है! भजन आएगा तो क्या कहेगा?’

 

नहींनहीं!’
आरती बड़े ही चातुर्य से उन्हें समझाबुझाकर शान्त कर देती,
आप लोग भजन को नहीं जानते! एक तो हार्ट का मरीज़ रह चुका है, मुझे कभी छींक भी जाती थी, तो पगला जाता था. इतने दिनों बाद तो बेचारे को एकान्त अध्ययन का अवसर जुटा है, मैं उसका पता नहीं दे सकती, और फिर, अब तो मैं एकदम ठीक हूं!’

 

कभीकभी उसका अद्भुत अभिनय स्वयं उसे ही अभिभूत कर देता. कौन कह सकता था कि एक महीने से, उसकी एकएक निद्राहीन रात्रि, शून्य वातावरण में सिसकते ही गुज़र गई है! उसकी भूख, प्यास, नींद सब कुछ, उसका नवीन संन्यासी अपने साथ ही हर ले गया था.

 

दिन तो दफ़्तर में कट जाता, सन्ध्या को वह द्वार बन्द कर भजन के एकएक कपड़े को घंटों तक सहलाती, सूंघती, सिसकती रहती. मित्रों को वह कब तक अपनी व्यर्थ कैफियत से फुसला सकती थी? एक दिन आधी रात को उसने अपना निर्णय ले ही लिया.

 

एक प्रयास को तो विधाता ने व्यर्थ कर दिया था, अब वह एक बार अपने दुर्भाग्य से फिर जूझेगी! जीवन में, आज तक उसने क्या कभी हार मानी थी? रातभर बैठकर उसने पति के गुरु से अपने वार्तालाप की भूमिका तैयार की क्याक्या कहना होगा, कैसे कहना होगा, सबकुछ उसने अपनी डायरी में नोट किया और जब दफ़्तर जाने लगी, तो पतिसन्धान के लिए निकाली गई अपनी साड़ी भी मैंचिग ब्लाउज, पर्स के साथ पलंग पर सजा गई.

 

एक ज़रूरी मीटिंग के चक्रव्यूह से, जब वह निकली तो सन्ध्या हो गई थी. घर लौट स्वयं चाय बनाने, मुंहहाथ धोने में प्रगल्भा सन्ध्या और प्रगाढ़ हो गई थी. तेज़ी में कार ड्राइव करने पर भी गंतव्य स्थान तक पहुंचने में उसे पैंतालीस मिनट लग गए थे. गाड़ी उस गहन अरण्य में जा नहीं सकती थी.

 

पास ही अरहर के खेत के साये में गाड़ी लॉक कर, वह उतरी तो कलेजा धड़क रहा था.

क्या पता, भजन के गुरु अपने शिष्य के साथ डेराडंडा उखाड़ किसी और अरण्य में चले गए हों! जोगी और सांप का क्या कोई घर होता है! वह हमेशा अपनी टार्च साथ रखती थी, किन्तु उस दिन पहली बार, मानसिक अशान्ति ने उसे ऐसा विभ्रान्त कर दिया था कि वह टार्च साथ रखना भी भूल गई थी.

 

बड़ेबड़े काशगुच्छ, बारबार उसे उलझा रहे थे. उधर एक कंटीली झाड़ी बौराए कुत्तेसी उसकी साड़ी की सुनहरी जरी में उलझ गई. उसे छुड़ाने लगी तो गोखरू कांटों का गुच्छेकागुच्छा पूरी हथेली की खाल उधेड़कर रह गया. विवशता और खीझ के आंसू उसकी आंखों में छलक आए. आज भजन ऐसी मूर्खता नहीं करता और इस भंड स्वामी के चक्कर में नहीं पड़ता तो प्रदेश की वह वरिष्ठ अफ़सर उन अभागे जंगली कांटों में ऐसे उलझती!

 

हाथ के कांटे निकाल, वह फिर आगे बढ़ी. दूरदूर तक फैले गहन अन्धकार के निःसीम शून्यसागर के बीच, वह तुच्छ तरुणीसी ही डगमगाती खड़ी थी कि बड़ी दूर टिमटिमाती एक बत्ती के क्षीण आलोक ने, उसे आश्वस्त किया. निश्चय ही, यह उस मूर्ख के आश्रम की बत्ती होगी!

 

उसका अनुमान ठीक ही था. एक लम्बीसंकरी निष्पत्र यूक्लिप्टस वृक्षों की परिधि पार कर, वह आश्रम के द्वार तक पहुंची और ठिठककर खड़ी रह गई.

 

अश्वत्थ के मोटे तने के पीछे दुबकने में उसने फिर विलम्ब नहीं किया. इतने दिनों बाद उस प्राणप्रिय चेहरे को अचानक देख, वह क्षणभर को अपना मानसिक सन्तुलन ही जैसे खो बैठी थी! फूस की छाई झोंपड़ी के गोबर से लिपे प्रांगण में धधकती धूनी की रक्तिम लपटों में ताम्रवर्णी बने, उस चेहरे को एक़दम ही अपरिचित बना दिया था.

 

एक ही महीने में उस सुदर्शन चेहरे की कैसी गत बन गई थी! जिन बालों को वह स्वयं शहर के सबसे महंगे सैलून में जाकर, अपने निर्देशन में कटवातीछंटवाती थी उनकी रूखी लटों पर राख उड़ रही थी. शरीर पर कपड़े का चीथड़ा भी नहीं था.

 

हाथ में पकड़ी चिलम के संकीर्ण मुख में, वह धूनी से अंगारे रखता फूंकता जा रहा था. नग्न औघड़ शरीर पर ही नहीं, सुचिक्कन कपोलों पर भी राख की मोटी तह थी. जिन रेशमी जुल्फ़ों को विदेशों से आयात की गई क्रीम से संवारती थी, उन पर जैसे मुट्ठीभर राख अभीअभी बिखेरी गई थी. लगता था वह कच्ची मिट्टी के ढेर में किसी नादान गदहे की भांति लोटपोटकर उठ बैठा है. धधकती चिलम को होंठों से लगा, दम खींचते ही फिर वह बुरी तरह खांसने लगा था.

 

देख रहा है, बेटा केवलानन्द! महीनाभर हो गया, पर यह रहा बौड़मकाबौड़म! अभी तक सप्तमी का दम लगाना भी नहीं सीख पाया! पहला कश खींचते ही, ससुरा खांसतेखांसते औंधिया जाता है. लौंडिया है रे क्या? हीहीहीही!’ गुरु की उस वीभत्स अश्लील हंसी को सुनते ही, आरती भय से ठंडी पड़ गई.

बापरेबाप! जैसी भयंकर हंसी थी वैसा ही भयानक चेहरा भी! नग्नदिगम्बर, सारे बदन में राख का प्रलेप, ऊंची उठी उलझी जटाओं के उत्तुंग उभार को फिर गुरु नेबम!’
बम कर खोल, लम्बी लटों की यवनिका अपने नग्न स्कन्धों पर बिखेर दी. भजन के हाथ से चिलम छीन वह फिर अपनी लाल अंगारेसी आंखें ललाट पर चढ़ा ज़ोरज़ोर से कश खींचने लगा.
ले रे भजनन्द, ऐसे कश खींच, समझा?’

 

अनेक दुर्द्धर्ष सचिवों से मोर्चा लेनेवाली, अपनी अद्भुत प्रतिभा से पुरुष सहकर्मियों को सदैव पराजित करनेवाली अपराजिता आरती, गुरु की गर्जना सुन जिस पीपल के नीचे खड़ी थी, उसी के निरीह पत्तेसी ठक्ठक् कांपने लगी.

 

रामदासी!’ गुरु ने हांक लगाई,‘बाहर और इस छोकरे को जरा चिलम पीना सिखा! आए हैं ससुर वैरागी बनने, कलेजा है पिद्दी का!’ रामदासी आकर भजन के पीछे हंसती खड़ी हो गई. गेरुआ ऊंची बंधी धोती का फेंटा, उसके सुडौल वक्षस्थल का महाऔदार्य से प्रदर्शन करता, उसकी भव्य ग्रीवा से लिपटा था.

 

वन्यमृगी केसे चपलआयत नयनों से परिहास की असंख्य किरणें फूट रही थीं. उन्नत नासिका के नीचे, होंठों की गढ़न ही शायद ऐसी थी कि लगता था निरन्तर किसी का उपहास करती, उसे अपदस्थ कर रही हो! नाममात्र को धारण किए गए संक्षिप्त परिधान के लिए उस श्यामल चेहरे पर किसी भी प्रकार का अप्रतिभ भाव नहीं था.

 

सहज सिद्ध अधिकार से उसने फिर वहीं बन्द अधरों की रहस्यमयी मुस्कान के साथ, गुरु के हाथों से चिलम ली और बड़ी ही स्वाभाविक अन्तरंगता से भजन के पास बैठकर, उसे चिलम पकड़ना सिखाने लगी.

 

उस रससिक्त शिक्षा के बीच, फिर उस गुरु के उस दूसरे संडमुसंड नंगधड़ंग चेले केवलानन्द ने क्या कहा, वह सुन नहीं पाई; पर लावण्यमयी रामदासी वैराग्य की नींवें ढहाती चिलम सहित भजन के कन्धों पर ढुलक गई.

 

आरती का आहत नारीत्व सहसा चोट खाई नागिनसा ही फन उठाकर फुफकार उठा. वह तेज़ी से बढ़ती धूनी की रक्तिम धूम्ररेखा को चीरती बिना किसी की ओर देखे, भजन के सामने तनकर खड़ी हो गई.

 

भजन, चलो, घर!’
उसे आज भी अपने अनुशासन पर दृढ़ विश्वास था. एक बार आंखें चार होने पर भजन अब भी उसके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकता था.

 

पर पति की गांजे के दम से आरक्त दृष्टि धूनी की धूम्ररेखा पर ही निबद्ध थी. उसने एक बार भी आंखें उठाकर आरती की ओर नहीं देखा. चिलम एक जलती लकड़ी से टिका, वह एक लम्बे चीमटे से आग को अकारण ही ऐसे उभाड़ने लगा, जैसे पास खड़ी जीवन सहचरी को उसने देखा ही हो.

 

भजन, घर चलो!’ इस बार के अस्फुट आर्तस्वर में केवल समर्पण था, अनुशासन नहीं!

घर?’ भजन का कंठस्वर भी गांजे के दम ने बदल दिया था?

उसमें अब कोमलता नहीं, तीव्र षड्ज की तीखी खनक थी.

मेरा कोई घर नहीं, हाहाहाहा!’ आरती का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था.

 

क्या कहते हो, भजन, तुम्हारा कोई घर नहीं?’ इस बार शोकाकुला आरती की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी. उसे अपनी विवशता इतनी असह्य कभी नहीं लगी थी.

 

पहली बार उसे लगा कि उसके बाह्य आवरण के बीच उसकी ऊंची नौकरी, उसकी प्रतिभा, उसकी ख्याति के बीच केवल पत्नीभाव की ही धारा निरन्तर बहती रही थी.

उसी धारा में उसके जीवन की सार्थकता थी, जिसे वह आज तक एक क्षीण धारा ही समझती रही थी. वह आज उसके विवेक, संयम, लज्जा, बाह्याडम्बर के रोडे़पत्थरों को ठेलती, फूटकर बाहर निकल पड़ी थी. संसार का कोई भी समर्थ बांध अब उसके वेग को अवरुद्ध नहीं कर सकता था.

 

उसी क्षण, रामदासी चिलम
उठाने झुकी, दूर से देखने पर वह जितनी आकर्षक
लगी थी, नैकट्य
से उसके प्रस्फुटित यौवन का आकर्षण आरती को उतना ही घातक
लगा. निश्चय ही यही दुराचारिणी उसके
निर्बुद्धि पति के विनिपात की मूल उत्सभूमि थी. क्रोध से आरती
की नासिका का अग्रभाग फड़क उठा.

 

तमतमाया चेहरा फिर कठोर हो गया, क्षणभर पूर्व क्या इसी मायाविनी के पाश में बंधने भजन, सिद्धार्थ बना अपने सुसज्जित वातानुकूलित भवन, सुशिक्षिता अफ़सर पत्नी के सुदीर्घसुखद साहचर्य को भुला इस बीहड़ अरण्य में भटक गया था!

 

उस अपरिचिता, स्वयंवृत्त सौत के प्रति उसे घृणा ही अधिक हुई थी, क्रोध कम.

तुम यहां क्या करती हो?’
उसने उस रोबीले स्वर में पूछा, जिसमें वह कभीकभी अपने चपरासीफर्राशों को सचिवालय की बेंचों पर ऊंघने के लिए डपटती थी.

 

किन्तु, उस प्रश्न की कड़क पद्मपत्र पर पड़े जलबिन्दुसी ही व्यर्थ ढलक गई! जिससे प्रश्न पूछा गया था, उसकी निर्भीक दृष्टि में, किसी को कुछ समझनेवाले दर्प की झलक ही उभर आई थी.आरती के प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही वह अबाध्य छोकरी चिलम की राख वहीं झाड़ती रही.

इस बार आरती बौखलाकर, पत्थर की मूर्तिसे जड़ बैठे, उस औघड़ गुरु पर बरस पड़ी,‘तुम जैसे भंड स्वामियों को मैं ख़ूब जानती हूं. एक बार आज़मगढ़ में, ऐसे ही आश्रम में मैंने छापा मारकर सेरों अफीम बरामद की थी. जवान छोकरियों को अपने इस आश्रम में बटोर, तुम कैसी दीक्षा दे रहे हो, इस छोकरी को देखते ही समझ गई हूं.’

 

अब तक, निर्लिप्तविरोध भाव से अडिग बैठी अवधूत की राख से ढकी पलकें सहसा खुल गईं. दहकते अंगारेसी दृष्टि में यदि जलाने की शक्ति होती, तो आरती सक्सेना उसी क्षण भस्म होकर राख हो जाती.

 

माई!’
क्रोधी गुरु की आंखें ललाट पर चढ़ गईं. लम्बा चिमटा उसने ज़ोरज़ोर से ज़मीन पर ऐसे पटका जैसे क्रुद्ध, अविवेकी भीड़ को डराने, कोई पुलिसअधिकारी हवा में गोली चला रहा हो.

 

जानती है तू, किससे बातें कर रही है?’

हां, हां, जानती हूं!’ उत्तेजित आरती बुरी तरह हांफने लगी थी,‘एक ऐसे धूर्त चोट्टे से, जो लोगों की सुखी गृहस्थी उजाड़, योग में नहीं भोग में लिप्त है!’

 

निकल जा यहां से!’
भजन का गुरु अब अपनी पूरी वीभत्स नग्नता का निर्लज्ज प्रदर्शन करता, चिमटे सहित खड़ा हो गया. किन्तु तेजस्विनी निर्भीक आरती भी सिंहनीसी ही तनी खड़ी थी.

 

ठीक है, भजन!’
उसने नग्न गुरु की ओर दृष्टिपात किए बिना ही, अपने पति को लक्ष्य कर अपना अन्तिम अग्निवाण चलाया,‘तुम शायद भूल गए हो कि क़ानून की दृष्टि में तो तुम अभी भी मेरे पति हो. तुम्हें जाना ही है तो क़ायदे से, क़ानून को सन्तुष्ट कर ही जा सकोगे, समझे? और उस क्रिया में तुम्हारे इस ढोंगीपाखंडी गुरु और तुम्हारी इस संगिनी को किस आश्रम की हवा खानी होगी, वह शायद मुझे बताना नहीं पड़ेगा!’

 

इतना कहकर वह फिर तेज़ी से पलटकर निकल गई थी. घर लौटते ही उसकी गर्वोक्ति उसे स्वयं ही व्यर्थ लगने लगी. क़ानून की शरण में जाने का अर्थ था अपने गन्दे कपड़ों की मलिन पोटली सबके सामने खोलना.

 

काश, वह मां होती तो उसके जीवन की रिक्तता आज इतनी असह्य नहीं होती. विवाहित जीवन की अनेक स्मृतियों के दंश उसे सहसा पागल बना गए! विधाता उसे यह किन पूर्वकृत पापों का दंड दे गया था?

 

एक बात वह ख़ूब समझ गई थी, गुरु और नवीन वैराग्यसहचरी की उपस्थिति में, उसके भोले पति का प्रत्यावर्तन असम्भव था. पर जैसे भी हो, एक बार उसे एकान्त में ही घेरना होगा. बहुत सम्भव था कि उसकी दी गई धमकी से त्रस्त हो गुरु महाराज, रातहीरात में चेलेचेलियों सहित कहीं चल दें.

 

यही उधेड़बुन रात के तीन बजे आरती को फिर उसी अरण्य में खींच ले गई.नक्षत्रखचित व्योम के नीचे, वह उसी अश्वत्थ से लिपटी, व्यर्थ अभिसारिका बनी खड़ी रही. कुटिया के मुंदे द्वार जब खुले, तो वह एक पल को थरथराकर वहीं बैठ गई. ओह, भजन ही था? यह अलमस्त चाल, लम्बेगोरे हाथ में लोटा और मुख में दतौन!

 

वर्षों पूर्व के देहातीहनीमून की स्मृति एक बार फिर आरती को बौरा गई. जब वह नयीनयी ब्याह कर आई तो भजन ऐसे ही तो दिशाजंगल जाया करता था! आरती ने अपने को और भी पीछे दुबका लिया, भजन लोटा लिए उसी अलमस्त चाल से नदी की ओर बढ़ता गया.

 

पीछेपीछे दबे पांव रखती जीवनसहचरी भी चली रही थी यह उसने नहीं देखा. कार के पास पहुंचकर वह एक क्षण को ठिठक कर खड़ा रह गया! तभी आरती ने बिजली की तड़प से, उसके हाथ से लोटा छीन, दूर पटका और हाथ खींचकर उसे कार में बिठा, हवा की गति से कार भगा दी!

The End

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Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.
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