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शेख़ इब्राहिम ‘ज़ौक़’: बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद शायर जिससे ग़ालिब करते थे अदबी जंग

आज हमारे बीच न तो ग़ालिब हैं और न ही ज़ौक़(1789-1854)  लेकिन उनके किस्से और असरार हमेशा हमें राह दिखाते
रहेंगे.

 

न ख़ुदा से शिकवा, न
बंदों से शिकायत।
शेख़ इब्राहिम ‘ज़ौक़ की उम्र भर की पूँजी
बस शेर गोई थी। लेकिन बदक़िस्मती से उनका पूरा कलाम भी हम तक नहीं पहुंच सका। ग़ज़ल की
पाण्डुलिपि वो तकिये के गिलाफ़, घड़े या मटके में डाल देते थे।
 

Poet Sheikh Ibrahim ‘Zauque’

देहांत के बाद उनके शागिर्दों ने कलाम सकलित किया और काम
पूरा न होने पाया था कि 1857 ई. का ग़दर हो गया। ज़ौक़ के देहांत के लगभग चालीस साल बाद
उनका कलाम प्रकाशित हुआ।

कहते हैं कि ज़ौक़ और ग़ालिब के बीच
जो जुबानी जंग थी उसकी वजह थी “जफ़र कि उस्तादी”

दर-असल बहादुर शाह
जफ़र को शायरी का जूनून जागा और वो अपने लिए एक उम्दा उस्ताद की तलाश करने लगे. ग़ालिब
को उम्मीद थी कि बादशाह जफ़र उन्हें ही अपना उस्ताद बनाएंगे लेकिन ज़ौक़ बाजी मार गए.
जिसके बाद ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच में अदबी जंग शुरू हुई.

 

यूँ तो जब भी शायरी का ज़िक्र होता है तो सबसे पहले मिर्ज़ा
ग़ालिब का ही नाम ज़ेहन और जुबान पर आता है. लेकिन उर्दू अदब में कुछ ऐसे भी शायर हुए
हैं जिनका सम्मान खुद ग़ालिब भी करते हैं.
 

Mirza Ghalib

यहाँ हम बात कर रहे हैं ग़ालिब के समकालीन शायर शेख़ इब्राहीम
ज़ौक़ की. कहते हैं की मिर्ज़ा ग़ालिब और ज़ौक़ के दरमियान एक जुबानी जंग थी. लेकिन इस
जुबानी जंग के बाद भी दोनों के दिलों में एक दूसरे के लिए कोई खटास नहीं थी.

 

ज़ौक तो शायरी में किसी से कम थे और मुफ़लिसी में. पर उन्होंने तो कभी ग़ालिब की तरह अपनी ग़ुर्बत का ढोल पीटा और वजीफ़े के लिए हाथपैर मारे

 

ज़ौक़, यानी शेख़ मुहम्मद इब्राहिमज़ौक़. जी, हां. वही, बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद. उनके बारे में शायरी के किसी शौकीन से बात कर लीजिए. बेसाख़्ता वह यही कहेगा, ‘अरे, वोज़ौक़! वोजिनकी ग़ालिब से अमूमन अदावत रहती थी.’

 

या उनके चंद शेर जो उसे ज़ुबानी याद होंगे, आपको पेश कर देगा. और फिर, बात या तो ग़ालिब पर जायेगी या मुबाहिसा कुछ और ही हो जाएगा.

 

ज़ौक़ का तार्रूफ़ इतना मुख़्तसर नहीं हो सकता. उन्होंने बहुत लंबा सफ़र तय किया था. आइये जानें कैसे थे उस्ताद ज़ौक़, कैसी थी उनकी शायरी, ज़िंदगी और ग़ालिब के साथ उनकी तनातनी के क़िस्से.

 

ज़ौक़ के वालिद शेख़ मुहम्मद रमज़ान एक अदना सिपाही थे जो दिल्ली में काबुली दरवाज़े के पास रहते थे.

 

इब्तिदाई तालीम हाफिज़ ग़ुलाम रसूल के मदरसे में हुई जो ख़ुदशौक़के तख़ल्लुस से शायरी करते थे. संभव है कि शेख़ इब्राहीम ने उनसे मुतास्सिर होकर अपना तख़ल्लुसज़ौक़रख लिया हो.

 

मियां इब्राहीम के दोस्त मीर काज़िमबेक़रार उस्ताद शाह नसीर के शागिर्द थे. इब्राहीम भी उनकी सरपरस्ती में चले गये. शाह नसीर को इब्राहीम के पैर पालने में ही दिख गए थे.

 

पर वे अपनी औलाद को आगे बढ़ाने की जुगत में लगे रहे. इब्राहीम को जल्द ही ये बात समझ में गई. उन्होंने उस्ताद से तर्के ताल्लुकात कर (संबंध तोड़कर) महफ़िलों में शेर पढ़ना शुरू कर दिया और जल्द शोहरत भी हासिल हो गई.

Bahadur Shah Zafar

अब उनकी मंज़िल थी कि उनकी शोहरत शाही क़िले तक पंहुचे और वहां एंट्री मिले. कुछ ताल्लुकात और कुछ मशक़्क़त और बाकी क़िस्मत, यह भी हो गया. उन दिनों अकबर शाह (दूसरा) गद्दीनशीं था. उसे तो शायरी का शौक़ था.

 

हां, उसका बेटा अबू ज़फर ज़रूर गहरी दिलचस्पी रखता था. कुछ ऐसे हालात बने कि अबू ज़फ़र ने इब्राहीम उर्फ़ ज़ौक़ को अपना उस्ताद क़ुबूल किया. इसी दौरान उन्हेंख़ाकानीहिंद का ख़िताब मिला. पर अकबर शाह नहीं चाहता था कि अबू ज़फ़र अगला सुलतान बने. 

Akbar Shah 2nd

इधर, ज़फर के बादशाह बनने का मतलब था ज़ौक़ का प्रमोशन. चेले और उस्ताद की क़िस्मत बुलंद थी और जल्द ही, जैसा दोनों चाहते थे, हो गया. अबू ज़फर, बहादुर शाह ज़फ़र बन गया और शेख़ इब्राहीम उस्तादज़ौक़’ कहलाये जाने लगे.

 

ग़ालिब से कम फक्कड़ नहीं थे ज़ौक़

यूं तो ज़ौक बादशाह के उस्ताद थे, पर क़िले के अंदर की चालबाज़ियों के चलते उसकी रहमत से मरहूम रहे. उनकी तनख्वाह महज़ चार रुपये महीना थी और मुफ़लिसी उन पर भी कहर बरपाती रही.

 

(ख़्याल रहे कि उस वक़्त तक ख़ुद ज़फ़र का वज़ीफ़ा 500 रुपये माहाना था),जो बाद मुद्दत 100 रुपये हो गया। ज़ौक़ धनसम्पत्ति के तलबगार नहीं थे, वो बस दिल्ली में माननीय बने रहना चाहते थे। उनको अपने देश से मुहब्बत थी। सादगी इतनी कि कई मकानात होते हुए भी उम्र भर एक छोटे से मकान में रहते रहे.

 

पर उन्होंने ग़ालिब की तरह तो कभी अपनी ग़ुर्बत का ढोल पीटा और वजीफ़े के लिए हाथ पैर मारे. ज़फर इस हक़ीक़त से बेख़बर थे और ज़ौक़ ने उन्हें बाख़बर किया.

 

ज़ौक़ ग़ालिब की तरह ऐबीले और दिलफेंक भी नहीं थे. वे सादगी पसंद थे. एक छोटे से मकान में रहते जिसका अहाता इतना छोटा कि बमुश्किल एक चारपाई पाए. हवेली के हुजरे (कमरे) कम और तंग थे. फिर भी उन्होंने एतराज़ किया.

 

उस्तादी कांटों का ताज थी

उस्तादी तो मिलना शान की बात तो थी पर मुश्किलें भी कम नहीं थीं. ज़फर को कोई मिसरा पसंद जाता, तो ज़ौक़ को उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती. मिसाल के तौर पर एक दफ़ा ज़फर, ज़ौक़ औरमिर्ज़ाफ़ख़रु तालाब के किनारे सैर कर रहे थे.

 

फ़ख़रु
ने मिसरा
उछाल दिया
किचांदनी
देखे अगर
वह महजबीं
तालाब पर और
ज़ौक़ को
कहा कि
उस्ताद इसे
शेर बनायें.
ज़ौक़ ने
फ़ौरन मिसरा
लगायाताबेअक्सेरुख़
से पानी
फेर दे
मेहताब पर.’

 

बादशाह को किसी राह चलते कोई जुमला पसंद गया तो उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी ज़ौक़ की. हज़ारों टप्पे, ठुमरियां, गीत, ग़ज़लें ऐसे ही बनीं और बादशाह की भेंट चढ़ गईं. उनका यह शेर उनकी मुश्किल को बख़ूबी बयान करता है:

ज़ौक़ मुरत्तिब क्योंकि हो दीवां शिकवाएफुरसत किससे करें

   बांधे हमने अपने गले में आपज़फ़र के झगड़े हैं

शायद यही वजह भी रही कि जीतेजी वो कभी अपना दीवान नहीं छपवा पाए. और, बारहा (कई बार) ऐसा हुआ कि कभी ज़फ़र ने ज़ौक़ का कोई मिसरा सुन लिया तो उसी ज़मीन पर एक ग़ज़ल बना ली और भेज दी उनके पास इस्लाह (सुधार) के लिए.

 

मरता क्या करता वाली बात. बेचारे ज़ौक़ को अपनी शायरी उनके नाम करनी पड़ती. इस वजह से ज़ौक़ ज़फर से अपनी शायरी छुपाते थे. जानकारों का कहना है कि ज़फर के जो चार दीवान शाया हुए हैं उनमें ज़ौक़ की शायरी की भरमार है. अब समझ आता है कि क्यूं फैज़ अहमद फैज़ सरीखे शायर ज़फर को शायर नहीं मानते थे.

 

ज़ौक़ की शायरी और शख़्सियत के अलहदा रंग

फ़ारसी तरकीबों के सिलसिले में ग़ालिब और मोमिन का नाम अक्सर आता है. ज़ौक़ ने ज़्यादातर उर्दू में लिखा. और उनकी उर्दू की शायरी अपने समकालीन ग़ालिब या मोमिन से किसी दर्ज़ा कमतर नहीं है.

 

लफ़्ज़ों के सही इस्तेमाल और नज़्म की रवानगी में उनका सानी नहीं था. और उनका कमाल ख़ूबसूरती की बयानबाज़ी में नज़र आता है. इनके कलामों में सादा ज़ुबानी, हुस्नपरस्ती और मुहब्बत की कशिश बाकमाल नज़र आती है. इसकी बानगी चंद अशआर हैं.

आना तो खफ़ा आना, जाना तो रुला जाना

  आना है तो क्या आना, जाना है तो क्या जाना’

 

क्या आये तुम जो आये घड़़ी दो घड़ी के बाद

   सीने में सांस होगी अड़ी दो घड़ी के बाद

 

   मैं वो मजनूं हूं जो निकलूं कुंजेजिंदा छोड़कर

   सेबेजन्नत तक खाऊं संगेतिफ़ला छोड़कर

 

   मर्ज़इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

   न दवा याद रहे और दुआ याद रहे

   तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे

   न ख़ुदाई की हो परवा ख़ुदा याद रहे

 

ज़ौक़ बड़े अच्छे गणितज्ञ और भविष्यवेत्ता भी थे. उन्हें कुण्डलियां बनाना आता था. मौसिकी के ख़ासे जानकार, तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) के शैदाई, तारीख़ में उनकी गहरी पैठ थी. याददाश्त इतनी तेज़ कि एक बार जो पढ़ लिया वह ज़हन पर चस्पां हो गया. बताते हैं उन्होंने उस्तादों के लगभग 350 दीवान पढ़े थे.

 

ज़ौक़ बनाम ग़ालिब

ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन की हरचंद कोशिश यह रहती कि बाक़ियों से कैसे आगे निकला जाये और बादशाह की आंख का नूर बना जाए. यह तय है कि ग़ालिब इन दोनों पर भारी पड़ते थे, पर ज़ौक़ कमसेकम उर्दू के कलामों में ग़ालिब से कमतर नहीं साबित होते थे.

ग़ालिब और ज़ौक के बीच अदबी जंग

मशहूर क़िस्सा है कि बादशाह और उनकी अज़ीज़ा बेगम ज़ीनत महल के बेटे मिर्ज़ा जवां बख़्त के निकाह पर मिर्ज़ा नोशा (मिर्ज़ा ग़ालिब) को बख़्त का सेहरा पढ़ने का ज़िम्मा मिला. वहीं ज़फर की ख्व़ाहिश थी कि ज़ौक़ इस काम को अंजाम दें. ख़ैर, तय हुआ कि जवां बख्त का सेहरा ज़ौक़ और गालिब दोनों ही लिखेंगे.

ग़ालिब ने सेहरे के मक़ते (आखिरी शेर) में कहा

हम सुख़नफहम हैं गालिब के तरफ़दार नहीं

  देखें इस सहरे से कह दे कोई बढ़कर सेहरा.

 

महफ़िल में ये साफ़ ज़ाहिर हो गया कि ग़ालिब ने ज़ौक़ पर तंज़ कसा है. बादशाह ज़फर ज़ौक़ की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोले कि वो भी फ़ौरन से पेश्तर इसी मौज़ूं पर कुछ फ़रमाएं.

 

आख़िर बादशाह और उनकी इज्ज़त का सवाल जो ठहरा. क्या करें, बादशाह की उस्तादी पकड़बुलावे की नौकरी है. ज़ौक़ ने भी ज़फर को मायूस किया. उन्होंने कहा,

 
जवां बख़्त
!
मुबारक तुझे
सर पर
सेहरा

  आज है
यम्नोसआदत
का तेरे
सर पर
सेहरा

इसके मक़ते में उन्होंने ग़ालिब की बात का यूं जवाब दिया.

जिसको दावा हो सुख़न का ये सुना दो उनको

  
देख इसे कहते हैं सुख़नवर सेहरा

कहते हैं उस दिन ज़ौक़ ने महफिल लूट ली थी. ज़फ़र ग़ालिब की इस बेहयाई से ख़ासे नाराज़ भी हुए. ग़ालिब ने अपनी सफ़ाई भी पेश की थी. पर यह क़िस्सा फिर कभी.

इसी अदावत पर एक और शेर है

हुआ पर हुआ मीर का अंदाज़ नसीब

ज़ौक़ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

 

हालांकि उनकी ग़ालिब से तनातनी कभी इस तक हद हुई कि एक दूसरे को शर्मसार करने की नौबत आये और इसमें भी ज़ौक़ का कमाल ज़्यादा था.

 

जहां ग़ालिब नए ख़यालों पर लिखना पसंद करते और हुस्नइश्क़ पर कम तो वहीं ज़ौक़ का कमाल ख़ूबसूरती की चुस्त और दिलचस्प बयानी में था.

भावना के मैदान में उन्होंने कम ही हाथपैर मारे हैं. ज़ौक़ आकारवाद के साधक थे, और ग़ालिब ज़हनी तलातुम (भंवर) में डुबकी लगाते रहते थे और तसव्वुफ़ की कश्ती से उसे पार करते. पर बात यह भी है कि कहीं कहीं दोनों एक दूसरे के कायल भी थे.

 

ग़ालिब ने एक दफ़ा कहीं यह शेर सुना:

अब तो घबरा के कहते हैं कि मर जायेंगे,

   मर के भी चैन पाया तो किधर जायेंगे.’

जब उन्हें मालूम हुआ कि यह ज़ौक़ का है, तो बारहा दोस्तों की महफ़िल में इसे गुनगुना देते. वहीं, ज़ौक़ ने कभी कहा था कि मिर्ज़ा (ग़ालिब) को ख़ुद अपने अच्छे शेरों का पता नहीं है, वे उनका यह शेर सुनाया करते थे;

  दरियामआसी तुनुकआबी से हुआ ख़ुश्क

   मेरा सरेदामन भी अभी तर हुआ था.

 

दिल्ली से मुहब्बत

ज़ौक़ को दिल्ली से दिली मुहब्बत थी. वरना क्या बात थी कि वे भीदाग़ दहलवी या मीर के जैसे वहां से दस्तअफ्शां (जगह छोड़ना) होते? क़िस्सा है कि दक्कन के नवाब ने अपने दीवान चन्दूलाल के हाथों उन्हें चंद ग़ज़लें इस्लाह (सुधार) के लिए भेजीं और साथ में
500
रुपये और ख़िलवत देकर वहां आने का न्यौता दे डाला.

ज़ौक़ ने ग़ज़लें तो दुरस्त कर दीं पर ख़ुद गए. जो ग़ज़ल इस्लाह करके भेजी थी उसका मक़ता था

आजकल गर्चे दक्कन में है बड़ी कद्रे सुखन

  कौन जायेज़ौक़पर दिल्ली की गलियां छोड़कर

 

दिल्ली की गलियां तो छोड़ीं, पर हां, वे
16
नवंबर, 1854 को दुनिया से कूच कर गए. उनका शेर था

  लायी हयात आए क़ज़ा ले चली चले

      अपनी ख़ुशी आये, अपनी ख़ुशी चले

इंतकाल से तीन घंटे पहले उन्होंने यह शेर कहा था.

  कहते हैंज़ौक़ आज जहां से गुज़र गया

  क्या ख़ूब आदमी था, ख़ुदा मग़फ़रत करे

 

जीते जी एक भी दीवान नहीं छपा. जो कुछ भी लिखा उसमें से बहुत कुछ ज़फ़र को दे दिया. बाक़ी जो बचा,
1857
के ग़दर की भेंट चढ़ गया और साथ में उनका एकलौता बेटा भी जाता रहा.

 

जो रह गया, उसका हिसाब यह है – 167 ग़ज़लें, 194 अकेले शेर, 24 क़सीदे, 1 मसनवी, 20 रुबाइयां, 5-6 क़ते, 1 सेहरा और कुछ अधूरे क़सीदे. याद आता है उनके प्रतिद्वंदी ग़ालिब का शेर.

चंद तस्वीरें बुतां, चंद हसीनों के ख़तूत

  बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला

 

हम यहां पर इस महान शायर के 5 शेर पेश कर रहे हैं। 

1-अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे

 मर गये पर लगा जी तो किधर जायेंगे

 

2-‘ज़ौक़जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला

 उनको मैख़ाने में ले लाओ, संवर जायेंगे

 

3-क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद

  सीने में होगी सांस अड़ी दो घड़ी के बाद

 

4-मर्ज़इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

 न दवा याद रहे और दुआ याद रहे

 

5-ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ

   क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया

The End





  

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Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
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