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हसरत मोहानी: बेड़ियों में कैद मोहानी ने अलीगढ़ से नैनी जेल जाने के दौरान ट्रेन में ही ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’ग़ज़ल लिखी. जिसने दिया ‘इंकलाब जिंदाबाद का नारा और मांगी मुकम्मल आजादी.

by Engr. Maqbool Akram
April 28, 2022
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बहुत सारे हिंदुस्तानी शायर ऐसे हुए हैं, जिनकी क़लम ने अपनी ताकत पर भारतीयों को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहित किया मगर आज हम जिस आजादी के दीवाने की बात कर रहे हैं, वो शायर होने के साथ–साथ एक पत्रकार, राजनीतिज्ञ, स्वतंत्रता सेनानी और साझी विरासत के वाहक भी रहे।

 

 “इंक़लाब ज़िंदाबाद” का नारा देने वाले आज़ादी के सच्चे सिपाही मौलाना हसरत मोहानी (1875 –1951) का नाम आज़ादी के दीवानों के बीच बड़े सम्मान और फख़्र के साथ लिया जाता है।

 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, तो एक नई ज़िंदगी उनके इंतज़ार में थी. एक तरफ वतनपरस्तों की टोली थी, दूसरा ग्रुप खुदी में मस्त था, देश–दुनिया के मसलों से उसका कोई साबका नहीं था.

अपनी फ़ितरत के मुताबिक मोहानी वतनपरस्तों की टोली में गए. सज्जाद हैदर यल्दरम, क़ाज़ी तलम्मुज़ हुसैन और अबु मुहम्मद जैसी शख़्सियत उनके दोस्तों में शामिल थीं.

 

एएमयू में उस वक़्त आज़ादी के हीरो के तौर पर उभरे मौलाना अली जौहर और मौलाना शौकत अली से भी उनका वास्ता रहा. मौलाना हसरत मोहानी, पढ़ाई के साथ–साथ आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लेने लगे.

 

जहां भी कोई आंदोलन होता, उसमें पेश–पेश रहते. अपनी इंकलाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई.

 

मश्क़–ए–सुख़न और चक्की की मशक़्क़त

पढ़ाई पूरी करने के बाद, नौकरी चुनकर वह एक अच्छी ज़िंदगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना. पत्रकारिता और कलम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी–अदबी रिसाला ’उर्दू–ए–मुअल्ला’ निकाला.

 

मौलाना
हसरत मोहानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और बड़े शायर थे। वह संविधान सभा के सदस्य भी रहे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में भी मोहानी साहब का योगदान रहा। उन्नाव के मोहान कस्बा में पैदा हुए सैयद फज्लुल्हसन के नाम के साथ उनके पैतृक घर मोहान का नाम ऐसा लगा कि अपना तखल्लुस ‘हसरत मोहानी’ रख लिया।

 

उर्दू अदब के आकाश का चमचमाता सितारा हसरत मोहानी, एक ऐसा शायर जिसकी ज़िंदगी इश्क़ और इंक़लाब के दो पाटों के बीच बसर हुई।

 

मादर–ए–वतन
से बेपनाह मोहब्बत करने वाले मोहानी ने ‘चुपके–चुपके रात–दिन आंसू बहाना याद है’, जैसी मशहूर ग़ज़ल लिखी तो हिन्दुस्तान को गोरों की गुलामी से आज़ाद करवाने की खातिर ‘इंकलाब–जिंदाबाद’ जैसा कालजयी नारा गढ़ा।

 

 जंग–ए–आज़ादी के इस सच्चे मुजाहिद ने मुल्क को आज़ाद कराने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। कई बार जेल गये लेकिन घुटने नहीं टेके।

 

मोहानी उन लोगों में से नहीं थे जो किसी सांचे में ढल पाते, उन्होंने वक्त का सांचा बदला–

कुछ लोग थे कि वक्त के सांचों में ढल गये

कुछ लोग थे कि वक्त के सांचे बदल गये।

 

मज़हब के आधार पर मुल्क के तक़सीम की जबरदस्त मुख़ालफ़त करने वाले मोहानी ने पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकरा दी और आखिरी सांस तक यहीं रहे। इसी मिट्टी में दफ़्न हुए। हिन्दुस्तान के इस नायाब नगीने ने मथुरा, मक्का और मास्को को एक धागे में पिरो दिया।

 

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान गांव में 1 जनवरी, 1875 को पैदा हुये हसरत मोहानी का असली नाम था सय्यद फ़ज़ल–उल–हसन। पढ़ने–लिखने में बचपन से ही मेधावी थे। कम उम्र में ही शायरी का जुनून सिर पर सवार हो गया।

 

अपने ज़माने के मशहूर शायर तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी की शागिर्दी मिली। कलम धार पाती चली गयी। इधर, गोरी हुक़ूमत का सितम सिर चढ़कर बोल रहा था। हसरत मोहानी के भीतर बैठा शायर इस सितम के ख़िलाफ़ मुकम्मल आवाज़ बन बैठा।

 

बावजूद आज़ादी की दीवानगी ऐसी कि मिज़ाज पर कोई असर नहीं हुआ। अपनी तरह लिखते रहे। अपना रंग बनाए रखा। 1904-05 में ही कांग्रेस से जुड़ गये। बाल गंगाधर तिलक से उनका दिली लगाव था। वे उन्हें तिलक महाराज कहा करते थे।

 

यही वजह थी कि जब 1907 में तिलक ने कांग्रेस छोड़ी तो मोहानी भी उनके साथ हो लिये। वे मिज़ाजी तौर पर इंक़लाबी थे। अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता करना उन्हें तनिक पसंद नहीं था। वे साम्य के पक्षधर थे। खुद ही कहा भी है–

 

‘दरेवशी ओ इंक़लाब है मसलक मेरा

   सूफी मोमिन हूं इश्तेराकी मुस्लिम’

मोहानी का बगावती तेवर उनके अख़बार ‘उर्दू–ए–मोअल्ला’ में साया हुआ करता था। इसी अख़बार में उन्होंने ब्रिटिश नीतियों के ख़िलाफ़ एक लेख छापा, जिसके चलते उन्हें 1908 में गिरफ्तार कर लिया गया।

 

मोहानी को पहली बार जेल हुई। अलीगढ़ जेल भेजा गया। सजा के रूप में उन पर पांच सौ रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था, जिसे देने से उन्होंने साफ इंकार कर दिया। इसके बाद उन्हें अलीगढ़ से नैनी जेल भेज दिया गया।

कहा जाता है कि बेड़ियों में कैद मोहानी ने अलीगढ़ से नैनी जाने के दौरान ट्रेन में ही ‘चुपके–चुपके रात–दिन आंसू बहाना याद है’ जैसी ग़ज़ल लिखी थी, जो आगे चलकर काफी मशहूर हुई।

खैर, नैनी जेल में सख्त सजा के रूप में अंग्रेज जेलर ने मोहानी को एक मन गेहूं रोज पीसने का फ़रमान सुनाया। बावजूद वे नहीं टूटे। यहां भी इंक़लाबी शायरी जारी रखी। नैनी जेल में चक्की चलाते हुए ही उन्होंने लिखा था–

 

है मश्क़–ए–सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी

इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत‘ की तबीअत भी

 

जो चाहो सज़ा दे लो तुम और भी खुल खेलो

पर हम से क़सम ले लो की हो जो शिकायत भी

 

दुश्वार है रिंदों पर इंकार–ए–करम यकसर

ऐ साक़ी–ए–जाँ–परवर कुछ लुत्फ़–ओ–इनायत भी

 

दिल बस–कि है दीवाना उस हुस्न–ए–गुलाबी का

रंगीं है उसी रू से शायद ग़म–ए–फ़ुर्क़त भी

 

ख़ुद इश्क़ की गुस्ताख़ी सब तुझ को सिखा देगी

ऐ हुस्न–ए–हया–परवर शोख़ी भी शरारत भी

एक साल की सजा काटकर वे जेल से छूटे और फिर बगावत की राह पकड़ ली। अलीगढ़ और बाद में कानपुर में स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली। गोरों ने खूब सितम ढाया लेकिन मोहानी को नहीं बदल पाये। उनकी कलम नहीं रोक पाये। उन्हें गोरों का गुलाम होकर जीना पसंद नहीं था।

 

उनका एक शेर भी है–

हम कौल के हैं सादिक अगर जान भी जाती है

वल्लाह कभी खिदमत–ए–अंगे्रज न करते’।

ये मोहानी ही थे, जिन्होंने 1920 में पहली बार ‘इंक़लाब–जिंदाबाद’ का नारा दिया था। जंग–ए–आज़ादी के दौरान तो इस नारे ने अपना असर दिखाया ही, आज भी यह नारा हिन्दुस्तान ही नहीं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी आंदोलनों की जान है।

 

यही नहीं मोहानी ने ही सबसे पहले पूर्ण स्वराज का मसला उठाया था, जिसके चलते उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ा। 27 दिसंबर, 1921 को कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी–नेहरू जैसे नेताओं के सामने ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा।

 

हालांकि महात्मा गांधी सहित अन्य बड़े नेता तब डोमेनियन रूल के पक्ष में थे, लिहाजा मोहानी का प्रस्ताव पास नहीं हो सका। बाद में सब राजी हुए।

 

दरअसल, उन्हें गांधी की तरह बैठकर विमर्श करना पसंद नहीं था, वे लेनिन की तरह दुनिया हिला देने में यकीन रखते थे। लेनिन का भी उन पर काफी प्रभाव था। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में उनका अहम रोल रहा।

 

वे इसके फाउंडर मेंबर थे। मुस्लिम लीग के साथ भी जुड़ाव रहा, लेकिन कहीं भी अपने विचारों से समझौता नहीं किया। मुस्लिम लीग में रहते हुए जिन्ना की मुख़ालफ़त करते रहे। उन्होंने द्विराष्ट्र के सिद्धांत का पुरजोर विरोध किया।

 

1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मोहानी को भी शामिल किया गया। बाबा साहब आंबेडकर से भी उनका गहरा लगाव था। उनके साथ मिलकर उन्होंने हिन्दुस्तान को संवारने के लिये जो बन पड़ा, किया। यकीनन, मोहानी के लिये मादर–ए–वतन से बढ़कर कुछ भी नहीं था।

 

भगवान कृष्ण से थी बेपनाह मोहब्बत

इश्क़ और इंक़लाब की शायरी करने वाले हसरत मोहानी सच्चे मुसलमान तो थे ही, भगवान कृष्ण के भी अनन्य भक्त थे। वे उन्हें हादी (पैगंबर) मानते थे। कई बार हज कर चुके मोहानी हर साल जन्माष्टमी के दिन मथुरा जाया करते थे।

 

यानी, साम्यवादी विचारधारा के मोहानी को मक्का, मथुरा और मास्को–तीनों से लगाव था। वे हमेशा अपने पास बांसुरी रखते थे। अलीगढ़ जेल में जब उनका सामान ज़ब्त किया गया, तो झोले में बांसुरी भी मिली। अंग्रेज अफसर ने पूछा तो मोहानी ने बताया कि कृष्ण से प्रेम है, इसलिये उसकी बांसुरी अपने पास रखता हूं।

 

कृष्ण पर उन्होंने काफी लिखा भी। उनकी एक मशहूर नज्म है–

मथुरा कि नगर है आशिक़ी का

दम भरती है आरज़ू इसी का

हर ज़र्रा–ए–सर–ज़मीन–ए–गोकुल

दारा है जमाल–ए–दिलबरी का

बरसाना–ओ–नंद–गाँव में भी

देख आए हैं जल्वा हम किसी का

पैग़ाम–ए–हयात–ए–जावेदाँ था

हर नग़्मा–ए–कृष्ण बाँसुरी का

वो नूर–ए–सियाह या कि हसरत

सर–चश्मा फ़रोग़–ए–आगही का

 

बताया जाता है कि मोहानी का बचपन मथुरा में बीता, जहां उन पर कृष्ण रंग चढ़ा। बचपन में वे मथुरा के मंदिरों में कृष्ण की लीलाओं पर आधारित प्रवचन सुना करते थे। फिर तो प्रेम के देवता का रंग दिल पर ऐसा चढ़ा कि ताउम्र बना रहा।

 

कहें तो मोहानी अपने ढंग के अनोखे इंसान थे। उनका अंदाज़ निराला था। वे कौमी एकता के पक्षधर थे। गंगा–जमुनी तहजीब के नायकों में से एक मोहानी की रगों में इश्क़–ए–रसूल दौड़ता था। यही वजह थी कि वे प्रेम के देवता कृष्ण के दीवाने थे। उन्हें नहीं था किसी फतवे का डर, वे अपनी राह के राही रहे। सच कहें तो उन्होंने जीना सिखाया, दिल में इश्क़ और दिमाग में इंक़लाब लेकर।

 

देश आज़ाद हुआ, तो वे पाकिस्तान नहीं गये। इसी मिट्टी पर आखिरी सांस ली। उर्दू अदब का यह अजीमुश्शान शायर 13 मई 1951 को मौत की आगोश में समा गया। हालांकि मोहानी जैसे कलमनवीस मरते नहीं। ऐसे लोगों का नाम काल के कपाल पर टंक जाता है–

हम ख़ाक में मिलने पे भी नापैद न होंगे,

दुनिया में न होंगे तो किताबों में मिलेंगे   

हसरत मोहानी की
ग़ज़लों से 10 चुनिंदा शेर

(1) आईने में वो देख रहे थे बहार–ए–हुस्न

आया मेरा ख़याल तो शर्मा के रह गए

 

(2)
आरज़ू
तेरी बरक़रार रहे

दिल का क्या है रहा रहा न रहा

 

(3) ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की

 

दुश्मनी का भी हक़ अदा न हुआ

 

(4)चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह

मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

 

(5) उस ना–ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ

कश्ती मिरी डुबोई है साहिल के आस–पास

 

(6)छुप नहीं सकती छुपाने से मोहब्बत की नज़र

पड़ ही जाती है रुख़–ए–यार पे हसरत की नज़र

 

(7)देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार

जब तक शराब आई कई दौर हो गए

 

(8)जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर

तो मुझ पे ख़्वाहिश–ए–जन्नत हराम हो जाए

 

(9)देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार

जब तक शराब आई कई दौर हो गए

 

(10) बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी

बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी

 

बेड़ियों में कैद मोहानी ने अलीगढ़ से नैनी जाने के दौरान ट्रेन में ही ‘चुपके-चुपके
रात-दिन आंसू बहाना याद है
’ हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है लिखी थी –

चुपके
चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है

हम
को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

 

बा–हज़ारां
इज़्तिराब ओ सद–हज़ारां इश्तियाक़

तुझ
से वो पहले–पहल दिल का लगाना याद है

 

बार
बार उठना उसी जानिब निगाह–ए–शौक़ का

और
तिरा ग़ुर्फ़े से वो आंखें लड़ाना याद है

 

तुझ
से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा

और
तिरा दांतों में वो उंगली दबाना याद है

 

खींच
लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ‘तन

और
दुपट्टे से तिरा वो मुंह छुपाना याद है

 

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था

सच कहो कुछ तुम को भी वो कार–ख़ाना याद है

 

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़

वो तिरा चोरी–छुपे रातों को आना याद है

 

आ
गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र–ए–फ़िराक़

वो
तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है

 

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए

वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है

 

आज
तक नज़रों में है वो सोहबत–ए–राज़–ओ–नियाज़

अपना
जाना याद है तेरा बुलाना याद है

 

जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

बेरुखी के साथ सुनना दर्द–ए–दिल की दास्तां

 

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह

मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

 

शौक़
में मेहंदी के वो बे–दस्त–ओ–पा होना तिरा

और
मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है

 

बावजूद–ए–इद्दिया–ए–इत्तिक़ा ‘हसरत‘ मुझे

आज तक अहद–ए–हवस का वो फ़साना याद है

The End 

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

March 17, 2025
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