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मालकिन-देहातिन (रूसी कहानी) : अलेक्सान्द्र पूश्किन (Russian Story) By Alexander Pushkin

by Engr. Maqbool Akram
January 17, 2022
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हमारे दूर–दराज़ के प्रान्तों में से एक थी जागीर इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव की। जवानी में वह फ़ौज में काम करता था, सन् 1797 में निवृत्त होकर वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से फिर कभी कहीं नहीं गया। उसने एक ग़रीब कुलीना से ब्याह किया था, जो प्रसूति के समय ईश्वर को प्यारी हो गई, जब वह सीमा पर तैनात था।

 

घर–गृहस्थी के झँझटों ने उसके दुख को शीघ्र ही शान्त कर दिया। उसने अपने प्लान के मुताबिक घर बनाया, कपड़ों की फ़ैक्ट्री शुरू की, नफ़े को तिगुना किया और स्वयम् को समूचे प्रान्त का अति बुद्धिमान व्यक्ति समझने लगा, जिसका उसके यहाँ अपने परिवारजनों और कुत्तों समेत निरन्तर आने वाले पड़ोसियों ने विरोध नहीं किया।

 

कामकाज के दिनों में वह मखमल का कुर्ता पहनता, त्यौहारों के अवसर पर घर में बनाए कपड़े का कोट पहना करता; हिसाब–किताब ख़ुद ही लिखता और ‘सिनेट समाचार’ के अलावा कभी कुछ न पढ़ता। आमतौर पर वह लोकप्रिय ही था, हालाँकि उसे घमण्डी भी समझते थे।

 

उसके साथ उसके निकटतम पड़ोसी ग्रिगोरी इवानविच मूरम्स्की की बिल्कुल नहीं पटती थी। यह ख़ानदानी रूसी ज़मीन्दार था। अपनी जागीर का अधिकांश भाग मॉस्को में उड़ा देने के बाद एवम् अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद वह जागीर के शेष बचे भाग में आ गया और यहाँ भी फ़िज़ूलखर्ची करने लगा, मगर दूसरी तरह से।

 

उसने अंग्रेज़ी ढंग से एक बगीचा बनवाया, जिस पर शेष जमा पूँजी खर्च कर दी। उसके अस्तबल अंग्रेज़ी जॉकियों से लैस थे। उसकी बेटी की देखभाल के लिए अंग्रेज़ी मैड़म थी। अपने खेतों में वह फ़सल अंग्रेज़ी ढंग से ही उगाता :

 

मगर नकल से औरों की

उगे न रूसी अन्न…

 

और इसीलिए, खर्चों में कटौती करने के बावजूद ग्रिगोरी इवानविच के नफ़े में कोई वृद्धि नहीं हुई, गाँव में भी उसने औरों से ऋण लेना आरंभ कर दिया, मगर फिर भी उसे कोई बेवकूफ़ नहीं समझता, क्योंकि वह पहला ज़मीन्दार था, जिसने ‘संरक्षण–परिषद’ में अपनी जागीर रख दी थी। यह कदम उन दिनों काफ़ी जटिल और साहसिक माना जाता था। उसकी आलोचना करने वालों में बेरेस्तोव सर्वाधिक कठोर था।

 

किसी भी नए कदम का विरोध करना उसकी चारित्रिक विशेषता थी। अपने पड़ोसी की ‘अंग्रेज़ियत’ के प्रति वह उदासीन न रह सका और हर पल किसी–न–किसी बहाने से उसकी निंदा करने से वह न चूकता। मेहमान को अपनी मिल्कियत दिखाते समय, अपनी कार्यकुशलता की तारीफ़ के जवाब में वह व्यंग्यभरी मुस्कान से कहता : “हाँ, हमारे यहाँ ग्रिगोरी इवानविच जैसी बात तो नहीं है।

 

हम कहाँ अंग्रेज़ी तरीके अपनाने लगे। रूसी तरीके से ही खाते–पीते रहें तो बहुत है।” इसी तरह के अन्य मज़ाक, पड़ोसियों की मेहेरबानी से, नमक–मिर्च के साथ ग्रिगोरी इवानविच तक पहुँचते। अंग्रेज़ियत का दीवाना अपनी आलोचना को उतनी ही बेचैनी से सुनता, जैसा हमारे संवाददाता करते हैं। वह तैश में आ जाता और अपने आलोचक को भालू और गँवार कहता।

 

तो, ऐसे थे सम्बंध इन दोनों ज़मीन्दारों के बीच, जब बेरेस्तोब का बेटा पिता के पास गाँव में आया। उसने विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी और सेना में भर्ती होने का इरादा रखता था, मगर पिता इसके लिए राज़ी नहीं होते थे।

 

शासकीय नौकरी के लिए यह नौजवान स्वयम् को अयोग्य पाता था। दोनों ही अपनी–अपनी बात पर अड़े थे और फ़िलहाल युवा अलेक्सेइ ज़मीन्दारों का जीवन जी रहा था, और मौके के इंतज़ार में मूँछे भी बढ़ा रहा था।

Alexanfaer Pushkin

अलेक्सेइ सचमुच ही बाँका जवान था, बड़े दुख की बात होती, यदि फ़ौजी वर्दी उसके बलिष्ठ शरीर पर न सजती और घोड़े पर तनकर बैठने के स्थान पर वह सरकारी कागज़ातों पर झुक–झुककर अपनी जवानी गँवा देता। जिस तरह शिकार करते समय, रास्ते की परवाह किए बगैर, वह अपना घोड़ा सबसे आगे दौड़ाता, वह देखकर पड़ोसी एकमत से कहते कि वह कभी भी सरकारी अफ़सर न बन पाएगा।

 

जवान लड़कियाँ उसकी ओर देखतीं, कुछ–कुछ तो देखती ही रह जातीं, मगर अलेक्सेइ उनकी ओर कम ही ध्यान देता, उसकी बेरुखी की वजह वे किसी प्रेम सम्बन्ध को समझतीं। वास्तव में उसके ख़तों में से किसी एक पर लिखा गया पता हाथोंहाथ घूम भी चुका था,
“
अकुलीना पेत्रोव्ना कूरच्किना, मॉस्को, अलेक्सेइ मठ के सामने, सवेल्येव डॉक्टर का मकान, और आपसे विनती करता हूँ, कि कृपया यह पत्र ए। एन। आर। तक पहुँचा दें।”

 

मेरे वे पाठक, जो कभी गाँवों में नहीं रहे हैं, यह अन्दाज़ भी नहीं लगा सकते कि गाँवों की ये युवतियाँ क्या चीज़ होती हैं। खुली हवा में पली–बढ़ी अपने बगीचों के सेब के पेड़ों की छाँव में बैठी, वे जीवन और समाज का अनुभव किताबों से प्राप्त करती हैं। एकान्त, आज़ादी और किताबें उनमें अल्पायु में ही वे भाव और इच्छाएँ जागृत कर देते हैं, जिनसे हमारी बेख़बर सुन्दरियाँ अनभिज्ञ रहती हैं।

 

ग्रामीण कुलीना के लिए घण्टी की आवाज़ एक रोमांचक घटना होती है, निकटवर्ती शहर की यात्रा जीवन का एक महत्वपूर्ण पर्व बन जाती है, और किसी मेहमान का आगमन उनके दिल पर लम्बा या कभी–कभी शाश्वत प्रभाव छोड़ जाता है।

 

उनकी कुछ अजीब हरकतों पर कोई भी दिल खोलकर हँस सकता है, मगर इस सतही आलोचक के मज़ाक उन्हें प्रदत्त गुणों को नष्ट नहीं कर सकते, जिनमें कुछ प्रमुख हैं :
चारित्रिक विशेषता, आत्मनिर्भरता, जिसके बगैर, जॉन पॉल के अनुसार, किसी व्यक्ति की महानता का अस्तित्व ही नहीं

 

राजधानियों में, बेशक, महिलाएँ बेहतर शिक्षा पाती हैं, मगर उच्च–भ्रू समाज के तौर–तरीके शीघ्र ही उनके चरित्र को कुन्द कर देते हैं और आत्माओं को उनके सिरों की टोपियों जैसा एक–सार बना देते हैं।यह हम उनकी आलोचना करते हुए नहीं कह रहे हैं। मगर हमारी राय, जैसा कि एक प्राचीन विचारक ने लिखा है, अपनी जगह सही है।

 

यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है, कि अलेक्सेइ ने हमारी सुन्दरियों पर कैसा प्रभाव डाला होगा। वह पहला नौजवान था जो उन्हें दुखी और निराश प्रतीत हुआ, पहला ऐसा व्यक्ति था जो उनसे खोई हुई ख़ुशियों और अपनी मुरझाती हुई जवानी की बातें करता : ऊपर से खोपड़ी की तस्वीर वाली काली अँगूठी पहने रहता। यह सब उस प्रदेश के लिए एकदम नया था। सुन्दरियाँ उसके पीछे पागल हो चलीं।

 

मगर उसके ख़यालों में सर्वाधिक खोई रहने वाली थी मेरे ‘अंग्रेज़’ की बेटी लीज़ा (या बेत्सी, जैसा कि ग्रिगोरी इवानविच उसे बुलाते), दोनों के पिता कभी एक–दूसरे के यहाँ जाते न थे, उसने अलेक्सेइ को अब तक देखा न था, जबकि सारी नौजवान पड़ोसिनें सिर्फ उसी के बारे में बतियातीं।

 

उसकी उम्र थी सत्रह साल। काली आँखें उसके साँवले, बेहद प्यारे चेहरे को सजीवता प्रदान करतीं। वह इकलौती और इसी कारण लाड़–प्यार में पली सन्तान थी।उसकी चंचलता और पल–पल की शरारतें पिता को आनन्दित करतीं।

 

चालीस वर्षीय, अनुशासनप्रिय, अविवाहित मिस जैक्सन को हैरान करतीं, जो काफ़ी पाउडर लगाया करती, भौंहों पर सुरमा लगाती, साल में दो बार ‘पामेला’ पढ़ती, इस सबके बदले में दो हज़ार रूबल्स प्राप्त करती और ‘इस जंगली रूस’ में उकताहट से मरी जाती।

 

लीज़ा की सखी–सेविका थी नास्त्या। वह कुछ बड़ी थी, मगर थी उतनी ही चंचल जितनी उसकी मालकिन। लीज़ा उसे बेहद प्यार करती, उसे अपने सारे भेद बताती, उसके साथ शरारती चालें सोचती। संक्षेप में प्रिलूचिनो गाँव में नास्त्या का महत्त्व किसी फ्रांसीसी शोकांतिका की विश्वासपात्र सखी से कहीं अधिक था।

 

“आज मुझे बाहर जाने की इजाज़त दीजिए”, नास्त्या ने एक दिन मालकिन को पोषाक पहनाते हुए कहा।

“ठीक है, मगर कहाँ?”

 

“तुगीलोवो में, बेरेस्तोव के यहाँ। उनके रसोइये की बीबी का जन्मदिन है और वह कल हमें भोजन का निमन्त्रण देने आई थी।”

“क्या ख़ूब!” लीज़ा बोली, “मालिकों का झगड़ा है, और नौकर एक–दूसरे की मेहमाननवाज़ी करते हैं!”

 

“हमें मालिकों से क्या लेना–देना!” नास्त्या ने विरोध किया, “फिर मैं तो आपकी नौकरानी हूँ, न कि आपके पिता की। आपकी तो अभी तक युवा बेरेस्तोव से नोक–झोंक नहीं हुई है; बूढ़ों को लड़ने दो, अगर उन्हें इसी में मज़ा आता है तो।”

 

“नास्त्या, अलेक्सेइ बेरेस्तोव को देखने की कोशिश करना और फिर मुझे अच्छी तरह बताना कि वह दिखने में कैसा है और आदमी कैसा है।”

नास्त्या ने वादा किया, और लीज़ा पूरे दिन बड़ी बेचैनी से उसके लौटने का इंतज़ार करती रही। शाम को नास्त्या वापस लौटी।

 

“तो, लिज़ावेता ग्रिगोरियेव्ना”, उसने कमरे में घुसते हुए कहा, “युवा बेरेस्तोव को देख लिया, बड़ी देर तक देखा, सारे दिन हम एक साथ ही रहे।”

 

“ऐसा कैसे? सिलसिले से बताओ।”

“लीजिए, हम यहाँ से गए : मैं, अनीस्या ईगरव्ना, नेनिला, दून्का…”

“ठीक है, जानती हूँ। फिर?”

 

“कृपया बोलने दें, सब कुछ सिलसिलेवार ही बताऊँगी। तो हम ठीक भोजन के वकत ही पहुँचे। कमरा लोगों से भरा था। कोल्चिन के, ज़ख़ारव के नौकर थे, बेटियों के साथ हरकारिन थी, ख्लूपिन के…”

“ओह! और बेरेस्तोव?”

 

“रुकिए भी! तो हम मेज़ पर बैठे, सबसे पहले हरकारिन, मैं उसकी बगल में…बेटियाँ कुड़कुड़ाती रहीं, मगर मैं तो उन पर थूकती भी नहीं…”

 

“ओह, नास्त्या, तुम हमेशा अपनी इन लम्बी–चौड़ी बातों से कितना तंग करती हो!”

 

“और, आप कितनी बेसब्र हैं। तो हम खाना ख़त्म करके उठे…हम तीन घण्टे बैठे रहे थे मेज़ पर, खाना लाजवाब था : केक – नीली, लाल धारियोंवाला…वहाँ से निकलकर हम बगीचे में आँखमिचौली खेलने चले गए, और नौजवान मालिक वहीं आया।”

 

“क्या कहती है? क्या यह सच है कि वह बहुत सुन्दर है?”

“आश्चर्यजनक रूप से अच्छा है, ख़ूबसूरत भी कह सकते हैं। सुघड़, सुडौल, लम्बा, गालों पर लाली…”

 

“सच? और मैं सोच रही थी कि उसका चेहरा निस्तेज होगा। तो? कैसा लगा वह तुझे? दुखी, सोच में डूबा हुआ?”

 

“क्या कहती हैं! इतना दीवाना, इतना उत्तेजना से भरपूर व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। वह तो हम लोगों के साथ आँखमिचौली खेलने लगा।”

 

“तुम लोगों के साथ आँखमिचौली? असंभव!”

“बिल्कुल संभव है! और क्या सोचा उसने? पकड़ लेता और फ़ौरन चूम लेता!”

“तेरी मर्ज़ी नास्त्या, चाहे जितना झूठ बोल।”

 

“मर्ज़ी आपकी, मगर मैं झूठ नहीं बोल रही। मैं तो बड़ी मुश्किल से स्वयम् को छुड़ा पाई, पूरा दिन उसने हम लोगों के साथ ही बिताया।”

 

“तो फिर, लोग तो कहते हैं कि वह किसी और से प्यार करता है और औरों की तरफ़ देखता तक नहीं है?”

 

“मालूम नहीं, मेरी तरफ़ तो उसने इतनी बार देखा, और हरकारे की बेटी तान्या की ओर भी, हाँ, कोल्बिन्स्की की पाशा को भी देखता रहा, मगर झूठ कहूँ, तो पाप लगे, किसी का अपमान उसने नहीं किया, इतना लाड़ लड़ाता रहा।”

“बड़े अचरज की बात है। घर में उसके बारे में क्या सुना?”

 

“मालिक, कहते हैं, कि बड़ा सुन्दर है, इतना भला, इतना हँसमुख है। एक ही बात अच्छी नहीं है : लड़कियों के पीछे भागना उसे बहुत अच्छा लगता है। मगर, मेरे ख़याल से, यह कोई बुरी बात नहीं है। समय के साथ–साथ ठीक हो जाएगा।”

“आह, कितना दिल चाह रहा है उसे देखने को!” लीज़ा ने गहरी साँस लेकर कहा।

 

यह कौन–सी बड़ी बात है? तुगीलोवो यहाँ से दूर तो नहीं है, सिर्फ तीन मील, उस तरफ़ पैदल घूमने निकल जाइए या घोड़े पर जाइए, शायद आपकी उससे मुलाकात हो जाए। वह तो हर रोज़ सुबह–सुबह बन्दूक लेकर शिकार पर निकलता है।”

 

“नहीं, यह ठीक नहीं है। वह सोच सकता है, कि मैं उसके पीछे पड़ी हूँ। फिर हमारे पिता भी एक–दूसरे से बोलते नहीं हैं, तो, मैं उससे कभी मिल ही नहीं पाऊँगी… आह, नास्त्या! देख, जानती हो, मैं क्या करूँगी? मैं देहातिन का भेस बनाऊँगी!”

 

“सचमुच ऐसा ही कीजिए, मोटा कुर्ता पहनिए, सराफ़ान डालिए और बेधड़क चली जाइए तुगीलोवो, दावे के साथ कहती हूँ कि बेरेस्तोव आपको देखता ही रह जाएगा।”

 

“हाँ, मुझे स्थानीय बोली भी अच्छी तरह आती है। आह, नास्त्या, प्यारी नास्त्या! कैसा बढ़िया ख़याल है!” और लीज़ा अपने इस ख़ुशनुमा प्रस्ताव को शीघ्र ही मूर्तरूप देने का निश्चय करके सो गई।

 

दूसरे ही दिन वह अपनी योजना को पूरा करने में जुट गई। उसने बाज़ार से नीले डिज़ाइन वाला मोटा कपड़ा और ताँबे के बटन मँगवाए, नास्त्या की मदद से अपने लिए ब्लाउज़ और सराफ़ान काटकर सारी नौकरानियों को उन्हें सीने के लिए बिठा दिया, और शाम तक सारी तैयारी पूरी हो गई।

 

लीज़ा इन नए कपड़ों को पहनकर आईने के सामने खड़ी हो गई और उसने मान लिया कि इतनी सुन्दर तो वह स्वयम् को पहले कभी नहीं लगी थी। उसने अपनी भूमिका को दोहराया, चलते–चलते नीचे झुकती और मिट्टी की बिल्लियों की भाँति सिर को कई बार झटका देती, किसानों की बोली में बातें करती, बाँह से मुँह ढाँककर मुस्कुराती, और नास्त्या की दाद पाती।

 

बस एक मुश्किल थी :
उसने आँगन में नंगे पैर चलने की कोशिश की, मगर घास–फूस उसके कोमल पैरों में चुभती, और रेत एवम् कंकर उससे बर्दाश्त न होते। यहाँ भी नास्या ने उसकी सहायता की। उसने लीज़ा के पैर की नाप ली, त्रोफ़ीम गड़रिये के पास गई और उसे उस नाप की चप्पल बनाने को कहा।

 

दूसरे दिन उजाला होने से पहले ही लीज़ा उठ गई। पूरा घर अभी सो रहा था। दरवाज़े के बाहर नास्त्या गड़रिये का इंतज़ार कर रही थी। बिगुल की आवाज़ सुनाई दी और भेड़ों का झुण्ड ज़मीन्दार के घर के निकट से गुज़रा।

 

नास्त्या के निकट से गुज़रते हुए त्रोफ़ीम ने उसे नन्ही, सुन्दर चप्पलों की जोड़ी थमा दी और उससे इनाम में पचास कोपेक पाए। लीज़ा ने चुपचाप देहातिन का भेस बनाया, फुसफुसाकर नास्त्या को मिस जैक्सन के बारे में कुछ सूचनाएँ दीं और पिछवाड़े के उद्यान से होकर खेतों की ओर भागी।

 

पूरब में लाली छा रही थी और बादलों के सुनहरे झुण्ड मानो सूरज का इंतज़ार कर रहे थे, जैसे दरबारी सम्राट की प्रतीक्षा कर हों। स्वच्छा आकाश, सुबह की ताज़गी, दूब, धीमी हवा और पंछियों के गान ने लीज़ा के हृदय को बच्चों जैसी ख़ुशी से भर दिया, किसी परिचित से आकस्मिक मुठभेड़ होने के भय से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह चल नहीं रही हो, बल्कि उड़ रही हो।

 

पिता की जागीर की सीमा पर बने वन के निकट आने पर लीज़ा धीरे–धीरे चलने लगी। यहीं पर उसे अलेक्सेइ का इंतज़ार करना था। उसका दिल न जाने क्यों ज़ोर–ज़ोर से धड़कने लगा। मगर हमारी जवान शरारती लड़कियों के दिल में बैठा भय ही उनका सबसे बड़ा आकर्षण होता है।

 

लीज़ा वन के झुरमुट में घुसी। उसकी दबी, प्रतिध्वनित होती सरसराहट ने नवयुवती का स्वागत किया। उसकी प्रसन्नता लुप्त हो गई। धीरे–धीरे वह मीठे सपनों की दुनिया में खो गई। वह सोच रही थी…मगर क्या एक सत्रह बरस की, बसन्त की ख़ुशनुमा सुबह छः बजे वन में घूम रही, अकेली युवती के ख़यालों को जानना सम्भव है?

 

तो, वह ख़यालों में डूबी, दोतरफ़ा ऊँचे–ऊँचे पेड़ों वाले छायादार रास्ते पर चली जा रही थी कि अचानक एक सुन्दर शिकारी कुत्ता उस पर भौंका। लीज़ा डर गई और चीख़ने लगी। तभी एक आवाज़ सुनाई दी, “चुप, स्बोगर, यहाँ आओ…” और झाड़ियों के पीछे से एक नौजवान शिकारी निकला। “कोई बात नहीं, सुन्दरी”, उसने लीज़ा से कहा, “मेरा कुत्ता काटता नहीं है।”

 

लीज़ा अब तक भय पर काबू पाकर स्थिति का फ़ायदा उठाने में सफ़ल हो चुकी थी।”ओह, नहीं, मालिक!”
कुछ भयभीत, कुछ लज्जित होने का नाटक करते हुए वह बोली,”डर लागत है : कैसा तो होव वह दुष्ट, फिर झपटे है।”

 

अलेक्सेइ (पाठक उसे पहचान चुके हैं) इस बीच एकटक उस जवान देहातिन को घूरता रहा। “अगर डर लगता है तो तुम्हें छोड़ आऊँगा”,
वह उससे बोला, “क्या तुम मुझे अपने साथ चलने दोगी?”

 

“तुम्हें मना कउन करत है?” लीज़ा ने जवाब दिया, “चाह होवे तो राह है और रास्ता तो सबका होवे।”

“कहाँ से आई हो?”

 

“प्रिलूचिनो से, वसीली लुहार की लड़की, कुकुरमुत्ते चुनने जात हूँ।” (लीज़ा ने हाथ में डोलची पकड़ रखी थी) और तुम, मालिक? तुगीलोवो के तो नहीं?”

 

“ठीक कहा”, अलेक्सेइ बोला, “मैं छोटे मालिक का नौकर हूँ।” अलेक्सेइ अपना दर्जा उसके बराबर बताना चाहता था। मगर लीज़ा ने उसकी ओर देखा और हँस पड़ी। “झूठ बोलो हो,” वह बोली, “बुद्धू न समझो। देखती हूँ, तुम ख़ुद ही मालिक हो।”

 

“तुम ऐसा क्यों सोच रही हो?”

“सब देखत हूँ।”

“फिर भी?”

“मालिक और नौकर में फ़रक कैसे नाहीं पता चले? कपड़े तो हम जैसे नाही पहने। बोली हम जैसी नाही, कुत्ते पे चिल्लाए भी तो हम जैसे नाहीं।”

 

लीज़ा अलेक्सेइ को अधिकाधिक अच्छी लगने लगी थी। भले देहातियों से दिखावा करने की आदत न होने से, अलेक्सेइ उसे बाँहों में भरने ही वाला था, कि लीज़ा छिटक कर दूर हो गई और चेहरे पर इतने कठोर एवम् ठण्डे भाव ले आई थी…हालाँकि अलेक्सेइ को यह सब हँसा तो गया, मगर साथ ही वह और आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका।

 

“अगर आप चाहते हैं कि हम आगे भी दोस्त बने रहें,” उसने भाव खाते हुए कहा, “तो अपने आप को बहकने न दें।”

 

“इतनी ज्ञान की बातें तुम्हें किसने सिखाईं?” अलेक्सेइ ने ठहाका मारते हुए पूछ लिया, कहीं मेरी परिचिता, तुम्हारी मालकिन की सखी नास्तेन्का ने तो नहीं? देखो तो, कैसे–कैसे तरीकों से ज्ञान का प्रकाश फ़ैलता है।”

 

लीज़ा को महसूस हुआ कि वह अपनी भूमिका भूल गई है और उसने फ़ौरन स्थिति सँभाल ली। “क्या सोचत हो? का हम मालिक के घर कभी न जाऊँ हूँ। चलो; सब देखत–सुनत हूँ वहाँ पे। फिर भी,”
वह बोलती रही, “तुमसे बतियाने से कुकुरमुत्ते न बटोरे जावें।

 

जाओ तुम मालिक, इस तरफ़ –
मैं जाऊँ अपनी राह। माफ़ी माँगू हूँ…” लीज़ा ने दूर जाना चाहा, अलेक्सेइ ने फ़ौरन उसका हाथ पकड़ लिया।

“तुम्हारा नाम क्या है, मेरी जान?”

 

“अकुलीना।”
लीज़ा ने
अपनी ऊँगलियाँ
अलेक्सेइ के
हाथों से
छुड़ाने की
कोशिश करते
हुए कहा,
“
छोड़ भी
देवो, मालिक,
घर जाने
का भी
बख़त होई
गवा।”

“अकुलीना,
मेरी दोस्त,
तुम्हारे बापू
वसीली लुहार
के यहाँ
मैं ज़रूर
आऊँगा।”

 

“का कहत हो?” लीज़ा ने ज़ोरदार प्रतिवाद किया, “ख़ुदा के लिए, आना मत। अगर घर में पता चले, कि हम मालिक के संग जंगल में अकेले बतियात रहिन तो बुरा होवे, बापू म्हारो, वसीली लुहार, मरते दम तक मोहे मारेगा।”

 

“मगर मैं तो तुमसे दुबारा ज़रूर मिलना चाहता हूँ।”

“फिर लौट के आऊँ हूँ मैं कुकुरमुत्ते चुनने।”

“मगर कब?”

“चाहे कल ही।”

 

“प्यारी अकुलीना, तुम्हें चूमना चाहता हूँ, मगर हिम्मत नहीं होती। तो फिर कल, इसी समय, ठीक है ना?”

“हाँ–हाँ।”

“और तुम मुझे धोखा तो नहीं दोगी?”

“नहीं दूँगी धोखा।”

“कसम खाओ।”

”पावन शुक्रवार की कसम, आऊँगी।”

 

नौजवान व्यक्ति जुदा हुए। लीज़ा वन से निकली, खेतों से होती हुई, उद्यान में छिपती–छिपाती फैक्ट्री की ओर भागी, जहाँ नास्त्या उसका इंतज़ार कर रही थी। वहाँ उसने कपड़े बदले, अपनी शान्त, विश्वस्त सखी के प्रश्नों के उड़े–उड़े से जवाब दिए और मेहमानखाने में दाखिल हुई। मेज़ सज चुकी थी, नाश्ता तैयार था, और पाउडर पुती, लाली में डूबी मिस जैक्सन केक के पतले–पतले टुकड़े काट रही थी।

 

पिता ने सुबह की सैर करने के लिए उसकी प्रशन्सा की। “सुबह जल्दी उठने से बढ़कर और कोई अच्छी बात नहीं है,”
वह बोला। अब उसने लम्बी उमर तक जीनेवालों के कुछ उदाहरण दिए, जो उसने अंग्रेज़ी पत्रिकाओं से लिए थे और यह कहा कि वे सभी लोग, जो सौ वर्षों से अधिक आयु प्राप्त करते हैं, वोद्का नहीं पीते और चाहे सर्दी का मौसम हो या गर्मी का, सूर्योदय से पहले ही उठा करते हैं।

 

लीज़ा उसकी बातें सुन नहीं रही थी। अपने ख़यालों में वह सुबह की मुलाकात को दोहरा रही थी, अकुलीना की नौजवान शिकारी से हुई पूरी बातचीत याद कर रही थी, और उसकी आत्मा ने उसे कचोटना शुरू कर दिया। अपने आपको बेकार में ही दोष दिया, कि उनकी बातचीत शिष्टाचार की सीमा से बाहर क्यों न गई, कि इस शरारत का कोई परिणाम नहीं निकलने वाला, उसका विवेक बुद्धि पर मात किए जा रहा था।

 

कल की मुलाकात का वादा उसे सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा था। उसने लगभग निश्चय कर लिया कि अपनी कसम तोड़ देगी। मगर अलेक्सेइ व्यर्थ ही उसका इंतज़ार करके गाँव में आकर वसीली लुहार की बेटी को ढूँढ़ने आ सकता था

 

वास्तविक अकुलीना को, मोटी, चेचकरू बेबे को, और तब वह उसकी छिछोरी शरारत के बारे में जान जाएगा। इस विचार से लीज़ा घबरा गई और उसने अकुलीना के भेस में अगली सुबह फिर वन में जाने का इरादा कर लिया।

 

उधर अलेक्सेइ भी उत्तेजित था, पूरे दिन वह अपनी नवपरिचिता के बारे में ही सोचता रहा, उस साँवली सुन्दरी की छबि रात में सपने में भी उसका पीछा करती रही। पौ फ़टने वाली थी कि वह बाहर निकलने के लिए तैयार था। बन्दूक में गोलियाँ भरे बिना, वह अपने विश्वस्त स्बोगार को लेकर खेतों की ओर निकल पड़ा और उस जगह पहुँचा जहाँ मुलाकात का वादा किया गया था।

 

बेचैनी से इंतज़ार करते–करते आधा घण्टा बीता, आख़िरकार उसे झाड़ियों के बीच नीले सराफ़ान की झलक दिखाई दी और वह अपनी प्यारी अकुलीना की ओर लपका। उसने उसकी उत्तेजना का जवाब मुस्कुराहट से दिया, मगर अलेक्सेइ ने फ़ौरन चेहरे पर थकान और बेचैनी के लक्षणों को भाँप लिया। उसने इसकी वजह जाननी चाही।

 

लीज़ा ने स्वीकार किया, कि उसे स्वयम् का आचरण बहुत छिछोरा प्रतीत हुआ है, और इसके लिए उसे पश्चात्ताप हो रहा है, इस बार वह वादा भी निभाना नहीं चाहती थी, और यह भी, कि यह मुलाकात आख़िरी होगी और वह उससे विनती करती है, कि उस परिचय को भुला दे, जिससे किसी सुखद परिणाम की आशा नहीं है।

 

यह सब, ज़ाहिर है, देहाती बोली में कहा गया था, मगर एक सामान्य लड़की के इन विचारों और भावनाओं से अलेक्सेइ को आश्चर्य हुआ। उसने मीठी–मीठी बातों से, दलीलों से अकुलीना को उसके इरादे से परावृत्त करने का प्रयत्न किया, उसे अपनी अभिलाषाओं की पवित्रता का विश्वास दिलाया, वादा किया कि वह उसे कभी भी शिकायत का मौका नहीं देगा।

 

अपने आपको ही इस पूरे प्रसंग का दोषी ठहराया, उससे चिरौरी करता रहा, कि वह उसे जीवन की इस एकमात्र ख़ुशी से महरूम न रखे, उससे एकान्त में मिलती रहे, चाहे एक दिन छोड़कर ही सही, या फिर हफ़्ते में दो बार ही सही। वह ये सब बड़ी ईमानदारी और आर्तता से कह रहा था और इस क्षण सचमुच ही उसे प्यार हो गया था। लीज़ा चुपचाप उसकी बातें सुनती रही।

 

“वादा करो,” आख़िर में वह बोली, “कि कभी भी गाँव में मुझे नहीं ढूढ़ोगे और न ही किसी से कुछ पूछोगे। वादा करो, कि जब मैं मिलने आऊँ, तभी मुझसे मिलोगे, और अधिक मुलाकातों के लिए ज़िद नहीं करोगे।”

 

अलेक्सेइ पावन शुक्रवार की कसम खाने ही वाला था कि उसने मुस्कुराकर उसे रोक दिया, “मुझे कसम की ज़रूरत नहीं है,” लीज़ा बोली, “तुम्हारा एक वादा ही काफ़ी है।

 

इसके बाद वे मित्रों की तरह वन में घूमते हुए, बातें करते रहे, तब तक, जब तक लीज़ा ने “बस!”
न कहा। वे जुदा हुए, और अलेक्सेइ, अकेला रह जाने पर समझ नहीं पाया कि कैसे यह सीधी–सादी ग्रामीण लड़की दो ही मुलाकातों में उसकी मालकिन बन बैठी है।

 

अकुलीना से मुलाकातों में दिलकश नयापन था, और हालाँकि इस विचित्र देहातिन की शर्तें उसे काफ़ी कष्टदायक प्रतीत हो रही थीं, मगर अपने वादे को तोड़ने का ख़याल भी उसके दिमाग़ में नहीं आया। बात यह थी, कि अलेक्सेइ, उस दुर्भाग्यशाली अँगूठी के बावजूद, रहस्यमय पत्र–व्यवहार के बावजूद और मायूस निराशा के बावजूद एक भला, जोशीला नौजवान था और उसका दिल था स्वच्छ, और वह मासूम आनन्द को महसूस कर सकता था।

 

अगर मैं सिर्फ अपनी ही मर्ज़ी से लिखता, तो निःसंदेह पूरी तफ़सीलों के साथ नौजवानों के मिलन के बारे में ही लिखता रहता, उनके परस्पर बढ़ते आकर्षण एवम् विश्वास, उनके कार्यकलापों, उनकी बातचीत का ही वर्णन करता रहता, मगर जानता हूँ कि मेरे अधिकांश पाठक मेरी इस ख़ुशी में सहभागी नहीं होंगे।

 

ये विवरण प्यारे लगने ही चाहिए और इसीलिए मैं उन्हें इतना ही कहकर छोड़ देता हूँ, कि दो महीने भी नहीं बीतने पाए थे, मेरा अलेक्सेइ दीवानगी की हद तक प्यार करने लगा, और लीज़ा भी उदासीन नहीं रह पाई थी, हालाँकि उसके मुकाबले में अधिकतर ख़ामोश रहा करती। वे दोनों अपने वर्तमान से ख़ुश थे और भविष्य के बारे में कम ही सोचते।

 

सम्बन्धों को चिरंतन बनाने का विचार उनके दिमाग में कई बार झाँक जाता, मगर उन्होंने इस बारे में एक–दूसरे से कभी कुछ नहीं कहा। वजह साफ़ थी, अलेक्सेइ अकुलीना से बेतहाशा प्रेम करने के बावजूद उस दूरी को भूला नहीं था, जो उसके और गरीब देहातिन के बीच विद्यमान थी।

 

लीज़ा जानती थी कि उनके जन्मदाताओं के मध्य कितनी घृणा की भावना है, और वह उनके बीच समझौते की आशा ही नहीं रखती थी। फिर उसका स्वाभिमान भी भीतर ही भीतर एक रूमानी ख़याल को सहला रहा था कि एक दिन तुगीलोवो का ज़मीन्दार प्रिलूचिनो के लुहार की बेटी के कदमों पर गिरेगा। अचानक एक महत्वपूर्ण घटना उनके परस्पर सम्बन्धों में एक नया मोड़ लाते–लाते रह गई।

 

एक ठण्डी साफ़ सुबह (जैसी शिशिर ऋतु में रूस में अधिकतर होती है) इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव घोड़े पर सैर को निकला, साथ में थे तीन जोड़ी शिकारी कुत्ते, साईस और कुछ सेवक–बालक झाँझवाली लाठियाँ लिए हुए। ठीक उसी समय ग्रिगोरी इवानविच मूरम्स्की ने भी, अच्छे मौसम से ललचाकर, अपनी पूँछकटी घोड़ी को जोतने की आज्ञा दे दी और तीर की तरह अपनी अंग्रेज़ी ढंग की जागीर की ओर चल पड़ा।

 

जंगल के निकट आने पर उसने अपने पड़ोसी को गर्व से घोड़े पर बैठे देखा। वह लोमड़ी की खाल का जैकेट पहने ख़रगोश का इंतज़ार कर रहा था, जिसे सेवक चीख़ों और झाँझवाली लाठियों से झाड़ियों के पीछे से खदेड़ रहे थे।

 

यदि ग्रिगोरी इवानविच को पूर्वाभास होता, तो वह निश्चय ही दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता, मगर उसका बेरेस्तोव से अकस्मात ही सामना हो गया था और अब अचानक ही वह उससे पिस्तौल के निशाने की दूरी पर था। कुछ भी नहीं किया जा सकता था : मूरम्स्की एक भद्र यूरोपियन की भाँति अपने प्रतिद्वन्द्वी के निकट गया और उसने शालीनता से उसका अभिवादन किया। बेरेस्तोव ने उतनी ही तत्परता से उत्तर दिया, जैसे कि जंज़ीर में बंधा भालू अपने मालिक के आदेश पर साहबों को झुक–झुककर सलाम करता है।

 

इसी बीच ख़रगोश झाड़ियों से उछला और खेतों की ओर भागा। बेरेस्तोव और साईस गला फ़ाड़कर चिल्लाए, कुत्तों को छोड़ा गया और पीछे–पीछे ख़ुद भी पूरी रफ़्तार से दौड़े। मूरम्स्की का घोड़ा, जो इससे पहले कभी शिकार पर नहीं गया था, डर गया और तीर की तरह उड़ चला।

 

मूरम्स्की ने, जो स्वयम् को बेहतरीन घुड़सवार समझता था, उसे दौड़ने दिया और मन–ही–मन ख़ुश भी हुआ कि इसी बहाने वह अप्रिय व्यक्ति से वार्तालाप करने से बच गया। मगर घोड़ा खाई के निकट पहुँचकर, जिस पर उसने ध्यान नहीं दिया था, अचानक एक किनारे को उछला और मूरम्स्की उस पर बैठा नहीं रह सका।

 

कड़ी
ज़मीन पर
काफ़ी तेज़ी
से गिरने
पर वह
अपनी पूँछकटी
घोड़ी को
कोसता हुआ
पड़ा रहा,
जो सँभलकर
सवार की
अनुपस्थिति
का अनुभव
करके रुक
गई थी।
इवान पेत्रोविच
उसके निकट
आया और
पूछने लगा
कि उसे
कहीं चोट
तो नहीं
आई। इसी
बीच साईस
दोषी घोड़ी
को लगाम
से पकड़कर
ले आया।

 

उसने मूरम्स्की को घोड़ी पर बैठने में सहायता की, और बेरेस्तोव ने उसे अपने यहाँ आमंत्रित कर लिया। मूरम्स्की इनकार न कर सका, क्योंकि वह कृतज्ञता का अनुभव कर रहा था, और इस तरह बेरेस्तोव विजयी भाव से घर लौटा, ख़रगोश का शिकार करके और अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल अवस्था में, युद्धबन्दी की–सी स्थिति में लाते हुए।

 

नाश्ता करते हुए पड़ोसी काफ़ी दोस्ताना अन्दाज़ में बातें कर रहे थे। मूरम्स्की ने बेरेस्तोव से धोड़ा–गाड़ी देने की प्रार्थना की, क्योंकि उसे महसूस हो रहा था कि चोट के कारण वह घोड़ी पर नहीं बैठ पाएगा।

 

बेरेस्तोव ने उसे बिल्कुल दरवाज़े तक आकर बिदा किया और मूरम्स्की यह वादा लिए बगैर नहीं गया कि दूसरे ही दिन (और अलेक्सेइ इवानविच के साथ) वह प्रिलूचिनो आएगा, दोस्तों की तरह भोजन करने। इस तरह पुरानी और गहरी दुश्मनी पूँछकटी घोड़ी के डर की बदौलत समाप्त होने को आई।

 

लीज़ा ग्रिगोरी इवानविच के स्वागत में दौड़ी हुई आई। “इसका क्या मतलब है, पापा?”
उसने अचरज से कहा, “आप लंगड़ा क्यों रहे हैं? आपका घोड़ा कहाँ है? यह गाड़ी किसकी है?”

 

“हूँ, यह तो तुम अनुमान भी नहीं लगा सकतीं, प्यारी बच्ची,” ग्रिगोरी इवानविच ने कहा और पूरी घटना सुना दी। लीज़ा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। ग्रिगोरी इवानविच ने उसे सँभलने का मौका दिए बगैर कह दिया कि कल उनके यहाँ दोनों बेरेस्तोव भोजन के लिए आ रहे हैं।

 

“आप क्या कह रहे हैं!” उसने पीली पड़ते हुए कहा। “बेरेस्तोव, पिता और पुत्र! कल हमारे यहाँ भोजन पर! नहीं पापा, आप जो जी में आये, कीजिए, मैं तो बाहर नहीं निकलूँगी।”

 

“तुम, क्या पागल हो गई हो?” पिता ने प्रतिवाद किया, “क्या तुम काफ़ी दिनों से इतनी शर्मीली हो गई हो, या तुम्हारे दिल में उनके प्रति अभी भी विरासत में मिली नफ़रत है, एक रूमानी नायिका की तरह? बस हो गया, बेवकूफ़ी न करना…”

 

“नहीं, पापा, किसी भी कीमत पर मैं बेरेस्तोवों के सामने नहीं आऊँगी, चाहे मुझे कितना ही ख़ज़ाना क्यों न मिलने वाला हो।”

 

ग्रिगोरी इवानविच ने कंधे उचकाए और उससे आगे बहस नहीं की, क्योंकि वह जानता था कि उससे विरोध करने से कुछ प्राप्त नहीं होगा, और अपनी इस रोमांचक सैर से आकर वह आराम करने चला गया।

 

लिज़ावेता ग्रिगोरेव्ना ने अपने कमरे में आकर नास्त्या को बुलवाया। दोनों काफ़ी देर तक कल आने वाले मेहमानों के आगमन पर विचार–विमर्श करती रहीं। यदि भद्र घर में पली–बढ़ी युवती में अलेक्सेइ ने अपनी अकुलीना को पहचान लिया तो वह क्या सोचेगा? उसके आचरण और चरित्र तथा बुद्धि के बारे में उसकी क्या राय बनेगी?

 

दूसरी ओर लीज़ा को यह देखने की तीव्र इच्छा भी हो रही थी कि इस अप्रत्याशित मुलाकात का उस पर क्या असर होता है…तभी उसके दिमाग़ में एक विचार कौंध गया। उसने उसे फ़ौरन नास्त्या को बताया, दोनों उस विचार से बहुत ख़ुश हुईं, मानो उन्हें ख़ज़ाना मिल गया हो और उस पर अमल करने का निर्णय कर बैठीं।

 

दूसरे दिन नाश्ते पर ग्रिगोरी इवानविच ने बेटी से पूछा कि क्या वह अभी भी बेरेस्तोवों से छिपने के निर्णय पर कायम है। “पापा,” लीज़ा ने जवाब दिया, “मैं उनका स्वागत करूँगी, अगर आप यही चाहते हैं तो, मगर सिर्फ एक शर्त पर, मैं उनके सामने कैसी भी निकलूँ, कुछ भी करूँ, आप मुझे डाँटेंगे नहीं और ना ही आश्चर्य अथवा अप्रसन्नता प्रकट करेंगे।”

 

“फिर कोई शरारत!” ग्रिगोरी इवानविच ने मुस्कुराते हुए कहा। “अच्छा, ठीक है, ठीक है, मैं राज़ी हूँ, जो जी में आए कर, काली आँखों वाली मेरी लाड़ो!” इतना कहकर उसने उसके माथे को चूमा और लीज़ा तैयार होने के लिए चली गई।

 

ठीक दो बजे छह घोड़ों वाली गाड़ी आँगन में प्रविष्ठ हुई और गहरी हरियाली वाले गोल लॉन के निकट रुक गई। बूढ़ा बेरेस्तोव मूरम्स्की के दो सेवकों की सहायता से ड्योढ़ी में आया। उसके पीछे–पीछे घोड़े पर आया उसका बेटा और उसके साथ ही मेहमानखाने में घुसा, जहाँ मेज़ सज चुकी थी।

 

मूरम्स्की ने बड़े प्यार से अपने पड़ोसियों का स्वागत किया और भोजन से पहले अपने उद्यान एवम् अस्तबल दिखाने के लिए साफ़–सुथरे, रेत बिछे रास्तों से होकर ले गया। बूढ़ा बेरेस्तोव मन–ही–मन फ़िज़ूल के इस शौक पर, व्यर्थ गए समय एवम् परिश्रम पर दुखी हो रहा था। मगर शिष्टाचारवश चुप रहा।

 

उसके बेटे को न तो सलीकापसन्द ज़मीन्दार की अप्रसन्नता से कोई मतलब था, न ही अंग्रेज़ियत के दीवाने की उत्तेजना से, वह तो बड़ी बेताबी से मेज़बान की बेटी के आने की राह देख रहा था, जिसके बारे में उसने काफ़ी कुछ सुन रखा था, और हालाँकि उसका दिल, जैसा कि हम जानते हैं किसी और का हो चुका था फिर भी जवान सुन्दरी उसकी कल्पना पर छाई हुई थी।

 

मेहमानख़ाने में वापस आकर वे तीनों बैठे। बूढ़े पुराने समय को और सैन्यकाल के चुटकुलों को याद करने लगे और अलेक्सेइ यह सोचने लगा कि लीज़ा की उपस्थिति में उसे कैसा बर्ताव करना है। उसने निश्चय किया कि ठण्डा रूखापन हर हाल में बेहतर होगा, अतः वह स्वयम् को इस दृष्टि से तैयार करने लगा।

 

दरवाज़ा खुला और उसने इतनी बेरुखी से, इतनी लापरवाही से सिर घुमाया कि अत्यंत चंचल एवम् छिछोरी लड़की का दिल भी काँप जाए। मगर अफ़सोस, लीज़ा के स्थान पर बाहर निकली मिस जैक्सन, पाउडर से पुती, सीधी–सपाट, पलकें झपकाती, हलका–सा झुककर अभिवादन करती –
और अलेक्सेइ की यह ख़ूबसूरत, फ़ौजी अदा बेकार गई।

 

वह दुबारा स्वयम् को तैयार भी न कर पाया कि दुबारा दरवाज़ा खुला और इस बार लीज़ा ने प्रवेश किया। सब खड़े हो गए, पिता ने मेहमानों का परिचय करवाना आरम्भ किया ही था, कि एकदम रुक गया और उसने फ़ौरन अपने होंठ काट लिए…

 

लीज़ा, उसकी साँवली लीज़ा कानों तक पाउडर में लिपटी थी, मिस जैक्सन से भी अधिक सुरमा लगाए थी, कृत्रिम बाल, उसके अपने बालों से कहीं अधिक हल्के रंग के, चौदहवें लुदविक के विग जैसे प्रतीत हो रहे थे, मूर्खों जैसी आस्तीनें मैडम पोम्पादूर की आस्तीनों की भाँति झूल रही थीं, कमर इतनी कसी थी मानो ‘X’ अक्षर हो, और माँ के सभी जवाहरात उसकी उँगलियों, कानों और गले में जगमगा रहे थे।

 

इस हास्यास्पद एवम् चमकीली युवती में अलेक्सेइ अपनी अकुलीना को न पहचान सका। उसके पिता ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया और उसने भी अनिच्छा से उनका अनुकरण किया। जब उसने उसकी गोरी–गोरी उँगलियों को छुआ तो उसे महसूस हुआ कि वे थरथरा रही हैं। इस दौरान वह उसका पैर भी देख चुका था जो जानबूझकर बाहर की ओर निकाला गया था और पूरे छिछोरेपन से सजा था।

 

इससे उसके अन्य श्रुंगार के साथ उसने समझौता कर लिया। जहाँ तक पाउडर पोतने और सुरमा थोपने का प्रश्न था, तो मानना पड़ेगा, कि अपने हृदय की सादगी के कारण पहले तो उसने उनकी ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया और बाद में भी उसे कोई सन्देह नहीं हुआ।

 

ग्रिगोरी इवानविच ने अपना वादा याद करके आश्चर्य न दिखाने का प्रयत्न किया, मगर बेटी की यह शरारत उसे इतनी दिलचस्प लग रही थी कि वह मुश्किल से स्वयम् को रोक पा रहा था। सजी–सँवरी अंग्रेज़न को हँसने जैसा कुछ लगा ही नहीं। वह समझ गई कि पाउडर और सुरमा उसकी सिंगार मेज़ से ही उड़ाए गए हैं, अतः उसके चेहरे की सफ़ेदी से झाँक रही थी क्रोध की लाली।

 

उसने नौजवान आफ़त की पुड़िया पर जलती हुई नज़रें डालीं, जो हर प्रकार की क्षमा–याचना को उचित समय के लिए टालकर यह दिखा रही थी, मानो उन्हें देख ही न रही हो।

 

खाने की मेज़ पर बैठे। अलेक्सेइ ने सोच में डूबे उदासीन पात्र का अभिनय जारी रखा। लीज़ा बड़े कृत्रिम ढंग से व्यवहार कर रही थी, दाँतों को भींचकर गाते हुए से, सिर्फ फ्रांसीसी में ही बातें कर रही थी। पिता हर क्षण उसकी ओर देखते, उसके उद्देश्य को समझ न पाते, मगर उन्हें यह सब बड़ा मनोरंजक लग रहा था।

 

अंग्रेज़न तैश में थी और ख़ामोश थी। सिर्फ इवान पेत्रोविच ही सहज था, दो आदमियों का खाना खा गया, अपने हिसाब से पी गया, अपने मज़ाक पर हँसता रहा। और धीरे–धीरे अधिकाधिक दोस्ताना अंदाज़ में बातें करता रहा और ठहाका मारकर हँसता रहा।

 

आख़िरकार मेज़ से उठे, मेहमान चले गए, और ग्रिगोरी इवानविच ने अपनी हँसी और प्रश्नों को इजाज़त दे दी,
“
यह तुम्हें उनको बेवकूफ़ बनाने की क्या सूझी?” उसने लीज़ा से पूछा। “जानती हो? पाउडर सचमुच ही तुम पर फब रहा था, मैं औरतों के सिंगार के रहस्य नहीं जानना चाहता, मगर तुम्हारे स्थान पर यदि मैं होता, तो मैं भी पाउडर लगाना शुरू कर देता, बेशक इतना ज़्यादा नहीं, हल्के से।”

 

अपनी चाल की सफ़लता से लीज़ा उत्तेजित थी। उसने पिता के गले में बाँहें डाल दीं, उसकी सलाह पर गौर करने का वादा किया और गुस्से से काँपती मिस जैक्सन को शान्त करने चली, जो बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा खोलकर उसकी सफ़ाई सुनने को राज़ी हुई :

 

लीज़ा को अपने साँवले रंग के कारण मेहमानों के सामने जाने में शर्म आ रही थी, माँगने की हिम्मत हुई नहीं…उसे विश्वास था कि प्यारी और भली मिस जैक्सन उसे माफ़ कर देगी…वगैरह, वगैरह। मिस जैक्सन को विश्वास हो गया कि लीज़ा उसका मज़ाक नहीं उड़ाना चाहती थी और वह शान्त हो गई, उसने लीज़ा को चूमा और समझौते के उपलक्ष्य में उसे अंग्रेज़ी पाउडर का एक डिब्बा उपहार में दिया, जिसे लीज़ा ने सच्ची कृतज्ञता दर्शाते हुए स्वीकार किया।

 

पाठक भाँप ही गए होंगे कि अगली सुबह लीज़ा को मिलन–वन में पहुँचने की जल्दी पड़ी थी।

“तुम गए थे, मालिक, साँझ को हमारे मालिकों के पास?” उसने फ़ौरन अलेक्सेइ से कहा, “कैसी लगी मालकिन?”

 

अलेक्सेइ ने जवाब दिया कि उसने उस पर ध्यान नहीं दिया। “अफ़सोस,”
लीज़ा ने कहा।

“मगर क्यों?” अलेक्सेइ ने पूछ लिया।

“इसीलिए, कि मैं पूछना चाहूँ कि का वो सच्ची में…सभी कहते हैं…”

“क्या कहते हैं?”

“…सच्ची में कहते हैं, कि मैं मालकिन से मिलती हूँ?”

 

“क्या बकवास है! तुम्हारे सामने तो वह बड़ी बदसूरत है”।

“ओह, मालिक, पाप पड़े ऐसा कहो तो! मालकिन हमारी इत्ती गोरी–गोरी, इत्ती सजी–धजी। मैं कहाँ उनका मुकाबला कर सकूँ!”

 

अलेक्सेइ ने उसे विश्वास दिलाया कि वह सभी गोरी मालकिनों से बेहतर है, और उसे सांत्वना देने के लिए उसकी मालकिन का इतने मज़ाकिया ढंग से वर्णन करने लगा कि लीज़ा दिल खोलकर हँस पड़ी।

 

“फिर भी”, वह गहरी साँस लेकर बोली, “चाहे मालकिन, हो सकता है, मूरख भी दिखे, तो क्या, मैं फिर भी उनके सामने अनपढ़ मूरख ही तो हूँ।”

 

“हाँ,” अलेक्सेइ ने कहा, “यह है अफ़सोस की बात। अगर चाहो तो मैं तुम्हें अभी लिखना–पढ़ना सिखाऊँगा”।

“सचमुच”, लीज़ा ने कहा, “कोशिश तो कर सकती हूँ!”

“हुक्म दो, प्यारी, अभी शुरू करते हैं।”

 

वे बैठ गए, अलेक्सेइ ने जेब से पेन्सिल और नोट बुक निकाली, और अकुलीना ने ग़ज़ब की फुर्ती से वर्णाक्षर सीख लिए। अलेक्सेइ को उसकी समझ पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहा। अगली सुबह उसने लिखने की कोशिश की, पहले तो पेन्सिल उसके बस में नहीं आई, मगर कुछ ही मिनटों बाद बड़े सलीके से वह अक्षर लिखने लगी।

 

“क्या कमाल है!” अलेक्सेइ ने कहा, “हमारी पढ़ाई तो लंकास्टर पद्धति से भी ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से चल रही है।”

 

सचमुच ही, तीसरे पाठ के समय अकुलीना हिज्जे जोड़–जोड़कर “सामन्त की बेटी नतालिया” पढ़ने लगी, पढ़ते–पढ़ते वह रुक–रुककर ऐसी टिप्पणियाँ करती कि अलेक्सेइ को आश्चर्य होता, उसने एक पूरा पन्ना उसी कहानी से चुनी कहावतों से भर दिया।

 

एक हफ़्ता बीतते–बीतते उनके बीच ख़तो–किताबत होने लगी। पुराने चीड़ के कोटर में उनका डाकघर बना। नास्त्या छुप–छुपकर डाकिये की भूमिका निभाती। वहाँ अलेक्सेइ मोटे–मोटे अक्षरों में लिखे पत्र लाता और वहीं उसे नीले कागज़ पर टेढ़े–मेढ़े अक्षरों वाली प्रेम पाती मिलती। अकुलीना की भाषा बड़ी अच्छी थी, और उसकी बुद्धि तेज़ होती जा रही थी।

 

इसी बीच इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव और ग्रिगोरी इवानविच की हाल ही में हुई पहचान शीघ्रतापूर्वक मित्रता में बदल गई, जिसकी वजह ये थी : मूरम्स्की अक्सर यह सोचता कि इवान पेत्रोविच की मृत्यु के बाद उसकी पूरी जागीर अलेक्सेइ इवानविच को मिलेगी, उस हालत में अलेक्सेइ इवानविच इस प्रान्त के सर्वाधिक धनी ज़मीन्दारों में से एक होगा और कोई वजह नहीं कि उसकी शादी लीज़ा से न हो।

 

उधर बूढ़ा बेरेस्तोव, हालाँकि अपने पड़ोसी को कुछ सनकी समझता था (या उसके शब्दों में अंग्रेज़ियत का मारा) फिर भी उससे जुड़ी हुई सकारात्मक विशेषताओं को नकारता नहीं था। उदाहरण के लिए : हर स्थिति का उपयोग करने की योग्यता।

 

ग्रिगोरी इवानविच सामन्त प्रोन्स्की का नज़दीकी रिश्तेदार था, जो बड़ा प्रसिद्ध एवम् प्रभावशाली थी, सामन्त अलेक्सेइ के लिए मददगार सिद्ध हो सकता था, और मूरम्स्की (इवान पेत्रोविच के विचार में) शायद अपनी बेटी का हाथ उसे देने का मौका पाते ही प्रसन्न हो जाएगा।

 

बूढ़े ये सब अपने आप ही सोचते रहे, फिर, आख़िरकार, उन्होंने एक–दूसरे से विचार–विमर्श किया, गले मिले, इस काम को सुनियोजित ढंग से पूरा करने का वादा किया और अपनी–अपनी तरफ़ से उसे अंजाम देने के काम में लग गए।

 

मूरम्स्की के सामने कठिनाई थी अपनी बेत्सी को अलेक्सेइ से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए राज़ी करना, जिससे वह उस यादगार भोज के बाद मिली नहीं थी। ऐसा लगता था, कि वे दोनों एक–दूसरे को पसन्द नहीं आए थे, कम–से–कम अलेक्सेइ दुबारा प्रिलूचिनो नहीं आया था, और अब भी इवान पेत्रोविच उनके यहाँ आता, तो लीज़ा अपने कमरे में चली जाती।

 

मगर, ग्रिगोरी इवानविच ने सोचा, अगर अलेक्सेइ हर रोज़ मेरे यहाँ आएगा तो बेत्सी उसके प्यार में पड़ ही जाएगी। यह तो स्वाभाविक है। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।

 

इवान पेत्रोविच अपने उद्देश्य के बारे में कम चिन्तित था। उसी शाम उसने बेटे को अध्ययन–कक्ष में बुलाया, पाइप का कश लगाया और कुछ देर ख़ामोश रहकर बोला, “क्या बात है, अल्योशा, आजकल तुम अपनी फ़ौजी नौकरी के बारे में बात नहीं करते? या फ़िर शासकीय अफ़सर की वर्दी तुम्हें ललचा रही है…!”

 

“नहीं, महाशय,” अलेक्सेइ ने आदरपूर्वक उत्तर दिया, “मैं देख रहा हूँ, कि मेरा घुड़सवार दस्ते में जाना आपको पसन्द नहीं है, मेरा कर्तव्य है आपकी सेवा करना।”

 

“अच्छा,” इवान पेत्रोविच बोला, “देख रहा हूँ, कि तुम आज्ञाकारी पुत्र हो। मुझे इससे ख़ुशी हुई। मैं तुम्हें बंधन में थोड़े ही बांधना चाहता हूँ। तुम्हें शासकीय नौकरी में जाने पर भी अभी मजबूर नहीं करूँगा। फ़िलहाल तो तुम्हारी शादी करना चाहता हूँ।”

“किससे, महाशय?” विस्मित अलेक्सेइ ने पूछ लिया।

“लिज़ावेता ग्रिगोरेव्ना मूरम्स्काया से,” इवान पेत्रोविच ने जवाब दिया, “लाजवाब दुल्हन है, सच है ना?”

 

“महाशय, अभी मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं रहा।”

“तुम नहीं सोच रहे, इसीलिए मैंने तुम्हारे लिए सोचा और निश्चय कर लिया।”

“आपकी मर्ज़ी, लीज़ा मूरम्स्काया मुझे ज़रा भी अच्छी नहीं लगती।”

“बाद में अच्छी लगने लगेगी। थोड़ा धीरज रखोगे तो प्यार भी करने लगोगे।”

 

“मैं अपने आपको इस योग्य नहीं समझता कि उसे सुख दे सकूँ।”

“उसका सुख तुम्हारे लिए दुख की बात नहीं है। क्या? तो तुम पिता की इच्छा का इसी तरह सम्मान करते हो? ठीक है।”

“आप जो भी समझें, मगर मैं शादी करना नहीं चाहता और करूँगा भी नहीं।”

 

“तुम शादी करोगे, नहीं तो मैं तुम्हें बद्दुआ दूँगा और जागीर, ख़ुदा मेरा इन्साफ़ करेगा, बेच दूँगा और उड़ा दूँगा, मगर तुम्हें एक पाई भी नहीं दूँगा। तुम्हें सोचने के लिए तीन दिन का समय देता हूँ, और तब तक मेरी आँखों के सामने न पड़ना।”

 

अलेक्सेइ जानता था कि यदि पिता के दिमाग़ में कोई बात घुस जाए, तो उसे तरास स्कतीनिन के शब्दों में, कील से भी बाहर नहीं निकाला जा सकता। मगर अलेक्सेइ भी अपने बाप का ही बेटा था, और उसे भी मनाना उतना ही कठिन था।

 

वह अपने कमरे में गया और सोचने लगा पिता के अधिकारों के बारे में, लिज़ावेता ग्रिगोरेव्ना के बारे में, पिता के उसे भिखारी बनाने के संकल्प के बारे में, और अन्त में अकुलीना के बारे में। पहली बार उसे साक्षात्कार हुआ कि वह उसे दीवानगी की हद तक प्यार करता है।

 

एक देहातिन से ब्याह करके, अपने हाथों से मेहनत–मज़दूरी करके जीने का रूमानी ख़याल भी उसके दिमाग़ में आया, और जितना अधिक वह इस बारे में सोचता, उसे यही निर्णय उचित प्रतीत होता। कुछ दिनों से, बारिश के कारण, वन में होनेवाली मुलाकातें भी रुक गई थीं।

 

उसने अकुलीना को साफ़–साफ़ अक्षरों में और अत्यन्त संतप्तावस्था में पत्र लिखकर सम्भावित आपत्ति के बारे में बताते हुए शादी का प्रस्ताव कर दिया। उस पत्र को वह फ़ौरन कोटर में रख आया और प्रसन्नतापूर्वक सो गया।

 

दूसरे दिन सुबह, अपने निर्णय में दृढ़, अलेक्सेइ मूरम्स्की की ओर गया, जिससे उससे साफ़–साफ़ बात कर सके। उसे आशा थी कि वह उसकी भलमनसाहत का वास्ता देकर उसे अपनी ओर कर लेगा।

 

“ग्रिगोरी इवानविच घर पर हैं?” उसने घोड़े को प्रिलूचिनो के गढ़ के द्वार के निकट रोकते हुए पूछा।

 

“नहीं,” सेवक ने उत्तर दिया, “ग्रिगोरी इवानविच सुबह–सुबह ही बाहर निकल गए।”

‘कितनी मुसीबत है!’ अलेक्सेइ ने सोचा, “कम से कम लिज़ावेता ग्रिगोरेव्ना तो घर पर हैं?”

“घर पर हैं।”

 

अलेक्सेइ ने घोड़े पर से कूदकर सेवक के हाथ में लगाम थमाई और बिना सूचना दिए अन्दर गया।

‘अभी सब तय हो जाएगा,’ उसने मेहमानख़ाने की ओर चलते–चलते सोचा, ‘उसी से सब साफ़–साफ़ कह दूँगा।’

 

वह अन्दर घुसा…और वहीं बुत बन गया। लीज़ा…नहीं, नहीं, अकुलीना, सुन्दर सलोनी अकुलीना, सराफ़ान में नहीं, बल्कि सुबह की सफ़ेद पोषाक में खिड़की के सामने बैठकर उसका ख़त पढ़ रही थी, वह इतनी मशगूल थी कि उसे उसकी आहट भी सुनाई न दी। अलेक्सेइ ख़ुशी के मारे चीख़ पड़ा। लीज़ा काँप गई, उसने सिर उठाया, चीख़ी और वहाँ से भागने लगी। वह उसे पकड़ने दौड़ा।

 

”अकुलीना, अकुलीना!”

लीज़ा
ने स्वयम्
को छुड़ाने
की कोशिश
की…”छोड़िए
मुझे, महाशय,
आप क्या
पागल हो
गए हैं?”
वह उससे
मुँह मोड़ते
हुए दोहराती
जा रही
थी।”अकुलीना!
मेरी सखी
अकुलीना!” वह
उसके हाथ
चूमते हुए
दोहराता रहा।
इस दृश्य
की चश्मदीद
गवाह मिस
जैक्सन समझ
न पाई
कि इस
सबका क्या
मतलब है।
इसी समय
दरवाज़ा खुला
और ग्रिगोरी
इवानविच अन्दर
आया।

 

“अहा!” मूरम्स्की ने कहा, “आप लोगों का मामला, लगता है, फिट हो गया है…!”

आशा है, पाठक मुझे सुखद अन्त का वर्णन करने की अनावश्यक ज़िम्मेदारी से मुक्त करेंगे।

The End

 

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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साहब-ए-करामात- फाताँ ने वहीं चारपाई से कहा। “हाँ…….मौलवी साहब की दाढ़ी और पट्टे।” सआदत हसन मंटो

May 5, 2025
धुंआ धुंआ ज़िंदगी लाइफ़ इन मेट्रो; ट्वंटी  ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी आगया. और वे दोनों ‘एक्स’ होगए (नंदकिशोर बर्वे)

धुंआ धुंआ ज़िंदगी-लाइफ़ इन मेट्रो; ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी आ गया. और वे दोनों ‘एक्स’ हो गए. (नंद किशोर बर्वे)

May 2, 2025
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तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूं: फ़ोटो में माया की तरह छरहरे शरीर, परंतु बहुत सुंदर अनुपात के अवयव की निरावरण युवती, दाईं बांह का सहारा लिये एक चट्टान पर बैठी, कहीं दूर देख रही थी (यशपाल की कहानी )

May 2, 2025
अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

May 2, 2025
जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स  की मृत्यु पर शोक मनाया।

जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स की मृत्यु पर शोक मनाया।

May 2, 2025
Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

May 2, 2025
पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

April 24, 2025
बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

March 22, 2025
नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

March 18, 2025
अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

March 17, 2025
नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

March 17, 2025
परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

March 17, 2025
आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

March 17, 2025
चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

March 18, 2025
पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें  रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

March 18, 2025
मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

March 17, 2025
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