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धुआं: अधूरी प्रेम कहानी: पहाड़ के छोटे-से गांव की उर्वशी रजुला की उम्मीद और दर्द की अंतहीन यात्रा (लेखिका: शिवानी)

by Engr. Maqbool Akram
October 25, 2021
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 पहाड़ों पर बिखरी कहानियों को अपने शब्दों से अमर कर देनेवाली लेखिका गौरा पंत, जिन्हें शिवानी नाम से अधिक जाना गया की यह कहानी भी पहाड़ के दर्द को बयां करती है. रामगढ़ के छोटे–से गांव नैक की उर्वशी रजुला की यह कहानी अपने साथ उम्मीद और दर्द की अंतहीन यात्रा पर ले चलती है.

 

रामगढ़ के सीमान्त पर बसे छोटे–से नैक ग्राम में, जिस दिन रजुला का जन्म हुआ, दिशाएं पहाड़ी दमुवे की चोट और तुतुरी की ध्वनि से आनन्द–विभोर हो उठीं. ग्राम आज भी जीवित है, पर उसके मकानों के कक्षगवाक्ष, किसी जर्जर वृद्ध की जीर्ण दन्तपंक्ति की ही भांति, टूटकर बिखर पड़ने को तत्पर हैं.

 

जो अब दूर से, लासा के दलाई लामा के विचित्र महल–सा दिखता है, किसी समय कुमाऊं का प्रसिद्ध सौन्दर्यतीर्थ था. छोटे काठ के यही खंडहर, कभी तबले की झनक और घुंघरुओं की रुनक से गूंज उठते थे. हिरणी के–से शत–शत नयन–कटाक्ष, दूर–दूर से तरुण, किशोर, विगलित पौरुष के क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्र सबको एक अनोखी भावनात्मक एकता की डोर से बांधकर खींच लाते थे.

 

प्रेम के कुछ अमूल्य क्षणों का मुंहमांगा दाम देकर, उच्च कुलगोत्र का अस्तित्व मिटा, न जाने कितने पन्त, पांडे और जोशी यहां विवेकभ्रष्ट हुए.

 

सेब की नशीली ख़ुशबू में डूबा रामगढ़ तब और भी मादक था, वहां की हवा के हर झोंके में सेब की मीठी ख़ुशबू रहती पर तब रामगढ़, आज की भांति अपने सेबों के लिए प्रसिद्ध नहीं था, रामगढ़ का मुख्य आकर्षण था नैक ग्राम. वहां की देवांगना–सी सुन्दरी उर्वशियां शरीर को ऐसी लगन और भक्ति से बेचती थीं, जैसे सामान्य–सी त्रुटि भी उनके जीवन को कलंकित कर देगी.

 

प्रेम के आदान–प्रदान में कहीं भी वारांगना का विलास नहीं रहता, वाणी में, कटाक्षमय अभ्यर्थना में, यहां तक कि उनके संगीत के नैवेद्य में भी कहीं पर उनके कलुषित पेशे की छाप नहीं रहती. कभी किसी मनचले ग्राहक को, उनसे ठुमरी या ग़ज़ल–दादरा सुनाने का आग्रह करने का साहस नहीं होता.

 

प्रेम के कुछ अमूल्य क्षणों का मुंहमांगा दाम देकर, उच्च कुलगोत्र का अस्तित्व मिटा, न जाने कितने पन्त, पांडे और जोशी यहां विवेकभ्रष्ट हुए.

 

पुत्री का जन्म उस बस्ती में सर्वदा बड़े उल्लास से मनाया जाता. इसी से जब उनमें सबसे सुन्दरी मोतिया, अलस होकर नींबू और दाड़िम चाटने लगी तो अनुभवी सखियों ने घेर लिया.

‘हाय, राम कसम, लड़की होगी, इसी से तो खट्टा मांग रही है, अभी से!’’ धना बोली.

‘और क्या!’’ पिरमा चहकी, ‘‘लड़का निगोड़ा ऐसा पीला चटक रंग थोड़े ही ना रहने देता.’’ 

मोतिया पान के पत्ते–सी फेरी जाने लगी, बत्तीस सुन्दरियों के हृदय प्रतीक्षा में धड़कने लगे, उनके वंश की पल्लवित लता अब सूखती जा रही थी, पन्द्रह वर्ष पहले चन्द्रा के निगोड़ा पूत ही जन्मा था. रजुला का जन्म हुआ तो सखियां नाच उठीं. रंगीली बस्ती के तीन–चार पुरुषों को नैनीताल भेजकर, गुरखा बैंड मंगवाया गया, तीन–तीन हलवाइयों ने कड़ाह चढ़ा दिए, एक ओर ब्राह्मणों के लिए दही में गुंधे आटे के पकवान उतरने लगे, दूसरी ओर बड़े–बड़े हंडों में क्षत्रियों के लिए समूचे बकरे भूने जाने ल

लाल रुंवाली के पिछौड़ों से अपने रूप की बिजलियां गिराती, रजुला की बत्तीस मौसियां निमंत्रित अतिथिगणों के हृदयों पर छुरियां चलाने लगीं. पंडितजी ने, शंख को मुंह में लगाकर, तीन बार नवजात कन्या के कान में नाम फूंक दिया ‘रजुला– राजेश्वरी–राधिका’और स्वयं लाल पड़कर रह गए.

 

‘यह काम असल में कन्या के पिता कोना था,’’ कहकर वे खिसियानी हंसी हंसने लगे.

 

‘हो न हो, इसमें तुम्हारे ही–से किसी ब्राह्मण का रक्त है पंडित ज्यू, मिला लो रंग,’’ साथ ही खिलखिल करती दो–तीन मौसियों ने पंडितजी को घेर लिया, ‘‘क्या बात कही तुमने भी!’’

 

पंडितजी स्वयं भी हंसने लगे गहरी दक्षिणा, रसीली चुटकियों और मछली–सी लम्बी आंखों के कटाक्षों ने उन्हें रससागर में गले तक डुबो दिया था. ‘‘माया तो देखो भगवान् की, कल कुंडली बनाई, तो बस देखता रह गया, रत्नांजलि योग है इसका पिरमा, हाथों से रतन उलीचे तो फिर भी हथेली रत्नों से भरी रहे!’’ उन्होंने काल्पनिक रत्नों की ढेरी में हथेली की अंजुली भरकर निकाली और हवा में बिखेर दी.

 

 ‘‘ऐसे, समझी? बाप रे रत्नांजलि योग,’’ वे स्वयं ही अविश्वास से बुदबुदाने लगे.‘वह योग तो हम सबका है यार पंडित ज्यू’, रसीली पिरमा चहकी और खिलखिलाकर हंसी के मंजीरे बन गए.

 

बत्तीस मातृत्व–वंचिता नारियों के अभिशप्त दग्ध हृदयों का मलहम बन गई रजुला. सन्ध्या को सब अपने शृंगार–कक्षों में चली जातीं तो सयानी देवकी रजुला को गोद में नचाती

आजा मेरी चम्पाकली

सोजा मेरी चम्पावती

 

ऐसे ही देवी ने मोतिया को नचाया था, ऐसी ही थी भीमू, लछमी, परु और न जाने कितनी रूपसियों का स्पर्श अभी भी उसकी गोद में सिंचकर रह गया था और सब एक–एक कर ताल में पकड़ी मछलियों की ही भांति, उसकी हथेली से फिसलकर फिर ताल ही में जा गिरी थीं. स्वयं वह भी प्रभु के भजन को घर से निकल गई थी!

 

जोगिया कपड़े रंग के, सिर मूंड, वह एक नैपाली बाबा के दल में बद्रीनाथ की यात्रा को निकल गई थी, पति लाम में मारा गया और क्रूर सास ने उसकी कोमल पीठ, गर्म लोहे की सलाखों से दाग–दागकर रख दी थी, इसी से घर–द्वार की माया–ममता छोड़, वह अलख कहकर निकल पड़ी थी. पन्द्रह वर्ष की बालिका वैराग्य के भूलभुलैये में भटककर, न जाने कब विलास की नगरी में जा गिरी.

 

अब तो उसने सातों नरक देख लिए थे, उसकी पहली पुत्री, बाईस वर्ष में ही भीषण रोग से सड़–सड़कर मर गई थी, तब उसने कसम खाई थी कि वह अब मनुष्यमात्र से माया–ममता नहीं करेगी, पर इकहत्तर वर्ष में फिर बन्धन में पड़ गई. मोतिया भी उसी की पुत्री थी. मोतिया, जैसे–जैसे गतयौवना होती जा रही थी, वैसे ही उसका भाव भी चढ़ता ही जा रहा था.

 

‘शहद जितना पुराना हो उतना ही मीठा भी होता है मोतुली, तू हमारे कुल का खरा शहद है,’’ देवकी ममत्व से उसे निहारकर कहती. नन्दादेवी का डोला उठता तो मोतिया की ही पुकार होती. वही डोले के आगे–आगे नाचती. मखमली लहंगा, बढ़िया लाल गोट लगा अतलसी पिछौड़ा और हाथ में इत्र की ख़ुशबू से तर लाल रेशमी रूमाल लेकर वह नाचती और कुमाऊं के रंगीले जवानों के दिल नाच उठते.

 

मजाल है, किसी कुमाऊंनी लखपती के नौशे की डोली बिना मोतिया के नाच के उठ जाए! सिर से पैर तक सोने से लदी मोतिया जिधर कदम उठाती, फूल खिल जाते. मोतिया की रजुला जब आठ साल की हुई तो बड़े आनन–फानन से उसकी संगीत की बारहखड़ी आरम्भ की गई. एक बकरा काटकर, उस्ताद बुन्दू ने उसकी नागफनी के फूल–सी लाल जिह्ना पर सरस्वती बनाई.

 

कुछ दिन बाद, उस्ताद ने भैरवी की एक छोटी–सी बन्दिश रजुला के गले पर उतारी तो उसने खिलखिलाकर इस बारीक़ी से दुहरा दी, कि बुन्दू मियां दंग रह गए, और रजुला के पैर छूकर लौट गए, ‘‘वाह उस्ताद, आज से तू गुरु और मैं चेला, मोतिया बेटी इस हीरे को गुदड़ी में मत छिपा. देख लेना एक दिन इसके सामने बड़े–बड़े उस्ताद पानी भरेंगे. देस भेज इसे, वरना इसकी विद्या गले ही में सूखकर रह जाएगी.’’

 

‘हे राम, देस! जहां लू की लपटें आदमी को जल–भुनकर रख देती हैं और ऐसी फूल–सी बिटिया…’ बत्तीसों मौसियों के हृदय भर आए. पर बुन्दू मियां कभी ऐसी–वैसी बातें नहीं करते थे. कैसी–कैसी विद्या उनके गले में भरी थी.

 

जब वे ही रजुला से हार मान गए तो देश ही तो भेजना पड़ेगा. बुन्दू मियां की बुआ की लड़की लखनऊ में रहती थी. सुना, रियासतों में ही शादी–ब्याह के मुजरों का बयाना लेती थी. ‘‘ग्रामोफून के डबल रिकार्डों में उनका गाया मेघ, पचास–पचास रुपयों में बिकता है,’’ बुन्दू मियां बोले, ‘‘अब तुम क्या समझो मेघ! तुमने बहुत हुआ तो गा दिया सीधे–सादे ठेके पर कोई भजन या काफी की होली, अरे बड़े–बड़े उस्तादों का गाना सुनोगी तो पसीना आ जाएगा.

 

तबलेवाला है कि सम पै आता ही नहीं और मुरकियों के गोरख–धन्धों में तबलची को फंसाकर छोड़ दिया कि लो बेटा चरो. आखिर तबलेवाला हारा, गिड़गिड़ाया और गानेवालियों ने तान आलाप की रस्सी छोड़ी, सम पै आई और तबलेवाले की जान बची, समझी, ये है गायकी.’’ बुन्दू संगीत का ऐसा विकट चित्र खींच देते कि बत्तीस जोड़ी सरल पहाड़ी आंखें फटी–फटी ही रह जातीं.

 

‘तब तो मैं जरूर रजुला को देस भेजूंगी,’’ मोतिया ने दिल पक्का कर लिया, ‘‘उस्ताद ज्यू, जैसे भी हो तुम इसे लखनऊ पहुंचा आओ, छोकरी नाम तो कमाएगी.’’ उसने बुन्दू मियां के पैर पकड़ लिए.

 

बुन्दू मियां रजुला को लखनऊ पहुंचा आए. बुन्दू मियां की बहन बेनज़ीर ने रजुला को पहले ही दिन से शासन की जंजीरों में जकड़कर रख दिया. जंगली बुलबुल को सोने के पिंजड़े में चैन कहां? कहां पहाड़ी आलूबुखारे, आड़ई और सेब के पेड़ों पर अठखेलियां और कहां तीव्र और कोमल स्वरों की उलझन और रियाज! बत्तीस मौसियों के लाड़ और देवकी के दुलार के लिए बेचारी तरस–तरसकर रह गई. कठोर साम्राज्ञी–सी बेनज़ीर की एक भृकुटी उठती और वह नन्हा–सा सिर झुका लेती.

 

‘मुझे मेरी मां के पास क्या कभी नहीं जाने दोगी?’’ एक दिन बड़े साहस से नन्हीं रजुला ने पूछ ही लिया. प्रश्न के साथ–साथ उसकी कटोरी–सी आंखें छलक आईं.

 

‘पगली लड़की, हमारे मां–बाप कोई नहीं होते, समझी? तेरा पेशा तेरी मां, और तेरा हुनर तेरा बाप है. खबरदार जो आज से मैंने तेरी आंखों में आंसू देखे.’’

रजुला ने सहमकर आंखें पोंछ लीं.

 

चन्दन का उबटन लगाकर तीन–तीन नौकरानियां उसे नहलातीं. बादाम पीसकर, गाय के घी में तर–बतर हलुवा बनाकर उसे खिलाया जाता और वह रियाज करने बैठती. हिंडोले पर बेनज़ीर उसके एक–एक स्वर और आलाप का लेखा रखती, जौनपुरी, कान्हड़ा, मालगुंजी, शहाना, ललित, परज जैसी विकट राग–रागिनियों की विषम सीढ़ियां पार कर, वह संगीत के जिस नन्दनवन में पहुंची, वहां क्षणभर को बत्तीस मौसियों के लाड़–भीने चेहरे स्वयं ही अस्पष्ट हो गए, वह धीरे–धीरे सबको भूलने लगी.

 

अब वह सोलह वर्ष की थी, कई बार उसके घर से मां ने चिट्ठियां भेजीं, पर उसे घर जाने की अनुमति नहीं मिली. तंग चूड़ीदार का दिलपसन्द रेशम, उसकी पतली किशोर टांगों की पिंडलियों को स्पष्ट कर देता, रेशमी कुर्ते के हीरे के बटन जगमगाकर देखनेवाले की दृष्टि बरबस उस सलोने चेहरे पर जड़ देते. किशोरी बनाते–बनाते जैसे विधाता ने उसे फिर बचपन लौटा दिया था.

 

छरहरे शरीर पर उभार और गोलाई नाममात्र को थी, जैसे नवतारुण्य स्पर्शमात्र कर लौट गया हो. आंखें बड़ी नहीं थीं, किन्तु काले भंवरे–सी पुतलियां, चंचल तितलियों–सी थिरकती रहतीं, गालों की दोनों हड्डियों ने बड़े ही मोहक ढंग से उठकर चेहरे को कुछ–कुछ मंगोल–सा बना दिया था.

 

नाक भी छोटे–से चेहरे के ही अनुरूप थी, एकदम छोटी–सी. बादाम रोगन और बटेर का शोरबा भी छरहरे शरीर को अधिक पुष्ट नहीं कर सका था, किन्तु उस सुन्दरी बालिका का सौन्दर्य ही उसके उड़नछू व्यक्तित्व में था. लगता था, यह मानवी नहीं, स्वर्ग की कोई स्वप्न–सुन्दरी अप्सरा है, हाथ लगाते ही उड़ जाएगी.

 

बेनज़ीर, इसी से उसे बड़े यत्न से रुई की फांकों में सहेजकर रखती थी, वह उसका कोहनूर हीरा थी, जिसे न जाने कब कोई दबोच ले. रजुला भी उसका आदर करती थी किन्तु स्नेह? भयंकर प्रतिहिंसा की ज्वाला की भभक थी उसके हृदय में, बस चलता तो छुरा ही भोंक देती.

 

बेनज़ीर की हवेली के बगल में सटी एक और हवेली थी, सेठ दादूमल की. ठीक रजुला के कमरे के सामने ही, छोटे सेठ का कमरा था. बहुत वर्षों तक सेठजी मारवाड़ में रहने के पश्चात् हाल ही में पुत्र का विवाह कर हवेली में लौट आए थे.

 

एक दिन रजुला ने देखा छोटे सेठ के कमरे का नीला पर्दा ऊपर उठा है और एक काली भुजंग–सी औरत, अपनी मोटी कदलीस्तम्भ–सी जंघा पर, एक सांवले युवक का माथा रखकर, उसके कान में तेल डाल रही है. युवती इतनी काली और मोटी थी कि रजुला को ज़ोर से हंसी आ गई. हड़बड़ाकर युवक उठ बैठा, हंसी का अशिष्ट स्वर आवश्यकता से कुछ अधिक ही स्पष्ट हो गया होगा, इसी से उसने लपककर खिड़की ज़ोर से बन्द कर दी.

 

सेठ दादूमल का बेटा है यह, रजुला सोचने लगी. सेठजी बेनज़ीर के खास मिलनेवालों में थे. कोई कहता था कि हवेली भी उन्होंने बेनज़ीर को भेंट दी थी. उनका पुत्र मां की मृत्यु हो जाने से ननिहाल ही में पलकर बड़ा हुआ था, इसी से पहले कभी उसे देखा हो ऐसी याद रजुला को नहीं थी.

 

‘हाय हाय, यही थी सेठ कक्का की बहू’ वह सोचने लगी और बेचारे छोटे सेठ पर उसे तरस आ गया. सुना, वह किसी बहुत बड़े व्यवसायी की इकलौती पुत्री थी और उन्होंने एक करोड़ रुपए का मुलम्मा चढ़ाकर यह अनुपम रत्न, छोटे सेठ को गलग्रह रूप में दान किया था.

 

रजुला को उस दिन सपने में भी छोटा सेठ ही दिखता रहा. कैसा सजीला जवान था, फिनले की मिही धोती ही बांधे था, ऊपर का गठीला बदन नंगा था और गले में थी एक सोने की चैन. और कोई ऐसे सोने का लॉकेट पहन लेता तो जनखा लगता, पर कैसा फब रहा था!

 

सोलह वर्ष में पहली बार पुरुष के रहस्यमय शरीर की इस अपूर्व गठन ने रजुला को स्तब्ध कर दिया. हाय–हाय, छाती पर कैसे भालू के–से बाल थे, जी में आ रहा था वह अपनी चिकनी हथेली से एक बार उस पुष्ट वक्षस्थल को सहला ले. कलाई कैसी चैड़ी थी, जैसे शेर का पंजा हो.

 

फिर तो रोज़ ही छोटा सेठ उसे दिखने लगा. जान–बूझकर ही वह खिड़की के पास खड़ी होकर चोटी गूंथती, कभी सन्तरे की रसीली फांक को चूस–चूसकर अपने रसीले अधरों की लुनाई को और स्पष्ट कर देती. पुरुष को तड़पा–तड़पाकर अपनी ओर खींचने की ही तो उसे शिक्षा दी गई थी.

 

जैसे काली कसौटी पर सोने की लीक और भी अधिक स्पष्ट होकर दमक उठती है, बदसूरत नई सेठानी को नित्य देखती, छोटे सेठ की तरुण कलापारखी आंखों की कसौटी में रजुला सोने की लीक–सी ही दमक उठी.

 

वह सन्तरा चूस–चूसकर, नन्हें–से ओंठ फुला–फुला एक फांक छोटे सेठ की ओर बढ़ाकर, दुष्टता से आंखों ही आंखों में पूछती ‘खाओगे?’ वह दीन याचक–सा दोनों हाथ साधकर, फांक पकड़ने खड़ा हो जाता तो वह चट से फांक अपने मुंह में डाल, उसे ठेंगा दिखाकर खिड़की बन्द कर देती.

 

छोटा सेठ खखारता, खांसता, गुनगुनाता और उसकी हर खखार, खांसी और गुनगुनाहट में उसके प्रणयी चित्त की व्याकुलता स्पष्ट हो उठती; जैसे कह रही हो ‘खिड़की खोलो, वरना मैं मर जाऊंगा.’

 

आईने में अपने हर नैन–नक्श को सँवारकर धीरे–धीरे खिड़की का मुंदा पट खोलकर रजुला मुस्कराती और बादलों में छिपी स्वयं चन्द्रिका ही मुस्करा उठती. प्रणय का यह निर्दोष आदान–प्रदान छोटी सेठानी और बेनज़ीर की जासूसी दृष्टियों से बचकर ही चलता.

 

जिस किशोरी के लावण्य को बेनज़ीर के यूनानी नुस्खे भी पुष्ट नहीं बना सके थे, उसे छोटे सेठ की मुग्ध दृष्टि ने ही जादू की छड़ी–सी फेरकर अनुपम बना दिया. गालों पर और ललाई आ गई, आंखों में रस का सागर हिलोरें लेने लगा, जाने–अनजाने कटाक्ष चलने लगे और रसीले अधर किसी के निर्मम स्पर्श तले कुचलकर अपना अस्तित्व खो बैठने को व्याकुल हो उठे.

 

एक बार शहर में बहुत बड़ी सर्कस कम्पनी आई थी. बेनज़ीर ने अपने दल के लिए भी टिकट ख़रीदे, पर्दे तानकर फिटन जोत दी गई. बिना पर्दे के बेनज़ीर की हवेली का परिन्दा भी हवा में नहीं चहक सकता! तब चौक की कोठेवालियों की आंखों में भी ऐसी सौम्यता थी, जो अब दुर्भाग्य से उच्च कुल की वनिताओं की दृष्टि में भी नहीं रही है.

 

उनकी वेशभूषा की शालीनता, बड़े–बड़े घर की बहू–बेटियों की शृंगार–शालीनता को मात करती थी. मजाल है कि कुर्ते का गला ज़रा–सा भी नियत सीमा को लांघ जाए! गर्दन की हड्डियां तक परदे में दुबकी रहतीं. ऐसे ही शालीन लिबास में, बेनज़ीर ने रजुला को सजा दिया.

 

उसकी छोटी–छोटी असंख्य गढ़वाली चोटियां कर, उसकी न्यारी ही छवि रचा दी. वह पहाड़ी हिरनी थी, पहाड़ी दिखने में ही उसका सौन्दर्य सार्थक हो उठेगा. चूड़ीदार के बदले, उसने आज सोलहगजी मग्जीदार ऊंचा लहंगा पहना था, जिसकी काली मग्जी से पाजेब छमकाते उसकी लाल–लाल एड़ियोंवाले सफेद पैर दो पालतू कबूतर–से ही ठुमक रहे थे.

 

कानों में बड़े–बड़े कटावदार झुमके थे और गले में भी पहाड़ी कुन्दनिया चम्पाकली. इस शृंगार के पीछे भी बेनज़ीर की शतरंजी चाल थी. आज वह वलीअहद, ताल्लुकेदार और मनचले रईसजादों की भीड़ के बीच रजुला के रूप की चिनगारी छोड़कर तमाशा देखेगी. कौन होगा वह माई का लाल, जो मुंहमांगे दाम देकर इस अनमोल हीरे को खरीद सकेगा!

 

वह रजुला को लेकर सर्कस के तम्बू में पहुंची कि साइकिल चलाता भालू, चरखा चलाता शेर और नंगी जांघों के दर्पण चमकाती सर्कस–सुन्दरियां फीकी पड़ गईं. सबकी आंखें रजुला पर गड़ गईं.

 

रजुला ने पहले कभी सर्कस का खेल नहीं देखा था, इसी से खेल शुरू हुआ तो वह जोकर के सस्ते मज़ाक देखकर, पेट पकड़–पकड़कर हंसती–हंसती दुहरी हो गई. कभी शेर की दहाड़ सुनकर, भय से कांपती बेनज़ीर की गद्दीदार ऊंची छाती पर जा गिरती और शेर को मार गिराने को, कितने ही तरुण कुंवरों की भुजाएं फड़कने लगतीं.

 

सेठ दादूमल का बेटा भी अपनी भोंड़ी भुजंगिनी को लेकर तमाशा देखने आया था, पर उसकी दृष्टि सर्कस के शेर–भालुओं पर नहीं थी, वह तो रजुला को ही मुग्ध होकर देख रहा था. रजुला ने भी देखा और मुस्कराकर गर्दन फेर ली. छोटा सेठ तड़प गया, कहां लाल बहीखातों के बीच उसका शुष्क जीवन और कहां यह सौन्दर्य की रसवन्ती धारा!

 

वह घर लौटा तो रजुला की खिड़की बन्द थी. मन मारकर लौट गया और जब उसकी सेठानी अपनी पृथुल तोंद हिलाती, खर्राटे भरने लगी तो वह फिर ऊपर चला आया. रजुला के कमरे में नीली बत्ती जल रही थी, खिड़की खुली थी, एक–एक कर अपने पटाम्बर उतारती वह गुनगुना रही थी.

 

छोटे सेठ का दिल धौंकनी–सा चलने लगा. कैसी गोल–गोल बांहें थीं, शंख–सी ग्रीवा पर पड़ी लाल–लाल मूंगे की माला किस बांके अन्दाज से उठ–उठकर गिर रही थी, उसने ओढ़नी भी उतार दी. छोटा सेठ सौन्दर्य–सुषमा की इस अनोखी पिटारी को आंखों ही आंखों में पी रहा था.

 

वह थोड़ा और बढ़ा और पर्दा हटाकर निर्लज्ज प्रणय–विभोर याचक की दीनता से खड़ा हो गया. रजुला भी पलटी, उसका चेहरा कानों तक लाल पड़ गया ऐसी मुग्ध दृष्टि से उसका यह पहला परिचय था. आज ठेंगा दिखाकर वह खिड़की बन्द नहीं कर सकी…

 

‘बड़े बदतमीज़ हैं जी आप.’’ कृत्रिम क्रोध से गर्दन टेढ़ी कर उसने कहा, ‘‘क्या नाम है आपका?’’

 

‘क्यों, क्या थाने में रपट लिखवानी है? तो यह भी लिखवा देना कि इसे फांसी के तख्ते पर झूलना भी मंजूर है, पर यह इस खिड़की को नहीं छोड़ सकता.’’ आधा धड़ ही उसने खिड़की से इस तरह लापरवाही से नीचे को लटका दिया कि रजुला अपनी हथेली को ओठों पर लगाकर हल्के स्वर में चीख उठी, ‘‘हाय–हाय, करते क्या हैं? गिर जाइएगा तो?’’

 

‘आपकी बला से यहां सारी–सारी रात खिड़की से लटक–लटककर काट दी है.’’ सचमुच ही उसने दुर्दमनीय साहस से उचककर खिड़की की मुंडेर पर आसन जमा लिया और दोनों लम्बी–लम्बी टांगें बाहर को झुला दीं. रजुला की खिड़की और उसकी खिड़की के बीच कोई दो–एक गज का फासला था, किन्तु बीच में थी भयानक खाई, कोई गिरे तो चुनकर भी हड्डियां न मिलें.

 

रजुला की खिड़की पर बाहर को निकली एक चौड़ी–सी सीमेंट की पाटी–सी बनी थी. उसने बड़े शौक से ही उसे अपने पालतू कबूतरों के लिए बनवाया था. वह उसी पर झुक गई. ‘‘क्या नाम है जी आपका छोटे सेठ?’’ हंसकर रजुला ने अपने पेशे का प्रथम कटाक्ष फेंका.

 

‘लालचन्द, और तुम्हारा?’’

‘हाय–हाय, जैसे जानते ही नहीं.’’

 

‘मैं तुम्हारा एक ही नाम जानता हूं और वह है रज्जी, तुम्हारी अम्मी तुम्हें पुकारती जो रहती है, कभी आओ ना हमारे यहां!’’

 

‘आपके यहां!’’ रजुला ज़ोर से हंसी, ‘‘सेठानी मुझे झाड़ई मारकर भगा देगी, आप ही आइए न!’’ रात्रि के अस्पष्ट आलोक में उसका यह मीठा आह्नान लालचन्द को पागल कर बैठा, ‘‘सच कहती हो? आ जाऊं? लगा दूं छलांग?’’

 

‘आए हैं बड़ी छलांग लगानेवाले, पैर फिसला तो सड़क पर चित्त ही नजर आएंगे.’’ रजुला ने अविश्वास से अपने होंठ फुला–फुलाकर कहा. वह इतना कहकर संभली भी न थी कि छोटा सेठ सचमुच ही बन्दर की–सी फुर्ती से उसकी बित्तेभर की मुंडेर पर कूदा और लड़खड़ाकर उसी पर गिर पड़ा.रजुला के मुंह पर हवाइयां उड़ने लगीं ‘हाय–हाय, अगर यह गिर जाता’.

 

वह सोच–सोचकर कांप गई. उसका सफ़ेद चेहरा देखकर लालचन्द ठठाकर हंस पड़ा, ‘‘कहो, लगाई न सर्कसी छलांग?’’

 

‘हाय–हाय, कितनी जोर से हंस गए आप, अम्मी ने सुन लिया तो मेरी बोटी–बोटी कुत्तों से नुचवा देंगी. इतनी रात को मेरे कमरे में आदमी!’’ उसकी आंखों में बेबसी के आंसू छलक उठे.

 

‘लो, कहो तो अभी चल दूं?’’ वह साहसी उद्दंड युवक फिर छलांग लगाने को हुआ तो लपककर रजुला ने दोनों हाथ पकड़कर रोक लिया. एक–दूसरे का स्पर्श पाकर दोनों क्षणभर को अवश पड़ गए. रजुला ने आंखें मूंद लीं. यह उसके जीवन का एकदम ही नया अनुभव था.

 

लालचन्द ने उसे बढ़कर बांहों में भर लिया, ‘‘जानती हो रज्जी, मैं कब से तुम्हारे लिए दीवाना हूं? जब तुम गाती थीं, मैं इसी खिड़की पर कान लगाए सुनता था, तुम चोटी गूंथती थीं और मैं छिप–छिपकर तुम्हें देखता था, तुम अपनी शरबती आंखों में सुरमा डालती थीं और मैं…’

 

‘बस कीजिए, उफ’, कांप–कांपकर रजुला उसकी बांहों में खोई जा रही थी, गलती जा रही थी, जैसे गर्म आंच में धरी मक्खन की बट्टी हो. ‘‘नहीं–नहीं, आज नहीं यह सब नहीं,’’ वह उसके लौहपाश में नहीं–नहीं कहती सिमटती जा रही थी. एकाएक स्वयं ही लालचन्द ने बन्धन ढीला छोड़ दिया, ‘‘अच्छा रज्जी, कोई बात नहीं, पर याद रखना मैं फिर कल आऊंगा.’’

 

दोनों हाथों से उसका मुंह थामकर लालचन्द झुका, अधर स्पर्श करने का उसे साहस ही नहीं हुआ. हे भगवान्, यह तो उसकी तिजोरी के ऊपर टंगी स्वयं साक्षात् लक्ष्मीजी का–सा चमकता रूप था. हाथीदांत–से शुभ्र ललाट को चूमकर वह उचककर खिड़की की मुंडेर पर चढ़ गया.

 

‘हाय–हाय, ऐसे मत कूदिए’, विकल–सी होकर रजुला पीछे–पीछे चली आई. बड़ी ममता से, बड़े दुलार से निहारकर, लालचन्द ने एक ही छलांग में दूरी पार कर ली. पलक मारते ही वह अपने कमरे में खड़ा मुस्करा रहा था.

 

इसी सधी छलांग ने रात, आधी रात, वर्षा, तूफान, ओले सबको जीत लिया. लालचन्द का साहस दिन दुगुना और रात चौगुना बढ़ने लगा. तीन महीने बीत गए, छोटी सेठानी मायके चली गई थी. अब पूरी आज़ादी थी. दोनों अभी प्रेम से चहकते उन कबूतरों के जोड़े–से थे जिन्हें बन्धन का कोई भय नहीं था, भूत और भविष्य के काले बादलों से उनके निद्र्वन्द्व जीवन का आकाश अभी तनिक भी नहीं घिरा था.

 

खिड़की के पास दोनों बांहें फैलाए रजुला खिलखिलाकर कभी सहसा पीछे हट जाती और भरभराकर लालचन्द पलंग पर ही औंधा गिर पड़ता. कभी सूने कमरे में उसे न पाकर वह व्याकुल होकर इधर–उधर देखता और वह पलंग के नीचे से पालतू बिल्ली की तरह, मखमली पंजे टेकती मुस्कराती निकल आती.

 

‘कभी तेरी अम्मी पकड़ ले तो?’’ वह अपनी गोदी में लेटी रजुला के सलोने चेहरे से अपना चेहरा सटाकर पूछता.

 

‘तो क्या, कह दूंगी, यह चोर–उचक्का मुझे छुरा दिखाकर कह रहा था ख़बरदार जो शोर मचाया, बता तेरी अम्मी चाभी कहां रखती हैं.’’

 

‘हां, यही तो कहेगी तू, आख़िर है तो…’कहकर वह दुष्टता से मुस्करा उठता. पेशे का अस्पष्ट उल्लेख भी उसे कुम्हला देता. वह उदास हो जाती और लाख मानमनव्वलों में पूरी रात ही बीत जाती. कभी मुल्ला की अजान से ही दोनों अचकचाकर जगते और क्षणभर में छलांग लगाकर वह लौट जाता.

 

‘कल तेरी अम्मी भी तो मलीहाबाद जा रही है, मैं सात ही बजे आ जाऊंगा रज्जी,’’ उसने कहा.

 

पर वह कल कभी नहीं आई, लालचन्द के रसीले चुम्बनों के स्पर्श से धुले, रजुला के अधर अभी सूखे भी नहीं थे कि तीन महीने में पहली बार बांका लालचन्द अपनी सर्कसी छलांग न जाने कैसे भूल गया. उसकी सधी छलांग खिड़की तक पहुंचकर ही फिसल गई.

 

धमाके के साथ, वह चौमंज़िले से एकदम पथरीली सड़क पर पड़ा और एक हृदयभेदी चीत्कार से गलियां गूंज गईं. पागलों की तरह रजुला शायद स्वयं भी खिड़की से कूद जाती पर न जाने कब बन्द द्वार भड़भड़ाकर, चिटकनी सटका स्वयं अम्मी उसे पकड़कर खड़ी हो गई.

 

‘पागल लड़की, मैं जानती थी कि तेरे पास कोई आता है, तेरे बदन से मर्द के पसीने की बू को मैंने सूंघ लिया था. ठीक हुआ अल्लाह ने बेहया को सज़ा दी, आज ही मैं छिपकर उसे पकड़ने को थी, पर अल्लाताला ने ख़ुद ही चोर पकड़ लिया.’’

 

तिलमिलाकर, क्रुद्ध सिंहनी–सी रजुला, बेनज़ीर पर टूट पड़ी. पर बेनज़ीर ने एक ही चांटे से उसे ज़मीन पर गिरा दिया. सेठ की हवेली से आते विलाप के स्वर, उसके कलेजे पर छुरियां चलाने लगे कानों में अंगुली डाले वह तड़पती रही. द्वार पर ताला डालकर उसे रोटी–पानी दे दिया जाता.

 

पांचवें दिन वह बड़े साहस से खिड़की के पास खड़ी हो गई, उसके बुझे दिल की ही भांति सेठ के कमरे में भी काला अंधेरा था. नित्य की भांति घुटनों तक धोती समेटे, छलांग लगाने को तत्पर, हंसी के मोती बिखेरता उसका छैला, छोटा सेठ अब कहीं नहीं था.

 

इसी मुंडेर पर उसके युगल चरणों की छाप, अभी भी धूल पर उभरी पड़ी थी. आंसुओं से अन्धी आंखों ने उसी अस्पष्ट छाप को ढूंढ़ निकाला और वह उसे चूम–चूमकर पागल हो गई. ‘छोटे सेठ’, वह पागलों की भांति बड़बड़ाती, चक्कर काटती द्वार पर पहुंची. रोटी रखकर, पठान दरबान शायद अफीम की पिनक में ताला–सांकल भूल गया था.

 

रजुला ने द्वार खोला और दबे पैरों सीढ़ियां लांघकर, बदहवास भागने लगी. सुबह बेनज़ीर ने खुला द्वार देखा तो धक रह गई. रजुला भाग गई थी, बाल नोचती, बौखलाती, बेनज़ीर अपनी नगाड़े–सी छातियों पर दुहत्तड़ चलाती चीख–चीखकर रोती रही पर रजुला नहीं लौटी. बेनज़ीर का कोहनूर हीरा खो गया.

 

जिस कुमाऊं की वनस्थली ने उसे एक दिन नियति के आदेश से दूर पटक दिया था, वही उसे बड़ी ममता से फिर पुकार उठी. रजुला ने वही पुकार सुन ली थी. ओंठों पर पपोटे जम गए थे, एड़ियां छिल गई थीं, बालों में धूल की तहें जम–जमकर जटाओं–सी लगने लगी थीं. बत्तीस मौसियों का प्रासाद एकदम ही उजड़ गया था, बाहर एक बूढ़ा–सा चौकीदार ऊंघ रहा था. ‘‘सुनो जी, वहां जो नैक्याणियां रहती थीं वह क्या कहीं चली गईं?’’ डर–डरकर उसने पूछा.

 

चौंककर बूढ़ा नींद से जग गया, ‘‘न जाने कहां से आ जाती हैं सालियां. एकादशी की सुबह–सुबह उन्हीं हरामज़ादियों का पता पूछना था, सती सीता, लक्ष्मी, पार्वती थीं बड़ी! मर गईं सब! और पूछना है कुछ?’’ सहमकर रजुला पीछे हट गई, बूढ़े के ललाट पर बने वैष्णवी त्रिपुण्ड को देखकर उसे अपनी अपवित्रता और अल्पज्ञता का भास हुआ, ‘‘माफ़ करना महाराज, मुझे बस यही पूछना था जब मर ही गईं तो और क्या पूछूं!’’ वह मुड़ गई. 


‘देख छोकरी, सुबह–सुबह झूठ नहीं बोलूंगा. सब तो नहीं मरीं, तीन बच गई थीं, एक तो देबुली, पिरमा और धनिया. तीनों गागर में नेपाली बाबा के आश्रम में हैं. बड़ा बाबा बनता है साला, जनम पातरों की सोहबत में गुज़ारी बुढ़ापे में फिर हरामियों को बटोर लिया. तीन तो हैं चौथी आज पहुंच जाएगी.’’ घृणा से उसकी ओर थूककर बूढ़ा पीठ फेरकर माला जपने लगा.

 

कंटीली पगडंडियां पार कर वह पहुंच ही गई. वह जानती थी नेपाली बाबा ही उसके नाना हैं, क्या उसे स्वीकार नहीं करेंगे. उनके चरणों में पड़ी ईश्वर–भजन में ही वह भी जीवन काट लेगी. धूनी के धुएं को चीरकर वह गुफा में जा पहुंची. उसके चेहरे को देखकर ही उसे सबने पहचान लिया.

 

मोतिया का ठप्पा ही तो था, उसके चेहरे पर. बूढ़ी देबा ने उसे टटोल–टटोलकर ही देखा, उसकी आंखें जाती रही थीं, प्रेमा के सौन्दर्य को समय भी नहीं छीन सका था और धना मौसी को अभी भी रजुला के बचपन की एक–एक घटना याद थी. बाबा गोरखपन्थी थे, इसी से सबको कनफड़ा बालियां पहनाकर दीक्षा दे दी थी.

 

जिन कानों में बेनज़ीर के पन्ना, पुखराज और नीलम झूलते थे, उन्हीं में सींग के बड़े–बड़े कनफड़ा बाले लटकाकर, रजुला ने भी एक दिन जिद कर दीक्षा ले ली. कभी वह धूनी रचाती, कभी प्रसादी बनाती और कभी देवा आमा की बात से लुंजपुंज देह पर, डोलू की जड़ी गरम कर सेंक करती.

 

कभी–कभी नेपाल, गढ़वाल और तिब्बत से आए गोरखपन्थी साधुओं के अखाड़े आ जुटते, दल से गुफा भर जाती और भंडारे की धूम के बाद झांझ, खड़ताल और मंजीरे के साथ स्वर–लय–विहीन गाने चलते. बड़े अनुनय से नेपाली बाबा एक दिन बोले, ‘‘तू गा ना मेरी लली, एक–आध सुना दे ना, तूने तो लखनऊ के उस्तादों से गाना सीखा है.’’

 

निष्प्रभ आंखों में बिसरी स्मृतियों का सागर उमड़ उठा. कभी किसी ने उसके कितने गाने छिप–छिपकर सुने थे. फिर कितने गाने उसने सुना–सुनाकर रात ही बिता दी थी, पर उस मनहूस रात को जब उसने ‘चले जइयो बेदरदा मैं रोय मरी जाऊं’, सुनने की फरमाइश की थी तो उस करमजली ने कहा था ‘‘उंह, आज नहीं कल सुनिएगा, मैं कहीं भागी थोड़े ही जा रही हूं.’’ भाग तो वे ही गए थे. अब वह किसके लिए गाएगी?

 

‘क्यों बेटी, नहीं सुनाएगी?’’ नेपाली बाबा का आग्रह कंठ में छलक उठा. पर स्वर–लय नटिनी तो वहां होकर भी नहीं थी. वह तो धूनी को एकटक देखती, न जाने किस अतीत के चिन्तन में डूबी थी. बाबा का आदेश सुनकर चौंकी, ‘‘मुझे गाना नहीं आता बाबा’, कहकर उसने उठकर धूनी में लकड़ियां लगाईं और आग फूंकने का उपक्रम करने लगी.

 

 ‘‘अरे राम–राम, बड़ा धुआं है’, बड़ी ममता से बाबा ने कहा, ‘‘तेरी आंखों से तो पानी बहने लगा. अरी पिरमा, तू मार दे तो फूंक, इस बेचारी की तो आंखें ही लाल हो गईं.’’ उदास हंसी हंसकर पिरमा उठी और आग फूंकने आई, पर वह तो रजुला की आंखों के पानी का इतिहास जानती थी, वह क्या लकड़ी के धुएं का पानी था?

 

भोले बाबा से वह कैसे कहे कि इस धूनी को फूंक–फांककर तो वह धुआं मिटा देगी, पर जो उस छोकरी के हृदय में निरन्तर एक धूनी धधक रही है, उसका धुआं भी क्या वह फूंक मारकर हटा सकेगी?

The End 

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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