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Mohabbat Ki Pehchan: Dil ko Choo lene Wali Ek Hindi Story: By Krishan Chander

by Engr. Maqbool Akram
May 13, 2021
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पहले दिन जब उसने वक़ार को देखा तो वो उसे देखती ही रह गई थी। अस्मा की पार्टी में किसी ने उसे मिलवाया था। “इनसे मिलो ये वक़ार हैं।” वक़ार उसके लिए मुकम्मल अजनबी था मगर उस अजनबी–पन में एक अजीब सी जान–पहचान थी।

 

जैसे बरसों या शायद सदियों के बाद आज वो दोनों मिले हों, और किसी एक ही भूली हुई बात को याद करने की कोशिश कर रहे हों। दूसरी बार शाहिदा की कॉफ़ी पार्टी में मुलाक़ात हुई थी, और इस बार भी बज़ाहिर उस बेगानगी के अंदर वही यग़ानगत उन दोनों को महसूस हो रही थी। ये पहली निगाह वाली मुहब्बत नहीं थी। एक अजीब सी क़ुरबत और गहरी जान पहचान का एहसास था। जो दोनों के दिलों में उमड़ रहा था जैसे बहुत पहले वो कहीं मिले हैं। बहुत लंबी–लंबी बहसें की हैं।

 

आदात, ख़्यालात और ज़ाती पसंद के ताने–बाने पर एक दूसरे को परखा है। वो दोनों एक दूसरे के हाथ की गर्मी को जानते हैं। उस बर्क़ी रौ को पहचानते हैं जो निगाहों ही निगाहों में एक दूसरे को देखते ही दौड़ने लगती है। वो डोर जो दिल ही दिल में अंदर बंध जाती है और एक दूसरे से अलग होने के बाद अपने अपने घरों में अलग अलग, अपने अपने कमरों में अकेले आराम, सुकून और चैन से बैठे हुए भी यूँ महसूस होता है, जैसे वो डोर हिल रही है।

 



एक ही समय में, वक़्त और एहसास के एक ही सानहे में वो दोनों एक दूसरे को याद कर रहे हैं। रात की तन्हाई में अज़्रा को अपने बिस्तर पर अकेले लेटे–लेटे एक दम एहसास हुआ जैसे उसके बहुत ही क़रीब उसके चेहरे पर वक़ार झुका हुआ है। घबरा कर उसने बेड स्विच दबा कर रौशनी की। कमरे में कोई ना था।

 

फिर भी वो घबरा सी गई। लजा सी गई उस एक लम्हे में ऐसा महसूस हुआ जैसे उसका राज़ वक़ार को मालूम हो गया। तीसरी बार जब वक़ार से रऊफ़ की दावत पर मिली तो बे इख़तियार उस की आँखें झुक गईं और रुख़्सारों पे रंग आ गया। मुहब्बत करने वाली औरत का दिल बहुत शफ़्फ़ाफ़ है।

 

वक़ार और अज़्रा को एक दूसरे के क़रीब आते ज़्यादा देर नहीं लगी। कुछ ऐसा महसूस होता है जैसे बनाने वाले ने उन दोनों को बनाया तो एक दूसरे के लिए ही था। दोनों ज़िद्दी और मग़रूर थे। रास्त बाज़ और मेहनती, ना किसी से दबने वाले ना किसी से बेजा ख़ुशामद करने वाले, दोनों किसी क़दर कज–बहस भी थे।

 

और शायद वो बहस सदियों पहले उनके दरमियान शुरू हुई थी अब फिर जारी हो रही थी। दोनों साईंस के बहुत अच्छे तालिब–ए–इल्म थे। और यूनीवर्सिटी के चीदा स्कॉलरों में उनका शुमार होता था और आजकल साईंस में फ़लसफ़े से कहीं ज़्यादा बहस करने का मौक़ा है।

 

इस पर तुर्रा ये कि दोनों वजीहा, ख़ूबसूरत और हसीन थे। लगता था क़ुदरत ने दोनों को एक ही साँचे और ठप्पे में ढाल कर एक दूसरे से दूर फेंक दिया था। हालात के महवर पर गर्दिश करते–करते अचानक वो एक दूसरे से आन मिले थे और अब ऐसा लगता था जैसे कभी एक दूसरे से अलग ना होंगे।

 

ये पहचान तीन–चार साल तक चलती गई और गहरी होती गई। इस अरसे में वक़ार आई ए एस(IAS) के इंतिख़ाब में आ चुका था और ट्रेनिंग हासिल कर रहा था। अज़्रा भी नैशनल लेबॉरेट्रीज़ में मुलाज़िम हो चुकी थी और अपने महबूब मौज़ू क्रिस्टोलॉजी पर रिसर्च कर रही थी। ज़िंदगी उन दोनों के लिए बहार के पहले झोंके की तरह शुरू हो रही थी।

 

उन दोनों ने शादी का फ़ैसला कर लिया था। मगर शादी से चंद रोज़ पहले अज़्रा के मुँह से ‘नहीं‘ निकल गया। बरसों बाद आज भी जब वो वाक़्ये को याद करती है तो उसे उस ‘नहीं’ पर हैरत तो नहीं होती, हाँ इस ‘नहीं’ पर जमे और अड़े रहने पर हैरत होती है।

 

वो दोनों नैशनल पार्क के एक घने कुंज में घास पर दस्तर–ख़्वान बिछाए खाना खा रहे थे। दूर ऊपर कहीं सूरज था। बीच में चमेली के पीले–पीले फूल थे जिनके ओट में कहीं–कहीं झील का नीला पानी एक शरीर बच्चे की तरह उन दोनों की तन्हाई में झांका जाता है। कोई कश्ति साहिल से गुज़र जाती है।

 

कोई प्यार करने वाली लड़की अपने चाहने वाले के बाज़ू पर सर रखकर हंस रही है। उसकी हंसी सफ़ेद बादल का एक टुकड़ा है। इस दुनिया में हमेशा क़यामतें आतीं रहेंगी और हमेशा वो एक दूसरे से झगड़ेंगे। दस गज़ ज़मीन के लिए, कभी एक झूटे ग़ुरूर के लिए और हमेशा कोई ना कोई आफ़त टूटती रहेगी इस दुनिया में।

 

मगर मुहब्बत सिर्फ एक–बार आती है। बादल के सफ़ेद टुकड़े की तरह झील में एक कश्ति की तरह तैरती हुई चाहत के बाज़ू पर सर रखे हुए आसमान को तकती हुई, दिल के साहिल को छूती हुई गुज़र जाती है। कोई हाथ बढ़ा के रोक ले तो रुक जाती है वर्ना मौत की गूंज की तरह कहीं और चली जाती है।

 

ऐसे ठंडे से मीठे शहद भरे लम्हे वो बहस शुरू हुई थी। वक़ार ने उसे मश्वरा दिया था कि शादी के बाद अज़्रा नैशनल लेबॉरेट्रीज़ में काम करना छोड़ दे। वक़ार अब आई ए एस (IAS) में आ चुका है। ख़ुदा के फ़ज़ल से हर तरह की फ़राग़त उसे हासिल है अब अज़्रा को इस्तीफ़ा दाख़िल कर देना चाहीए। चंद दिनों में उनकी शादी होने वाली है अज़्रा के मुँह से ना निकल गई।नहीं वो अपनी मुलाज़मत कभी तर्क नहीं करेगी।

 

मुलाज़मत छोड़ने की ज़रूरत क्या है उसे एक काम पसंद है। वो रिसर्च करना चाहती है। शादी का ये मतलब तो हरगिज़ नहीं है कि औरत मर्द की ग़ुलाम हो कर रह जाये। घरदारी में ऐसा कौन सा वक़्त लगता है खाना बावर्ची पकाएगा, पानी नल से आएगा, झाड़ू–बुहार, झाड़–पोंझ का काम मनियार करेगी। बाक़ी रह क्या गया? सोफ़े पर एक उम्दा साड़ी पहन कर शौहर की राह तकना? सो ये काम कौन सा मुश्किल है। दफ़्तर से आते ही चंद मिनट में साड़ी बदल कर मुँह हाथ धो कर दरवाज़ा पर टंगी हुई एक रोशन मुस्कुराहट की तरह खड़ा हुआ जा सकता है।

 

जूँ–जूँ वो बात करते गए बहस उलझती ही गई। अज़्रा को अंदाज़ा हो रहा था कि बहस ग़लत रास्ते पर जा रही है मगर जोश के आलम में वो भी बोलती चली गई। बहस के दौरान उसे ये भी एहसास हुआ कि वो घर और उसकी ज़िम्मेदारी और उसके एहसास की एहमियत को महज़ बेहस की ख़ातिर कम करती जा रही है। कुछ ये भी एहसास होने लगा कि वैसे वक़ार की दलील में वज़न ज़्यादा है। इस बात से वो और भी बिफर गई। उसके लहजे में तल्ख़ी आने लगी।

 

फिर उसे ये महसूस हुआ जैसे ये सब कुछ ग़लत हो रहा है। उसे मुआमले को सँभाल लेना चाहीए मगर वो एक ‘ना’ जो उसके मुँह से निकली तो निकलती ही चली गई।और वो बहस के दौरान मज़ीद कज–बहसी से काम लेने लगी। वक़ार भी संजीदगी को छोड़कर गुस्से से काम लेने लगा तुम्हें ये नौकरी छोड़ देनी होगी।

 

“तुम मुझे ऐसी कोई धमकी नहीं दे सकते।” अज़्रा के लहजे में आँसू आने लगे वो और भी अपने अक़ीदे पर सख़्त होती गई।


“किसी क़ीमत पर में ये मुलाज़मत नहीं छोड़ूँगी। चाहे शादी हो या न हो। मैं अपना काम बंद नहीं करूँगी।”

Krishan Chander

 

यकायक अज़्रा ने अपना फ़ैसला दे दिया। और बहस एक दम बंद हो गई। दस्तर–ख़्वान लपेट दिया गया। ख़ामोशी में झील के किनारे बर्तन धोए गए। एक कश्ती मर्दों औरतों की हंसी से भरी हुई शरीर बच्चों की किलकारियों से मामूर क़रीब से गुज़रती जा रही थी। अज़्रा का जी चाहा वो हाथ बढ़ा के इस कश्ति को रोक ले वरना ये सब बच्चे चले जाऐंगे और वो अकेली रह जाएगी।

 

मगर उसके दिल में इतना ग़म और ग़ुस्सा और ग़ुरूर भरा हुआ था कि वो कुछ ना कर सकी। टिफ़िन के एक ख़ाली बर्तन को हाथ में लिए पानी में खंगालती रही और पानी अल्मूनियम की दीवारों से एक बे–मआनी फ़िक़रे की तरह टकराता रहा।

 

गाड़ी में भी उसे ख़्याल आया कि वो वक़ार की बात मान जाये अपनी ज़िद तर्क कर दे। एक कमज़ोर लम्हे का सहारा ले कर अपने आपको वक़ार की गोद में सर रख दे। मगर वो मुल्तजी लम्हा गुज़र गया और वो चट्टान की तरह सख़्त और मग़रूर बनी अपनी सीट पर वक़ार से अलग बैठी रही हत्ता ये कि उसका फ़्लैट आ गया।

 

वक़ार अलिफ़ और अज़्रा की शादी नहीं हुई। वक़ार अपनी पोस्टिंग पर तन्हा ही चला गया। अज़्रा ने भी किसी दूसरे बड़े शहर में ट्रांसफ़र करवा लिया। बहुत से साल गुज़र गए। दिल बुझ सा गया। वक़ार अब भी अज़्रा को याद आता था। तन्हा रातों में, ज़िंदगी के उजाड़ और तवील लम्हों में वक़ार की जुदाई बहुत खलने लगी। मर्द तो बहुत थे और एक हज़ार तनख़्वाह पाने वाली औरत के लिए मर्दों की क्या कमी हो सकती है। मगर वो दूसरे मर्द से शादी तो जब करे जब वक़ार को किसी तरह भूल जाये और वो कम्बख़्त दिल से उतरता ही नहीं।

 

अज़्रा ने शादी नहीं की। मगर उसने चंद माह का यतीम बच्चा गोद लेकर पाल लिया। मुन्ना भी अब चार साल का हो चुका था और अपने बाप को पूछता था।

“अम्मी, अब्बू कहाँ हैं?”

“कैनेडा गए हैं।”

“कैनेडा कहाँ हैं?”

“यहाँ से बहुत दूर है।”

“कब आएँगे।”

“नहीं आएँगे।”

“क्यों नहीं आएँगे। सब के अब्बू तो रात को घर आते हैं। मेरे अब्बू क्यों नहीं आते?”

 

वो ला–जवाब हो कर चुप हो जाती। मगर मुन्ना पूछता ही रहता। कंडुर गार्डन में जब उसे दाख़िल कराने का सवाल आया तो मुन्ने के बाप का नाम पूछा गया। एक दम से अज़्रा ठिटक सी गई। फिर आहिस्ता से बोली।

“वक़ार हुसैन।”

 

नाम लिख लिया गया। मुन्ने के दिल पर दर्ज भी हो गया। उसी रात मुन्ने ने अपनी अम्मी के गले में बाँहें डाल कर पूछा, “अम्मी क्या मेरे अबू का नाम वक़ार हुसैन है?”

“हाँ बेटा…” अज़्रा की आँखों से आँसू छलकने लगे।

“देखने में कैसे हैं मेरे अब्बू?” मुन्ने ने दूसरा सवाल किया।

 

अज़्रा बात को ख़त्म करने की ख़ातिर एक ट्रंक खोल कर उसमें से वक़ार की एक तस्वीर निकाल कर लाई और मुन्ने के हाथ में दे दी। मुन्ना देर तक उस तस्वीर को ग़ौर से देखता रहा। फिर उसने अपने अब्बू की तस्वीर को अपने नन्हे से सीने से लगा लिया फिर तस्वीर का मुँह चूम कर बोला, “मेरे अब्बू…मेरे अब्बू…”

 

अज़्रा ने उसे जल्दी से गले लगा लिया। और फूट–फूटकर रोने लगी मगर मुन्ना नहीं रोया। वो मर्द था और जब अज़्रा के आँसू ख़त्म हो गए तो उसने गंभीर और संजीदा लहजे में अज़्रा से पूछा, “अम्मी क्या अब्बू तुमसे ख़फ़ा हैं?” अज़्रा ने आहिस्ता से इस्बात में सर हिलाया।

 

मुन्ना देर तक अपनी अम्मी को ग़ौर से घूरता रहा। उसके मासूम भोले चेहरे पर दोनों अबरुओं के दरमयान सोच की एक गहरी लकीर बन गई थी। मुन्ने ने अपने गाल पर उंगली रखते हुए कहा, “रो नहीं अम्मी। मैं जब बड़ा हो जाऊँगा तुम्हें अबू के पास कैनेडा लेकर चलूँगा।”

 

“कैनेडा?” वक़ार तो हिन्दोस्तान में था कहीं पर। उसे ये भी नहीं मालूम था कि अज़्रा कहाँ पर है। ये भी मालूम था कि कहीं पर उसके एक बेटा भी पैदा हो चुका है। ये भी नहीं मालूम था कि उस बच्चे ने अपने कमरे में दीवार पर उसकी तस्वीर टाँग ली है और उससे बातें करता है।

 

वक़ार को ये सब कुछ मालूम नहीं था। मगर शादी उसने भी नहीं की। अभी ज़ख़्म भरा नहीं था। कुछ ये भी महसूस होता था कि जो औरत इस दुनिया में उसके लिए थी, जो सही माअनों में उसकी साथी हो सकती थी उसको उसने अपनी ज़िद में खो दिया। आज भी उसे एहसास था कि बात उसी की सही थी, दलील जायज़ और वज़नी मगर वो जो अपनी बात मनवाने के लिए तुल गया था उसी एक बात ने शायद अज़्रा को उससे बर्गशता–ए–ख़ातिर कर दिया था।

 

वो अगर उस की मुलाज़मत तर्क करने पर इस क़दर इसरार ना करता तो यक़ीनन अज़्रा भी इतनी ज़िद ना करती। मुम्किन था कुछ अर्से के बाद ख़ुद ही छोड़ देती। या बच्चा होने के बाद तो ज़रूर ही ख़ुद से ये मुलाज़मत छोड़ देती। एक ज़रा सी बात के लिए, अपनी… मर्द की बेहूदा ख़ुदी की ख़ातिर वक़ार ने अपनी मुहब्बत को ठुकरा दिया था। ये एहसास दिन–ब–दिन बढ़ता जा रहा था।

 

अंदर ही अंदर वक़ार अपनी ग़लती पर पेँच–ओ–ताब खाता मगर अब कुछ नहीं हो सकता था। दिन गुज़रते गए, महीने गुज़रते गए, बरस गुज़रते गए। क्या जवानी इसी तरह गुज़र जाएगी। तब वो अय्याश ओ बाश आदमी नहीं था। वो घरेलू सुकून पसंद एक ही औरत वाला मर्द था। इधर–उधर की ताक झाँक से वो घबराता था। उसने अपनी ज़िंदगी में सिर्फ अज़्रा, उसके बच्चों और उसके घर का तसव्वुर किया था। और जब उसे वही घर नहीं मिला तो उसने भी शादी का ख़्याल तर्क कर दिया और अपने आपको अपने काम में ग़र्क़ कर दिया।

 

एक–बार वो नागपुर से दिल्ली के लिए फ़्लाई कर रहा था। मानसून के दिन थे, मौसम बहुत ख़राब और तूफ़ानी हो रहा था। उसके जहाज़ को रास्ता बदल कर हैदराबाद के हवाई अड्डे पर उतरना पड़ा। इंजन में भी ख़राबी पैदा हो गई थी। मौसम बेहद ख़राब हो रहा था। मालूम हुआ रात यहीं काटनी पड़ेगी।

 

सब मुसाफ़िरों को रात के क़ियाम के लिए रिट्ज़ होटल ले जाया गया। हैदराबाद आने का उसे मौक़ा मिल था। चाय पी कर वो बाहर निकल खड़ा हुआ। हवा में झक्कड़ और ख़ुनकी के आसार थे। कसीफ़ बादलों की गहरी सिलवटों में डूबते हुए सूरज की सुर्ख़ी थी। सड़क पर घास, तिनके और इमली के ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे थे। वक़ार ने अपने कोट के कालर ऊंचे कर लिए और उस सड़क पर हो लिया जो एक ऊंची पहाड़ी चट्टान के किनारे–किनारे अपना रास्ता काटती हुई नीचे को जाती थी।

 

कुछ देर के बाद वो हैदराबाद को सिकंदराबाद से जुदा करने वाले निज़ाम ताल पर था और मीलों तक फैले हुए पानी का नज़ारा कर रहा था। बाँध की सड़क पर घूमता–घूमता वो किसी दूसरी सड़क पर घूम गया। फ़िज़ा में अजीब उदासी सी थी। सड़कों पर रोशनी हो चली थी। मगर झक्कड़ ज़दा माहौल में ये ज़र्द रोशनी मायूसी को तोड़ने की नाकाम कोशिश कर रही थी।

 

अब चारों तरफ़ छोटे–छोटे बंगले थे जिनकी निस्फ़ क़द–ए–आदम दीवारों से बोगन वेलिया की फूलदार शाख़ें झांक रही थीं। कहीं कहीं पर अमलतास और इमली के पेड़ शाख़ों से शाख़ें मिलाए उसके सर के ऊपर उसके ख़िलाफ़ किसी साज़िश में मसरूफ़ नज़र आते थे। एक आदमी एक मैली चद्दर ओढ़े एक पान वाले से बीड़ी का एक बंडल ख़रीद रहा था और क़रीब के दिल–शाद होटल के मैले माहौल से एक ट्रान्ज़िस्टर के ग़ैर ज़ाती संगीत की आवाज़ आ रही थी।

 

मौसीक़ी अगर ज़ाती ना हो तो महज़ मशीन का शोर बन कर रह जाती है। बहुत सी मौसीक़ी जो वो आजकल सुनता है ख़ाली बर्तनों की आवाज़ मालूम होती है। गाने वाले की आवाज़ और सुनने वाले के कान का ताल्लुक़ बाक़ी है मगर रूह का ताल्लुक़ ग़ायब हो चुका है। ऐसी मौसीक़ी ऐसी शादी से मुशाबेह है जो अख़बारी इश्तिहारों के ज़रीये सर–ए–अंजाम पाती है।

 

एक–बार उसने बड़े ग़ुलाम अली ख़ां को एक छोटी सी महफ़िल में अपनी आँखों के सामने गाते हुए सुना था फिर उनके किसी रिकार्ड में वो मज़ा ना आया। एक–बार उसने मुहब्बत भी की थी। फिर शादी के किसी पैग़ाम में वो मज़ा ना आया। एक–बार वो सोचता–सोचता, चलता–चलता रुक गया। किसी ने उसके घुटनों के नीचे उस की पतलून को पकड़ कर खींचा था।

 

उसने मुड़ कर देखा एक छोटा सा कोई चार साल की उम्र का एक बच्चा है और उसकी पतलून को पकड़े हुए उस की तरफ़ बड़ी गहरी नज़रों से देख रहा है।


 

“क्या है बेटे?” उसने बड़ी नर्म आवाज़ में पूछा।

“आपका नाम क्या है?” मुन्ने पूछा।

“वक़ार हुसैन” उसने जवाब दिया।

“मगर तुम क्यों पूछते हो बेटे?”

“क्यों कि हमारे घर में आपकी तस्वीर लगी है।”

 

“मेरी तस्वीर तुम्हारे घर में।” वक़ार हुसैन हैरानी से इस चार साल के बच्चे की तरफ़ देखने लगा। ज़हन पर बहुत ज़ोर देने के बाद भी उसे याद ना आया कि हैदराबाद में उसका कोई रिश्तेदार रहता था।

 

मुन्ने ने आहिस्ता से इस्बात में सर हिला दिया। फिर दोनों हाथ फैला कर बोला। “मुझे अपनी गोद में उठा लो और मेरे घर चलो। तुमको वो तस्वीर दिखाता हूँ।” वक़ार हुसैन ने झुक कर बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। बच्चा बड़े आराम से उसके सीने से लग गया और अपने छोटे हाथ की नन्ही–नन्ही उंगलीयों से उसे अपने घर का रास्ता बताने लगा।

 

जब वो दोनों एक नीम–तारीक बंगले के बाग़ीचे में दाख़िल हुए तो मुन्ना उसकी गोद से उतर गया। अब वो दोनों बाग़ीचे के गिर्द एक नीम दायरा बनाती हुई रविष पर घूम कर बंगले के पोर्च में आ चुके थे। मुन्ने ने जल्दी से अपनी उंगली वक़ार के हाथ से छुड़ाई और तेज़ी से बंगले के अंदर जाते हुए ज़ोर से चिल्लाया, “अम्मी … अम्मी…अब्बू आ गए।” अज़्रा दौड़ी–दौड़ी बाहर आई। फिर ठिठक कर दरवाज़े पर खड़ी हो गई। फिर वक़ार को पहचान कर ख़ुशी से रोने लगी। नहीं–नहीं अब वो कभी भी ‘ना’ नहीं करेगी।

The End


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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

March 17, 2025
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