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Bhabhi-भाभी: A Short Story By Aligarh Wali Ismat Chughtai

by Engr. Maqbool Akram
August 30, 2020
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भभी ब्याह कर आई थी तो मुश्किल से पंद्रह बरस की होगी। बढवार भी तो पूरी नहीं हुई थी। भैया की सूरत से ऐसी लरजती थी जैसे कसाई से बकरी। मगर सालभर के अंदर ही वो जैसे मुँह–बंद कली से खिलकर फूल बन गई। ऑंखों में हिरनों जैसी वहशत दूर होकर गरूर और शरारत भर गई।

 

भाभी आजाद फिजाँ में पली थी। हिरनियों की तरह कुलाँचें भरने की आदी थी, मगर ससुराल और मैका दोनों तरफ से उस पर कडी निगरानी थी और भैया की भी यही कोशिश थी कि अगर जल्दी से उसे पक्की गृहस्थन न बना दिया गया तो वो भी अपनी बडी बहन की तरह कोई गुल खिलाएगी। हालाँकि वो शादीशुदा थी। लिहाजा उसे गृहस्थन बनाने पर जुट गए।

 

चार–पाँच साल के अंदर भाभी को घिसघिसा कर वाकई सबने गृहस्थन बना दिया। दो–तीन बच्चों की माँ बनकर भद्दी और ठुस्स हो गई। अम्मा उसे खूब मुर्गी का शोरबा, गोंद सटूरे खिलातीं। भैया टॉनिक पिलाते और हर बच्चे के बाद वो दस–पंद्रह पौंड बढ जाती।

आहिस्ता–आहिस्ता उसने बनना–सँवरना छोड ही दिया। भैया को लिपस्टिक से नफरत थी। ऑंखों में मनों काजल और मस्करा देखकर वो चिढ जाते। भैया को बस गुलाबी रंग पसंद था या फिर लाल। भाभी ज्यादातर गुलाबी या सुर्ख ही कपडे पहना करती थी। गुलाबी साडी पर सुर्ख (लाल) ब्लाउज या कभी गुलाबी के साथ हलका गहरा गुलाबी।

 

शादी के वक्त उसके बाल कटे हुए थे। मगर दुल्हन बनाते वक्त ऐसे तेल चुपडकर बाँधे गए थे कि पता ही नहीं चलता था कि वो पर–कटी मेम है। अब उसके बाल तो बढ गए थे मगर पै–दर–पै बच्चे होने की वजह से वो जरा गंजी–सी हो गई थी।

 

वैसे भी वो बाल कसकर मैली धज्जी–सी बाँध लिया करती थी। उसके मियाँ को वो मैली–कुचैली ऐसी ही बडी प्यारी लगती थी और मैके–ससुराल वाले भी उसकी सादगी को देखकर उसकी तारीफों के गुन गाते थे। भाभी थी बडी प्यारी–सी, सुगढ नक्श, मक्खन जैसी रंगत, सुडौल हाथ–पाँव। मगर उसने इस बुरी तरह से अपने आपको ढीला छोड दिया था कि खमीरे आटे की तरह बह गई थी।

उफ! भैया को चैन और स्कर्ट से कैसी नफरत थी। उन्हें ये नए फैशन की बदन पर चिपकी हुई कमीज से भी बडी घिन आती थी। तंग मोरी की शलवारों से तो वो ऐसे जलते थे कि तौबा! खैर भाभी बेचारी तो शलवार–कमीज के काबिल रह ही नहीं गई थी। वो तो बस ज्यादातर ब्लाउज और पेटीकोट पर ड्रेसिंग गाउन चढाए घूमा करती।

 

कोई जान–पहचान वाला आ जाता तो भी बेतकल्लुफी से वही अपना नेशनल ड्रेस पहने रहती। कोई औपचारिक मेहमान आता तो अमूनन वो अंदर ही बच्चों से सर मारा करती। जो कभी बाहर जाना पडता तो लिथडी हुई सी साडी लपेट लेती। वो गृहस्थन थी, बहुथी और चहेती थी, उसे बन–सँवरकर किसी को लुभाने की क्या जरूरत थी!

 

और भाभी शायद यूँ ही गौडर बनी अधेड और फिर बूढी हो जाती। बहुएँ ब्याह कर लाती, जो सुबह उठकर उसे झुककर सलाम करतीं, गोद में पोता खिलाने को देतीं। मगर खुदा को कुछ और ही मंजूर था।

 

शाम का वक्त था, हम सब लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। भाभी पापड तलने बावर्चीखाने में गई थी। बावर्ची ने पापड लाल कर दिए, भैया को बादामी पापड भाते हैं। उन्होंने प्यार से भाभी की तरफ देखा और वो झट उठकर पापड तलने चली गई। हम लोग मजे से चाय पीते रहे।

 

धाँय से फुटबाल आकर ऐन भैया की प्याली में पडी। हम सब उछल पडे। भैया मारे गुस्से के भन्ना उठे। ‘कौन पाजी है? उन्होंने जिधर से गेंद आई थी, उधर मुँह करके डाँटा। बिखरे हुए बालों का गोल–मोल सर और बडी–बडी ऑंखें ऊपर से झाँकीं। एक छलाँग में भैया मुँडेर पर थे और मुजरिम के बाल उनकी गिरफ्त में। ‘ओह! एक चीख गूँजी और दूसरे लम्हे भैया ऐसे उछलकर अलग हो गए जैसे उन्होंने बिच्छू के डंक पर हाथ डाल दिया हो या अंगारा पकड लिया हो।

 

‘सारी…आई एम वेरी सॉरी…। वो हकला रहे थे। हम सब दौड़ कर गए. देखा तो मुंडेर के उस तरफ़ एक दुबली नागिन–सी लडकी सफेद ड्रेन टाइप और नींबू के रंग का स्लीवलेस ब्लाउज पहने अपने बालों में पतली–पतली उँगलियाँ फेरकर खिसियानी हँसी हँस रही थी और फिर हम सब हँसने लगे।

 

भाभी पापडों की प्लेट लिए अंदर से निकली और बगैर कुछ पूछे ये समझकर हँसने लगी कि जरूर कोई हँसने की बात हुई होगी। उसका ढीला–ढाला पेट हँसने से फुदकने लगा और जब उसे मालूम हुआ कि भैया ने शबनम को लडका समझकर उसके बाल पकड लिए तो और भी जोर–जोर से कहकहे लगाने लगी कि कई पापड के टुकडे घास पर बिखर गए।

 

शबनम ने बताया कि वो उसी दिन अपने चचा खालिद जमील के यहाँ आई है। अकेले जी घबराया तो फुटबॉल ही लुढकाने लगी। जो इत्तिफाकन भैया की प्याली पर आ कूदी।

 

शबनम भैया को अपनी तीखी मस्कारा लगी ऑंखों से घूर रही थी। भैया मंत्र–मुग्ध सन्नाटे में उसे तक रहे थे। एक करंट उन दोनों के दरमियान दौड रहा था। भाभी इस करंट से कटी हुई जैसे कोसों दूर खडी थी। उसका फुदकता हुआ पेट सहमकर रुक गया। हँसी ने उसके होंठों पर लडखडाकर दम तोड दिया। उसके हाथ ढीले हो गए। प्लेट के पापड घास पर गिरने लगे। फिर एकदम वो दोनों जाग पडे और ख्वाबों की दुनिया से लौट आए।

 

शबनम फुदककर मुंडेर पर चढ गई। ‘आइए चाय पी लीजिए, मैंने ठहरी हुई फिजाँ को धक्का देकर आगे खिसकाया।

 

एक लचक के साथ शबनम ने अपने पैर मुंडेर के उस पार से इस पार झुलाए। शबनम का रंग पिघले हुए सोने की तरह लौ दे रहा था। उसके बाल स्याह भौंरा थे। मगर ऑंखें जैसे स्याह कटोरियों में किसी ने शहद भर दिया हो। नीबू के रंग के ब्लाउज का गला बहुत गहरा था।

 

होंठ तरबूजी रंग के और उसी रंग की नेल पॉलिश लगाए वो बिलकुल किसी अमेरिकी इश्तिहार का मॉडल मालूम हो रही रही थी। भाभी से कोई फुट भर लंबी लग रही थी, हालाँकि मुश्किल से दो इंच ऊँची होगी। उसकी हड्डी बडी नाजुक थी। इसलिए कमर तो ऐसी कि छल्ले में पिरो लो।

 

भैया कुछ गुमसुम से बैठे थे। भाभी उन्हें कुछ ऐसे ताक रही थी जैसे बिल्ली पर तौलते हुए परिंदे को घूरती है कि जैसे ही पर फडफडाए बढकर दबोच ले। उसका चेहरा तमतमा रहा था, होंठ भिंचे हुए थे, नथुने फडफडा रहे थे।

 

इतने में मुन्ना आकर उसकी पीठ पर धम्म से कूदा। वो हमेशा उसकी पीठ पर ऐसे ही कूदा करता था जैसे वो गुदगुदा–सा तकिया हो। भाभी हमेशा ही हँस दिया करती थी मगर आज उसने चटाख–चटाख दो–चार चाँटे जड दिए।

 

शबनम परेशान हो गई।‘अरे…अरे…अरे रोकिए ना। उसने भैया का हाथ छूकर कहा, ‘बडी गुस्सावर हैं आपकी मम्मी। उसने मेरी तरफ मुँह फेरकर कहा।

 

इंट्रोडक्शन कराना हमारी सोसायटी में बहुत कम हुआ करता है और फिर भाभी का किसी से इंट्रोडक्शन कराना अजीब–सा लगता था। वो तो सूरत से ही घर की ब लगती थी। शबनम की बात पर हम सब कहकहा मारकर हँस पडे। भाभी मुन्ने का हाथ पकडकर घसीटती हुई अंदर चल दी।‘अरे ये तो हमारी भाभी है। मैंने भाभी को धम्म–धम्म जाते हुए देखकर कहा।

 

‘भाभी? शबनम हैरतजदा होकर बोली।

‘इनकी, भैया की बीवी।

 

‘ओह! उसने संजीदगी से अपनी नजरें झुका लीं। ‘मैं…मैं…समझी! उसने बात अधूरी छोड दी।

‘भाभी की उम्र तेईस साल है। मैंने वजाहत (स्पष्टता) की।

‘मगर, डोंट बी सिली…। शबनम हँसी, भैया भी उठकर चल दिए।

‘खुदा की कसम!

‘ओह…जहालत…।

‘नहीं…भाभी ने मारटेज से पंद्रह साल की उम्र में सीनियर कैम्ब्रिज किया था।

 

‘तुम्हारा मतलब है ये मुझसे तीन साल छोटी हैं। मैं छब्बीस साल की हूँ।

‘तब तो कतई छोटी हैं।

 

‘उफ, और मैं समझी वो तुम्हारी मम्मी हैं। दरअसल मेरी ऑंखें कमजोर हैं। मगर मुझे ऐनक से नफरत है। बुरा लगा होगा उन्हें?

‘नहीं, भाभी को कुछ बुरा नहीं लगता।

‘च:…बेचारी!

 

‘कौन…कौन भाभी? न जाने मैंने क्यों कहा।

‘भैया अपनी बीवी पर जान देते हैं। सफिया ने बतौर वकील कहा।

‘बेचारी की बहुत बचपन में शादी कर दी गई होगी?

‘पच्चीस–छब्बीस साल के थे।  

‘मगर मुझे तो मालूम भी न था कि बीसवीं सदी में बगैर देखे शादियाँ होती हैं। शबनम ने हिकारत से मुस्कराकर कहा।

 

‘तुम्हारा हर अंदाजा गलत निकल रहा है…भैया ने भाभी को देखकर बेहद पसंद कर लिया था, तब शादी हुई थी। मगर जब वो कँवल के फूल जैसी नाजुक और हसीन थीं।

 

‘फिर ये क्या हो गया शादी के बाद ‘होता क्या… भाभी अपने घर की मल्लिका हैं, बच्चों की मल्लिका हैं। कोई फिल्म एक्ट्रेस तो हैं नहीं। दूसरे भैया को सूखी–मारी लडकियों से घिन आती है। मैंने जानकर शबनम को चोट दी। वो बेवकूफ न थी।

 

‘भई चाहे कोई मुझसे प्यार करे या न करे। मैं तो किसी को खुश करने के लिए हाथी का बच्चा कभी न बनूँ…और मुआफ करना, तुम्हारी भाभी कभी बहुत खूबसूरत होंगी मगर अब तो…।

 

‘ऊँह, आपका नजरिया भैया से अलग है। मैंने बात टाल दी और जब वो बल खाती सीधी–सुडौल टाँगों को आगे–पीछे झुलाती, नन्हे–नन्हे कदम रखती मुँडेर की तरफ जा रही थी, भैया बरामदे में खडे थे। उनका चेहरा सफेद पड गया था और बार–बार अपनी गुद्दी सहला रहे थे। जैसे किसी ने वहाँ जलती हुई आग रख दी हो। चिडिया की तरह फुदककर वो मुँडेर फलाँग गई। पल भर को पलटकर उसने अपनी शरबती ऑंखों से भैया को तौला और छलावे की तरह कोठी में गायब हो गई।

 

भाभी लॉन पर झुकी हुई तकिया आदि समेट रही थी। मगर उसने एक नजर न आने वाला तार देख लिया। जो भैया और शबनम की निगाहों के दरमियान दौड रहा था।

 

एक दिन मैंने खिडकी में से देखा। शबनम फूला हुआ स्कर्ट और सफेद खुले गले का ब्लाउज पहने पप्पू के साथ सम्बा नाच रही थी। उसका नन्हा–सा पिकनीज कुत्ता टाँगों में उलझ रहा था। वो ऊँचे–ऊँचे कहकहे लगा रही थी। उसकी सुडौल साँवली टाँगें हरी–हरी घास पर थिरक रही थीं। काले–रेशमी बाल हवा में छलक रहे थे।

 

पाँच साल का पप्पू बंदर की तरह फुदक रहा था। मगर वो नशीली नागिन की तरह लहरा रही थी। उसने नाचते–नाचते नाक पर ऍंगूठा रखकर मुझे चिडाया। मैंने भी जवाब में घूँसा दिखा दिया। मगर फौरन ही मुझे उसकी निगाहों का पीछा करके मालूम हुआ कि ये इशारा वो मेरी तरफ नहीं कर रही थी। 

भैया बरामदे में अहमकों की तरह खडे गुद्दी सहला रहे थे और वो उन्हें मुँह चिडाकर जला रही थी। उसकी कमर में बल पड रहे थे। कूल्हे मटक रहे थे। बाँहें थरथरा रही थीं। होंठ एक–दूसरे से जुदा लरज रहे थे। उसने साँप की तरह लप से जुबान निकालकर अपने होंठों को चाटा। भैया की ऑंखें चमक रही थीं और वो खडे दाँत निकाल रहे थे। मेरा दिल धक से रह गया। …भाभी गोदाम में अनाज तुलवाकर बावर्ची को दे रही थी।

 

‘शबनम की बच्ची मैंने दिल में सोचा। …मगर गुस्सा मुझे भैया पर भी आया। उन्हें दाँत निकालने की क्या जरूरत थी। इन्हें तो शबनम जैसे काँटों से नफरत थी। इन्हें तो ऍंगरेजी नाचों से घिन आती थी। फिर वो क्यों खडे उसे तक रहे थे और ऐसी भी क्या बेसुधी कि उनका जिस्म सम्बा की ताल पर लरज रहा था और उन्हें खबर न थी।

 

इतने में ब्वॉय चाय की ट्रे लेकर लॉन पर आ गया… भैया ने हम सबको आवाज दी और ब्वॉय से कहा भाभी को भेज दे।

 

रस्मन शबनम को भी बुलावा देना पडा। मेरा तो जी चाह रहा था कतई उसकी तरफ से मुँह फेरकर बैठ जाऊँ मगर जब वो मुन्ने को पद्दी पर चढाए मुँडेर फलाँगकर आई तो न जाने क्यों मुझे वो कतई मासूम लगी। मुन्ना स्कार्फ लगामों की तरह थामे हुए था और वो घोडे की चाल उछलती हुई लॉन पर दौड रही थी। भैया ने मुन्ने को उसकी पीठ पर से उतारना चाहा। मगर वो और चिमट गया।

 

‘अभी और थोडा चले आंटी।‘नहीं बाबा, आंटी में दम नहीं…। शबनम चिल्लाई। बडी मुश्किल से भैया ने मुन्ने को उतारा। मुँह पर एक चाँटा लगाया। एक दम तडपकर शबनम ने उसे गोद में उठा लिया और भैया के हाथ पर जोर का थप्पड लगाया।

 

‘शर्म नहीं आती…इतने बडे ऊँट के ऊँट छोटे से बच्चे पर हाथ उठाते हैं। भाभी को आता देखकर उसने मुन्ने को गोद में दे दिया। उसका थप्पड खाकर भैया मुस्करा रहे थे।

 

‘देखिए तो कितनी जोर से थप्पड मारा है। मेरे बच्चे को कोई मारता तो हाथ तोडकर रख देती। उसने शरबत की कटोरियों में जहर घोलकर भैया को देखा। ‘और फिर हँस रहे हैं बेहया।

 

‘हूँ…दम भी है जो हाथ तोडोगी…। भैया ने उसकी कलाई मरोड़ी . वो बल खाकर इतनी जोर से चीखी कि भैया ने कांप कर उसे छोड़ दिया और वो हंसते–हंसते जमीन पर लोट गई. चाय के दरमियान भी शबनम की शरारतें चलती रहीं। वो बिलकुल कमसिन छोकरियों की तरह चुहलें कर रही थी।

 

भाभी गुमसुम बैठी थीं। आप समझे होंगे शबनम के वजूद से डरकर उन्होंने अपनी तरफ तवज्जो देनी शुरू कर दी होगी। जी कतई नहीं। वो तो पहले से भी ज्यादा मैली रहने लगीं। पहले से भी ज्यादा खातीं।

 

हम सब तो हँस ज्यादा रहे थे, मगर वो सर झुकाए निहायत तन्मयता से केक उडाने में मसरूफ थीं। चटनी लगा–लगाकर भजिए निगल रही थीं। सिके हुए तोसों पर ढेर–सा मक्खन लगा–लगाकर खाए जा रही थीं, भैया और शबनम को देख–देखकर हम सब ही परेशान थे और शायद भाभी भी फिक्र–मंद होगी, लेकिन अपनी परेशानी को वो मुर्गन खानों में दफ्न कर रही थीं।

 

उन्हें हर वक्त खट्टी डकारें आया करतीं मगर वो चूरन खा–खाकर पुलाव–कोरमा हजम करतीं। वो सहमी–सहमी नजरों से भैया और शबनम को हँसता–बोलता देखती। भैया तो कुछ और भी जवान लगने लगे थे। शबनम के साथ वो सुबह–शाम समंदर में तैरते। भाभी अच्छा–भला तैरना जानती मगर भैया को स्वीमिंग–सूट पहने औरतों से सख्त नफरत थी। एक दिन हम सब समंदर में नहा रहे थे। शबनम दो धज्जियाँ पहने नागिन की तरह पानी में बल खा रही थी।

 

इतने में भाभी जो देर से मुन्ने को पुकार रही थीं, आ गईं। भैया शरारत के मूड में तो थे ही, दौडकर उन्हें पकड लिया और हम सबने मिलकर उन्हें पानी में घसीट लिया। जब से शबनम आई थी भैया बहुत शरारती हो गए थे। एकदम से वो दाँत किचकिचा कर भाभी को हम सबके सामने भींच लेते, उन्हें गोद में उठाने की कोशिश करते मगर वो उनके हाथों से बोंबल मछली की तरह फिसल जातीं। फिर वो खिसियाकर रह जाते।

 

जैसे कल्पना में वो शबनम ही को उठा रहे थे और भाभी लज्जित होकर फौरन पुडिंग या कोई और मजेदार डिश तैयार करने चली जातीं। उस वक्त जो उन्हें पानी में धकेला गया तो वो गठरी की तरह लुढक गईं। उनके कपडे जिस्म पर चिपक गए और उनके जिस्म का सारा भौंडापन भयानक तरीके से उभर आया। कमर पर जैसे किसी ने रजाई लपेट दी थी। कपडों में वो इतनी भयानक नहीं मालूम होती थीं।

 

‘ओह, कितनी मोटी हो गई हो तुम! भैया ने कहा, ‘उफ तोंद तो देखो…बिलकुल गामा पहलवान मालूम हो रही हो। ‘हँह… चार बच्चे होने के बाद कमर…।

 

‘मेरे भी तो चार बच्चे हैं… मेरी कमर तो डनलप पिल्लो का गद्दा नहीं बनी। उन्होंने अपने सुडौल जिस्म को ठोक–बजाकर कहा और भाभी मुँह थूथाए भीगी मुर्गी की तरह पैर मारती झुरझुरियाँ लेती रेत में गहरे–गहरे गङ्ढे बनाती मुन्ने को घसीटती चली गईं। भैया बिलकुल बेतवज्जो होकर शबनम को पानी में डुबकियाँ देने लगे।

 

जब नहाकर आए तो भाभी सर झुकाए खूबानियों के मुरब्बे पर क्रीम की तह जमा रही थीं। उनके होंठ सफेद हो रहे थे और ऑंखें सुर्ख थीं। गटारचे की गुडिया जैसे मोटे–मोटे गाल और सूजे हुए मालूम हो रहे थे।

 

लंच पर भाभी बेइंतिहा गमगीन थीं। लिहाजा बडी तेजी से खूबानियों का मुरब्बा और क्रीम खाने में जुटी हुई थीं। शबनम ने डिश की तरफ देखकर ऐसे फरेरी ली जैसी खूबानियाँ न हों, साँप–बिच्छू हों।

 

‘जहर है जहर। उसने नफासत से ककडी का टुकडा कुतरते हुए कहा और भैया भाभी को घूरने लगे। मगर वो शपाशप मुरब्बा उडाती रहीं। ‘हद है! उन्होंने नथूने फडकाकर कहा।

 

भाभी ने कोई ध्यान न किया और करीब–करीब पूरी डिश पेट में उंडेल ली। उन्हें मुरब्बा–शोरबा खाता देखकर ऐसा मालूम होता था जैसे वोर् ईष्या–द्वेष के तूफान को रोकने के लिए बंद बाँध रही हों।

 

‘खुदा के लिए बस करो… डॉक्टर भी मना कर चुका है…ऐसा भी क्या चटोरपन! भैया ने कह ही दिया। मोम की दीवार की तरह भाभी पिघल गईं। भैया का नश्तर चर्बी की दीवारों को चीरता हुआ ठीक दिल में उतर गया। मोटे–मोटे ऑंसू भाभी के फूले हुए गालों पर फिसलने लगे।

 

सिसकियों ने जिस्म के ढेर में जलजला पैदा कर दिया। दुबली–पतली और नाजुक लडकियाँ किस लतीफ और सुहाने अंदाज में रोती हैं। मगर भाभी को रोते देखकर बजाए दुख के हँसी आती थी। जैसे कोई रुई के भीगे हुए ढेर को डंडों से पीट रहा हो।

 

वो नाक पोंछती हुई उठने लगीं, मगर हम लोगों ने रोक लिया और भैया को डाँटा। खुशामद करके वापस उन्हें बिठा लिया। बेचारी नाक सुडकाती बैठ गईं। मगर जब उन्होंने कॉफी में तीन चम्मच शकर डालकर क्रीम की तरफ हाथ बढाया तो एकदम ठिठक गईं। सहमी हुई नजरोंसे शबनम और भैया की तरफ देखा।

 

शबनम बमुश्किल अपनी हँसी रोके हुए थी,भैया मारे गुस्से के रुऑंसे हो रहे थे। वो एकदम भन्नाकर उठे और जाकर बरामदे में बैठ गए। उसके बाद हालात और बिगडे। भाभी ने खुल्लम–खुल्ला ऐलाने–जंग कर दिया। किसी जमाने में भाभी का पठानी खून बहुत गर्म था।

 

जरा–सी बात पर हाथापाई पर उतर आया करती थीं और बारहा भैया से गुस्सा होकर बजाए मुँह फुलाने के वो खूँखार बिल्ली की तरह उन पर टूट पडतीं, उनका मुँह खसोट डालतीं, दाँतों से गिरेबान की धज्जियाँ उडा देतीं। फिर भैया उन्हें अपनी बाँहोंमें भींचकर बेबस कर देते और वो उनके सीने से लगकर प्यासी, डरी हुई चिडिया की तरह फूट–फूटकर रोने लगतीं।

 

फिर मिलाप हो जाता और झेंपी–खिसियानी वो भैया के मुँह पर लगे हुए खरोंचों पर प्यार से टिंचर लगा देतीं, उनके गिरेबान को रफू कर देतीं और मीठी–मीठी शुक्र–गुजार ऑंखों से उन्हें तकती रहतीं।

 

ये तब की बात है जब भाभी हल्की–फुल्की तीतरी की तरह तर्रार थीं। लडती हुई छोटी–सी पश्चिमी बिल्ली मालूम होती थीं। भैया को उन पर गुस्सा आने की बजाए और शिद्दत से प्यार आता। मगर जब उन पर गोश्त ने जिहाद बोल दिया,वो बहुत ठंडी पड गई थीं। उन्हें अव्वल तो गुस्साही न आता और अगर आता भी तो फौरन इधर–उधर काम में लगकर भूल जातीं।

 

उस दिन उन्होंने अपने भारी–भरकम डील–डौल को भूलकर भैया पर हमला कर दिया। भैया सिर्फ उनके बोझ से धक्का खाकर दीवार से जा चिपके। रुई के गट्ठर को यूँ लुढकते देखकर उन्हें सख्त घिन आई। न गुस्सा हुए, न बिगडे, शश्लमदा, उदास सर झुकाए कमरे से निकल भागे,भाभी वहीं पसरकर रोने लगीं।

 

बात और बढी और एक दिन भैया के साले आकर भाभी को ले गए। तुफैल भाभी के चचा–जाद भाई थे। भैया उस वक्त शबनम के साथ क्रिकेट का मैच देखने गए हुए थे। तुफैल ने शाम तक उनका इंतजार किया। वो न आए तो मजबूरन भाभी और बच्चों का सामान तैयार किया। जाने से पहले भैया घडी भर को खडे–खडे आए।

 

‘देहली के मकान मैंने इनके मेहर में दिए, उन्होंने रुखाई से तुफैल से कहा ‘मेहर? भाभी थर–थर काँपने लगीं। ‘हाँ…तलाक के कागजात वकील के जरिए पहुँच जाएँगे। ‘मगर तलाक…तलाक का क्या जिक्र है?’इसी में बेहतरी है।‘मगर…बच्चे…?

 

‘ये चाहें तो उन्हें ले जाएँ…वरना मैंने बोर्डिंग में इंतजाम कर लिया है।एक चीख मारकर भाभी भैया पर झपटीं…मगर उन्हें खसोटने की हिम्मत न हुई, सहमकर ठिठक गईं।और फिर भाभी ने अपने नारीत्व की पूरी तरह बेआबरूई करवा डाली। वो भैया के पैरों पर लोट गईं, नाक तक रगड डाली।

 

‘तुम उससे शादी कर लो…मैं कुछ न कहूंगी। मगर खुदा के लिए मुझे तलाक न दो। मैं यूँ ही जिंदगी गुजार दूँगी। मुझे कोई शिकायत न होगी। मगर भैया ने नफरत से भाभी के थुल–थुल करते जिस्म को देखा और मुँह मोड लिया।

 

‘मैं तलाक दे चुका, अब क्या हो सकता है? मगर भाभी को कौन समझाता। वो बिलबिलाए चली गईं। ‘बेवकूफ…। तुफैल ने एक ही झटके में भाभी को जमीन से उठा लिया। ‘गधी कहीं की, चल उठ! …और वो उसे घसीटते हुए ले गए।

 

क्या दर्दनाक समाँ था। फूट–फूटकर रोने में हम भाभी का साथ दे रहे थे। अम्मा खामोश एक–एक का मुँह तक रही थीं। अब्बा की मौत के बाद उनकी घर में कोई हैसियत नहीं रह गई थी। भैया खुद–मुख्तार थे बल्कि हम सबके सर–परस्त थे। अम्मा उन्हें बहुत समझाकर हार चुकी थीं। उन्हें इस दिन की अच्छी तरह खबर थी, मगर क्या कर सकती थीं।

 

भाभी चली गईं…फिजा ऐसी खराब हो गई थी कि भैया और शबनम भी शादी के बाद हिल–स्टेशन पर चले गए। सात–आठ साल गुजर गए… कुछ ठीक अंदाजा नहीं… हम सब अपने–अपने घरों की हुईं। अम्मा का इंतकाल हो गया।

 

आशियाना उजड गया। भरा हुआ घर सुनसान हो गया। सब इधर–उधर उड गए। सात–आठ साल ऑंख झपकते न जाने कहाँ गुम हो गए। कभी साल–दो साल में भैया की कोई खैर–खबर मिल जाती। वो ज्यादातर हिन्दुस्तान से बाहर मुल्कों की चक–फेरियों में उलझे रहे मगर जब उनका खत आया कि वो मुंबई आ रहे हैं तो भूला–बिसरा बचपन फिर से जाग उठा।

 

भैया ट्रेन से उतरे तो हम दोनों बच्चों की तरह लिपट गए। शबनम मुझे कहीं नजर न आई। उनका सामान उतर रहा था। जैसे ही भैया से उसकी खैरियत पूछने को मुडी धप से एक वजनी हाथ मेरी पीठ पर पडा और कई मन का गर्म–गर्म गोश्त का पहाड मुझसे लिपट गया।

 

‘भाभी! मैंने प्लेटफॉर्म से नीचे गिरने से बचने के लिए खिडकी में झूलकर कहा। जिंदगी में मैंने शबनम को कभी भाभी न कहा था। वो लगती भी तो शबनम ही थी, लेकिन आज मेरे मुँह से बेइख्तियार भाभी निकल गया। शबनम की फुआर…उन चंद सालों में गोश्त और पोस्त (मांस–त्वचा) का लोंदा कैसे बन गई। मैंने भैया की तरफ देखा। वो वैसे ही दराज कद और छरहरे थे। एक तोला गोश्त न इधर, न उधर।

 

जब भैया ने शबनम से शादी की तो सभी ने कहा था… शबनम आजाद लडकी है, पक्की उम्र की है…भाभी…तो ये मैंने शहजाद को हमेशा भाभी ही कहा। हाँ तो शहजाद भोली और कमसिन थी…भैया के काबू में आ गई। ये नागिन इन्हें डस कर बेसुध कर देगी। इन्हें मजा चखाएगी।मगर मजा तो लहरों को सिर्फ चट्टान ही चखा सकती है।

 

‘बच्चे बोर्डिंग में हैं, छुट्टी नहीं थी उनकी…। शबनम ने खट्टी डकारों भरी सांस मेरी गर्दन पर छोड़कर कहा.

 

और मैं हैरत से उस गोश्त के ढेर में उस शबनम को, फुआर को ढूँढ रही थी, जिसने शहजाद के प्यार की आग को बुझाकर भैया के कलेजे में नई आग भडका दी थी। मगर ये क्या? उस आग में भस्म हो जाने से भैया तो और भी सच्चे सोने की तरह तपकर निखर आए थे। आग खुद अपनी तपिश में भस्म होकर राख का ढेर बन गई थी।

 

भाभी तो मक्खन का ढेर थी…मगर शबनम तो झुलसी हुई टसयाली राख थी…उसका साँवला–कुंदनी रंग मरी हुई छिपकली के पेट की तरह और जर्द हो चुका था। वो शरबत घुली हुई ऑंखें गंदली और बेरौनक हो गई थीं। पतली नागिक जैसी लचकती हुई कमर का कहीं दूर–दूर तक पता न था।

 

वो मुस्तकिल तौर पर हामिला मालूम होती थी। वो नाजुक–नाजुक लचकीली शाखों जैसी बाँहें मुगदर की तरह हो गई थीं। उसके चेहरे पर पहले से ज्यादा पावडर थुपा हुआ था। ऑंखें मस्कारा से लिथडी हुई थीं। भवें शायद गलती से ज्यादा नुच गई थीं, जभी इतनी गहरी पेंसिल घिसनी पडी थी।

 

भैया रिट्ज में ठहरे। रात को डिनर पर हम वहीं पहुँच गए।कैबरे अपने पूरे शबाब पर था। मिस्री हसीना अपने छाती जैसे पेट को मरोडिया दे रही थी, उसके कूल्हे दायरों में लचक रहे थे…सुडौल मरमरीं बाजू हवा में थरथरा रहे थे, बारीक शिफान में से उसकी रूपहली टाँगें हाथी–दाँत के तराशे हुए सतूनों (खम्भों) की तरह फडक रही थीं… भैया की भूखी ऑंखें उसके जिस्म पर बिच्छुओं की तरह रेंग रही थीं…वो बार–बार अपनी गुद्दी पर अनजानी चोट सहला रहे थे।

 

भाभी…जो कभी शबनम थी…मिस्री रक्कासा (नर्तकी) की तरह लहराई हुई बिजली थी, जो एक दिन भैया के होशों–हवास पर गिरी थी, आज रेत के ढेर की तरह भसकी बैठी थी। उसके मोटे–मोटे गाल खून की कमी और मुस्तकिल स्थायी बदहज्मी की वजह से पीलेपन की ओर अग्रसर हो रहे थे।

 

नियान लाइट्स की रोशनी में उसका रंग देखकर ऐसा मालूम हो रहा था जैसे किसी अनजाने नाग ने डस लिया हो। मिस्री रक्कासा के कूल्हे तूफान मचा रहे थे और भैया के दिल की नाव उस भँवर में चक–फेरियाँ खा रही थीं, पाँच बच्चों की माँ शबनम…जो अब भाभी बन चुकी थी, सहमी–सहमी नजरों से उन्हें तक रही थी, ध्यान बँटाने के लिए वो तेजी से भुना हुआ मुर्ग हडप कर रही थी।

 

आर्केस्ट्रा ने एक भरपूर साँस खींची…साज कराहे…ड्रम का दिल गूँज उठा…मिस्री रक्कासा की कमर ने आखिरी झकोले लिए और निढाल होकर मरमरीं फर्श पर फैलर् गई।

 

हॉल तालियों से गूँज रहा था…शबनम की ऑंखें भैया की ढूँढ रही थी…बैरा तरो–ताजा रसभरी और क्रीम का जग ले आया। बेखयाली में शबनम ने प्याला रसभरियों से भर लिया। उसके हाथ लरज रहे थे। ऑंखें चोट खाई हुई हिरनियों की तरह परेशान चौकडियाँ भर रही थीं।

 

भीड–भाड से दूर…हल्की ऍंधेरी बालकनी में भैया खडे मिस्री रक्कासा का सिगरेट सुलगा रहे थे। उनकी रसमयी निगाहें रक्कासा की नशीली ऑंखों से उलझ रही थीं। शबनम का रंग उडा हुआ था और वो एक ऊबड–खाबड पहाड की तरह गुमसुम बैठी थी। 

शबनम को अपनी तरफ तकता देखकर भैया रक्कासा का बाजू थामे अपनी मेज पर लौट आए और हमारा तआरुफ कराया। ‘मेरी बहन, उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया। रक्कासा ने लचककर मेरे वजूद को मान लिया।

 

‘मेरी बेगम… उन्होंने ड्रामाई अंदाज में कहा। जैसे कोई मैदाने–जंग में खाया हुआ जख्म किसी को दिखा रहा हो। रक्कासा स्तब्ध रह गई। जैसे उनकी जीवन–संगिनी को नहीं खुद उनकी लाश को खून में लथपथ देख लिया हो, वो भयभीत होकर शबनम को घूरने लगी। फिर उसने अपने कलेजे की सारी ममता अपनी ऑंखों में समोकर भैया की तरफ देखा। उसकी एक नजर में लाखों फसाने पोशीदा थे।

 

‘उफ ये हिन्दुस्तान जहाँ जहालत से कैसी–कैसी प्यारी हस्तियाँ रस्मों–रिवाज पर कुर्बान की जाती हैं। काबिले–परस्तिश हैं वो लोग और काबिले–रहम भी,जो ऐसी–ऐसी ‘सजाएँ भुगतते हैं। …मेरी शबनम भाभी ने रक्कासा की निगाहों में ये सब पढ लिया। उसके हाथ काँपने लगे। परेशानी छुपाने के लिए उसने क्रीम का जग उठाकर रसभरियों पर उंडेल दिया और जुट गई।

 

प्यारे भैया! हैंडसम और मजलूम…सूरज–देवता की तरह हसीन और रोमांटिक, शहद भरी ऑंखों वाले भैया, चट्टान की तरह अटल…एक अमर शहीद का रूप सजाए बैठे मुस्करा रहे थे……एक लहर चूर–चूर उनके कदमों में पडी दम तोड रही थी……दूसरी नई–नवेली लचकती हुई लहर उनकी पथरीली बाँहों में समाने के लिए बेचैन और बेकरार थी।

The End

 Disclaimer–Blogger
has posted this  short story
“Bhabhi-भाभी”,of  Ismat
Chughtai with  help of materials and
images available on net. Images on this blog are posted to make the text
interesting.The materials and images are the copy right of original writers.
The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is
thankful to original writers.

 

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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