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लाजवंती (राजिन्दर सिंह बेदी): सुंदरलाल, लाजवंती को अब लाजो के नाम से नहीं पुकारता वो उसे“देवी” कहता और लाजो एक अन-जानी ख़ुशी से पागल हुई जाती थी।

 हथ लायाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे।

( सखि ये लाजवंती के पौधे हैं, हाथ लगाते ही कुम्हला जाते हैं.)

(पंजाबी गीत)

 

बटवारा हुआ और बेशुमार ज़ख़्मी लोगों ने उठ कर अपने बदन पर से ख़ून पोंछ डाला और फिर सब मिलकर उनकी तरफ़ मुतवज्जो हो गए, जिनके बदन सही सालिम थे, लेकिन दिल ज़ख़्मी

 

गली गली, मोहल्ले मोहल्ले मैंफिर बसाओकमेटियाँ बन गई थीं और शुरू शुरू में बड़ी तुन्दही के साथकारोबार में बसाओ”, “ज़मीन पर बसाओऔरघरों में बसाओप्रोग्राम शुरू कर दिया गया था।

लेकिन एक प्रोग्राम ऐसा था, जिसकी तरफ़ किसी ने तवज्जो दी थी। वो प्रोग्राम मग़्विया औरतों के सिलसिले में था, जिसका स्लोगन थादिल में बसाओऔर इस प्रोग्राम की नारायण बावा के मंदिर और इस के आसपास बसने वाले क़दामत पसंद तबक़े की तरफ़ से बड़ी मुख़ालिफ़त होती थी

 

इस प्रोग्राम को हरकत में लाने के लिए मंदिर के पास मोहल्ले
मुल्ला शुकूर में एक कमेटी क़ाएम हो गई और ग्यारह वोटों की अक्सरिय्यत से सुंदरलाल बाबू को इस का सेक्रेटरी चुन लिया गया। वकील साहिब सदर, चौकी कलाँ का बूढ़ा मुहर्रिर और मोहल्ले के दूसरे मोतबर लोगों का ख़याल था कि सुंदर लाल से ज़्यादा जाँफ़िशानी के साथ इस काम को कोई और कर सकेगा। शायद इसलिए कि सुंदरलाल की अपनी बीवी अग़वा हो चुकी थी और इस का नाम था भी लाजोलाजवंती।

 

चुनांचे प्रभात फेरी निकालते हुए जब सुंदर लाल बाबू, उस का साथी रसालू और नेकी राम वग़ैरा मिलकर गाते— “हथ लाइयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे तो सुंदर लाल की आवाज़ एक दम बंद हो जाती और वो ख़ामोशी के साथ चलते चलते लाजवंती की बाबत सोचताजाने वो कहाँ होगी, किस हाल में होगी, हमारी बाबत क्या सोच रही होगी, वो कभी आएगी भी या नहीं?— और पथरीले फ़र्श पर चलते चलते उस के क़दम लड़खड़ाने लगते।

 

और अब तो यहाँ तक नौबत गई थी कि उसने लाजवंती के बारे में सोचना ही छोड़ दिया था। इस का ग़म अब दुनिया का गुम हो चुका था। उसने अपने दुख से बचने के लिए लोक सेवा में अपने आपको ग़र्क़ कर दिया। इस के बावजूद दूसरे साथियों की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए उसे ये ख़याल ज़रूर आताइन्सानी दिल कितना नाज़ुक होता है।

 

ज़रा सी बात पर उसे ठेस लग सकती है। वो लाजवंती के पौधे की तरह है, जिसकी तरफ़ हाथ भी बढ़ाओ तो कुम्हला जाता है, लेकिन उसने अपनी लाजवंती के साथ बदसुलूकी करने में कोई भी कसर उठा रक्खी थी। वो उसे जगह बेजगह उठने बैठने, खाने की तरफ़ बेतवज्जही बरतने और ऐसी ही मामूली मामूली बातों पर पीट दिया करता था।

और लाजो एक पतली शहतूत की डाली की तरह, नाज़ुक सी देहाती लड़की थी। ज़्यादा धूप देखने की वजह से उस का रंग सांवला हो चुका था। तबीअत में एक अजीब तरह की बेक़रारी थी। उस का इज़तिराब शबनम के उस क़तरे की तरह था, जो पारा कर उस के बड़े से पत्ते पर कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है।

 

उस का दुबलापन उस की सेहत के ख़राब होने की दलील थी, एक सेहत मंदी की निशानी थी, जिसे देख कर भारी भरकम सुंदर लाल पहले तो घबराया, लेकिन जब उसने देखा कि लाजो हर क़िस्म का बोझ, हर क़िस्म का सदमा, हत्ता कि मारपीट तक सह गुज़रती है, तो वो अपनी बदसुलूकी को तदरीज बढ़ाता गया और उसने इन हदों का ख़याल ही किया, जहाँ पहुँच जाने के बाद किसी भी इन्सान का सब्र टूट सकता है।

 

उन हदों को धुंधला देने में लाजवंती ख़ुद भी तो मुम्मिद साबित हुई थी। चूँकि वो देर तक उदास बैठ सकती थी, इसलिए बड़ी से बड़ी लड़ाई के बाद भी सुंदर लाल के सिर्फ एक बार मुस्कुरा देने पर वो अपनी हंसी रोक सकती और लपक कर उस के पास चली आती और गले में बाँहें डालते हुए कह उठती— “फिर मारा तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगी—” साफ़ पता चलता था, वो एक दम सारी मारपीट भूल चुकी है।

 

गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह वो भी जानती थी कि मर्द ऐसा ही सुलूक किया करते हैं, बल्कि औरतों में कोई भी सरकशी करती तो लड़कीयाँ ख़ुद ही नाक पर उंगली रख के कहतीं— “ले वो भी कोई मर्द है भला, औरत जिसके क़ाबू में नहीं आती….” और ये मार पीट उनके गीतों में चली गई थी। ख़ुद लाजो गाया करती थी। मैं शहर के लड़के से शादी करूँगी। वो बूट पहनता है और मेरी कमर बड़ी पतली है।

 

लेकिन पहली ही फ़ुर्सत में लाजो ने शहर ही के एक लड़के से लौ लगा ली और उस का नाम था सुंदर लाल, जो एक बारात के साथ लाजवंती के गाँव चला आया था और जिसने दूल्हा के कान में सिर्फ इतना सा कहा था— “तेरी साली तो बड़ी नमकीन है यार। बीवी भी चटपटी होगी।लाजवंती ने सुंदर लाल की इस बात को सुन लिया था, मगर वो भूल ही गई कि सुंदर लाल कितने बड़े बड़े और भद्दे से बूट पहने हुए है और उस की अपनी कमर कितनी पतली है!

 

और प्रभात फेरी के समय ऐसी ही बातें सुंदर लाल को याद आईं और वो यही सोचता। एकबार सिर्फ एकबार लाजो मिल जाए, तो मैं उसे सचमुच ही दिल में बसा लूँ और लोगों को बता दूँउन बेचारी औरतों के इग़्वा हो जाने में उनका कोई क़ुसूर नहीं। फ़सादियों की हवस क्यूँ का शिकार हो जाने में उनकी कोई ग़लती नहीं।

 

वो समाज जो उन मासूम और बेक़सूर औरतों को क़ुबूल नहीं करता, उन्हें अपना नहीं लेताएक गला सड़ा समाज है और इसे ख़त्म कर देना चाहिएवो उन औरतों को घरों में आबाद करने की तलक़ीन किया करता और उन्हें ऐसा मर्तबा देने की प्रेरणा करता,जो घर में किसी भी औरत, किसी भी माँ, बेटी, बहन या बीवी को दिया जाता है। फिर वो कहताउन्हें इशारे और कनाए से भी ऐसी बातों की याद नहीं दिलानी चाहिए जो उनके साथ हुईंक्यूँ कि उनके दिल ज़ख़्मी हैं। वो नाज़ुक हैं, छुईमुई की तरहहाथ भी लगाओ तो कुम्हला जाएंगे

 

गोयादिल में बसाओप्रोग्राम को अमली जामा पहनाने के लिए मोहल्लामुल्ला शकूरकी इस कमेटी ने कई प्रभात फेरीयाँ निकालीं। सुबह चार पाँच बजे का वक़्त उनके लिए मौज़ूँ तरीन वक़्त होता था। लोगों का शोर, ट्रैफ़िक की उलझन। रातभर चौकीदारी करने वाले कुत्ते तक बुझे हुए तन्नूरों में सर देकर पड़े होते थे। अपने अपने बिस्तरों में दुबके हुए लोग प्रभात फेरी वालों की आवाज़ सुन कर सिर्फ इतना कहते— “! वही मंडली है! ” और फिर कभी सब्र और कभी तुनकमिज़ाजी से वो बाबू सुंदर लाल का प्रोपगेंडा सुना करते।

 

वो औरतें जो बड़ी महफ़ूज़ उस पार पहुंच गई थीं, गोभी के फूलों की तरह फैली पड़ी रहतीं और उनके ख़ावंद उनके पहलू में डंठलों की तरह अकड़े पड़े पड़े प्रभात फेरी के शोर पर एहतिजाज करते हुए मुंह में कुछ मिनमिनाते चले जाते। या कहीं कोई बच्चा थोड़ी देर के लिए आँखें खोलता औरदिल में बसाओके फ़र्यादी और अनदोहगीन प्रोपैगंडे को सिर्फ एक गाना समझ कर फिर सो जाता।

 

लेकिन सुबह के समय कान में पड़ा हुआ शब्द बेकार नहीं जाता। वो सारा दिन एक तकरार के साथ दिमाग़ में चक्कर लगाता रहता है और बाज़ वक़्त तो इन्सान उस के मअनी को भी नहीं समझता। पर गुनगुनाता चला जाता है। इसी आवाज़ के घर कर जाने की बदौलत ही था कि उन्हीं दिनों, जब कि मिस मरदूला सारा बाई, हिंद और पाकिस्तान के दर्मियान इग़वाशुदा औरतें तबादले में लाईं, तो मोहल्ला मुल्ला शकूर के कुछ आदमी उन्हें फिर से बसाने के लिए तय्यार हो गए।

 

उनके वारिस शहर से बाहर चौकी कलाँ पर उन्हें मिलने के लिए गए। मग़्विया औरतें और उनके लवाहिक़ीन कुछ देर एक दूसरे को देखते रहे और फिर सर झुकाए अपने अपने बर्बाद घरों को फिर से आबाद करने के काम पर चल दिए। रसालू और नेकी राम और सुंदरलाल बाबू कभी महिन्द्र सिंह ज़िंदाबाद और कभीसोहन लाल ज़िंदाबादके नारे लगाते…………और वो नारे लगाते रहे, हत्ता कि उनके गले सूख गए……………………….

 

लेकिन मग़्विया औरतों में ऐसी भी थीं जिनके शौहरों, जिनके माँ बाप, बहन और भाईयों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था। आख़िर वो मर क्यूँ गईं? अपनी इफ़्फ़त और इस्मत को बचाने के लिए उन्होंने ज़हर क्यूँ ख़ालिया? कुएं में छलाँग क्यूँ लगा दी? वो बुज़दिल थीं जो इस तरह ज़िंदगी से चिम्टी हुई थीं। सैंकड़ों हज़ारों औरतों ने अपनी इस्मत लुट जाने से पहले अपनी जान दे दी लेकिन उन्हें क्या पता कि वो ज़िंदा रह कर किस बहादुरी से काम ले रही हैं। कैसे पथराई हुई आँखें से मौत को घूर रही हैं।

 

ऐसी दुनिया में जहाँ उनके शौहर तक उन्हें नहीं पहचानते। फिर उनमें से कोई जी ही जी में अपना नाम दोहरातीसुहाग वंतीसुहाग वाली…. और अपने भाई को इस जमग़फी़र में देख कर आख़िरी बार इतना कहतीतू भी मुझे नहीं पहचानता बिहारी? मैं ने तुझे गोदी खिलाया था रेऔर बिहारी चिल्ला देना चाहता।

 

फिर वो माँ बाप की तरफ़ देखता और माँ बाप अपने जिगर पर हाथ रख के नारायण बाबा की तरफ़ देखते और निहायत बेबसी के आलम में नारायण बाबा आसमान की तरफ़ देखता, जो दरअस्ल कोई हक़ीक़त नहीं रखता और जो सिर्फ हमारी नज़र का धोका है। जो सिर्फ एक हद है जिसके पार हमारी निगाहें काम नहीं करतीं।

 

लेकिन फ़ौजी ट्रक में मिस साराबाई तबादले में जो औरतें लाईं, उनमें लाजो थी।

सुंदरलाल ने उम्मीदबीम से आख़िरी लड़की को ट्रक से नीचे उतरते देखा और फिर उसने बड़ी ख़ामोशी और बड़े अज़म से अपनी कमेटी की सरगर्मियों को दो चंद कर दिया।

अब वो सिर्फ़ सुबह के समय ही प्रभात फेरी के लिए निकलते थे, बल्कि शाम को भी जुलूस निकालने लगे, और कभी कभी एक आध छोटा मोटा जलसा भी करने लगे जिसमें कमेटी का बूढ़ा सदर वकील कालका प्रशाद सूफ़ी खनकारों से मिली जुली एक तक़रीर कर दिया करता और रसालू एक पीकदान लिए ड्यूटी पर हमेशा मौजूद रहता।

 

लाऊड स्पीकर से अजीब तरह की आवाज़ें आतीं। फिर कहीं नेकी राम, मुहर्रिर चौकी कुछ कहने के लिए उठते। लेकिन वो जितनी भी बातें कहते और जितने भी शास्त्रों और पुराणों का हवाला देते, उतना ही अपने मक़सद के ख़िलाफ़ बातें करते और यूँ मैदान हाथ से जाते देख कर सुंदर लाल बाबू उठता, लेकिन वो दो फ़िरक़ों के अलावा कुछ भी कह पाता। उस का गला रुक जाता।

 

उस की आँखों से आँसू बहने लगते और रोंहासा होने के कारण वो तक़रीर कर पाता। आख़िर बैठ जाता। लेकिन मजमे पर एक अजीब तरह की ख़ामोशी छा जाती और सुंदर लाल बाबू की उन दो बातों का असर, जो कि उस के दिल की गहराइयों से चली आतीं, वकील कालका प्रशाद सूफ़ी की सारी नासीहाना फ़साहत पर भारी होता। लेकिन लोग वहीं रो देते। अपने जज़बात को आसूदा कर लेते और फिर ख़ालीउज़्ज़हन घर लौट जाते——

 

एक रोज़ कमेटी वाले साँझ के समय भी परचार करने चले आए और होते होते क़दामत पसंदों के गढ़ में पहुँच गए। मंदिर के बाहर पीपल के एक पेड़ के इर्दगिर्द सीमेंट के थड़े पर कई श्रद्धालू बैठे थे और रामायण की कथा हो रही थी।

 

नारायण बावा रामायण का वो हिस्सा सुना रहे थे जहाँ एक धोबी ने अपनी धोबिन को घर से निकाल दिया था और उस से कह दियामैं राजा राम चन्द्र नहीं, जो इतने साल रावण के साथ रह आने पर भी सीता को बसा लेगा और राम चन्द्र जी ने महा सतवंती सीता को घर से निकाल दियाऐसी हालत में जब कि वो गर्भवती थी। क्या उस से भी बढ़कर राम राज का कोई सबूत मिल सकता है?—— नारायण बावा ने कहा—— “ये है राम राज! जिसमें एक धोबी की बात को भी उतनी ही क़द्र की निगाह से देखा जाता है।

 

कमेटी का जुलूस मंदिर के पास रुक चुका था और लोग रामायण की कथा और श्लोक का वर्णन सुनने के लिए ठहर चुके थे। सुंदर लाल आख़िरी फ़िक़रे सुनते हुए कह उठा

 

हमें ऐसा राम राज नहीं चाहिए बाबा!”

 

चुप रहो जीतुम कौन होते हो?——“ख़ामोश!” मजमे से आवाज़ें आईं और सुंदर लाल ने बढ़कर कहा— “मुझे बोलने से कोई नहीं रोक सकता।

 

फिर मिली जुली आवाज़ें आईं— “ख़ामोश!— हम नहीं बोलने देंगे और एक कोने में से ये भी आवाज़ आईमार देंगे।

नारायण बाबा ने बड़ी मीठी आवाज़ में कहा— “तुम शास्त्रों की मान मरजादा को नहीं समझते सुंदर लाल!”

 

सुंदर लाल ने कहा— “मैं एक बात तो समझता हूँ बाबाराम राज में धोबी की आवाज़ तो सुनी जाती है, लेकिन सुंदर लाल की नहीं।

 

उन्ही लोगों ने जो अभी मारने पे तुले थे, अपने नीचे से पीपल की गूलरें हटा दीं, और फिर से बैठते हुए बोल उठे।सुनो, सुनो, सुनो—”

 

रसालू और नेकी राम ने सुंदर लाल बाबू को ठोका दिया और सुंदर लाल बोले— “श्री राम नेता थे हमारे। पर ये क्या बात है बाबाजी! इन्होंने धोबी की बात को सत्य समझ लिया, मगर इतनी बड़ी महारानी के सत्य पर विश्वास कर पाए?”

 

नारायण बाबा ने अपनी दाढ़ी की खिचड़ी पकाते हुए कहा— “इस लिए कि सीता उनकी अपनी पत्नी थी। सुंदर लाल! तुम इस बात की महानता को नहीं जानते।

 

हाँ बाबासुंदर लाल बाबू ने कहा— “इस संसार में बहुत सी बातें हैं जो मेरी समझ में नहीं आतीं। पर मैं सच्चा राम राज उसे समझता हूँ जिसमें इन्सान अपने आप पर भी ज़ुल्म नहीं कर सकता।अपने आपसे बेइंसाफ़ी करना उतना ही बड़ा पाप है, जितना किसी दूसरे से बेइंसाफ़ी करना——

 

आज भी भगवान राम ने सीता को घर से निकाल दिया है इसलिए कि वो रावण के पास रह आई है—— इस में क्या क़सूर था सीता का? क्या वो भी हमारी बहुत सीमाओं बहनों की तरह एक छल और कपट की शिकार थी? इस में सीता के सत्य और असत्य की बात है या राक्षश रावण के वहशीपन की, जिसके दस सर इन्सान के थे लेकिन एक और सबसे बड़ा सर गधे का?”

 

आज हमारी सीता निर्दोश घर से निकाल दी गई है—— सीता—— लाजवंती—— और सुंदर लाल बाबू ने रोना शुरू कर दिया।

 

रसालू और नेकी राम ने तमाम वो सुर्ख़ झंडे उठा लिए जिन पर आज ही स्कूल के छोकरों ने बड़ी सफ़ाई से नारे काट के चिपका दिए थे और फिर वो सबसुंदरलाल बाबू ज़िंदाबादके नारे लगाते हुए चल दिए। जलूस में से एक ने कहा— “महासती सीता ज़िंदाबाद एक तरफ़ से आवाज़ आई—— श्री राम चन्द्र——”

 

और फिर बहुत सी आवाज़ें आईं— “ख़ामोश! ख़ामोश! और नारायण बावा की महीनों की कथा अकारत चली गई। बहुत से लोग जुलूस में शामिल हो गए, जिसके आगे आगे वकील कालका प्रशाद और हुक्म सिंह मुहर्रिर चौकी कलाँ, जा रहे थे, अपनी बूढ़ी छड़ियों को ज़मीन पर मारते और एक फ़ातिहाना सी आवाज़ पैदा करते हुए—— और उनके दर्मियान कहीं सुंदरलाल जा रहा था। उस की आँखों से अभी तक आँसू बह रहे थे।

 

आज उस के दिल को बड़ी ठेस लगी थी और लोग बड़े जोश के साथ एक दूसरे के साथ मिलकर गा रहे।

हथ लाईयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे——!”

 

अभी गीत की आवाज़ लोगों के कानों में गूंज रही थी। अभी सुबह भी नहीं हो पाई थी और मोहल्ला मुल्ला शकूर के मकान 414
की बिधवा अभी तक अपने बिस्तर में कर्बनाक सी अंगड़ाइयाँ ले रही थी कि सुंदर लाल कागिराएँलाल चंद, जिसे अपना असररसूख़ इस्तेमाल कर के सुंदर लाल और ख़लीफ़ा कालका प्रशाद ने राशन डपवे दिया था, दौड़ा दौड़ा आया और अपनी गाड़े की चादर से हाथ फैलाए हुए बोलाः

 

बधाई हो सुंदर लाल।

सुंदर लाल ने मीठा गुड़ चिलम में रखते हुए कहा— “किस बात की बधाई लाल चंद?”

मैं ने लाजो भाबी को देखा है।

 

सुंदर लाल के हाथ से चिलम गिर गई और मीठा तंबाकू फ़र्श पर गिर गया— “कहाँ देखा है?” उसने लाल चंद को कंधों से पकड़ते हुए पूछा और जल्द जवाब पाने पर झिंझोड़ दिया।

 

वाघा की सरहद पर।

सुंदर लाल ने लाल चंद को छोड़ दिया और इतना सा बोलाकोई और होगी।

लाल चंद ने यक़ीन दिलाते हुए कहा— “नहीं भय्या, वो लाजो ही थी, लाजो

तुम उसे पहचानते भी हो?” सुंदर लाल ने फिर से मीठे तंबाकू को फ़र्श पर से उठाते और हथेली पर मसलते हुए पूछा, और ऐसा करते हुए उसने रसालू की चिलम हुक़्क़े पर से उठाली और बोला— “भला क्या पहचान है उस की?”

 

एक तेंदूला ठोढ़ी पर है, दूसरा गाल पर——”

 

हाँ हाँ हाँ और सुंदर लाल ने ख़ुद ही कह दिया तीसरा माथे पर।वो नहीं चाहता था, अब कोई ख़दशा रह जाए और एक दम उसे लाजवंती के जानेपहचाने जिस्म के सारे तेंदूले याद गए, जो उसने बचपने में अपने जिस्म पर बनवा लिए थे, जो उन हल्के हल्के सब्ज़ दानों की मानिंद थे जो छुईमुई के पौदे के बदन पर होते हैं और जिसकी तरफ़ इशारा करते ही वो कुम्हलाने लगता है।

बिलकुल उसी तरह उन तेंदूलों की तरफ़ उंगली करते ही लाजवंती शर्मा जाती थीऔर गुम हो जाती थी, अपने आप में सिमट जाती थी। गोया उस के सब राज़ किसी को मालूम हो गए हों और किसी नामालूम खज़ाने के लुट जाने से वो मुफ़लिस हो गई हो—— सुंदरलाल का सारा जिस्म एक अन जाने ख़ौफ़, एक अन जानी मोहब्बत और उस की मुक़द्दस आग में फुंकने लगा। उसने फिर से लाल चंद को पकड़ लिया और पूछा

 

लाजो वाघा कैसे पहुँच गई?”

लाल चंद ने कहा— “हिंद और पाकिस्तान में औरतों का तबादला हो रहा था ना।

फिर क्या हुआ—?” सुंदर लाल ने उकड़ूं बैठते हुए कहा।क्या हुआ फिर?”

 

रसालू भी अपनी चारपाई पर उठ बैठा और तंबाकू नोशों की मख़सूस खांसी खांसते हुए बोला— “सचमुच गई है लाजवंती भाबी?”

 

लाल चंद ने अपनी बात जारी रखते हुए कहावाघा पर सोला औरतें पाकिस्तान ने दे दीं और इस के इवज़ सोला औरतें ले लींलेकिन एक झगड़ा खड़ा हो गया। हमारे वालंटियर एतिराज़ कर रहे थे कि तुमने जो औरतें दी हैं, उनमें अधेड़, बूढ़ी और बेकार औरतें ज़्यादा हैं। इस तनाज़ो पर लोग जमा हो गए। इस वक़्त उधर के वालंटियरों ने लाजो भाबी को दिखाते हुए कहातुम इसे बूढ़ी कहते हो? देखोदेखोजितनी औरतें तुमने दी हैं, उनमें से एक भी बराबरी करती है इस की ? और वहाँ लाजो भाबी सबकी नज़रों के सामने अपने तेंदूले छुपा रही थी।

 

फिर झगड़ा बढ़ गया। दोनों ने अपना अपनामालवापस ले लेने की ठान ली। मैंने शोर मचायालाजोलाजो भाबीमगर हमारी फ़ौज के सिपाहियों ने हमें ही मार मार के भगा दिया।

 

और लाल चंद अपनी कोहनी दिखाने लगा, जहाँ उसे लाठी पड़ी थी। रसालू और नेकी राम चुप चाप बैठे रहे और सुंदर लाल कहीं दूर देखने लगा। शायद सोचने लगा। लाजो आई भी पर ना आईऔर सुंदर लाल की शक्ल ही से जान पड़ता था, जैसे वो बीकानेर का सहरा फाँद कर आया है और अब कहीं दरख़्त की छाँव में, ज़बान निकाले हांप रहा है। मुंह से इतना भी नहीं निकलता— “पानी दे दो।

 

उसे यूँ महसूस हुआ, बटवारे से पहले बटवारे के बाद का तशद्दुद अभी तक कारफ़र्मा है। सिर्फ उस की शक्ल बदल गई है। अब लोगों में पहला सा दरेग़ भी नहीं रहा। किसी से पूछो, सांभर वाला मैं लहना सिंह रहा करता था और उस की भाबी बिंतोतो वो झूट से कहतामर गएऔर इस के बाद मौत और उस के मफ़हूम से बिलकुल बेख़बर बिलकुल आरी आगे चला जाता।

 

उस से भी एक क़दम आगे बढ़ कर बड़े ठंडे दिल से ताजिर, इन्सानी माल, इन्सानी गोश्त और पोस्त की तिजारत और उस का तबादला करने लगे। मवेशी ख़रीदने वाले किसी भैंस या गाय का जबड़ा हटा कर दाँतों से उस की उम्र का अंदाज़ा करते थे।

 

अब वो जवान औरत के रूप, उस के निखार, उस के अज़ीज़ तरीन राज़ों, उस के तेंदूलों की शाराआम में नुमाइश करने लगे। तशद्दुद अब ताजिरों की नसनस में बस चुका है।

 

पहले मंडी में माल बिकता था और भाव ताव करने वाले हाथ मिला कर उस पर एक रूमाल डाल लेते और यूँगपतीकर लेते। गोया रूमाल के नीचे उंगलियों के इशारों से सौदा हो जाता था। अबगपतीका रूमाल भी हट चुका था और सामने सौदे हो रहे थे और लोग तिजारत के आदाब भी भूल गए थे।

 

ये सारा लेनदेन ये सारा कारोबार पुराने ज़माने की दास्तान मालूम हो रहा था, जिसमें औरतों की आज़ादाना ख़रीदफ़रोख़्त का क़िस्सा बयान किया जाता है। अज़बैक अनगिनत उर्यां औरतों के सामने खड़ा उन के जिस्मों को टोह टोह के देख रहा है और जब वो किसी औरत के जिस्म को उंगली लगाता है तो उस पर एक गुलाबी सा गढ़ा पड़ जाता है और उस के इर्दगिर्द एक ज़र्द सा हलक़ा और फिर ज़र्दियाँ और सुर्ख़ियाँ एक दूसरे की जगह लेने के लिए दौड़ती हैंअज़बैक आगे गुज़र जाता है और नाक़ाबिलक़ुबूल औरत एक एतिराफ़ शिकस्त, एक इन्फ़िआलियत के आलम में एक हाथ से इज़ारबंद थामे और दूसरे से अपने चेहरे को अवाम की नज़रों से छुपाए सिसकियां लेती है——

 

सुंदरलाल अमृतसर (सरहद) जाने की तैयारी कर ही रहा था कि उसे लाजो के आने की ख़बर मिली। एक दम ऐसी ख़बर मिल जाने से सुंदर लाल घबरा गया। उस का एक क़दम फ़ौरन दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा, लेकिन वो पीछे लौट आया। उस का जी चाहता था कि वो रूठ जाए और कमेटी के तमाम पिले कार्डों और झंडियों को बिछा कर बैठ जाए और फिर रोए, लेकिन वहाँ जज़्बात का यूँ मुज़ाहिरा मुम्किन था।

 

उस
ने मर्दानावार उस अंदरूनी कशाकश का मुक़ाबला किया और अपने क़दमों को नापते हुए चौकी कलाँ की तरफ़ चल दिया, क्यूँ कि वही जगह थी जहाँ मग़्विया औरतों की डिलेवरी दी जाती थी।

 

अब लाजो सामने खड़ी थी और एक ख़ौफ़ के जज़्बे से काँप रही थी। वही सुंदरलाल को जानती थी, उस के सिवाए कोई जानता था। वो पहले ही उस के साथ ऐसा सुलूक करता था और अब जब कि वो एक ग़ैर मर्द के साथ ज़िंदगी के दिन बिता कर आई थी, जाने क्या करेगा? सुंदरलाल ने लाजो की तरफ़ देखा।

 

वो ख़ालिस इस्लामी तर्ज़ का लाल दुपट्टा ओढ़े थी और बाएं बकुल मारे हुए थीआदतन महिज़ आदतनदूसरी औरतों में घुल मिल जाने और बिलआख़िर अपने सय्याद के दाम से भाग जाने की आसानी थी और वो सुंदरलाल के बारे में इतना ज़्यादा सोच रही थी कि उसे कपड़े बदलने या दुपट्टा ठीक से ओढ़ने का भी ख़याल रहा। वो हिंदू और मुस्लमान की तहज़ीब के बुनियादी फ़र्क़दाएँ बुकल और बाएँ बुकल में इम्तियाज़ करने से क़ासिर रही थी।

 

अब वो सुंदरलाल के सामने खड़ी थी और काँप रही थी, एक उम्मीद और एक डर के जज़्बे के साथ

 

सुंदर लाल को धचका सा लगा। उसने देखा लाजवंती का रंग कुछ निखर गया था और वो पहले की बनिसबत कुछ तंदरुस्त सी नज़र आती थी। नहीं। वो मोटी हो गई थीसुंदर लाल ने जो कुछ लाजो के बारे में सोच रखा था, वो सब ग़लत था। वो समझता था ग़म में घुल जाने के बाद लाजवंती बिलकुल मरियल हो चुकी होगी और आवाज़ उस के मुंह से निकाले निकलती होगी। इस ख़याल से कि वो पाकिस्तान में बड़ी ख़ुश रही है, उसे बड़ा सदमा हुआ,लेकिन वो चुप रहा क्यूँ कि उसने चुप रहने की क़सम खा रक्खी थी।

 

अगर्चे वो जान पाया कि इतनी ख़ुश थी तो फिर चली क्यूँ आई? उसने सोचा शायद हिंद सरकार के दबाव की वजह से उसे अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ यहाँ आना पड़ालेकिन एक चीज़ वो समझ सका कि लाजवंती का संवलाया हुआ चेहरा ज़र्दी लिए हुए था और ग़म, महज़ ग़म से उस के बदन के गोश्त ने हड्डियों को छोड़ दिया था।

 

वो ग़म की कसरत से मोटी हो गई थी और सेहत मंद नज़र आती थी, लेकिन ये ऐसी सेहत मंदी थी जिसमें दो क़दम चलने पर आदमी का सांस फूल जाता हैमग़्विया के चेहरे पर पहली निगाह डालने का तअस्सुर कुछ अजीब सा हुआ।

 

लेकिन उसने सब ख़यालात का एक असबाती मर्दानगी से मुक़ाबला किया और भी बहुत से लोग मौजूद थे। किसी ने कहा— “हम नहीं लेते मसलमरान (मुस्लमान) की झूटी औरत—”

 

और ये आवाज़ रसालू, नेकी राम और चौकी कलाँ के बूढ़े मुहर्रिर के नारों में गुम हो कर रह गई। इन सब आवाज़ों से अलग कालका प्रशाद की फटती और चुलावती आवाज़ रही थी। वो खांस भी लेता और बोलता भी जाता। वो इस नई हक़ीक़त, इस नई शुद्धी का शिद्दत से क़ाएल हो चुका था।यूँ मालूम होता था आज उसने कोई नया वेद, कोई नया प्राण और शास्त्र पढ़ लिया है और अपने इस हुसूल में दूसरों को भी हिस्सेदार बनाना चाहता है

 

इन सब लोगों और उनकी आवाज़ों में घिरे हुए लाजो और सुंदर लाल अपने डेरे को जा रहे थे और ऐसा जान पड़ता था जैसे हज़ारों साल पहले के राम चन्द्र और सीता किसी बहुत लंबे अख़लाक़ी बनबास के बाद अयोध्या लौट रहे हैं। एक तरफ़ तो लोग ख़ुशी के इज़हार में दीप माला कर रहे हैं, और दूसरी तरफ़ उन्हें इतनी लंबी अज़िय्यत दिए जाने पर तअस्सुफ़ भी।

लाजवंती के चले आने पर भी सुंदर लाल बाबू ने इसी शदमद सेदिल में बसाओप्रोग्राम को जारी रक्खा। उसने क़ौल और फे़ल दोनों एतिबार से उसे निभा दिया था और वो लोग जिन्हें सुंदरलाल की बातों में ख़ाली खोखली जज़्बातिय्यत नज़र आती थी, क़ाएल होना शुरू हुए। अक्सर लोगों के दिल में ख़ुशी थी और बेश्तर के दिल में अफ़सोस। मकान 414
की बेवा के अलावा मोहल्लामुल्ला शकूरकी बहुत सी औरतें सुंदरलाल बाबू सोशल वर्कर के घर आने से घबराती थीं।

 

लेकिन सुंदरलाल को किसी की इतना या बेएतिनाई की पर्वा थी। उस के दिल की रानी चुकी थी और उस के दिल का ख़ला पट चुका था। सुंदरलाल ने लाजो की स्वर्ण मूर्ती को अपने दिल के मंदिर में स्थापित कर लिया था और ख़ुद दरवाज़े पर बैठा उस की हिफ़ाज़त करने लगा था। लाजो जो पहले ख़ौफ़ से सहमी रहती थी, सुंदर लाल के ग़ैर मुतवक़्क़े नरम सुलूक को देख कर आहिस्ताआहिस्ता खुलने लगी।

 

सुंदरलाल, लाजवंती को अब लाजो के नाम से नहीं पुकारता था। वो उसे कहता थादेवी!” और लाजो एक अनजानी ख़ुशी से पागल हुई जाती थी। वो कितना चाहती थी कि सुंदरलाल को अपनी वारदात कह सुनाए और सुनाते सुनाते इस क़दर रोए कि उस के सब गुनाह धुल जाएँ। लेकिन सुंदरलाल, लाजो की वो बातें सुनने से गुरेज़ करता था और लाजो अपने खुल जाने में भी एक तरह से सिमटी रहती।

 

अलबत्ता जब सुंदरलाल सो जाता तो उसे देखा करती और अपनी इस चोरी में पकड़ी जाती। जब सुंदरलाल उस की वजह पूछता तो वोनहीं” “यूँहऊँहूके सिवा और कुछ कहती और सारे दिन का थका हारा सुंदरलाल फिर ऊँघ जाता—— अलबत्ता शुरू शुरू में एक दफ़ा सुंदरलाल ने लाजवंती के सियाह दिनों के बारे में सिर्फ इतना सा पूछा था

 

कौन था वो?”

लाजवंती ने निगाहें नीची करते हुए कहा— “जुम्माँ”— फिर वो अपनी निगाहें सुंदरलाल के चेहरे पर जमाए कुछ कहना चाहती थी लेकिन सुंदरलाल एक अजीब सी नज़रों से लाजवंती के चेहरे की तरफ़ देख रहा था और उस के बालों को सहला रहा था। लाजवंती ने फिर आँखें नीची कर लीं और सुंदर लाल ने पूछा

 

अच्छा सुलूक करता था वो?”

हाँ।

मारता तो नहीं था?”

 

लाजवंती ने अपना सर सुंदर लाल की छाती पर सरकाते हुए कहा— “नहीं”— और फिर बोलीवो मारता नहीं था, पर मुझे उस से ज़्यादा डर आता था। तुम मुझे मारते भी थे पर मैं तुमसे डरती नहीं थीअब तो मारोगे?”

सुंदर लाल की आँखों में आँसू उमड आए और उसने बड़ी निदामत और बड़े तअस्सुफ़ से कहा— “नहीं देवी! अब नहींनहीं मारूँगा—”

 

देवी!” लाजवंती ने सोचा और वो भी आँसू बहाने लगी।और इस के बाद लाजवंती सब कुछ कह देना चाहती थी, लेकिन सुंदरलाल ने कहा

जाने दो बीती बातें। इस में तुम्हारा क्या क़ुसूर है? इस में क़ुसूर है हमारे समाज का जो तुझ ऐसी देवियों को अपने हाँ इज़्ज़त की जगह नहीं देता। वो तुम्हारी हानि नहीं करता, अपनी करता है।

 

और लाजवंती की मन की मन ही में रही। वो कह सकी सारी बात और चुपकी दुबकी पड़ी रही और अपने बदन की तरफ़ देखती रही जो कि बटवारे के बाद अबदेवीका बदन हो चुका था। लाजवंती का था। वो ख़ुश थी बहुत ख़ुश। लेकिन एक ऐसी ख़ुशी में सरशार जिसमें एक शक था और वस्वसे। वो लेटी लेटी अचानक बैठ जाती, जैसे इंतिहाई ख़ुशी के लम्हों में कोई आहट पा कर एका एकी उस की तरफ़ मुतवज्जो हो जाएगी——

 

जब बहुत से दिन बीत गए तो ख़ुशी की जगह पूरे शक ने ले ली। इसलिए नहीं कि सुंदर लाल बाबू ने फिर वही पुरानी बदसुलूकी शुरू कर दी थी, बल्कि इसलिए कि वो लाजो से बहुत ही अच्छा सुलूक करने लगा था। ऐसा सुलूक जिसकी लाजो मुतवक़्क़े थीवो सुंदर लाल की, वो पुरानी लाजो हो जाना चाहती थी जो गाजर से लड़ पड़ती और मूली से मान जाती।

 

लेकिन अब लड़ाई का सवाल ही था। सुंदरलाल ने उसे ये महसूस करा दिया जैसे वोलाजवंती काँच की कोई चीज़ है, जो छूते ही टूट जाएगीऔर लाजो आइने में अपने सरापा की तरफ़ देखती और आख़िर इस नतीजे पर पहुँचती कि वो और तो सब कुछ हो सकती है, पर लाजो नहीं हो सकती।

 

वो बस गई, पर उजड़ गईसुंदरलाल के पास उस के आँसू देखने के लिए आँखें थीं और आहें सुनने के लिए कान! — प्रभात फेरियाँ निकलती रहीं और मोहल्ले
मुल्ला शकूरका सुधारक रसालू और नेकी राम के साथ मिलकर उसी आवाज़ में गाता रहा

हथ लायाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे।

The End

 


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Engr. Maqbool Akram

Engr Maqbool Akram is M.Tech (Mechanical Engineering) from A.M.U.Aligarh, is not only a professional Engineer. He is a Blogger too. His blogs are not for tired minds it is for those who believe that life is for personal growth, to create and to find yourself. There is so much that we haven’t done… so many things that we haven’t yet tried…so many places we haven’t been to…so many arts we haven’t learnt…so many books, which haven’t read.. Our many dreams are still un interpreted…The list is endless and can go on… These Blogs are antidotes for poisonous attitude of life. It for those who love to read stories and poems of world class literature: Prem Chandra, Manto to Anton Chekhov. Ghalib to john Keats, love to travel and adventure. Like to read less talked pages of World History, and romancing Filmi Dunya and many more.
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