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बातें अवध की: सल्तनत-ए-अवध के परिस्तान की ऐतिहासिक परियाँ.

ससार के प्राचीनतम इतिहास से वेश्याओं का इतिहास शुरू होता है। वैसे वेश्याओं के भी तमाम तबके और घराने हुआ करते हैं लेकिन लखनऊ के नवात्री दौर में कुछ रूपाजीवाओं या गानेवाचनेवालियों ने अवध के इतिहास को नएनए मोड़ दे दिये है, तो कुछ ने नए अन्दाजों को जनम दिया है।

 

नवाब आसफ़ुदौला के दौलतखाना शीशमहल में सुन्दरी नाम की एक मशहूर गाने वाली थी।

उनकी जश्नगाह की महफ़िलें सुन्दरी के दम से आबाद रहा करती थी। ख़याल गाने में उसका कोई जोड़ था और इसलिए उसे शाही ख़जाने से अच्छी तनख्वाह मिला करती थी |
ईद और वसन््त के मौके पर सुन्दरी को महल से खूब इनामइक राम भी मिलता था।

 

नवाब आसफ़ुद्दीला गिलौरीदान में अपना फरमाइणी परचा लिखलिखकर भेजते थे जिसे सुन्दरी अदा करती थी | जब नवाब की मृत्यु हो गई तो वो क़स्बन एक कहानीकार के प्रेमपाश में पड गई थी इससे उसकी दरवारी प्रतिष्ठा को बहुत चोट पहुँची अब नवाब सआदत अली खां की हुकूमत थी

अपनी बीमारी के बाद जब वो अपने नए निवास फ़रहतबख्श में तन्दुरुस्त हुए तो गुस्ले सेहत की दावत में सुन्दरी को मुजरे के लिए बुलवाया गया सुन्दरी ने रात चढतैचढ़ते अपनी आवाज़ का जादू आवाज मे विखेर दिया और सारी अंजुमन उसकी गिरफ्त में गई।

 

नवाब सुन्दरी को बहुत पसन्द करते थे लेकिन उन्हे अपने बडे भाई का अदब इतना था कि वो उनकी पसन््दीदा इस गुलूकारा की तरफ़ कभी ग़ौरसे देखते तक थे और नज़र की अशफ़ियाँ खासदान में रखकर बढ़ा दिया करते थे

 

अवध के बादशाह  ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के वक्त में उरई लाल का एक पुराना खानदान था।

जगन्नाथ नाम के एक प्रसिद्ध व्यापारी उसी घराने से थे जो चौक में रहा करते थे। जगन्ताथ शहर की एक मशहूर मंगलामुखी बेगम के आशिक थे और बेगम बादशाह की काफ़ी मुंहहगी थी।

 

एक बार जब जगन्नाथ किसी जुर्म की सज़ा में गिरफ्तार कर लिये गये तो बेगमजान के दिल को बड़ी ठेस पहुँची। उनको क़द से रिहाई दिलाने के लिए उसने एक तरकीब ढूँढ़ निकाली

 

उसने जेल के अन्दर ही जगन्नाथ के साथ अपना निकाह पढ़वा लिया और फिर दरबार में अपनी रसाई के जोर से जगन्नाथ को छुड़ा लिया जगन्नाथ अब गुलाम रज़ा खां हो चुके थे और उनके अँगरखे के बन्द, जो दाई तरफ़ लगते थे, बाई तरफ़ लगने लगे थे।

Western Gate of Qiser bagh-Luclnow

 

उस तवायफ़ से राहरस्म बढ़ा लेने के कारण उन्हें दरबारे शाही से विजारत मिल गयी और शरफ़्दौला का खिताब भी मिला फिर बेगम को भी शरफ़ुन्तिसा कहा जाने लगा लखनऊ का प्रसिद्ध रौज़ा काजमैन इन्हीं दोनों का बनवाया हुआ है और दोनों ही उसमें दफन हैं

 

अवध
के आठवे नवाब नसीरुद्दीन
अहमद की तवाफ़ बेगमें

बादशाह ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के शासन काल से ही शाहज़ादा मिर्जा सुलेमां जाह उफ़ नसीरुद्वीन हैदर के बिगड़े दिल के परपुजे हमेशा कुछ फ़ाहिशा औरतों के हाथों ठीक होते रहे और नतीजा ये हुआ कि उनका बेड़ा उन्हीं हाथों ग़क्े हुआ। उस ज़माने में लखनऊ के क़रीब हसनपुर बन्धवा से आई हुई एक नामीगिरामी डोमनी शहर में दोनों हाथों से दौलत समेट रही

 

उसके साथ उसकी बेटी हुसनी अपने रूप का जादू जगा रही थी। इस चढ़ते चाँद का ये आलम था कि तमाम शहर उसकी चाँदनी में सराबोर हो चला था। बड़ेबड़े रसिकरईसों की ड्योढ़ियों पर शादीबारातों के मोौक़े पर हुसनी के मुजरों की महफ़िलें हुआ करती थीं

Gate of Qaiser  Bagh-Lucknow

 जब गुलमेंह॒दिया झाड़ों में झिलमिलाती तमाम शमाओं के साये में ये सरापा शमा अँगड़ाई लेकर नाचने खड़ी होती तो उसका नूर पाने वाले परवानों का मजमा लग जाता। उन्हीं जांनिसारों के बीच नसीरुद्दीन भी उस कमंद में गया इसके बाद हुसैनी के हुश्त का दामन नज़ रबाज़ों की गिरफ्त से छूट गया और वह महफ़िल की शमा शाही हरम का चराग़ बन गई।

 

चूँकि हुसैनी नाम के साथ शहर के तमाम मनचलों की बदनीयती जुड़ी थी इसलिए नसीरुद्दीन हैदर ने उसके बेपनाह हुश्न को देखते हुए उसे एकनया नामखरशीद महलदिया।जब ख़रशीद से शादी करने का सवाल हुआ उसकी नसस्लोतसब का पता लगता मुश्किल था।

 

उसकी माँ की मरज़ी के अनुसार ही भिर्जा हुसैन बेग नाम के एक सरकारी नौकर को हुसनी का बाप कहा जाने लगा। मिर्जा बेग सवारों में नौकर थे मगर अब उस डोमनी के साथ आकर जौहरी मुहल्ले में रहने लगे।

 

खूरशीदमहल के नाम नवाबगंज (बाराबंकी) की छः लाख रुपये सालाना आमदनी की एक जागीर लिखी जा चुकी थी | खरशीदमहल की ड्योढ़ी पर त्तमाम ख़ादिमेंकनीज़ें, दारोगा और सिपाही तैनात रहते थे इस पिंगला की शानोशौकत का सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ। १८ अक्तूबर, १८२७ में नसीरुद्दीन हैदर शाहे अवध हुए।

 

तख्तनशीनी ने रातोंरात तमाम बेगमों को मलिका बना दिया था | एक दिन नएनए ताजदार ने अपनी नई नवेली के प्रेम में विभोर होकर हँसीहँसी मे अपना ताज उसके सर पर रख दिया और उसे ताजमहल कहने लगे इस महल की ताजपोशी के लिए उसी दम बादशाह ने एक लाख रुपया सालाना की सलवन (रायबरेली) की जागीर उसके दामन में डाल दी।

 

इससे पहले यह रुतबा किसी मलिका को हासिल नहीं हुआ था। इसी ताजमहल के अद्वितीय रूपसजावट की चर्चा में फनी पाकंस नाम की एक फ्रांसीसी पर्यटक महिला ने अपनी डायरी के पन्ने भर दिये है। नसीरुद्दीन हैदर की मौत के बाद ताजमहल की ऐथाशी ने ऐसा जोर पकड़ा किसारे शहर में बदनाम हो गई

 

जब उसने अपनी पालकी से पैर निकाल दिया तो नवाब वाजिद अली शाह ने उस विधवा बेगम के महल पर पहरे बिठाल दिये लेकिन उसके रंगढंग पर कभी काबू नहीं पाया जा सका।

Pari Khana –Inside Qaiser Bagh Complex (Now Bhatkhande Music Institue-Lucknow)

इसी तरह बादशाह नसीरुद्दीन ने अपनी एक दरबारी तवायफ़ हुसैनी को भी महलसरा में दाखिल कर दिया था। हुसनी जात की डोमनी थी, और दौलतगज चौक की रहने वाली थी। वैसे ये हुसैनी मामूली शकलसू रत की लड़की थी लेकिन उसके नाचगाने के हुनर और नाज़ोअन्दाज़ ने बादशाह पर भरपुर जादू डाल रखा था।

 

१० दिसम्बर, १८३१ को नसीरुद्दीन हैदर ने चुपचाप उस डोमनी से शादी कर ली। अब क्योंकि हुसैनी को उस नाम से पुकार लेना हराम हो चुका था, अतः हुसेनी बादशाहमहल बन चुकी थी। उसकी महफ़िल के दीवाने उसकी एक झलक देख पाने के लिए तरसने लगे थे। यह शादी चोरी से की गयी थी। इसलिए इस बेगम के नाम कोई जागीर नहीं लिखी जा सकी

 

फ़ैनी पाकेस ने बादशाहमहल के लिए लिखा है, “पता नहीं क्यों ये एकदम मामूली लड़की बादशाह के दिलोदिमाग़ पर छायी हुई है। लगभग १४ महीने पहले यही तवायफ़ रेजीडेंसी में २४ रुपये रोज पर मुजरा करती थी। दरअसल यह ऐसे नीच तबक़े की औरत थी कि शायद कोई कोचवान भी उससे शादी करता

 

नसीरुद्दीन हैदर तो उन दिनों हर घड़ी बादशाहमहल पर सिछावर रहते थे और यहाँ तक कि ताजमहल जैसी क़बूल सूरत मलिका की भी क़द्र कम कर बैठे थे। इस बदमाश लड़की कामहल में पाँव पड़ जाने से ही ताजमहल का सूरज बुझने लगा था और ताजमहल उस रंजोग़म को ग़लत करने मे मयनोशी का सहारा लेने लगी थी।

Safed Baradari in Qaiser Bagh

ये वो ज़माना था जब बादशाह का बायाँ हाथ ताजमहल के हाथों में रहता थाऔर दायाँ हाथ बादशाहमहल की मुद्िवयों में क़ैद हो गया था। बादशाह सलामत जब कम्पनी सरकार के गवनेरजनरल के स्वागत में कानपुर गये तो ताजमहल और बादशाहमहल उनके साथसाथ सिद्धि बनकर कानपुर तक गयी थीं

Pavalion of Lanka  Qaiser bagh-Lucknow

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के हरम में सिर्फ़ ताजमहल और बादशाहमहल ही हुसेनी नाम से नहीं आई थीं। इनके अलावा तीन हुसैनी नाम की नाचते वालियाँ और भाई जो बाद में बेगमें बन गईं। उन्हें साहबमहल‘, भूरमहल और सुल्तानमहल के नाम से पुकारा जाता था नसीरुद्दीन की कामुकता और विलासिता का अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके दिल बहुलाव के लिए सौ तवायफ़ें शहराती और सौ तवायफ़ें देहाती महल में नौकर थीं।

 

वाजिद अली शाह के परीखाना की तवायफ़ें

नसीरुद्दीन हैदर के बाद वाजिद अली शाह के वक्त में फिर लखनऊ में तवायफ़ों की तूती बोलने लगी। वो बचपन से ही हुस्तपरस्त थे, इसलिए उनके अहृद में इन रक़्क़ासाओं ने वो तमाशे किये कि इतिहास गवाह है कि जो कभी हुआ था उस जमाने में हो गृज्ञ रा

 

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने सन् १८३२ में जन्तरमन्तर जैसी एक वेधशाला लखनऊ में बनवायी थी जिसेतारावाली कोठीकहा जाता था। इस ज्योतिषगणना भवन में एक से एक क़रीमती यंत्र और अद्भुत दूरबीनें लगी हुई थीं।

 

तारावाली कोठी की देखरेख के लिए और इन्तज़ाम के लिए कर्नल वैलकावस को नियुक्त किया गया जो अच्छा खगोलविज्ञानी था। मगर जब वाजिद अली शाह की हुकूमत हुई तो यह वेधशाला गदिश में गयी। वाजिद अली शाह ने इस तारावाली कोठी को मयख़ाना बना लिया |

 

और इस संग्रहालय की सबसे बढ़िया दूरबीन को एक अच्छा खिलौना समझ कर हैदरी नाम की एक मशहूर तवायफ़ को खेलने के लिए दे दिया। वाजिद अली शाह का परीखाना मशहूर है। क़ैसरबाग़ के उस परीक्षाने की दारोग़ा बजमुल निसा थीं जिनके साथ अठारहअफ़सर परियाँ थीं जिन्हें हुजूरवालियाँ कहा जाता था।

Nawab Wajid Ali Shah

अम्मन और अमामन नाम की दो कुटनी औरतें परीखाने के लिए देशविदेश से लड़कियाँ उड़ाकर लाती थीं और तो और, बेगभहज़रत महल ने भी पहलेपहल इसी परीख़ाने में क़दरम रखा था और तब वो महुकपरी कही जाती थी। परीखाने पर रातदिन हथिया रबन्द तुकिनों का पहरा रहता था। परीखाने में बादशाहू और परियों के अलावा सिर्फ़ साज़िन्दे आतेजाते थे |

 

कुछ उस्ताद परियों को नाचनेगाने की तालीम देते थे |
सब उस्तादों के उस्ताद तो बादशाह ख़द थे, जो खू सितार और तबला बजाते थे। ठुमरी गाने में तो उनका जवाब ही नहीं था।

 

वाज़िद अली शाह के पिता अमज़द अली शाह की एक कनीज़, जो अच्छी गाने वाली थी, साहब खानम कही जाती थी मगर जाने आलम की महबूबा थी। वो बादशाह के साथ नाचतीगाती तो थी ही, अक्सर गंजीफ़ा भी खेलती थी। वाजिद अली शाह उसी के हाथ की गिलौरियाँ खाते थे और बिना उसका मुँह देखे सोते नहीं थे।

 

वाजिद अली शाह को परी जमालो की सोहबत बहुत पसन्द थी और यहाँ तक कि उन्होंने कुछ फ़ाहिशा औरतें मह॒ज़ मुहब्बत करने के लिए तनख्वाह पर नौकर रख ली थीं उन्हीं औरतों में मोती खानम भी आई थी। मोती ख़ानम नाचनेगाने में बड़ी पारंगत थी। स्वभाव की बड़ी चतुरचालाक और शोख मिजाज औरत थी।

 

वाजिद अली शाह उसके चम्पई रंग और कंटीले नैनों पर क़र्बान थे ।उस रक़्कासा की बायीं आँख पर एक तिल भी था जिसे जाने आलम अपना दिल कहा करते थे। मज़ा यह कि यही पेशेवर मुहब्बत फ़रोश औरत इससे पहले बादशाह नसीरुद्दीन हैदर की दरबारी जलसे वालियों में मुलाजिम थी।

 

मगर अब तो वाजिद अली शाह उस नाचीज़ पर दिलोजान से निछावर थे। इसी मोतीख़ानम के इश्क़ में दीवाने होकर उन्होंने दो दीवान रच डाले और तीन मसनवी नज़्में कह डालीं

 

उसी ज़माने में लखनऊ शहर में जहानी नाम की एक मशहूर डोमनी रहा करती थी। उसकी बेटी गुलबदन अच्छी शकलो सूरत की तो थी ही, गानेबजाने की कलाभी उसे अपनी माँ से विरासत में मिली थी जब इस फूल की ख़शबू क़सरबाग़ के रेंगीले कुवर तक पहुंची तो उनके हरकारे मुहम्मद अली खां झ्वाजासरा दयानतुद्दोला ने एक दिन इस माहुपारा को हुजूर के आँगन में लाकर खड़ा कर दिया।

 

शाहे अवध के दिल पर उसकी मोहिनी ऐसी पड़ी कि उस दिलकश सूरत को फ़ौरन अंगीकार करपरीखानामें उस नाजुक अदा फूल को  माशूक परी का नाम दिया गया और उसे नाचगाने की तालीम दी जाने लगी

 

वह गानाबजाना सीख ही रही थी कि सुल्ताने आलम ने उससे रिएता कर लिया। उसके गर्भवती माँ बनने का शकुन देखते ही उसे महल के परदों में बिठा दिया गया और परी के पर उतारकर महलका खिताब लगा दिया गया। अब उसे माशूक महल कहा जाने लगा

 

जब उस चाँद की गोद में तारा खिला तो हाकिमे तख्त बादशाह अमजद अली शाह ने अपने पोते को मिर्जा फ़रीदं क़द्र बहादुर साम दिया ओर बहु के नाम कुछ जागीर लिखवाकरनवाब
माशूक महल साहिबाकहा

 

माशूक महल बादशाह की सबसे वफ़ादार बेगसों में थीं। मार्च १८५६ में जब दर नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ छोड़कर कलकत्ते की तरफ़ रवाना हुए तो बादशाह की गाड़ी के पीछे जो पहली टमटम थी वो माशूक
महल
की थी जाने आलम को जब कलकत्ते में क़ैद करके फ़ोटं विलियम में डाल दिया गया तो उन्होंने अपनी दिलरुबा बेगमों से जुदा हो जाने पर हर एक से कुछ कुछ निश्चानी भेजने की तलब की थी

 

तबीयत बहुत मेरी घबराई जब

 किया पाएक़ैसरका छलल्ला तलब

 करे नाखूने दस्तेमाशूक्रसे

 तलब ये किया दिल के सनन्दूक़ से

 कहा, जाफ़री से किए ख़शजमाल

 मुझे चाहिए तेरे मुँह का उगाल‘*’”

(हुल्ने अख्तर)

 

माशूक
महल उनकी इस वहशत और नासमझी पर दिल ही दिल में जलभुनकर रह गयी वैसे वो रोज़ दोनों वक्त अपने घर से नवाब के लिए खाना और मुश्कीं गिलौरियाँ भेजती थी लेकिन उन्होने नाख़न काटकर भेजना नहीं पसन्द किया

 

दिया मल्कए मुल्क ने ये पयाम

 कि मेरा है दुनिया में माशूक़ नाम

 मेगा उतके नाख जो करती हों प्यार

 वो भेजें जो हों आपकी राज़दार

 जो माँगे है नाख , नहीं है वो अब

 हज्जाम का काम सीखा है कब
?”

(हुक्ने अख्तर)

 

इसी जवाब से वाजिद अली शाह
माशूक महल से नाराज से रहने लगे ।जब इन माँबेटी की तनख्वाहें भी कटने लगीं तो मिर्जा फ़रीदूक़द्र ने माँ के कहने पर दिल्ली जाकर अंग्रेज़ सरकार से अपने बाप की शिकायत की। बग्रावतके इस क़दम से नवाब का पारा और गरम हो गया और उन्होंने माशूक
महल
से अपनारिश्ता तोड़ डाला

 

यही नहीं, उन्होंने उसकी कोठीमाशूक मंजिल को जड़ से खुदवा डाला और उसकी जगह नयी कोठी बनवाकर उसका नामफ़तह मंजिलरखा मारे जलन के इस कोठी की बुनियाद में वाजिद अली शाह ने एक जोड़ी तबलासारंगी भी रखवा दिये, क्योंकि माशूक्र महल जात की डोमनी थी और ये साज़ उसके प्रतीक थे

 

वाजिद अली शाह की तवायफ़ बेगमों मेंसुलेमां महल कभी सुलेमां परी कही जाती थी। नन्ही जान नाम की एक बड़ी अच्छी गुलूकारा को उन्होंने अमीरमहलकहकर अपनी बेगम बना लिया। उम्दाखानम वाली उमराव नाम की रक़क़ासा को उन्होंनेसिकन्दर महल बना लिया जो उनके जोगियाने मेले में उनकी ख़ास जोगन बना करती थी

 

इसी तरह ग़न्ना नाम की एक क़स्बन को उन्होंने सरफ़राज़ महल बना लिया था। रश्कपरी नाम की एक डोमनी कोनवाब सल्तनत
महल
बनाकर छोडा। दिलबर और हैदरी नाम की दो तवायफ़ बहनों को अपनी बेगम बनाकर उन्होंने सुल्तान परी औरअजायब परीका खिताब अता फ़रमाया|

 

और तो और, उनके शासनकाल के एक प्रसिद्ध रेजीडेप्ट कर्नल स्लीमन तक मुन्नी ताम की एक तबायफ़ के आशिक हो चुके थे इन तवायफ़ों के रक्सोमहफ़िल, हुस्तोअन्दाज़ के शोले ववाब वाजिद अली शाह के वक्त में कुछ इस क़दर भड़क चुके थे कि फिर वो चिराग ही गुल होकर  रह गया |

The End

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