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अवध के द्वितीय बादशाह नसीरुद्दीन हैदर:- महल की एक अति आकर्षक विधवा दासी सुबह दौलत के पुत्र से अवध का इतिहास बदल गया

by Engr. Maqbool Akram
March 22, 2023
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इतिहास में कुछ कहानियां अनकही रह जाती हैं। अपने अंजाम तक पहुंचने से पहले ही वे या तो किताबों के पन्नों में दफन हो जाती हैं या यूं गुम हो जाती हैं कि उनके बारे में किसी को जानकारी नहीं मिल पाती है।

नवाब नसीरूद्दीन के बाल्यकाल की एक घटना है जिसे इतिहास का निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है। अवध के सातवें शासक नवाब गाज़ीउद्दीन हैदर की शादी (1794/95) बादशाह बेगम से हुई। सन् 1777 में जन्मी सम्मानित सैयद रिज़वी खानदान में पैदा हुई बादशाह बेगम अपने पिता मुबश्शिर खान मुनज्जिम–उल–मुल्क की अत्यन्त लाडली थीं।

गाजीउद्दीन के पिता नवाब सादत अली खान, जो मजबूरी में लखनऊ छोड़ बनारस में रह रहे थे, को अपने बेटे के लिए वह इतनी भा गईं कि बादशाह बेगम के पिता की शर्तों पर शादी करने को तैयार हो गए थे।

बादशाह
बेगम को न केवल किताबी ज्ञान था, वरन वे एक स्वतंत्र विचारों वाली स्वाभिमानी महिला थीं, जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर समझती थीं, किन्तु उनका स्वाभिमान अक्सर दूसरों के मान का ध्यान नहीं रख पाता था।

वह
शीघ्र क्रोधित होने वाली एक महत्वाकांक्षी महिला थीं। उनके क्रोध के भय से उनके पति उनकी बात मान लिया करते थे।

 

अंग्रेज रेजीडेन्ट डब्लू. एच. स्लीमन के अनुसार उनके गुस्से में नवाब के कपड़े, बाल व ठुड्ढ़ी भी असुरक्षित थे। यह टिप्पणी शायद अतिशयोक्ति हो, किन्तु कालान्तर की एक घटना प्रमाणित करती है कि बेगम का आत्मसम्मान कब अपने अहम में अन्धा हो अहंकार की सारी सीमाएं पार कर जाता था, स्वयं बेगम को भी नहीं मालूम था।

सन् 1819 में अंग्रेजों के उकसाने पर जब नवाब गाजीउद्दीन ने स्वयं को दिल्ली से अलग एक स्वतंत्र बादशाह घोषित कर दिया, तब वह अवध की प्रथम महारानी बन गईं।

नवाब
गाजीउद्दीन दुनिया के अन्य अधिकांश शासकों की तरह स्वभाव से रसिया था तथा सुन्दर स्त्रियां उसकी दुर्बलता।

 

अतः वह महल की एक अति आकर्षक दासी जिसका नाम सुबह दौलत था,
के आकर्षण से अपने को न बचा पाया तथा बहराईच की रहने वाली इस विधवा दासी से उसको 1803 में एक पुत्र भी पैदा हुआ।

 

यह बात जब बादशाह बेगम को पता चली तो क्रोध के आवेश में उसने दासी सुबह दौलत का कत्ल करवा दिया जो कि झंकार बाग में दफन है तथा उसके बच्चे मिर्जा अली को जान से मारने के आदेश दे दिए। किन्तु बच्चे के सौभाग्य से बेगम की एक विश्वासपात्र सेविका फैज–उन–निसा को बच्चे पर दया आ गई और उसने अपनी चतुराई से उसे बचाकर इतिहास का रुख मोड़ दिया।

आगे चलकर जब बेगम का क्रोध शान्त हुआ तो बेगम ने इस दासी पुत्र को लाड़–प्यार से पाल कर बड़ा किया,
क्योंकि स्वयं उसके कोई पुत्र नहीं था। यही दासी पुत्र मिर्जा अली नवाब गाजीउद्दीन हैदर की मृत्यु के बाद
20
अक्टूबर, 1827 में नवाब नसीरउद्दीन हैदर के नाम से अवध की गद्दी पर बैठा।

उस वक्‍त उसकी उम्र 25 वर्ष थी। नवाब साहब 20 अक्टूबर 1827 को नवाब गाजीउद्दीन हैदर के इस दासी पुत्र नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने अवध की हुकूमत संभाली।


बड़े ही रंगीन मिजाज के निकले। पैसा पानी की तरह खर्चे करते उनका अधिकांश समय भोग विलास में बीतता।

उनकी कमजोरी थी खूबसूरत स्त्री।

 नवाब का दिल एक दिन एक विलायती लड़की पर जा टिका। लड़की के पिता का नाम हॉपकिन्स वाल्टरी था जो कि कम्पनी की अंग्रेजी सरकार की सेना का मुलाजिम होकर लखनऊ आया था। नवाब साहब ने उससे शादी रचाई और उसका नाम ‘मुकहरा औलिया’रखा।

 

नवाब नसीरुद्दीन हैदर को एक गरीब परिवार से ताल्‍लुक रखने वाली स्त्री से प्रेम हो गया और उससे निकाह कर लिया उसका नाम था कुदसिया।

बादशाह कुदसिया बेगम से बड़ी मोहब्बत करते थे। एक दिन वह दिलकुशा घूमने गए और तमाम लंगूर बन्दर मार डाले। शाम को जब महल वापस आये तो कुदसिया बेगम से उनकी तृ–तू मैं–मैं हो गयी।


यह झगड़ा इतना बढ़ा कि कुदसिया बेगम ने जहर खा लिया। खाते ही आँतें मुंह से निकल आयीं आँखें बाहर उबल पड़ीं। बादशाह यह दृश्य देख भाग खड़े हुए। वह इतना डर गए कि अस्तबल में जा छुपे। जब बेगम की लाश वहाँ से हटा दी गयी तब जाकर वह कहीं महल में लौटे।

कुदसिया महल की जुदाई का गम नवाब साहब सह न पाये बड़े बेचन व खोये–खोये से रहने लगे।

नवाब साहब के दिल से कुदसिया महल की यादों को निकालने का एक ही चारा था कि उनकी शादी किसी ऐसी लड़की से की जाये जो मरहूम बेगम से मिलती जुलती शक्ल की हो।

 

शीघ्र ही उनके दोस्तों ते एक रास्ता खोज निकाला। कुदसिया बेगम की एक छोटी बहन और थी। जिसका नाम नाजुक अदा था। उसकी शादी नवाब दूल्हा से हो चुकी थी। दोनों ही बहनों की शक्‍ल सूरत ही नहीं आदतें तक मिलती थीं। नवाब नसीरूद्दीन हैदर के दोस्तों और दरबारियों ने बड़ी कोशिशें की कि नाजुक अदा नवाब नसीरुद्दीन हैदर से निकाह करने को राज़ी हो जाये मगर इन सारी कोशिशों पर पानी फिर गया।

 

दरबारियों ने एक रास्ता और खोज निकाला। नवाब रोशनुद्दौला की ओर से मीर सैयद अली को नाजुक अदा के शौहर से बात करने के लिए भेजा कि वह उसे तलाक दे दें। 

नवाब दूल्हा बड़ी मुश्किल से राजी हुआ और तलाक दे दिया। फिर भी नाजुक अदा नवाब नसीरुद्दीन हैदर से निकाह करने को राजी न हुई। इस पर उसे एक मकान में नजरबन्द कर दिया गया।

 

एक दिन मौका पाकर वह भाग निकली और कानपुर जाकर अपने मियाँ से मिली। कहते हैं नाजुक अदा की इस फरारी में रोशनुद्दौला का काफी हाथ रहा। उसने नवाब दूल्हा से कह दिया था कि वह उसे नाटकीय तौर पर तलाक दे दें शीघ्र ही उसकी बीबी उसके पासदोबारा पहुँचा दी जायेगी।

 

नाजुक अदा और उसके शौहर नवाब दूल्हा की बड़ी तलाश करवाई गयी पर दोनों का कुछ पता न चला। अब इस तलाश को बन्द कर दोबारा कुदसिया महल की हमशक्ल को ढूँढ़ने की कोशिश शुरू हो गयी। तमाम लड़कियां नवाब साहब के सामने लाई गयी मगर उन्हें कोई भी पसन्द न आयी। तरीखे–अवध के अनुसार एक दिन रोशनुद्दौला ने नवाब से अपने रिश्तेदार की लड़की का ज़िक्र किया।

 

वह चाहते थे कि कुदसिया महल के चेहल्लुम के बाद उनका निकाह हो जाये।

उन्होंने एक रोज़ नवाब साहब को दावत के बहाने अपने घर बुलाया और रिश्तेदार मिर्जा बाकर अली खाँ की लड़की उन्हें दिखाई।नवाब नसीरुद्दीन हैदर उसकी खूबसूरती देखते ही उस पर फिदा हो गये। शादी की बात पक्की हो गयी। बड़ी धूमधाम से शादी हुई। निकाह होने के बाद नवाब साहब ने अपनी नयी बीबी को ‘मुमताजुद्हर’ का खिताब दिया।

 

कम्पनी सरकार ने नवाब नसीरुद्दीन हैदर को भी लूटा। 1 मार्च सन्‌ 1821 ई० को सरकार ने उनसे 62,40,000 रुपयों की माँग की। नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने न चाहते हुए भी इतनी बड़ी रकम अदा कर दी।

नवाब नसीरुद्दीन बड़े ही नेकदिल इंसान थे। उन्होंने कई स्कूलों व कालेजों की स्थापना की। किसानों की दशा सुधारने के लिए भी बादशाह ने कई प्रयास किये उनकी योजना गंगा से एक नहर निकालने की थी मगर हरामखोर अंग्रेजों ने ऐसा होने न दिया।


एक हजार रुपया कम्पनी सरकार को इसलिए दिया जाता था कि गरीब तबके के लोगों का मुफ्त इलाज हो सके। नवाब नसीरुद्दीन हैदर द्वारा वित्त पोषित, लखनऊ में एक वेधशाला का निर्माण कराया गया था। यह 1832 में बनकर तैयार हुआ था और इसे तारों वाली कोठी के नाम से जाना जाता था। नवाब का विचार यह था कि खगोल विज्ञान और भौतिकी सीखने के लिए कुलीन युवकों के लिए एक स्कूल खोलने के लिए भी यह सही जगह होगी।

 

इस नवाब को 90 एकड़ के पार्क और बादशाह बाग नामक महल परिसर के लिए याद किया जाता है जिसे उन्होंने गोमती में बनाया था जो बाद में कैनिंग कॉलेज का घर बन गया, अब लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर उन्होंने इलाज के लिए चौक में अस्पताल दार–उल–शफा की स्थापना की। पारंपरिक यूनानी पद्धति, और रेजीडेंसी के पास किंग्स अस्पताल जहां डॉ स्टीवेन्सन ने पश्चिमी चिकित्सा का अभ्यास किया।

 

किंग्स लिथोग्राफिक प्रिंटिंग प्रेस को अंग्रेजी पुस्तकों का अनुवाद करने और उन्हें स्थानीय भाषाओं में प्रिंट करने का आदेश दिया गया था। नवाब नसीरुद्दीन हैदर अपने निजी जीवन में अंग्रेजी की हर चीज के शौकीन थे, और अक्सर औपचारिक पश्चिमी कपड़े पहनते थे। वह अंग्रेजी सीखने के प्रति उत्साही थे। वास्तव में उनके पास पाँच यूरोपीय शिक्षक थे।

 

रेज़ीडेन्ट की कोठी (बेलीगारद) पर सालाना बीस हजार रुपये मरम्मत आदि के लिए खर्च किये जाते थे। अंग्रेजों ने यह रकम बढ़ाकर पचास हजार रुपये सालाना कर दी। एक दिन रात के समय नवाब साहब की तबियत अचानक खराब हो गयी और वह 7 जुलाई सन्‌ 1837 को इस दुनिया से कूच कर गये।

 

धनिया महरी से उनका जीने–मरने का साथ था

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने उम्र भर उधार की अक्ल से सारे काम किये, चूकि धनिया महरी से उनका जीने–मरने का साथ था, इसलिए उसका दिमाग़ सबसे आगे चलता था । जब शाहे अवध की सवारी निकलती तो धनिया महरी बहुत बन–ठन कर हाथों में गिलौरीदान लेकर उनके साथ चलती थी, बेगमों को रूप–धूप और आब–ताब का कोई सवाल ही न था।

 

सिफ़ जिस महल की तरफ़ धनिया महरी का इशारा हो जाता, बादशाह रात को उसी महल पर मेहरबान होते थे। ७ जुलाई, १८५३७ की रात जब नसीरुद्दीन हैदर को ज़हर देकर सुला दिया गया तो उनकी मौत का सारा इल्ज़ाम धनिया महरी के सर आया, क्योंकि चढ़ते चाँद के वक्त बादशाह ने आखिरी शरबत धनिया के हाथों ही पिया था ।

 

यद्यपि इस साजिश में कई लोग शामिल थे जो पर्द के पीछे ही रह गये । इनकी मुत्यु के बाद इस द्वितीय बादशाह अवध को इरादतनगर के मशहूर कबेला में दफ़्न कर दिया जहाँ उनकी प्यारी बेगम कुदसियामहल का मज़ार था। 

 

नसीरुद्दीन हैदर इस अर्थ में लावारिस थे कि वे मलिका–ए–जमानी (बेगम शाहजाद महल) से पैदा कैवां जाह को यह बताकर उत्तराधिकार से वंचित कर गए थे कि कैवां जाह उनके बेटे नहीं हैं। इसलिए उनके दुनिया से जाते ही अवध में सत्ता संघर्ष तीव्र हो उठा। उनकी सौतेली मां बादशाह बेगम ने अपने प्रिय पौत्र मुन्ना जान की ताजपोशी के प्रयत्न शुरू किए तो अंग्रेजों ने उन दोनों को कैद करवाकर बादशाह के सौतेले चाचा मुहम्मद अली शाह (मूल नाम मिर्जा नसीरुद्दौला) को गद्दी पर बैठाया।

The
End

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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