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Sahir Wizard of Words:साहिर की माँ उनके पिता की ग्यारवीं बीवी थीं. औरत ने जनम दिया मर्दों को,मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

by Engr. Maqbool Akram
September 14, 2020
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Sahir was wizard
of words.Poet of love ,romance and revolution.

साहिर की माँ उनके पिता की ग्यारवीं बीवी थीं। जब उनके पिता ने बाहरवीं शादी की तो उनकी माँ सरदार बेग़म का ये भरम भी जाता रहा कि वो पुत्र प्राप्ति के लिए शादी कर रहे हैं। अब आईने से गर्द हट चुकी थी और उनकी माँ को ये एहसास हो गया था कि उनका शौहर एक अय्यास आदमी है।

 

उन्होंने स्त्री के जीवन की त्रासदी को बरास्ते अपनी माँ भोगा था और उसे अपनी शायरी में आवाज़ भी दी थी।

 

उन्होंने लिखा—

औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब चाहा मसला, कुचला जब चाहा दुत्कार दिया

मर्दों के लिए हर जुल्म रवा, औरत के लिए रोना भी खता

मर्दों के लिए लाखों सेजें, औरत के लिए बस एक चिता

 

जिसके लिए औरतें जिस्म की भूख का सामान और अय्यासी का साधन मात्र हैं। जो जितना रईस होता है उसके पास उतनी विलासिता के साधन होते हैं। उतने ही विकल्प।

 

अब साहिर की माँ ख़ुद को अपने पति की नज़रों में किसी वस्तु, भोग का साधन, विलासिता के विकल्प से ज़्यादा नहीं देख पा रहीं थी। ऐसे ही उलझे हुए खयालों और सवालों वाली किसी रात उन्होंने तय किया कि वो अपने पति के साथ नहीं रहेंगी।

 

उनकी 12 माएँ थीं और एक पिता।

पहले बात करते हैं उनके असली नाम की. वैसे तो अब्दुल हई एक आम नाम है, लेकिन उनका यह नाम यूं ही नहीं रखा गया. दरअसल उनके पड़ोस में एक बहुत बड़ा राजनीतिक आदमी रहता था जिसका नाम भी अब्दुल हई था, जिससे उनके पिता की बिल्कुल भी नहीं बनती थी.

 

उस आदमी के खिलाफ अपना गुस्सा निकालने के लिए उनके पिता ने अपने बेटे का नाम अब्दुल हई रखा. अपने बेटे के बहाने वह उस आदमी को भला बुरा कह कर अपना दिल हल्का कर लेते थे. उनके पिता ने कभी भी अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को नहीं समझा.

 

उन्होंने 12 औरतों से निकाह किया. साहिर 11वीं पत्नी के बेटे थे. उनके पिता का व्यवहार ठीक न होने की वजह से उनकी मां ने अपने पति फज़ल मोहम्मद से तलाक ले लिया और अपने भाई के पास आकर रहने लगीं.

 

उनकी 12 माएँ थीं और एक पिता। ये कहानीनुमा बात अब्दुल हयी के जीवन का यथार्थ थी। इसे ही शायद जादुई यथार्थवाद कहते हैं। जहाँ कुछ असंगत, कहानीनुमा, काल्पनिक सी बात यथार्थ में घटित होती है। अब्दुल हयी के जीवन के इसी तल्ख़ जादू ने उन्हें हर्फ़ों का जादूगर बना दिया। और वो अब्दुल हयी से शायर साहिर लुधियानवी बन गए। साहिर का शाब्दिक अर्थ जादूगर होता है।

 

उनके पति के पास बहुत सी औरतें थीं पर बेटा एक था। बेटा सिर्फ़ बेटा नहीं होता वह कुल का दीपक भी होता है। और कुल तो सिर्फ़ पुरुषों का होता है। महिलाओं का कोई कुल नहीं होता। सो मामला अदालत में पहुँच गया। मसअला था साहिर पर हक़ का।

 

अदालत में नन्हें साहिर ने अपनी माँ को चुना। और अदालत ने बच्चे को माँ की ज़्यादा ज़रूरत है, के सिद्धांत के आधार पर साहिर को उनकी माँ सरदार बेग़म को सौंप दिया।

 

ये साधारण सी घटना मर्दवादी मस्तिष्क पर आघात थी। कुल का चराग़ एक औरत कैसे हथिया सकती है। वो तो बेटा पैदा करने की मशीन भर है। पितृसत्ता की नज़र में बेटा पिता की खेती है। उसके पौरुष का फल।

 

तो साहिर का उनकी माँ के पास जाना उनके पिता फ़ज़ल मुहम्मद को अखर गया और उन्होंने अपने कारिंदे उन्हें ख़त्म करने के लिए लगा दिए। ये ऐसे ही था जैसे जो वस्तु मेरी नहीं वो किसी और की नहीं हो सकती। एक जीती जागती जान का, एक इंसानी बच्चे का वस्तु में बदल जाना कितना त्रासद हो सकता है ये साहिर और उनकी माँ ही समझ सकते थे। साहिर की माँ ने अपने गहने ज़ेवरात बेंच कर अपने बच्चे के लिए अंग रक्षक रखे। ताकि वो उसे अपने पति के हाथों मारे जाने से बचा सकें।

 

साहिर का जन्म 8 मार्च 1921 में पंजाब के लुधियाना शहर में एक ज़मीदार परिवार में हुआ. उनका बचपन उनके मोहब्बत के गीतों की तरह खुशग़वार नहीं रही.उनके वालिद और वालिदा के बीच रिश्तें काफी तल्ख़ भरे थे. खराब रिश्तों की वजह से हर दिन घर में झगड़ा होता था. यही कारण रहा कि एक वक्त पर जब उनके वालिद ने दूसरी शादी कर ली तब उनकी वालिदा उनको लेकर लुधियाना से लाहौर चली गईं।

 

साहिर अपनी मां से कितनी मोहब्बत करते थे इसका एक उदाहरण यह है कि जब लुधियाना से उनकी मां उन्हें लेकर लाहौर जा रही थीं तब साहिर महज 13 साल के थे. ट्रेन में अपनी मां से लिपटे साहिर ने कहा


‘अम्मी, मैं अब्बा की गालियां और मार रोज़ खा लूंगा, उफ़ तक नहीं करूंगा. पर चलो, ख़ुदा के वास्ते चलो यहां से.’ इस पर उनकी वालिदा ने उत्तर दिया, ‘अब यही अपना घर है और यहीं रहना है हमको, बेटा’. अपने अब्बा को भूल जाओ. वो ज़ालिम इंसान है।क्योंकि वो तुमसे नफरत करता हैं.”

 

यह कहते ही साहिर की वालिदा की आंखों से आंसू गिरने लगे मां।को रोता देख साहिर भी जोर–जोर से रोने लगे. ‘अम्मी, वादा करो तुम मुझे कभी छोड़ कर न जाओगी.’ अपने वालिद का अपनी वालिदा के लिए खराब व्यवहार ने साहिर के बाल अवस्था या बाल मन पर उसका ऐसा प्रभाव छोड़ा कि उन्होंने बड़े हो कर लिखा

 

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

 

साहिर का अपनी मां से प्यार ही था जिसकी वजह से औरतों के दर्द, उनके सम्मान और अधिकार की बात वह अपने शेरों और गीतों में करते रहे।

दुनिया ने तजुरबातो–हवादिस की शक्ल में

जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूं मैं

 

साहिर को हालातों ने सिखाया था कि दुनिया भर में जितनी भी रौनकें हैं वह औरतों के दम से हैं ।जितने भी रास्ते रौशन हैं वह औरतों की वजह से ही है। दरअसल साहिर समझते थे कि किसी भी मर्द के लिए एक अच्छा इंसान बनने की पहली और आखिरी शर्त एक औरत का सम्मान और उसकी भावनाओं की कद्र करना है।

 

साल था 1978, का माँ साहिर को छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए चली गईं। कहाँ ? एक ऐसी जगह जिसका पता किसी को नहीं मालूम। समझदार लोग नासमझी में उसे अल्लाह मियां का घर कहते हैं और धर्म की किताब जन्नत। पर साहिर की जन्नत तो उनकी माँ के क़दमों में थी।

 

सो साहिर माँ के जाने के बाद भीतर से दरकने लगे। और उनके हिस्से की तन्हाई माँ के जाने के बाद और बढ़ गई। माँ के जाने के बाद दुनिया का साहिर लुधियानवी और अपनी माँ का अब्दुल हयी दो साल भी नहीं जी सका। और 25 अक्टूबर 1980 की रात शराब की नीम बेहोशी में मौत के आग़ोश में समा गया। मौत की वजह हार्ट अटैक थी। उनके दिल पर हमले तो उनके जन्म से पहले ही होते रहे।

 

साहिर ने अपनी माँ के साथ हुए अन्याय को माँ के साथ भोगा था। इसलिए उनका यक़ीन दुनिया और ख़ुदा दोनों से उठ गया था।

 

इसलिए वो उस सुबह के इंतज़ार में जब हर ज़ुल्म–ओ–सितम मिट जाएगा गाते रहे, “वो सुबह कभी तो आएगी” और साथ ही दुनिया को लानत भेजते हुए कहते रहे “ये दुनिया दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है“

 

साहिर के अंदर आये इस बदलाव को समझने के लिए उस दौर पर एक नज़र डाली जाए. 60 के दशक में रूस के कम्युनिस्ट लीडर निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन के ख़िलाफ़ बोलकर और सोवियत रूस की अंदरूनी नीतियों में बदलाव करके साम्यवाद के अंत की शुरुआत कर दी थी.


चीन की हिंदुस्तान से जंग ने वामपंथी आंदोलनों की जड़ें हिला दीं, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी कम्युनिस्ट आंदोलन के विरोधाभास ज़ाहिर होते जा रहे थे और बचपन की ग़ुरबत और कम्युनिस्ट शायरों की बदहाली ने भी शायद साहिर की सोच में कुछ तब्दीली कर दी थी. ख़ैर, जो भी हो उनकी नफ़्सियाती (रोमांटिक) और नज़रियाती (गंभीर) शायरी दोनों ही कमाल की हैं।

 

“साढ़े पाँच फ़ुट का क़द, जो किसी तरह सीधा किया जा सके तो छह फ़ुट का हो जाए, लंबी लंबी लचकीली टाँगें, पतली सी कमर, चौड़ा सीना, चेहरे पर चेचक के दाग़, सरकश नाक, ख़ूबसूरत आँखें, आंखों से झींपा –झींपा सा तफ़क्कुर, बड़े बड़े बाल, जिस्म पर क़मीज़, मुड़ी हुई पतलून और हाथ में सिगरेट का टिन.”

साहिर को महफ़िलें
जमाने का शौक

साहिर लुधियानवी के वालिद रईस ज़मींदार थे. साहिर ने भी ख़ूब इनाम–ओ–इकराम–ओ–दौलत कमाई और दोस्तों पर ख़ूब ख़र्च भी की. उन्हें महफ़िलें जमाने का शौक रहा. रात भर चलती दावतों में, जिनमें महंगी शराबें और शेर–ओ–सुख़न के दौर होते थे, शरीक होने वाले राजिंदर सिंह बेदी, कृष्ण चन्दर, सरदार जाफ़री और जांनिसार ‘अख़्तर’ जैसे नाम थे.

 

वो हर किसी शायर का मज़ाक़ उड़ाते और अपने दोस्तों को गालियों से भी ख़ूब नवाज़ते. अपने दोस्तों और नौजवान शायरों को दरबारी की हैसियत से देखने का नज़रिया शायद उन्हें अपने ज़मींदार बाप से विरसे में मिला था.

जांनिसार अख़्तर साहिर के सबसे बड़े दरबारी थे.

जांनिसार अख़्तर साहिर के सबसे बड़े दरबारी थे. उनका रहना–खाना–पीना सब साहिर की ज़िम्मेदारी थी और साहिर की हां में हां मिलाना जांनिसार की. बक़ौल निदा, ‘…साहिर को अपनी तन्हाई से डर लगता था और जांनिसार उनके इस ख़ौफ़ को कम करने का माध्यम थे.

 

इसके लिए उन्हें हर महीने एक तयशुदा रक़म भी मिलती थी. साहिर का नाम उन दिनों फिल्मों में सफलता की ज़मानत समझा जाता था. दूसरों की मदद करना उनके लिए मुश्किल न था और जांनिसार सिर्फ़ दोस्त ही नहीं ज़रूरत से ज़्यादा जल्दी शेर लिखने वाले शायर भी थे. साहिर को एक पंक्ति सोचने में जितना समय लगता था, जांनिसार उतने समय में 25 पंक्तियां जोड़ लेते थे. एक तरफ़ ज़रूरत थी, दूसरी ओर दौलत.’

 

जांनिसार ने अपने दौर में एक फिल्म बनाई थी – बहू बेगम. इस फिल्म के गीत साहिर के नाम पर हैं. ये फिल्म पिट गयी थी और गीतकार जांनिसार की साहिर को लेने की तिजारती मजबूरी को उनकी नाक़ाबिलियत समझा गया. निदा लिखते हैं, ‘जांनिसार तहज़ीबदार आदमी थे और उन्होंने घर की बात को बाहर नहीं निकाला पर एक शेर में कुछ इशारा ज़रूर किया है – ‘शायरी तुझको गंवाया है बहुत दिन हमने.’ अब न जांनिसार हैं और न ही साहिर जो ‘बहू बेगम ‘ के और बाक़ी गीतों का सच बताएं.

एक बार निदा फ़ाज़ली भी घर से बाहर फिंकवा दिए गए.

तहज़ीब यक़ीनन विरसे में मिलती है, जावेद अख़्तर साहब ने भी कभी इस बात पर से पर्दा नहीं हटाया. और फिर एक दिन किसी बात पर साहिर ने अपने इस ‘दरबारी’ दोस्त को गाली–गलौज करके घर से धक्के देकर बाहर करवा दिया था. उनकी महफ़िल में किसी और शायर की तारीफ करना मानो उन्हें अपनी बेइज़्ज़ती लगती थी और इसी जुर्म के तहत एक बार निदा फ़ाज़ली भी घर से बाहर फिंकवा दिए गए.

 

साहिर लुधियानवी का प्यार:अमृता प्रीतम और सुधा मल्होत्रा का साहिर

साहिर के व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू थे. एक आशिकाना और दूसरा शायराना. जब भी उनके आशिकाना पहलू पर चर्चा होती है तो एक नाम जहन में अचानक याद आ जाता है. वह नाम अमृता प्रीतम का है. साहिर ने ताउम्र इश्क़ पर लिखा लेकिन खुद तन्हा ही रहे.

 

कोई छह फुट ऊंचे, पीछे की ओर को बाल किये, ऊंची और चौड़ी पेशानी, खुरदुरा चेहरा और आवाज़ में नाक से बोलने का हल्के से पुट वाले साहिर की कई दीवानियां हुईं. रहे वे भी कइयों के दीवाने, पर शादी किसी से नहीं की.

सबसे पहला इश्क़ प्रेम चौधरी से हुआ जिसके पिता ने उन्हें लाहौर कॉलेज से ही निकलवा दिया. फिर आयीं इसर कौर. कुछ दिन इश्क़ चला पर यहां भी बात नहीं बनी. कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग फिर भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आईं.

 

 फिर आयीं इसर कौर. कुछ दिन इश्क़ चला पर यहां भी बात नहीं बनी.कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग फिर भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आईं.दोनों के बीच प्यार के पैगामों का सिलसिला यूं चला की एक न होकर भी दोनों एक–दूसरे से जुदा न हो पाए.


उनका प्यार जमाने से अलहदा था. इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा था. अधूरी मोहब्बत का ये वो मुकम्मल अफसाना है जिसकी मिसाल इश्क करने वाले आज तक देते हैं. उनके लेखनी में कई जगहों पर अमृता के साथ एक अधूरी प्रेम कहानी जो अधूरी होकर भी पूरी थी वह देखने को मिलती है.

 

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

उसे इक ख़ूब–सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा

 

अमृता प्रीतम ने अपनी किताब ‘रसीदी टिकट ‘ में अपने इश्क़ को तफ़्सील से बयां किया है. साहिर और अमृता दोनों अलहदा शख़्सियत के इंसान थे. दोनों शायरी के उस्ताद पर जहां साहिर ने अमृता से अपना इश्क़ दुनिया के सामने ज़ाहिर नहीं किया, वहीं अमृता ने कुछ भी न छुपाते हुए ईमानदारी और हिम्मत दिखाई है.

 

उन्होंने बेबाकी से अपने साहिर के प्रति इश्क़ को ज़ाहिर किया है: ‘साहिर घंटों बैठा रहता और बस सिगरेटें फूंकता रहता और कुछ न कहता. उसके जाने के बाद में उन बचे हुए सिगरेटों के टुकड़े संभालकर रख लेती, फिर अकेले में पीती और साहिर के हाथ और होंठ महसूस करती.

 

जब इमरोज़ के बच्चे की मां बनी तो बच्चे के साहिर के जैसे होने की ख़्वाहिश की. एक बार किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी कि, ‘अगर इमरोज़ मेरे सर पर छत है तो साहिर मेरा आसमां.’ अमृता ने साहिर का बहुत इंतज़ार किया पर वे नहीं आए.

 

सुधा मल्होत्रा

इसी बीच सुधा मल्होत्रा से भी उन्हें इश्क़ हो गया. आज के पाठक शायद सुधा मल्होत्रा के नाम से आशना न हों – वो 50 -60 के दशक में एक बड़ी मारूफ़ गायिका थीं. सुधाजी का गाया एक गाना है – ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको. मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है…’ इत्तिफ़ाक़ देखिये ये लिखा भी साहिर ही ने था. साहिर इन्हें भी भूल गए.

 

कुछ लोगों का ऐसा भी मानना था कि वे जानकर इश्क़ को अधूरा छोड़ देते थे जिससे अपनी शायरी में दर्द पैदा कर सकें. कमाल की बात ये कि अपनी हर माशूक़ा के लिए वे दीवानेपन की हद तक दीवाने भी थे.

 

जिन चाय के प्यालों में अमृता या सुधा चाय पीती थीं उन्हें किसी को हाथ भी नहीं लगाने देते. उनकी और जांनिसार की दोस्ती ख़त्म होने के पीछे कारण था कि जांनिसार उनकी पुरानी माशूक़ा से राब्ता बढ़ा रहे थे.

 

साहिर का फिल्मी सफ़र

लाहौर में छपी ‘तल्ख़ियां’ की शौहरत बंबई तक थी. बंबई में साहिर को प्रेम धवन का सहारा मिला. धवन अपने साथ ले जाकर उन्हें निर्माताओं और संगीतकारों से मिलवाते और इस तरह 1945 में आयी फिल्म ‘दोराहा’ में उन्हें पहला गीत लिखने का मौका मिला

 

‘मोहब्बत तर्क की मैंने, गिरेबां सी लिया मैंने

ज़माने अब ख़ुश हो ज़हर ये पी लिया मैंने’

 

पर ये सफ़र इतनी आसानी से बढ़ने वाला नहीं था. साहिर के फ़न को फ़िल्म वाले संजीदगी से नहीं ले रहे थे और साहिर इस बात पर अड़ गये कि लिखेंगे अपनी शर्तों पर और यह भी कि हल्का नहीं लिखेंगे. कभी बात बनती तो कभी बिगड़ जाती पर साहिर अपनी बात पर डटे रहे. आख़िरकार 1951 में एआर कारदार साहब की फिल्म ‘नौजवान‘ में उन्हें सही मायने में पहला ब्रेक मिला.

 

इसके बाद 1950-1975 का फिल्मी दौर सिर्फ़ साहिर के नाम हो गया. ‘प्यासा’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘फंटूश’, ‘बाज़ी’, ‘काग़ज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘शगुन’, ‘नया दौर’, ‘काजल’, ‘चंद्रलेखा’, ‘कभी–कभी’ जाने कितनी ऐसी फिल्में बनीं जो साहिर के गीतों और नग़्मों के बिना सोची ही नहीं जा सकती थीं. साहिर इतने हावी हो गए थे कि अगर फिल्म में उनका पसंदीदा संगीतकार नहीं होता तो वे गाने नहीं लिखते.

 

राज कपूर की एक फिल्म ‘फिर सुबह होगी ‘ जो दोस्तोव्स्की के ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ पर आधिरित थी. इस फिल्म में साहिर की ज़िद पर फ़िल्म के मौसिक़ीकार के तौर पर शंकर–जयकिशन की जगह ख़य्याम को लिया गया. इस बात पर उन्होंने तर्क ये दिया कि शंकर–जयकिशन समाजवाद को ठीक से नहीं समझते. बलदेव राज चोपड़ा और यश चोपड़ा की लगभग सभी फिल्मों के गाने साहिर लुधियानवी ने ही लिखे.

 

रेडियो सीलोन पर बजते गानों में पहले सिर्फ़ गायक और संगीतकार का ही नाम लिया जाता था. साहिर के आने के बाद गीतकार का भी नाम बोला जाने लगा. उनके असर ने गीतकारों को भी म्यूजिक कंपनी से रॉयल्टी में हक़ दिलवाया. कुछ एक गीतों को अगर छोड़ दें तो पहले वो गीत लिखते थे फिर मौसिक़ी तय होती थी और ये साहिर का ही उरूज था कि बतौर मेहनताना वे संगीतकार से एक रुपया ज़्यादा फ़ीस लेते थे

 

वह जब लिखते थे तो लगता था जैसे ज़िंदगी को कागज पर उसी रूप में लिख दिया गया हो. उस शायर का नाम है साहिर लुधियानवी. साहिर और ग़म का साथ ऐसा रहा जैसे ज़िंदगी और सांसों के बीच का सबंध हो. यह उनके हालात ही थे जिसको लेकर साहिर ने कहा

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया

बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

साहिर लुधियानवी : जिसने अपना हर इश्क़ अधूरा छोड़ा, शायद इसलिए कि वह साहिर बना रह सके

The End

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

Royal Love Story of A Maharani: एक महारानी की अनोखी प्रेम कहानी महारानी रियासत के दीवान से ही प्रेम कर बैठी

March 17, 2025
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