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जानकी (सआदत हसन मंटो कहानी) ख़ुदा की क़सम उस ने हीरोइन का हाथ कुछ इस तरह अपने हाथ में लिया जैसे कुत्ते का पंजा पकड़ा जाता है

by Engr. Maqbool Akram
March 26, 2024
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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पिशावर से अज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उस को या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ीयत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।

 

वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनीयों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उन की कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा अज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उस को मायूस नहीं करना चाहिए।

 

ये सोच कर भी एक गौना तसकीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।

 

ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पिशावर से बंबई और बंबई से पूना……..
प्लेटफार्म पर चूँकि उस को मुझे पहचानना था, इस लिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया।

 

मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिस के हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी। मेरी तरफ़ वो पीठ करके खड़ी होगई और एड़ीयां ऊंची करके मुझे हुजूम में तलाश करने लगी। मैंने क़रीब जा कर कहा, “जिसे आप ढूंढ रही हैं वो ग़ालिबन मैं ही हूँ।”

 

वो पलटी। “ओह, आप!” एक नज़र मेरी तस्वीर की तरफ़ देखा और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा। “सआदत साहब! सफ़र बहुत ही लंबा था। बंबई में फ्रंटियर मेल से उतर कर उस गाड़ी के इंतिज़ार में जो वक़्त काटा। उस ने तबीयत साफ़ करदी।”

 

मैंने कहा। “अस्बाब कहाँ है आप का?”

“लाती हूँ।” ये कह कर वो डिब्बे के अंदर दाख़िल हुई। दो सूटकेस और एक बिस्तर निकाला। मैंने क़ुली बुलवाया। स्टेशन से बाहर निकलते हुए इस ने मुझ से कहा। “मैं होटल में ठहरूंगी।”

 

मैंने स्टेशन के सामने ही उस के लिए एक कमरे का बंद–ओ–बस्त कर दिया। उसे ग़ुस्ल–वुस्ल करके कपड़े तबदील करने थे और आराम करना था, इस लिए मैंने उसे अपना ऐडरैस दिया और ये कह कर कि सुबह दस बजे मुझ से मिले, होटल से चल दिया।

 

सुबह साढ़े दस बजे वो प्रभात नगर, जहां मैं एक दोस्त के यहां ठहरा हुआ था, आई जगह तलाश करते हुए उसे देर होगई थी। मेरा दोस्त इस छोटे से फ़्लैट में, जो नया नया था मौजूद नहीं था। मैं रात देर तक लिखने का काम करने के बाइस सुबह देर से जागा था, इस लिए साढ़े दस बजे नहा धो कर चाय पी रहा था कि वो अचानक अंदर दाख़िल हूई।

 

प्लेटफार्म पर और होटल में थकावट के बावजूद वो जानदार औरत थी मगर जूंही वो इस कमरे में जहां में सिर्फ़ बनयान और पाजामा पहने चाय पी रहा था दाख़िल हूई तो उस की तरफ़ देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत ही परेशान और ख़सताहाल औरत मुझ से मिलने आई है।

 

जब मैंने उसे प्लेटफार्म पर देखा था तो वो ज़िंदगी से भरपूर थी लेकिन जब प्रभात नगर के नंबर ग्यारह फ़्लैट में आई तो मुझे महसूस हुआ कि या तो इस ने ख़ैरात में अपना दस पंद्रह औंस ख़ून दे दिया है या इस का इस्क़ात होगया है।

 

जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ, घर मैं और कोई मौजूद नहीं था, सिवाए एक बेवक़ूफ़ नौकर के। मेरे दोस्त का घर जिस में एक फ़िल्मी कहानी लिखने के लिए मैं ठहरा हुआ था, बिलकुल सुनसान था और मजीद एक ऐसा नौकर था जिस की मौजूदगी वीरानी में इज़ाफ़ा करती थी।

                                                             

मैंने
चाय की एक प्याली बना कर जानकी को दी और कहा। “होटल से तो आप नाश्ता करके आई होंगी, फिर भी शौक़ फ़रमाईए!”

 

उस ने इज़्तिराब से अपने होंट काटते हूए चाय की प्याली उठाई और पीना शुरू की उस की दाहिनी टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी। उस के होंटों की कपकपाहट से मुझे मालूम हुआ कि वो मुझ से कुछ कहना चाहती है लेकिन हिचकिचाती है। मैंने सोचा शायद होटल में रात को किसी मुसाफ़िर ने उसे छेड़ा है चुनांचे मैंने कहा। “आप को कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई होटल में?”

“जी, जी नहीं!”

 

मैं ये मुख़्तसर जवाब सुन कर ख़ामोश रहा। चाय ख़त्म हुई तो मैं ने सोचा अब कोई बात करनी चाहिए। चुनांचे मैंने पूछा। “अज़ीज़ साहब कैसे हैं?”

 

उस ने मेरे सवाल का जवाब न दिया। चाय की प्याली तिपाई पर रख कर उठ खड़ी हुई और लफ़्ज़ों को जल्दी जल्दी अदा करके कहा। “मंटो साहब आप किसी अच्छे डाक्टर को जानते हैं?”

 

मैंने जवाब दिया। “पूना में तो मैं किसी को नहीं जानता।”

“ओह!”

मैंने पूछा। “क्यों, बीमार हैं आप?”

“जी हाँ।” वो कुर्सी पर बैठ गई।

मैंने दरयाफ़्त किया। “क्या तकलीफ़ है?”

 

उस के तीखे होंट जो मुस्कुराते वक़्त सिकुड़ जाते थे या सुकेड़ लिए जाते थे वाहोए। उस ने कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सकी और उठ खड़ी हुई फिर मेरा सिगरेट का डिब्बा उठाया और एक सिगरेट सुलगा कर कहा। “माफ़ कीजीएगा मैं सिगरेट पिया करती हूँ।”

मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो सिर्फ़ सिगरेट पिया ही नहीं करती बल्कि फूंका करती थी। बिलकुल मर्दों की तरह सिगरेट उंगलीयों में दबा कर वो ज़ोर ज़ोर से कश लेती और एक दिन में तक़रीबन पछत्तर सिगरेटों का धुआँ खींचती थी।

 

मैंने कहा। “आप बताती क्यों नहीं कि आप को तकलीफ़ क्या है?”

उस ने कुंवारी लड़कीयों की तरह झुँझला कर अपना एक पांव फ़र्श पर मारा।

 

“हाय अल्लाह! मैं कैसे बताऊं आप को” ये कह कर वो मुस्कुराई। मुस्कुराते हुए तीखे होंटों की मेहराब में से मुझे उस के दाँत नज़र आए जो ग़ैरमामूली तौर पर साफ़ और चमकीले थे। वो बैठ गई और मेरी आँखों में अपनी डगमगाती आँखों को न डालने की कोशिश करते हुए इस ने कहा।

 

“बात ये है कि पंद्रह बीस दिन ऊपर होगए हैं और मुझे डर है कि……..”

पहले तो मैं मतलब न समझा लेकिन जब वो बोलते बोलते रुक गई तो मैं किसी क़दर समझ गया ऐसा अक्सर होता है।

 

उस ने ज़ोर से कश लिया और मर्दों की तरह ज़ोर से धोईं को बाहर निकालते हूए कहा। “नहीं… यहां मुआमला कुछ और है। मुझे डर है कि कहीं कुछ ठहर न गया हो।”

मैंने कहा। “ओह!”

उस ने सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उस की गर्दन चाय की तश्तरी में दबाई। “अगर ऐसा हो गया है तो बड़ी मुसीबत होगी। एक दफ़ा पिशावर में ऐसी ही गड़बड़ होगई थी। लेकिन अज़ीज़ साहब अपने एक हकीम दोस्त से ऐसी दवा लाए थे जिस से चंद दिन ही में सब साफ़ होगया था।”

 

मैंने पूछा। “आप को बच्चे पसंद नहीं?”

वो मुस्कुराई। “पसंद हैं……..
लेकिन कौन पालता फिरे।”

मैंने कहा। “आप को मालूम है इस तरह बच्चे ज़ाए करना जुर्म है।”

 

वो एक संजीदा होगई……..
फिर उस ने हैरत भरे लहजे में कहा। “मुझ से अज़ीज़ साहि ने भी यही कहा था। लेकिन सआदत साहब मैं पूछती हूँ इस में जुर्म की कौन सी बात है। अपनी ही तो चीज़ है और इन क़ानून बनाने वालों को ये भी मालूम है कि बच्चा ज़ाए कराते हुए तकलीफ़ कितनी होती है।

 

“बड़ा जुर्म है!”

मैं बेइख़्तयार हंस पड़ा। “अजीब–ओ–ग़रीब औरत हो तुम जानकी!”

जानकी ने भी हंसना शुरू कर दिया। “अज़ीज़ साहब भी यही कहा करते हैं।”

 

हंसते हुए उस की आँखों में आँसू आगए। मेरा मुशाहिदा है जो आदमी पुर–ख़ुलूस हों। हंसते हुए उस की आँखों में आँसू ज़रूर आजाते हैं। उस ने अपना बैग खोल कर रूमाल निकाला और आँखें ख़ुश्क करके भोले बच्चों के अंदाज़ में पूछा। “सआदत साहब! बताईए, क्या मेरी बातें दिलचस्प होती हैं?”

 

मैंने कहा। “बहुत।”

“झूट!”

“इस का सबूत?”

 

उस ने सिगरेट सुलगाना शुरू कर दिया। “भई शायद ऐसा हो। मैं तो इतना जानती हूँ कि कुछ कुछ बे–क़ूफ हूँ। ज़्यादा खाती हूँ, ज़्यादा बोलती हूँ, ज़्यादा हंसती हूँ। अब आप ही देखिए न ज़्यादा खाने से मेरा पेट कितना बढ़ गया है। अज़ीज़ साहिब हमेशा कहते रहे जानकी कम खाया करो पर मैंने उन की एक न सुनी। सआदत साहब बात ये है कि मैं कम खाऊं तो हरवक़त ऐसा लगता है कि मैं किसी से कोई बात कहना भूल गई हूँ।”

 

उस ने फिर हंसना शुरू किया। मैं भी उस के साथ शरीक होगया।

उस की हंसी बिलकुल अलग क़िस्म की थीं। बीच बीच में घुंघरू से बजते थे।

 

फिर वो इसक़ात–ए–हमल के मुतअल्लिक़ बातें करने ही वाली थी कि मेरा दोस्त, जिस के यहां मैं ठहरा हुआ था, आगया। मैंने जानकी से उस का तआरुफ़ कराया और बताया कि वो फ़िल्म लाईन में आने का शौक़ रखती है। मेरा दोस्त उसे स्टूडीयो ले गया क्योंकि उस को यक़ीन था कि वो डायरेक्टर जिस के साथ वो बहैसीयत अस्सिटैंट के काम कर रहा था, अपने नए फ़िल्म में जानकी को एक ख़ास रोल के लिए ज़रूर ले लेगा।

 

पूना में जितने स्टूडियो थे, मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से जानकी के लिए कोशिश की।

 

किसी ने उस का साऊँड टेस्ट लिया, किसी ने कैमरा टेस्ट। एक फ़िल्म कंपनी में उस को मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लिबास पहना कर देखा गया मगर नतीजा कुछ न निकला। एक तो जानकी वैसे ही दिन ऊपर हो जाने के बाइस परेशान थी, चार पाँच रोज़ मुतवातिर जब उसे मुख़्तलिफ़ फ़िल्म कंपनीयों के उकता देने वाले माहौल में बेनतीजा गुज़ारने पड़े तो वो और ज़्यादा परेशान होगई।

 

बच्चा ज़ाए करने के लिए वो हर रोज़ बीस बीस ग्रीन कौनैन खाती थी। इस से भी उस की तबीयत पर गिरानी सी रहती थी।

 

अज़ीज़ साहब के दिन पिशावर में उस के बग़ैर कैसे गुज़रते हैं, इस के मुतअल्लिक़ भी उस को हरवक़्त फ़िक्र रहती थी। पूना पहुंचते ही उस ने एक तार भेजा था। इस के बाद वो बिलानागा हर रोज़ एक ख़त लिख रही थी। हर ख़त में ये ताकीद होती थी कि वो अपनी सेहत का ख़याल रखें और दवा बाक़ायदगी के साथ पीते रहें।

 

अज़ीज़ साहब को क्या बीमारी थी, इस का मुझे इल्म नहीं… लेकिन जानकी से मुझे इतना मालूम हुआ कि अज़ीज़ साहब को चूँकि उस से मोहब्बत है, इस लिए वो फ़ौरन उस का कहना मान लेते हैं घर में कई बार बीवी से इस का झगड़ा हुआ कि वो दवा नहीं पीते लेकिन जानकी से इस मुआमले में उन्हों ने कभी चूँ भी न की।

 

शुरू शुरू में मेरा ख़याल था कि जानकी अज़ीज़ के मुतअल्लिक़ जो इतनी फ़िक्रमंद रहती है, महज़ बकवास है, बनावट है। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता मैंने उस की बेतकल्लुफ़ बातों से महसूस किया कि उसे हक़ीक़तन अज़ीज़ का ख़याल है। उस का जब ख़त आया, जानकी पढ़ कर ज़रूर रोई।

 

फ़िल्म कंपनीयों के तवाफ़ का कोई नतीजा न निकला। लेकिन एक रोज़ जानकी को ये मालूम करके बहुत ख़ुशी हुई कि उस का अंदेशा ग़लत था। दिन वाक़ई ऊपर होगए थे लेकिन वो बात जिस का उसे खटका था, नहीं थी।

 

जानकी को पूना आए बीस रोज़ हो चले थे। अज़ीज़ को वो ख़त पर ख़त लिख रही थी। उस की तरफ़ से भी लंबे लंबे मोहब्बत नामे आते थे। एक ख़त में अज़ीज़ ने मुझ से कहा था कि पूना में अगर जानकी के लिए कुछ नहीं होता तो मैं बंबई में कोशिश करूं क्योंकि वहां बेशुमार स्टूडीयो हैं।

 

बात माक़ूल थी लेकिन मैं सीज़ीव लिखने में मसरूफ़ था, इस लिए जानकी के साथ बंबई जाना मुश्किल था, लेकिन मैंने पूना से अपने दोस्त सईद जो की एक फ़िल्म में हीरो का पार्ट अदा कररहा था, टेलीफ़ोन क्या इत्तिफ़ाक़ से वो उस वक़्त स्टूडीयो में मौजूद न था।

 

ऑफ़िस में नरायन खड़ा था उसे जब मालूम हुआ कि मैं पूना से बोल रहा हूँ तो टेलीफ़ोन ले लिया और ज़ोर से चिल्लाया। “हलो, मंटो……..
नरायन इसपीकिंग फरॉम दिस एंड……..
कहो, बात क्या है। सईद इस वक़्त स्टूडीयो में नहीं है। घर में बैठा रज़ीया से आख़िरी हिसाब किताब कर रहा है।” मैंने पूछा “क्या मतलब?”

 

नरायन ने उधर से जवाब दिया, “खटपट होगई है असल में रज़ीया ने एक और आदमी से टांका मिला लिया है।”

मैंने कहा। “लेकिन ये हिसाब किताब कैसा हो रहा है?”

 

नरायन बोला। “बड़ा कमीना है यार, सईद……..
उस से कपड़े ले रहे हैं जो उस ने ख़रीद कर दिए थे।” “बात ये है कि पिशावर से मेरे एक अज़ीज़ ने एक औरत यहां भेजी है। जिसे फिल्मों में काम करने का शौक़ है।”

 

जानकी मेरे पास ही खड़ी थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने मुनासिब–ओ–मौज़ूं लफ़्ज़ों में अपना मुद्दा बयान नहीं किया।

 

मैं
तसहीह करने ही वाला था कि नरायन की बुलंद आवाज़ कानों के अंदर घुसी। “औरत! पिशावर की औरत ख़ू, बीजू उस को जल्दी। खो हम भी क़सूर का पठान है।” मैंने कहा “बकवास न करो नरायन सुनो, कल दक्कन कोइन से में उन्हें बंबई भेज रहा हूँ। सईद या तुम कोई भी उसे स्टेशन पर लेने के लिए आजाना, कल दक्कन कोइन से। याद रहे।”

 

नरायन की आवाज़ आई। “पर हम उसे पहचानेंगे कैसे?”

मैंने जवाब दिया। “वो ख़ुद तुम्हें पहचान लेगी……..
लेकिन देखो कोशिश करके उसे किसी न किसी जगह ज़रूर रखवा देना।”

 

तीन मिनट गुज़र गए। मैंने टेलीफ़ोन बंद किया और जानकी से कहा। “कल दक्कन कोइन से तुम बंबई चली जाना। सईद और नरायन दोनों की तस्वीरें दिखाता हूँ। लंबे तिरंगे ख़ूबसूरत जवान हैं। तुम्हें पहचानने में दिक़्क़त नहीं होगी।”

 

मैंने एलबम में जानकी को सईद और नरायन के मुख़्तलिफ़ फ़ोटो दिखाए। देर तक वो उन्हें देखती रही। मैंने नोट किया कि सईद का फ़ोटो उस ने ज़्यादा गौरसे देखा। एलबम एक तरफ़ रख कर मेरी आँखों में आँखें न डालने की डगमगाती कोशिश करते हुए, उस ने मुझ से पूछा।

 

“दोनों कैसे आदमी हैं?”

“क्या मतलब?”

“मतलब ये कि दोनों कैसे आदमी हैं……..
मैंने सुना है कि फिल्मों में अक्सर आदमी बुरे होते हैं।”

इस के लहजे में एक टोह लेने वाली संजीदगी थी।

 

मैंने कहा। “ये तो दुरूस्त है लेकिन फिल्मों में नेक आदमियों की ज़रूरत ही कहाँ होती है!”

“क्यों?”

“दुनिया में दो क़िस्म के इंसान हैं। एक क़िस्म उन इंसानों की है जो अपने ज़ख़्मों से दर्द का अंदाज़ा करते हैं। दूसरी क़िस्म उन की है जो दूसरों के ज़ख़्म देख कर दर्द का अंदाज़ा करते हैं। तुम्हारा ख़याल है, कौन सी क़िस्म के इंसान ज़ख़्म के दर्द और उस की तह की जलन को सही तौर पर महसूस करते हैं।”

 

उस ने कुछ देर सोचने के बाद जवाब दिया। “वो जिन के ज़ख़म लगे होते हैं।” मैंने कहा। “बिलकुल दुरुस्त। फिल्मों में असल की अच्छी नक़ल वही उतार सकता है जिसे असल की वाक़फ़ीयत हो। नाकाम मोहब्बत में दिल कैसे टूटता है, ये नाकाम–ए–मोहब्बत ही अच्छी तरह बता सकता है। वो औरत जो पाँच वक़्त जा नमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ती है और इश्क़–ओ–मोहब्बत को सुअर के बराबर समझती है, कैमरे के सामने किसी मर्द के साथ इज़हार–ए–मोहब्बत क्या ख़ाक करेगी!”

 

उस ने फिर सोचा। “इस का मतलब ये हुआ कि फ़िल्म लाईन में दाख़िल होने से पहले औरत को सब चीज़ें जाननी चाहिऐं।”

 

मैंने कहा। “ये ज़रूरी नहीं। फ़िल्म लाईन में आकर भी वो चीज़ें जान सकती है।” उस ने मेरी बात पर ग़ौर न किया और जो पहला सवाल किया था, फिर इसे दुहराया।

 

“सईद साहब और नरायन साहब कैसे आदमी हैं?”

“तुम तफ़सील से पूछना चाहती हो?”

“तफ़सील से आप का क्या मतलब?”

“ये कि दोनों में से आप के लिए कौन बेहतर रहेगा!”

जानकी को मेरी ये बात नागवार गुज़री।

“कैसी बातें करते हैं आप?”

“जैसी तुम चाहती हो।”

 

“हटाईए भी।” ये कह वो मुस्कुराई। “मैं अब आप से कुछ नहीं पूछूंगी।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। “जब पूछोगी तो मैं नरायन की सिफ़ारिश करूंगा।”

“क्यों?”

“इस लिए कि वो सईद के मुक़ाबले में बेहतर इंसान है।”

 

मेरा अब भी यही ख़्याल है। सईद शायर है, एक बहुत बेरहम क़िस्म का शायर। मुर्ग़ी पकड़ेगा तो ज़बह करने की बजाय उस की गर्दन मरोड़ देगा। गर्दन मरोड़ कर उस के पर नोचेगा। पर नोचने के बाद उस की यख़नी निकालेगा। यख़नी पी कर और हड्डियां चबा कर वो बड़े आराम और सुकून से एक कोने में बैठ कर उस मुर्ग़ी की मौत पर एक नज़्म लिखेगा जो उस के आँसूओं में भीगी होगी।

 

शराब पीएगा तो कभी बहकेगा नहीं। मुझे इस से बहुत तकलीफ़ होती है क्योंकि शराब का मतलब ही फ़ौत हो जाता है। सुबह बहुत आहिस्ता आहिस्ता बिस्तर पर से उठेगा। नौकर चाय की प्याली बना कर लाएगा। अगर रात की बची हुई रिम सिरहाने पड़ी है तो उसे चाय में उंडेल लेगा और इस मिक्सचर को एक एक घूँट करके ऐसे पीएगा जैसे इस में ज़ाइक़े की कोई हिस ही नहीं।

 

बदन पर कोई फोड़ा निकला है। ख़तरनाक शक्ल इख़्तियार कर गया है, मगर मजाल है जो वो उस की तरफ़ मुतवज्जा हो। पीप निकल रही है, गल सड़ गया है, नासूर बनने का ख़तरा है, लेकिन सईद कभी किसी डाक्टर के पास नहीं जाएगा। आप उस से कुछ कहेंगे तो ये जवाब मिलेगा। “अक्सर औक़ात बीमारीयां इंसान की जुज़्व–ए–बदन हो जाती हैं। जब मुझे ये ज़ख़्म तकलीफ़ नहीं देता तो ईलाज की क्या ज़रूरत है।” और ये कहते हुए वो ज़ख़्म की तरफ़ इस तरह देखेगा जैसे कोई अच्छा शेअर नज़र आगया है।

 

ऐक्टिंग वो सारी उम्र नहीं कर सकेगा, इस लिए कि वो लतीफ़–ए–जज़्बात से क़रीब क़रीब आरी है। मैंने उसे एक फ़िल्म में देखा जो हीरोइन के गानों के बाइस बहुत मक़बूल हुआ था। एक जगह उस ने अपनी महबूबा का हाथ अपने हाथ में लेकर मोहब्बत का इज़हार करना था।

 

ख़ुदा की क़सम उस ने हीरोइन का हाथ कुछ इस तरह अपने हाथ में लिया जैसे कुत्ते का पंजा पकड़ा जाता है। मैं उस से कई बार कह चुका हूँ ऐक्टर बनने का ख़याल अपने दिमाग़ से निकाल दो, अच्छे शायर हो, घर बैठो और नज़्में लिखा करो। मगर उस के दिमाग़ पर अभी तक ऐक्टिंग की धुन सवार है।

 

नरायन मुझे बहुत पसंद है। स्टूडीयो की ज़िंदगी के जो उसूल उस ने अपने लिए वज़ा कर रखे हैं, मुझे अच्छे लगते हैं।

 

1………..ऐक्टर
जब तक ऐक्टर है, उसे शादी नहीं करनी चाहिए। शादी करले तो फ़ौरन फ़िल्म को तलाक़ दे कर दूध दही की दुकान खोल ले। अगर मशहूर ऐक्टर रहा तो काफ़ी आमदनी हो जाया करेगी।

 

2……….. कोई
ऐक्ट्रस तुम्हें भय्या या भाई साहब कहे तो फ़ौरन उस के कान में कहो, आप की अंगया का साइज़ क्या है।

 

3………..किसी
ऐक्ट्रस पर अगर तुम्हारी तबीयत आगई है तो तमहीदें बांधने में वक़्त ज़ाए न करो। उस से तख़्लिए में मिलो और कहो कि मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ, इस का यक़ीन न आए तो पूरी जीब बाहर निकाल कर दिखा दो।

 

4……….. अगर
कोई ऐक्ट्रस तुम्हारे हिस्से में आजाए तो उस की आमदनी में से एक पैसा भी न लो एक्ट्रसों के शौहरों और भाईयों के लिए ये पैसा हलाल है।

 

5……….. इस
बात का ख़याल रखना कि ऐक्ट्रस के बतन से तुम्हारी कोई औलाद न हो। स्वराज मिलने के बाद अलबत्ता तुम उस की औलाद पैदा कर सकते हो।

 

6……….. याद
रखो कि ऐक्टर की भी आक़िबत होती है। उसे रेज़र और कंघी से संवारने के बजाय कभी कभी ग़ैर मोहज़्ज़ब तरीक़े से भी संवारने की कोशिश किया करो, मिसाल के तौर पर कोई नेक काम करके।

 

7……….. स्टूडीयो में सब से ज़्यादा एहतिराम पठान चौकीदार का करो। सुबह स्टूडीयो में आते वक़्त उसे सलाम करने से तुम्हें फ़ायदा होगा। यहां नहीं तो दूसरी दुनिया में, जहां फ़िल्म कंपनीयां नहीं होंगी।

 

8……….. शराब
और ऐक्ट्रस की आदत हर्गिज़ न डालो। बहुत मुम्किन है कि किसी रोज़ कांग्रस गर्वनमैंट लहर में आकर ये दोनों चीज़ें ममनू क़रार दे दे।

 

9……….. सौदागर,
मुस्लमान सौदागर हो सकता है। लेकिन ऐक्टर हिंदू ऐक्टर, या मुस्लिम ऐक्टर नहीं हो सकता।

 

10……….. झूट
न बोलो।

 

ये सब बातें नरायन के दस अहकाम के उनवान तले उस ने अपनी एक नोटबुक में लिख रखी हैं जिन से उस के कैरेक्टर का बख़ूबी अंदाज़ा हो सकता है। लोग कहते हैं कि वो इन सब पर अमल नहीं करता। मगर ये हक़ीक़त नहीं। सईद और नरायन के मुतअल्लिक़ जो मेरे ख़यालात थे। मैंने जानकी के पूछे बग़ैर इशारतन बता दिए और आख़िर में उस से साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि अगर तुम इस लाईन में आगईं तो किसी न किसी मर्द का सहारा तुम्हें लेना पड़ेगा। नरायन के मुतअल्लिक़ मेरा ख़याल है कि अच्छा दोस्त साबित होगा।

 

मेरा मश्वरा उस ने सुन लिया और बंबई चली गई। दूसरे रोज़ ख़ुश ख़ुश वापस आई क्योंकि नरायन ने अपने स्टूडीयो में एक साल के लिए पाँच सौ रुपय माहवार पर उसे मुलाज़िम करा दिया था। ये मुलाज़मत उसे कैसी मिली, देर तक इस के मुतअल्लिक़ बातें हुईं। जब और कुछ सुनने को न रहा तो मैंने इस से पूछा। “सईद और नरायन, दोनों से तुम्हारी मुलाक़ात हुई, इन में से किस ने तुम को ज़यादा पसंद किया?”

Saadat Hasan Manto

जानकी के होंटों पर हल्की मुस्कुराहट पैदा हुई। लग़्ज़िश भरी निगाहों से मुझे देखते हूए उस ने कहा। “सईद साहब!” ये कह कर वह एक दम संजीदा होगई। “सआदत साहब आप ने क्यों इतने पुल बांधे थे। नरायन की तारीफों के?”

 

मैंने पूछा। “क्यों”

“बड़ा ही वाहीयात आदमी है। शाम को बाहर कुर्सियां बिछा कर सईद साहब और वो शराब पीने के लिए बैठे तो बातों बातों में मैंने नरायन भय्या कहा। अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर पूछा।

“तुम्हारी अंगया का साइज़ किया है।”

 

“भगवान जानता है मेरे तन बदन में तो आग ही लग गई कैसा लिचर आदमी है।” जानकी के माथे पर पसीना आगया।

“मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा।”

इस ने तेज़ी से कहा। “आप क्यों हंस रहे हैं?”

“उस की बेवक़ूफ़ी पर।” ये कह कर मैंने हंसना बंद कर दिया।

 

थोड़ी देर नरायन को बुरा भला कहने के बाद जानकी ने अज़ीज़ के मुतअल्लिक़ फ़िक्र–मंद लहजे में बातें शुरू करदीं। कई दिनों से उस का ख़त नहीं आया था। इस लिए तरह तरह के ख़याल उसे सता रहे थे। कहीं उन्हें फिर ज़ुकाम न होगया हो। अंधा धुंद साईकल चलाते हैं, कहीं हादसा ही न होगया हो। पूना ही न आरहे हों, क्योंकि जानकी को रुख़स्त करते वक़्त उन्हों ने कहा था एक रोज़ में चुपचाप तुम्हारे पास चला आऊँगा।

 

बातें करने के बाद उस का तरद्दुद कम हुआ तो उस ने अज़ीज़ की तारीफ़ें शुरू करदीं। घर में बच्चों का बहुत ख़याल रखते हैं। हर रोज़ सुबह उन को वरज़िश कराते हैं और नहला धुला कर स्कूल छोड़ने जाते हैं। बीवी बिलकुल फूहड़ है, इस लिए रिश्तेदारों से सारा रख रखाव ख़ुद उन्ही को करना पड़ता है। एक दफ़ा जानकी को टाई फाइड होगया था तो बीस दिन तक मुतवातिर नर्सों की तरह उस की तीमारदारी करते रहे, वग़ैरा वग़ैरा।

 

दूसरे रोज़ मुनासिब–ओ–मौज़ूं अलफ़ाज़ में मेरा शुक्रिया अदा करने के बाद वो बंबई चली गई। जहां उस के लिए एक नई और चमकीली दुनिया के दरवाज़े खुल गए थे।

 

पूना में मुझे तक़रीबन दो महीने कहानी का मंज़र नामा तैय्यार करने में लगे। हक़्क़–ए–ख़िदमत वसूल करके मैंने बंबई का रुख़ किया जहां मुझे एक नया कंट्रैक्ट मिल रहा था। मैं सुबह पाँच बजे के क़रीब अंधेरी पहुंचा जहां एक मामूली बंगले में सईद और नरायन दोनों इकट्ठे रहते थे। बरामदे में दाख़िल हुआ तो दरवाज़ा बंद पाया।

 

मैंने सोचा सौ रहे होंगे, तकलीफ़ नहीं देना चाहिए। पिछली तरफ़ एक दरवाज़ा है। जो नौकरों के लिए अक्सर खुला रहता है, मैं उस में से अंदर दाख़िल हुआ। बावर्चीख़ाना और साथ वाला कमरा जिस में खाना खाया जाता है, हस्ब–ए–मामूल बेहद ग़लीज़ थे। सामने वाला कमरा मेहमानों के लिए मख़सूस था। मैंने उस का दरवाज़ा खोला और अंदर दाख़िल हुआ। कमरे में दो पलंग थे। एक पर सईद और उसके साथ कोई और लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था।

 

मुझे सख़्त नींद आरही थी। दूसरे पलंग पर मैं कपड़े उतारे बग़ैर लेट गया पावनती पर कम्बल पड़ा था, ये मैंने टांगों पर डाल लिया।

 

सोने
का इरादा ही कर रहा था कि सईद के पीछे से एक चूड़ियों वाला हाथ निकला और पलंग के पास रखी हुई कुर्सी की तरफ़ बढ़ने लगा। कुर्सी पर लट्ठे की सफ़ैद शलवार लटक रही थी।

 

मैं उठ कर बैठ गया। सईद के साथ जानकी लेटी थी। मैंने कुर्सी पर से शलवार उठाई और उस की तरफ़ फेंक दी।

 

नरायन के कमरे में जा कर मैंने उसे जगाया। रात के दो बजे उस की शूटिंग ख़त्म हुई थी, मुझे अफ़सोस हुआ कि ख़्वाह–मख़्वाह उस ग़रीब को जगाया। लेकिन वो मुझ से बातें करना चाहता था। किसी ख़ास मौज़ू पर नहीं। मुझे अचानक देख कर बाक़ौल उस के वो कुछ बेहूदा बकवास करना चाहता था, चुनांचे सुबह नौ बजे तक हम बेहूदा बकवास में मशग़ूल रहे जिस में बार बार जानकी का भी ज़िक्र आया।

 

जब मैंने अंगया वाली बात छेड़ी तो नरायन बहुत हंसा। हंसते हंसते उस ने कहा सब से मज़ेदार बात तो ये है कि जब मैंने उस के कान के साथ मुँह लगा कर पूछा। तुम्हारी अंगया का साइज़ किया है तो उस ने बता दिया कहा। “चौबीस।”

 

इस के बाद अचानक उसे मेरे सवाल की बे–हूदगी का एहसास हुआ। मुझे कोसना शुरू कर दिया। बिलकुल बच्ची है। जब कभी मुझ से मुडभेड़ होती है तो सीने पर दुपट्टा रख लेती है। लेकिन मंटो! बड़ी वफ़ादार औरत है।

मैंने पूछा। “ये तुम ने कैसे जाना?”

 

नरायन मुस्कुराया। “औरत, जो एक बिलकुल अजनबी आदमी को अपनी अंगया का सही साइज़ बता दे, धोके बाज़ हर्गिज़ नहीं हो सकती।”

 

अजीब–ओ–ग़रीब मंतिक़ थी। लेकिन नरायन ने मुझे बड़ी संजीदगी से यक़ीन दिलाया कि जानकी बड़ी पुर–ख़ुलूस औरत है। उस ने कहा “मंटो। तुम्हें मालूम नहीं सईद की कितनी ख़िदमत कर रही है। ऐसे इंसान की ख़बरगीरी जो परले दर्जे का बेपर्वा हो आसान काम नहीं। लेकिन ये मैं जानता हूँ कि जानकी इस मुश्किल को बड़ी आसानी से निभा रही है।

 

औरत होने के साथ साथ वो एक पुर–ख़ुलूस और ईमानदार आया भी है। सुबह उठ कर इस ख़रज़ात को जगाने में आध घंटा सर्फ़ करती है। उस के दाँत साफ़ कराती है, कपड़े पहनाती है, नाश्ता कराती है और रात को जब वो रिम पी कर बिस्तर पर लेटता है तो सब दरवाज़े बंद करके उस के साथ लेट जाती है और जब स्टूडीयो में किसी से मिलती है तो सिर्फ़ सईद की बातें करती हैं।

 

सईद साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। सईद साहब बहुत अच्छा गाते हैं। सईद साहब का वज़न बढ़ गया है। सईद साहब का पुल ओवर तैय्यार होगया है। सईद साहब के लिए पिशावर से पोठोहारी सैंडल मंगवाई है।

 

सईद साहब के सर में हल्का हल्का दर्द है। इसपरो लेने जा रही हूँ। सईद साहब ने आज मुझ पर एक शेअर कहा। और जब मुझ से मुडभेड़ होती है तो अंगया वाली बात याद करके त्यौरी चढ़ा लेती है।”

 

मैं तक़रीबन दस दिन सईद और नरायन का मेहमान रहा। इस दौरान में सईद ने जानकी के मुतअल्लिक़ मुझ से कोई बात नहीं की। शायद इस लिए कि इन का मुआमला काफ़ी पुराना हो चुका था। जानकी से अलबत्ता काफ़ी बातें हुईं। वो सईद से बहुत ख़ुश थी लेकिन उसे उस की बेपर्वा तबईत का बहुत गिला था। “सआदत साहब! अपनी सेहत का बिलकुल ही ख़याल नहीं रखते। बहुत बेपरवाह हैं। हरवक़्त सोचना, जो हुआ इस लिए किसी बात का ख़याल ही नहीं रहता। आप हँसने लगे, लेकिन मुझे हर रोज़ उन से पूछना पड़ता है कि आप संडास गए थे या नहीं।”

 

नरायन ने मुझ से जो कुछ कहा था, ठीक निकला। जानकी हरवक़्त सईद की ख़बरगीरी में मुनहमिक रहती थी। मैं दस दिन अंधेरी के बंगले में रहा। इन दस दिनों में जानकी की बेलौस ख़िदमत ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। लेकिन ये ख़याल बार बार आता रहा कि अज़ीज़ को क्या हुआ। जानकी को इस का भी तो बहुत ख़याल रहता है। क्या सईद को पा कर वह उस को भूल चुकी थी।

 

मैंने इस सवाल का जवाब जानकी ही से पूछ लिया होता अगर मैं कुछ दिन और वहां ठहरता। जिस कंपनी से मेरा कंट्रैक्ट होने वाला था, उस के मालिक से मेरी किसी बात पर चख़ होगई और मैं दिमाग़ी तकद्दुर दूर करने के लिए पूना चला गया।

 

दो
ही दिन गुज़रे होंगे कि बंबई से अज़ीज़ का तार आया कि मैं आरहा हूँ।पाँच छः घंटे के बाद वो मेरे पास था। और दूसरे रोज़ सुबह सवेरे जानकी मेरे कमरे पर दस्तक दे रही थी।

 

अज़ीज़ और जानकी जब एक दूसरे से मिले तो उन्हों ने देर से बिछड़े हूए आशिक़ माशूक़ की सरगर्मी ज़ाहिर न की। मेरे और अज़ीज़ के ताल्लुक़ात शुरू से बहुत संजीदा और मतीन रहे हैं, शायद इसी वजह से वो दोनों मोतदिल रहे।

 

अज़ीज़ का ख़याल था होटल मैं उठ जाये लेकिन मेरा दोस्त जिस के यहां में ठहरा था आउट डोर शूटिंग के लिए कोल्हापुर गया था, इस लिए मैंने अज़ीज़ और जानकी को अपने पास ही रखा। तीन कमरे थे। एक में जानकी सो सकती थी दूसरे में अज़ीज़। यूं तो मुझे इन दोनों को एक ही कमरा देना चाहिए था लेकिन अज़ीज़ से मेरी इतनी बेतकल्लुफ़ी नहीं थी। इस के इलावा उस ने जानकी से अपने ताल्लुक़ को मुझ पर ज़ाहिर भी नहीं किया था।

                               

रात को दोनों सिनेमा देखने चले गए। मैं साथ न गया, इस लिए कि मैं फ़िल्म के लिए एक नई कहानी शुरू करना चाहता था। दो बजे तक मैं जागता रहा। इस के बाद सो गया। एक चाबी मैंने अज़ीज़ को दे दी थी। इस लिए मुझे उन की तरफ़ से इत्मिनान था।

 

रात को मैं चाहे बहुत देर तक काम करूं, साढ़े तीन और चार बजे के दरमयान एक दफ़ा ज़रूर जागता हूँ और उठ कर पानी पीता हूँ। हस्ब–ए–आदत उस रात को भी मैं पानी पीने के लिए उठा। इत्तिफ़ाक़ से जो कमरा मेरा था, यानी जिस में मैंने अपना बिस्तर जमाया हुआ था, अज़ीज़ के पास था और उस में मेरी सुराही पड़ी थी।

 

अगर मुझे शिद्दत की प्यास न लगी होती तो अज़ीज़ को तकलीफ़ न देता। लेकिन ज़्यादा विस्की पीने के बाइस मेरा हलक़ बिलकुल ख़ुश्क हो रहा था, इस लिए मुझे दस्तक दीनी पड़ी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला।

 

जानकी ने आँखें मलते मलते दरवाज़ा खोला और कहा सईद साहब! और जब मुझे देखा तो एक हल्की सी ओह उस के मुँह से निकल गई।

 

अंदर के पलंग पर अज़ीज़ सो रहा था। मैं बेइख़्तियार मुस्कुराया। जानकी भी मुस्कुराई और उस के तीखे होंट एक कोने की तरफ़ सिकुड़ गए। मैंने पानी की सुराही ली और चला आया।

 

सुबह उठा तो कमरे में धूआँ जमा था। बावर्चीख़ाने में जा कर देखा तो जानकी काग़ज़ जला जला कर अज़ीज़ के ग़ुसल के लिए पानी गर्म कररही थी। आँखों से पानी बह रहा था। मुझे देख कर मुस्कुराई और अँगीठी में फूंकें मारते हुई कहने लगी। “अज़ीज़ साहब ठंडे पानी से नहाएँ तो उन्हें ज़ुकाम हो जाता है। मैं नहीं थी पिशावर में तो एक महीना बीमार रहे, और रहते भी क्यों नहीं जब दवा पीनी ही छोड़ दी थी…….. आप ने देखा नहीं कितने दुबले होगए हैं।” 

और अज़ीज़ नहा धो कर जब किसी काम की ग़रज़ से बाहर गया तो जानकी ने मुझ से सईद के नाम तार लिखने के लिए कहा। मुझे कल यहां पहुंचते ही उन्हें तार भेजना चाहिए था। कितनी ग़लती हुई मुझ से उन्हें बहुत तशवीश होरही होगी।

 

उस ने मुझ से तार का मज़मून बनवाया जिस में अपनी बख़ैरीयत पहुंचने की इत्तिला तो थी लेकिन सईद की ख़ैरीयत दरयाफ़त करने का इज़्तिराब ज़्यादा था। इंजैक्शन लगवाने की ताकीद भी थी।

 

चार रोज़ गुज़र गए। सईद को जानकी ने पाँच तार रवाना किए पर उस की तरफ़ से कोई जवाब न आया।

 

बंबई जाने का इरादा कर रही थी कि अचानक शाम को अज़ीज़ की तबीयत ख़राब होगई। मुझ से सईद के नाम एक और तार लिखवा कर वो सारी रात अज़ीज़ की तीमारदारी में मसरूफ़ रही। मामूली बुख़ार था लेकिन जानकी को बेहद तशवीश थी। मेरा ख़याल है इस तशवीश में सईद की ख़ामोशी का पैदा करदा वो इज़्तिराब भी शामिल था। वो मुझ से इस दौरान में कई बार कह चुकी थी। “सआदत साहिब मेरा ख़्याल है सईद साहिब ज़रूर बीमार हैं वर्ना वो मुझे मेरे तारों और ख़ुतूत का जवाब ज़रूर लिखते।”

 

पांचवें रोज़ शाम को अज़ीज़ की मौजूदगी में सईद का तार आया जिस में लिखा था मैं बहुत बीमार हूँ फ़ौरन चली आओ। तार आने से पहले जानकी मेरी किसी बात पर बेतहाशा हंस रही थी। लेकिन जब उस ने सईद की बीमारी की ख़बर सुनी तो एक दम ख़ामोश हो गई। अज़ीज़ को ये ख़ामोशी बहुत नागवार मालूम हुई क्योंकि जब उस ने जानकी को मुख़ातब किया तो इस के लहजे में तेज़ी थी। मैं उठ कर चला गया।

 

शाम को जब वापिस आया तो जानकी और अज़ीज़ कुछ इस तरह अलाहिदा अलाहिदा बैठे थे जैसे उन में काफ़ी झगड़ा हुआ था। जानकी के गालों पर आँसूओं का मैल था जब मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो इधर उधर की बातों के बाद जानकी ने अपना हैंडबैग उठाया और अज़ीज़ से कहा। “मैं जाती हूँ, लेकिन बहुत जल्द वापस आजाऊँगी।” फिर मुझ से मुख़ातब हुई। “सआदत साहब इन का ख़याल रखीए, अभी तक बुख़ार दूर नहीं हुआ।”

 

मैं स्टेशन तक उस के साथ गया। ब्लैक मार्कीट से टिकट ख़रीद कर उसे गाड़ी पर बिठाया और घर चला आया। अज़ीज़ को हल्का हल्का बुख़ार था। हम दोनों देर तक बातें करते रहे लेकिन जानकी का ज़िक्र न आया।

 

तीसरे रोज़ सुबह साढ़ै पाँच बजे के क़रीब मुझे बाहर का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। इस के बाद जानकी की । लफ़्ज़ों को ऊपर तले करती हुई वो अज़ीज़ से पूछ रही थी कि उस की तबीयत अब कैसी है और क्या उस की ग़ैर–मौजूदगी में उस ने बाक़ायदा दवा पी थी या नहीं।

 

अज़ीज़ की आवाज़ मेरे कानों तक न पहुंची लेकिन आध घंटे बाद जब कि नींद से मेरी आँखें मुंद रही थीं, अज़ीज़ की ख़फ़गी आमेज़ बातों का दबा दबा शोर सुनाई दिया। समझ में तो कुछ न आया लेकिन इतना पता चल गया कि वो जानकी से अपनी नाराज़ी का इज़हार कर रहा था।

 

सुबह दस बजे अज़ीज़ ने ठंडे पानी से ग़ुसल किया और जानकी का गर्म क्या हुआ पानी वैसे ही ग़ुसलख़ाने में पड़ा रहा। जब मैंने जानकी से इस बात का ज़िक्र किया तो उस की आँखों में आँसू आगए।

 

नहा धो कर अज़ीज़ बाहर चला गया। जानकी कमरे में पलंग पर लेटी रही। सहपहर को तीन बजे के क़रीब जब मैं उस के पास गया तो मालूम हुआ कि उसे बहुत तेज़ बुख़ार है। डाक्टर बुलाने के लिए बाहर निकला तो अज़ीज़ तांगे में अस्बाब रखवा रहा था।

 

मैंने पूछा। “कहा जा रहे हो।” तो उस ने मेरे साथ हाथ मिलाया और कहा, “बंबई! इंशाअल्लाह फिर मुलाक़ात होगी।”

 

ये कह कर वह एक्के में बैठा और चला गया। मुझे ये बताने का मौक़ा ही न मिला कि जानकी को बहुत तेज़ बुख़ार है।

 

डाक्टर ने जानकी को अच्छी तरह देखा और मुझे बताया कि उसे ब्रोंकाइट्स है, अगर एहतियात न बरती तो निमोनिया होने का ख़तरा है। डाक्टर नुस्ख़ा दे कर चला गया तो जानकी ने अज़ीज़ के बारे में पूछा। पहले तो मैंने सोचा कि उसे न बताऊं लेकिन छुपाने से कोई फ़ायदा नहीं था, इस लिए मैंने कह दिया कि चला गया है। ये सुन कर उसे बहुत सदमा हुआ। देर तक वो तकिए में सर दे कर रोती रही।

 

दूसरे रोज़ सुबह ग्यारह बजे के क़रीब जब कि जानकी का बुख़ार एक डिग्री हल्का था और तबीयत भी किसी क़दर दरुस्त थी, बंबई से सईद का तार आया जिस में बड़े दर्शित लफ़्ज़ों में लिखा था याद रहे कि तुम ने अपना वाअदा पूरा नहीं किया। मैं बहुत मना करता रहा लेकिन वो तेज़ बुख़ार ही में पूना ऐक्सप्रैस से बंबई रवाना होगई।

 

पाँच छः दिनों के बाद नरायन का तार आया एक ज़रूरी काम है, फ़ौरन बंबई चले आओ। मेरा ख़याल था कि किसी प्रोडयूसर से उस ने मेरे कंट्रैक्ट की बात की होगी, लेकिन बंबई पहुंच कर मालूम हुआ कि जानकी की हालत बहुत नाज़ुक है। ब्रोंकाइटिस बिगड़ कर निमोनिया में तबदील होगया था। इस के इलावा जब वो पूना से बंबई पहुंची थी तो अंधेरी जाने के लिए चलती ट्रेन में चढ़ने की कोशिश करते हुए गिर पड़ी थी जिस के बाइस उस की दोनों रानें बहुत बरी तरह छल गई थीं। 

जानकी ने इस जिस्मानी तकलीफ़ को बड़ी बहादुरी से बर्दाश्त किया। लेकिन जब वो अंधेरी पहुंची और सईद ने उस के बंधे हुए अस्बाब की तरफ़ इशारा करके कहा मेहरबानी करके यहां से चलो जाओ तो उसे बहुत रुहानी तकलीफ़ हुई। नरायन ने मुझे बताया! “सईद के मुँह से ये बर्फ़ जैसे ठंडे लफ़्ज़ सुन कर वो एक लहज़े के लिए बिलकुल पत्थर होगई मेरा ख़याल है उस ने थोड़ी देर के बाद ये ज़रूर सोचा होगा मैं गाड़ी के नीचे आकर क्यों न मर गई।

 

सआदत तुम कुछ भी कहो मगर सईद औरतों से जैसा सुलूक करता है बहुत ही न मर्दाना है। बेचारी को बुख़ार था। चलती रेल से गिर पड़ी थी और वो भी इस ख़र ज़ात के पास जल्दी पहुंचने के बाइस। लेकिन इस ने इन बातों का ख़याल ही न किया और एक बार फिर उस से कहा।

 

 “मेहरबानी करके यहां से चली जाओ…
”
उस के लहजे में मंटो किसी जज़्बे का इज़हार नहीं था। बस ऐसा था जैसे लनोटाइप मशीन से अख़बार की एक सतर ढल कर बाहर निकल आए। मुझे बहुत दुख हुआ, चुनांचे मैं वहां से उठ कर चला गया। शाम को जब वापस आया तो जानकी मौजूद नहीं थी लेकिन सईद पलंग पर बैठा, रिम का गिलास सामने रखे एक नज़्म लिखने में मसरूफ़ था।

 

मैंने उस से कोई बात न की और अपने कमरे में चला गया दूसरे रोज़ स्टूडीयो से मालूम हुआ कि जानकी एक एक्स्ट्रा लड़की के घर ख़तरनाक हालत में पड़ी है। मैंने स्टूडीयो के मालिक से बात की और उसे हस्पताल भिजवा दिया। कल से वहीं है, बताओ अब क्या किया जाये। मैं तो उसे देखने जा नहीं सकता इस लिए कि वो मुझ से नफ़रत करती है……..
तुम जाओ और देख कर आओ किस हालत में है।

 

मैं हस्पताल गया तो उस ने सब से पहले अज़ीज़ और सईद के मुतअल्लिक़ पूछा। जो सुलूक इन दोनों ने उस के साथ किया था, इस के बाद उस के पुर–ख़ुलूस इस्तिफ़सार ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया।

 

उस की हालत नाज़ुक थी। डाक्टरों ने मुझे बताया कि दोनों फेफड़ों पर वर्म है और जान का ख़तरा है लेकिन मुझे हैरत है कि जानकी इतनी बड़ी तकलीफ़ मर्दानावार बर्दाश्त कर रही थी।

 

हस्पताल से लौटा और स्टूडीयो में नरायन को तलाश किया तो मालूम हुआ वो सुबह ही से ग़ायब है। शाम को जब वो घर वापस आया तो उस ने मुझे तीन छोटी छोटी शीशियां दिखाईं जिन का मुँह रबड़ से बंद था। “जानते हो ये क्या है?”

 

मैंने कहा। “मालूम नहीं। इंजैक्शन से लगते हैं।”

नरायन मुस्कुराया। “इंजैक्शन ही हैं लेकिन पेनसलीन के।”

 

मुझे सख़्त हैरत हुई क्योंकि पेनसलीन उस वक़्त बहुत ही क़लील मिक़दार में तैय्यार होती थी। अमरीका और इंग्लिस्तान में जितनी बनती है, थोड़ी थोड़ी मिल्ट्री हस्पतालों में तक़सीम करदी जाती थी। चुनांचे मैंने नरायन से पूछा। “ये तो बिलकुल नायाब चीज़ है, तुम्हें कैसे मिल गई?”

 

उस ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। “बचपन में घर की तिजोरी खोल कर रुपय चुराना मेरे बाएं हाथ का काम था। आज दाएं हाथ से मिल्ट्री हास्पिटल का रेफ्रीजरेटर खोल कर मैंने ये तीन बल्ब चुराए हैं…….. चलो जल्दी करो जानकी को हस्पताल से होटल में ले चलें।”

 

टैक्सी लेकर मैं हस्पताल गया और जानकी को इस होटल में ले गया जिस में नरायन दो कमरों का पहले ही बंद–ओ–बस्त कर चुका था।

 

जानकी ने मुझ से कई बार नहीफ़ आवाज़ में पूछा कि मैं उसे होटल में क्यों लाया हूँ। हर बार मैंने यही जवाब दिया। “तुम्हें मालूम हो जाएगा।”

 

और जब उसे मालूम हुआ। यानी जब नरायन सिरिंज हाथ में लिए उसे टीका लगाने के लिए इस कमरे में आया तो नफ़रत से एक तरफ़ उस ने मुँह फेर लिया और मुझ से कहा। “सआदत साहब इस से कहिए चला जाये यहां से।”

 

नरायन मुस्कुराया। “जान–ए–मन गु़स्सा थूक दो। यहां तुम्हारी जान का सवाल है।” जानकी को तैश आगया। नक़ाहत के बावजूद उठ कर बैठ गई। “सआदत साहब! मैं जाती हूँ यहां से या आप इस हरामख़ोर को निकालिये बाहर।”

नरायन ने धक्का दे कर उसे उल्टा दिया और मुस्कुराते हुए कहा।

 

“ये हरामज़ादा तुम्हें इंजैक्शन लगा कर ही रहेगा। ख़बरदार जो तुम ने मुज़ाहमत की।” ये कह कर इस ने एक हाथ से मज़बूती के साथ जानकी का बाज़ू पकड़ा, सिरिंज मुझे दे कर उस ने स्परिट में रूई भिगोई और इस का डनड़ साफ़ किया। इस के बाद रूई मुझे दे कर उस ने सिरिंज की सूई इस के बाज़ू की मछली में दाख़िल करदी वो चीख़ी,
लेकिन पेनसलीन इस के जिस्म में जा चुकी थी।

 

जब नरायन ने जानकी का बाज़ू अपनी मज़बूत गिरिफ़त से अलाहिदा किया तो उस ने रोना शुरू कर दिया।

 

नरायन ने उस की बिलकुल पर्वा ना की और स्परिट लगी रवी से इंजैक्शन वाला हिस्सा पोंछ कर दूसरे कमरे में चला गया।

 

पहला इंजैक्शन रात के नौ बजे दिया था। दूसरा तीन घंटे बाद देना था। नरायन ने मुझे बताया अगर तीन के साढ़े तीन घंटे होगए तो पेनसलीन का असर बिलकुल ज़ाइल हो जाएगा। चुनांचे वो जागता रहा तक़रीबन साढ़े ग्यारह बजे उस ने स्टोव जलाया, सिरिंज उबाली और उस में दवा भरी।

 

जानकी ख़रख़राहट भरे सांस ले रही थी। आँखें बंद थीं। नरायन ने दूसरे बाज़ू को स्परिट से साफ़ किया और सिरिंज की सोई अंदर खबू दी। जानकी के होंटों से पतली सी चीख़ निकली। नरायन ने दवा जिस्म के अंदर भेज कर सोई बाहर निकाली और स्परिट से इंजैक्शन वाली जगह साफ़ करते हुए मुझ से कहा। “अब तीसरा तीन बजे।”

 

मुझे मालूम नहीं उस ने तीसरा चौथा इंजैक्शन कब दिया। लेकिन जब बेदार हुआ तो स्टोव जलने की आवाज़ आरही थी और नरायन होटल के बैरे से बर्फ़ के लिए कह रहा था क्योंकि उसे पेनसलीन को ठंडा रखना था।

 

नौ बजे पांचवां इंजैक्शन देने के लिए जब हम दोनों जानकी के कमरे में गए तो वो आँखें खोले लेटी थी। उस ने नफ़रत भरी निगाहों से नरायन की देखा लेकिन मुँह से कुछ न कहा। 


नरायन मुस्कुराया। “क्यों जान–ए–मन! क्या हाल है?”

जानकी ख़ामोश रही।

 

नरायन उस के पास खड़ा होगया। “ये इंजैक्शन जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ इश्क़ के इंजैक्शन नहीं। तुम्हारा निमोनिया दूर करने के इंजैक्शन हैं जो मैंने मिल्ट्री हास्पिटल से बड़ी सफ़ाई के साथ चुराए हैं…….. लो, अब ज़रा उल्टी लेट जाओ और कूल्हे पर से शलवार को ज़रा नीचे खिसका दो…….. कभी लिया है यहां इंजैक्शन?”

 

ये कह कर उस ने जानकी के कूल्हे पर एक जगह गोश्त के अंदर उंगली खबोई जानकी की आँखों में मरऊब सी नफ़रत पैदा हूई।जब उस ने करवट बदली तो नरायन ने कहा। “शाबाश!”

 

पेशतर इस के कि जानकी कोई मुज़ाहमत करे नरायन ने एक हाथ से उस की शलवार नीचे खिसकाई और मुझ से कहा। “स्परिट लगाओ!”

जानकी ने टांगें चलाने शुरू कीं तो नरायन ने कहा। “जानकी! टांगें वांगें मत चलाव……..
मैं इंजैक्शन लगाके रहूँगा।”

 

ग़रज़
कि पांचवां इंजैक्शन दे दिया गया। पंद्रह और बाक़ी थे जो नरायन को हर तीन घंटे के बाद देने थे और ये पैंतालीस घंटे का काम था।

 

पाँच इंजैक्शन से गो जानकी को बज़ाहिर कोई नुमायां फ़ायदा नहीं पहुंचा था। लेकिन नरायन को पेनसलीन के एजाज़ का यक़ीन था और उसे पूरी पूरी उम्मीद थी कि वो बच जाएगी। हम दोनों बहुत देर तक इस नई दवा के मुतअल्लिक़ बातें करते रहे। ग्यारह बजे के क़रीब नरायन का नौकर मेरे नाम एक तार लेकर आया। पूना से था। एक फ़िल्म कंपनी ने मुझे फ़ौरन बुलाया था इस लिए मुझे जाना पड़ा।

 

दस पंद्रह दिनों के बाद कंपनी ही के काम से में बंबई आया। काम ख़त्म करके जब मैं अंधेरी पहुंचा तो सईद से मालूम हुआ कि नरायन अभी तक होटल ही में है। होटल बहुत दूर, शहर में था इस लिए रात में वहीं अंधेरी में रहा।

 

सुबह आठ बजे वहां पहुंचा तो नरायन के कमरे का दरवाज़ा खुला था। अंदर दाख़िल हुआ तो कमरा ख़ाली पाया। दूसरे कमरे का दरवाज़ा खोला तो एक दम आँखों के सामने कुछ हुआ। जानकी मुझे देखते ही लिहाफ़ के अंदर घुस गई। और नरायन जो उस के साथ लेटा था, मुझे वापिस जाते देख कर कहा।

 

“आओ मंटो आओ…….. मैं हमेशा दरवाज़ा बंद करना भूल जाता हूँ…….. आओ यार…….. बैठो इस कुर्सी पर, लेकिन ये जानकी की शलवार दे देना!।“

The End 



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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

May 2, 2025
पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

April 24, 2025
बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

March 22, 2025
नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

March 18, 2025
अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

March 17, 2025
नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

March 17, 2025
परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

March 17, 2025
आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

March 17, 2025
चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

March 18, 2025
पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें  रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

March 18, 2025
मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
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