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सोने की कंठी: पोस्टमैन की रूपवती बेटी की अधूरी इच्छाओं की मार्मिक कहानी रायसाहब ने एक कंठी बिंदो के गले में पहना दी (सुभद्रा कुमारी चौहान)

by Engr. Maqbool Akram
March 21, 2024
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ग़रीबी और ख़ूबसूरती में अगर मुक़ाबला कराया जाए तो एक शुरुआती उठा–पटक के बाद ख़ूबसूरती हार जाएगी. ग़रीबी इच्छाओं पर भारी पड़ जाती है. पोस्टमैन की ख़ूबसूरत बेटी बिंदा की अधूरी इच्छाओं की मार्मिक कहानी है ‘सोने की कंठी’. 

बिंदो पोस्टमैन की लड़की थी. उसका पिता रायसाहब निर्मलचंद की कोठी के सागरपेशे की एक कोठरी में किराए से रहता था. पोस्टमैन की आमदनी ही कितनी? ख़र्च सदा ही आमदनी से कुछ ज़्यादा हो जाया करता था; इसलिए बिंदो और उसकी मां को अच्छे गहने और कपड़े कभी नसीब न हुए.

 

बिंदो रूपवती थी, और उसको अच्छे–अच्छे गहने–कपड़ों का शौक़ था. स्त्रियां स्वभावतः सौंदर्य की उपासिका होती हैं; जो जितनी अधिक सुंदर होती है, उनकी सौंदर्योपासना उतनी ही अधिक बढ़ी–चढ़ी होती है. किंतु सुंदरी बिंदो गहनों और कपड़ों के लिए तरसा करती थी.

 

रायसाहब की स्वजातीय होने के कारण कभी–कभी तीज–त्योहार या काम–काज होने पर कोठी से बिंदो की मां के लिए बुलावा आता, और मां के साथ बिंदो भी जाया करती.

 

वहां रायसाहब की लड़कियों को ख़ूब सजी–धजी देखकर, उनके चमकते हुए हीरे–मोती के गहने और दृष्टि को फिसला देने वाले रेशमी कपड़ों को देखते ही वह अधिक क्षुब्ध हो जाया करती; विशेषकर इसलिए और भी, कि रायसाहब की लड़कियां सुंदर न थीं; गहने– कपड़े उनके शरीर पर ऐसे जान पड़ते जैसे कि किसी ठूंठ के साथ लपेट दिए गए हों.

 

बिंदो की राय थी कि अच्छे कपड़े और गहने पहिनने का अधिकार उन्हीं को होना चाहिए जो सुंदर हों.

 

कुरूप स्त्रियों का श्रृंगार तो श्रृंगार का उपहास और कला का अनादर है. रायसाहब की लड़कियों से गहने–कपड़े की प्रतियोगिता में हारकर बिंदो हताश न होती; घर लौटते ही वह शीशे में अपना सुंदर मुंह देखकर मन–ही–मन उनके प्रति कहती, गहना–कपड़ा पहिनकर भी तो उनका काला मुंह गोरा नहीं हो जाता; बड़े–बड़े दांत मोतियों सरीखे नहीं चमकते. 

फिर एकाएक वह दीर्घ निःश्वास के साथ शीशे के सामने से दूर चली जाती; मानो यह सोचती कि विश्व के सारे सौंदर्य की वस्तुएं केवल उसी के लिए बनाई गई थीं. किंतु निर्माता की भूल से वह उससे दूर रख दी गई हैं. रायसाहब की लड़कियों के पास तो वे सौंदर्यवर्धक वस्तुएं अनावश्यक ही हैं, उनसे उन लड़कियों के सौंदर्य की वृद्धि तो नहीं हो पाती, हां उन वस्तुओं का सौंदर्य अवश्य घट जाता है.

 

बिंदो को एक आशा थी. वह सोचती थी कि विवाह के बाद मुझे भी बहुत से गहने और कपड़े मिलेंगे, जैसे दूसरी विवाहिता लड़कियों को मिला करते हैं. उनके समान मैं भी अपने घर की मालकिन बनूंगी. मेरे ‘वे’ भी बहुत–सा रुपया लाकर मेरे हाथों में रख दिया करेंगे और तब मैं भी मनमाना ख़र्च करूंगी. बाज़ार में कोई अच्छा कपड़ा या गहना देखते ही ‘वे’ मेरे लिए ख़रीद लावेंगे, और मैं उसी अभिमान से पहनूंगी जैसे ये पहनती हैं.

 

किसी के पूछने पर मैं जरा संकोच और सलज्ज भाव से कह दूंगी कि यह गहना या कपड़ा तो ख़ुद वे ही अपनी पसंद से मेरे लिए ख़रीद लाए हैं, उसे विश्वास था कि जब विधाता ने उसे सुंदरता देने में इतनी उदारता की है, तब ये गहने–कपड़े की इच्छा भी एक–न–एक दिन अवश्य पूरी होगी. वह उस दिन की प्रतीक्षा बड़ी लगन से किया करती.

 

धीरे–धीरे बिंदो सयानी हुई और उसका विवाह हो गया. किंतु निर्धन की बेटी भला धनवान के घर कैसे ब्याही जाती?
मित्रता बैर और विवाह–सगाई तो अपने बराबरी वालों में ही शोभा देते हैं. तात्पर्य यह कि बिंदो के गहने–कपड़ों की प्यास ज्यों–की–त्यों बनी रही. विवाह के समय कुछ गहने और कपड़े आए अवश्य थे; किंतु ससुराल पहुंचने के वाद ही वे एक–एक करके किसी–न–किसी बहाने से ले लिए गए. बिंदो समझ गई कि वे गहने उसके नहीं हैं. बेचारी जी मसोसकर रह गई; और करती भी क्या?

 

बिंदो की ससुराल में खेती–बारी होती थी. परिवार बड़ा था. बिंदो की दो जेठानियां थीं और एक अविवाहित देवर. तीन भाई तो खेती का काम मन लगाकर करते थे; किंतु बिंदो के पति जवाहर का मन खेती के कामों में न लगता था. वह स्वभाव से ही कुछ शौक़ीन थे.

 

उनकी गाने–बजाने की तरफ़ विशेष रुचि थी. कुश्ती लड़ने और पहलवानी करने का भी शौक़ था. गठे हुए बदन पर सदा मलमल या तनजेब का कुरता रहता; घुंघराले वाल सदा किसी–न–किसी सुगंधित तेल से बसे रहते. स्वभाव में आत्माभिमान की मात्रा भी अधिक थी. वे कुछ न कमाकर भी घर भर पर अपना रोब जमाते रहते.

 

बिंदो कुछ पढ़ी–लिखी होने के कारण उस देहात में आदर की वस्तु हो गई थी; विशेषकर उस समय अवश्य, जब वह रामायण या महाभारत पढ़ती और गांव की अनेक स्त्रियां वहां एकत्र हो जातीं, वे बिंदो की सास के भाग्य की सराहना करतीं और कहतीं, यह लक्ष्मी–सी बहू तुम्हारे घर आई है; इसके कारण भगवान के दो बोल हमलोग भी सुन पाती हैं.

 

बिंदो भी अपने इस देहाती जीवन से असंतुष्ट न थी. सास उसका आदर करती थी, जेठानियां उसे काम न करने देतीं. इसके अतिरिक्त जवाहर उसे प्यार भी बहुत करता था. उसी घर में लड़ाई–झगड़ा होने पर कई बार ऐसे मौक़े आए कि उसके जेठ अपनी स्त्रियों पर हाथ चला बैठे, किंतु जवाहर बिंदो से कभी एक कड़ी बात भी न करता.

 

 

वह हर तरह से, अपने देहाती, ढंग से ही सही, उसे संतुष्ट रखने का प्रयत्न करता. बिंदो भी अब सुखी थी; उसे गहने–कपड़े की याद न आती थी. वैसे तो देहात में अच्छे गहने–कपड़े पहनता ही कौन है? फिर भी सबके बीच में बिंदो–ही–बिंदो दिख पड़ती थी. बिंदो सबसे अधिक सुंदरी तो थी ही; साथ ही पति की तरह वह सबसे अच्छे कपड़े भी पहना करती थी.

 

मना करने पर भी वह जेठानियों के साथ काम करती; और सास को नियम से रोज़ रामायण सुना देती. रात को अलाव के पास बैठती, जहां गांव की अनेक युवतियां, वृद्धाएं, युवक और प्रौढ़ सभी इकट्ठे होते; फिर बहुत रात तक कभी कहानी होती और कभी पहेलियां बुझाई जातीं. वहां दिन भर के परिश्रम के बाद सब लोग कुछ घंटे निश्चित होकर बैठते; उस समय कहानी और पहेली के अतिरिक्त किसी को कोई भी चिंता न रहती थी.

 

सबेरे नदी का नहाना भी कम आनंद देने वाला न रहता. बूढ़ी, युवती, बहू, बेटी सब इकट्ठी होकर नहाने जाती; रास्ते में हंसी–मखौल और तरह–तरह की बातें होतीं; बिंदो भी उनके साथ जाती; नदी में नहाना उसे विशेष प्रिय था और कभी–कभी जब वह बिरहा गाते हुए दूर से आती हुई अपने पति की आवाज सुनती या जब वह देखती कि उसका पति अपनी मस्त आवाज़ में ‘ख़ुदा गवाह है हम तुमको प्यार करते हैं’ गा रहा है, तो उसे ऐसा प्रतीत होता कि जवाहर उसी को लक्ष्य करके कह रहा है. तात्पर्य यह कि बिंदो पूर्ण सुखी थी; अब उसकी कोई और इच्छा न थी.

 

एक बार बिंदों की मां बीमार पड़ी. मां की सेवा करने के लिए बिंदो को लगातार चार–पांच महीने नैहर में रहना पड़ा. फिर उसकी आंखों के सामने वही रायसाहब की लड़कियां और वही गहने–कपड़ों का प्रदर्शन होने लगा. उसकी सोई हुई आभूषणों की आकांक्षा फिर से जाग उठी. वह सोचने लगी, क्या इस जीवन में मेरी अभिलाषा कभी पूरी न होगी? तो फिर ईश्वर ने मुझे इतना रूप ही क्‍यों दिया? किंतु विधि के विधान पर किसका ज़ोर चलता?

रायसाहब निर्मलचन्द चालीस के उस पार पहुंच चुके थे, फिर भी उनमें रसिकता की मात्रा आवश्यकता से अधिक थी. वे प्रायः सिनेमा देखने जाया करते थे; किसी अच्छी कहानी की ऐक्टिंग के लिए नहीं, केवल सुंदर चेहरों को देखने के लिए. उन्होंने सब तीर्थ भी कर डाले थे; और प्रायः पर्वों पर सब काम छोड़कर भी वे स्नान–घाटों पर पहुंच जाते थे.

 

किसी प्रकार के पुण्य–लाभ की उन्हें इच्छा रहती थी या नहीं, यह तो ईश्वर जाने; किंतु स्नान करती हुई युवतियों के अंग–प्रत्यंग की ताक–झांक की उत्कट इच्छा उनके चेहरे पर कोई भी साफ़ देख सकता था. वे कश्मीर और नैनीताल भी अक्सर गर्मी की छुट्टियों में जाया करते थे; किंतु वे जलवायु परिवर्तन के लिए जाते थे या और किसी उद्देश्य से यह नहीं कहा जा सकता. वे सुंदर स्त्रियों के पीछे अनायास ही मीलों का चक्कर अवश्य लगा आते थे.

 

वे बहुत कुरूप थे. इसलिए सुंदरी की बात तो अलग रखिए, कोई कुरूप से कुरूप स्त्री भी उनकी तरफ़ आंख उठाकर देखने में अपना अपमान समझती थी; इसलिए प्रायः गंदे मज़ाक करके ही वे अपनी वासना की तृप्ति कर लिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे परोपकारी भी थे. उनके घर एक नामी–गिरामी वैद्यराज रहा करते थे, जो रायसाहब के मित्रों और उनके आश्रित निर्धनों का मुफ़्त इलाज करते थे.

 

उनका दवाखाना रायसाहब की बैठक से लगा था. मरीज को दवा लेने के लिए रायसाहब की बैठक से होकर ही वैद्यराज के पास जाना पड़ता था. बिंदो की मां का इलाज भी यही वैद्यराज करते थे. घर में और कोई न होने के कारण बिंदो को ही मां के लिए दवा लानी पड़ती थी.

 

एक दिन दोपहर को बिंदो जब दवा लेने गई तो उसने देखा कि रायसाहब के पास एक सुनार कई तरह के गहने फैलाए बैठा है. सहसा इस प्रकार गहनों की प्रदर्शनी सामने देखकर इतने दिनों की सोई हुई बिंदो की गहनों की उत्कंठा फिर से जाग्रत हो उठी. क्षण–भर के लिए वह भूल गई कि वह यहां किसलिए आई है.

 

वह उत्सुकता–पूर्वक उन फैले हुए गहनों के पास बैठ गई, और बड़े चाव से उन्हें उठा–उठाकर देखने लगी. उनमें से तीन लड़ की एक कंठी थी जो बिंदो को बहुत पसंद आई. उसने उस कंठी को कई बार उठाया और रखा; और अंत में एक ठंडी सांस के साथ वह उसे वहीं रखकर अलग खड़ी हो गई. रायसाहब ने भी वही कंठी पसंद की. बाक़ी गहने वापिस करके सुनार को दाम देने के लिए दूसरे दिन बुलाकर उन्होंने उसे रवाना कर दिया.

 

यद्यपि बिंदो की उमर की रायसाहव की लड़कियां थीं. फिर भी बिंदो उनकी कृदृष्टि से बची न रही. उसके इस समय के हार्दिक भाव रायसाहब अच्छी तरह ताड़ गए और वार करने का यही उपयुक्त समय देखकर वे हंसते हुए बोले, बिंदो, यह कंठी तुम्हें बहुत पसंद आई है, पहनोगी?

एक प्रकार की अव्यक्त आशा से बिंदो का चेहरा ख़िल उठा; पर यह प्रसन्‍नता क्षणिक थी. वह गंभीर होकर बोली, नहीं, मैं न पहिनूंगी. गहने –ग़रीबों के लिए नहीं होते.

 

रायसाहब बोले, गहने तो ग़रीब–अमीर सभी के लिए होते हैं. फिर तुम्हारी तरह का ग़रीब तो इच्छा करते ही मनमाना गहना पा सकता है.-सो कैसे? बिंदो ने पूछा, गहनों की इच्छा तो मुझे सदा से रही है; पर वे मुझे कभी नहीं मिले और न जीवन भर मिलेंगे, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं.

 

रायसाहब धीरे–धीरे बिंदो की तरफ आते हुए बोले, जीवनभर की बात तो अलग रही बिंदो, यह कंठी तुम्हें इसी समय मिल सकती है; केवल तुम्हारी इच्छा करने भर की देर है. तुम्हारे ऊपर एक क्या, ऐसी लाखों कंठियां निछावर की जा सकती हैं. पर बिंदो यदि तुम मेरे मन को समझती!

रायसाहब के आरक्त चेहरे और हिंसक पशु की तरह आंखों को देखते हुए बिंदो सिहर उठी और दो कदम पीछे हटकर बोली, आप मुझे दवा दिलवा दें, मैं जाऊं अम्मा अकेली है. उसने इस बात को इतने ज़ोर–ज़ोर से कहा जिससे अंदर आवाज पहुंच सके.

 

वह शीघ्र ही दवा लेकर लौटी. उसने मन–ही–मन सोचा, अब मैं दवा लेने न जाऊंगी, रायसाहब की नीयत ठिकाने नहीं है. मैंने समझा था कि वह बेटी समझकर मुझे कंठी देना चाहते हैं; परंतु वे तो सतीत्व के मोल उसे बेचना चाहते हैं. चूल्हे में जाए ऐसी कंठी! मुझे न चाहिए विधाता! सतीत्व कंठी से कई गुना ज़्यादा क़ीमती है.

 

किंतु इतने पर भी उस कंठी को वह भूल न सकी. रह–रहकर कंठी उसकी आंखों के आगे झूलने लगी. फिर उसने एक युक्ति सोची. यह हो सकता है कि जैसे वह मुझे छलना चाहते हैं मैं भी उन्हें छल लूं. उनसे कंठी ले लूं फिर बचकर भाग जाऊं. ऐसे अनेक तरह के संकल्प–विकल्प करती हुई बिंदो सो गई.

 

दूसरे दिन दोपहर को बिंदो को फिर दवा लेने जाना पड़ा. पहुंचकर उसने देखा कि रायसाहब के मसनद के पास उसी तरह की चार कंठियां पड़ी हैं. बिंदो के पहुंचते ही रायसाहब ने उसे बैठने के लिए कहा. बिंदो बैठ गई.

 

कल उसने जितने संकल्प किए थे उसे इस समय याद न रहे. कंठियों की चकाचौंध के सामने बिंदो को सब–कुछ भूल गया. बिंदो के सामने ही रायसाहब ने एक कंठी को तौलाकर उसकी कीमत ढाई सौ रुपए सुनार को देकर बिदा कर दिया. बिंदो चकित दृष्टि से उस कंठी की ओर, और कभी उन रुपयों की तरफ़ देखती थी. व्यापारी के जाते ही जैसे उसकी तंद्रा टूटी. वह उठकर खड़ी हो गई; बोली, दवा दिलवा दीजिए, मैं जाऊं, देर हो रही है.

 

–अभी कहां की देरी होने लगी. कहते–कहते रायसाहब ने एक कंठी बिंदो के गले में पहना दी और उसे ज़बरन पकड़कर एक बड़े शीशे के सम्मुख खड़ा कर दिया; फिर उसकी तरफ सतृष्ण नेत्रों से देखते हुए बोले, अपनी सुंदरता देखो, वहां बिंदो है या कोई दूसरी? बिंदो मंत्रमुग्ध–सी देखती रह गई.

 

वह
अभी रायसाहब की किसी बात का उत्तर भी न दे पाई थी कि इसी समय उन्होंने अपने बड़े–बड़े दांतों वाला मुंह बिंदो के होंठों पर धर दिया. बिंदो को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

 

वह घबराई किंतु कुछ वश न चला. इस प्रकार कुछ तो कंठी के लालच में और कुछ रायसाहब की ज़बरदस्ती के कारण उस दिन दोपहर के सन्‍नाटे में अभागी बिंदो अपने को खो बैठी. बेचारी को उस कंठी की बहुत बड़ी क़ीमत देनी पड़ी.
परंतु उसके बाद फिर रायसाहब के घर दवा लेने कभी न गई.

 

उसके कुछ ही दिन बाद बिंदो ससुराल चली गई और उस कंठी को भी वह सबसे छिपाकर अपने साथ ले गई. ससुराल में लोगों के पूछने पर उसने यही बतलाया कि यह कंठी उसकी मां ने उसे दी है.

 

किंतु बिंदो ने उसे कभी पहना नहीं. पति के आग्रह करने पर जब कभी वह उसे, घंटे–आध घंटे के लिए पहनती थी तो ऐसा मालूम होता था, जैसे काला विषधर उसके गले से लिपटा हो. कंठी को देखते ही प्रसन्‍न होने के बदले वह सदा उदास हो जाती थी.

 

बिंदो के पति और जेठों में अनबन हो गई. भाई–भाई अलग हो गए. दूसरे भाई तो खेती करके ख़ुशी–ख़ुशी आराम से रहने लगे; किंतु जवाहर से खेती का काम नहीं होता था. जिसका परिणाम यह हुआ कि सब लोग तो चार पैसे कमाकर गहने–कपड़े की फिकर करने लगे. इधर जवाहर के घर फाके होने लगे. अभिमानी स्वभाव के कारण जवाहर अपनी विपत्ति भाइयों पर प्रकट न होने देता.

 

अब पहलवानी छूट गई, मलमल, तनजेब के कुरते मैले दिखने लगे, सिर में तेल भी कहां से मिलता, जब खाने के लिए घर में अन्न का दाना भी न रहता? बिंदो से पति का कष्ट देखा न गया और उसने एक दिन कंठी निकालकर पति को बेचने के लिए दे दी. जवाहर बड़ी प्रसन्‍नता से कंठी लेकर सराफे की ओर गया; पर थोड़ी देर बाद उसने लौटकर निराशा से कहा, यह तो मुलम्मे की है.

सुभद्रा कुमारी चौहान

बिंदो यह सुनकर, सर थामकर बैठ गई, मानो उस पर वज्र गिर पड़ा.

 The End

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
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