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आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

by Engr. Maqbool Akram
March 17, 2025
in Uncategorized
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न गुले–नग़्म हूं, न परद–ए–साज

मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़।

 

जैसे ही मोबाइल का डाटा ऑन किया, खट्,खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये। इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी, मानो कई बेचैनियां अपने को व्यक्त करने के लिये विद्युत–कौंध सी तड़फड़ा रही हों। स्थिर होते ही व्हाट्सऐप पर उक्त शे‘र के साथ जिस फ्रेंचकटनुमा दाढ़ी वाले सुदर्शन युवक पर नजरें ठहरीं, उसके मैसेज ने मुझे बेतरतीब कर दिया। —

 

  ‘रौ
में है रख्शे उम्र, कहां देखिये थमे।

     नै हाथ बाग पर है न पैर रकाब में।’

‘दिल से शुक्रिया! आपके फोन से मेरा काम हो गया। राधिका को मेरा प्यार। आइ विल कॉल यू … इफ यू विश!’

 

खून पीते मच्छर को जैसे हम झपटकर मारते हैं, कुछ उसी अंदाज में झपटकर मैंने मोबाइल ऑफ किया। आंखे बंदकर सोचा — राधिका को बताउं या नहीं? कुछ दिनों पहले की ही तो बात थी, आपस में कोई परदेदारी न थी। पता नहीं, सबकी जिंदगी में ऐसे पल और किस्से आते हैं जो न किसी को बताये जा सकते हैं न बांटे? हमारे बीच भी ऐसा ही कुछ होने लगा था। जिंदगी रेल–सी गुजर रही थी और हम पुल की तरह थराथरा रहे थे।

 

वह जून का महीना था। गर्म लू के थपेड़ों और कड़कती धूप से हॉस्टल का कमरा ऐसा तपा हुआ जंगल हो जाता था जिसकी खिड़कियों को घेरे पीले अमलतास पूरे कमरे को सुरमई रंग से दहकाये रखते। एक दिन दौड़ती, हांफती वह आयी और मेरी गोद में गुलमोहर–सी ढह गयी —

 

  ‘सुन, एक काम था।’

 ‘हम्म, क्या? बोल? ’

 ‘करेगी …?
’

‘हां, बोल न? ’

 

 इतने
लोगों से जान–पहचान है तेरे रोहित की, एक फोन करवा सकती?

 ‘फोन?
कहां, किसे? क्या हुआ, बता तो … … ’

बताने
की बजाय उसने अपना सिर करवट लेकर तकिये में छुपा लिया।

 ‘अरे,
अरे! हुआ क्या है, बता तो … ’

 

  ‘किसी का पैसा रूका हुआ है। बॉस गुंडई कर रहा है, मिनिस्ट्री से एक फोन जायेगा, गरीब का पैसा वापस मिल जायेगा।’

 

  ‘धत्! कोई बात है यह? नंबर दे। हो जायेगा …
’’
कहते–कहते जो उसकी झुकी ठोढी उठा रतनारी आंखों में झांका तो दंग रह गयी। एक कोई और भी था वहां जिससे मेरी पहचान न थी।

 

राधिका और मैं एक ही जगह से यहाँ आये थे। पड़ोसी थे हम। साथ बड़े हुये। संयोग था कि गे्रज्युशन के बाद दोनों को दिल्ली के विख्यात विश्वविद्यालय में साथ ही दाखिला मिला। साथ होने का फायदा यह हुआ कि घर से बाहर इतनी दूर पढ़ने आने की अनुमति मिल गयी।

 

दोनों घरों में असहमति के बादल तब छंटे जब मेरे मंगेतर ने आश्वासन दिया कि वह गुडगाँव में नौकरी करते हम हम दोनों की देखभाल भी करेगा और राधिका अपने आइ.ए.एस. बनने के सपने को कोचिंग ज्वाइन कर आराम से पूरे कर सकेगी। बेबे को मनाना बड़ा मुश्किल काम था। उसे तो हमारे आगे पढ़ने पर ही एतराज था। बहरहाल घर की इज्जत निभाने के वायदे और नसीहतों के बक्से भरकर हम रवाना हो पाये।

 

हम दोनों को एक ही हॉस्टल अलॉट हुआ। कमरे अलग थे। राधिका ऊँची मंजिल पर मैं नीचे ग्राउंड पर। राधिका की रूममेट नाजिया दिल्ली की ही रहने वाली थी इसलिए वह हॉस्टल में कम ही रूकती।

 

मेरी रूममेट का नाम वंदना था। उसकी नयी शादी हुई थी। भरमांग सिन्दूर और खूब मैचिंग चूड़ियों से सजी–धजी वह मुझे अजीब लगती।

 

कई बार मुझसे बिना पूछे मेरी टीशर्ट और जीन्स पहनकर घूमने निकल जाती। एक बार तो मैंने सख्ती से मना ही कर दिया। मेरी आपत्ति का एक विशेष कारण था जिससे मैं बहुत सहज नहीं रह पाती थी। घर से पहली बार दूर मैं अजीब खाली–खाली थी और वह जाने कैसे बहुत भरी–भरी सी लगती। कहीं बाहर से आती तो उसे किसी कोने या दुराव की जरूरत भी नहीं होती, बेहिचक वह अपने कपड़े बदलने लगती।

 

यह अजीब था कि जैसे ही उसके कपड़े कमरे में फैलते एक तीखी हरियल महक मेरा दम घोंटने लगती। यहाँ तक कि धो लेने के बाद भी कपड़े उसी महक से महकते रहते। यह महक न जाने उसके वजूद से आती या मेरी ही किसी अदृश्य तहखाने की भंभंर होती या कोई और, जो उसमें भरा रहता, कपड़ों के उतरते ही सरसराहट की तरह पूरे कमरें में तेजी से फैलने लगता। कच्ची मेहंदी और पसीने से मिलीजुली यह तेजाबी गंध मुझे असह्य थी। मैं कसमसा उठती।

 

मेरी मंगनी हो चुकी थी। महीने के पहले रविवार को रोहित हमसे मिलने आते। उनका रूम–पार्टनर परवेज भी कभी साथ होता जो बी.टेक के बाद आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था।

 

जब वह आता मैं रोहित, राधिका और परवेज बाहर लंच के लिये जाते, खूब बातें करते, कभी सिनेमा भी देख आते, राधिका और परवेज की खूब नोक, झांेक चलती। भाषा की समस्या से लेकर लव–जिहाद तक की घटनाओं पर तीखी बहसें होतीं।

==

कई बार राधिका ही हल्की पड़ती लेकिन तुरन्त फिर चिढ़कर चिढ़ाती — तुम तो हो ही आतंकवादी! हंसते–खेलते परवेज का चेहरा एकदम स्याह पड़ जाता लेकिन तुरंत संभलते अपनी जबान में ठिठोली घोलते जब वह कहता — ‘क्या कभी मुसलमान न कोई नुकसान पहुंचाया है आपको? या केवल नेताओं के कहने पर? मनुष्य में जाति, धर्म के आधार पर ऐसी नफरत न पालिये हुजूर।

 

तो खिलखिला हंसती, अंगूठा चिढ़ाती राधिका खट्–खटृ अंदर हॉस्टल चली जाती। दूर तक उसकी पीठ देखता परवेज सिगरेट सुलगाता ढाबे की ओर बढ़ जाता।

 

मैं और रोहित, शाम गहराने तक वहीं नीम अंधेरे में साथ बैठे रहते। यह साथ बैठना धीरे–धीरे कब हाथ पकड़कर अपने को भूल दूसरे को महसूसना हो गया — पता ही न चला।

 

बेबे की दी तमाम नसीहतों को पीछे धकेलते मादक रकाब नयी चाहतों के साथ कब मेरे कलेजे में धाड़–धाड़ बजने लगा और मैं शर्म से कैसे, कब लाल होने लगी, मुझे खबर तक न हुयी। ऐसे में राधिका जो तंग करने वाले प्रश्न पूछती है, उन्हें पूछ लूं क्या? वह तो फिर छेडे़गी — ‘कोई बात हुयी? नया कुछ घटा? लेकिन यह सब कोई पूछने की बात है? मैं क्या कोई भी कैसे जान सकती यह बात? हृदय के तार भी मानों जुड़े हैं।

 

मेरी उद्विग्नता को तत्काल रोहित ने महसूस किया, पूछा — क्या बात है, क्यूं परेशान लग रही? बताओं, कोई बात है तो? मैं नजरें चुराने लगी और बेवजह जिस ओर देखने लगी, पीछा करती रोहित की नजरों ने भी उधर देखा — नाजिया किसी गाड़ी से उतरी है, अपना झोला समेटते, अंदर चेहरा करते, किसी से विदा लेते और डगमगाते कदमों से अंदर हॉस्टल की ओर बढ़ते। उसकी ऐसी हरकतों से ही मैं शायद हतप्रभ हूँ, उसने ऐसा अनुमान करते ही कहा — यह कोई नयी बात नहीं।

 

परेशान न होओ। बड़े शहरों में आकर, देखादेखी अपना दिमाग इस्तेमाल न करने से आजादी उच्छृंखलता में बदल जाती है। ध्यान से रहना यहाँ …
वह कुछ और भी कहता तब तक मेरे दिल ने सुकून की एक अंगडाई ली कि आज नाजिया जा रही है अपने रूम में। तो राधिका वहीं बिजी रहेगी।

 

उसके उटपटांग प्रश्नों से आज मुझे निजात मिली। एकदम हल्की हो आयी मैं। सहजता से रोहित की बांहों पर अपना सिर टिका दिया। किसी गिरह खुलने की उन्मुकतता को उसने भी महसूसा और …
मुझे कसके लपेटते हुए अपना चेहरा मुझपर झुका लियां। आह …
।

 

आह … दबकर मर न जाऊँ इस सुख से। देह का एक–एक कोना उमग आया। आन्तरिक उष्मा भाप बनकर मेरे अस्तित्व को पिघलाने लगी। होश खोती मैं उसके सीने में बछिया–सी सिर रगड़ रही थी।

 

प्यार की भीगी छुअन और सीने से आती मदमाती गंध किसी अंधे कुए में मुझे धकेलती कि नजरों में बेबे कौंध गई — गलत! गलत! गलत! फिर कैसी तो अचकचाती, आधी सीढ़ियां फलांगती मैं दौड़ी चली आयी।

 

सांसो के दुरूस्त होते ही राधिका याद आयी — ‘क्या गलत इसमें? कुछ नहीं! यही तो प्यार है। यही तो नई घटना है। प्यार में थोड़ा बिंदास होना है। बिंदास? इस शब्द से मेरी आंखे चमक उठीं।

 

राधिका बहुत आगे की सोचने वाली लड़की हे। आई.ए.एस. की तैयारी कर रही है। कोचिंग में ग्रुप–डिस्कशन करती है। नये–नये डिजान के कपड़े भी पहनने लगी है। नाजिया का साथ उसे और भी तेजी से बदल रहा है। हम सब भी तो तेजी से बदल रहे हैं। जब से मोबाइल के वाइ–फाई कनेक्शन हॉस्टल को मिलने लगे है, सभी लड़कियाँ बदल रही हैं

 

अब
पास के कमरों में शोर नहीं सुनाई पड़ता। टी.वी. देखते समय चैनल्स को लेकर तकरार नहीं होते। हालांकि ढाबों की शामें अभी भी गुलज़ार होती। पढ़ाई, राजनीति, किताबें, धरना, जुलूस की बातें होती लेकिन रात होते ही मोबाइल सबका जीवन बन जाता। डिनर के बाद होने वाले साहित्यिक, राजनीतिक, सामयिक व्याख्यानों में सबकी मौजूदगी कम होने के साथ–साथ लोकल और ग्लोबल मुद्दों पर चीखने–चिल्लाने वाले भी अब कम बचे थे।

 

इस प्रकार की अनेक गतिविधियों से कटकर कई तरह के दिव्यज्ञानों से जो परिचय बढ़ रहा था, वह बिंदास था। यह एक नई तरह की ललक थी। जितना इसे बरतो, उतनी ही बढ़ती थी। राधिका ऐसे, दिव्य ज्ञानों का इस्तेमाल मुझ पर खूब करती।

 

रोहित के पतले–दुबलेपन का मजाक उड़ा लेती। उतना तो ठीक था लेकिन वह नाजिया के साथ इतनी बिंदास होती जा रही, इस बात पर मुझे अजीब गुस्सा आता। मुझसे कहती —

 

 ‘सुन! पहले से ही देख ले, चख ले। जो संतुष्ट नहीं कर पाया फिर तो तू कुछ नहीं कर सकती, फंस गयी तो फंस गयी। गयी तेरी भैंस पानी में …
।’

 

अर्थ समझकर मैं दंग रह जाती। अवाक् कर देने वाली बात। हम यह बात कैसे जान सकते? कभी–कभी डर भी जाती। सच तो नहीं है उसकी बात? दुनिया को वह चौकनेपन के साथ पढ़ सकती है। मैं अपने तर्क ढूंढ–ढूंढ कर लाती — ऐसे तो हमारे यहां इतनी शादियां हुयी? इतने हहराकर सबके बच्चे हुये?

 

जब मैं ऐसा कहती वह ही–ही–ठी–ठी कर खूब हंसती। मुझसे कहती — बच्चे होने से यह मतलब थोड़े ही है।

 

 ‘मतलब?
’

 ‘मतलब,
कि बच्चे तो हो ही जाते हैं;’

 ‘बच्चे
कैसे होंगे, यदि कोई कमी होगी तो? ’

 ‘ओफ्
ओह … । तुम डफर हो एकदम।’

 ‘कभी
कुछ नहीं समझोगी, जाओ भुगतना।’

 

भुगतने तो मैं लगी थी। एक डर बैठ गया था मन में। उसकी बात नुकीली कटार की तरह छाती में धंसी रहती। पैनी और खतरनाक चुभन मानो दड़बे की मुर्गी बिन मरे छटपटाये।

 

कैसे कोई लड़की जान सकती यह बात? जब तक दो–चार को बरतो नहीं कैसे पता कि कौन संतुष्टि दे सकता, कौन नहीं? यहां तो एक ही मिल जाये ठीक–ठाक, नाप–तौल, जाति–बिरादरी में संतुलित, फिर अर्थी ही तो बाहर निकलती है। ऊपर से एक दिव्य ज्ञान और कि रंग–रूप, आकार–प्रकार से ज्यादा मतलब नहीं।

 

तो सिर्फ जुमले? जो बातों से फुसला ले? जहाँ हृदय नहीं वहाँ कोई भी समर्पण भला कैसे संभव है? मुझे मेरे भगवान याद आ जाते। हे भगवान! जैसे अन्य सभी हिन्दुस्तानी औरतों की रक्षा करता है ऐसे सुनानियों से, मेरी भी अरज तुम्हे ही।

 

उधर टी.वी. के विज्ञापनों ने अलग दिमाग खराब कर रखा था। एचआईवी टेस्ट करवाओ अपने मंगेतर का …
कैसे मुमकिन है? क्या बोलें, कैसे बोले? ये बातें हम मर जायें, बोल न पायेंगे। कैसे नये–नये संकट सामने खड़े थे।

 

 प्रत्यक्ष में कहती, अरे सब हो जाता है। ठीक ही होगा सब। तमक कर कहती वह — हां, हां, सब ठीक ही होता है, हम लोगों के लिये। गुलामी करने हमें जाना है। विदा हम होते हैं। घर बदल जाता है। खाना बनाने की बगैर तन्ख्वाह नौकरी मिलती है।

 

बच्चे
हमें जनने हैं। दर्द हमें होता है इन्ज्वाॅय कौन करता हे? हम तो जी, इस्तेमाल होने वाली शै ठहरे। हम तो नहीं करते किसी को इस्तेमाल? लेकिन इन्ज्वाॅय कर सकें, इसके लिये भी हमारे हाड़–मांस पर प्रतिबंध? हमारी भी इच्छाये हैं … हमारा भी तो मन हो सकता है न?

 

 ‘अरे, इसमें इन्कार कहां है? इसीलिये तो शादी करेंगे न? बेशर्मी पर थोड़े उतर आयेंगे …
तुम्हारी नाजिया की तरह? धीमे से मेरे मुह से निकल ही गया।

 

बेशर्मी? यह बेशर्मी है? तू क्या जानती है उसके बारे में! उसके घरवाले कितने पुराने घिसे हुये लोग हैं? पढ़ना–मरना तो दूर वे उसे जीते–जी दोजख की आग में धकेलना चाहते हैं। किसी तलाकशुदा बूढे़ से निकाह तय करके। लेकिन देखना वह भाग जायेगी। पैसे जमा कर रही है। पासपोर्ट बनवा लिया है।

 

भाग जायेगी? किधर जायेगी? हैरानी से मेरा मुंह खुला रह गया। ‘मुंह तो बंद कर अंकल’ मसखरे अंदाज में उसने कहा — देख! आ, इधर देख। अल्मारी का दरवाजा खोल हाथों में उसके कपड़े निकाल–निकाल कर उसने बिस्तरे पर डालने शुरू किये — लाल लेसदार ब्रा, फैशनेबुल मैचिंग पैण्टीज, रेशमी पारदर्शी नाइटी, साथ ही निकाला नीचे से एक मुडामुड़ाया बास करता काला बुर्का।

 

देख, देख और देख …
कहकर उसने अपने हाथों में दबाई हरी छोटी बोतल दिखाई। बाप रे! यह क्या है? दारू? वह पीती भी है? तो क्या हुआ? जिंदगी के नये अंदाज से भरे आवाज ने जवाब दिया — उसकी लाइफ है, तो जैसे चाहे, जीये। कितनी बड़ी बात कि कुछ छिपाती नहीं।

 

कोई गिल्ट नहीं। एकदम बिंदास है। उसकी अल्मारी से सुर्ख नेलपॉलिश निकाल अपने लंबे नाखूनों को खून की तरह लाल करती राधिका ने कहा — जो है, सो है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए खुद मेहनत करनी पड़ती है। खुद कर्ता बनना पड़ता है मेरी बन्नो।

 

मेरी आंखों में कूतूहल की लहक थी — उसके बाद? आगे क्या होगा? उसने कहा — अच्छा ही होगा। ज्यादा आगे का सोचना भी क्या? कल के बारे में सोचने से जरूरी आज को देखना नहीं है क्या? जिस पर हमारा पूरा समाज टिका हुआ है।

 

जब अपने निर्णय हों तो सब अच्छा होगा। तभी तेरे को कहती हूँ — बिंदास बन। खुद को जी। रोहित से प्यार है तो प्यार कर। बराबरी पर जी। जी–हजूरी वाला नहीं। कभी तू भी आगे बढ़ सकती है। पहल कर सकती है। लेकिन नहीं। तू तो मिट्टी का लोंदा …
.
। तुझे कभी मिलवाउंगी प्रशांत से। देखना तू जिंदगी कितनी खुबसूरत है। कितने रंग है उसके …
.
अनूठा आनंद …
। एक्साइटिंग …
।

 

प्यार को ठोस रूप में अनुभव करना चाहती थी। रोहित से मिल आने के बाद गिल्ट को अब सीढ़ियों पर ही छोड चली और एक नशे में इतराती बिस्तरे पर आ गिरी। प्यार ने एक नये रूप में मुझे छूआ था।

 

लगा कोई और भी है जो तन–मन में संग आ लगा है। मीठे झोंकों में थी ही कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। राधिका थी। यहीं सोउंगी। नाजिया दो बार उल्टियां कर चुकी हे। बदबू है उधर। कभी रो रही है, कभी हंस रही है। मुझे यहीं सोना है।

 

मैंने सोयी पड़ी वंदना की ओर देखा। जांघों में तकिया दबाये, वक्षों से आंचल ढलकाये वह गहरी नींद सो रही थी। हम दोनों ने आहिस्ते से बिस्तरे को उठाकर उसके बिस्तरे से सटाया और सो गये। इतनी गर्मी में ठीक पंखे के नीचे सोने का सुख था या मेरे मन में बसा कोई घना सुख? मेरी पिंडलियों पर वजन पड़ा तो अच्छा लगा।

 

ढुलक
कर कोई शरीर पर आ गया तो अच्छा लगा। एक गीली प्यास ने मेरे गालों को छूआ तो अच्छा लगा। बंधन थे कि कसते जा रहे थे। एक हरियल महक, कच्ची मेंहदी की कसोरी गंध मेरे गले को रूद्ध करती जा रही थी कि मैं कमसमाई। रेनगते हाथों को धक्का देती चीखती हुयी मैं उठ बैठी। तड़प कर देखा।

 

वंदना की आंखें में दो विषधर फुत्कार रहे थे। ज्वाला से सहम गयी। राधिका भी उठ बैठी थी। वंदना यह देख करवट ले ऐसे सोयी, मानों कुछ हुआ ही न हो। फिर मुझे नींद नहीं आयी। पूरी रात सांपों के गुत्थमगुत्था जैसे डरावने सपने मुझे जगाते रहे।

 

आज ही क्लास में फ्रैंकफर्ट के दार्शनिकों के बारे में जाना। उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद, मिशेल फूको, हिस्ट्री ऑफ सैक्श्यूअलिटी …
सेक्स के बारे में खास तरह के ज्ञान का विश्लेषण …
वह क्या चीज रही जिसने हमें सेक्स को एक ऐसी चीज के रूप में देखना सिखाया जो छिपाने योग्य है?

 

क्यों? इसमें क्या है? उसका जवाब आया। वह मैरिड है। उसे चाहिये होगा। लेकिन देख, एक बात तो है। वह निष्क्रिय और निष्प्राण नहीं है। यानी, स्त्री होकर भी वह अपनी इच्छा रखती है। डिमांड तो करती है। राधिका शुरू हो गयी। अब वह खिल–खिल हंसती जाये और अपने दिव्य ज्ञान से मुझे आलोड़ित करती जाये — मेन बात यही होती है।

 

प्रेम–प्यार, शादी ब्याह सब फोर प्ले हैं। इसी का तो सारा खेल हे लेकिन इन्जाॅय करने की बाजी पुरूष के हाथ रहती है। तेरे को समझाती हूं तो समझती नहीं। स्त्री को भी सक्रिय और सजग रहना होता है। यह भी सबके बस का नहीं। मेल चाहिये होता है बराबरी का।

 

यही तो …
यही तो मानती हूं। पहले मन मिले, फिर अन्य भाव जैसे हृदय, परिवार। फिर संबध बने …
। शादी हो। मैंने छूटते ही कहा — ओफ ओह! तू दूसरा चैनल पकड़ लेती है। कितना भयानक नैतिक दबाव है हम लोगों पर ये बाबा।

 

जानती
है, हमारे भारत में इसे इतना पतनशील और अनैतिक नहीं मानते थे यह सब विक्टोरियाइ नैतिकता के दबाव हैं। रमन सर की भाषा? यह उन्हीं की भाषा बोल रही है। मुझे रमन सर याद आये। राजकमल चैधरी, कृष्णबलदेव वैद्य, कृष्णा सोबती के पात्रों की चर्चा करते हुए कहा था उन्होंने हमारे यहाँ नैतिक तंत्रों के इतिहास की जाँच–पड़ताल फिर से होनी चाहिए।

 

तेरी बातों के बाद तो और मुझे लगता है कि हमारे यहां नैतिक तंत्रों के इतिहास की जांच–पड़ताल कितनी जरूरी है। रूक तुझे रंजीत से मिलवाती हूँ। वह कौन है? कहां से आयेगा? ओह मेरे परमात्मा, और क्या–क्या खेल दिखायेगा तू? कैसे आयेगा वह? विजिटर्स–टाइम तो है नहीं?

 

अरे, देखती जा … एक आंख दबाती राधिका ने कहा। व्हाट्स ऐप्प पे आयेगा। तू देख, क्या मस्त इंसान है? क्या होती है जिंदगी और क्या होते हैं जिंदगी के मजे? देखेगी? रूक … … सुर्ख धारदार नाखूनों ने मोबाइल का बटन दबाया — खट्, ओह, कवर–पेपर पर भी वह? अच्छा, तो इतनी नजदीकियां बढ़ गयी है? वैसे पट्ठा है शानदार।

 

दबंग शेर की तरह। जुल्फें और फ्रेंचकट दाढ़ी इतनी नुकीली जिनसे मेरे उस कोटर की दीवारें छिलने लगीं जिनमें रोहित शहंशाह सलीम की तरह मुस्कुरात रहता। रोहित का ध्यान आते ही उसकी आवाज कानों में पड़ी — आंखे देखो। रोहित ने हमेशा कहा था — दिल्ली में इतना घबड़ाने की भी जरूरत नही। यदि किसी की बातों पर शक लगे, सीधे उसकी आंखो में देखो। देखा, तो सब ‘बैन’ था।

काले–चश्मे पर सुनहरे अक्षर चमक रहे थे — ‘रे बैन।’ अपनी कत्थई आंखों से उसे परख ही रही थी कि राधिका ने कुहनी मारी — ‘ऐसी–ऐसी बातें करता है कि बस पूछ मत। अभी तक तो हम मिले नहीं। फेसबुक पर फ्रैंड है। उस दिन बोला था न तेरे को, इसी के पैसों के लिये तो बोला था। बॉस बड़ा चूपड़ है। उसे अकेला समझ रखा है। पैसे दबाके रख लेगा उसके? एक फोन जो जायेगा, ठीक हो जायेगा सब।’

 

ओह! तो यह बात है। इतने कम दिनों में इतना आगे बढ़ गयी है लड़की? सच था कि इन कुछ महीनों में हमारी
18-20
सालों की बिनानी सीमेंट वाली सोच के महानगरीय प्रभाव वाले चूहे महीन दांतों से कुतर रहे थे। रोज एक दीवार बनती फिर गिर जाती। क्या बचा रह जाने वाला था — यह एकदम अनिश्चित था।

 

‘मैंने पूछा — नाम क्या है? ’

‘बताया तो था — प्रशांत मेंहदीरत्ता।’

 

आश्वस्त हुयी। जिस पतीली का वह चावल था, उसकी देग हमारे चूल्हों पर चढ़ायी जा सकती थी। राधिका बोल रही थी — मलेशिया गया हुआ है। अगले महीने आयेगा। उसी से शादी करनी है मुझे। ऐसी हॉट बातें करता है, मैं नही रूक सकती। तू भी मेरे लिये पैरवी कर देना। देखना, तेरे से पहले बच्चा भी जन लूंगी।

 

एक चमकीली जानलेवा चमक उसकी आंखो से गुजर कर पूरे वजूद में भर गयी जिसके नीचे मैंने स्पष्ट देखा, आईए.एस. बनने का सपना धराशायी पड़ा अपनी चूलें गिन रहा था। पत्नी, मां बनना अब भी कितना लालायित कर देने वाली महिमामयी पोस्ट है।

 

दरियादिली से मेरी बांहों पर सिर रखते हुये उसने कहा — ऐसी–ऐसी बातें करता है रे … , पूरा बदन तप कर दहकता कुंडा हो जाता है। मिलवाती हूं तेरे को, सुनना सब … खट्। एक मिसकॉल दिया गया। हम दोनों एकदम तैयार। सब सुन लेने को मैं खूब तत्पर।

 

सारी इन्द्रियां मानों कान बन गयी हों। दोनों बिस्तरों को सटा लिया गया। मैंने राधिका को देखा तो दंग रह गयी। सिरहाने के बल औंधी लेटी वह जल में हिलोरें मारती मागुर मछली लग रही थी।

 

फोन घनघनाया — ‘हैलो! कैसी हो जानेमन? ’ स्पीकर से सधी, नफासती मुलायम आवाज उभरी। राधिका की दोनों आंखों ने मुस्कुरा कर मुझे देखा। उत्तर में देर होते ही एक बेचैनी कमरे में तिर आयी। बोलती क्यों नहीं? बोलो कुछ। तुम्हें तो पता है। तुम्हारी प्यारी आवाज मेरी रगों को कैसे तड़का देती हैं? व्हाट्स ऐप पर आओ न। देखना है तुम्हे … ।

 

नहीं आज नहीं। ऐसे ही बातों करो। राधिका कुनमुनायी। वह शायद मेरी उपस्थिति से संकुचित थी या शायद आगे होने वाली बातचीत के ब्योरों से वाकिफ़ थी जिसमें उत्तेजना बढ़ती जाती है और तंद्रा गुम होती जाती है। फोन पर आवाज़ आयी — ठीक है।

 

लेकिन मैं तुम्हारे करीब आना चाहता हूँ। बहुत करीब। इतना कि तुम्हारे घने बाल मेरी सीने पर लहरा जायें। तुम्हारा चेहरा मेरी बाजुओं में …. उफ् तुम्हारी गर्दन कितनी सुडौल है और कितनी सुदंर, प्यारी, रस से भरी … . । चूम रहा हूं तुम्हारे घने बालों को … चूम रहा हूं आंखों को … तुम फिसल रही हो, महक रही हो … कितनी गुदाज पी जाउंगा इस सारी महक … खुश्बू … सारे रस … ओह ऽ ऽ ऽ ऽ ।

 

 

दो लड़कियों की चाहत का जर्रा–जर्रा पिघल रहा था। शरीर बाम्बी में फंस गये सर्प की तरह पछाड़े खा रहा था कि लपलपाती कौंध झुलसाने को हुयी दर्द …
ओह …
ले लो …
सारा दर्द मेरा …
लो …
कालिया नाग मानो फन पटक रहा है। केंचुली फंस गयी है। थरथराहट बढ़ती जा रही। फुत्कार अपनी अंतिम छोर पर कि चर्रऽऽऽऽऽऽऽऽऽ …
।

 

वही सपना था। वही डरावना सपना। सांपो के गुत्थमगुत्था वाला। वही महक थी। कच्ची मेंहदी की पत्तियों वाली हरियल महक। मैं एकदम चीख पड़ी — स्टाॅप इट। ‘बंद करो यह सब।’ सिरहाने रखा जल भरा तांबे का लोटा धप्प से जमीन पर आ बिखरा। कमरा एकदम स्तब्ध। फोन साइलेंट। दो सिहरती भीगी लड़कियां। छन्न छन्न नाच रहा था खाली लोटा।

 

आज दिन धुंधलके से भरा था। मेघ तो थे। लेकिन वर्षा थी न और खुली हवा। डूबता सूरज शर्मिंन्दा–सा अपनी अंतिम किरणें लिये मेरे कमरे में आया तो उतरे मुंह वाली राधिका को भी साथ लिये आया। वह कुछ कहना चाहती थी लेकिन अपने दबे ढके अंगों के बगावती तेवर से मैं स्वयं जुगुप्सा और वितृष्णा से बिलबिला रही थी, सो असाधारण चुप्पी ठान ली।

 

रोहित की नजरें एक्स–रे थी। उसने बार–बार पूछा और सारी बातें जान ली। उसकी आंखों में चिंता की लकीरें दौड़ गयी। ठहरकर उसने कहा — राधिका को बोलो, वह बचे ऐसे लोगों से। तुम लोग नहीं जानते महानगरों में कैसे कुंठित लोग भरे हुये हैं। मेरे सामने सिगरेट पीने से परहेज करने वाला परवेज न जाने क्या सोचता हुआ एक के बाद एक कई सिगरेटें सुलगाता जा रहा था।

 

चिंता और घृणा मुझे भी हुयी थी लेकिन राधिका का स्पष्ट उत्तर था — अरे यार, बिंदास बन। यह कोई पाप थोड़े ही है। किसे इच्छा नहीं होती इस प्लेजर की? हमारे भारत में इस आनंद पर ग्रंथ के ग्रंथ लिखे गये हैं। यह आदिम और नैचुरल भाव है।

 

शाम की ललछौंही में वही राधिका सिसकियां भरती हुयी, रोती हुयी मेरी गोदी में आन गिरी तो मैं थोड़ा डरी। उसके बालों में फंसी गुलमोहर की पंखुड़ियाँ टूट टूटकर बिखर रही थीं। जाने कहाँ सुबह से गायब थी। अभी शाम 5 बजे लौटी है। बेबे बनकर कई बार समझाया था, मिलने जा लेकिन संभलकर।

 

यही बंदा शादी से मुकर जायेगा, कि पहले से सोयी, खेली, खायी लड़कियों का क्या भरोसा? कहने को उत्तरआधुनिक युग। स्त्रियों के लिए अब तक आधुनिक तक न हुआ यह पाषाण युग। स्त्री की इज्जत को अभी तक परिवार की मर्यादा, गरिमा से जोड़ता है। राधिका है तो उसी पुराने अंगने की पौध लेकिन नयी शिक्षा ने दिमाग खराब कर दिया है।

 

हवा
में झूमने और बिखर जाने के अंतर को शायद भूल चुकी है यह लड़की। मलेशिया से उसके लौटने की खबर सुनते ही बेकल होकर सज–संवर कर उसका यूं उड़न–छू होना, बीती शाम को लौटना, इस तरह रोते जाना? क्या समझूं मैं और? कुछ ऐसा तो नहीं हो गया जो अभी नहीं होना था? उसकी ठोढ़ी प्यार से उठाते हुये पूछा — क्या हुआ? हो गया क्या सबकुछ? खेल खत्म?

 

‘खेल? हां खेल ही तो! खेल खत्म!’ रोती राधिका गोद से एकदम उठ बैठी — ‘कुछ नहीं हुआ। कुछ भी नहीं हुआ। और खेल खतम हो गया।’

‘क्या मतलब? ’

उसने अपने दोनों हाथों को उलटते–पलटते कहा — ‘कुछ हुआ ही नहीं।’ इस आवाज में ऐसी सर्दी थी कि मैं लरज गयी — ‘रो क्यों रही है फिर? ’
‘
रो कहां रही हूं’ — उसने तुर्शी से भरकर जवाब दिया। मैं उसे गौर से देखती रही। नीली पनीली आंखे, गुलाबी गाल, पीली पेशानी लेकिन गुलाब–से पिंक होंठ आज स्याह। मन में कैसी तो ममता जगी।

 

अचानक, जैसे पिछली कोई बात अब जाकर समझ आयी हो, राधिका ठठाकर हंसती खिड़की पर जा खड़ी हुयी। दिनभर के ताप से बोझिल सूरज को हाथ हिलाकर मानो सुकून से विदा किया और मेरी तरफ मुड़ी — ‘तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान, झूठ जाना कि खुशी से मर न जाते, गर ऐतबार होता …
.’
पसंदीदा पंक्तियां सुनते ही समझ गयी, चोट तगड़ी लगी है लेकिन मरहम का इंतजाम भी हो रहा है साथ–साथ।

 

उसने बोलना शुरू किया। ऑफिस में बड़ी गर्मजोशी से मिला वह ऐसे जैसे सबके सामने ही गले से लिपटा लेगा। दिल धाड़–धाड़ बज रहा था। बाहर ले गया फिर। हमने साथ खाना खाया। खूब सारी बातें की। घर की। परिवार की। तुम्हें मालूम है, वह पंजाबी नहीं, मारवाड़ी है। प्रशांत मंधाना। उनका परिवार कलकत्ते में बस गया था। सारा बिजनेस ठप्प हो गया तो वह मार्केटिंग एडवरटाइजेमेंट के लिये काम करने दिल्ली आ गया।

 

लंच
के बाद हम कॉफी लिये पार्क में आ बैठे। अंततः मैंने पूछा — तुम्हारा घर कहां है? कहां रहते? उसने कहा — घर? पटपड़गंज के दड़बेनुमा कमरे हमें हम तीन लड़के रहते। सिर्फ रात को सोने जाते जहां। अपना–अपना बिस्तर ही हमारा अपना कमरा है। सारे दिन दिल्ली की सड़कों पर या तो काम ढूंढते या काम बदलते।

 

मैंने उसकी तरफ देखा और पूछा — लेकिन, फिर तुम शादी कैसे करोगे? मुझे कहां रखोगे? शादी? उसे मानो ततैये ने डंक मारा हो। यार, मैं शादी कैसे कर सकता हूँ? सोच भी नहीं सकता इस ऐय्याशी के बारे में। हां शादी ऐय्याशी ही है मेरे जैसे लाखों टेम्पररी नौकरी वालों के लिये यहां। आज काम है तो कल महीनों बेरोजगार।

 

आज के किये की भी तन्ख्वाह मिलेगी या कोई चूपड़ा बॉस उसे निगल जायेगा? धक्के देकर कब बाहर कर देगा — मालूम नहीं। शादी करने का मतलब पॉकेट में कुछ तो माल हो। एक ही कमरे का सही अपना ठिकाना तो हो। सच कहता हूं यदि मेरे फंसे रुपये मिल जाते तो मैं निश्चित ही एक कमरा ले लिया होता और फिर तुम्हे वहां ‘कॉफी’ पिलाता। शरारती आंखों को यूं मटकाकर उसने पार्क में ही मेरे होंठों को जबरन चूम लिया और उसी बिंदास अंदाज से कहा — ‘हमें तो जी, केवल फोन कॉल्स की छूट है।’

‘क्या? फोन कॉल्स की छूट? मतलब? ’

 

मतलब यह मेरी जाने जिगर कि, हम जहां–जहां काम करते हैं वहां विज्ञापन के लिये फोन के ही अधिकतम प्रयोग होते हैं। फोन–बिल्स कंपनी चुकाती है। कंपनी हमें चूसती है हम उन्हें। खोखले हो चुके हैं हम। कुछ चाहें भी तो नहीं कर सकते, सिवा फोन कॉल्स के। सो, रातभर नींद न आने तक, दो–तीन बार यह कर सकते हैं, करते हैं।

 

मुझे अवाक्, टुकुर–टुकुर देखते उसने कहा — इसमें बुरा क्या है? दिन भर थकता हूं। रात को किसी के साथ ऐसी बातें करके रिलीव हो जाता हूं। क्या कर सकते हैं हम और? पार्क के एकांत का फायदा उठाते हुये उसने दोबारा मुझे खींचा। एकदम धक्का देती हुयी मैं उठ खड़ी हुयी। नीच हंसने लगा। होंठों को गोल–गोल घुमा बोलने लगा —

 

‘जानेमन! तुम बहुत भोली हो, बहुत प्यारी भी। आय एन्जॉयड अ लॉट। मैं तुम्हें जरूर फोन करता रहूंगा और उस अपनी फ्रेंड से भी पूछना, जो उसे मजा आया तो उसे भी। एन्जॉयड यों’अर लाइफ। ऐश करो।’’

 

दौड़ के निकल जाना चाहती थी। घृणा और दुख से एक–एक कदम भारी हो रहा था। दिल का तार–तार दुख रहा था। वह कह रहा था — ‘मैं सच में तुम्हें प्यार करता हूं लेकिन और कुछ नहीं कर सकता सिवाय फोन के …

आय विल कॉल यू’ गिजगिजाती आवाज उसकी दूर तक मेरे साथ आती गयी … . पता नहीं रो रहा था या हंस रहा था … . कह रहा था रूक जाओ … . बात सुनो। सच में सोचती हो मेरे लिए तो … एक मौका दो। कुछ करूंगा … रूक जाओ।

 

उल्टे पैरों लौटी राधिका सिसकियों से कांप रही थी। मुझसे लिपट कर उसने कहा — मुझसे गलती हुयी है। मुझे यों भरोसा करके अकेले नहीं जाना चाहिये था। एक करूण वेदना से घिर आयी थी मैं, जो इसके प्रति भी था शायद उसके प्रति भी। राधिका को मैंने अपनी बाँहों में समेट लिया। नया समय है तो नयी परिस्थितियाँ आयेंगी ही सामने।

 

तू
कहती थी न हमें पड़ताल करनी है … अपने इतिहास की भी। वर्तमान की भी। हमारे समय का मनुष्य देख कितना कुचल दिया गया है।

 

हम
कहते हैं, हम स्त्रियाँ … यहाँ पुरूष भी कितना लाचार, शोषित। लेकिन इच्छायें जीवित हैं … तो बदलेगा। सब बदलेगा।

 

दरवाजा खट् से खुला। वंदना दाखिल हुयी। हम दोनों को यूं लिपटा देख दरवाजे पर ही स्थिर हो गयी। उस रात से ही मेरी नफरत झेल रही वंदना के लिये भी वही मानवीय करूण उपजी। हम तीनों कुछ देर एक दूसरे से गले से लगे रहे। बाद में, मैंने रोहित को प्रशांत का नंबर दे दिया था। वंदना का कज़िन है, पैसे फंसे हुये हैं। हो सके तो मदद कर दो।

आज वही प्रत्युत्तर दिवस था। वाट्स ऐप पर उस फ्रेंचकटनुमा दाढी वाले युवक का मैसेज था —

 ‘रौ में है रख्शे उम्र, कहां देखिये थमे

 न हाथ बाग पर है न पैर रकाब में’

 

दिल से शुक्रिया! आपके फोन से मेरा काम हो गया। यहाँ का हिसाब–किताब पूरा करके कलकत्ता वापस जा रहा हूँ। बाबूजी के बिजनेस को फिर से देखूँगा। राधिका को मेरा प्यार।

 

आय विल कॉल यू … इफ यू विश।’

मैंने तीन काम किय। इस नम्बर को ब्लॉक–लिसट में चढ़ाया। परवेज की समझदारी से पढ़ाई के ट्रैक पर वापस लौटी राधिका को कुछ न बताया और रोहित को थैंक्स का मैसेज फॉरवर्ड किया। फिर खट् की आवाज। जी धड़का। रोहित का जवाब था स्माइली के साथ — इट्स ऑलराइट बेबी। आय विल कॉल यू…!

The End







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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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