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Lal Haveli: A Story by Shivani– क़िस्सा ताहिरा और सुधा का .यह कहानी सुधा की है, जो विभाजन के दंगों में ताहिरा बन गई थी

ताहिरा ने पास के बर्थ पर सोए अपने पति को देखा और एक लंबी साँस खींचकर करवट बदल ली।

 

कंबल से ढकी रहमान अली की ऊँची तोंद गाड़ी के झकोलों से रहरहकर काँप रही थी। अभी तीन घंटे और थे। ताहिरा ने अपनी नाजुक कलाई में बँधी हीरे की जगमगाती घड़ी को कोसा, कमबख़्त कितनी देर में घंटी बजा रही थी। रातभर एक आँख भी नहीं लगी थी उसकी।

 

पास के बर्थ में उसका पति और नीचे के बर्थ में उसकी बेटी सलमा दोनों नींद में बेखबर बेहोश पड़े थे। ताहिरा घबरा कर बैठ गई।

 

क्यों गई थी वह पति के कहने में, सौ बहाने बना सकती थी! जो घाव समय और विस्मृति ने पूरा कर दिया था, उसी पर उसने स्वयं ही नश्तर रख दिया, अब भुगतने के सिवा और चारा ही क्या था 

स्टेशन ही गया था। ताहिरा ने काला रेशमी बुर्का खींच लिया। दामी सूटकेस, नए बिस्तरबंद, एयर बैग, चांदी की सुराही उतरवाकर रहमान अली ने हाथ पकड़कर ताहिरा को ऐसे सँभलकर अंदाज़ से उतारा जैसे वह काँच की गुड़िया हो, तनिकसा धक्का लगने पर टूटकर बिखर जाएगी। सलमा पहले ही कूदकर उतर चुकी थी। 

दूर से भागते, हाँफते हाथ में काली टोपी पकड़े एक नाटे से आदमी ने लपककर रहमान अली को गले से लगाया और गोद में लेकर हवा में उठा लिया। उन दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे।तो यही मामू बित्ते हैं।ताहिरा ने मन ही मन सोचा और थे भी बित्ते ही भर के।

 

बिटिया को देखकर मामू ने झट गले से लगा लिया, ‘बिल्कुल इस्मत है, रहमान।वे सलमा का माथा चूमचूमकर कहे जा रहे थे, ‘वही चेहरा मोहरा, वही नैननक्श। इस्मत नहीं रही तो खुदा ने दूसरी इस्मत भेज दी।


ताहिरा पत्थर कीसी मूरत बनी चुप खड़ी थी। उसके दिल पर जो दहकते अंगारे दहक रहे थे उन्हें कौन देख सकता था? वही स्टेशन, वही कनेर का पेड़, पंद्रह साल में इस छोटे से स्टेशन को भी क्या कोई नहीं बदल सका!

 

चलो बेटी।मामू बोले, ‘बाहर कार खड़ी है। जिला तो छोटा है, पर अल्ताफ की पहली पोस्टिंग यही हुई। इन्शाअल्ला अब कोई बड़ा शहर मिलेगा।

 

मामू के इकलौते बेटे अल्ताफ की शादी में रहमान अली पाकिस्तान से आया था, अल्ताफ को पुलिसकप्तान बनकर भी क्या इसी शहर में आना था। ताहिरा फिर मनहीमन कुढ़ी।

 

घर पहुँचे तो बूढ़ी नानी खुशी से पागलसी हो गई। बारबार रहमान अली को गले लगा कर चूमती थीं और सलमा को देखकर ताहिरा को देखना भूल गई,
या अल्लाह, यह क्या तेरी कुदरत। इस्मत को ही फिर भेज दिया।

 

दोनों बहुएँ भी बोल उठीं, ‘सच अम्मी जान, बिल्कुल इस्मत आपा हैं पर बहू का मुँह भी तो देखिए। लीजिए ये रही अशरफ़ी।और झट अशरफ़ी थमा कर ननिया सास ने ताहिरा का बुर्का उतार दिया, ‘अल्लाह, चाँद का टुकड़ा है, नन्हीं नजमा देखो सोने का दिया जला धरा है।

 

ताहिरा ने लज्जा से सिर झुका लिया। पंद्रह साल में वह पहली बार ससुराल आई थी। बड़ी मुश्किल से वीसा मिला था, तीन दिन रहकर फिर पाकिस्तान चली जाएगी, पर कैसे कटेंगे ये तीन दिन?

 

चलो बहू, उपर के कमरे में चलकर आराम करो। मैं चाय भिजवाती हूँ।कहकर नन्हीं मामी उसे ऊपर पहुँचा आई। रहमान नीचे ही बैठकर मामू से बातों में लग गया और सलमा को तो बड़ी अम्मी ने गोद में ही खींच लिया। बार बार उसके माथे पर हाथ फेरतीं, और हिचकियाँ बँध जाती, ‘मेरी इस्मत, मेरी बच्ची।

 

ताहिरा ने एकांत कमरे में आकर बुर्का फेंक दिया। बन्द खिड़की को खोला तो कलेजा धक हो गया। सामने लाल हवेली खड़ी थी। चटपट खिड़की बंद कर तख्त पर गिरतीपड़ती बैठ गई, ‘खुदायातू मुझे क्यों सता रहा हैं?’ वह मुँह ढाँपकर सिसक उठी।

 

पर क्यों दोष दे वह किसी को। वह तो जान गई थी कि हिन्दुस्तान के जिस शहर में उसे जाना है, वहाँ का एकएक कंकड़ उस पर पहाड़सा टूटकर बरसेगा।

 

उसके नेक पति को क्या पता? भोला रहमान अली, जिसकी पवित्र आँखों में ताहिरा के प्रति प्रेम की गंगा छलकती, जिसने उसे पालतू हिरनीसा बनाकर अपनी बेड़ियों से बाँध लिया था, उस रहमान अली से क्या कहती?

 

पाकिस्तान के बटवारे में कितने पिसे, उसी में से एक थी ताहिरा! तब थी वह सोलह वर्ष की कनक छड़ीसी सुन्दरी सुधा! सुधा अपने मामा के साथ ममेरी बहन के ब्याह में मुल्तान आई। दंगे की ज्वाला ने उसे फूँक दिया। मुस्लिम गुंडों की भीड़ जब भूखे कुत्तों की भाँति उसे बोटीसी चिचोड़ने को थी तब ही गया फरिश्ता बनकर रहमान अली।

 

नहीं, वे नहीं छोडेंगे, हिंदुओं ने उनकी बहूबेटियों को छोड़ दिया था क्या? पर रहमान अली की आवाज़ की मीठी डोर ने उन्हें बाँध लिया। सांवला दुबलापतला रहमान सहसा कठोर मेघ बनकर उस पर छा गया। सुधा बच गई पर ताहिरा बनकर।

 

रहमान की जवान बीवी को भी देहली में ऐसे ही पीस दिया था, वह जान बचाकर भाग आया था, बुझा और घायल दिल लेकर। सुधा ने बहुत सोचा समझा और रहमान ने भी दलीलें कीं पर पशेमान हो गया।

 

हारकर किसी ने एकदूसरे पर बीती बिना सुने ही मजबूरियों से समझौता कर लिया। ताहिरा उदास होती तो रहमान अली आसमान से तारे तोड़ लाता, वह हँसती तो वह कुर्बान हो जाता।

 

एक साल बाद बेटी पैदा हुई तो रहासहा मैल भी धुलकर रह गया। अब ताहिरा उसकी बेटी की माँ थी, उसकी किस्मत का बुलन्द सितारा। पहले कराची में छोटीसी बजाजी की दुकान थी, अब वह सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर का मालिक था।

 

दसदस सुन्दरी एंग्लो इंडियन छोकरियाँ उसके इशारों पर नाचती, धड़ाधड़ अमरीकी नायलॉन और डेकरॉन बेचतीं। दुबलापतला रहमान हवाभरे रबर के खिलौनेसा फूलने लगा। तोंद बढ़ गई। गर्दन ऐंठकर शानदार अकड़ से ऊँची उठ गई, सीना तन गया, आवाज़ में खुदखुद एक अमरीकी डौल गया।

 

पर नीलमपुखराज से जड़ी, हीरे से चमकतीदमकती ताहिरा, शीशम के हाथी दाँत जड़े छपरखट पर अब भी बेचैन करवटें ही बदलती। मार्च की जाड़े से दामन छुड़वाती हल्की गर्मी की उमस लिए पाकिस्तानी दोपहरिया में पानी से निकली मछलीसी तड़फड़ा उठती।

 

मस्तीभरे होली के दिन जो अब उसकी पाकिस्तानी ज़िन्दगी में कभी नहीं आएँगे गुलाबी मलमल की वह चुनरी उसे अभी भी याद है, अम्मा ने हल्कासा गोटा टाँक दिया था। हाथ में मोटीसी पुस्तक लिए उसका तरुण पति कुछ पढ़ रहा था।

 

घुँघराली लटों का गुच्छा चौड़े माथे पर झुक गया था, हाथ की अधजली सिगरेट हाथ में ही बुझ गई थी। गुलाबी चुनरी के गोटे की चमक देखते ही उसने और भी सिर झुका दिया था, चुलबुली सुन्दरी बालिका नववधू से झेंप झेंपकर रह जाता था, बेचारा।

 

पीछे से चुपचाप कर सुधा ने दोनों गालों पर अबीर मल दिया था और झट चौके में घुसकर अम्मा के साथ गुझिया बनाने में जुट गई थी। वहीं से सास की नज़र बचाकर भोली चितवन से पति की ओर देख चट से छोटीसी गुलाबी जीभ निकालकर चिढ़ा भी दिया था, उसने।

 

जब वह मुल्तान जाने को हुई तो कितना कहा था उन्होंने,
सुधा मुल्तान मत जाओ।पर वह क्या जानती थी कि दुर्भाग्य का मेघ उस पर मंडरा रहा है? स्टेशन पर छोड़ने आए थे, इसी स्टेशन पर।

 

यही कनेर का पेड़ था, यही जंगला। मामाजी के साथ गठरीसी बनी सुधा को घूँघट उठाने का अवकाश नहीं मिला। गाड़ी चली तो साहस कर उसने घूंघट जरासा खिसकाकर अंतिम बार उन्हें देखा था। वही अमृत की अंतिम घूँट थी।

 

सुधा तो मर गई थी, अब ताहिरा थी। उसने फिर काँपते हाथों से खिड़की खोली, वही लाल हवेली थी उसके श्वसुर वकील साहब की। वही छत पर चढ़ी रात की रानी की बेल, तीसरा कमरा जहाँ उसके जीवन की कितनी रसभरी रातें बीती थीं, जाने क्या कर रहे होंगे, शादी कर ली होगी, क्या पता बच्चों से खेल रहें हों! आँखे फिर बरसने लगीं और एक अनजाने मोह से वह जूझ उठी।

 

ताहिरा, अरे कहाँ हो?’ रहमान अली का स्वर आया और हडबड़ाकर आँखे पोंछ ताहिरा बिस्तरबंद खोलने लगी। रहमान अली ने गीली आँखे देखीं तो घुटना टेक कर उसके पास बैठ गया, ‘बीवी, क्या बात हो गई? सिर तो नहीं दुख रहा है।

 

चलोचलो, लेटो चलकर। कितनी बार समझाया है कि यह सब काम मत किया करो, पर सुनता कौन है! बैठो कुर्सी पर, मैं बिस्तर खोलता हूँ।मखमली गद्दे पर रेशमी चादर बिछाकर रहमान अली ने ताहिरा को लिटा दिया और शरबत लेने चला गया।

 

सलमा आकर सिर दबाने लगी, बड़ी अम्मा ने आकर कहा,
नज़र लग गई है, और क्या।नहीं नजमा ने दहकते अंगारों पर चून और मिर्च से नज़र उतारी। किसी ने कहा, ‘दिल का दौरा पड़ गया, आंवले का मुरब्बा चटाकर देखो।

 

लाड और दुलार की थपकियाँ देकर सब चले गए। पास में लेटा रहमान अली खर्राटे भरने लगा। तो दबे पैरों वह फिर खिड़की पर जा खड़ी हुई। बहुत दिन से प्यासे को जैसे ठंडे पानी की झील मिल गई थी, पानी पीपीकर भी प्यास नहीं बुझ रही थी।

 

तीसरी मंज़िल पर रोशनी जल रही थी। उस घर में रात का खाना देर से ही निबटता था। फिर खाने के बाद दूध पीने की भी तो उन्हें आदत थी। इतने साल गुज़र गए, फिर भी उनकी एकएक आदत उसे दो के पहाड़े की तरह जुबानी याद थी।

 

सुधा, सुधा कहाँ है तू? उसका हृदय उसे स्वयं धिक्कार उठा, तूने अपना गला क्यों नहीं घोंट दिया? तू मर क्यों नहीं गई, कुएँ में कूदकर? क्या पाकिस्तान के कुएँ सूख गए थे? तूने धर्म छोड़ा पर संस्कार रह गए, प्रेम की धारा मोड़ दी, पर बेड़ी नहीं कटी, हर तीज, होली, दीवाली तेरे कलेजे पर भाला भोंककर निकल जाती है।

 

हर ईद तुझे खुशी से क्यों नहीं भर देती? आज सामने तेरे ससुराल की हवेली है, जा उनके चरणों में गिरकर अपने पाप धो ले। ताहिरा ने सिसकियाँ रोकने को दुपट्टा मुँह में दबा लिया।

 

रहमान अली ने करवट बदली और पलंग चरमराया। दबे पैर रखती ताहिरा फिर लेट गई। सुबह उठी तो शहनाइयाँ बज रही थीं, रेशमी रंगबिरंगी गराराकमीज अबरखी चमकते दुपट्टे, हिना और मोतिया की गमक से पूरा घर महमहकर रहा था।

 

पुलिस बैंड तैयार था, खाकी वर्दियाँ और लाल तुर्रम के साफे सूरज की किरनों से चमक रहे थे। बारात में घर की सब औरतें भी जाएँगी। एक बस में रेशमी चादर तानकर पर्दा खींच दिया गया था।

 

लड़कियाँ बड़ीबड़ी सुर्मेदार आंखों से नशासा बिखेरती एक दुसरे पर गिरतीपड़ती बस पर चढ़ रही थीं। बड़ीबुढ़ियाँ पानदान समेटकर बड़े इत्मीनान से बैठने जा रही थीं और पीछेपीछे ताहिरा काला बुर्का ओढ़कर ऐसी गुमसुम चली जा रही थी जैसे सुधबुध खो बैठी हो।

 

ऐसी ही एक सांझ को वह भी दुल्हन बनकर इसी शहर आई थी, बस में सिमटीसिमटाई लाल चुनर से ढ़की।

 

आज था स्याह बुर्का, जिसने उसका चेहरा ही नहीं, पूरी पिछली जिन्दगी अंधेरे में डुबाकर रख दी थी।

 

अरे किसी ने वकील साहब के यहां बुलौआ भेजा या नहीं?’

बड़ी अम्मी बोलीं ओर ताहिरा के दिल पर नश्तर फिरा।

दे दिया अम्मी।मामूजान बोले,
उनकी तबीयत ठीक नहीं है, इसी से नहीं आए।

बड़े नेक आदमी हैंबड़ी अम्मी ने डिबिया खोलकर पान मुंह में भरा,

 

फिर छाली की चुटकी निकाली और बोली, ‘शहर के सबसे नामी वकील के बेटे हैं पर आस औलाद। सुना एक बीवी दंगे में मर गई तो फिर घर ही नहीं बसाया।

 

बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ, चांदसी दुल्हन आई। शाम को पिक्चर का प्रोग्राम बना। नया जोड़ा, बड़ी अम्मी, लड़कियाँ, यहाँ तक कि घर की नौकरानियाँ भी बनठनकर तैयार हो गई। पर ताहिरा नहीं गई, उसका सिर दुख रहा था।

 

बे सिरपैर के मुहब्बत के गाने सुनने की ताकत उसमें नहीं थी। अकेले अंधेरे कमरे में वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती थी
हिन्दुस्तान, प्यारे हिन्दुस्तान की आखिरी साँझ।

 

जब सब चले गए तो तेज बत्ती जलाकर वह आदमकद आईने के सामने खड़ी हो गई। समय और भाग्य का अत्याचार भी उसका अलौकिक सौंदर्य नहीं लूट सका।

 

वह बड़ीबड़ी आँखें, गोरा रंग और संगमरमरसी सफेद देह
कौन कहेगा वह एक जवान बेटी की माँ है? कहीं पर भी उसके पुष्ट यौवन ने समय से मुँह की नहीं खाई थी। कल वह सुबह चार बजे चली जाएगी।

 

जिस देवता ने उसके लिए सर्वस्व त्याग कर वैरागी का वेश धर लिया है, क्या एक बार भी उसके दर्शन नहीं मिलेंगे? किसी शैताननटखट बालक की भाँति उसकी आँखे चमकने लगीं।

 

झटपट बुर्का ओढ़, वह बाहर निकल आई, पैरों में बिजली की गति गई, पर हवेली के पास आकर वह पसीनापसीना हो गई। पिछवाड़े की सीढ़ियाँ उसे याद थीं जो ठीक उनके कमरे की छोटी खिड़की के पास अकर ही रुकती थीं।

 

एकएक पैर दस मन का हो गया, कलेजा फटफट कर मुंह को गया, पर अब वह ताहिरा नहीं थी, वह सोलह वर्ष पूर्व की चंचल बालिका नववधू सुधा थी जो सास की नज़र बचाकर तरुण पति के गालों पर अबीर मलने जा रही थी।

 

मिलन के उन अमूल्य क्षणों में सैयद वंश के रहमान अली का अस्तित्व मिट गया था। आखिरी सीढ़ी आई, सांस रोककर, आँखे मूँद वह मनाने लगी, ‘हे बिल्वेश्वर महादेव, तुम्हारे चरणों में यह हीरे की अँगूठी चढ़ाऊँगी, एक बार उन्हें दिखा दो पर वे मुझे देखें।


बहुत दिन बाद भक्त भगवान का स्मरण किया था, कैसे सुनते? आँसुओं से अंधी ने देवता को देख लिया। वही गंभीर मुद्रा, वही लट्ठे का इकबर्रा पाजामा और मलमल का कुर्ता। मेज़ पर अभागिन सुधा की तस्वीर थी जो गौने पर बड़े भय्या ने खींची थी।

 

जी भरकर देख पगली और भाग जा, भाग ताहिरा, भाग! ‘ उसके कानों में जैसे स्वयं भोलानाथ गरजे।

 

सुधा फिर डूब गई, ताहिरा जगी। सब सिनेमा से लौटने को होंगे। अंतिम बार आँखों ही आँखों में देवता की चरणधूलि लेकर वह लौटी और बिल्वेश्वर महादेव के निर्जन देवालय की ओर भागी। जाने कितनी मनौतियाँ माँगी थीं, इसी देहरी पर।

 

सिर पटककर वह लौट गई, आँचल पसारकर उसने आखिरी मनौती माँगी, ‘हे भोलेनाथ, उन्हें सुखी रखना। उनके पैरों में काँटा भी गड़े।हीरे की अँगूठी उतारकर चढ़ा दी और भागतीहाँफती घर पहुँची।

 

रहमान अली ने आते ही उसका पीला चेहरा देखा तो नब्ज़ पकड़ ली,
देखूँ, बुखार तो नहीं है, अरे अँगूठी कहाँ गई?’ वह अँगूठी रहमान ने उसे इसी साल शादी के दिन यादगार में पहनाई थी।

 

जाने कहाँ गिर गई?’ थके स्वर में ताहिरा ने कहा।

 

कोई बात नहींरहमान ने झुककर ठंडी बर्फ़सी लंबी अँगुलियों को चूमकर कहा, ‘ये अँगुलियाँ आबाद रहें। इन्शाअल्ला अब के तेहरान से चौकोर हीरा मँगवा लेंगे।

 

ताहिरा की खोई दृष्टि खिड़की से बाहर अंधेरे में डूबती लाल हवेली पर थी, जिसके तीसरे कमरे की रोशनी दपसेबुझ गई थी। ताहिरा ने एक सर्द साँस खींचकर खिड़की बन्द कर दी।

लाल हवेली अंधेरे में गले तक डूब चुकी थी।

The End

 

 

  

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