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चौथी का जोड़ा: कहानी एक बेवा मां की क्या-क्या नहीं किया बी-अम्मां ने बेटी कुबरा की शादी के लिए… पर क्या कुबरा की शादी हो पाई? (लेखिका: इस्मत चुग़ताई)

by Engr. Maqbool Akram
April 25, 2022
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सहदरी के चौके पर आज फिर साफ़–सुथरी जाजम बिछी थी. टूटी–फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े–तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे. मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई–सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बड़ी वारदात होने वाली हो.

 

मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिए थे. कभी–कभी कोई मुनहन्नी–सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता. नांय–नांय मेरे लाल! दुबली–पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान–मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर ख़ामोश हो जाता.

 

आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफ़क्किर चेहरे को तक रही थीं. छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड़ लिए गए, मगर अभी सफ़ेद गजी का निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पड़ती थी. कांट–छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था. उनके सूखे–सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी–छूछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे.

 

जहां कहीं मुहल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता. कुबरा की मां कपड़े के कान निकालती, कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप–तोलकर मुस्कुरा उठतीं.


आस्तीन और घेर तो निकल आएगा, गिरेबान के लिए कतरन मेरी बकची से ले लो. और मुश्क़िल आसान हो जाती. कपड़ा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकड़ा देतीं.

 

पर आज तो गज़ी टुकड़ा बहुत ही छोटा था और सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप–तोल हार जाएगी. तभी तो सब दम साधे उनका मुंह ताक रही थीं. कुबरा की मां के पुर–इसतकक़ाल चेहरे पर फ़िक्र की कोई शक्ल न थी.

 

चार गज गज़ी के टुकड़े वो निगाहों से ब्योंत रही थीं. लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं ज़र्द चेहरे पर शफ़क की तरह फूट रहा था. वो उदास–उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गईं, जैसे जंगल में आग भड़क उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठाई.

 

मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी. गोद के बच्चे भी ठसक दिए गए. चील–जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए. नई ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिए. कुबरा की मां की कैंची चल पड़ी थी.

 

सहदरी के आख़िरी कोने में पलंगड़ी पर हमीदा पैर लटकाए, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी.

 

दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी–अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपड़ों का जाल बिखेर दिया करती है. कुंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपड़ों को देखती तो एक सुर्ख़ छिपकली–सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती.

 

रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले–पोले हाथों से खोलकर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता. गहरी सन्दूकों–जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं–नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता. हर टांके पर ज़री का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं.

 

याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने–टके तैयार हुए और गाज़ी के भारी क़ब्र–जैसे सन्दूक की तह में डूब गए. कटोरियों के जाल धुंधला गए. गंगा–जमनी किरने मन्द पड़ गईं. तूली के लच्छे उदास हो गए. मगर कुबरा की बारात न आई.

जब एक जोड़ा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोड़ा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नए जोड़े के साथ नई उम्मीदों का इफ़तताह (शुरूआत) हो जाता. बड़ी छानबीन के बाद नई दुल्हन छांटी जाती. सहदरी के चौके पर साफ़–सुथरी जाजम बिछती. मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाए झांझे बजाती आन पहुंचतीं.

 

ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड़ देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरू हो जातीं. ऐसे मौक़े पर कुंवारी–बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं.अल्लाह! ये कहकहे उन्हें ख़ुद कब नसीब होंगे.

 

इस चहल–पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाए बैठी रहती है. इतने में कतर–ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुंच जाती. कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती. कुबरा सहम कर दरवाज़े की आड़ से झांकती.

 

यही तो मुश्क़िल थी, कोई जोड़ा अल्लाह–मारा चैन से न सिलने पाया. जो कली उल्टी कट जाए तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में ज़रूर कोई अड़ंगा लगेगा. या तो दूल्हा की कोई दाश्त (रखैल) निकल आएगी या उसकी मां ठोस कड़ों का अड़ंगा बांधेगी.

 

जो गोट में कान आ जाए तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगड़ा होगा. चौथी के जोड़े का शगुन बड़ा नाज़ुक होता है. बी–अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघड़ापा धरा रह जाता. न जाने ऐन वक़्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड़ जाती.

 

और जब से अब्बा गुज़रे, सलीके का भी दम फूल गया. हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गए. अब्बा कितने दुबले–पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खड़े होना दुश्वार था. सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक (दातुन) तोड़ लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते.

 

फिर सोचते–सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसड़ा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते. हमीदा बिगड़ कर उनकी गोद से उतर जाती. खांसी के धक्कों से यूं हिल–हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था.

 

उसके नन्हें–से ग़ुस्से पर वे और हंसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन–कटे कबूतर फड़फड़ा रहे हों. फिर बी–अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं. पीठ पर धपधप हाथ मारतीं.

Ismat Chughtai–Writer of this story 

तौबा है, ऐसी भी क्या हंiAsmat Chughtaiसी. अच्छू के दबाव से सुर्ख़ आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते. खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते. कुछ दवा–दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे. बड़े शफ़ाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज़ तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन.

 

ए खाक पड़े इन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी. दिखाऊंगा. अब्बा हुक्का गुड़गुड़ाते और फिर अच्छू लगता. आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है. जवान बेटी की तरफ़ भी देखते हो आंख उठा कर?

 

और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ़ रहम–तलब निगाहों से देखते. कुबरा जवान थी. कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह (विद्यारम्भ की रस्म) के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गई थी.

 

न जाने कैसी जवानी आई थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुख़सारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफ़ान उठे और न कभी उसने सावन–भादों की घटाओं से मचल–मचल कर प्रीतम या साजन मांगे. वो झुकी–झुकी, सहमी–सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आई, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी.

 

 मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कड़वा हो गया.अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिए किसी हक़ीम या डॉक्टर का नुस्ख़ा काम न आ सका.

***

और हमीदा ने मीठी रोटी के लिए ज़िद करनी छोड़ दी. और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गए. जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आख़िरी सिसकियां ले रही है और एक नई जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है. मगर बी–अम्मां का दस्तूर न टूटा. वो इसी तरह रोज़–रोज़ दोपहर को सहदरी में रंग–बिरंगे कपड़े फैला कर गुड़ियों का खेल खेला करती हैं.

 

कहीं
न कहीं से जोड़ जमा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढ़े सात रुपए में ख़रीद ही डाला. बात ही ऐसी थी कि बगैर ख़रीदे गुज़ारा न था. मंझले मामू का तार आया कि उनका बड़ा लड़का राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है.

 

बी–अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड़ गया. जानो चौखट पर बारात आन खड़ी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफ़शां भी नहीं कतरी. हौल से तो उनके छक्के छूट गए. झट अपनी मुंहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुंह देखो जो इस घड़ी न आओ.

 

और फिर दोनों में खुसर–पुसर हुई. बीच में एक नज़र दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी. वो इस कानाफूसी की ज़ुबान को अच्छी तरह समझती थी.

 

उसी वक्त बी–अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुंहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे–तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा–सितारा और पाव गज नेफे के लिए टूल ला दें. बाहर की तरफ़ वाला कमरा झाड़–पोंछ कर तैयार किया गया.

 

थोड़ा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला. कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड़ गई. और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गई. सारी रात करवटें बदलते गुज़री. एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाड़ी से राहत आ रहे थे.

 

अल्लाह!
मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाए. मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल (एक प्रकार की नमाज) तेरी दरगाह में पढ़ूंगी. हमीदा ने फजिर की नमाज पढ़कर दुआ मांगी.

 

सुबह जब राहत भाई आए तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी. जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गए तो धीरे–धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिए.

 

लाओ मैं धो दूं बी आपा. हमीदा ने शरारत से कहा. नहीं. वो शर्म से झुक गईं. हमीदा छेड़ती रही, बी–अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं.

 

जिस रास्ते कान की लौंग गई थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं. और फिर हाथों की दो–दो चूड़ियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं. रूखी–सूखी ख़ुद खाकर आए दिन राहत के लिए परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते. ख़ुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं.

 

ज़माना बड़ा ख़राब है बेटी! वो हमीदा को मुंह फुलाए देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती–हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं. बी–आपा सुबह–सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं. निहार मुंह पानी का घूंट पीकर राहत के लिए परांठे तलती हैं.

 

दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी मलाई पड़े. उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे. और क्यों न भरे, आख़िर को वह एक दिन उसीका हो जाएगा. जो कुछ कमाएगा, उसी की हथेली पर रख देगा. फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?

 

फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुंह पर कैसा जूता पड़ेगा! और उस ख़याल ही से बी–आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता. कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाड़तीं.

 

उसके कपड़ों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों. वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सड़े हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ़ करतीं. उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिए के गिलाफ़ पर स्वीट ड्रीम्स काढ़तीं.

 

पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था. राहत सुबह अण्डे–परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता. और बी–अम्मां की मुंहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर–पुसर करतीं.

 

बड़ा शर्मीला है बेचारा! बी–अम्मां तौलिए पेश करतीं. हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग–ढंग से, कुछ आंखों से. अए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लड़ाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने. बी–अम्मां फ़ख्र से कहतीं. ए, तो परदा तुड़वाने को कौन कहे है! बी–आपा के पके मुंहासों को देखकर उन्हें बी–अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पड़ती.

 

ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो. ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोड़ी कौन सी बकरीद को काम आएगी? वो मेरी तरफ़ देख कर हंसतीं अरी ओ नकचढ़ी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी–मज़ाक! उंह अरे चल दीवानी! ऐ, तो मैं क्या करूं खाला? राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती? भइया हमें तो शर्म आती है.

 

ए है, वो तुझे फाड़ ही तो खाएगा न? बी अम्मां चिढ़ा कर बोलतीं. नहीं तो मगर मैं लाजवाब हो गई. और फिर मिसकोट हुई. बड़ी सोच–विचार के बाद खली के कबाब बनाए गए. आज बी–आपा भी कई बार मुस्कुरा पड़ीं. चुपके से बोलीं, देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड़ जाएगा. नहीं हंसूंगी. मैंने वादा किया.

 

खाना खा लीजिए. मैंने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा. फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक़्त मेरी तरफ़ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से. अल्लाह, तौबा! क्या ख़ूनी आंखें हैं! जा निगोड़ी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुंह बनाते हैं.

 

ए है, सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा. आपा–बी ने एक बार मेरी तरफ़ देखा. उनकी आंखों में इल्तिज़ा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोड़ों की मन्द उदासी. मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खड़ी हो गई.

 

राहत ख़ामोशी से खाते रहे. मेरी तरफ़ न देखा. खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिए था कि मज़ाक उड़ाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो! मगर जानो किसी ने मेरा नखरा दबोच लिया हो.

 

बी–अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं. अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मज़े से खा रहा है कमबख्त! राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आए? बी–अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा. जवाब नदारद. बताइए न? अरी ठीक से जाकर पूछ! बी–अम्मां ने टहोका दिया. आपने लाकर दिए और हमने खाए.

 

मज़ेदार ही होंगे. अरे वाह रे जंगली! बी–अम्मां से न रहा गया. तुम्हें पता भी न चला, क्या मज़े से खली के कबाब खा गए! खली के? अरे तो रोज़ काहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का.

 

बी–अम्मां का मुंह उतर गया. बी–अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं. दूसरे रोज़ बी–आपा ने रोज़ाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गई तो बोले–कहिए आज क्या लाई हैं? आज तो लकड़ी के बुरादे की बारी है.

 

क्या
हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? मैंने जलकर कहा. ये बात नहीं, कुछ अजीब–सा मालूम होता है. कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी. मेरे तन बदन में आग लग गई. हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें. घी टपकते परांठे ठुसाएं. मेरी बी–आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं. मैं भन्ना कर चली आई.

 

बी–अम्मां की मुंहबोली बहन का नुस्ख़ा काम आ गया और राहत ने दिन का ज़्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरू कर दिया. बी–आपा तो चूल्हे में झुकी रहतीं, बी–अम्मां चौथी के जोड़े सिया करतीं और राहत की गलीज आंखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते.

 

बात–बेबात छेड़ना, खाना खिलाते वक़्त कभी पानी तो कभी नमक के बहाने. और साथ–साथ जुमलेबाज़ी! मैं खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती. जी चाहता, किसी दिन साफ़ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना–घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जाएगा.

 

मगर बी–आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उड़ती हुई राख नहीं मेरा कलेजा धक् से हो गया. मैंने उनके सफ़ेद बाल लट के नीचे छुपा दिए. नास जाए इस कमबख़्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरू हो गए.

 

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा. उंह! मैं जल गई. पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पड़ा. आप हमसे खफ़ा हो गईं? राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड़ ली. मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर.

 

क्या कह रहे थे? बी–आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज़ में कहा. मैं चुपचाप उनका मुंह ताकने लगी. कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह–वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं. पकानेवाली के हाथ खा जाऊं.

 

ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं. मैं ने जल्दी–जल्दी कहना शुरू किया और बी–आपा का खुरदरा, हल्दी–धनिया की बसांद में सड़ा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया. मेरे आंसू निकल आए.

 

ये हाथ! मैंने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज़ काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ़ करते हैं! ये बेकस ग़ुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं.

 

इनकी बेगार कब ख़त्म होगी? क्या इनका कोई ख़रीदार न आएगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेहंदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, ज़ोर से चीख पडूं.

 

और क्या कह रहे थे? बी–आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज इतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ जैसा पेट था! और कह रहे थे, अपनी बी–आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें.

 

चल झूठी! अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो अरे, चुप मुरदार! उन्होंने मेरा मुंह बन्द कर दिया. देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ. पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो. नहीं बी–आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर. तुम्हारी इन मुट्ठीभर हड्डियों को स्वेटर की कितनी ज़रूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी. आपा–बी, तुम ख़ुद क्या पहनोगी? अरे, मुझे क्या ज़रूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है.

 

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई–ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा–क्या ये स्वेटर आपने बुना है? नहीं तो. तो भई हम नहीं पहनेंगे. मेरा जी चाहा कि उसका मुंह नोच लूं. कमीने मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते–जागते ग़ुलाम हैं.

 

इसके एक–एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं. ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोड़े झुलाने के लिए बनाए गए हैं. उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बड़े से बड़े तूफ़ान के थपेड़ों से तुम्हारी ज़िंदगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे. ये सितार की गत न बजा सकेंगे.

 

मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढ़ाने के लिए सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं. तुम्हारी गलाजतें धोते हैं. इनमें चूड़ियां नहीं खनकती हैं. इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा.

 

मगर मैं चुप रही. बी–अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग़ तो मेरी नई–नई सहेलियों ने ख़राब कर दिया है. वो मुझे कैसी नई–नई बातें बताया करती हैं. कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें. धड़कते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें.

 

ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिए. देखिए न आपका कुरता कितना बारीक़ है! जंगली बिल्ली की तरह मैंने उसका मुंह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगड़ी पर जा गिरी. बी–आपा ने आख़िरी रोटी डालकर जल्दी–जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पोंछती मेरे पास आ बैठीं. वो बोले? उनसे न रहा गया तो धड़कते हुए दिल से पूछा.

 

बी–आपा, ये राहत भाई बड़े ख़राब आदमी हैं. मैंने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी. क्यों? वो मुस्कुराई. मुझे अच्छे नहीं लगते देखिए मेरी सारी चूड़ियां चूर हो गईं! मैंने कांपते हुए कहा. बड़े शरीर हैं! उन्होंने रोमैंटिक आवाज़ में शरमा कर कहा. बी–आपा, सुनो बी–आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं, मैंने सुलग कर कहा. आज मैं बी–अम्मां से कह दूंगी.

 

क्या हुआ? बी–अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा. देखिए मेरी चूड़ियां बी–अम्मां! राहत ने तोड़ डालीं? बी–अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं. हां! ख़ूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है. ऐ है, तो दम काहे को निकल गया! बड़ी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गईं!

 

फिर चुमकार कर बोलीं, ख़ैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी! ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली. मुंहबोली बहन से फिर कॉनफ्रेन्स हुई और मामले को उम्मीद–अफ़्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद ख़ुशनूदी से मुस्कुराया गया.

 

ऐ है, तू तो बड़ी ही ठस है. ऐ हम तो अपने बहनोइयों का ख़ुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे. और वो मुझे बहनोइयों से छेड़छाड़ के हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ़ छेड़छाड़ क़े तीरन्दाज़ नुस्ख़े से उन दो ममेरी बहनों की शादी कराई, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौक़े हाथ से निकल चुके थे.

 

एक तो उनमें से हकीम जी थे. जहां बेचारे को लड़कियां–बालियां छेड़तीं, शरमाने लगते और शरमाते – शरमाते एख्तेलाज के दौरे पड़ने लगते. और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे ग़ुलामी में ले लीजिए. दूसरे वायसराय के दफ़्तर में क्लर्क थे. जहां सुना कि बाहर आए हैं, लड़कियां छेड़ना शुरू कर देती थीं. कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया.

 

ए लो, वो तो रोज़ आने लगे. आंधी आए, पानी आए, क्या मजाल जो वो न आएं. आख़िर एक दिन कहलवा ही दिया. अपने एक जान – पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो. पूछा कि भई किससे? तो कहा, किसी से भी करा दो. और ख़ुदा झूठ न बुलवाए तो बड़ी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है.

 

छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम. पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ़्तर में नौकरी अलग दिलवाई. हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बड़े साहब के दफ़्तर की नौकरी, उसे लड़का मिलते देर लगती है? बी–अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा. ये बात नहीं है बहन. आजकल लड़कों का दिल बस थाली का बैंगन होता है. जिधर झुका दो, उधर ही लुढ़क जाएगा.

 

मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा–खासा पहाड़ है. झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैंने सोचा. फिर मैंने आपा की तरफ़ देखा. वो ख़ामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंध रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं. उनका बस चलता तो ज़मीन की छाती फाड़कर अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं.

 

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं. मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी–कपड़े का सवाल बन कर उभरा है. वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं. इस बोझ को ढकेलना ही होगा.

 

मगर इशारों–कनायों के बावजूद राहत मियां न तो ख़ुद मुंह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया. थक हार कर बी–अम्मां ने पैरों के तोड़े गिरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली. दोपहरभर मुहल्ले–टोले की लड़कियां सहन में ऊधम मचाती रहीं.

 

 बी–आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने ख़ून की आख़िरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं. बी–अम्मां कमज़ोरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोड़े में आख़िरी टांके लगाती रहीं. आज उनके चेहरे पर मंज़िलों के निशान थे. आज मुश्किलकुशाई होगी.

 

बस आंखों की सुईयां रह गई हैं, वो भी निकल जाएंगी. आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्क़िल थरथरा रही थी. बी–आपा की सहेलियां उनको छेड़ रही थीं और वो ख़ून की बची–खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं. आज कई रोज़ से उनका बुख़ार नहीं उतरा था.

 

थके हारे दिए की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता. इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया. अपना आंचल हटा कर नियाज़ के मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी. इस पर मौलवी साहब ने दम किया है. उनकी बुख़ार से दहकती हुई गरम–गरम सांसें मेरे कान में लगीं.

 

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी–मौलवी साहब ने दम किया है. ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जाएगा. वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे ख़ून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लाएगा. मेरे कानों में शादियाने बजने लगे.

 

मैं भागी–भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं. दूल्हे के मुंह पर लम्बा सा सेहरा पड़ा है, जो घोड़े की अयालों को चूम रहा है. चौथी का शहानी जोड़ा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता–आहिस्ता क़दम तोलती हुई बी–आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोड़ा झिलमिल कर रहा है.

 

बी–अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी–आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं. शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है. ये सब तेरी मेहनत का फल है. बी–आपा कह रही हैं.

 

हमीदा का गला भर आया जाओ न मेरी बहनों! बी–आपा ने उसे जगा दिया और चौंककर ओढ़नी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढ़ी की तरफ़ बढ़ी. ये मलीदा, उसने उछलते हुए दिल को क़ाबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आई हो.

 

फिर पहाड़ खिसका और मुंह खोल दिया. वो एक कदम पीछे हट गई. मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो. कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर सने राहत के मुंह की तरफ़ बढ़ा दिया.

 

एक झटके से उसका हाथ पहाड़ की खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों में एक बड़ी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा. नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने ज़मीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गई. बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू–बेटियां मुश्किलकुशा (हज़रत अली) की शान में गीत गा रही थीं.

***

सुबह की गाड़ी से राहत मेहमांनवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया. उसकी शादी की तारीख़ तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी. उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गए, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने.

 

दिक जो एक अरसे से बी–आपा की ताक में भागी पीछे–पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी. और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया.

 

और फिर उसी सहदरी में साफ़–सुथरी जाजम बिछाई गई. मुहल्ले की बहू–बेटियां जुटीं. कफ़न का सफ़ेद–सफ़ेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी–अम्मां के सामने फैल गया. तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था. बायीं आई–ब्रो फड़क रही थी. गालों की सुनसान झुर्रियां भांय–भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों.

 

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गईं. आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा–भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यक़ीन हो कि दूसरे जोड़ों की तरह चौथी का यह जोड़ा न सेंता जाए.

 

एकदम सहदरी में बैठी लड़कियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं. हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली. लाल टूल पर सफ़ेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्ख़ी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफ़ेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफ़न की सफ़ेदी डूब कर उभरी है.

 

और फिर सब एकदम ख़ामोश हो गए. बी–अम्मां ने आख़िरी टांका भरके डोरा तोड़ लिया. दो मोटे–मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रेंगने लगे. उनके चेहरे की शिकनों में से रौशनी की किरणें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोड़ा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी.

The End




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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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