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अहमद फराज: एक रूमानी शायर जिसके बिना अधूरी है उर्दू शायरी “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ”– का अहमद फराज

by Engr. Maqbool Akram
November 24, 2023
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अहमद फ़राज़ को मुहब्बत का रूमानी शायर कहना ग़लत न होगा. उनके कलाम में मुहब्बत अपने शो़ख रंग में नज़र आती है

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 

सुना है रब्त है उस को ख़राब–हालों से 

सो अपने आप को बरबाद कर के देख…

 

ये लाइनें किसी तआरुफ़ की मोहताज नहीं है. इन लाइनों को लिखने वाले शायर हैं अहमद फराज़.

अहमद फराज़ मतलब उर्दू अदब की वो दुनिया जिनके बगैर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों अधूरे हैं. दुनिया के किसी भी मुल्क की बात कर लें वो मुल्क अहमद फराज़ के बिना मुकम्मल नहीं, जहां के लोग शेरो शेरो–शायरी में दिलचस्पी रखते हैं.

 

शायरी जज्बातों की दुनिया है। इसमें हर जज्बात को कलमबंद किया गया है। शायरी में जहां मुहब्‍बत, दर्द से लबरेज जज्बातों को जगह मिली है. वहीं इसमें इंसानी जिंदगी के दूसरे पहलुओं को भी खूबसूरती के साथ जगह दी गई है। ऐसे ही उम्दा शायरों में शुमार हैं अहमद फराज, जिनकी गजलों और नज्मों में गम बरबस झलकता है।

 

12 जनवरी 1931 को कोहाट (पाकिस्तान) में जन्मे अहमद फ़राज़ की लेखन यात्रा बहुत कम उम्र से ही शुरू हो गई थी.

मोहब्बत पर लिखी गईं अहमद फ़राज़ की गज़लें और नज़्में इच्छा और मन की पीड़ा को खूबसूरती से परिभाषित करती हैं. असफल प्यार और भावनात्मक पूर्ति की आकांक्षा की व्यथा को चित्रित करते हुए फ़राज़ ने संवेदनशीलता के साथ प्रेम संबंधों के उत्साह और दुखों को भी अपनी ग़ज़लों में प्रकट किया है.

 

अहमद
फ़राज़ उर्दू अदब की मक़बूल हस्तियों में से एक हैं जो मुशायरों की जान हुआ करते थे। प्रस्तुत हैं उनकी (10) कुछ चुनिंदा गज़लें.

(1) रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

 

कुछ तो मिरे पिंदार–ए–मोहब्बत का भरम रख

तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

 

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो

रस्म–ओ–रह–ए–दुनिया ही निभाने के लिए आ

 

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

 

इक उम्र से हूं लज़्ज़त–ए–गिर्या से भी महरूम

ऐ राहत–ए–जां मुझ को रुलाने के लिए आ

 

अब तक दिल–ए–ख़ुश–फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें

ये आख़िरी शम’एं भी बुझाने के लिए आ

 

(2) अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

 

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती

ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

 

ग़म–ए–दुनिया भी ग़म–ए–यार में शामिल कर लो

नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

 

तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा

दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

 

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों प

क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिले

 

अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़‘

जैसे दो साए तमन्ना के सराबों में मिलें 

(3) इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ

क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ

 

तू भी हीरे से बन गया पत्थर

हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

 

तू कि यकता था बे–शुमार हुआ

हम भी टूटें तो जा–ब–जा हो जाएँ

 

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें

फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ

 

हम अगर मंज़िलें न बन पाए

मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ

 

देर से सोच में हैं परवाने

राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ

 

इश्क़ भी खेल है नसीबों का

ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ

 

अब के गर तू मिले तो हम तुझ से

ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ

 

बंदगी हम ने छोड़ दी है ‘फ़राज़‘

क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

(4) सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

 

सुना है रब्त है उस को ख़राब–हालों से

सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म–ए–नाज़ उस की

सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं

 

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़

सो हम भी मो‘जिज़े अपने हुनर के देखते हैं

 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं

ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है

सितारे बाम–ए–फ़लक से उतर के देखते हैं

 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं

सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

 

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें

सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की

सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

 

सुना है उस की सियह–चश्मगी क़यामत है

सो उस को सुरमा–फ़रोश आह भर के देखते हैं

 

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं

सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

 

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की

जो सादा दिल हैं उसे बन–सँवर के देखते हैं

 

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में

मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं

 

सुना है चश्म–ए–तसव्वुर से दश्त–ए–इम्काँ में

पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं

 

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है

कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

 

वो सर्व–क़द है मगर बे–गुल–ए–मुराद नहीं

कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

 

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का

सो रह–रवान–ए–तमन्ना भी डर के देखते हैं

 

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त

मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

 

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं

चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

 

किसे नसीब कि बे–पैरहन उसे देखे

कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं

 

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही

अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

 

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ

‘फ़राज़‘ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

(5) ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते

ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते

जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते

 

अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं

मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते

 

कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं

कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते

 

शाइस्तगी–ए–ग़म के सबब आँखों के सहरा

नमनाक तो हो जाते हैं जल–थल नहीं होते

 

कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम–ए–जाँ में

कुछ याद–जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते

 

उश्शाक़ के मानिंद कई अहल–ए–हवस भी

पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते

 

सब ख़्वाहिशें पूरी हों ‘फ़राज़‘ ऐसा नहीं है

जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते

(6) चल निकलती हैं ग़म–ए–यार से बातें क्या क्या

चल निकलती हैं ग़म–ए–यार से बातें क्या क्या

हम ने भी कीं दर–ओ–दीवार से बातें क्या क्या

 

बात बन आई है फिर से कि मेरे बारे में

उस ने पूछीं मेरे ग़म–ख़्वार से बातें क्या क्या

 

लोग लब–बस्ता अगर हों तो निकल आती हैं

चुप के पैराया–ए–इज़हार से बातें क्या क्या

 

किसी सौदाई का क़िस्सा किसी हरजाई की बात

लोग ले आते हैं बाज़ार से बातें क्या क्या

 

हम ने भी दस्त–शनासी के बहाने की हैं

हाथ में हाथ लिए प्यार से बातें क्या क्या

 

किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से

हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या

 

हम हैं ख़ामोश कि मजबूर–ए–मोहब्बत थे ‘फ़राज़‘

वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या

(7) करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

 

वो ख़ार ख़ार है शाख़–ए–गुलाब की मानिंद

मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

 

ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के

मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे

 

मगर वो ज़ूद–फ़रामोश ज़ूद–रंज भी है

कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

 

वही जो दौलत–ए–दिल है वही जो राहत–ए–जाँ

तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे

 

जो हम–सफ़र सर–ए–मंज़िल बिछड़ रहा है ‘फ़राज़‘

अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे

(8) न दिल से आह न लब से सदा निकलती है

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है

मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है

 

सितम तो ये है कि अहद–ए–सितम के जाते ही

तमाम ख़ल्क़ मेरी हम–नवा निकलती है

 

विसाल–ओ–हिज्र की हसरत में जू–ए–कम–माया

कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है

 

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी

तेरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है

 

वो ज़िंदगी हो कि दुनिया ‘फ़राज़‘ क्या कीजे

कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है

(9) सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते

वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते

 

शिकवा–ए–ज़ुल्मत–ए–शब से तो कहीं बेहतर था

अपने हिस्से की कोई शम्अ‘ जलाते जाते

 

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ

फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते

 

जश्न–ए–मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी

पा–ब–जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते

 

इस की वो जाने उसे पास–ए–वफ़ा था कि न था

तुम ‘फ़राज़‘ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते

(10) ज़िंदगी से यही गिला है मुझे

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे

तू बहुत देर से मिला है मुझे

 

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल

हार जाने का हौसला है मुझे

 

दिल धड़कता नहीं टपकता है

कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

 

हम–सफ़र चाहिए हुजूम नहीं

इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे

 

कोहकन हो कि क़ैस हो कि ‘फ़राज़‘

सब में इक शख़्स ही मिला है मुझे

 The End

 

 

 

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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