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बातें अवध की:– नवाबीन अवध की शादियां-अवध के वलीअहद और शहज़ादे दिल्ली खान-दान की लड़कियों के नाम का ही सेहरा बाँधते रहे।

यह बात अठा रहवीं शताब्दी के तीसरे पहर की है। अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला के बेटे नवाबज़ादा मिर्जा यासीन सआदत अली खां की एक शादी फ़र्खाबाद के नवाब मुहम्मद खां बंगश की बहन से होने जा रही थी I

 

मगर
लड़की के बूढ़े बाप नवाब अहमद खां बंगश ने यह शर्ते लगा दी कि जब तक अवध ख़ानदान की कोई बेटी मेरे बेटे मुहम्मद खां को नहीं मिलेगी तब तक खानखाना की लड़की लखनऊ या फ़ैज़ाबाद नहीं जायेगी।

 

इस टेक का नतीजा यह हुआ कि नवाबीने अवध की सारी पीढ़ियाँ गृज़र गईं लेकिन फ़रुंखाबाद और अवध घरानों के बीच समधियाना कायम हो सका। इसके विपरीत, यह कहना गलत होगा कि दरअसल अवध के वलीअहद और शाहणादे तो दिल्ली खानदान की लड़कियों के नाम का ही सेहरा बाँधते रहे।

 

इस रिण्तेदारी का सिलसिला कुछ ऐसा बँधा कि दिल्ली के डोले उठउठकर बराबर अवध के महलों में उतरते रहे। इन शादियों की एक लम्बी क़तार है जिसकी शुरुआत सन् १७४४ में दिल्ली के दारा शिकोह वाले महल से हुई जिस शादी के दूल्हे थे अवध के नवाबशुजाउद्दौला और दुल्हन थीं बहू बेगम साहिबा।

 

नवाब शुजाउद्दौला की शादी

तवाब सफ़दरजंग के अहृद में सल्तनते अवध के वलीअह॒द मिर्जा जलालुद्दीन हैदर (शुजाउद्दौला) का ब्याह दिल्ली दरबार की तरफ़ से नियुक्त गूजरात के सूबेदार स्वर्गीय मुहम्मद इसहाक़ खाँ की बेटी उम्मत उल ज़हरा के साथ हुआ।

 

दिल्ली के वज़ीर ख़ानदात
की यह बेटी बचपन में
ही अनाथ हो चुकी थी
लेकित दिल्ली के बादशाह की इस
परिवार पर कुछ ऐसी अनुकम्पा
बनी रहीकि इन लोगों
को कभी मुसीबत का मूँह
नहीं देखना पड़ा।

 

शाहे दिल्ली ने इस लड़कीको अपनी बेटी बनाकर पाला था और यही वजह थी कि इस शादी में लाखों रुपए सिफ़ रंगसैनक़ और शानोशौकत के लिए खर्चे किए गए थे जबकि दानदहेज का तो कोई किनारा ही नहीं था

 

बहु बेगम के ही बेशुमार जेवरों से कम्पती सरकार के सितम तोड़ हरजाने की अदायगी हुई थी। उनके ही ग्यारह सन्दूक़ों मे भरी खिचड़ी (सोने की मुहरों और चाँदी के सिक्कों की मिलावट) को लूटने के लिए वारेन हेस्टिग्ज को तमाम चालें खेलनी पड़ी थीं।

 

यहाँ तक कि बहु बेगम की गुड़ियों के ब्याह का दहेज इस क़दर था कि एक बार उनके बेटे आसफ़्दौला ने उसी से एक साल तक अपनी पूरी फ़ौज की तनख्वाह बाँटी थी।. इसी दुल्हन को ससुराल मेंबहू बेगम साहिबाका खिताब मिला था।

 

नवाब आसफ़्दौला की शादी       

सन् १७६९ में मिर्जा अमानी (आसफ़्दौला) की शादी फ़ैजाबाद में उनके पिता के दौरे हुकमत में हुईं। इस वक्त दूल्हे की उम्र २१ वर्ष की थी। दुल्हन बनी थी शम्सून्तिसा बेगम जो नवाब मरहूम क़मरुद्दीन खां की बेटी थी और तख्तेः सल्तनत दिल्ली के वजीर इमामुद्दीन खां उफ़ेइम्तियाजुद्दोलाकी बहन थी

 

इस शादी में शिरकत करने के लिए देहली के बादशाह शाहे आलम और शोलापुरी बेगम को भी दिल्ली से फैज़ाबाद आना पड़ा था और ब्याह की धूमधाम पर नवाब शुजाउद्दौला को पूरे चौबीस लाख रुपए ख़र्च करने पड़े थे शादी के बाद दुल्हन की माँ तो वापस दिल्ली लौट गईं लेकिन उनके भाई लखनऊ में ही बस. गए और उन्होंने सपरिवार शीआ धर्म स्वीकार कर लिया

 

मिर्जा यासीन (सआदत अली) नवाब शुजाउद्दौला के ही बेटे थे लेकिन चूंकिः बहू बेगम से पैदा नहीं थे, इसलिए बचपन से लेकर जवानी तक वो अपने हक़ और हिस्से की तलाश में भटकते रहे | शुरूशुरू में तो फ़ैजाबाद में ही रहे फिर उन्हें लखनऊ और बनारस में रहना पड़ा

 

 उनकी पहली शादी अकबराबाद में हुई और दुल्हन बनीं अफ़जलमहल ये दिल्ली वाले सैयद यूसुफ़ अली खां की साहबज़ादीथीं जिन्हें दरबार की ओर सेमदारुद्दौलाकी उपाधि प्राप्त थी। मदारुद्दोला को शाहे देहली जहाँदारशाह की बेटीजहाँआराब्याही थी वैसे यह बात और थी कि अफ़जल महल इनसे पैदा होकर मस्तूरा बेगस की औलाद थीं। दिल्लीका यह परिवार तितरबितर होकर हैदराबाद, अरकाठ, राजस्थान और लखनऊः में तक्सीम हों गया था।

 

अफ़ज़लमहल
पहली और प्रतिष्ठित बीवीहोने के कारण नवाब सआदत अली खाँ की खासमहलकही जाती थीं। अफ़जलमहलतथा उनकी सन्तानों की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई और इससे उत्का नामोनिशान भी बाक़ी रहा। उनके बाद नवाब की दूसरी पत्नी ख़र्शीदज्ञादी बेगम कोख़ासमहल कहा जाने लगा

 

बादशाह ग्राजीउद्दीन हैदर की शादी

जित दिनों नवाब सआदत अली छज्ं बनारस में रह रहे थे, दिल्ली के मुग़ल वंश के नवाब मदारुद्दौला के बेटे बशीरुद्दौला भी अपने परिवार के साथ बनारस पहुँचे। ये लोग शीआ धर्म स्वीकार कर लेने के बाद अपने को सैयद रिज़वी घराने से जोड़ते थे

 

बशीरुद्दौला अपनी जागीर और दौलत से तो महरूम हो ही चुके थे, उन्हें ज्योतिष विद्या से भी बेपनाह लगाव था, इसलिए उन्हें लोग मुबश्शिर खां नजूमी के नाम से जानते थे। इन्हीं बशीरुह्दोला मुनज़मुलमुल्क की बेटी पादशा बेगम नवाब सआदत अली खां के साहबजदे मिर्जा रफ़्तुद्ला (ग़ाजीउद्दीन हैदर) को ब्याही गई थी।

 

ससुराल
में उसेबादशाह बेगमकहकरपुकारा गया। बादशाह बेगम को ही बाद में मलिकए अवध अव्वल का मरतबा भी हासिल हुआ वे ज्योतिषशास्त्र की विदुषी, राजनीति में अत्यन्त कुशल और बड़ी दिलेर महिला थीं जिन्होंने अवध के इतिहास में अपनी एक अलग मिसाल क़ायम की

 

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर की शादी

बादशाह शाह आलम के दोनों बेटे मिर्ज़ा जहाँदारशाहु और शाहजादा सुलेमां शिकोह दोनों ही दिल्ली छोड़कर बारीबारी से लखनऊ आए थे। मिर्जा सुलेमां शिकोह नवाब आसफ़्दौला के अहद से शहर लखनऊ में आबाद थे और अवध का शाही ख़ज्ञाना उनके परिवार का पूरा खर्च बाक़ायदा बरदाश्त करता रहा।

 

सन् १८१६ में जब नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर को बादशाहत मिली तो जश्ते ताजपोशी में शाहे अवध और शाहज़ादा देहली के बीच कुछ दिलशिकनी हो गई। लखनऊ और दिल्ली की इस आपसी अनबन का नतीजा यह हुआ कि सुलेमां शिकोह साहब छतर मज़िल का पड़ोस छोड़कर अपनी पुरानी महलसरा में लौट गये

 

ऐसी हालत सें इसबदगुमानी को नया मोड़ देने की ग़रज़ से शाहे अवध अव्वल ने अपने वज़ीरे आज़म नवाब आग्रामीर को शाहज़ादा सुलेमां शिकोह की ड्योढ़ी पर भेजां और अपने वलीभहद मिर्जा सुलेमांजाह (नसीरुद्दीत हैदर) के लिए उनकी बेटी का हाथ माँगा उधर दिल्ली वाले अवध के बादशाह से कुछ इस क़दर नाराज़ बेठे थे कि पैग़ाम क़बूल नहीं कियां और इस शादी से साफ़ इत्तकार कर दिया

 

शाहे अवध भला कब अपनी ये तौहीन बसरदाश्त करते ! उन्होंने भी तनख्वाहें बन्द कर दीं जिससे उस खानदान को बड़ी मुसीबतों का सपमना करना पड़ा। ये शाही नस्लः के लोग थे, इसलिए कोई भी पेशा अड्तियार करना उनकी शान के सरासर ख़िलाफ़ था। उनके पास कुछ जमा पूँजी भी नहीं थी जो कुछ पाया था उसे खाया और खब उड़ाया।

 

बहरहाल इसी कशमकश में भुते चने चबाने की नौबत भी पहुँची। गदिश के ये दिन देखकर उनकी बेगम नवाब नवाजिश मेहर ने उन्हें समझाया कि मिर्याँ बेज़र का इन्सान बेपर का परिन्दा होता है, इसलिए अब खैरियत इसी में है कि हम लोग इस शादी के लिए रज़ामन्द हो जायें

 

इस तरह नवाब नसीरुद्दीन हैदर की पहली शादी मिर्जा सुलेमां शिकोह की बेटी सल्ताना बेगम से हुई | घर वाले इन्हें प्यार से बुआ सुल्ताना भी कहा करते थे जब सुलेमां शिकोहकी बेटी दोलत सराए सुल्तानी में पहुँची तो उसेनवाब सुल्तान बहू साहिबा का खिताब मिला |

 

मगर अफ़सोस कि दिल्ली के बादशाह शाह आलम की इस पोती से नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने सिरफ़े तीन दिन का वास्ता रखा। जब सन् १८३७ में शाहजादा नसीरुद्दीन हैदर का जश्ने जुलूस हुआ तो दस्तूर और हक़ के अनुसार सुल्तान बहूमलिकए आलम सुल्ताने अवधके ओहदे से सरफ़राज हुई

 

इस तरह उस नसीबों की मारी बेगम का रुतबा तो बढ़ गया लेकिन वो गरीब हुस्तबाग़ की हरमसरा में बैठकर तमाम उम्र अपने शौहर का मुँह देखने को तरसती रही।

 

क्योंकि बादशाह के दिल पर हुकूमत करने वाली आवारा और बदजात औरतों की पूरी फ़ौज थी जिनसे उन्हे कभी फुरसत ही मिली उधर सुल्तान बहू के खून और खानदान की ये शान थी कि उन्होंने मरते दम तक अपने आँचल पर कोई दाग नहीं लगने दिया और इज्जत के साथ कबलाशरीफ़ में जन्नतनशीन हुई।

 

मुहम्मद अली शाह की शादी

बैरम खां के बेटे अब्दुरहीम ख़ानख़ानां के खानदान में ही दिल्ली के बादशाह हजरत मुहम्मद शाह के वज्ञीरे आजम क़मरुद्दीन ख़ां उर्फ़ इन्तिजामदौला हुए हैं। उनके पोते नवाब इमामुद्दीन ख्रां की बेटी भी अवध के नवाब मुहम्मद अली शाह को ब्याही थी नवाब आसफ़ुद्ला की बेगम शम्सुन्निसा की भतीजी जहांआरा की शादी मिर्जा नसीरुद्दोला (मुहम्मद अली शाह) के साथ हुईं।

 

इस तरह आसफ़ुदोला इनके फूफा तो थे ही, चचिया ससुर भी थे। जुलाई, १८३७ को जब नवाब नसीरुद्दोला मुहम्मदअली शाह के नाम से तख्तनशीन हुए तो बेगम कोनवाब सलिका आफ़ाक़ मखदरए अजीम मुमताज उल ज़मानी नवाब जहांआरा बेगम नाम से सम्बोधित किया गया। इसमें सन्देह नहीं कि मलिका आफ़ाक़ बड़ी ध्मिक तथा उदार प्रकृति वाली बेगम थीं जिनकी पाकीज़गी के क़सीदे आज तक पढ़ें जाते हैं

 

नवाब अहमद अली शाह की शादी

दिल्ली दरबार के नवाब इमामुद्दीन खां के बेटे और मलिका आफ़ाक्न के छोटे भाई फ़ौज शाही अवध के रिसालदार नवाब कालपी, हुसनुद्दीन खां की साहिबजादी ताजआरा बेगम जनाब सुरैयाजाह (अमजद अली खां की पौत्रवधू होने के साथसाथ उनकी नवासी भी थी I

 

क्योंकि बेगम के पिता नवाब हुसैनुद्दीन खां को सआदत अली खां की बेटी विलायती बेगम ब्याही थी जो इनकी माँ थीं। ताजआरा ब्रेगम को ससुराल मेंख़ातून मुअज़्जमा बादशाह बहू नवाब मलिका किश्वर साहिबाका नाम मिला था अपने बेटे वाजिद अली शाह के अहद में उनको जनाबे आलिया (राजमाता) का सम्मानित पद प्राप्त हुआ था।

 

इसी बेहद परदापाबन्द बेगम को अपनी ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में विलायत तक जाना पड़ा और पेरिस: में उन्हें मौत को गले लगाना पड़ा

 

नवाब वाजिद अ्रली शाह की शादी

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर का ज़माना था और वाजिद अली शाह की उम्र का सोलह॒वाँ साल चल रहा था। उनकी शांदी के लिए तमाम रिश्ते आने लगे थे लेकिन बात टूटती जाती थी। अचानक जानी ख़ानम नाम की मशहूर मश्शाता (संदेशवाहिका) एक नया पैग़ाम लेकर मलिका किश्वर साहिबा के हुजूर में हाजिर हुई

 

दिल्ली
के मुग़ल परिवार के नवाब मदारुद्दौला के पोते सैयद नवाब अली खां की बेटी आलमआरा का ये रिश्ता जाने आलम की माँ ने कबूल कर लिया। बात तय होते ही दृल्हादुल्हन को माँझे बिठा दिया लेकिन जाने किस घड़ी में लगन लगी थी कि उधर दुल्हन की चची ख़लद
मकानी
हो
गयी और इधर दूल्हे के चचा जन्नत सिधार गये।

 

यहाँ तक
कि माँझे के कपड़े तक मैले होः गये मगर अब होता भी क्या! खैर किसी सूरत ब्याह की साअत भी निकली और फ़रवरी, १८३७ में बड़ी धूमधाम के साथ ये निकाह अदा हुआ ससुराल में आलमआरा कोआज़म बहूकहकर पुकारा जाता था। तवारीख़े अवध में येः बेगम जाने आलम की ख़ासमहल के नाम से भी मशहूर हैं।

 

जाने आलम की दूसरी शादी

नवाब
सैयद अली नक़ी खां हुज्रे आलम, जो दिल्ली ख़ानदान के मदारुदौला वंश से थे, जाने आलम वाजिद अली शाह के खास वजीर हुए। उनकीबीवी गोहरआरा बेगम से जो बेटी रौनक़आरा बेगम थी उसकी शादी शाहे अवध से कर देने का उन्होंने निश्वय किया ।दरबार में उतका सिक्का जम जाए, इसलिए उन्होंने अपनी सिर्फ़ ११ बरस की बेटी २१ साल के दूल्हे वाजिद अलीः शाह को व्याह दी

 

ये लड़की खास महल आलमआरा बेगम की चचाज़ाद बहन भी थी |खास महल अपने बादशाह शौहर से इस बात पर भी नाराज्ञ रहती थी कि वो हर महीने दूल्हा वना करते थे।

 

बहरहाल सासबहू मे कुछ ऐसी मत्रणा हुई कि आजम बहू और उनकी सास मलिका किश्वर साहिबा ने इस शादी में शिरकत ही नहीं की दूसरी ओर बेगमों और ख़वासों ने मिलकर इस शादी का काम और इन्तजाम किसी तरह सँभाला।

 

वादणाह सेहरा बाँधकर तहसीनगंज मे अपने ससुर की हवेली अगूरी बागपर तशणरीफ़ लाए। निकाह की रस्म के लिए २५ लाख का मेहर क़रार हुआ और फिर ग्दी के बाद बजे शाम बारात दुल्हन लेकर वापस हुई।

 

तब से ही लखनऊ की मुस्लिम गणादियों में ये दस्तूर हुआ कि बाराते शाम को लौटने लगी वरना पहले दोपहर में ही लौट जाया करती थी। ये नई दुल्हन जब दौलतक़दा सुल्तानी मे आई तो सुल्ताने आलम ने उस पर अपना तखल्लुसअख्तर निछावर कर दिया और उसेमलिकए अवध नवाब अख्तर महल साहिबाकहकर पुकारा

दिल्ली और लखतऊ के बीच जो शाश्वत सम्बन्ध क्रायम हुए वो आज तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में चले रहे हैंइस बात से शायद इनकार नही किया जा सकता, क्योंकि दिल्ली से दुल्हन लाने की मुराद लोगों के दिलों में अब भी उसी रफ़्तार से बाक़ी है।

The End

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