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सआदत हसन मंटो की एक लघु कथा: धुआँ A Short Story “Dhuan”By Saadat Hasan Manto

by Engr. Maqbool Akram
April 19, 2020
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उस ने रास्ते में एक कसाई देखा, जिस के सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हूए बकरे थे खालें उतरी हूई थीं, और उन के नंगे गोश्त में से धूवां उठ रहा था। 


जगह जगह पर ये गोश्त जिसको देख कर मसऊद के ठंडे गालों पर गर्मी की लहरें सी दौड़ जाती थीं। फड़क रहा था जैसे कभी कभी उसकी आँख फड़का करती थी।
उस वक़्त सवा नौ बजे होंगे मगर झुके हुए ख़ाकसतरी बादलों के बाइस ऐसा मालूम होता था कि बहुत सवेरा है। सर्दी में शिद्दत नहीं थी, लेकिन राह चलते आदमीयों के मुँह से गर्मगर्म समा वार की टोंटियों की तरह गाढ़ा सफ़ैद धूवां निकल रहा था। हर शैय बोझल दिखाई देती थी जैसे बादलों के वज़न के नीचे दबी हूई है।
मौसम कुछ ऐसी ही कैफ़ीयत का हामिल था। जो रबड़ के जूते पहन कर चलने से पैदा होती हो। इस के बावजूद कि बाज़ार में लोगों की आमद–ओ–रफ़्त जारी थी और दुकानों में ज़िंदगी के आसार पैदा हो चुके थे आवाज़ें मद्धम थीं।


जैसे सरगोशियां हो रही हैं, चुपके चुपके, धीरे धीरे बातें होरही हैं, हौलेहौले लोग क़दम उठा रहे हैं कि ज़्यादा ऊंची आवाज़ पैदा न हो।
मसऊद बग़ल में बस्ता दबाये स्कूल जा रहा था। आज उस की चाल भी सुस्त थी। जब उस ने बे–खाल के ताज़ा ज़बह किए हूए बकरों के गोश्त से सफ़ैद सफ़ैद धूवां उठता देखा तो उसे राहत महसूस हूई। इस धुवें ने उस के ठंडे ठंडे गालों पर गर्मगर्म लकीरों का एक जाल सा बुन दिया।


इस गर्मी ने उसे राहत पहुंचाई और वो सोचने लगा कि सर्दीयों में ठंडे यख़ हाथों पर बेद खाने के बाद अगर ये धूवां मिल जाया करे तो कितना अच्छा हो।
फ़िज़ा में उजलापन नहीं था। रोशनी थी मगर धुंदली। कुहर की एक पतली सी तह हर शय पर चढ़ी हूई थी जिस से फ़िज़ा में गदला पन पैदा होगया था। ये गदला पन आँखों को अच्छा मालूम होता था इस लिए कि नज़र आने वाली चीज़ों की नोक–ए–पलक कुछ मद्धम पड़ गई थी।
मसऊद जब स्कूल पहुंचा तो उसे अपने साथीयों से ये मालूम करके क़तई तौर पर ख़ुशी न हूई कि स्कूल सक्तर साहब की मौत के बाइस बंद कर दिया गया है। सब लड़के ख़ुश थे जिस का सबूत ये था कि वो अपने बस्ते एक जगह पर रख कर स्कूल के सहन में ऊटपटांग खेलों में मशग़ूल थे। कुछ छुट्टी का पता मालूम करते ही घर चले गए। कुछ आ रहे थे और कुछ नोटिस बोर्ड के पास जमा थे और बार बार एक ही इबारत पढ़ रहे थे।
मसऊद ने जब सुना कि सक्तर साहब मर गए हैं तो उसे बिलकुल अफ़सोस न हूआ। उस का दिल जज़्बात से बिलकुल ख़ाली था। अलबत्ता उस ने ये ज़रूर सोचा कि पिछले बरस जब उस के दादा जान का इंतिक़ाल इन ही दिनों में हूआ तो उन का जनाज़ा ले जाने में बड़ी दिक्कत हुई थी इस लिए कि बारिश शुरू होगई थी।
वो भी जनाज़े के साथ गया था और क़ब्रिस्तान में चिकनी कीचड़ के बाइस ऐसा फिसला था कि खुदी हूई क़ब्र में गिरते गिरते बचा था। ये सब बातें उस को अच्छी तरह याद थीं। सर्दी की शिद्दत, इस के कीचड़ से लत पत कपड़े, सुर्ख़ी माइल नीले हाथ जिन को दबाने से सफ़ैद सफ़ैद धब्बे पड़ जाते थे।
उस ने सोचा, जब सक्तर साहब का जनाज़ा उठेगा तो बारिश शुरू हो जाएगी और क़ब्रिस्तान में इतनी कीचड़ हो जाएगी कि कई लोग फिसलेंगे और उन को ऐसी चोटें आयेंगी कि बिलबिला उठेंगे।
मसऊद ने ये ख़बर सुन कर सीधा अपने कमरे का रुख़ किया। कमरे में पहुंच कर उस ने अपने डेस्क का ताला खोला। दो तीन किताबें जो कि उसे दूसरे रोज़ फिर लाना थीं इस में रखीं और बाक़ी बस्ता उठा कर घर की जानिब चल पड़ा।
रास्ते में उस ने फिर वही दो ताज़ा ज़बह किए हूए बकरे देखे। इन में से एक को अब कसाई ने लटका दिया था।


दूसरा तख़्ते पर पड़ा था। जब मसऊद दुकान पर से गुज़रा तो उस के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो गोश्त को जिस में से धुआँ उठ रहा था छू कर देखे, चुनांचे आगे बढ़ कर उस ने उंगली से बकरे के उस हिस्से को छूकर देखा जो अभी तक फड़क रहा था, गोश्त गर्म था।
मसऊद की ठंडी उंगली को ये हरारत बहुत भली मालूम हूई। कसाई दुकान के अंदर छुरयां तेज़ करने में मसरूफ़ था। चुनांचे मसऊद ने एक बार फिर गोश्त को छू कर देखा और वहां से चल पड़ा।
घर पहुंच कर उस ने जब अपनी माँ को सक्तर साहब की मौत की ख़बर सुनाई तो उसे मालूम हूआ कि उस के अब्बा जी उन्ही के जनाज़े के साथ गए हैं। अब घर में सिर्फ़ दो आदमी थे। माँ और बड़ी बहन। माँ बावर्चीख़ाना में बैठी सालन पका रही थी और बड़ी बहन कुलसूम पास ही एक कांगड़ी लिए दरबारी की सरगम याद कररही थी।
छट्टी जमात में जो कुछ पढ़ाया जाता है वो घर में अपने अब्बा जी से पढ़ चुका था। खेलने के लिए भी उस के पास कोई चीज़ न थी।एक मेला कुचैला ताश ताक़ में पड़ा था मगर उस से मसऊद को कोई दिलचस्पी नहीं थी।
लूडो और इसी क़िस्म के दूसरे खेल जो उस की बड़ी बहन अपनी सहेलियों के साथ हर रोज़ खेलती थी उस की समझ से बालातर थे। समझ से बालातर यूं थे कि मसऊद ने कभी उन को समझने की कोशिश ही नहीं की थी। उस को फ़ित्रतन ऐसे खेलों से कोई लगाओ नहीं था।
बस्ता अपनी जगह पर रखने और कोट उतारने के बाद वो बावर्चीख़ाने में अपनी माँ के पास बैठ गया और दरबारी की सरगम सुनता रहा जिस में कई दफ़ा सारेगामा आता था। उस की माँ पालक काट रही थी। पालक काटने के बाद उस ने सब्ज़ सब्ज़ पत्तों का गीला गीला ढेर उठा कर हंडिया में डाल दिया।
थोड़ी देर के बाद जब पालक को आंच लगी तो इस में
से सफ़ैद सफ़ैद धूआँ उठने लगा। इस धूएँ को देख कर मसऊद को बकरे का गोश्त याद आगया।
चुनांचे उस ने अपनी माँ से कहा। “अम्मी जान, आज मैंने क़साई की दुकान पर दो बकरे देखे।
खाल उतरी हुई थी और इन में से धुआँ निकल रहा था बिलकुल ऐसे ही जैसा कि सुबह सवेरे मेरे
मुँह से निकला करता है।
”
और ये गोश्त कई जगह पर फड़कता भी था।”“अच्छा… ” मसऊद की बड़ी बहन ने दरबारी सरगम याद करना छोड़ दी और
उस की तरफ़ मुतवज्जा हुई। “कैसे फड़कता था?”
“यूं… यूं।” मसऊद ने उंगलीयों से फड़कन पैदा करके अपनी बहन को दिखाई।“तो फिर क्या हुआ? ”
ये सवाल कुलसूम ने अपने सरगम भरे दिमाग़ से
कुछ इस तौर पर निकाला कि मसऊद एक लहज़े के लिए बिलकुल ख़ालीउज़्ज़हन हो गया। “फिर क्या
होना था, मैंने तो ऐसे ही आप से बात की थी कि क़साई की दुकान पर गोश्त फड़क रहा था।
मैंने उंगली से छू कर भी देखा था। गर्म था।
”
गर्म था… अच्छा मसऊद ये बताओ तुम मेरा एक काम करोगे।”बताईए”| आओ, मेरे साथ आओ।”“नहीं आप पहले बताईए। काम क्या है।””तुम आओ तो सही मेरे साथ।”
जी
नहीं…… आप पहले काम बताईए।
”“देखो मेरी कमर में बड़ा दर्द
हो रहा है… मैं पलंग पर लेटती हूँ, तुम ज़रा पांव से दबा देना… अच्छे भाई जो हुए।
अल्लाह की क़सम बड़ा दर्द हो रहा है।
” ये
कह कर मसऊद की बहन ने अपनी कमर पर मक्कियां मारना शुरू करदीं।
“ये
आप की कमर को क्या हो जाता है। जब देखो दर्द हो रहा है, और फिर आप दबवाती भी मुझी से
हैं, क्यों नहीं अपनी सहेलीयों से कहतीं।
”
मसऊद
उठ खड़ा हूआ।
“चलीए,
लेकिन ये आप से कहे देता हूँ कि दस मिनट से ज़्यादा में बिलकुल नहीं दबाऊंगा।
”
शाबाश…शाबाश।” उस की बहन उठ खड़ी हूई और सरगमों की कापी सामने ताक़ में रख कर उस कमरे की तरफ़ रवाना हुई जहां वो और मसऊद दोनों सोते थे।
सहन में पहुंच कर उस ने अपनी दुखती हुई कमर सीधी की और ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। मटियाले बादल झुके हूए थे। “मसऊद, आज ज़रूर बारिश होगी।”
ये
कह कर उस ने मसऊद की तरफ़ देखा मगर वो अंदर अपनी चारपाई पर लेटा था।
जब कुलसूम अपने पलंग पर औंधे मुँह लेट गई तो मसऊद ने उठ कर घड़ी में वक़्त देखा। “देखिए बाजी ग्यारह बजने में दस मिनट बाक़ी हैं। मैं पूरे ग्यारह बजे आप की कमर दाबना छोड़ दूंगा।”
“बहुत अच्छा, लेकिन तुम अब ख़ुदा के लिए ज़्यादा नख़रे न बघारो। इधर मेरे पलंग पर आकर जल्दी कमर दबाओ वर्ना याद रखो बड़े ज़ोर से कान ऐंठूंगी।” कुलसूम ने मसऊद को डांट पिलाई। मसऊद ने अपनी बड़ी बहन के हुक्म की तामील की और दीवार का सहारा लेकर पांव से उस की कमर दबाना शुरू करदी।
मसऊद के वज़न के नीचे कुलसूम की चौड़ी चकली कमर में ख़फ़ीफ़ सा झुकाओ पैदा होगया। जब उस ने पैरों से दबाना शुरू किया, ठीक उसी तरह जिस तरह मज़दूर मिट्टी गूँधते हैं तो कुलसूम ने मज़ा लेने की ख़ातिर हौलेहौले हाय हाय करना शुरू किया।
कुलसूम के कूल्हों पर गोश्त ज़्यादा था, जब मसऊद का पांव उस हिस्से पर पड़ा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो उस बकरे के गोश्त को दबा रहा है जो उस ने क़साई की दुकान में अपनी उंगली से छू कर देखा था। इस एहसास ने चंद लमहात के लिए इस के दिल–ओ–दिमाग़ में ऐसे ख़यालात पैदा किए जिन का कोई सर था न पैर, वो इन का मतलब न समझ सका और समझता भी कैसे जबकि कोई ख़याल मुकम्मल नहीं था।
एक दोबार मसऊद ने ये भी महसूस किया कि इस के पैरों के नीचे गोश्त के लोथड़ों में हरकत पैदा हुई है, उसी क़िस्म की हरकत जो उस ने बकरे के गर्मगर्म गोश्त में देखी थी। उस ने बड़ी बद दिली से कमर दबाना शुरू की थी मगर अब उसे इस काम में लज़्ज़त महसूस होने लगी। उस के वज़न के नीचे कुलसूम हौलेहौले कराह रही थी। ये भींची भींची आवाज़ जो कि मसऊद के पैरों की हरकत का साथ दे रही थी इस गुमनाम सी लज़्ज़त में इज़ाफ़ा कररही थी।
टाइम पीस में ग्यारह बज गए मगर मसऊद अपनी बहन कुलसूम की कमर दबाता रहा जब कमर अच्छी तरह दबाई जा चुकी तो कुलसूम सीधी लेट गई और कहने लगी। “शाबाश मसऊद, शाबाश। लो अब लगे हाथों टांगें भी दबा दो, बिलकुल इसी तरह… शाबाश मेरे भाई।”
मसऊद ने दीवार का सहारा लेकर कुलसूम की रानों पर जब अपना पूरा वज़न डाला तो उस के पांव के नीचे मछलियां सी तड़प गईं। बेइख़्तयार वो हंस पड़ी और दुहरी होगई। मसऊद गिरते गिरते बचा, लेकिन उस के तलवों में मछलीयों की वो तड़प मुंजमिद सी होगई।
उस के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो फिर इसी तरह दीवार का सहारा लेकर अपनी बहन की रानें दबाये, चुनांचे उस ने कहा। “ये आप ने हंसना क्यों शुरू कर दिया। सीधी लेट जाईए। मैं आपकी टांगें दबा दूं।”
कुलसूम सीधी लेट गई। रानों की मछलियां इधर उधर होने के बाइस जो गुदगुदी पैदा हुई थी उस का असर अभी तक उस के जिस्म में बाक़ी था। “ना भाई मेरे गुदगुदी होती है। तुम ऊटपटांग तरीक़े से दबाते हो।”
मसऊद ने ख़याल किया कि शायद उस ने ग़लत तरीक़ा इस्तिमाल किया है। “नहीं, अब की दफ़ा मैं पूरा बोझ आप पर नहीं डालूंगा…… आप इत्मिनान रखिए। अब ऐसी अच्छी तरह दबाऊंगा कि आप को कोई तकलीफ़ न होग”
दीवार का सहारा लेकर मसऊद ने अपने जिस्म को तोला और इस अंदाज़ से आहिस्ता आहिस्ता कुलसूम की रानों पर अपने पैर जमाए कि उस का आधा बोझ कहीं ग़ायब होगया।
हौलेहौले बड़ी होशयारी से उस ने अपने पैर चलाने शुरू किए। कुलसूम की रानों में अकड़ी हुई मछलियां इस के पैरों के नीचे दब दब कर इधर उधर फिसलने लगीं। मसऊद ने एक बार स्कूल में तने हुए रस्से पर एक बाज़ीगर को चलते देखा था। उस ने सोचा कि बाज़ीगर के पैरों के नीचे तना हुआ रस्सा इसी तरह फिसलता होगा।
इस से पहले कई बार उस ने अपनी बहन कुलसूम की टांगें दबाई थीं मगर वो लज़्ज़त जो कि उसे अब महसूस होरही थी पहले कभी महसूस नहीं हुई थी। बकरे के गर्मगर्म गोश्त का उसे बार बार ख़याल आता था।
एक दो मर्तबा उस ने सोचा कुलसूम को अगर ज़बह कर दिया जाये तो खाल उतर जाने पर क्या इस के गोश्त में से भी धुआँ निकलेगा? लेकिन ऐसी बेहूदा बातें सोचने पर उस ने अपने आपको मुजरिम महसूस किया और दिमाग़ को इस तरह साफ़ कर दिया जैसे वो स्लेट को इस्फ़ंज से साफ़ किया करता था।“बस बस।” कुलसूम थक गई। “बस बस।”
मसऊद को एक दम शरारत सूझी। वो पलंग पर से नीचे उतरने लगा तो उस ने कुलसूम की दोनों बग़लों में गुदगुदी करना शुरू करदी। हंसी के मारे वो लोटपोट होगई। इस में इतनी सकत नहीं थी कि वो मसऊद के हाथों को परे झटक दे। लेकिन जब उस ने इरादा करके उस के लात जमानी चाही तो मसऊद उछल कर ज़द से बाहर होगया और स्लीपर पहन कर कमरे से निकल गया।
जब वो सहन में दाख़िल हुआ तो उस ने देखा कि हल्की हल्की बूंदा बांदी होरही है। बादल और भी झुक आए थे। पानी के नन्हे नन्हे क़तरे आवाज़ पैदा किए बग़ैर सहन की ईंटों में आहिस्ता आहिस्ता जज़्ब होरहे थे। मसऊद का जिस्म एक दिल–नवाज़ हरारत महसूस कर रहा था।
जब हवा का ठंडा ठंडा झोंका उसके गालों के साथ मस हुआ और दो तीन नन्ही नन्ही बूंदें उस की नाक पर पड़ीं तो एक झुरझुरी सी उस के बदन में लहरा उठी। सामने कोठे की दीवार पर एक कबूतर और कबूतरी पास पास पर फुलाए बैठे थे, ऐसा मालूम होता था कि दोनों दम–पुख़्त की हूई हंडिया की तरह गर्म हैं।
गिल दाऊदी और नाज़बू के हरे हरे पत्ते ऊपर लाल लाल गमलों में नहा रहे थे। फ़िज़ा में नींदें घुली हूई थीं। ऐसी नींदें जिन में बेदारी ज़्यादा होती है और इंसान के इर्दगिर्द नरम नरम ख़्वाब यूं लिपट जाते हैं जैसे ऊनी कपड़े।
मसऊद ऐसी बातें सोचने लगा। जिन का मतलब उसकी समझ में नहीं आता था। वो इन बातों को छू कर देख सकता था मगर इन का मतलब उस की गिरिफ़त से बाहर था, फिर भी एक गुमनाम सा मज़ा इस सोच बिचार में उसे आरहा था।
बारिश में कुछ देर खड़े रहने के बाइस जब मसऊद के हाथ बिलकुल यख़ होगए और दबाने से उन पर सफ़ैद धब्बे पड़ने लगे तो उस ने मुट्ठीयाँ कस लीं और उन को मुँह की भाप से गर्म करना शुरू किया। हाथों को इस अमल से कुछ गर्मी तो पहुंची मगर वो नमआलूद होगए। चुनांचे आग तापने के लिए वो बावर्चीख़ाना में चला गया।
खाना तैय्यार था, अभी उस ने पहला लुक़मा ही उठाया था कि उस का बाप क़ब्रिस्तान से वापस
आगया।
मसऊद जब फ़र्श पर लेटा तो उस के दिल में ख़्वाहिश पैदा हूई कि वो इस सर्दी के अंदर धँस जाये जहां उस के जिस्म को राहत अंगेज़ गर्मी पहुंचे। देर तक वो ऐसी शेर गर्म बातों के मुतअल्लिक़ सोचता रहा जिस के बाइस उसके पट्ठों में हल्की हल्की सी दुखन पैदा होगई।
देर तक गुदगुदे क़ालीन पर करवटें बदलने के बाद वो उठा और बावर्चीख़ाना से होता हुआ सहन में आ निकला। न कोई बावर्चीख़ाना में था और न सहन में। इधर उधर जितने कमरे थे सब के सब बंद थे।
बारिश अब रुक गई थी। मसऊद ने हाकी और गेंद निकाली और सहन में खेलना शुरू कर दिया। एक बार जब इस ने ज़ोर से हिट लगाई तो गेंद सहन के दाएं हाथ वाले कमरे के दरवाज़े पर लगी। अंदर से मसऊद के बाप की आवाज़ आई। “कौन
“जी मैं हूँ मसऊद!”अंदर से आवाज़ आई। “क्या कर रहे हो?”“जी खेल रहा हूँ।”“खेलो… ” फिर थोड़े से तवक्कुफ़
के बाद उस के बाप ने कहा। “तुम्हारी माँ मेरा सरदबा रही है… ज़्यादा शोर न मचाना।
”
ये सुन कर मसऊद ने गेंद वहीं पड़ी रहने दी और हाकी हाथ में लिए सामने वाले कमरे का रुख़ किया। इसका एक दरवाज़ा बंद था और दूसरा नीम वा… मसऊद को एक शरारत सूझी। दबे पांव वो नीम वा दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और धमाके के साथ दोनों पट खोल दिए। दो चीख़ें बुलंद हुईं और कुलसूम और उस की सहेली बिमला ने जो कि पास पास लेटी थी, ख़ौफ़ज़दा हो कर झट से लिहाफ़ ओढ़ लिया।
बिमला के बिलाउज़ के बटन खुले
हुए थे और कुलसूम उस के उर्यां सीने को घूर रही थी।
बैठक में खिड़की के पास बैठ कर जब मसऊद ने हाकी को दोनों हाथों से पकड़ कर घुटने पर रखा तो ये सोचा कि हल्का सा दबाओ डालने पर हाकी में ख़म पैदा होजाएगा, और ज़्यादा ज़ोर लगाने पर हैंडल चटाख़ से टूट जाएगा। इस ने घुटने पर हाकी के हैंडल में ख़म तो पैदा कर लिया मगर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर लगाने पर भी वो टूट ना सका। देर तक वो हाकी के साथ कुश्ती लड़ता रहा। जब वो थक कर हार गया तो झुँझला कर इस ने हाकी परे फेंक दी।

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
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