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एक थी विमला (कमलेश्वर):– विमला, कुन्ती, लज्जा, सुनीता शायद लाखों लड़कियाँ जो किसी बहुत खूबसूरत दिन के लिए अपनी सब मुसकराहटें सँजोकर रखना चाहती है

by Engr. Maqbool Akram
September 18, 2022
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 पहला मकान–यानी विमला का घर

इस घर की ओर हर नौजवान की आँखें उठती हैं। घर के अन्दर चहारदीवारी है और उसके बाद है पटरी। फिर सड़क है, जिसे रोहतक रोड के नाम से जाना जाता है। अगर दिल्ली बस सर्विस की भाषा में कहें, तो इसका नाम है–रूट नम्बर सत्ताईस।

 

सत्ताईस नम्बर की बस यहीं से गुज़रती है और विमला के घर के ठीक सामने तो नही; बायीं ओर कुछ हटकर बस–स्टॉप है। बस–स्टॉप पर बहुत चहल–पहल रहती है। वहाँ खड़े होने वाले लोग और नौजवान उस सामने वाले घर को आसानी से देख सकते हैं। यह मकान विमला का है, यानी विमला इसमें रहती है, वैसे बाहर खम्भे पर उसके बाप दीवानचन्द के नाम की तख्ती लटक रही है।

विमला
की
तरफ़
सभी
की
आंखें
हैं।
ख़ास
तौर
से
उन
नौजवानों
और
युवक
दुकानदारों
की,
जो
वहीं
आस–पास
रहते
हैं।
विमला
गर्ल्स
पब्लिक
कॉलेज
में
पढ़ने
जाती
है।
देखने
में
सुन्दर
है
और
उसकी
उम्र
यही
क़रीब
बीस
साल
की
है।
जब
वह
घर
के
पास
बस–स्टॉप
पर
उतरती
है,
तो
उसके
साथ
नौजवानों
का
एक
हुजूम
भी
उतरता
है:
पर
वह
किसी
की
परवाह
नहीं
करती
और
सीधी
अपने
घर
में
चली
जाती
है।

 

उसके वापस आने का वक़्त क़रीब दो बजे होता है। उस वक़्त बस–स्टॉप के पास सामने की दूकानों के नौजवान मालिक भी जमा हो जाते हैं। सब आँखें विमला को देखती हैं, उसका पीछा करती हैं, पर वह अपने में मगन सड़क पार कर जाती है।

 

लोगों
का
कहना
है
कि
उसने
कभी
नज़र
उठाकर
किसी
को
नहीं
देखा।
एक
दिन
बस
से
उतरते
हुए
उसकी
साड़ी
चप्पल
में
उलझ
गयी
थी
और
झटके
से
सब
किताबें
और
कापियाँ
बिखर
गयी
थीं।
इन्तज़ार
में
खड़ें
नौजवानों
ने
फ़ौरन
एक–एक
किताब
उठाकर
उसके
हाथों
में
थमा
दी
थी
और
उसकी
नज़रों
से
कुछ
पाने
की
तमन्ना
की
थी।

 

 खासतौर से एक नौजवान ने बड़ी सज्जनता से आगे बढ़कर पूछा था, ‘‘आपके चोट तो नहीं आयी?’’

“जी, नहीं” विमला ने बहुत शालीनता से कहा था और अपनी किताबें लेकर चली गयी थी।

 

दूसरे दिन वही नौजवान खासतौर से विमला के सामने पड़ने के लिए एक बजे से बस–स्टॉप पर खड़ा था। आखिर एक बस से विमला उतरी…पहचान को और गहरा बनाने के लिए उस नौजवान ने बढ़कर उससे बात करनी चाही, पर विमला चुपचाप सकुचाती सड़क पार कर गयी।

 

बहुत दिनों से यही हो रहा है। पर विमला है कि उसमें जैसे कोई ज्वार ही नहीं उठता। अगर उठता भी है, तो वह बहुत शालीनता और सफ़ाई से उसे दबा जाती है। किसी ने भी उसे अनजान आदमियों के साथ आते हुए नहीं देखा, बात करते हुए नहीं देखा।

 

विमला का बाप बहुत पैसे वाला भी नहीं। वह किसी प्राइवेट फ़र्म में काम करता है और अपने घर का भार उठाये उम्र काटता जा रहा है। हाँ, विमला को यह अहसास हर वक़्त रहता है कि उसका बाप है, और वह बहुत समझदार व मेहनती आदमी है।

 

अपने
बाप
के
संघर्ष
को
वह
जानती
है,
घर
की
ख़स्ता
हालत
भी
उससे
छिपी
नहीं
है,
पर
वह
यह
भी
जानती
है
कि
बाप
के
रहते
उसे
कोई
दुःख
नहीं
हो
सकता।
पढ़ाई
ख़त्म
करने
के
बाद
वह
कहीं
नौकरी
करेगी,
छोटे
भाइयों
को
पढ़ायेगी
और
अगर
कोई
अच्छा–सा
नौजवान
मिल
गया
तो
बाद
में
उससे
शादी
कर
लेगी।

 

इस पहले मकान के आस–पास रहने वाले सभी लोगों की यह पक्की राय है कि विमला एक निहायत और सुसंस्कृत लड़की है। उसकी ज़बानों पर सिर्फ़ उसकी तारीफ़ है।

 

विमला के बाप दीवानचन्द का कहना है कि वे सिर्फ़ विमला की पढ़ाई खत्म होने का इन्तज़ार कर रहे हैं। जिस दिन उसने बी.ए. पास किया, वे किसी बहुत अच्छे नौजवान से उसकी शादी कर देंगे। अगर विमला कहीं खुद शादी करना चाहती हैं, तो भी उन्हें कोई इनकार न होगा, शर्त एक ही है कि लड़का अच्छे घराने का और अच्छी नौकरी या कारबार में लगा हुआ होना चाहिए।

 

विमला के घर की तरह शायद हज़ारों घर हैं और उसकी तरह की लाखों लड़कियाँ भी है। उतनी ही सुन्दर, सुशील और समझदार। हर लड़की पढ़ रही है और अपने घर के खस्ता हाल से परिचित है, अपने बाप–भाइयों के संघर्ष की जानकारी उसे है।

 

हर लड़की अपने घर को और अच्छा बनाना चाहती है। हर लड़की यह भी चाहती है कि कोई उसकी तरफ़ उँगली न उठा सके। सब लोग उसके बारे में बहुत अच्छी–अच्छी बातें सोचें। उसकी खूबसूरती को सराहें और गुणों की प्रशंसा करें। वह अपने घर की इज़्ज़त का जीता–जागता नमूना बने और बाप–भाइयों की नाक उसकी वजह से ऊँची रहे।

 

शादी के बाद सब जानने वालों को यह सन्तोष हो कि उसका पति बहुत इज़्ज़तदार, ओहदेदार, और शानदार आदमी है, और वह शादी के बाद भी अपने भाई–बहनों की प्यारी बनी रहे, उनकी मदद कर सके और घर में गौरव प्राप्त करे।

 

पहले मकान में रहने वाली विमला भी यही चाहती थी और जो वह चाहती थी, वह सब उसके सामने पूरा भी होता जा रहा था उम्मीद भी यही है कि उसके सब सपने साकार हो जायेंगे, क्योंकि जो कुछ वह चाहती है, वह पा लेना बहुत मुश्किल भी नहीं है।

और उस पहले मकान–यानी विमला के घर यह कहानी यहीं खत्म हो जाती है, क्योंकि अभी इससे आगे कुछ हुआ नहीं है। इस तारीख तक घटनाएँ यहीं तक पहुँची हैं।

 

इसलिए
यह
बात
यहीं
पर
खत्म
होती
है।

परमात्मा
करे
सबको
विमला
जैसी
सुशील
और
समझदार
लड़की
मिले
और
किसी
की
नाक
नीची
न
हो!
क्योंकि
दुनिया
यही
चाहती
है।

 

दूसरा मकान–यानी कुन्ती का घर

विमला के घर से यह मकान काफ़ी दूरी पर है। यों देखने पर विमला और कुन्ती का कोई सम्बन्ध भी नहीं है। पर न जाने क्यों उसमें विमला की झलक–सी दिखाई पड़ती है। विमला कुन्ती को नहीं जानती और न कुन्ती उसे। यह भी ज़रूरी नहीं है कि जो लोग विमला को जानते हैं, वे कुन्ती को जानते ही हों।

 

बहुत–से ऐसे लोग हैं जो कुन्ती को क़तई नहीं जानते। इत्तफ़ाक़ की बात यह है कि कुन्ती का मकान भी इसी सड़क पर है। मकान क्या, एक कमरा कह लीजिए। कई साल पहले पूरा मकान लाल का हाथ तंग होता गया और मकान के कमरे किराये पर चढ़ते गये।

 

उनके मकान के फ़ाटक पर भी पहले उनके नाम की तख्ती रहती थी, पर फिर उस पर बाक़ी किरायेदारों के नामों की तख्तियाँ लटक गयीं और मकान में हिस्सेदारी के अनुपात का सम्मान करते हुए फ़ाटक पर औरों का हक़ हो गया। मनोहरलाल की तख्ती वहाँ से उठकर कमरे की दीवार पर चली गयी।

 

जिस वक़्त वह तख्ती कमरे की दीवार पर पहुँची, उस वक़्त मनोहर–लाल की हालत बहुत खस्ता थी। नौकरी करने के बावजूद खर्चे का पूरा नहीं पड़ता था। क़र्ज़ा भी सिर पर चढ़ता जा रहा था। कुन्ती से बड़ा एक लड़का था तो ज़रूर, पर वह शादी के बाद अलग हो गया था।

 

उसने सभी सम्बन्ध तोड़ लिये थे। घर से उसका कोई वास्ता नहीं रह गया था। अब घर के पाँच बच्चों में सबसे बड़ी कुन्ती ही है। एक छोटी बहन और तीन भाई और है। एक दिन दिल का दौरा पड़ने से मनोहरलाल की मौत हो गयी। उस वक़्त कुन्ती इण्टर में पढ़ रही थी। मनोहरलाल के मरने के बाद घर की देखभाल और ख़र्चे का पूरा भार कुन्ती पर ही आ गया था।

 

दीवार पर लगी हुईं तख़्ती उतार कर अपनी पुरानी चीजों वाले बक्से में आदर से रख दी गयी थी, क्योंकि जब–जब कुन्ती बाहर से आती थी, वह तख्ती देखकर उसकी आँखें भर आती थीं।

 

मरने से पहले मनोहरलाल को यही सन्तोष था कि कुन्ती जैसी सुशील समझदार लड़की कम से कम इस ज़माने में मिलना बहुत मुश्किल थी। वे यही सोचते थे कि कुन्ती के बी. ए. पास करते ही उसकी शादी किसी बहुत अच्छे नौजवान से कर देंगे।

 

ऐसे नौजवान से, जिसका ख़ान–दान भी ऊँचा हो और जो ख़ुद ऊँची जगह पर हो। अगर कुन्ती चाहेगी, तो वे उसकी पसन्द के लड़के के लिए तैयार हो जायेंगे, क्योंकि उन्हें सिर्फ़ कुन्ती की खुशी चाहिए थी…

 

बहरलाल उन्होंने न जाने क्या–क्या सोचा होगा और कुन्ती ने क्या–क्या मन में तय किया होगा।

 

जहाँ से हम उसे जानते हैं, वहाँ से सिर्फ़ इतना ही बता सकते हैं कि वह इस वक़्त एक नर्सरी स्कूल में मास्टरनी है, जहाँ से उसे सौ रुपये तन–ख्वाह के रूप में मिलते हैं, जिससे छोटे भाई–बहनों की पढ़ाई का पूरा ख़र्चा भी नहीं निकलता। नर्सरी स्कूल से लौटने पर वह किसी जगह ट्यूशन के लिए भी जाती है।

 

वह संघर्षों के बीच से गुजर रही है और अपने घर की इज़्ज़त को बचाये रखने का भरसक प्रयास कर रही है। जैसे–जैसे वह सारा सामान मुहैया करती है। चींटी की तरह हर वक़्त चुपचाप काम और प्रयास में लगी रहती है।

 

उसी के घर के पास एक सर्राफ़े की दूकान है और खराद का काम करने वाले सरदार का कारखाना। असल में वह खराद का कारख़ाना भी उसी सर्राफ़े का है। उसमें काम करने वाला सरदार उसका नौकर है।

 

उस कारखाने में तमाम पुरानी चीज़ें भरी हुई हैं। अण्ट–सण्ट तरीक़े से बोरे भरे हुए हैं, जिनमें पुराना सामान है। सर्राफ़े की यह दूकान ग़रीबों को बहुत सहारा देती है। पिछले पाँच बरस से कुन्ती अपनी परिस्थितियों से लड़ती आ रही है, लेकिन कैसे–यह शायद किसी को नहीं मालूम।

 

बलवन्तराय सर्राफ़ की दूकान में शीशे की अलमारियाँ हैं, जिनमें चाँदी–काँसे का ज़ेवर सजा हुआ है। एक सेफ़ दीवार में गड़ी हुई है, जिसमें उसके कहने के मुताबिक सोने का सामान और कीमती पत्थर–मोती वग़ैरह बन्द है।

बलवन्तराय है तो सर्राफ़ पर उसके कितने कारोबार हैं, इसका ठीक–ठीक पता किसी को नहीं है। पुराना सामान भी खरीदता है और नये का व्यापार भी करता है। वह नये–से–नये फ़ैशन के कपड़े पहनता है, पर पेट ज़्यादा निकला होने के कारण हर कपड़ा उसके ऊपर बहुत बेडौल लगता है। वह लोगों की मुसीबत–परेशानी में काम आता है।

 

इस दूसरे मकान–यानी कुन्ती के घर से बस–स्टॉप ज़रा दूर पर है। वहाँ से वह पैदल घर तक आती है। कुन्ती की उम्र भी क़रीब बीस–बाईस साल है और देखने में वह भी बहुत सुन्दर और सुडौल है। बलवन्तराय की दूकान और खराद के कारखाने के सामने से वह रोज गुज़रती है।

 

बलवन्तराय उसे रोज़ देखता है, बल्कि वह इसीलिए खाना खाने देर से जाता है कि ज़रा एक नज़र कुन्ती को देख ले। लेकिन थीड़ी–सी जान–पहचान के बावजूद कुन्ती न तो उधर देखती ही है न उसका खयाल ही करती है।

 

बलवन्तराय और कुन्ती की जान–पहचान सिर्फ़ एक दूकानदार और ग्राहक की जान–पहचान की तरह है। एक बार जब उसे पैसों की बहुत सख्त ज़रूरत पड़ी थी, तो वह माँ की सोने की माला बेचने के लिए दबे पाँव उसकी दूकान तक पहुँची थी। बलवन्तराय ने एक कुशल दूकानदार की अतिरिक्त सज्जनता और नम्रता की तरफ़ ध्यान देने की कोई ज़रूरत उसने नहीं समझी थी।

 

माला खरीद लेने के बाद बलवन्तराय उस एक दिन की जान–पहचान को और गहरा बनाने के लिए हर तरह की कोशिशों में लगा हुआ था। कुन्ती के लौटने के समय वह उँगलियों में क़ीमती मोतियों की चार अँगूठियाँ पहनकर दूकान के बाहर पटरी पर खड़ा होता था। कुन्ती हमेशा उसी पटरी से सिर झुकाये गुज़र जाती थी।

 

कुछ ही दिन बाद कुन्ती फिर शाम के धुँधलके में उसकी दूकान पर आयी थी और माँ की पुरानी क़ीमती साड़ी की सीने के काम वाली किनारी और पल्लू के फटे हुए टुकड़े बेच गयी थी। जान–पहचान फिर भी वहीं रुकी हुई थी। बलन्तराय की दुकान और कारखाने में कुन्ती के घर की बहुत–सी चीज़ें पहुँच चुकी थीं।

 

कुछ पुराने भारी–भारी बरतनों की ख़राद चढ़ाकर और नया बनाकर वह बेच भी चुका था। गिलट और पीतल के गुलदस्ते भी वह ख़रीद चुका था, पर जो वह चाहता था, वह नहीं हुआ था। कुन्ती से उसने हर बार बातें की थीं, पर उसकी बातों में कहीं कुछ भी ऐसा नहीं था कि बलवन्तराय कोई मतलब निकाल सकता।

 

कुन्ती से घर की तमाम पुरानी और इस्तेमाल की हुई चीज़ें खरीदने के बाद भी दूरी उतनी ही बनी हुई थी। वह हर बार कोई–न–कोई शिष्ट मज़ाक़ करता और चाहता कि कुन्ती कम–से–कम एक बार मुसकराकर उसकी बात का जवाब तो दे दे, पर कुन्ती विमला की ही तरह कभी मुसकरायी नहीं। उसने हमेशा सीधी–सीधी बातें कीं, चीज दी और कम–ज्यादा जो भी पैसा मिला, लेकर चली गयी।

 

बलवन्तराय ने हमेशा यही ज़ाहिर किया कि वह न सिर्फ़ क़ीमती से ज़्यादा पैसा ही देता है, बल्कि उन चीज़ों को भी ख़रीद लेता है, जो उसके काम की नहीं हैं, जैसे चश्मे का पीतल का पुराना फ्रेम, पूजा के छोटे–छोटे बरतन और पुरानी टूटी हुई पतीलियाँ।

 

कुन्ती भी मन–ही–मन उसकी बहुत कृतज्ञ थी। लेकिन मुसकराकर बात करने का सवाल कभी नहीं उठा था, क्योंकि ज़िन्दगी के भारू होते जाने के बावजूद तब तक वह गाड़ी खींच रही थी। कुछ ऐसी आशाएँ बाक़ी थीं, जिन्हें वह सँजोकर रखना चाहती थी और कुछ ऐसे सपने भी शेष थे, जिनके साकार होने की उम्मीद उसे थी।

 

अभी खुशियों के कुछ अहसास बाक़ी थे, जो उसे मुसकराने नहीं देते थे। वह अपनी मुसकराहटों को बचाकर रखना चाहती थी…उस दिन के लिए, जबकि वे खुशियाँ वापस आयेंगी। उसके छोटे–छोटे भाई बड़े होंगे और घर का नक़्शा बदलेगा।

 

आखिर
वह
दिन
आ
ही
गया,
जबकि
उसकी
मुसकराहट
होंठों
पर
आ
गयी।
वह
दिन
बेहद
खुशनुमा
था।
बरसात
का
मौसम
था।
आसमान
में
काले–काले
बादल
छाये
हुए
थे।
भीगी–भीगी
हवा
चल
रही
थी।
दूर
से
आती
हवाओं
के
साथ
मेंहदी
के
फूलों
की
महक
आ
रही
थी।
रह–रहकर
बूँदीबाँदी
हो
जाती
थी।
पेड़
घुलकर
नये
हो
गये
थे।
सड़कें
साफ़
हो
गयी
थीं।

 

उस
वक़्त
शाम
के
सात
बज
रहे
थे।
सूरज
डूब
चुका
था,
पर
दिन
अभी
कुछ–कुछ
बाक़ी
था।
कुन्ती
के
घर
में
अजीब–सा
सन्नाटा
छाया
हुआ
था।
माँ
को
दो
दिन
पहले
बेहोशी
का
दौरा
पड़ा
था।
घर
में
इलाज
कराने
के
लिए
पाई
नहीं
थी,
इसलिए
वह
ज़नाने
अस्पताल
में
पड़ी
हुई
थी।
उसे
देखने
जाने
और
तीमारदारी
में
सब
पैसे
ख़त्म
हो
चुके
थे।
तीनों
भाई
और
अकेली
बहन
समझदार
और
नेक
बच्चों
की
तरह
चुपचाप
अधपेट
खाये
बैठे
हुए
थे।
किसी
के
चेहरे
पर
कोई
शिकायत
नहीं
थी।

 

कुन्ती एक तरफ़ बैठी हुई बारी–बारी से सब चीज़ों पर निगाह डाल रही थी। लेकिन अब घर में कोई भी ऐसा सामान नहीं था, जो बेचा जा सकें या बिक सके। तसवीरों के लकड़ी के फ्रेम बिक नहीं सकते, तवा और आखिरी पतीली बेची नहीं जा सकती। और दो–दो चार–चार आने में दो–तीन चीज़ें बिक भी जायें, तो कुछ भी हासिल नहीं होता था।

 

मौसम बहुत सुहावना था। हर तरफ़ से जैसे खुशियाँ फूट पड़ रही थीं…पेड़ों पर अजीब–सी ताजगी छायी हुई थी। और ऐसे ख़ुशनुमा वक़्त में कुन्ती की आँखें रह–रहकर भर आती थीं। दिल में अजीब–सी हूक उठती। भाई–बहनों के मासूम चेहरों की तरफ़ जब वह देखती थी तो मन बैठने लगता था और आँसू नहीं थमते थे।

 

आखिर वह कमरे के बाहर आकर खड़ी हो गयी। कुछ देर पसोपेश में रही, फिर भीतर जाकर उसने कपड़े बदले, अपने बाल ठीक किये और छोटी बहन को समझाकर कि वह अभी आ रही है, वह बाहर निकल आयी। उसकी चाल में कोई संकोच नहीं था। मन अजीब–सी मजबूरी की अनुभूति और हिचक से भरा हुआ था।

 

और वह हमेशा की तरह फिर बलवन्तराय की दूकान पर खड़ी थी। शाम गहरी हो गयी थी। आज वह दिन आ गया था, जब उसका मन बहुत भारी था और दुःखों के बोझ से हलकी–सी मुसकराहट होंठों पर उतर आयी थी।

 

बलवन्तराय ने वह मुसकराहट देखी तो सहसा विश्वास नहीं कर पाया। हकलाते हुए बोला, ‘‘आइए, आइए…वहाँ क्यों रुक गयीं?’’

 

कुन्ती भीतर चली गयी। एकाध ग्राहक और बैठे हुए थे। कुन्ती हमेशा की तरह बेंच पर बैठ गयी। बलवन्तराय ने ग्राहकों को जल्दी से निपटाकर बिदा किया और कुन्ती को देखा, तो उसे सिर्फ़ वह मुसकराहट ही नजर आयी। इतने दिनों का परिचय सहज सम्मान का रूप ले चुका था। बलवन्तराय ने धीरे से कहा, ‘‘कहिए, क्या सेवा करूँ?’’

 

बहुत सकुचाते और हिचकते हुए कुन्ती ने मुसकराने की फिर कोशिश की। उसके होंठों पर मुसकराहट की लकीर खिच गयी और वह नीची निगाह करके बोली, ‘‘आज असल में हमें बीस रुपये की सख्त जरूरत थी, चीज़ तो कोई ला नहीं पायी…वह बात यह थी कि…’’

 

बलवन्तराय ने और कुछ जानना जरूरी भी नहीं समझा। कुन्ती के घर की हालत का पता उसे था और उसके मन में मदद करने की बात भी थी। उसने फ़ौरन बीस रुपये आगे बढ़ा दिये, तो बहुत संकोच से लेते हुए कुन्ती ने कहा, ‘‘पहली तारीख को दे जाऊँगी…”

 

“कोई बात नहीं, आ जायेंगे…” बलवन्त ने कहा, तो वह जैसे उबर आयी थी। मन का बोझ भी कुछ हलका–सा लग रहा था। वह हमेशा की तरह ही चुपचाप बाहर निकल आयी, पर आज उसने आगे बढ़ने से पहले बलवन्तराय के चेहरे पर कुछ भाव पढ़ने की कोशिश करनी चाही। वह हमेशा की तरह ही शालीनता से मुसकरा रहा था। कुन्ती भी धीरे से मुसकरायी और हमेशा की तरह ही चुपचाप पटरी पर चल दी।

 

कुन्ती के घर की तरह शायद हज़ारों घर हैं और उसकी तरह की लाखों लड़कियाँ हैं, जो आज अपने पैरों पर खड़े होकर कुछ बनना चाहती है और अपने घर की खुशियाँ वापस लाना चाहती हैं। पर लड़की किसी बहुत खूबसूरत दिन के लिए अपनी सब मुसकराहटें सँजोकर रखना चाहती है।

 

दूसरे मकान में रहने वाली कुन्ती भी यही चाहती थी और जो वह चाहती थी, उसके मिलने का विश्वास उसे शायद अभी तक है–आज शाम तक था…।

 

और उस मकान–यानी कुन्ती के घर की यह कहानी हीं ख़त्म हो जाती है, क्योंकि अभी इससे आगे कुछ हुआ नहीं है। इस तारीख तक पहनाएँ यहीं तक पहुँची हैं।

 

इसलिए यह बात भी यहीं पर ख़त्म होती है।

 

परमात्मा
करे
ऐसा
खुशनुमा
दिन
कभी
न
आये
और
किसी
को
मुसकराना
न
पड़े!
क्योंकि
दुनिया
यही
चाहती
है।

 

तीसरा मकान–यानी लज्जा का घर

लज्जा का घर ठीक उस चौराहे पर है, जहाँ से बाग़ के लिए रास्ता कटता है। उसे घर नहीं फ़्लैट कहा जाता है। विकला या कुन्ती से लज्जावती का कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी एक सम्बन्ध–सा दिखाई पड़ता है। उन दोनों को यह भी नहीं पता कि जहाँ से बाग़ के लिए रास्ता कटता है वहाँ कोई ऐसा शानदार फ़्लैट भी है और वहाँ लज्जा नाम की कोई लड़की रहती है।

 

लज्जा भी कुन्ती और विमला की तरह खूबसूरत हैं, लेकिन उसके रहन–सहन ने उसे कुछ ज़्यादा ही ख़ूबसूरत बना रखा है। उसके घर में रहने वाले और लोगों के कपड़ों, जूतों और बालों में चमक तो है, पर चेहरों पर धन की ललाई नहीं है। ऐसा लगता है जैसे इन लोगों के दिन फिर गये हैं और ये एकाएक मालदार हो गये हैं।

 

लज्जा को जब भी लोगों ने देखा है–मुसकराते हुए ही देखा है। अपनी कोई कार उसके पास नहीं है, पर वह हमेशा या तो किसी कार से जाती है या टैक्सी से। ठीक तो मालूम नहीं, पर सुना यही है कि वह किसी बड़े होटल में रिसेप्शनिस्ट है। कभी–कभी होटल का सामान लाने–ले जानेवाला वैशन भी उसे काफ़ी रात गये घर छोड़ जाता है।

 

लज्जा को यह संतोष है कि आखिर उसने संघर्ष में हार नहीं मानी और उन दिनों को उसने जीत लिया, जो बहुत ही दुःखदायी और कष्टप्रद रहे हैं। किसी तरह वह परेशानियों के उस जंजाल से उबर आयी है, जो आये दिन उसे घेरे रहती थीं। अपने पिछले चार–पाँच वर्षों के जीवन पर जब वह निगाह डालती है, तो उसे लगता है, जैसे वह एक भयंकर जंगल से बाहर आ गयी है और अब तमाम रास्ते सामने खुले पड़े हैं।

 

लोग उसे बहुत शक की निगाहों से देखते हैं। उसके फ़्लैट के नीचे रहने वाला ब्रोकर बड़े मज़े ले–लेकर उसकी कहानियाँ सुनाता है–‘‘एक रात तो यह लड़की दो बजे आयी। बड़ी आलीशान गाड़ी थी।…और यही…यहीं भाई जान…सीढ़ियों वाली जगह में उस आदमी ने इसे प्यार किया और गाड़ी लेकर चला गया।

यह यहीं बाहर खड़ी बहुत देर तक जाती हुई गाड़ी को देखती रही, फिर लड़खड़ाती हुई ऊपर चली गयी। बहुत देर तक इसने घण्टी बजायी, तब दरवाज़ा खुला और रास्ते में ही इस लड़की ने चीखना–चिल्लाना शुरू कर दिया। बहुत डाँट लगायी घरवालों को कि घण्टे–घण्टे–भर घण्टी बजानी पड़ती है! घर में सभी लोग थे, पर किसी ने चूँ तक न की।’’

 

“कितनी तनख्वाह मिलती होगी इसे?’’ एक ने ब्रोकर से पूछा था, तो उसने रस लेते हुए कहा था, ‘‘अरे, उसे पैसे की क्या कमी? कार से नीचे तो पैर नहीं रखती…बड़ी लम्बी–लम्बी दोस्तियाँ हैं उसकी…’’

 

लज्जा को लेकर सब लोग बात करते हैं और अजीबो–ग़रीब क़िस्से सुनाते है…बेहद मज़ेदार और गन्दे क़िस्से। पर लज्जा इन सबसे बेफ़िकर है, न वह परवाह करती है। उसके रहन–सहन का ऐसा सिक्का सब पर जमा हुआ है कि उसके आने–जाने के वक़्त वे निगाहें लपेट जाते हैं।

 

लज्जा के होंठों की मुसकराहट में एक अजीब–सा जादू है, वह जादू जिसका अहसास अभी विमला को अपनी ज़िन्दगी में नहीं हुआ है। लज्जा के शरीर में मोहक कमनीयता है और चाल में एक बनावटी खम है। हर रोज़ वह बालों का स्टाइल बदलती है और अन्दाज़ में भी बदलाव नज़र आता है।

 

लगता है कि वह बहुत तेज़ी से किसी रास्ते पर बढ़ती चली जा रही है, वह रास्ता खुला हुआ है। वह इतनी तेज़ रफ़्तार से भागती चली जा रही है कि कोई आवाज़ उस तक नहीं पहुँचती।, वह खुद किसी आवाज़ को सुनने की स्थिति में नहीं है।

 

पास–पड़ोस में रहने वाले अपनी लड़कियों के लिए खास तौर से चिन्तित हैं–लज्जा के साथ वाले फ़्लैट में तो कोई गृहस्थ ज़्यादा दिन तक रुक ही नहीं सका। उनकी बीवियों ने वहाँ उनका रहना मुहाल कर दिया। इसीलिए अब उसमें चिट फण्ड वालों का दफ़्तर खुल गया है, जो दिन–भर अपना व्यापार करते हैं और शाम को वहीं से बीयर पीकर घूमने के लिए निकल जाते हैं।

 

उन्हें भी लज्जा की मुसकराने वाली आदत से परेशानी होती है और वे वहीं बैठे–बैठे सुबह वाली मुसकराहट के बारे में क़यास करते रहते हैं। आखिर उनकी बात यहीं टूटती है कि लज्जा कम–से–कम उनकी पहुँच के बाहर की चीज़ है। वे लज्जा को ‘चीज़’ ही कहते हैं।

 

लज्जा के घर में सब ख़ुश हैं। उन्हें किसी चीज़ की दिक़्क़त नहीं है। मामूली और ख़ास–सभी तरह के आराम उन्हें प्राप्त हैं। लेकिन वे सब लोग चोरों की तरह वहाँ रहते हैं। उसके घर का कोई आदमी नीचे बाज़ार से सौदा नहीं ख़रीदता और न वहाँ के लोगों से रब्त–ज़ब्त ही रखता है।

 

वे
सब
जैसे
अकेले–अकेले
रहते
हैं।
ख़ास
तौर
से
लज्जा
की
माँ
जब
कभी
वारजे
पर
दिखाई
पड़ती
है,
तो
एकाध
निगाहें
फ़ौरन
यह
बताने
लगती
हैं
कि
यही
है
उस
लड़की
की
माँ!
उन
नज़रों
की
भाषा
को
उसकी
माँ
पढ़
लेती
है
और
इस
बात
का
सन्तोष
करती
है
कि
वह
अब
उस
मुहल्ले
में
नहीं
है,
जहाँ
तमाम
रिश्तेदार
रहते
थे,
नहीं
तो
वे
कुढ़–कुढ़कर
ही
जान
दे
देते।

 

लज्जा अधिकतर तीन आदमियों के साथ दिखाई पड़ती है और एक रात, जबकि मौसम बहुत खराब था, आसमान रुँधा–रुँधा–सा था और धूल–भरी आँधी चल रही थी, तो लज्जा दिलीप की कार से उतरी थी। उसका मुँह उतरा हुआ था। आँखों में बड़ा सूनापन–सा था, बाल भी बिखरे–बिखरे–से थे

 

वह दिलीप को अपने साथ ऊपर ले गयी थी और कमरा चारों तरफ़ से बन्द करके उसने वहशियों की तरह उसे ताकते हुए पूछा, ‘‘तुम आखिर इनकार क्यों करते हो? क्या नहीं है मुझमें…इतने दिनों में क्या बदल गया है?’’

 

दिलीप कुछ देर चुप बैठा रहा था। लज्जा ने उसे फिर कुरेदा था, तो उसने कहा, ‘‘मैं जो कह चुका हूँ, उसे ही दोहरा सकता हूँ…’’

 

“लेकिन क्यों?’’ लज्जा अस्तव्यस्त–सी हो गयी थी और दिलीप के कन्धे से उसने अपना सिर टिका दिया था। दिलीप ने एक बार बहुत गहरी नज़रों से उसे ताका था, जैसे वह ज़ोर लगाकर अपना निश्चय बदलने की कोशिश कर रहा हो। लज्जा सीध बैठ गयी थी और खामोश निगाहों से अपना उत्तर माँग रही थी।

“इ” दिलीप ने बहुत सोचकर कहा था, ‘‘शादी का सवाल नहीं उठता…”

कमरे में बड़ी मनहूस खामोशी छा गयी थी और कुछ देर बाद दिलीप उठकर चला गया था। लज्जा उसे नीचे छोड़ने नहीं आयी थी।

 

लज्जा के फ़्लैट की तरह हज़ारों फ़्लैट हैं और उसकी तरह की हज़ारों लड़कियाँ भी हैं। उतनी ही सुन्दर, कोमल और हर वक़्त मुसकराने वाली। हर लड़की अपने हाल से परिचित है और अपनी ज़िन्दगी बदलना चाहती है। हर लड़की यही चाहती है कि यह लोग उसे चाहें लेकिन उनमें कोई एक ऐसा हो, जो सिर्फ़ उसे चाह सके, ताकि उसे यह सन्तोष हो कि वह ज़िन्दगी में हारी बाज़ी जीत गयी है।

तीसरे मकान में रहने वाली लज्जा भी यही चाहती है और जो वह चाहती है, उस ओर जाने वाला रास्ता पहले ही कट चुका है।

 

और उस तीसरे मकान–यानी लज्जा के घर की कहानी यहीं खत्म होती है, क्योंकि अभी इससे आगे कुछ हुआ नहीं है। इस तारीख तक घटनाएँ यहीं तक पहुँची हैं। इसलिए यह बात भी यहीं पर ख़त्म होती है।

 

परमात्मा करे, लज्जा–जैसी ख़ूबसूरत और दिल रखने वाली लड़कियों को ऐसे रास्ते पर न जाना पडे, जिससे फिर लौटा न जा सके! क्योंकि दुनिया यही चाहती है।

 

चौथा मकान–यानी सुनीता का घर

लज्जा के घर के पास से बाग की तरफ़ जो रास्ता कटता है, उसी पर थोड़ी दूर आगे सुनीता का घर है। विमला, कुन्ती या लज्जा में से कोई भी सुनीता को नहीं जानती। सुनीता भी उन्हें नहीं जानती।

 

जानने का कोई स्वाल भी नहीं उठता। यहाँ इतने लोग रहते हैं, हर कोई भी किसी को नहीं जानता। किसी को किसी से कोई खास मतलब नहीं है। पर सुनीता को देखने से न जाने क्यों विमला की धुँधली–सी आकृति सामने आकर खो जाती है।

 

सुनीता अपनी एक नौकरानी के साथ उस घर में रहती है। पहले तो उसे मकान मिलने में ही बड़ी मुश्किल हुई, क्योंकि किसी आदमी के न होने के कारण मकान मिल ही नहीं रहा था। बमुश्किल तमाम उसे यह घर मिला है और वह बहुत घुटी–घुटी, उजड़ी–उजड़ी–सी रहती है। उम्र उसकी ज्यादा नहीं, यही विमला से थोड़ी बड़ी या शायद लज्जा की उम्र की होगी, पर जैसे अकेलेपन के घेरे ने उसे बिलकुल बदल दिया है।

 

पहले वह किसी अच्छी नौकरी पर थी, पर अब उसने नर्सिग की ट्रेनिग ले ली है और एक नर्सिंग होम में काम करती है। वह नर्सिंग होम यहाँ से बहुत दूर नहीं है। एक तो नर्स का पेशा, ऊपर से चारों तरफ़ मरा हुआ वीरानापन। अँगुली की अँगूठी तक उतारकर रख देनी पड़ी है। और वह अँगूठी जो वह पहनना चाहती थी, वह तो अभी अँगुली में आने का सवाल ही नहीं उठा।

 

आधी ज़िंन्दगी तक आते–जाते जैसे सब रिक्त हो गया है। उसे उन सबकी याद है, जो कभी उसके साथ थे। अब उनकी धरोहर के रूप में सिर्फ़ वे तसवीरें हैं, जो सुनीता ने अपने एलबम में लगा रखी हैं।

 

उसके पास ऐसी कोई तसवीर नहीं, जिसे वह फ्रेम में लगाकर रेडियों के ऊपर रखे…कुरसी में आराम से बैठकर रेडियों सुने और उस तसवीर से बात करे…क्योंकि सभी तसवीरें एक ही आवाज़ में बोलती हैं और तब तो वे आवाज़ें भी बहुत पीछे छूट गयी हैं।

 

वह बाज़ार से एक दिन एक खूबसूरत–सी जापानी गुड़िया खरीद लायी थी, वही उसने रेडियों पर रख ली है। अब अकेलापन बहुत सताता है, तो वह उसे ताकती रहती है।

 

वह यहाँ न आ पाती, तो शायद उसका जी सकना भी मुश्किल हो जाता। पिछली ज़िन्दगी अधमरे साँप की तरह पलटे खाती है। उसे लगता है कि अब ज़िन्दगी का पूरा अरसा कोई एक जगह गुज़ार ही नहीं सकता। दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ अपनी ही ज़िन्दगी से कटकर रहा जा सके।

 

पर हर जगह कुछ ही दिनों में बदबू देने लगती है और रहना मुहाल हो जाता है। यही उसके साथ भी हुआ है। वह चाहती है कि पिछली ज़िन्दगी किसी तरह पीछा छोड़ दे, तो बाक़ी दिन वह चैन से रह ले। लेकिन वह चैन उसे कहीं नहीं मिलता।

 

बड़े–बड़े लिफ़ाफ़ों में बहुत–सी दास्तानें बन्द है…और अलमारी में लगी किताबों में बहुत–सी ऐसी लाइनें बन्द हैं, जिन्होंने उसे गुमराह किया है। अब न किताबें पढ़ने को जी करता है और न उन लिफ़ाफ़ों को खोलने का मन होता है। मरीज़ों की सेवा करने के बाद भी तो राहत नहीं मिलती।

 

उसे सबसे ज़्यादा अगर किसी का खयाल आता है, तो विनय का, पर उसके ख़याल से भी कुछ नहीं होता। सब जगह से हारकर उसने विनय–मोहन से ही कहा था और वह तैयार भी हो गया था। तब सुनीता ने एक राहत की साँस ली थी।

 

कुछ दिनों में उमंगें फिर जैसे पनपने लगी थीं और लगता था कि बीती हुई ज़िन्दगी बीत गयी…जो बीतने पर भी साथ चल रही थी; वह छूट गयी, पर विनयमोहन से जुड़ने के बाद वह फिर लौट आयी थी।

 

तीन साल भी साथ चल सकना मुमकिन नहीं हुआ था। भरेपन के बावजूद हर दिन एक ऐसा क्षण आता था, जिसमें पछतावा होता था। खुश हो लेने पर भी कोई बात कचोटती थी और यही लगता था कि वह भी चलेगा नहीं।

 

रात बाहों में सोने पर भी जैसे अनजाने ही करवटें बदल जाती हैं; वैसे ही रह–रहकर सब कुछ छूट जाता था, सब बदल जाता था। यही लगता था कि साथ रहने और सहारे की यह जरूरत–भर क्यों हैं…जिन्दगी की यह जरूरत कोई मजबूरी क्यों नहीं बन जाती…एक बेबसी क्यों नहीं बन जाती? हर दिन उसी तरह और हर रात उसी तरह गुज़रती है। आखिर विनय ने तलाक़ ले ली थी।

 

और अब सुनीता के पास कोई नहीं आता, वह किसी को बुलाती ही नहीं। नर्सिंग होम का कम्पाउण्डर कभी आता है, तो नौकरानी से बात करता है, डॉक्टर साहब का सन्देशा दे जाता है और चला जाता है।

 

वह कभी कोई खूबसूरत–सी बिल्ली ले आती है या कोई कुत्ता पाल लेती है, फिर उन्हें भगा देती है। और कभी–कभी कमरे के सब परदे खोलकर वह सोचती है कि ऐसा क्या किया जाये, जिससे यह सारा माहौल बिखर जाये।

 

एक
दिन
तो
उसके
मन
में
आया
था
कि
धर्म
ही
बदलकर
देखे,
शायद
तब
कुछ
बदले।
लेकिन
उससे
भी
कुछ
होता
नहीं
दिखाई
पड़ता।
यह
सबका
सब
एक
मज़ाक़–भर
बनकर
रह
गया
है।

 

सुबह–सुबह डवलरोटी वाला आता है, तो सुनीता से ही बात करता है। नौकरानी चाहे जितना कहे, पर वह सुनीता से बात किये बग़ैर नहीं जाता। सुनीता भी उसका मन रख लेती है, क्योंकि उसके चेहरे पर अजीब–सी निरीहता है और वह लँगड़ा है।

एक टाँग से साइकिल चलाता हुआ वह आता है और बाहर वाले चबूतरे पर पैर रगड़ते हुए साइकिल रोकता है। पीछे बँधे बक्से के कारण उसकी साइकिल हमेशा डगमगाती रहती है, पर वह गिरता नहीं।

 

आज
सुबह
भी
डबलरोटी
देने
आया,
तो
सुनीता
को
ही
निकलकर
लेनी
पड़ी।
नौकरानी
चाय
की
पत्ती
ख़रीदने
गयी
थी।
वह
लँगड़ा
डबल–रोटी
वाला
मुसकरा–मुसकराकर
सुनीता
से
बातें
करता
रहा।
आखिर
सुनीता
से
बातें
करता
रहा।
आखिर
सुनीता
ने
ही
बात
तोड़
दी
और
वह
सामने
वाली
चाय
की
गुमटी
पर
बिस्किट
वग़ैरह
देने
चला
गया।

 

नौकरानी आयी, तो उसने शिकायत की, ‘‘बीबीजी, ये लँगड़ा बड़ा ऐबी है।“

 

“क्यों, क्या हुआ?’’ सुनीता ने यों ही पूछा लिया, ताकि उसे तसल्ली हो जाये। बढ़ावा पाकर नौकरानी बोली, ‘‘मैं चाय की पत्ती के लिए गुमटी पर पहुँची, तो वह लँगड़ा आपको लेकर मज़ाक़ कर रहा था…कह रहा था…”

“क्या कह रहा था?’’ सुनीता ने बड़ी सरलता से पूछा।

 

“अरे, बड़ी बुरी बात कह रहा था।“नौकरानी की आँखें चौड़ी हो गयी थीं और वह चाय वाला भी मज़ाक़ कर रहा था…वह लँगड़ा कह रहा था कि डॉक्टरनी पर तो अपना दिल…आपके लिए ही कह रहा था।

 

सुनकर
सुनीता
हँस
पड़ी।
नौकरानी
रसोई
में
चली
गयी
तो
सुनीता
ने
शीशा
सामने
रखकर
अपने
को
एक
बार
देखा।
फिर
बाल
खोलते
हुए
सोचने
लगी,
एक
लँगड़ा
आदमी,
डबल
रोटी
और
मज़ाक़
के
सिवा
और
है
ही
क्या
ज़िन्दगी
में?

कुछ देर बाद वह तैयार होकर नर्सिग होम की तरफ़ चली गयी।

 

सुनीता के घर की तरह हज़ारों घर हैं और उसकी तरह हज़ारों लड़कियाँ। उतनी ही सुन्दर, समझदार और बिलकुल अकेली। हर लड़की को अपना हाल पता है। हर लड़की इस अकेलेपन से छूटकर भाग जाना चाहती है।

 

चौथे मकान में रहने वाली सुनीता भी यही चाहती थी और जो वह चाहती है, वह पूरा होकर भी पूरा नहीं होता।और उस चौथे मकान–यानी सुनीता के घर की यह कहानी यहीं खत्म हो जाती है, क्योंकि इससे आगे अभी कुछ हुआ नहीं है। इस तारीख तक घटनाएँ यहीं तक पहुँची हैं।

 

इसलिए यह बात यहीं पर खत्म होती है।

परमात्मा करे यह लँगड़ी ज़िन्दगी किसी को ना मिले और यह मज़ाक किसी को न सहनी पड़े! क्योंकि दुनिया यही चाहती है।

The End


 

 



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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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