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कहानी ‘अमर बेल ’ इस्मत चुग़ताई- कहने वाले कहते हैं कि इतनी हसीन और सोगवार बेवा ज़िंदगी में कभी नहीं देखी.

by Engr. Maqbool Akram
December 13, 2023
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बड़ी मुमानी का कफ़न भी मैला नहीं हुआ था कि सारे ख़ानदान को शुजाअत मामूं की दूसरी शादी की फ़िक्र डसने लगी. उठते बैठते दुल्हन तलाश की जाने लगी. जब कभी खाने पीने से निमट कर बीवियां बेटियों की बरी या बेटियों का जहेज़ टांकने बैठतीं तो मामूं के लिए दुल्हन तजवीज़ की जाने लगती.

 

‘अरे अपनी कनीज़ फ़ातिमा कैसी रहेंगी.’

‘ए है बी, घास तो नहीं खा गई हो, कनीज़ फ़ातिमा की सास ने सुन लिया तो नाक चोटी काट कर हथेली पर रख देंगी. जवान बेटे की मय्यत उठते ही वो बहू के गिर्द कुंडल डाल कर बैठ गई. वो दिन और आज का दिन दहलीज़ से क़दम न उतारने दिया. निगोड़ी का मायके में कोई मरा–जीता होता तो शायद कभी आना जाना हो जाता.’

 

 ‘और भई, शज्जन भैया को क्या कुंवारी नहीं मिलेगी जो झूटे पत्तल चाटेंगे. लोग बेटियां थाल में सजा के देने को तैयार हैं. चालीस के तो लगते भी नहीं’, असग़री ख़ानम बोलीं.

 

‘उई ख़ुदा ख़ैर करे बुआ! पूरे दस साल निगल रही हो! अल्लाह रक्खे ख़ाली के महीने में पूरे पच्चास भर के…’

 

अल्लाह! बेचारी इम्तियाज़ी फुफ्फो बोल के पछताईं. शुजाअत मामूं की पांच बहनें एक तरफ़ और वो निगोड़ी एक तरफ़. और माशा–अल्लाह पांचों बहनों की ज़बानें बस कंधों पर पड़ी थीं, ये गज़–गज़ भर की. कोई मुचैटा हो जाता बस पांचों एक दम मोर्चा बांध के डट जातीं. फिर मजाल है जो कोई मुग़्लानी, पठानी तक मैदान में टिक जाए. बेचारी शेख़ानियों सैदानियों की तो बात ही न पूछिए. बड़ी–बड़ी दिल गुर्दे वालियों के छक्के छूट जाते.

मगर इम्तियाज़ी फुफ्फो भी इन पांच पांडवों पर सौ कौरवों से भारी पड़तीं. उनका सबसे ख़तरनाक हर्बा उनकी चिनचिनाती हुई बरमे की नोक जैसी आवाज़ थी. बोलना जो शुरू’ करतीं तो ऐसा लगता जैसे मशीनगन की गोलियां एक कान से घुसती हैं और दूसरे कान से ज़न से निकल जाती हैं. जैसे ही उनकी किसी से तकरार शुरू’ होती सारे महल्ले में तुरंत ख़बर दौड़ जाती कि भाई इम्तियाज़ी बुआ की किसी से चल पड़ी, और बीवियां कोठे लॉंघतीं, छज्जे फलांगती, दंगल की जानिब हल्ला बोल देतीं.

 

इम्तियाज़ी फुफ्फो की पांचों बहनों ने वो टांग ली कि ग़रीब नक्कू बन गईं, उनकी संझली बेटी गोरी ख़ानम अब तक कुंवारी धरी थीं. छत्तीसवां साल छाती पर सवार था मगर कहीं नसीब बनने के आसार नज़र नहीं आ रहे थे. कुंवारे मिलते नहीं, ब्याहे रंडवे नहीं होते.

 

पहले ज़माने में तो हर मर्द तीन चार को ठिकाने लगा देता था. मगर जब से ये हस्पताल और डाक्टर पैदा हुए हैं, बीवियों ने मरने की क़सम खाली है, जिसे देखो आक़िबत के बोरिए समेटने पर तुली हुई है. बड़ी मुमानी की बीमारी के दिनों में ही इम्तियाज़ी फुफ्फो ने हिसाब लगा लिया था. लेकिन उनके फ़रिश्तों को भी पता न था कि दोहाजू के लिए भी कुंए में बांस डालने पड़ेंगे.

 

शुजाअत मामूं की उम्र का मसअला बड़ी नाज़ुक सूरत इख़्तियार कर गया. क़मर आरा और नूर ख़ाला के लिए तो वो अभी लड़का ही थे. इसलिए वो तो मारे हौल के बरसों की गिनती में बार–बार घपला डाल देतीं. क्योंकि उनकी उम्र का हिसाब लग जाने से ख़ुद ख़ालाओं की उम्र पर शह पड़ती थी, लिहाज़ा पांचों बहनें बिल्कुल मुख़्तलिफ़ सिम्त से हमला–आवर हुईं.

 

उन्होंने फ़ौरन इम्तियाज़ी फुफ्फो के नवास दामाद का ज़िक्र छेड़ दिया. जिसका तज़किरा फुफ्फो की दुखती रग था, क्योंकि वो उनकी नवासी पर सौत ले आया था.

मगर हमारी फुफ्फो भी खरी मुग़्लानी थीं, जिनके वालिद शाही फ़ौज में बर्क़–अंदाज़ थे. वो कहां मार खाने वालियों में से थे. झट पैंतरा बदल कर वार ख़ाली कर दिया और शहज़ादी बेगम की पोती पर टूट पड़ीं जो खुले बंदों ख़ानदान की नाक कटवा रही थी.

 

क्योंकि वो रोज़ डोली में बैठ कर धनकोट के स्कूल में पढ़ने जाया करती थी. उस ज़माने में स्कूल जाना उतना ही भयानक समझा जाता था जितना आजकल कोई फिल्मों में नाचने गाने लगे.

 

शुजाअत मामूं बड़े माक़ूल आदमी थे. निहायत सुथरा नक़्शा, छरेरा बदन, दर्मियाना क़द, इम्तियाज़ी फुफ्फो सारे में कहती फिरतीं थीं कि ख़िज़ाब लगाते हैं, मगर आज तक किसी ने कोई सफ़ेद बाल उनके सर में नहीं देखा, इसलिए ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि ख़िज़ाब लगाना कब शुरू’ किया… यूं देखने में बिल्कुल जवान लगते थे, वाक़ई चालीस के नहीं जचते थे.

 

जब उन पर पैग़ामों की बहुत ज़ोर की बारिश हुई तो बौखलाकर उन्होंने मुआमला बहनों के सपुर्द कर दिया, इतना कह दिया, लौंडिया इतनी छिछोरी न हो कि बेटी लगे, और ऐसी खूसट भी न हो कि उनकी अम्मां लगे.

 

‘उई, क्या ख़ौफ़ियाता हुआ नाम!’ इम्तियाज़ी फुफ्फो को कुछ न सूझा तो नाम ही में कीड़े निकालने लगीं, मगर बहनों ने ऐसा मोर्चा कसा कि उनकी किसी ने न सुनी.

 

‘लौंडिया सोला से एक दिन ज़्यादा की हो तो सौ जूते सुब्ह, सौ जूते शाम, ऊपर से हुक़्क़ा का पानी.’ मगर उनकी किसी ने न सुनी. वो अपनी गोरी बेगम की नाव पार लगाने के लिए ख़्वाही न ख़्वाही दुंद मचाती थीं.

रुख़साना बेगम थीं कि बस कोई देखे तो देखता ही रह जाए. जैसे पहली का नाज़ुक शरमाया हुआ चांद किसी ने उतार लिया हो. शक्ल देखते जाओ पर जी न भरे. तोलो तो पांचवी के बाद छटा फूल न चढ़े.
रंगत ऐसी जैसे दमकता कुंदन… जिस्म में हड्डी का नाम नहीं जैसे सख़्त मैदे की लोई पर गाय का मक्खन चुपड़ दिया हो. निस्वानियत इस ग़ज़ब की जैसे दर्जन भर औरतों का सत निचोड़ कर भर दिया हो.

 

गर्म–गर्म लपटें सी निकलती थीं, शायद ब–क़ौल फुफ्फो सोला बरस की होंगी, मगर उन्नीस–बीस की उठान थी, बहनों ने मामूं को पच्चीसवां साल बताया था. उन्हें ज़रा सा तकल्लुफ़ तो हुआ मगर फिर टाल गए, कमसिनी तो कोई बड़ा जुर्म नहीं.

 

सबसे बड़ी बात तो ये थी कि बे–इंतिहा मुफ़लिस घर का बोझ थीं. दोनों तरफ़ का ख़र्चा मामूं के सर रहा. जब रुख़साना मुमानी ब्याह कर आईं तो उन्हें ग़ौर से देख के मामूं के पसीने छूट गए.

 

‘बाजी, ये तो बिल्कुल बच्ची है!’ उन्होंने बौख़ला कर कहा.

‘उई, ख़ुदा ख़ैर करे, ए मियां तेल देखो, तेल की धार देखो.’

 

‘मर्द साठा और पाठा, बीवी बीसी और खीसी. दो–चार बच्चे हुए नहीं कि सारी क़लई उतर जाएगी. गो–मूत में न सोला सिंघार रहेंगे, न ये रंग–ओ–रोग़न न ये छल्ला सी कमर रहेगी, न बाज़ुओं का लोच. बराबर की न लगने लगे तो चोर का हाल, सो मेरा. मैं तो कहूं दस साल में बड़ी भाभी जान की तरह हो जाएगी.’

 

‘फिर हम अपने बैरन के लिए साढे़ बारह बरस की लाएंगे ख़ाला चहकीं.’

‘हुश्त!’ मामूं शरमा गए.

 

‘दूसरी बीवी नहीं जीती, इसलिए तीसरी’, शम्सा बेगम बोलीं.

‘क्या बक रही हो?’

 

‘हां मियां बड़े बूढ़ों से सुनते आए हैं. दूसरी तो तीसरी का सदक़ा होती है, उसी लिए पुराने ज़माने में लोग दूसरी शादी गुड़िया से कर दिया करते थे. ताकि फिर जो दुल्हन आए वो तीसरी हो.’

 

बहनों ने समझाया और मामूं समझ गए. फिर जल्द ही रुख़साना बेगम ने भी समझा दिया. दो तीन साल में अच्छे खाने, कपड़े और आशिक़–ए–ज़ार मियां ने वो जादू फेरा कि पहली का चांद चौधवीं का माहताब हो गया, वो चांदनी छिटकी कि देखने वालों की आंखें झपक गईं. पोर पोर से शुआएं फूट निकलीं… शुजाअत मामूं पर ऐसा नशा सवार हुआ कि बिल्कुल धुत हो गए. शुक्र है जल्द ही पेंशन होने वाली थी, वर्ना आए दिन के दफ़्तर से ग़ोते ज़रूर रंग लाते.

 

बहनों के ले दे के एक भैया थे. बड़ी मुमानी तो दूल्हनापे ही में जी से उतर गई थीं. उनकी कमान कभी चढ़ी ही नहीं. जब तक ज़िंदा रहीं सूरत को तरसती रहीं. आल–ओ–औलाद ख़ुदा ने दी ही नहीं कि उधर जी बहल जाता. मियां बहनों के चहेते भाई. सूरत न देखें तो खाना न पचे.

 

दफ़्तर से सीधे किसी बहन के यहां पहुंचते, रात का खाना वहीं से खाकर आते. फिर भी डेस्क ख़्वान सजाए रात तक बैठी राह तका करतीं, किसी दिन इत्तिफ़ाक़ से खा लेते तो उनकी ज़िंदगी का मक़सद पूरा हो जाता.

 

आए दिन बहनों के हां हंगामे रहते. झूटों को कभी भावज को भी बुला लेतीं मगर ये बेचारी वहां ग़रीब–उल–वतन सी लगती. सबने बुलाना छोड़ दिया. शुजाअत मामूं को कभी यार दोस्तों की दावत करनी होती या क़व्वाली और मुजरे की महफ़िलें जमतीं तो बीवी को पता भी ना चलता, बहनें सब इंतेज़ाम कर देतीं, ये उन ही के हाथ में रुपया दे देते.

 

किसी ने मुमानी को राय दी कि मियां को क़ाबू करने का बस एक गुर है. उसे ऐसे खाने खिलाओ कि किसी के घर का निवाला मुंह को न लगे. बस जी, मुमानी ने खाना पकाने की किताबें मंगाईं, लहसुन की ख़ीर और बादाम के गुलगुले, दम का मुर्ग़ और मछली के कबाब पकाए जिन्हें खाकर मामूं ने फ़ैसला किया कि वो उन्हें ज़हर देकर मारना चाहती हैं.

 

मुमानी ख़ून थूक–थूक कर मर गईं.

मगर नई–नवेली का जादू तो आते ही सर चढ़ कर बोलने लगा. न कहीं आने के रहे न जाने के, न किसी का आना भाये. बस मियां हैं और बीवी. क्या बाग़–ओ–बहार सा भाई चुटकी बजाते में खुर्रे की तरह बे–रहम और बे–मुरव्वत हो गया. दुनिया उजाड़ हो गई. अपने पांव आप कुल्हाड़ी मारी. गोरी बेगम से शादी करा दी होती तो यूं भैया साहब अलक़त न हो जाते.

 

‘ए
भाभी, भैया को आंचल में कब तक बांधे रखोगी?’ मर्द ज़ात है कोई झंडूलना नहीं कि हर दम कूल्हे से लगाए बैठी हैं.’

लाख ताने दिए जाते, दुल्हन बेगम हैं कि खी–खी हंस रही हैं और मियां काठ के उल्लू घिघियाए जाते हैं. अपनी जोरू है कोई पड़ोसी की नहीं कि बस तके जा रहे हैं बजर–बट्टू की तरह.

 

मामूं वो मामूं ही न रहे. अजी कैसी क़व्वालियां और कैसे मुजरे बस बीवी तिगुनी का नाच नचा रही है, आप नाच रहे हैं.

 

‘ए बस, और थोड़े दिन के चोंचले हैं, पैर भारी हुआ नहीं कि सारा दुल्हनापा ख़त्म. एक न एक दिन तो भाई का जी भरेगा.’ दिलों को तसल्ली दी गई.

 

अल्लाह–अल्लाह करके रुख़साना मुमानी का पैर भारी हुआ तो अल्लाह तौबा न उल्टियां न तबीअत मांदी. चेहरे पे और चार चांद खिल उठे, क्या मजाल जो ज़रा सा अलकस आ जाए. वही शोख़ियां, वही अंदाज़–ए–माशूक़ाना जो नई दुल्हनों के हुआ करते हैं.

 

और मामूं का तो बस नहीं चलता उन्हें उठाकर पलकों में छिपा लें. दिल निकाल के क़दमों में डाले देते हैं. जी से उतरने के बजाए वो तो दिमाग़ पर भी छा गईं.

 

पूरे दिनों में भी रुख़साना मुमानी के हुस्न को गहन न लगा. जिस्म फैल गया मगर चांद दमकता रहा. न पैरों पर सूजन, न आंखों के गिर्द हल्क़े, न चलने फिरने में कोई तकलीफ़.

 

जापे के बाद चट से खड़ी हो गईं. क्या मजाल जो कमर बराबर भी मोटी हुई हों, वही कुंवारियों जैसा लचकदार जिस्म, भली बीवी के जापे में बाल झड़ जाते हैं, उनके वो अदबदा के बढ़े कि ख़ुद सर धोना दुशवार हो गया.

 

हां बीवी के बदले ज़रा मामूं झटक गए, जैसे बच्चा उन्होंने ही पैदा किया हो. थोड़ी सी तोंद ढलक आई. गालों में लंबी–लंबी क़ाशें गहरी हो गईं. बाल पहले से ज़्यादा सफ़ेद हो गए. अगर दाढ़ी न बनी होती तो गालों पर च्यूंटी के सफ़ेद–सफ़ेद अंडे फूट आते.

जब दो साल बाद बेटी हुई तो मामूं की तोंद और आगे खिसक आई. आंखों के नीचे खाल लटकने लगी. निचली डाढ़ का दर्द क़ाबू से बाहर हो गया तो मजबूरन निकलवाना पड़ी. एक ईंट खिसकी तो सारी इमारत की चूलें ढीली हो गईं. उन दिनों मुमानी की अक़्क़ल दाढ़ निकल रही थी. शुजाअत मामूं की बत्तीसी असली दांतों से ज़्यादा हसीन थी. उम्र का इल्ज़ाम नज़ले के सर गया.

 

इम्तियाज़ी फुफ्फो के हिसाब से रुख़साना मुमानी छब्बीस बरस की थीं. गो अब वो कभी बच्चों के साथ धमा–चौकड़ी मचाने के मूड में आ जातीं तो सोलह बरस की लगने लगतीं.

 

कई साल से उम्र का बढ़ना रुक गया था. ऐसा मालूम होता था उनकी उम्र अड़ियल टट्टू की तरह एक जगह जम गई है और आगे खिसकने का नाम ही नहीं लेती.

 

ननदों के दिल पर आरे चलते. वैसे भी जब अपने हाथ–पैर थकने लगें तो नौजवानों की शोख़ियां मुंह–ज़ोर घोड़े की दुलत्ती की तरह कलेजे में लगती हैं. और मुमानी तो साफ़ अमानत में ख़यानत कर रही थीं. शराफ़त और भल–मलनसाहट का तो ये तक़ाज़ा था कि वो शौहर को अपना ख़ुदा–ए–मजाज़ी समझतीं. अच्छे बुरे में उनका साथ देतीं. ये नहीं कि वो थके–मांदे बैठे हैं और बेगम बे–तहाशा मुर्ग़ियों के पीछे दौड़ रही हैं.

 

‘अरे भाभी, तुम पर ख़ुदा की सुवर, न सर की ख़बर है न पैर की, हुड़दंगी बनी मुर्ग़ियां खदेड़ रही हो!’

‘ए, तो क्या करूं ख़ाला, मुई बिल्ली…’

 

‘उई, लो और सुनो. ए बी मैं तुम्हारी ख़ाला कब से हो गई? शज्जन भाई मुझसे चार साल बड़े हैं माशाअल्लाह… बड़ा भाई बाप बराबर… तुम भी मेरी बड़ी हो, ख़बरदार जो तुमने फिर मुझे ख़ाला कहा.’

 

‘जी बहुत अच्छा.’ शादी से पहले रुख़साना मुमानी की अम्मां उनकी दुपट्टा बदल बहन कहलाती थीं.

 

वही हुस्न और कमसिनी जिसने एक दिन शुजाअत मामूं को ग़ुलाम बना लिया था, अब उनकी आंखों में खटकने लगी.

 

लंगड़ा बच्चा जब दूसरे बच्चों के साथ नहीं दौड़ पाता तो चढ़ कर मचल जाता है कि तुम बे–ईमानी कर रहे हो. मुमानी उनके साथ दग़ा कर रही थीं. कभी कभी तो उन्हें लड़कियों बालियों की तरह हंसता या दौड़ते भागते देखकर उनके दिल में टीसें उठने लगतीं, वो जल कर कोयला हो जातीं.

 

‘लौंडों को लुभाने के लिए क्या तन–तन के चलती हो’, वो ज़हर उगलने लगे. ‘हां अब कोई जवान पट्ठा ढूंढ लो.’

मुमानी पहले तो हंसकर टाल देतीं, फिर झेंप कर गुलनार हो जातीं. इस पर मामूं और भी चराग़–पा होते और भारी भारी इल्ज़ाम लगाते.

 

‘फ़लां से आंखें लड़ा रही थीं, ढिमाके से तुम्हारा तअ’ल्लुक़ है?’

 

तब मुमानी सन्नाटे में रह जातीं. मोटे–मोटे आंसू छलक उठते, अलगनी से दुपट्टा घसीट कर वो अपना जिस्म ढक कर, सर झुकाए कमरे में चली जातीं. मामूं का कलेजा कट जाता, उनके पैरों तले से ज़मीन खिसक जाती. वो उनके तलवे चूमते, उनके क़दमों में सर फोड़ते, उनके आगे नाक रगड़ते, रोने लगते. ‘मैं कमीना हूं, हराम–ज़ादा हूं, जूती लेकर जितने चाहो मरो. मेरी जान, मेरी रुख़ी, मेरी मल्लिका, शहज़ादी.’

 

और रुख़साना मुमानी अपनी रुपहली बांहें उनके गले में डाल कर भों–भों रोतीं.

 

‘तुम्हारा आशिक़–ए–ज़ार हूं मेरी जान. रश्क–ओ–हसद से जल–जल कर ख़ाक हुआ जाता हूं. तुम तो नन्हे को गोद में लेती हो तो मेरा ख़ून खौलने लगता है, जी चाहता है साले का गला घूंट दूं, मुझे मुआफ़ कर दो मेरी जान.’ वो झट मुआफ़ कर देतीं. इतना मुआफ़ करतीं कि शुजाअत मामूं की आंखों के हल्क़े और ऊदे हो जाते, और वो बड़ी देर तक थके हुए ख़च्चर की तरह हांपा करते.

 

फिर ऐसे भी दिन आ गए कि वो माफ़ी भी न मांग सकते. कई–कई दिन वो रूठे पड़े रहते. बहनों की उम्मीदें बंध जातीं.

 

‘भैया जान, भाभी को कुढ़ा–कुढ़ा कर मार रहे हैं. अब कोई दिन जाता है कि ये आए दिन की दांता किल–किल रंग लाएगी.’

 

मुमानी छुप–छुप कर घंटों रोतीं. आंसू भरी आंखों में लाल–लाल डोरे और भी सितम ढाने लगते. सुता हुआ ज़र्द चेहरा जैसे सोने की गिन्नी में किसी बे–ईमान सुनार ने चांदी की मिलावट बढ़ा दी हो. फीके फीके होंट, माथे पर उलझी सी एक वारफ़्ता लट. देखने वाले कलेजा थाम कर रह जाते. हुस्न–ए–सोगवार को देखकर मामूं के कंधे और झुक जाते, आंखों की वीरानी बढ़ जाती.

 

एक बेल होती है… अमर–बेल. हरे हरे संपोलिये जैसे डंठल… जड़ नहीं होती… ये हरे डंठल किसी भी सर–सब्ज़ पेड़ पर डाल दिए जाएं तो बेल उसका रस चूस कर फलती–फूलती है. जितनी ये बेल फैलती है, उतना ही वो पेड़ सूखता जाता है.

 

जूं–जूं रुख़साना बेगम के चमन खिलते जाते थे मामूं सूखते जाते थे. बहनें सर जोड़ कर खुसर फुसर करतीं.

 

भाई की दिन–ब–दिन गिरती हुई सेहत को देखकर उनका कलेजा मुंह को आता था. बिल्कुल झिरकुट हो गए थे. गठिया की शिकायत तो थी ही, नज़ला अलग अज़ाब–ए–जान हो गया. डाक्टरों ने कहा ख़िज़ाब क़तई मुवाफ़िक़ नहीं. मजबूरन मेहंदी लगाने लगे.

 

बेचारी रुख़साना एक–एक से बाल सफ़ेद करने के नुस्खे़ पूछती फिरती थीं. किसी ने कहा अगर ख़ुश्बूदार तेल डालो तो बाल जल्दी सफ़ेद हो जाएंगे. दुखिया ने इत्र सर में झोंक लिया. मामूं की नाक में जो शमामत–उल–अंबर की मदहोश–कुन ख़ुश्बू की लपटें पहुंचीं तो वो ग़लीज़ ऐब उन्होंने मुमानी पर लगाए कि अगर बच्चों का ख़याल न होता तो मुमानी कुंए में कूद जातीं, उनके बाल सफ़ेद होने की बजाए और मुलाइम और चमकदार हो कर डसने लगे.

 

मुमानी की जवानी के तोड़ के लिए मामूं ने तिब्ब–ए–यूनानी की तमाम माजूनें, मुक़व्वियात, कुश्ते और तेल इस्ति’माल कर डाले. थोड़े दिन के लिए उनकी भागती हुई जवानी थम गई. बांकपन लौट आया. मुमानी ने कुछ दुनिया–दारी के दांव–पेंच तो सीखे न थे, ख़ुद–रौ पौदा थीं… कभी किसी ने बारीकियां न समझाईं. अट्ठाईस साल की थीं मगर अठारह बरस जैसी ना–तजुर्बा–कार और अल्हड़पन था.

 

मोटर बहुत चलाओ तो इंजन जल जाता है, दवाओं का रद्द–ए–अमल जो शुरू’ हुआ तो शुजाअत मामूं ढह गए. एक दम बुढ़ापा टूट पड़ा. अगर वो जिस्म और दिमाग़ को इतना न तकतकाते तो बासठ बरस में यूं लुटिया न डूब जाती. अब वो अपनी उम्र से ज़्यादा लगने लगे.

 

बहनें ज़ार–ओ–क़तार रोईं, हकीम डाक्टर जवाब दे चुके थे. लोगों ने जवान बनने के तो लाखों नुस्खे़ ईजाद किए क़ब्ल–अज़–वक़्त बूढ़ा होने की कोई दवा नहीं, जो मुमानी को खिला दी जाती. ज़रूर उन पर कोई सदाबहार क़िस्म का जिन्न या पीर मर्द आशिक़ था कि किसी तौर से उनकी जवानी ढलने का नाम ही न लेती थी. तावीज़ गंडे हार गए, टोने टोटके चित्त हो गए.

 

अमर–बेल फैलती रही.

बरगद का पेड़ सूखता रहा.

 

तस्वीर हो तो कोई फाड़ दे, मुजस्समा हो तो पटख़ कर चकना–चूर कर दे. अल्लाह के हाथों का बनाया मिट्टी आग का पुतला, अगर हसीन भी हो और ज़िंदा भी, उसकी हर सांस में जवानी की गर्मी महक रही हो तो फिर कुछ बस नहीं चलता. उसके चढ़े हुए सूरज को उतारने की एक ही तरकीब हो सकती है कि खाने की मार दी जाए. घी, गोश्त, अंडे, दूध क़तई बंद.

 

जब से शुजाअ’त मामूं का हाज़मा जवाब दे गया था, मुमानी सिर्फ़ बच्चों के लिए गोश्त वग़ैरह मंगाती थीं. कभी–कभार एक निवाला ख़ुद चख लेती थीं, अब उससे भी परहेज़ कर लिया. सबको उम्मीद बंध गई कि अब इंशाअल्लाह ज़रूर बुढ़ापा तशरीफ़ ले आएगा.

 

‘ए भाभी, ये क्या उछाल छक्का लौंडियों की तरह मुई शलवार क़मीज़ पहनती हो, और भी नन्ही बन जाती हो, ननद कहतीं… ‘भारी भरकम कपड़े पहनो कि अपनी उम्र की लगो.’

 

मुमानी ने टिका हुआ दुपट्टा और ग़रारा पहन लिया.

 

‘किसी यार की बग़ल में जाने की तैयारी है’, मामूं ने कचोके दिए, मुमानी कपड़ों से भी ख़ौफ़ खाने लगीं.

 

‘ए भाभी ये क्या एक–आध वक़्त की नमाज़ पढ़ती हो, पंज–वक़्ता की आ’दत डालो.’

 

मुमानी पंज–वक़्ता नमाज़ पढ़ने लगीं. जब से मामूं की नींद बूढ़ी और नख़रीली हुई थी, तहज्जुद के वक़्त से जागना पड़ता था.

 

‘मेरे मरने के नफ़्ल पढ़ रही हो’, मामूं बिसूरते.

 

दुबली तो थीं, दिन रात की दांता किल–किल से और भी धान पान हो गईं. घी गोश्त से परहेज़ हुआ तो रंग और भी निखर आया, जिल्द ऐसी शफ़्फ़ाफ़ हो गई कि जैसे कोई दम में बिल्लौर की तरह आर–पार नज़र आने लगेगा. चेहरे पर अजब नूर सा उतर आया.

 

पहले देखने वालों की राल टपकती थी, अब उनके क़दमों पर सर पटख़ने की तमन्ना जागने लगी. जब सुब्ह–सवेरे नमाज़–ए–फ़ज्र के बाद क़ुरआन की तिलावत करतीं तो उनके चेहरे पर हज़रत मर्यम का तक़द्दुस और फ़ातिमा ज़ुहरा की पाकीज़गी तारी हो जाती. वो और भी कमसिन और कुंवारी लगने लगतीं.

 

मामूं की क़ब्र और पास खिसक आती, और वो उन्हें मुंह भर–भर के कोसते और गालियां देते कि भांजों–भतीजों के बाद वो जिनों और फ़रिश्तों को वर्ग़ला रही हैं, चिल्ले खींच–खींच कर जिन क़ाबू में कर लिए हैं, उनसे जादू की बूटियां मंगाकर खाती हैं.

 

ख़िज़ाब के बाद अब मेहंदी भी मामूं को आंखें दिखाने लगी थी. मेहंदी लगाते तो छींकें आकर नज़ला हो जाता. वैसे भी उन्हें मेहंदी से घिन आने लगी थी. रुख़साना मुमानी उनके बालों में मेहंदी लगातीं तो बा–वजूद एहतियात के उनके हाथों में भी शमएं लौ देने लगतीं.

 

उनके हाथ देखकर शुजाअत मामूं को ऐसा मालूम होता जैसे मेहंदी में नहीं मुमानी ने उनके ख़ून–ए–दिल में हाथ डुबो लिए हैं. वही हाथ जिन्हें वो कभी चम्बेली की मुंह–बंद कलियां कह कर चूमा करते थे, आंखों से लगाते थे, अब शिकरे के ख़ूं–ख़्वार पंजों की तरह उनकी आंखों में घुसे जाते थे.

 

जितना–जितना वो उनकी मुंडिया ज़मीन पर घिसते, मुमानी संदल की तरह महकतीं.

 

बहनें घर से तर माल तैयार करके भाई को खिलाने लातीं कि कहीं भावज ज़हर न खिला रही हो. अपने हाथ से सामने ख़िलातीं. मगर इन खानों से मामूं का हाल और पतला हो जाता. बवासीर की पुरानी शिकायत ने वो ज़ोर पकड़ा कि रहा सहा ख़ून भी निचोड़ लिया.

 

अभी तक उस ना–मुराद कुश्ते का असर बाक़ी था, जो उन्होंने पिछले जाड़ों में मुरादाबाद के एक नामी गिरामी हकीम साहब का नुस्ख़ा लेकर कई सौ की लागत से तैयार कराया था. नुस्ख़ा बेहद शाही क़िस्म का था जिसे मुर्दा खा लेता तो तनतना कर खड़ा हो जाता. मगर मामूं गोंदनी की तरह फोड़ों से लद गए.

 

दुखिया मुमानी घी को सैंकड़ों बार पानी से धोतीं. उसमें गंधक और बहुत सी दवाएं कूट छानकर मिलातीं. धड़ियों मरहम थोपा जाता, पतीलियों में नीम के पत्तों का पानी औटातीं और सुब्ह शाम पीप, ख़ून धोतीं, उनमें से चंद फोड़े मुस्तक़िल नासूर बन गए थे और मामूं को निगल रहे थे.

फिर एक दिन तो अंधेर ही हो गई. मामूं बहुत कमज़ोर हो गए थे. बहनें बैठी भावज का दुखड़ा रो रही थीं कि नज्जी बुढ़िया ख़ुदा जाने कहां से आन मरी. पहले तो वो शुजाअत मामूं को नाना–जान समझ कर उनसे फ़्लर्ट करने लगी. किसी ज़माने में नाना–जान उस पर बहुत मेहरबान रह चुके थे.

 

बुढ़िया ना–मुराद की मत मारी गई थी. नाना–जान को मरे बीस बरस हो चुके थे. और वो अपनी चीपड़ भरी आंखों में पुराने ख़्वाब जगाने पर मुसिर थी, बड़ी ले दे के बाद वो मामूं का असली मुक़ाम समझी तो मरहूमा मुमानी का मातम ले बैठी.

 

‘है है. क्या बुढ़ापे में दग़ा दे गईं.’ अचानक उसकी नज़र मुमानी पर जा पड़ी. मुमानी सहन में कबूतरों को दाना डाल रही थीं. अजब प्यारे अंदाज़ में वो गर्दन नौढ़ाए बैठी थीं, जैसे तस्वीर खिंचवा रही हों. कबूतर उनकी बिल्लौरी दमकती हुई हथेली को गुदगुदा रहे थे. और वो बे–इख़्तियार हंस रही थीं.

 

‘हाय मैं मर गई!’ बुढ़िया ने अपना चपाती जैसा सीना कूट कर रुख़साना मुमानी की तरफ़ हवा में बलाएं लेकर कनपटियों पर दसों उंगलियां चड़–चड़ चटख़ाईं, ‘अल्लाह पाक नज़र–ए–बद से बचाए. बिटिया तो चांद का टुकड़ा है. मैं जानूं मीठा बरस लगा है. ए मियां’, वो राज़दारी के अंदाज़ में मामूं के क़रीब खिसकी, ‘सौदागरों का मंझला बेटा विलायत पास करके आया है. अल्लाह क़सम बस चांद और सूरज की जोड़ी रहेगी.’

 

किसी ज़माने में बुढ़िया बड़ी मारके की मश्शाता थी, अब उसका बाज़ार बंद हो चुका था. चोंडा सफ़ेद हुआ, हाथ पैर से माज़ूर हुई तो टुकड़े मांग कर गुज़र–औक़ात करने लगी थी.

 

थोड़ी देर तक तो किसी की समझ ही में न आया कि बुढ़िया मुर्दार क्या बक रही है. सौदागरों का मंझला बेटा जो विलायत पास था, सबकी निगाहों में था. किसी को शुबह भी न हुआ कि नाशुदनी क़ुत्तामा रुख़साना मुमानी का रिश्ता लगाने की ताक़ में है.

 

‘इमाम हुसैन की क़सम, मियां मैं तो कंगनों की जोड़ी लूंगी. बात छेड़ूं?’बात जो वाज़ेह हुई और पानी मरा तो भिड़ों का छत्ता छिड़ गया. चारों तरफ़ से तोपें दगने लगीं.

 

‘है है, मुझ जनम पीटी को क्या ख़बर?’ बुढ़िया स्लीपर पहनती रपटी, बाहर की तरफ़ चलते चलते उसने मामूं की पिटी हुई सूरत पर एक मुश्तबा नज़र डाली, ‘मुंह पर तो साफ़ कुंवारपना बरस रहा है.’

 

उस दिन शुजाअत मामूं ने क़ुरआन उठाकर सब के सामने कह दिया कि ये दोनों बच्चे उनके नहीं, अड़ोस–पड़ोस की मेहरबानियों का फल हैं जिनसे रुख़साना बेगम ताक–झांक किया करती हैं.

उस रात वो रोते रहे, कराहते रहे, अंगारों पर लोटते रहे. उस रात उन्हें बड़ी मुमानी बहुत याद आईं, उनके बाल क़ब्ल–अज़–वक़्त पक गए थे, उनकी जवानी, उनका दुल्हनापा आंसुओं में बह गया. नेकी और पारसाई का मुजस्समा, वफ़ा की पुतली… उनके हिस्से का बुढ़ापा भी उन्होंने अपने वजूद में समेट लिया, और शरीफ़ बीवियों की तरह जन्नत को सिधारीं.

 

आज वो होतीं तो ये दर्द, ये सोज़िश, ये सफ़ेद जड़ों वाले मेहंदी लगे बाल, ये रिस्ते नासूर, ये तन्हाई बट जाती. फिर बुढ़ापा यूं न दहलाता. दोनों साथ बूढ़े होते, एक दूसरे के दुःख को समझते, सहारा देते.

 

अमर–बेल दिन दूनी रात चौगुनी फैलती गई. बड़के पेड़ का तना खोखला हो गया, टहनियां झूल गईं, पत्ते झड़ गए… बेल पास के दूसरे हरे–भरे पेड़ पर रेंग गई.

 

कैसा जां–सोज़ समां था. शुजाअत मामूं की मय्यत सेहन में बनी संवरी रखी हुई थी, बहनें खड़ी खड़ी पछाड़ें खा रही थीं. मामूं ने अपनी सारी जायदाद बहनों के नाम हेबा कर दी थी.

रुख़साना मुमानी सबसे अलग थलग दर से लगी बैठी थीं. कहने वाले कहते हैं कि इतनी हसीन और सोगवार बेवा ज़िंदगी में कभी नहीं देखी.
सफ़ेद कपड़ों में वो अ’जीब पुर–असरार ख़्वाब लग रही थीं. रो–रो कर आंखें मख़मूर और बोझल हो रही थीं. ज़र्द चेहरा पुखराज के नगीने की तरह दमक रहा था. पुरसे को आने वाले सब कुछ भूल कर बस उन्हें तकते रह जाते.
उन्हें मरहूम की ख़ुश–नसीबी पर रश्क आ रहा था.

 

मुमानी पर बे–पनाह बेबसी और अफ़्सुर्दगी छाई हुई थी. ख़ौफ़ और सरा–सीमगी से उनका चेहरा और भी भोला लग रहा था. दोनों बच्चे उनके पहलू से लगे बैठे थे. वो उनकी बड़ी बहन लग रही थीं.

 

वो गुम–सुम बैठी थीं, जैसे क़ुदरत के सबसे मश्शाक़ फ़नकार ने अपनी बे–मिस्ल क़लम से कोई शाहकार बनाकर सजा दिया हो.

The
End

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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