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Ya Khuda: A Short Urdu Story : Make Eyes wet: By Qudratulla Shahab

by Engr. Maqbool Akram
November 12, 2020
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”उस तरफ क्या ताकती है, साली तेरा खसम है उधर?” अमरीक सिंह ने कृपाण की नोक से दिलशाद की पसलियों को गुदगुदाया, और बाँया गाल खींचकर उसका मुँह पश्चिम से पूरब की ओर घुमा दिया

 

दिलशाद मुस्करा दी। यह मुस्कराहट उसकी विशेषता बन गयी थी। बचपन में उसका सफलतम हथियार उसका रोना था। एक थोड़ी–सी ईं–ईं, राँ–राँ करके वह माँ के सीने में छुपे हुए दूध से लेकर, अलमारी में रखी हुई बर्फी तक हरेक चीज प्राप्त कर लेती थी।

 

अब जवानी ने उसकी मुस्कराहट में प्रभाव पैदा कर दिया था। इस नए जादू के बारे में उसे उस समय मालूम हुआ, जब उसकी एक मुस्कराहट पर निसार होकर रहीम ख़ाँ ने कसम खा ली थी कि, अगर चाँद–सूरज या तारे भी उसे उठा ले जाएँ तो वह धरती–आकाश के फैलाव फाँदकर उसे छीन लाएगा।

 

रहीम ख़ाँ झूठा था। मक्कार कहीं का। आसमानों की बात तो दूर की बात थी, वह तो उसे धरती ही धरती खो बैठा। दिलशाद नंजर बचा–बचाकर बैठी थी, और कल्पना में अपने माथे को उस स्थान पर झुका दिया करती थी, जिसके दामन में दया की एक बेचैन दुनिया छुपी बतायी जाती थी। पश्चिम की ओर काबा था। काबा अल्लाह का घर था।

 

उसकी कल्पना दिलशाद के दिल में श्रध्दा और आशा का एक चमकता दीया जला देती थी। लेकिन, अमरीक सिंह को पश्चिम से बड़ी चिढ़ थी। यूँ भी सिखों की इस बस्ती में कुछ रीतियाँ बड़ी टेढ़ी थीं। एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। बारह बजे से बारह बजे तक उनके शरीर कमान की तरह तने रहते थे। यूँ मालूम होता था, किसी ने बस्ती–भर के बच्चों, जवानों और बूढ़ों को बिजली के तार में पिरोकर, उनमें करंट दौड़ा दिया हो।

 

अमरीक सिंह का घर मस्जिद के पीछे था। उस मस्जिद के संबन्ध में सारे गाँव में यह बात फैल रही थी, कि शाम होते ही, उसके कुएँ से विचित्र डरावनी आवांजें आती हैं, जैसे दो–चार बकरों के गले पर एक साथ छुरी फेरी जा रही हो।

”साला–हरामी!”

अमरीक सिंह कहा करता था, ”मरने के बाद भी डकरा रहा है, भैंसे के समान। डाल तो कुछ टोकरे कुएँ में।”

 

”अरे भाई, छोड़ो भी।” अमरीक सिंह का भाई त्रिलोक सिंह मजाक उड़ा रहा था, ”बाँग दे रहा है मुल्ला।”

 

लेकिन अमरीक सिंह की पत्नी डरती थी। रात के सन्नाटे में जब मस्जिद का कुआँ गला फाड़–फाड़कर चिंघाड़ता तो उसका सारा शरीर पसीने में नहा उठता। उसकी आँखों के सामने मुल्ला अलीबख्श का चित्र आ जाता, जो मस्जिद के हुजरे में रहा करता था। निर्बल शरीर, दो हाथ की सफेद दाढ़ी, आँखों पर मोटे शीशे का चश्मा, सिर पर पीली मलमल की बेढब–सी पगड़ी। हाथों में कँपकँपाहट, गर्दन में उभरी नसें। लेकिन जब वह मिम्बर पर खड़ा होकर, पाँचों समय की अजान देता था, तो मस्जिद के गुम्बज गूँज उठते।

 

अजान की आवाज से अमरीक सिंह की पत्नी को बड़ा कष्ट होता। उसने बड़े–बूढ़ों से सुन रखा था, कि अंजान में काले जादू के बोल होते हैं। जवान औरतें उसे सुनकर ‘बाँगी‘ हो जाती हैं। अगर अविवाहित लड़की बाँगी हो जाए तो उसके बाँझ होने का डर रहता है, और अगर विवाहित पत्नी बाँगी हो जाएे तो उसके गर्भ गिरने लगते थे।

 

इसलिए अमरीक सिंह के घर में, कई पीढ़ियों से यह रीति थी, कि उधर अजान की आवाज हवा में लहरायी और इधर किसी ने कटोरे चम्मच से बजाना आरम्भ किया, किसी ने चिमटे को तवे से लड़ाया। कोई भागकर कोठरी में जा घुसी।

 

अमरीक सिंह की पत्नी के पेट में सवा लाख खालसे पल रहे थे। सिक्खों की गिनती में एक सिक्ख सवा लाख इनसानों के बराबर गिना जाता था। जब मस्जिद का कुआँ आधी रात गये अमरीक सिंह की पत्नी की कल्पना में भयानक गूँज बनकर डकारता तो उसके पेट में खालसों की फौंज भाग–दौड़ मचाने लगती।

 

कभी उसके कानों में कुएँ की चिंघाड़ें दिल दहला देने वाले रूप में गूँजतीं, कभी उसकी कल्पना में कुआँ जबड़ा फाड़े उसकी ओर लपकता। हर समय उसे यह धड़का लगा रहता कि, मुल्ला अलीबख्श कुएँ की दीवार के साथ रेंगता हुआ बाहर निकल रहा है, और आँख झपकते ही कुएँ की मुँडेर पर खड़ा होकर न जाने उसे कब बाँग कर रख देगा।

 

अमरीक की बहन अभी अविवाहित थी, लेकिन उसके दिल पर सवा लाख का कब्जा था। रात को जब वह अपनी चारपाई पर लेटकर उन मीठी–मीठी गुदगुदाइयों को याद करती जो मकई के खेत की ओट में सवा लाखों की भूखी उँगलियाँ उसके शरीर को छलनी बनाकर रख देती थीं, तो उसके सीने में इच्छाओं की एक भीड़ उमड़ आती, और वह विचारों ही विचारों में अपने शरीर को जवाँ–जवाँ शक्तिशाली खालसों के अस्तित्व से आबाद कर लेतीमगर, फिर, मस्जिद वाले कुएँ की दिल दहला देनेवाली आवाज उसकी कल्पना के महल को ढहा देती, और उसे तुरन्त महसूस होता कि कुएँ की गहराई से भी मुल्ला अलीबख्श काले जादू के बोल पुकार–पुकार कर उसके पेट से चलने वाली पीढ़ियों के नाके बन्द कर रहा है।

 

अमरीक को अपनी पत्नी और बहन दोनों पर गुस्सा आता था। कायर की बच्चियाँ! मुल्ला अलीबख्श तो कब से दूर दफन हो चुका है। जिस दिन वह कुएँ की मुँडेर पर बैठा वंजू कर रहा था, अमरीक ने ख़ुद उसे भाले की नोंक पर उछाला, त्रिलोक ने उस पर अपनी कृपाण को आंजमाया, ज्ञानी दरबार सिंह ने उसके झुझाते हुए खून में लथपथ शरीर को तड़ाक से कुएँ में फेंक डाला।

 

एक मुल्ला अलीबख्श ही क्या अब तो चमकोर का सारा गाँव साफ हो चुका था, कुछ लोग भाग गये थे, कुछ मर चुके थे। लेकिन यह औरतें थीं कि अब भी बाँगों के डर से अपनी बच्चेदानियों को छुपाये–छुपाये फिरती थीं। इसलिए जब अमरीक सिंह की पत्नी और बहन सोते–सोते चीखकर छातियाँ पीटने लगतीं तो उसका दिल क्रोध से बुरी तरह जलने लगता, और वह चिमटा उठाकर उन्हें पीटने लगता।

 

मारते–मारते उसके हाथ थक जाते। बाजुओं में थकान आ जाती और वह अपनी दाढ़ी से पसीने की बूँदों को पोंछता हुआ पागलों के समान लपककर दिलशाद के पास चला जाता। इसी प्रकार गाँव भर के लोग अपनी पत्नियों और बहनों से भागकर अपने शरीर के तूफान को कम करने के लिए दिलशाद के पास चले जाएा करते थे।


दिलशाद को मस्जिद में रखा गया था। यूँ तो उसके पास शरीर भी था और जान भी, लेकिन, उसकी सबसे लोकप्रिय चीज उसके अब्बा की वह माला (तस्बीह) थी। मुल्ला अलीबख्श के हाथ उस माला पर घूमते–घूमते बूढ़े हो गये थे। पीले पत्थर के गोल–गोल दानों पर उसकी उँगलियों के निशान फरयादी के समान चिपके हुए थे। यही कुछ मोती थे जिससे दिलशाद की लुटी हुई सीप अब तक आबाद थी। वह दिन–भर उस माला को गले में डाले कमींज के नीचे छुपाये रहती थी, लेकिन शाम पड़ते ही उसे किसी वीरान कोने में दबा देती थी।

आधी रात गये वह मस्जिद वाले कुएँ की मुँडेर से लिपटकर रोया करती थी। उसकी आँखें कुएँ में टकटकी लगाये थक जाती थीं, कि शायद उसके अब्बा की तैरती हुई पगड़ी की एक झलक, कभी उसकी आँखों को जीवित कर दे। उसके कान कुएँ की तरफ लगे थक जाते थे, कि शायद उसके अब्बा की अन्तिम सिसकी, एक बार फिर सुनाई दे, या वे भयानक चिंघाड़ें, जिन्होंने गाँव भर की औरतों को परेशान कर रखा था, उसके कानों तक भी पहुँचें।

 

लेकिन कुआँ ऍंधेरों से भरा था और कब्र के समान खामोश। जब कभी कोई आवारा चमगादड़ उसमें पर फड़फड़ाती तो, हर फड़फड़ाहट के साथ बदबू के तेज भभके वातावरण में बिखर जाते थे, क्योंकि अलीबख्श का गला मरने के बाद भी बन्द रखने के लिए, कुएँ को गन्दे कूड़े–करकट से अटाअट भर दिया था।

 

दिलशाद का अस्तित्व एक टूटे हुए तारे के समान था, जिसके टुकड़े आकाश के वीरानों में अकेले ही अकेले भटक रहे हों। आकाश का फैलाव मिट चुका था। सूरज और चाँद छुप गये थे। तारों के दीप बुझ चुके थे। वह अकेली रह गयी थी, बिना किसी सहारे के मस्जिद के दरवाजे के साथ लगी हुई, सहमी हुई, घबरायी हुई चकित। उसके दम से मस्जिद फिर आबाद हो गयी थी। लोग बोरियाँ बाँध–बाँधकर वहाँ आते थे।

 

चमकौर की मस्जिद, गुरुद्वारों से भी अधिक आबाद हो गयी थी। धीरे–धीरे विवाहित और अविवाहित माँओं को यह अहसास सताने लगा कि मुल्ला अलीबख्श के बाद उसकी बेटी उनकी कोख को लूटने पर तुली है। वह तो चिमटे खा–खाकर अपनी चारपाइयों पर सो जाती थीं, लेकिन उनके बहादुर पति रात–भर दिलशाद के साथ अपनी आनेवाली पीढ़ियों का सौदा किया करते थे। अमरीक सिंह, उसका बाप, उसका भाईएक के बाद दूसरा, दूसरे के साथ तीसरा…रात–भर वे नंजरें बचा–बचाकर मौका जाँच–जाँचकर मस्जिद के आस्ताने पर हाजिरी देते थे।

 

भुनी कलेजी और गुर्दे उड़ाते थे। तले हुए कबाबों का दौर चलता था और अपनी पीढ़ी के बीज जिन्हें हरा–भरा रखने के लिए उनकी पत्नियाँ सौ–सौ तरह के जतन करतीं, वह बिना झिझके मस्जिद की चारदीवारी में बिखेर आते और एक दिन बैठे–बिठाये दिलशाद सरसों के समान फूल उठी। जब यह बात फैली तो गाँव में आग लग गयी थी, पत्नियों ने चीख–चीखकर अपना सिर पीट लिया, क्वाँरी लड़कियों ने रो–रोकर अपनी आँखें सुजा लीं और मकई के खेतों में छुप–छुपकर अपने खालसों से मिलना छोड़ दिया।

 

कुएँ की चिंघाड़े तेज होने लगीं। घरों में फिट पर फिट आने लगे। चिमटे पर चिमटे चलने लगे। एक कोहराम मच गया। पहले तो सबकी यह राय हुई कि बच्चे के जन्म लेने से पहले ही दिलशाद को मारकर कुएँ में फेंक दिया जाए, लेकिन फिर अमरीक सिंह को एक लाभदायक तरकीब सूझी। आम के आम गुठलियों के दाम। एक दिन वह दिलशाद को, अपनी गाड़ी में बिठाकर, पास के थाने में ले गया और अपहरण की गयी मुसलमान औरतों को खोज निकालने के अपने प्रयत्न के सबूत में दिलशाद को पेश कर दिया।

 

थानेदार लभूराम ने अमरीक सिंह के इस कार्य की बड़ी प्रशंसा की। पुलिस की ओर से धन्यवाद का एक प्रमाण–पत्र उसे मिलेगा, और कमिश्नर साहब की ओर से भी। फिर थानेदार साहब ने ऐनक उठाकर दिलशाद को भरपूर नंजरों से देखा। अच्छी जवान थोड़ी पीली–सी। लेकिन गर्म–गर्म, और जब उनकी नंजर दिलशाद के पेट पर पड़ी तो उनकी उभरी हुई इच्छा को एक धक्का–सा लगा।

 

पहले उन्होंने सोचा कि अगर दस–बीस दिन की बात हो उसे भी थाने में रख लें, लेकिन जब हेड कांस्टेबल दुर्योधन सिंह ने जोड़–तोड़ के हिसाब लगाया कि, अभी ‘ख़लास‘ होने में साढ़े तीन महीने शेष हैं, तो थानेदार को बड़ी निराशा हुई।

 

लेकिन फिर भी रात को खाना खाकर पतली–सी बनियान और जाँघिया डालकर चारपाई पर लेटे तो, उन्होंने पाँव दबाने के लिए दिलशाद को अपने पास बुलाया। जाते चोर की लँगोटी ही सही। थानेदार साहब के पाँव का दर्द बढ़ते–बढ़ते पिंडलियों तक आ गया, फिर घुटनों में, फिर रानों के अन्दर फिर कूल्हों के आसपास, फिर वह दिलशाद का हाथ पकड़कर अपनी दुखती हुई रगों को दबाते रहे। थानेदार जी के लिए इच्छा का दूसरा नाम संतोष था।

 

दिलशाद के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। पिछले कुछ महीनों में उसने जीवन के कुछ ऐसे खेल खेले, कि उसके शरीर की बोटी–बोटी जैसे मरहम का फाहा बनकर रह गयी थी। जो कोई जहाँ से चाहता लगा लेता। उसके शरीर का हर भाग भड़कते हुए, काँपते हुए, बेचैन इंसानों को कुछ क्षणों में ही सन्तोष का प्याला पिला देता था।

 

लेकिन उसकी अपनी रग–रग में कितने फोड़े थेकाश! रहीम खाँ होता तो देखता। दिलशाद को अपने आप पर गुस्सा आता था कि, उसने बेचारे रहीम खाँ को बेकार ही निराश किया था। एक दिन जब उसने उसे जबरदस्ती चूमने की कोशिश की थी, तो दिलशाद ने गुस्से से उसके सिर पर ऐसा दोहत्थड़ मारा था, कि उसकी चूड़ियाँ टूटकर रहीम ख़ाँ के माथे में गड़ गयी थीं, और फिर रात–भर अंगारों पर लोटती रही थी कि, न जाने खुदा और रहीम ख़ाँ को इस पाप की क्या सजा देंगे। बेचारा रहीम खाँ!

 

पन्द्रह–बीस दिन बाद जब थानेदार के घुटनों, कूल्हों और कमर का दर्द कुछ कम हुआ तो उन्होंने दिलशाद को छुट्टी दे दी और हेड कांस्टेबल के साथ अम्बाला कैम्प में भेज दिया। रास्ते में हेड कांस्टेबल के कूल्हों और घुटनों में कई बार दर्द उठा, लेकिन दिलशाद फुर्ती से उसके दर्द का उपचार करती रही। दस घंटे की यात्रा उन्होंने दस–बारह दिनों में कुशलता के साथ तय की।

 

अम्बाला कैम्प में बहुत–सी लड़कियाँ थीं। बहुत सुन्दर, जवान औरतें भी, लेकिन टूटे हुए तारों के समान, जिनकी चमक बुझ गयी थी। जिनकी आकाश गंगा लुट गयी हो। हर दिन फौंजी ट्रक आते थे, और नई–नई लड़कियों को, नई–नई औरतों को कैम्प में छोड़ जाते थे।

 

दिलशाद को अब एक प्रकार की छुट्टी थी। यूँ तो अच्छी सन्तान हमेशा माँ–बाप का सहारा होती है। लेकिन दिलशाद को अपनी होनेवाली सन्तान पर बड़ा भरोसा था। उसने पैदा होने से पहले की अपनी मजबूर माँ को अपने संरक्षण में ले रखा था।

 

अम्बाला कैम्प के पास रेलवे लाइन थी। सूरज के उजाले में रेल की पटरियाँ, चाँदी के तार बनकर चमकती थीं और बहुत दूर पश्चिम की ओर उनकी चाँदी जैसी लड़ियाँ, सपनों के सुहाने टापुओं में गुम हो जाती थीं, और कैम्प की औरतें उन पटरियों को छू–छूकर मस्त हो जाती थीं कि उनका दूसरा सिरा पूर्वी पंजाब में नहीं, बल्कि पश्चिमी पंजाब में है।

 

पश्चिमी पंजाब का ध्यान आते ही दिलशाद की याद में एक नन्हा–सा दीया टिमटिमा उठतापश्चिम में काबा हैकाबा अल्लाह का घर है। लेकिन कैम्प की दूसरी औरतें कहती थीं, पश्चिम में और भी बहुत कुछ है। वहाँ हमारे भाई हैं, हमारी बहनें हैं, हमारे माँ–बाप हैं, वहाँ आदर है, वहाँ आराम है .दिलशाद सोचती थी कि शायद वहाँ रहीम ख़ाँ भी हो।

 

यह ध्यान आते ही उसके शरीर का अंग–अंग मचल उठता। वह बेचैन हो जाती कि, पर लगाये, उड़ जाएे और अपने थके, दुखे हुए शरीर पर पवित्र धरती की मिट्टी मल ले। सप्ताह दो सप्ताह, महीने दो महीने, दिन बीतते गये। रातें बीतीं और पश्चिम की प्रसन्न कर देनेवाली कल्पना, दिलशाद के सीने में गुलबूटे खिलाती रही।

 

अम्बाला कैम्प की आबादी बढ़ती गयी। मेजर प्रीतम सिंह और उसके जवानों का दिल अच्छी तरह भर गया तो, एक दिन वह रेल भी आ गयी जिसकी प्रतीक्षा में आशाओं के दीये अभी तक जल रहे थे। जब वह रेल में सवार हुई, तो दिलशाद को मुल्ला अलीबख्श की याद आ गयी। वह भी इसी प्रकार रेल में बैठकर हज को रवाना हुआ था। गले में हार था और गाँव के लोग बाजा बजाते स्टेशन तक आये थे।

 

रेल के हर फर्राटे के साथ औरतों के टूटे हुए शीशे झनझना उठते थे। पहियों के हर चक्कर के साथ उनके शरीर और आत्मा का बल निकल जाता था। जब वह खिड़कियों से झाँक–झाँककर तार के खम्बों को देखती, तो उसे विश्वास हो जाता कि, वह आगे की ओर जा रही है। धरती का जो चप्पा उनके नीचे से निकलता वह उन्हें पूर्वी पंजाब से उठाकर पश्चिम के निकट ले जाता।

 

अगर कहीं गाड़ी रुकती तो सारी दुनिया दम साध लेती। समय की गति रुक जाती और उन्हें यह डर लगता कि इंजन के सामने शायद बड़े–बड़े पहाड़ उग आये हैं। जब गाड़ी दोबारा चलती तो, दिल की धड़कनें जाग उठतीं। सीनों की इच्छाएँ तांजा हो जातीं, और वे खिड़की से हाथ निकालकर उन हवाओं को छूने की कोशिश करतीं जो पश्चिम की ओर से आ रही थीं।

 

लुधियाना, फुलवार, जालन्धर…अमृतसर हर ठिकाने पर औरतों के जीवन के बन्द खुलते गये। उनके शरीर में सोया संगीत जागने लगा। वे गुनगुनाने लगीं, मुस्कराने लगीं, आँखें मल–मलकर एक–दूसरे को देखने लगीं, जैसे किसी भयानक सपने को बहलाने की कोशिश कर रही हों।

 

किसी ने बालों में कंघी की, किसी ने दुपट्टे के पल्लू से दाँतों की मैल उतारी, कोई कपड़े झाड़ने लगी, कोई बच्चों को लोरियाँ सुनाने लगीं। कुछ औरतों ने सिर से सिर जोड़कर गीत गाये। प्यारे–प्यारे गीत रस–भरे गीत ,ऐ काली कमली वाले मैं तेरी नगरी में आयी हूँ। मुझे अपनी कमली में छुपा ले। मुझे अपने पाँव की खाक बना ले…

 

जब गाड़ी अमृतसर स्टेशन से निकली तो किसी ने कहा कि अब केवल डेढ़ घंटे की यात्रा शेष है। बस डेढ़ घण्टे। यह अविश्वसनीय विचार, औरतों के शरीर पर शराब के तेज नशे के समान छा गया। अपनी मंजिल को इतना निकट पाकर वह एहसास की तेजी से अपनी सुध–बुध गँवा बैठीं। अतीत की खौंफनाक सच्चाइयाँ भविष्य की सुहानी इच्छाओं पर छा गयीं।

 

अचानक उनको अपने गाँवहरे–भरे गाँव याद आने लगे। अपने जवान–जवान भाई। अपने बूढ़े, कमजोर माँ–बाप। अपनी उदासीन बहनें जो कैम्पों में बैठी, देवताओं की प्रतीक्षा कर रही थीं, कि वह उन्हें कहीं दूर पश्चिम की ओर…वह रोने लगीं। उनके गालों पर आँसुओं के नाले बहने लगे। दिलशाद भी रो रही थी। बिलख–बिलख करसिसक–सिसक कर वह रोती गयी। रोती गयी। यहाँ तक कि उस पर नींद छाने लगी।

 

जब उसकी नींद खुली तो गाड़ी का डिब्बा खाली हो चुका था। स्टेशन की एक मेहतरानी डिब्बे के फर्श को पानी से धो रही थी। दिलशाद के पहलू में एक नन्हीं–सी बच्ची रो रही थी। स्टेशन पर चहल–पहल थी। एक चाय वाला खिड़की के पास, खोमचा लगाये दूध उबाल रहा था।

 

दिलशाद उठकर खिड़की के सहारे बैठ गयी। उसने कमजोर आवांज में चाय वाले से पूछा, ”क्या यह पश्चिम है भाई?”चाय वाला अपने पीले भौंडे दाँत निकला कर हँसा, ”क्यों, क्या नमाज पढ़ोगी इस वक्त?”

 

स्टेशन की मेहतरानी तब फर्श को धो चुकी, तो उसने अपनी मेहनत के लिए दिलशाद से एक चवन्नी माँगी। फिर निराश होकर उसने दिलशाद को कुछ गन्दी गालियाँ दीं, ”सारा डिब्बा अपवित्र कर दिया। राँड थोड़ा भी न ठहर सकी, रास्ते में ही जन बैठी…”

 

 वह मेहतरानी जाकर एक मजबूत से मेहतर को अपने साथ ले आयी और दोनों ने मिलकर दिलशाद को डिब्बे से निकाल दिया।

 

प्लेटफार्म पर सामान लादनेवाला एक ठेला खड़ा था। दिलशाद उसके साथ पीठ लगाकर बैठ गयी। सामने चाय का स्टाल था। उससे आगे फलों की दुकान थी। दिलशाद का गला काँटों के समान सूख रहा था। उसकी जीभ पर गन्दले और मैले थूक की पपड़ियाँ जमी थीं। उसकी कमर में दर्द की टीसें उठ रही थीं, और सारा शरीर दुखते हुए फोड़े के समान चुरमुर–चुरमुर कर रहा था।

 

दिलशाद की नन्ही–सी बच्ची चुहिया के समान उसके सीने से चिपकी हुई, चुस–चुस दूध पी रही थी। कभी वह सोचती थी कि शायद वह रात–भर सोती ही रही है, और पश्चिम की सुहानी मंजिल को पीछे छोड़ आयी। कभी उसे ध्यान आता कि शायद स्टेशन की गगनचुम्बी इमारतों के पीछे, उसका रहीम खाँ उसकी प्रतीक्षा में खड़ा हो। वह उठी कि, लोगों की भीड़ के थोड़ा निकट हो जाएे, लेकिन उसके घुटने कटाक से बजकर रह गये, और उसकी पिंडलियाँ कँपकँपाने लगीं। वह सिर थामकर ठेले के सहारे फिर बैठ गयी।

 

दो जवान लड़के जो कीमती लिबास पहने थे, और हाथों में हाथ लिये प्लेटफार्म पर टहल रहे थे, जब दिलशाद के सामने से गुजरे तो दूर तक पीछे मुड़–मुड़कर उसे देखते रहे। धीरे–धीरे वे ठीक दिलशाद के सामने आकर खड़े हो गये। दिलशाद का दिल पसलियों के साथ जोर–जोर से कँपकँपाने लगा। भय और आशा का एक अजीब–सा ताना–बाना उसके मस्तिष्क पर छा गया।

 

चमकोर की मस्जिद में अगर कोई उसे घूर कर देखता तो वह मजबूर होकर अपना शरीर ढीला छोड़कर बैठ जाती थी; क्योंकि उसे मालूम था, कि अगले क्षण उसे घूरने वाले का हाथ, उसके मांस को नोच–खसोटकर रख देगा। लेकिन रेल में बैठ जाने के बाद उसने उन सुहानी आशाओं का सहारा पकड़ लिया था, जो पश्चिम की कल्पना से उसके हृदय एवं मस्तिष्क में बसी हुई थीं।

 

इसलिए वह सोचने लगी थी कि शायद यह सुन्दर–से जवान वह कृपालु भाई हों, जिनके खून का आकर्षण अम्बाला कैम्प की औरतों को हर क्षण अपनी ओर खींचता रहता था। इस विचार से दिलशाद के दिल में प्रसन्नता की एक लहर–सी नाची।

 

वह तो मुस्कराना भी चाहती थी, लेकिन उसके शरीर में दर्द की टीसों का तूंफान उठा हुआ था। इसलिए बहुत कोशिश के बाद भी वह बनावटी ढंग से भी न मुस्करा सकी। फिर भी प्रेम की लोच उसका दुखता हुआ रिसता हुआ शरीर इकट्ठा कर सकता था। उसने अपनी आँखों में समेटकर, उन नौजवानों की ओर बड़े प्यार से देखा।

 लाहौर

”अनवर!” एक नौजवान सिगरेट का धुआँ दूसरे के मुँह पर छोड़कर मुस्कराया। ”रशीद!” दूसरे नौजवान ने भी उतने ही जोश से कहा।अनवर! रशीद!! दिलशाद जैसे प्रसन्नता में डूब गयी। यह दो नाम उसके कान में जैसे अमृत टपका गये। महीनों से वह ऐसे जाने–पहचाने नाम सुनने को तरस गयी थी। उसके गाँव के अनवर, रशीद, महमूद, नसीम, ख़ालिद, जावेद के नामों की जगह शमशेर सिंह, अमरीक सिंह, करतार, त्रिलोक सिंह, दरबारा सिंह ने ले ली थी।

 

लेकिन अब जबकि उसके कानों में रशीद और अनवर के नाम पड़े तो उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे वह किसी पवित्र जल में नहा रही हो। उसकी गिरी गर्दन गर्व से ऊपर उठने लगी, उसके निराश और दुखी सीने में आशा और प्रसन्नता की किरणें फूटने लगीं, उसने हाथ के इशारे से उन दोनों जवानों को अपने पास बुलाया।

 

 ”यह क्या जगह है भाई ?” दिलशाद ने पूछा।

”लाहौर है।” अनवर ने कहा।

”तुम कहाँ जाओगी?” रशीद ने पूछा।

”जहाँ कोई ले जाए।” दिलशाद को पश्चिम की धरती अपना घर दिखाई दी थी और पश्चिम का हर जवान अपना भाई।

 

 ”बाप रे बाप!” अनवर ने रशीद के कान में धीरे से कहा।

”बुरी स्पोर्ट है भाई।” रशीद ने अनवर को आँख मारी।”तो आओ, हमारे साथ चलो।” दोनों एक साथ बोले।जब दिलशाद ठेले का सहारा लेकर उठी, तो उसके भाइयों को पहली बार नन्ही–सी भाँजी दिखी।

”अरे!” अनवर आश्चर्य से उछला।

”क्या बला है?” रशीद ने पूछा।

”लड़की है जी।” दिलशाद कुछ हिचकिचायी, कुछ शरमायी।

”बड़ी छोटी–सी है।” अनवर ने ध्यानपूर्वक देखा।

”एक ही दिन की है जी।” दिलशाद अपने भाइयों से क्या कहे और क्या न कहे।

 

 ”आख़–थू!” अनवर को उबकाई आयी।

”लाहौलविला कुव्वत।” रशीद का जी मतलाया।

 

वह दोनों भाई उल्टी करते–करते बचे और तेजी से वहाँ से चले गये। सामने वाले प्लेटफार्म पर एक सुन्दर लड़की भड़कीली सलवार पहने जा रही थी। दोनों ने छलाँगें मारकर पटरियों को पार किया और हाथ में हाथ दिये उस सुन्दर औरत के पीछे चल दिये।”नादान भाई! बाग में एक से एक अच्छी तितली है। तुम अब किस–किस के पीछे भागोगे?”

 

दोपहर के समय स्टेशन की शोभा कुछ ढल गयी। धूप में तेजी आ गयी। एक अँग्रेंज, अपनी मेम साहब के साथ प्लेटफार्म पर धूप सेंक रहा था। उसका छोटा–सा लड़का दिलशाद के पास, अपने कुत्ते से खेल रहा था। जब उसने दिलशाद की छोटी–सी बच्ची को धूप में हाथ–पैर मारते हुए देखा तो उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयीं। वह खुशी से चीखता हुआ भागा और अपनी माँ को यह विचित्र दृश्य दिखलाने के लिए वहाँ ले आया।

 

”हाऊ वंडरफुल ममी, हाऊ वंडरफुल !” बच्चा चीख रहा था और आश्चर्य से उसकी आँखें फटी जा रही थीं।दिलशाद की बेटी एक मैली–सी चादर में लिपटी हुई, अपने नन्हे–नन्हे घूँसे तानकर आकाश को दिखा रही थी, और उसके छोटे–छोटे पाँव धरती और आकाश को अपनी ठोकरों से दुत्कार रहे थे।

 

अँग्रेंज का बच्चा इस नन्ही–सी चींज को देखकर 
तालियाँ बजा रहा था और हर क्षण कोशिश करता था कि वह उचक कर उस जानदार खिलौने को अपने हाथों में उठा ले। उसकी माँ ने उसको डाँटा कि दूसरे की चींज को हाथ नहीं लगाया करते। लड़का मचल गया।

 

”हम तुमको ऐसा ही खिलौना ला देंगे।” बाप ने उसे पुचकारा।

”झूठ।” लड़का रो रहा था।

”हाँ–हाँ, बच्चे, हम अवश्य ही तुम्हें ऐसा खिलौना ला देंगे।” लड़के की माँ ने भी वादा किया।

”तुम कब मुझे ऐसा ही खिलौना ला दोगे?” लड़का बात पक्की करना चाहता था।

 

 ”बहुत जल्द मेरे बेटे, बहुत जल्द।” बाप ने अपनी पत्नी के गालों की ओर भरपूर नंजर डाली।पत्नी ने शरमाकर मुँह फेर लिया।

”मम्मी! इस खिलौने को चॉकलेट दो।”

”नहीं डार्लिंग, यह चॉकलेट नहीं खा सकती।”

 ”अच्छा मम्मी! इसे अच्छा–सा सूट दो।”

”यस डार्लिंग, हम इसे कपड़ा दे देंगे।”

”और पैसे भी मेरी मम्मी।”

 ”यस! पैसे भी मेरे डार्लिंग।”

 

लड़का खुशी से चीख–चीखकर तालियाँ बजाने लगा, और फिर उसकी माँ ने दिलशाद को ऊनी कपड़े का टुकड़ा और पाँच रुपये दिये। जब वह जाने लगे तो, दिलशाद ने दिल ही दिल में उस बच्चे को दुआ दी।

 

जब दिलशाद के हाथ में पैसे आ गये तो, दुनिया के साथ उसके संबंध फिर से जुड़ गये। एक चाय वाले ने उसके पास आकर, चाय की हाँक लगायी। एक रोटी वाला भी उसके पास आ गया, और जब दिलशाद रोटी खाने लगी तो एक कुत्ता भी जबान निकालकर उसके सामने आ बैठा।

 

उसकी बैंच पर बैठे दो बुजुर्ग कुछ देर से अँग्रेंज की पत्नी और बच्चे के व्यवहार पर नाक–भवें चढ़ा रहे थे। उन दोनों को महसूस हुआ कि इन अँग्रेंजों ने उनकी दाढ़ियों को जोर से झटक दिया है।

”यह हरामी समझते हैं कि, हम इन्हीं के टुकड़ों पर पल रहे हैं।”

”ओ मियाँ! यह देश उनका नहीं, क्यों नहीं उस कमबख्त औरत ने ऐसे तुच्छ दान को ठुकरा दिया?”

”अल्लाह–अल्लाह! आजादी मिली तो, लेकिन गुलामी का चक्कर नहीं गया।”

”जाए कैसे मेरे भाई, जाए कैसे? जब गुलामी के बदले मुफ्त की गोश्त–रोटी मिले तो, आजादी का बोझ कौन उठाये?”

 

 जब दिलशाद चार आने का गोश्त, तीन आने की रोटी और दो आने की चाय से अपने पेट के नर्क को ईंधन दे चुकी तो दोनों बुजुर्ग उसके पास आये।

 

”ऐ औरत ! तू शरणार्थी है?”

”जी नहीं, मेरा नाम दिलशाद है।”

”अरे! होगा, हम पूछते हैं तुम कहाँ से आयी हो, कहाँ जाओगी, और यहाँ तुम्हारा क्या काम है?”

 

ऐ काश ! कि दिलशाद को मालूम होता, कि उसकी मंजिल का निशान किस रास्ते पर मिलेगा! उसके विचार में तो पश्चिम का चप्पा–चप्पा उसकी मंजिल थी। वह तो एक ऐसी फैली हुई बिरादरी में आयी थी, जिसमें उसे सारे अपने ही अपने दिखाई देते थे। मगर, यहाँ की ईंट–ईंट उससे पूछती थी कि तुम कौन हो? क्या हो? कहाँ से आयी हो? तुम्हारी जेब में पैसे हैं? तुम्हारे शरीर में ताजगी है?”तुम शरणार्थी हो। शरणार्थियों के कैम्प में चली जाओ।”

 

”आजाद कौम की बच्चियाँ भीख के टुकड़ों पर नहीं पला करतीं।”

”तुम कोई बच्चा नहीं हो। तुम्हें खुद शर्म आनी चाहिए।”

 

दिलशाद देर तक बैठी सोचती रही कि, शायद वह बुजुर्ग शरणार्थी नाम की किसी लड़की की तलाश में थे, जो कोई पाप करके घर से भाग गयी थी। लेकिन शाम तक बहुत–से लोगों ने उसे इसी नाम से पुकारा और उसे शरणार्थी कैम्प में जाने की राय दी।

 

लेकिन उसे यह नाम पसन्द नहीं आया। शरणार्थी भी कोई नाम–सा नाम है! जब वह शरणार्थी कैम्प में पहुँची तो लाहौर में रात फैल चुकी थी। वहाँ का एक अधिकारी रजिस्टर खोले बैठा था। कुछ देर बाद दिलशाद की बारी आयी।

 

 ”नाम?” अधिकारी ने तोते के समान रटा हुआ प्रश्न दोहरया।

 ”दिलशाद।”

 ”उम्र?”

 ”बीस वर्ष।”

 ”बाप का नाम?”

”मुल्ला अलीबख्श।”

 ”जिन्दा है या मर गया?”

 

  ”मार डाला गया।”

 ”गाँव?”

”चमकोर।”

 ”जिला?”

”अम्बाला।”

”विवाहित?”

”जी नहीं।”

अधिकारी ने कलम रोक लिया और ध्यानपूर्वक दिलशाद की ओर देखा।

”यह लड़की किसकी है?”

”जी, यह मेरी लड़की है।” दिलशाद हकलाने लगी। ”मेरा विवाह हो गया है। जी, मैं भूल गयी थी।”

अधिकारी का कलम मशीन की तरह फिर दवात की ओर घूम गया।”

”सोचकर बोलो, पति का नाम?”

”रहीम खाँ।”

”जिन्दा है, या मर गया?”

”जी…पता नहीं। खुदा करे जिन्दा हो। खुदा करे मेरी उम्र भी उसे लग जाए।”

 

शरणार्थी कैम्प का क्षेत्र बड़ा फैला हुआ था। एक खुला मैदान जिसके चारों ओर काँटों वाले तार लगे थे। छत के लिए आकाश का सायबान था। उजाले के लिए चाँद के कैंडिल और तारों के टिमटिमाते हुए दीये। कोने से रसोईघर था। जमीन में खोदे हुए बड़े गहरे चूल्हों पर दाल और गोश्त की बड़ी–बड़ी देगें पक रही थीं।

 

दिलशाद अपनी बच्ची को सीने से लगाये कदम फूँक–फूँककर चलती थी, जिस प्रकार कब्रिस्तान में बचा–बचाकर पाँव रखा जाता है कि, किसी पवित्र कब्र को ठोकर न लग जाए। कुछ शरणार्थियों ने बाँसों पर चादरें तानकर छोटी–छोटी झोंपड़ियाँ बना ली थीं। कुछ शरणार्थी कच्ची कब्रों के समान यूँ ही आकाश तले बैठे थे।

 

किसी के पास चादर थी, किसी के पास कम्बल और किसी के पास लिहांफ। दिलशाद के पास कुछ भी न था। वह खुद एक चीथड़ा थी। एक फटा–पुराना टुकड़ा। शरणार्थी कैम्प में ऐसे सैकड़ों चीथड़े बिखरे पड़े थे। सबके दिल में आशा की लौ जल रही थी, कि अब वह अपनी प्यारी धरती पर आ गये हैं। अब इस पवित्र धरती की धूल, उनके गलते हुए नासूरों पर मरहम बन के लग जाएगी।

 

एक खाली–सी जगह देखकर दिलशाद ठहर गयी। कुछ दूर पर एक बूढ़ा डेरा डाले बैठा था। उसके साथ दो–दो बच्चे थे। एक आठ–दस साल का लड़का महमूद, एक ग्यारह साल की लड़की जुबेदा। वे तीनों एक मिट्टी के प्याले पर झुके रोटी खा रहे थे। वह छोटी–सी बहन अपने छोटे–से भाई को बुजुर्गों के समान डाँटती थी और देखने वालों को यह महसूस होता था कि इस संक्षिप्त से परिवार का पालक दादा नहीं जुबेदा है।

 

”यहीं बैठ जाओ बेटी! तुम्हारे साथ कोई और है?” बूढे दादा ने दिलशाद से पूछा।

”जी नहीं, मेरे साथ कोई और नहीं है।”

”जाओ रोटी ले आओ, रसोईघर से। तुम्हारे पास कोई प्याला है?”

 

”जी नहीं, मेरे पास कोई बर्तन नहीं है।”

दादा ने अपना एक खाली प्याला उसे दे दिया।

”तुम्हारे पास कोई बिस्तर है?”

”जी नहीं, मेरे पास कोई बिस्तर भी नहीं है।”

”रसोईघर के पास कपड़ों का दफ्तर है। कम्बल माँग लेना वहाँ से।” दादा ने तारों को देखकर समय का हिसाब लगाया, ”नौ बज रहे हैं, शायद स्टोर बाबू जागता हो।”

 

रसोईघर से दिलशाद को रोटियाँ और प्याला भर दाल मिल गयी। कपड़ों के दफ्तर में मद्धिम–सी लालटेन जल रही थी। कैम्प में रजाइयों का ढेर लगा था। एक कोने में गर्म कपड़ों के ढेर थेऊनी स्वेटर, गर्म चादरें। स्टोर बाबू सफेद और सुर्ख छींट की रजाई ओढ़े चारपाई पर लेटा हुआ इकबाल का ‘शकवा‘ गा रहा था।

“रहमतें हैं तेरी गैर की काशानों पर,

बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर”।

 

जब दिलशाद को उसने कैम्प के दरवांजे पर खड़े पाया तो, उसके गाने की लय मद्धिम पड़ गयी और उसने बड़े गुस्से से दिलशाद को घूरते हुए कहा

”दफ्तर बन्द है जी इस समय, सुबह आठ बजे आना।”

”हमारे पास कोई कपड़ा नहीं है जी, हम पाले से मर जाएँगे।”

”कोई नहीं मरता, सुबह आठ बजे आना।”

 

दिलशाद ने एक बार फिर प्रार्थना की। स्टोर बाबू झुँझला गया, ”मैं कहता हँ चली जाओ, मैं भी आखिर इनसान हँ, मशीन नहीं। हाँ, सुबह आठ बजे आना।”

 

जैसे–जैसे रात भीगती गयी, सर्दी बढ़ती गयी। दादा के पास एक कम्बल था। उसने आधा कम्बल जमीन पर बिछाकर महमूद और जुबेदा को सुला दिया था, और आधा उनके ऊपर डाल दिया था। वह खुद एक पतली–सी चादर डाले, जमीन पर लेटा करवटें बदल रहा था।

 

दिलशाद के दाँत कटकट बज रहे थे। वह अपनी बेटी को ऊनी कपड़े में लपेटे, अपने सीने से चिपकाये बैठी थी। कुछ दूर एक जवान औरत अपनी तीन–चार साल की लड़की को अपने शरीर की गर्मी हर सम्भव ढंग से देने का प्रयत्न कर रही थी। उसके पास न कम्बल था, न चादर, न लिहाफ। लड़की का साँस उखड़ा–उखड़ा हुआ था।

 

उसके सीने में घंटियाँ बज रही थीं। जैसे–जैसे सर्दी बढ़ती गयी, लड़की के सीने की घंटियाँ तेज होती गयीं। वह घबरा गयी। उसने खड़े होकर देखा चारों ओर, फिर धीरे–धीरे शर्माते, झिझकते अपने कपड़े खोलकर, अपनी ठिठुरी हुई बच्ची को उनमें लपेट लिया। उस औरत का नंगा शरीर सारी दुनिया के कण–कण को ललकारने लगा, देखो–देखो यह बेमिसाल क्षण बीत न जाए तुमने आकाश और धरती के बहुत–से रहस्य देखे होंगे।

 

लेकिन तुम, इस माँ के नंगे शरीर को न भूल सकोगे, जिसके कपड़ों में मरी हुई बेरी पड़ी हो। बड़ा पाला पड़ा हो, स्टोर में गर्म कपड़ों और लिहाफों का ढेर पड़ा हो। चाँद भी अपने लिहाफों के बीच से झाँककर यह दृश्य न देख सका। एक घनघोर घटा जो आकाश पर लापरवाही से बिखरी पड़ी थी, सिमट–सिमटाकर इकट्ठी हो गयी और बादलों की पलकों से मोटे–मोटे आँसू गिरने लगे।

 

शरणार्थी कैम्प के मैदान में जीवन की एक कमंजोर–सी लहर जागी। कुछ बच्चे रोये, कुछ औरतों ने शोर मचाया। कुछ मर्दों ने डाँट लगायी, और फिर सन्नाटा–सा छा गया।

 

वर्षा की बूँदें दिलशाद के शरीर पर बन्दूक के छर्रों के समान चुभी जा रही थीं। वर्षा का पानी फलालेन के गर्म टुकड़ों में भी पहुँच चुका था, और उसमें लेटी नन्हीं–सी जान सर्दी से कँपकँपाने लगी। दिलशाद ने सोचा कि, अगर वह दादा से पूछकर महमूद और जुबेदा के कम्बल में लिटा दे तो शायद, इस गरीब जान को कुछ सहारा मिल जाएे।

 

उसने दादा के घुटने को हिलाया, वह अपनी मैली–सी चादर ओढ़े लेटा था। दिलशाद ने उसे शानों से हिलाया, बाँहों से हिलाया, गर्दन से झिंझोड़ा; लेकिन दादा का शरीर सर्दी और गर्मी के एहसासों से दूर हो चुका था। उसकी हड्डियाँ सर्दी से अकड़ कर लोहे की सलाखों के समान तन गयी थीं।

 

जब सुबह हुई तो एक सुन्दर शरीर शरणार्थी कैम्प के मैदान में चाँदी की तरह झिलमिलाया। एक नौजवान औरत का नंगा शरीर एक नन्हीं–सी बच्ची के शरीर से लिपटा हुआ था। औरत के कसे हुए दूधिये शरीर पर वर्षा की बूँदें, मोतियों के समान जगमगा रही थीं। शरणार्थी कैम्प के कुछ मेहतर, कम्बलों का ढेर उठा लाये थे। एक कम्बल दादा पर डाल दिया, दूसरा उस औरत के नंगे शरीर पर, तीसरा उस बच्ची पर, चौथा…और इसी प्रकार वह मैदान में बिखरी हुई लाशों पर गर्म–गर्म, नर्म–नर्म कम्बलों के कंफन डालते गये।

 

महमूद मचल रहा था कि, वह लोग दादा को कहाँ उठाकर ले जा रहे हैं? जुबेदा उसे समझाती कि दादा, अम्मी और अब्बा को बुलाने गये हैं। वह बहुत जल्द आ जाएँगे। मेरे महमूद ! वह बहुत जल्द आ जाएँगे। महमूद की कल्पना भिन्न प्रकार के प्रश्न करती और जुबेदा भिन्न प्रकार के उत्तर देकर उसे टालती थी और जब कभी महमूद इधर–उधर खेल में लग जाता, तो वह नजर बचाकर मुँह छुपाकर अपने दिल को हल्का कर लेती थी।

 

शरणार्थी कैम्प की मशीन बॉयस्कोप के समान चल रही थी। सुबह से शाम तक उसके पर्दे पर भाँति–भाँति के दृश्य आते थे। बड़े–बड़े दबदबे वाले रईस और नवाब आते, ऊँची–ऊँची कुर्सियों वाले अधिकारी आते, रेशम और किमखाब के कपड़ों में लिपटी हुई बेगमें आती थीं। वह सब बच्चों के सिरों पर हाथ फेरते। औरतों के पास खड़े होकर उनके आँसू पोंछते। बूढ़े और जवान की पीठ ठोंक कर उनकी टूटी हुई कमर को सहारा देते थे। तेज गति की कारें उन्हें शरणार्थी कैम्प से वापिस ले जाती थीं। कोई मिठाई लाता था। कोई पुलाव की देंगे बाँटता था।

 

दिलशाद सोचती थी कि जब कोई वीर जुबैदा और महमूद का किस्सा सुनेगा तो स्टोर कीपर को गोली से उड़ा देगा कि उसने इस कड़ाके की सर्दी में दादा को केवल एक ही कम्बल दिया। वह डरती थी जब उसकी कौम के बहादुर उसकी रामकहानी सुनेंगे तो अपनी बन्दूकें ताने अमरीक सिंह, त्रिलोक सिंह, करतार सिंह, और दरबारा सिंह की तलाश में निकलेंगे। लेकिन सुनने वाले सुनते गये। सुनाने वाले सुनाते गये। शरणार्थी कैम्प का बॉयस्कोप बराबर चलता रहा। एक दृश्य के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरान आरम्भ, न अन्त।

 

एक साहब बड़े दयालु थे। शरीर पर दिल को लुभाने वाला सूट, सिर पर तिरछी टोपी, आँखों पर सोने के फ्रेम वाला चश्मा, मुँह में पाइप, उँगलियों में यांकूत और लाल की अमूल्य ऍंगूठियाँ। वह घण्टों शरणार्थी कैम्प में घूमते थे। एक–एक की ध्यानपूर्वक सुनते थे। किसी को मिठाई देते, किसी को पैसे और किसी को चॉकलेट।

 

दिलशाद पर भी उनकी विशेष कृपादृष्टि थी। एक दिन वह उसकी बच्ची के लिए सुर्ख ऊन का बड़ा सुन्दर स्वेटर लाये। दूसरे दिन उन्होंने रहीम ख़ाँ को खोजने का वायदा किया और कुछ दिनों के बाद वह दिलशाद के लिए यह खुशखबरी लाये कि रहीम ख़ाँ का पता चल गया है। वह बेचारा बड़ा कमजोर हो गया है।

 

लेकिन दिलशाद की याद के सहारे वह अब तक जीवन का बोझ उठाये फिर रहा है। दिलशाद की नजर में दुनिया बाग बनकर खिल उठी। उसके शरीर में सुलगने वाला विष कपूर समान सुगन्धित हो गया। वह अब धड़कते हुए सीने में अनगिनत इच्छाओं का हुजूम उठाये मिस्टर मुस्तफा ख़ाँ सीमाबी की मोटर में आ बैठी।

 

कार फर्राटे भरती जा रही थी। लाहौर की सड़कें रंगीन बांग के समान लहरा–लहरा कर गुजर रही थीं। यह बागे जिनाँ है। यह गुलिस्ताने फातिमा की चारदीवारी है। यह माल रोड के रंगीन रेस्तराँ हैं। इस गली में अनारकली का मकबरा है। यह गिरजा है। यह मस्जिद है। वह मुस्तफा ख़ाँ का शानदार, सजा–सजाया बँगला है। नौकरों के कमरों में ग्रामोफोन बज रहा था, ”आज करें जी भर के सिंगार।” दिलशाद का दिल धक–धक बज रहा था।

 

वह बरामदे में बैठी सोच रही थी कि इस धरती पर शायद रहीम ख़ाँ के कदम पड़े हों। शायद इस बंगले की हवा में उसकी दिल लुभाने वाली साँस बसी हो…। दिलशाद की श्रद्धापूर्ण दृष्टि में बंगले की धरती का कण–कण मक्के और मदीने की मिट्टी बन गया था। बंगले की ईंट–ईंट पर मस्जिद के पवित्र मीनारों का निर्माण हो गया।

 

एक नौकर ने उस एक प्लेट में पुलाव, एक में पालक और गोश्त, एक में मटर, एक में केवड़े में लगायी हुई फिरनी लाकर दी। मालूम नहीं वह क्या खा गयी ? कितना खा गयी ? कब खा गयी ? वो संसार से बेखबर थी। उसकी आत्मा अपने रहीम ख़ाँ के स्वागत की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन उसके शरीर को अभी तक चैन नहीं था।

 

मुस्तफा ख़ाँ सीमाबी ड्रेसिंग गाऊन पहने उसके सामने गिद्ध के समान मँडरा रहा था। मेज पर स्कॉच ह्विस्की की बोतल जगमगा रही थी। वह अपने हाथ फैला–फैलाकर कहता था, ”मेरी जान आओ, मेरे सीने से लग जाओ। तुम बड़ी सतायी हुई हो, बड़ी गरीब हो। लेकिन मैं धनवान हँ। मैं तुम्हें कुछ दिनों के लिए अपनी रानी बनाकर रखूँगा।

 

तुम्हारा रहीम ख़ाँ न जाने कहाँ खो गया। वह शायद किसी वीराने में मरा पड़ा हो। लेकिन तुम उस फर्जी व्यक्ति के लिए अपनी जवानी न गँवाओ। आओ मेरी जान, आओ, मेरे सीने से लग जाओ। अब तुम अपने आंजाद देश में आ गयी हो। अब तुम्हें किसी बात का डर नहीं। यह हमारा देश है। यह हमारा आजाद देश है। पाकिस्तान जिन्दाबाद…”

 

दिलशाद के गले में मुल्ला अलीबख्श की माला लटक रही थी। जब मुस्तफा ख़ाँ सीमाबी की जबान माला के दानों को लपक–लपक कर चूमती तो दिलशाद को यूँ महसूस होता जैसे एक मुसलमान भाई सगे–असवद को चूक रहा हो।

 

दो–चार दिन में जब मुस्तफा ख़ाँ सीमाबी ने अपने दिल की भड़ास निकाल ली तो दिलशाद वापिस शरणार्थी कैम्प में आ गयी। नन्हा महमूद शीशे का एक लट्टू चला रहा था। उसने तुतला–तुतला कर तालियाँ बजा–बजाकर दिलशाद को समझाया कि जुबैदा भी मोटर में बैठकर दादा जी के पास गयी थी। दादा ने शीशे का यह लट्टू भेजा है। यह रबड़ की गेंद, यह रंगीन मिठाई। आज फिर मोटर में बैठकर दादा जी के पास गयी है। अब वह फिर दादा जी से पैसे लाएगी। नए–नए बूट लाएगी। टोपी लाएगी…

 

लाहौर, लाहौर न था, मदीना था। लाहौर वाले, लाहौर वाले न थे, अंसार थे। यहाँ दिलशाद के लिए हर दिन एक नया रहीम ख़ाँ पैदा हो जाता था। जुबैदा के लिए हर दिन एक नया दादा जन्म लेता था। बेटियों के लिए नए–नए बाप थे। बहनों के लिए नए–नए भाई। शरीर का सम्बन्ध शरीर से बनता था। खून का सम्बन्ध खून से…

 

करांची

दिलशाद ने खिड़की से मुँह निकाल कर देखा। सदर के स्टेशन पर बड़ी भाग–दौड़ मची हुई थी। ‘रिफ्यूजी स्पेशल‘ से लोग निकल–निकलकर प्लेटफार्म पर इकट्ठा हो रहे थे। सारा स्टेशन खचाखच भरा हुआ था। लेकिन देखते ही देखते भीड़ बादलों के समान छँट गयी। प्लेटफार्म पर कुछ कुली, कुछ बाहर जाने वाले मुसांफिर और कुछ चेकर शेष रह गये। आन की आन में शरणार्थियों की भीड़ कराची के फैलाव में डूब गयी। जैसे सूरज की किरणें, ओस के मोतियों को अपने दामन में छुपा लें।

 

करांची, तेज–तेज कुमकुमों में जगमग–जगजग कर रहा है। समुद्र की लहरें किनारे को छेड़–छेड़कर एक होश उड़ा देने वाला संगीत पैदा कर रही हैं। हवा में एक कोमल–सा ठंडापन है। जीवन की एक मीठी–सी तड़प समुद्र तट पर नशे में झूमते हुए साँपों के समान लहरा रही है।

 

वह चारों ह्विस्की के प्यालों में सोडा मिला रहे थे। ”हाय! हाय! दिल्ली”एक ने सीने पर हाथ मारकर आह भरी।

”कौन जाए जौंक पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर।”

”हाय दिल्ली तेरी मिट्टी का आकर्षण”तीसरा रानों पर हाथ मारकर कहने लगा।

 

चौथा जवान गम्भीर रहा। वह ह्विस्की का प्याला होंठों पर लगाये गुमसुम बैठा था। जब उसके साथियों ने जरा जोर–शोर से दिल्ली का रोना रोया तो वह चौंका, ”ऐं? यह तो वही करांची रही साली, खुदा कसम ख्वाब था जो कुछ कि देखा जो सुना अफसाना था।”हाय ! हाय ! दिल्ली हाय ! हाय ! दिल्ली।

 

कुछ दूरी पर एक बुंजुर्ग पान चबा रहे थे। उनके आगे उनसे श्रद्धा रखने वाले गर्दन झुकाए बैठे थे।

”दिल्ली गयी। दिल्ली वाले गये। सब कुछ गया। लेकिन कुछ न गयापान लाओ।” बुंजुर्ग ने कहा। उनकी सेवा में पान पेश किया गया।

 

”हाँ, तो मैं कह रहा था कि दिल्ली गयी।” बुंजुर्ग ने अपनी टूटी हुई तान को फिर से पकड़ा, ”दिल्ली वाले गये क्यों? जानते हो भला क्यों?”

सब लोग सोचने लगे कि क्यों? बुंजुर्ग ने खुद ही उत्तर दिया, ”वह लाल किला, वह जामा मस्जिद, वह 
कुतुबमीनार, गालिब की मंजार, हजरत निंजामुद्दीन औलिया की मंजारसब चले गयेसबतुम कहोगे अपनी किस्मत मैं कहूँगा अपना कामपान लाओ।”

 

”मैं तुम को बताता हँ कौम की तकदीर क्या है?”

”धत् तेरे की” ह्विस्की वाली पार्टी का एक जवान अपने साथी पर गरज रहा था, ”चाँद जान मेरी थी। वह मुझ पर मरती थी। तेरे मुँह पर थूकती न थी हाँ।”

 

चीफ जस्टिस और असम्बली हॉल के बीच महात्मा गाँधी की मूर्ति पहरे पर चौकस खड़ी है कि, कहीं न्याय और राजनीति एक–दूसरे के निकट न आने पाएँ। दो साइकिल सवार ठहर कर उस मूर्ति का विश्लेषण करने लगे। एक ने लाठी छीननी चाही। दूसरे ने चश्मा उतारना चाहा। जब वह दोनों इस कोशिश में असफल रहे तो एक ने अपनी टोपी उतार कर उस मूर्ति के सिर पर रख दी और वह खुश, खुद वहाँ से चल दिये कि उन्होंने चुपके–चुपके उस मूर्ति को मुसलमान कर लिया है।

 

एक हिन्दू परिवार कराची छोड़ रहा है। उनकी सुन्दर कोठी के सामने चार ऊँट गाड़ियाँ सामान से लदी खड़ी हैं। लोहे के ट्रंक, चमड़े के सूटकेस लकड़ी की पेटियाँ…सामान में तोते का एक पिंजरा भी है। तोता मटर की फलियाँ खा रहा है। जब कोई उसके पास से निकलता है तो वह उसकी ओर यूँ देखता है जैसे कह रहा हो, ”लो सालो, मैं भी चला। अब मैं देखूँगा तुम अपना पाकिस्तान कैसे बनाते हो!”

कसरिया होटल में ऑरकेस्ट्रा बज रहा है। होटल के मैनेजर ने स्टेज पर आकर ऐलान किया कि आज की आय की आधी आय ‘कायदे आंजम रिलींफ फंड‘ में दी जाएगी। लोगों ने खुश होकर तालियाँ बजायीं।

 

”मेरा जी करांची से उकता गया है।” एक मालदार, सुन्दर–सी बेंगम ने कहा, ”चलो डार्लिंग, कुछ, दिनों के लिए बम्बई हो आएँ।”

उसका साथी शैम्पेन पी रहा था। ”अब तो बम्बई भी मर चुकी है। न ह्विस्की, न जिन, न शैम्पेन। अब सुनता हूँ कि रेस पर भी पाबंदी लगाने का षडयन्त्र हो रहा है।”

 

”अरे हाँ!” बेंगम को एकदम याद आया, ”अगले दिन प्रोंफेसर घनश्याम का पत्र आया था। मुझे कराची में दो चीजें बहुत पसन्द हैं।”

”मुझे तीन।” दूसरे ने कहा, ”पारसी लड़कियाँ और मुसलमान औरतों के बुर्के।”

 

”मुझे बुर्केवालियाँ भी पसन्द हैं।”

”खुदा कसम बड़ी ही गिरी बातें करते हो। इन टी.बी. की मारी औरतों को कौन चाहेगा भला?”

 

”इन्हें मैं चाहता हँ। यीशु मसीह की कसम, मुझे यह बीमार सुन्दरता पसन्द है। पीले–पीले गालों में नीली रगों की लकीरें। हाय! मैंने ऐसी सुन्दरता नहीं देखी।” बैरा, दो ह्विस्की और लाओ।

 

”इस बार मेरी तरफ सेबैरा, दो पैग ह्विस्की सोडा।”

”एक ही बात है। तुम पिलाओ या मैं पिलाऊँ। हमारे दोनों बहादुर देशों का उद्देश्य एक ही है।”

 

एक मुसलमान संपादक स्क्वैश से जी बहला रहा था। मौका पाकर वह शराब और कपड़े के एक बड़े व्यापारी को घेरकर खड़ा हो गया।

 

”मैंने सुना है कि पाकिस्तान बनने के बाद कराची और लाहौर में विलायती शराब की खपत पहले से तिगुनी हो गयी है?” संपादक ने संपादकीय के लिए मैटर इकट्ठा करना शुरू किया।

”गलत।” व्यापारी ने इस बात को झुठलाया, ”बिलकुल गलत। आप भी अजीब अफवाहें लिये उड़ते हैं। तिगुनी तो क्या दुगनी भी हो जाए तो भी ठीक है।”

 

”आह!” सम्पादक ने सहमत होते हुए कहा, ”क्या यह कार्य इस शासन के लिए शर्म की बात नहीं है?”

”पाकिस्तान दुनिया का पाँचवाँ बड़ा देश और मुस्लिम देशों में सबसे बड़ा देश है।” व्यापारी ने संपादक जी की जानकारी को बढ़ाने की कोशिश की।

”क्या यह कार्य इस सबसे बड़े मुस्लिम देश के लिए शर्मनाक नहीं?” संपादक बराबर आग्रह कर रहे थे।

”श्रीमान !” व्यापारी ने ह्विस्की का एक घूँट पीकर कहा, ”आप स्टेट बना रहे हैं, मस्जिद नहीं।”

 

”वह काले–काले बुर्के।” दूसरे विदेशी राजदूत के सचिव पहले विदेशी राजदूत के सचिव से कह रहा था, ”बुर्कों की ओट से झाँकते हुए गोल–गोल, पीले–पीले, लाल–लाल चेहरे, मरीयम के बेटे की कसम। मैंने ऐसे बिजली–भरे चेहरे कहीं नहीं देखे। जब मैं उन्हें अलफेस्टिन स्ट्रीट की दुकानों में बिजलियाँ गिराते देखता हँ या गाँधी गार्डन की हरियाली पर अठखेलियाँ करते पाता हँ तो मेरा जी चाहता है कि उनके कदमों में गिर जाऊँ।”

 

”बैरा, दो पैग ह्विस्की और सोडा।” पहले ने आवांज दी।

 ”इस बार मेरी तरफ से।” दूसरे ने कहा।

 

”एक ही बात है। हमारे बहादुर देशों का उद्देश्य एक ही है। हम पाकिस्तान के बेघरबार शरणार्थियों की एक जैसी ही सहायता करेंगे।”

”यह दुअन्नी खोटी है जी।” बस कंडक्टर ने सख्ती से कहा, ”इसे बदलदो।”

 

 ”यह मैंने नहीं बनायी।”

पंजाबी यात्री ने उत्तर दिया, ”मैं यह दुअन्नी दिल्ली या लखनऊ से नहीं लाया। मैं तुम्हें कभी दूसरी दुअन्नी नहीं दूँगा।”

 

कंडक्टर ने बस रोक दी। ”जब तक तुम मुझे दूसरी दुअन्नी नहीं दोगे, यह बस आगे नहीं जाएगी।”

कुछ पंजाबियों ने बस कंडक्टर को गालियाँ दीं, ”साले सिंधी, मुफ्त का पाकिस्तान मिल गया। हम दो दिन में ठीक कर देंगे हाँ।”

 

कंडक्टर और ड्राइवर बस से बाहर निकल कर एक ओर खड़े हो गये ,साले पंजाबी, पिटपिटा कर यहाँ आये तो सालों का दिमाग नहीं मिलता। सिर पर ही चढ़े आते हैं। जैसे इनकी माँ के खसम का घर है यहाँ।

 

रास्ता चलते एक हिन्दू यह प्रशंसा सुनकर ठहर गया, और प्रशंसा के तौर पर उसने कंडक्टर और ड्राइवर को एक बीड़ी दी।

दो बंगाली यह हंगामा देखकर बस से नीचे उतर आये। ”लारेंस रोड कितनी दूर है जी?” एक ने पूछा।

 

”यही कोई दो फर्लांग होगी।” दूसरे ने कहा।

”आओ पैदल टहलते हुए ही चले जाएँ।”

जब वह दोनों बस से एक सुरक्षित फासले पर पहुँच गये तो उन्होंने दुअन्नी वाले मामले पर खुलकर समीक्षा की।

 

”लड़ने दो सिन्धियों और पंजाबियों को। कहते हैं, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी छी, जैसे बंगला भाषा हमारी राष्ट्रभाषा ही नहीं छी।”

 

 सदर के चौक में एक ईरानी होटल वाला एक छाबड़ी वाले पर गरज रहा था, ”तुम यह गन्दे केले यहाँ नहीं रख सकते। मेरे होटल में मक्खियाँ आती हैं हाँ।”

”अबे चल होटल के बच्चे।” छाबड़ी वाला अकड़ रहा था, ”यह पटरी तेरे बाबा की है क्या?”

 

ईरानी ने एक ठोकर में केले की छाबड़ी उलट दी। छाबड़ी वाला लपककर उसकी टाँगों से लिपट गया।

 

एक पुलिस वाले ने आकर छाबड़ी वाले के मुँह पर एक जोरदार थप्पड़ मारा। ”साले हरामी, कितनी बार कहा है यहाँ बिक्री न करो, लेकिन सुनते ही नहीं। चलो, थाने चलो।”

 

छाबड़ी वाला गिड़गिड़ाया कि दरोगा जी, मैं अजमेर शरींफ से आया हँ। मेरा सब कुछ लुट गया है। मेरी अंधी बहन मेरे साथ है। मुझे छोड़ दो। मैं यहाँ कभी छाबड़ी नहीं लगाऊँगा। मगर कानून, कानून है। कानून की नंजर में न अजमेरी का अन्तर है, न लाहौरी का। न अंधी बहन का न आँखों वाली का। पुलिस वाले ने अपना कर्तव्य बड़ी सुन्दरता से निभाया और छाबड़ी वाले को थाने ले गया। जब थानेदार ने उसकी अन्धी बहन का विवरण सुना तो उसे पुलिस वाले की नासमझी पर बड़ा गुस्सा आया कि क्यों नहीं वह उसकी अंधी बहन को भी साथ लेता आया।

 

”दो और चार…चार और तीन…सात और नौ कितने हुए?” चेलाराम ने ख़ुशी मुहम्मद दलाल से पूछा।

 

ख़ुशी मुहम्मद दलाल चाय से मक्खी निकालकर चमचा झटक रहा था और मरी मक्खी को फर्श पर गिरा के उसने चाय का एक लम्बा–सा घूँट भरा।

”सात और नौ सोलह।” चेलाराम ने खुद ही हिसाब लगाया। मैंने कहा, ”उस्ताद, टोटल बुरा नहीं।”

 

 ख़ुशी मुहम्मद ने कहा, ”सच पूछो दोस्तो, तो बड़ा करारा सीजन लगा था। एक सीजन में सोलह छोकरियाँ। मैंने तो ऐसा धंधा सारी उम्र नहीं किया था।”

 

 दिल के सन्तोष के लिए चेलाराम ने चाँद–तारे वाली जिन्ना कैप उतारकर अपनी गंजी चँदिया को जोर से सहलाया।

ख़ुशी मुहम्मद ने चाय का एक और लम्बा घूँट सड़प लिया।

”तुम साले, किस्मत के धनी हो। छोकरी पर छोकरी उतारते थे। यहाँ मुश्किल से केवल तीन हाथ आयीं।”

 

”तीन छोकरियाँ, थू। मेरे पास बड़े अनमोल दाने थे यार, गर्म–गर्म, सख्त–सख्त पंजाबिनें, कोमल–कोमल दिल्लीवालियाँ और फिर वह पटियाले वाली जटनीहाय! हीरा थीं हीरा।”

चेलाराम ने एक खारा बिस्कुट उँगलियों के बीच में दबाकर तोड़ डाला।

 

”वह साला ब्राउन उसे पोर्ट सईद ले गया। कहता था, बड़ा काम देगी वहाँ मैंने कहा, यह पोर्ट सईद किधर है?”

”होगी कहीं।” ख़ुशी मुहम्मद का धन्धा थोड़ा मन्दा था

”चाय मँगवाओ। अब तो साली कोई रिंफ्यूजी ट्रेन भी नहीं आती।”

 

ख़ुशी मुहम्मद की दुनिया में, दु:ख और क्रोध का धुआँ छाया हुआ था। पहले तो यह साले रिंफ्यूंजी हवाई जहाजों में भर–भरकर लाये जाते थे। ट्रेनों पर ट्रेनें लदी आती थीं मगर अब कुछ दिनों से बाजार ठंडा है। वह हर दिन समाचार पत्रों में नए–नए समाचार पढता था।

 

दिल्ली में खून, कानपुर में खून, अहमदाबाद, अजमेर में खून ही खून। मगर! इस साले खून के रेले में एक रिंफ्यूजी ट्रेन भी कराची नहीं पहुँची थी। ख़ुशी मुहम्मद को इस बात का बड़ा दु:ख था, फिर उसने एक हल्की–सी आशा का सहारा लेकर छ: पैसे का खून किया और समाचार–पत्र की सुर्खियों पर ललचाई हुई नंजर दौड़ायी। समाचार–पत्र बेचने वाला छोकरा गला फाड़–फाड़कर चीख़ रहा था

 

”अब तो काश्मीर में भी छिड़ गयी…जम्मू में लाखों मुसलमानों का खून हो गया…अब तो…”

 

ख़ुशी मुहम्मद ने बड़े शौक से समाचार पढ़े। काश्मीर में हजारों मर गये थे। हजारों मर रहे थे। हजारों मेढकों के समान छुप–छुपकर, चूहों की तरह रेंग–रेंग कर बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे।

 

ख़ुशी मुहम्मद ने चेलाराम की रान पर जोर का हाथ मारा, ”अब तो काश्मीर में भी चल गयी मेरे यार, मैंने कहा चेलाराम, जरा सुन तो!’

 

लेकिन ख़ुशी मुहम्मद में शायरी की आत्मा उतर आयी थी, उसने चटखारे ले–लेकर चेलाराम को काश्मीर के कोमल शरीर वाली औरतों के बारे में बताया।

 

चेलाराम के मुँह से राल टपकने लगी। वह आँखें मलकर उठा, और ख़ुशी मुहम्मद के लिए उसने चाय का तीसरा कप भी मँगवा दिया, फिर वह सिर से सिर जोड़कर काश्मीर के सीजन की आशाजनक सुन्दरता में खो गये।

 

हवा के थपेड़ों से बादबान लहराया। लहरों में एक हल्का–सा जोश आया। किश्ती डगमगायी और वह सहम कर सेठ काइम अली के पहलू से लग गयी।

 

सेठ काइम अली, दाइम अली की तोंद में हँसी का ज्वार–भाटा–सा उठा। बूढ़ा मल्लाह बीड़ी सुलगाकर मुस्कराया, ”काश्मीर से आयी है सेठ, अंधी है। अभी डरती है। बोलो, किस ओर चलूँ पेरिस या वेनिस?”

 

सेठ काइम अली, दाइम अली का एक दफ्तर पेरिस में भी था। लेकिन वह इस समय, इस छोटी–सी किश्ती में, इतनी लम्बी यात्रा पर जाने को तैयार था। इसलिए जब मल्लाह ने पेरिस या वेनिस जाने की बात कही तो वह बौखला गया।चालक मल्लाह उसकी बौखलाहट पर मुस्कराया

 

”घबराओ नहीं सेठ, दूर नहीं ले जाऊँगा। हाय ! क्या जगह है पेरिस भी ! देखोगे तो मर जाओगे।”

 

कीमाड़ी की बन्दरगाह में बड़ी चहल–पहल थी। इतवार मनाने वाली भीड़ इधर–उधर घूम रही थी। एक जहाज बम्बई जाने की तैयारी कर रहा था। लोग दूरबीन आँखों से लगाये, करांची की आखिरी झलक देख रहे थे। जब जहाज रवाना हुआ तो लोगों ने जिन्ना टोपियाँ अपने सिरों से उतारकर समुद्र में फेंक दीं। फिर हवा में घूँसे उठा–उठाकर ‘जय‘ का नारा लगाया।

 

काश्मीर की अंधी लड़की सेठ के पहलू से लगी हुई कुछ सोच रही थी। जब लहरों के थपेड़ों पर किश्ती का सीना डगमगाता था, तो उसे अपना हल्का–फुल्का शिकारा याद आता था, जो इसी प्रकार डल की नाजुक लहरों पर थर्राया था।

 

किनारे से दूर एक काले रंग का जहाज समुद्र में अकेला खड़ा था, उस पर लाल रंग के मोटे शब्दों में लिखा था कि इसमें बारूद है। जब किश्ती उसके पास से गुजरी तो सेठ ने जल्दी से उस लड़की का हाथ छोड़ दिया। उसे डर था कि कहीं बारूद भक से उड़ न जाएे। जब किश्ती दूर निकल गयी तो सेठ ने फिर उसके दोनों हाथों को अपनी तोंद पर रख लिया।

 

किश्ती एक छोटे–से टापू से जा लगी। वहाँ कुछ मछलियाँ पकड़ने वालों की झोंपड़ियाँ थीं। मल्लाह ने बताया कि, इस मकान का नाम पेरिस है। आसपास और भी कुछ टापू थे। उनके किनारों पर एक–दो किश्तियाँ खड़ी थीं।

 

मल्लाह ने बादबान खोल दिया और किश्ती पर एक सायबान तान दिया। फिर उसने सेठ को आँख मारी, ”लो सेठ, मैं तो मछलियाँ पकड़ने चला, तुम मजे से काश्मीर की बहारें लूटो।”

 

 

 

ईदगाह के मैदान में एक मीनाबांजार लगा हुआ था। टाट के छोटे–छोटे झोंपड़ों में नन्हे–नन्हे चिराग टिमटिमा रहे थे। एक विचित्र सन्तोष यहाँ के वातावरण पर छाया हुआ था, जिसे देखकर यह महसूस होता था कि जीवन का भटका हुआ कांफिला आंखिर अपनी मंजिल तक पहुँच गया है।

 

एक झोंपड़ी में चादर तान के दो भाग किये हुए थे। सामने दिलशाद पकौड़ियाँ तल रही थी। पिछली ओर जुबेदा दही–बड़े लगाकर बैठी थी।

 

एक लम्बा तगड़ा पठान पकौड़ियों के सामने पालथी मारे बैठा था।

”गर्म–गर्म पकौड़ियाँ, ख़ान, खा लो, कितनी दूँ?”

”नर्म है, खूब गर्म है?” पठान ने आँख मारी।

”हाँ पठान, नर्म है, खूब गर्म है!” दिलशाद कड़छी मुँह के सामने करके मुस्करायी।

 

दिलशाद की मुस्कराहट में भी अजीब जादू था। उसकी एक मुस्कराहट पर निछावर होकर रहीम ख़ाँ ने कसम खायी थी कि अगर सूरज या चाँद–तारे भी उसे उठा ले जाएँ तो वह धरती–आकाश के फैलाव को भी फाँदकर उसे छीन लाएगा।

पठान ने होंठों पर जबान फेरी, ”खूब, एक रुपया?”

”नहीं खान! ख़ू पाँच रुपया!”

”हट ख़ू ढाई।”

”ख़ू, पाँच”

 

पठान ने अपनी जेब के पैसे गिने। उसके पास तीन रुपये चार आने थे। बाकी उधार करने चाहे। लेकिन दिलशाद ने उसे मजबूर कर दिया कि,”ख़ान, कर्ज प्रेम की कैंची है, तुम पूरे पैसे लेकर आओ। मैं तुम्हें नर्म–नर्म, गर्म–गर्म पकौड़ियाँ उतार दूँगी।”

 

पठान निराश होकर दूसरी ओर चला गया। वहाँ उसने दहीं–बड़ों का सौदा किया। जुबेदा अभी बच्ची थी, नादान थी। इसलिए वह एक रुपये बारह आने का उधार मान गयी।

 

जुबेदा ने दिलशाद को आवांज दी, ”बहन, जरा इधर ध्यान देना। महमूद सो रहा है। मैं जरा ख़ान के साथ जाकर दही ले आऊँ।”

 

इसी प्रकार जब दिलशाद भी किसी गाहक के साथ पकौड़ियों के लिए बेसन लेने जाती है, तो अपनी बच्ची को जुबेदा को सौंप जाती है। दही और बेसन की इस मिलावट पर दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी स्टेट का भविष्य परवान चढ़ रहा है। जब दिलशाद की बच्ची नर्म–नर्म, गर्म–गर्म पकौड़ियों पर पलकर जवान होगी, जब जुबेदा का महमूद दही–बड़ों की चाट पर जवान होगा तो इस्लाम की बिरादरी में दो अमूल्य भागों की बढ़ोतरी होगी एक मजबूत भाई और एक सुन्दर बहन। शरीर की मजबूती और शरीर की सुन्दरतायही तो वह ईंट और गारा है, जिससे बहादुर कौमों और राष्ट्र का निर्माण होता है।

 

शरीर की मजबूती और शरीर की सुन्दरता यही तो वह महान उपलब्धि है जो महानता देने वाले अल्लाह ने तुम्हें दी है। वह तो बड़ा ही दयालु है, सबका पालनहार है। उसी ने पेड़ों पर अनार लगाये। वही दरियाओं से मूँगे और मोती निकालता है, वही स्वर्ग का मालिक है। वही नर्क में पहुँचाने वाला है, तुम अपने पालनहार की किन–किन उपलब्धियों को झुठलाओगे…..

The End

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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