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चौकीदारिन (डोगरी कहानी-पद्मा सचदेव) आज तुम्हारी नौकरानी चली गई और मेरी बीवी मर गई।

by Engr. Maqbool Akram
March 7, 2024
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सरवर जान नई ब्याई गाय को गुड़ की चूरी खिलाकर बाहर निकली तो साँझ का सुरमई आँचल धीरे–धीरे आकाश के होशो–हवास पर छाता जा रहा था। अभी कोई तारा नहीं निकला था, पर धूलिया आसमान पर कई सूराख सरवर जान को दिखाई देने लगे थे।

 

उसके कलेजे में एक जोर की मरोड़ उठी। दर्द की इस मरोड़ से निकली आह को पहचानकर ही शायद उसकी गाय रंभाई। सरवर जान ने हाथ का कटोरा नीचे रखकर गाय के सिर पर हाथ फेरा और अपना गुड़वाला हाथ उसके मुँह के पास ले गई। गाय की पनीली आँखों में दर्द था। गाय कसमसाई तो सरवर जान ने उसके थनों को देखा। बछड़े के भरपेट दूध पीने के बाद भी उसके थन दूध से कड़े हो रहे थे। सरवर जान दुहनियाँ लेकर पीढ़े पर बैठकर दूध दुहने लगी।

मिट्टी की दुहनी में दूध की धारें ऐसे गिरने लगीं, जैसे पहाड़ी चट्टान पर बारिश की बौछारें गिरती हैं। सरवर जान को आज इस घर में आए पंद्रह बरस हो गए हैं। कितनी ही ऐसी शामें हैं, जब शेर खाँ वक्‍त पर घर नहीं आता। वैसे तो महीने में एकाध शाम ही ऐसी होती है, पर इसका धड़का उसे हर शाम होता है। जब तक शेर खाँ घर वापस नहीं आ जाता, वह दोपहर ढलने के बाद पूरी साँस नहीं ले पाती। आधी–आधी छोड़ी हुई साँसें एक धुँध की चादर की तरह उसका वजूद ढँक लेती हैं।

 

आवाज आ रही है। अलिफ से अब्बा, बे से बतख, पे से पानी। उसकी छोटी बेटी रट रही है। उसे सिर्फ अलिफ से अब्बा सुनाई देता है।

कितने प्यार से शेरे ने इनके नाम रखे हैं। नीली और लाली। नीली बड़ी है, उसकी आँखें नीली हैं और लाली है छोटी, उसके बाल लाल हैं। सबसे बड़ा है उसका बेटा सावन, जो बाप को मुत्तासिर करने के लिए एक ताल में पट्ठे काट रहा है, ताकि बाप खुश होकर उसे रात को थोड़ी देर के लिए सुलतान मिरासी के घर जाने दे। सावन को डफली बजाने का बेहद शौक है।

 

दूध की धारें अब मानो किसी ताल में गिर रही हैं। गंभीर और किसी रियाजी उस्ताद जैसी आवाजें, वे जैसे सरवर जान का कलेजा मथ रही हैं। थोड़ी सी नीलाहट लिये हुए पतला सा दूध दुहनी के गोल मुँह तक भर गया है। गाय निश्चल खड़ी है। उसने दूसरी दुहनी ली। उस पर गिरनेवाली दूध की धारों की आवाज के साथ सावन के हाथों कटते पट्ठों के कराहने की आवाज शामिल हो गई है। शाम डरावनी सी हो उठी है।

 

बाहर ‘ भालू‘ कुत्ता अपनी गुर्राहट तेज कर रहा है। सरवर जान के कान बजे हैं। बाहर खुले दरवाजे के पास गली में से आती आहटें रुकी हैं। शायद शेरा ने कतलू को थोड़ी देर रुकने के लिए कहा होगा। फिर थप्प की आवाज, जैसे उसके कलेजे पर कुछ गिरा हो। ये सेबों की थैली होगी। कुछ रखने की आवाज, ये मेवे होंगे। फिर शेरा के अंदर दालान तक आकर रुकते कदम और भयानक खामोशी | सरवर की दूसरी दुहनी भी भर चुकी है। गाय प्यार से सरवर को निहार रही है। एक झुँझलाई सी भरपूर आवाज उभरी है,

“सावन की अम्माँ!”

 

दुहनी जरा सी छलकी। सरवर जान ने कहा, “ओह! आज मैं सिर्फ सावन की अम्माँ हूँ।‘ दोनों दुहनियाँ उठाकर वह बाहर आई। सामने से आती दोनों बेटियों को एक–एक दुहनी थमाकर ऊँची लंबी जहीन सरवर, शेर खाँ के सामने जा खड़ी हुई। आँखों में आँखें डालकर बोली,

“आज फिर?”!

“अल्लाह कसम, सरो…।” शेर खाँ बोला, थोड़ा सा मुड़कर वह बगैर बात सुने चली गई। जब लौटी तो उसके हाथ में लोटा था। पानी लेकर शेर खाँ ने उसे देखे बगैर कहा, ”कतलू बाहर बैठा है।‘!

“जानती हूँ।” मुख्तसर सा जवाब था।

 

पर उसके जवाब से शेर खाँ मुतमइन हो गया। उसने सोचा, मेरे साथ कैसी भी बेरुखी बरते, कतलू की खातिर में कोई कसर न होने देगी। उसने अपना बड़ा सा कोट अलगनी पर डाला और गरम पानी से भीगे तौलिए को एक तरफ रखकर अपनी पेशावरी चप्पल खोलने लगा। आज पैर खुद साफ करने होंगे।

 

सरो जब मुहब्बत में होती है, तभी उसके पाँव खूब रगड़कर साफ करती है। कितना सुकून आता है। तभी कतलू ने दरवाजे पर से कहा, “मैं जा रहा हूँ शाह। बाजी ने शहर की मिठाई और दूध की हाँडी आपा के लिए भेजी है।” शेर खाँ ने अपनी कराकुली टोपी उतारकर अंदर रखे नोटों में से एक नोट कतलू की हथेली पर रखा। कतलू ने नोट लेकर कहा,

 

“इसकी क्‍या जरूरत थी शाह…हमेशा ही तो देते हो।” यह कहकर उसने नोट अपनी बंडी में खोंस लिया और सलाम ठोंककर चला गया।

 

जमीन से चप्पल एक तरफ हटाकर शेर खाँ ने पाँव पोंछे और तौलिया फेंककर जमीन पर बिछे मोटे सतरे पर लेट गया।

 

जब आदमी अपने कमरे में अकेला रह जाता है, तब बीते दिनों के लम्हे जो उसके आसपास ही मंडरा रहे होते हैं, उसके बदन पर आकर चीटियों की तरह रेंगने लगते हैं। शेर खाँ की आँखें बंद होती गईं। बेजान सा शेर खाँ अब अपने माजी के आगोश में था। उसने देखा, उसके छोटे– छोटे लाल–लाल पाँव स्कूल से नंगे पैर आने पर ठंड से बेजान हो चुके हैं।

उसका जूता पता नहीं कौन ले गया है। नूर बेगम गरम–गरम पानी से भीगा, मोटा खुरदुरा कपड़ा उसके पाँव पर रगड़ रही है। कितना अच्छा लग रहा है। शेर खाँ ने अपना एक पाँव दूसरे पर धीरे–धीरे रगड़ना शुरू किया। नूर बेगम और करीब आ गई।

 

आठ–नौ
बरस का, गाँव के स्कूल में दूसरी जमात में पढ़नेवाला शेर खाँ शर्म के मारे चित पड़ा है। ठंडे पाँव उसे हिलने तक की इजाजत नहीं दे रहे। नूर बेगम उसके पाँव पर तेल मल रही है। फिर अपने आँचल से पोंछ, सीने से लगाकर रजाई में घुसी बैठी है। वह नूर के हाथों से अपने पाँव छुड़ाता है। आँसू की गरम–गरम बूँद टप्प से उसके पाँव पर पड़ती है। एक कील सी अंदर घुस जाती है। नूर बेगम जा चुकी है, पर कील बाहर नहीं निकली। तभी उसकी माँ की आवाज आती है, “शेर खाँ शेरू, ले, दूध और रोटी खा। तू नूरी से क्‍यों घबराता है, तेरी बीवी है वह, इस घर में उसका और कौन है? तू उसके साथ खेला कर।”

 

“अम्माँ, खाना खाने दे न और नूर के साथ मैं कभी न खेलूँगा। वह मुझसे बहुत बड़ी है।” झल्लाकर शेर खाँ बोला।

माँ ने प्यार से कहा, “कितनी? सिर्फ दस साल और चार बरस में तो तू बड़ा हो जाएगा।”

 

“कितना बड़ा अम्माँ, अब्बा के जितना?”

“नहीं, पर काफी बड़ा, इतना बड़ा कि नूरी से कभी–कभी खेल भी सके ।”

“तब क्या वह छोटी हो जाएगी?”

“कौन, नूर? पगला कहीं का। बड़ा होने के बाद, कोई भी छोटा नहीं होता।“

“पर मुझे स्कूल में सब लड़के छेड़ते हैं। कल उस्ताद भी कह रहे थे।“

 

“क्या कह रहे थे? !”

“यही कि वह मेरी बीवी है।”

“बीवी तो है ही बेटा, उसके चाचा ने जब तेरी फूफी से शादी की थी, तब तुम पाँच ही बरस के थे। तुम्हें कैसे याद होगा!”

 

“पर अम्माँ, शादी में तो ढोल बजते हैं। ढोल तो बजे नहीं। शादी कैसे हुई?”

“बजे थे बेटा, पर तब तू मेरी गोद में सो रहा था।”

“अम्माँ, मुझे नींद आ रही है। तू मेरे साथ सो जा। मैं रोटी खा चुका।”

“पर अभी बहुत काम है।”

“काम वह करेगी, तू मुझे सुला, मुझे डर लग रहा है।“

शेरू की माँ ने अपने बेटे को सीने से लगा लिया और रजाई में उसे लपेटकर गाने लगी—

 

दरसी दे बनाँ विच्च बुननी औ लोइयाँ

जिना गल्लाँ डरदी सी ऊऐ गल्लाँ होइयाँ,

लग्गी कैची दिल नूँ…

 

(दरसी के जंगल में लोइयाँ बुन रही हूँ। जिन बातों से डरती थी, वे ही बातें हो गई हैं। दिल में कैंची–सी आ लगी है।)

 

ठक्क की आवाज से शेर खाँ चौंका। उसने देखा, सोए–सोए उसकी आँखों में से आँसू बह रहे थे और उसकी बेटी नीलू उसका ठंडे कहवे का प्याला लेकर बाहर जा रही थी। आज पंद्रह बरस पहले का वह दिन कैसे पूरा–का–पूरा जी उठा है। उसने आसपास देखा। नूर कहीं न थी। माँ को मरे अब अरसा हो चुका था, पर नूर तो थी, जो अपने घर से एक बूढ़ी गाय की तरह निकाली जा चुकी थी। तभी सावन ने आकर कहा, “अब्बा, खाना खाने चलो।”

 

“मुझे आज भूख नहीं है। तुम लोग खा लो।”

“अब्बा, काली घोड़ी का पाँव अभी तक ठीक नहीं हुआ।“

“हूँ, काँटा अच्छी तरह से निकाला था?”

“हाँ अब्बा!”

 

“तो गरम पानी से साफ करके एक बार फिर आक के पत्ते पर देसी घी चुपड़कर बाँध देना।”

 

सावन के निकलते ही सरवर जान आ खड़ी हुई, “क्यों, बहुत कुछ खिला दिया उसने? घर में भी लोग इंतजार करते हैं। तुम्हारी दोनों बेटियाँ गुम–सुम दस्तरखान पर बैठी हैं।”

 

शेर खाँ उठ बैठा। उसने कहा, “चलो, मैं आ रहा हूँ।“

लोई को लपेटते ही काले धागे से बँधा ताबीज ठक से नीचे गिरा। नूरी की आवाज उसके कानों में रस घोलने लगी। “इसे बाँह पर बाँध लेना। दरगाह गई थी। वहीं से लाई हूँ तुम्हारे लिए।”
शेर खाँ ने ताबीज उठाकर छत की कड़ियों में खोंस दिया और खाने के लिए चला गया।

 

सावन अपनी माँ के आँचल से हाथ पोंछकर बोला, “अब्बा, मैं”

“हाँ–हाँ, सुलतान के यहाँ जाओगे? चले जाओ, पर जल्दी आना।”
सभी हैरान होकर उसे देखने लगे। सुलतान मिरासी के नाम से भी शेर खाँ चिढ़ता था। हाथ धोकर शेर खाँ फिर अनमना सा बिस्तर में गिर गया। तभी वह फिर आ गई—नूर, अठारह–उन्‍नीस बरस की नूर।

 

उसने देखा, स्कूल से आते ही वह अपना पट्टी–बस्ता फेंककर माँ को ढूँढ़ने लगा। नूर ने गरम पानी से भीगा तौलिया उसे दिखाकर कहा, “चलो, पाँव पोंछ दूँ।” पाँव पुछवाने में बला का आकर्षण था। अब उसे आदत भी पड़ चुकी थी। यही वह वक्‍त था, जब नूरी दो मिनट के लिए अपने छोटे से बलमा के पास होती थी। वह उसके पाँव साफ करती और इसी बहाने उसे इस घर में अपने पैर पक्के जमने का यकीन हो जाता।

 

शेरू जल्दी करने को कहता। वह मुसकराकर देर लगाती। शेरू के पाँव साफ होते तो उसे लगता स्कूल के मटमैले धूल भरे टाट की गंदगी से मुक्त हो गया है। अब भी तो उसे पाँव साफ करवाने में बड़ा रस आता है। नूर मकई की रोटियों पर मलाई का ढेर डालकर ले आती थी। उसे पकड़ाकर भाग जाती। कभी–कभी वह देखता, रसोईघर से नूर उसे देख रही है”“कभी–कभी खाना पकाते वक्‍त वह धीरे–धीरे गाती—

 

अज्ज छोट्टरा, कल बड्‌डा

माये दिनोदिन जोत सो आई। वोssss

(आज छोटा है तो कल बड़ा हो जाएगा, दिन–ब–दिन ज्योति और ज्यादा तेज लौ देगी।)

 

वह बाहर भाग जाता। सुबह उसकी पट्टी उसे साफ मिलती। काली स्याही की बोतल अच्छी तरह भीगी–भिगाई। किताबें बस्ते में करीने से लगी हुई। कलम की नोक अच्छी तरह गढ़ी हुई। वह खुश होकर सोचता, मैं जवाँ मर्द हूँ और ये नूर जो इतनी सुंदर है, जो चाँदनी की तरह चमकती है, धूप की तरह खिलखिलाती है, महज मेरी बीवी है।

 

हमेशा हमारे घर में रहेगी। बड़ा होकर मैं उसे मेले में ले जाऊँगा। अब्बा के खास घोड़े पर बैठकर उसे भी साथ बिठा लूँगा, पर स्कूल जाते ही जब उसे दोस्त छेड़ते, “अहा, क्या पट्टी लिशकी है! क्‍या आँखों में सुरमा, बीवी ने डाला होगा!” तो सबके हँस पड़ते ही उसके सपने हवा हो जाते। यह खिलखिलाहट उस्ताद के आने पर खत्म हो जाती, पर शेर खाँ सारे दिन के लिए बुझ जाता।

 

माँ उसका बुझा चेहरा देखती तो कहती, “जाओ, बच्चों के साथ जाकर खेलो।” शेर खाँ कहता, “नहीं, मैं न जाऊँगा। सब मुझे छेड़ते हैं।” माँ के सोने से एक आह निकलती– ‘बचपन तो मेरे बच्चे का घुट गया है। जवानी कैसी होगी? या अल्लाह, रहम कर! ऐसे बेमेल ब्याह तो हमारी बिरादरी में कितने ही होते हैं। फिर मेरे बच्चे को ही यह बात क्यों ज्यादा महसूस होती है?’

 

नूरी की खूबसूरती के चर्चे तो सारे गाँव में थे। सुघड़ भी वह उतनी ही थी। जब पानी भरने कुएँ पर जाती तो खिलखिलाती हुई हमउम्र बहुओं के साथ बाँटने को कोई राज उसके पास न होता। वह अछूती सी खड़ी रहती,
एक तरफ खामोश,
चोर की तरह। जब उसे कोई छेड़ता तो शर्म से उसका चेहरा लाल हो जाता,
वह पानी भरने के लिए कुएँ पर चढ़ जाती। सभी के घड़े अपनी पीतल की बाल्टी से दनादन भर डालती। हर कोई दुआ देता। इसके बाद अपने घड़े उठाकर गीली रस्सी गीले हाथों पर डाले वह रूखी–सूखी घर आ जाती।

 

कभी–कभी शेरा चिढ़कर उसका लाया दूध का कटोरा फेंक देता। नूरी की आँखें खाली कटोरे को जमीन पर टिकते–झनझनाते देखतीं और आँसुओं से लबालब भर जातीं। शेर खाँ ने अपनी रजाई को थोड़ा मोड़ा। एक आह उसके सीने से उठकर अतीत पर फिर गई। उसने सोचा, “मैं तो बच्चा था, पर समाज कितना पापी है। मुझे तो नूरी माँ जैसी ही लगा करती थी और डर के मारे वह बच्चा कभी–कभी रात में दोस्तों से छेड़े जाने पर बीवी के नाम से भी डर जाता।“

 

उस दिन जब शीशे से कटा लहूलुहान पैर लेकर वह घर में घुसा था, तो माँ घर पर न थी। नूरी ही तो थी। पट्ठे काटनेवाली दराँती उसके हाथ में थी। जैसे मार डालेगी। ऐसे ही खड़ी थी नूरी। उसने रोते–रोते कहा था, “स्कूल में शीशा चुभ गया।” नूरी ने उसे गोद में ले लिया था। दराँती की नोक से ही उसका काँच निकाल दिया था। तड़पकर शेरा उससे चिपट गया था।

 

नूरी ने उसके बालों पर हाथ फेरकर उसके माथे को वैसे ही चूम लिया था, जैसे माँ चूमती है। फिर कपड़ा जलाकर उसके जख्म पर पट्टी बाँध दी थी। उस दिन के बाद उसे नूरी से डर न लगता था, पर तभी शेरा के मामा एक दिन आकर उसे ले गए थे। माँ ने ही चिट्ठी लिखवाई थी। शेरा के मामा का गाँव बड़ा था। वहाँ आठवीं तक का स्कूल भी था और मामा का कारोबार भी काफी बड़ा था।

 

मामा की एक ही लड़की थी—सरवर जान और शेरा भी माँ का एक ही बेटा था। माँ और मामा की बातचीत उसने चुपके से सुनी थी। माँ कह रही थी, “शेरा बहुत छोटा है और नूरी बहुत जवान। इसे तुम ले जाओ वीर। मेरा एक ही बच्चा है। मैं इससे अलग तो रह सकूँगी, पर इसके साथ रहकर मैं इसका बचपन घुटता हुआ नहीं देख सकती। बड़ा करके भेज देना। बीच–बीच में मैं आती रहूँगी।“

 

मामा
ने कहा था, “खतीजा, तभी तुमसे कहा था, उम्र का इतना फर्क नहीं होना चाहिए।”

 

माँ ने लगभग रोकर कहा था, “शेरू के अब्बा के आगे मेरी कब चली है? फिर इस घर में दो हाथ चाहिए थे। जब से मैं बीमार रहती हूँ, घर तो सारा नूरी ही सँभालती है।“

 

मामा भी तीखी आवाज में बोले थे, “तुम्हें एक नौकरानी चाहिए थी, बहू नहीं। शेर खाँ को जब तक मैं न भेजूँ, बुलाना नहीं। तुम लोग उससे वहीं मिल सकते हो, पर खतीजा, उस बेजुबान पर रहम करो, उसे आजाद कर दो।”

“वह यह घर छोड़कर नहीं जाएगी वीर। उसके चाचा ने उसे भाई के मरने के बाद इसीलिए बड़ा किया था कि किसी दिन उसका घर बसाने के लिए इसकी कुरबानी दी जा सके। तीन–चार बरस हो गए हैं, कभी इसको चाचा ने घर पर नहीं बुलाया। इसकी माँ के गहने शेरा की फूफी लादे–लादे फिरती है। अब तो माशा अल्लाह, उम्मीद से भी है। हमारे बुलाने पर भी वह उसे नहीं भेजता। नूरी को जिंदगी में पहली बार घर मिला है वीर, वह इसे छोड़कर नहीं जाएगी।”

 

मामा ने कहा, “जब शेरा जवान होगा, तब?”

माँ ने बड़े विश्वास से कहा, “शेरा की एक और शादी करवा दूँगी। मालकिन तो नूरी ही रहेगी।“

 

शेर
खाँ इससे ज्यादा न सुन सका। उसकी छाती में एक बगूला–सा उठा। जो खुशी उसे मामा के घर जाने में हो रही थी, वह निकल गई। उसने सोचा, अगर नए स्कूल में भी मामा ने बता दिया, उसकी बीवी है तो क्या होगा? वहाँ भी सब छेड़ेंगे। वह भागकर अपने कमरे में गया। उसने देखा, नूरी रो रही थी और उसके कपड़े तहा रही थी। उसका जी चाहा, नूरी से कहे, मैं कभी किसी और से शादी नहीं करूँगा, पर उसे देखकर वह हमेशा की तरह खामोश रह गया। नूरी ने अपने आँसू पोंछे बगैर उससे पूछा, “सभी कपड़े रख दूँ या कुछ यहाँ रहने दूँ?”

 

“नहीं, सभी रख दो। मैं यहाँ कभी नहीं आऊँगा।” यह कहकर शेर खाँ भाग गया था।

 

नूरी तनिक सी मुसकराई थी। शेर खाँ उस मुसकान का अर्थ न समझता था, पर आज, अब क्यों याद आ रही है, उसकी बात? नूरी को अब बूढ़ी हो जाना चाहिए था, पर वह तो वैसी ही है, उसका आँख का नूर अभी तक वैसा है।….
शेर खाँ ने रजाई और कसकर लपेट ली। कमरे में दीये की पीली सी रोशनी हुई।

 

उसकी बंद आँखों से भी वह दिखाई देती थी। सरवर जान ने फूँक मारकर दीया बुझा दिया। चुपचाप उसकी बगल में आकर लेट गई। शेर खाँ ने बेसाख्ता उसे अपने आगोश में ले लिया। उस वक्‍त वह नूरी थी। जवाँ–जवाँ नूरी!

 

उजाले में जो मसले हल नहीं होते, अँधेरे में कैसे बहस के बगैर ही सुलझ जाते हैं?

 

दूसरे दिन का सूरज किसी पागल की जुल्फों की तरह बिखरा–बिखरा था, पर सरवर जान हँस–हँसकर बच्चियों के बस्ते नूरी के भेजे सेबों और बादामों से भर रही थी। हँसकर बोली थी, “तुम लोगों की बड़ी अम्माँ ने भेजे हैं।” लड़कियाँ शरमाकर भाग गई थीं। जब खुश होती थी सरवर नूर को हमेशा बच्चों की बड़ी अम्माँ कहती थी। खुद भी उसे आपा कहती, पर यह खुशी बरसात के चढ़नेवाले सूरज की तरह होती थी।

 

आपा या नूरी अब मौलवी अमीन की बेगम थी और मौलवी की पहली बीवी के सब बच्चों को व्यवस्थित कर चुकी थी। अब उसका छोटा बेटा ही उसके पास था। इसी दुधमुँहे बच्चे के लिए मौलवी ने कभी कोई औरत या बीवी चाही थी, जो उसे पालकर बड़ा करती। मौलवी के बच्चों को और उसके घर को सहेज लेती। ये सब काम नूरी ने किए थे चौकीदारिन की तरह। अब मौलवी साहब के इंतकाल के बाद वह उनके छोटे बेटे के साथ घर पर रहती थी।

 

कतलू उसके बागों का कारोबार सँभालता था, पर नूरी को कभी भी यह घर अपना न लगा था। उसका मन हमेशा खिंचता रहता।

 

शेर खाँ ने जीन कसी। उसने सोचा, काम पर जाऊँगा। आज घोड़ों की खरीदारी करनी है। शायद माजी के आगोश में से भी निकल पाऊँ। घोड़े पर बैठकर शेर खाँ ने एड़ लगाई, लेकिन इसी के साथ जैसे उसके खयालों को भी एड़ लग गई। वह रात जीती–जागती औरत की तरह उसके सामने थी।

 

वह रात, जब शेर खाँ को न जाने कितनी तरह की औरतों ने नूरी के कमरे में ढकेल दिया था। कमरे में 30 बरस की नूरी 20 बरस के शेर खाँ को देखकर जरा भी नहीं शरमाई थी। पीले पत्ते की तरह वह काँप रही थी, पीले पत्ते ही की तरह मानो डाल से टूटकर गिर भी पड़ी। रो रही थी नूरी।

शेर खाँ की समझ में न आया, वह क्‍या करे! नूरी कभी–कभी आँगन में लगे खूबानियों के पेड़ की तरह उसे याद तो आती थी, पर नूरी—उसकी बीवी—उसके सपनों का ताजमहल तो नहीं है। नूरी ने ही कहा, “बैठो शेर खाँ।” शेर खाँ, फिर स्कूल से आए उस बच्चे की तरह हो गया, जिसके पाँव में शीशा लगा था।

 

वह भी रोने लगा। नूरी उसे देखते ही चुप हो गई। उसने शेर खाँ का हाथ पकड़ा और कहा, “नहीं शेर खाँ, तुम मत रोओ, रोऊँगी मैं। मुझे रोने की आदत भी है और अब अच्छा भी लगता है। जिस तरह से रो–रोकर मैंने अपनी मुरादों की रातें काटी हैं, उस तरह से तुम्हें न काटने दूँगी।

 

तुम तो मेरे छोटे से बलमा हो न! मैंने तुम्हें बचपन से बड़ा भी किया है। तुम हमेशा मेरे शौहर थे। मैं ही कभी तुम्हारी बीवी न थी। तुम्हारी बीवी हूँ, ऐसा तो कभी मुझे भी नहीं लगा। तुम्हारे नाम की ओट में मैंने एक शौहर जरूर देखा है, पर यकीनन वह तुम नहीं हो। तुमने मुझे घर दिया, मेरा अपना घर, वही पाकर मैं खुश हूँ। तुम्हारी हसरतें नहीं टूटने दूँगी।

 

जानती हूँ, तुम्हारे मामा तुम्हारी शादी सरवर से करना चाहते हैं।” शेरा चीखकर बोला था, “नहीं–नहीं, मैं शादी नहीं करूँगा।”
नूरी ने कहा था, “वह तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी। मैं तुम्हें आजाद करती हूँ शेरा! मैंने मेहर की रकम भी माफ की। अल्लाह तुम्हें खुश रखेगा। यह मैं जानती हूँ। मैंने हमेशा तुम्हारे लिए दुआएँ माँगी हैं।

 

लोगों ने भी मुझे हमेशा तुम्हारे लिए दुआएँ ही दी हैं। शादी की रात जब तुम पाँच बरस के थे, तब मुझे तुम शौहर थोड़े ही लगे थे, तब तुम मुझे एक घर लगे थे, जहाँ मैं महफूज रह सकती थी। घर की कितनी ममता होती है! लोग तो कभी–कभी चले भी जाते हैं, पर घर कभी नहीं साथ छोड़ता। घर बेमुरव्वत भी नहीं होता शेरा।” शेरा के सिर पर हाथ फेरकर नूरी ने कहा था, “रोओ नहीं, मैं कल सुबह चली जाऊँगी।

मौलवी
साहब की बीवी का इंतकाल हुए कल एक महीना हो जाएगा, उनका दुधमुँहा बच्चा मैं बचा लूँगी। मौलवी साहब को भी एक औरत चाहिए, बीबी नहीं, पर मेरी तकदीर में बीवी बनना लिखा ही कहाँ है! एक शौहर मिला, जो दस साल छोटा था, दूसरा हासिल करने जा रही हूँ, जो बीस साल बड़ा है। उनके घर में चार लड़कियाँ भी हैं। उन्हें मेरी जरूरत है।” यह कहकर नूरी रुकी थी।

 

फिर अवाक्‌ शेरा ने देखा, वह रोकर भीख माँग रही थी, “यह घर मेरा है, मुझे कभी–कभी बुला लिया करना। इस घर की दीवारों पर मेरी जिंदगी के सालों की तारीख लिखी है। इस घर की कोई भी ऐसी दीवार नहीं है, जिसके सीने के साथ लगकर मैंने अपने माजी के ख्वाब नहीं बुने।

 

कोई ऐसा दरख्त नहीं है इस घर के पिछवाड़े में जिस पर आनेवाले फूलों में मैंने अपने बच्चों के चेहरे नहीं देखे। इस घर की छत की कोई भी कड़ी ऐसी नहीं है, जो मेरी आँखों की ताब ला सकी हो। इस घर पर आनेवाली हर रात मैंने अपने सीने में जज्ब कर ली है। हर दिन तुम्हें दे जाऊँगी।

 

“पर मुझे कभी–कभी बुला लिया करना। शेर खाँ, शेर खाँ बुलाओगे न? रोओ नहीं, अब भी कभी–कभी जी चाहता है, तुम आठ बरस के हो जाओ, मैं अठारह की, ताकि न मैं सपने बुनने से चूकूँ, न तुम तोड़ने से बाज आओ। अब रोओ नहीं। लोग सुबह तुम्हारी सूजी आँखें देखकर सोचेंगे, बड़ी बहू ने तुम्हें मारा है।

 

“जाओ, इस चारपाई पर सो जाओ। मैंने गरम पानी रखा हुआ है। तुम्हारे पाँव पोंछकर मैं भी सो जाऊँगी। सुबह तक।”

 

शेर खाँ वह रात कैसे भुला सकता है, जब अपने सीने के बीच उसके पाँव रखे नूरी रात भर जागती रही थी। सुबह जब वह पक्‍की नींद सो रहा था, तभी वह बेचारी गाय, जिसका खूँटा तो घरवालों ने खोल दिया था, पर रस्सी गले में बँधी रहने दी थी, धीरे–धीरे खूँटे को घसीटती मौलवी के घर चली गई थी।

 

सवेरा हुआ तो घर भर में कुहराम मच गया था। रिश्ते की किसी औरत ने कुछ कहना चाहा था, तभी उस घर में पहली बार शेर खाँ की कड़कती हुई आवाज गूँजी थी, “खबरदार, जो नूर बेगम के बारे में किसी ने एक लफ्ज भो बोला। मैंने खुद उसे तलाक दिया है। आज उसका निकाह मौलवी साहब से होगा। अम्माँ, आज तुम्हारी नौकरानी चली गई और मेरी बीवी मर गई। उसके खिलाफ इस घर में कोई नहीं बोलेगा। नहीं तो मैं कल ही जाकर फौज में भरती हो जाऊँगा।“

सारे आँगन में सन्‍नाटा छा गया था। कभी–कभी नूरी को लेकर अगर कोई फुसफुसाहट होती तो शेरू को देखते ही बंद हो जाती।

फिर उसी साल शेरा की शादी सरवर जान से हो गई थी।

 

शेर खाँ का चित्त, दोराहे पर खड़ा, भूले हुए मुसाफिर की तरह टुकुर–टुकुर देखता रहता। रात भर वह सरवर जान को मन–ही–मन नूरी कहता, फिर सुबह उससे आँख न मिलाता। नूरी अब सबके लिए एक कहानी थी, पर उसके लिए एक हकीकत। उसका घोड़ा “तीरंदाज‘ जब भी नूरी के घर की पहाड़ी से नीचे उतरता, अखरोट के दरख्त के पीछे से नूरी का साया लरजता हुआ दिखाई देता और जैसे–जैसे उसका घोड़ा ढलान से नीचे उतरता, नूरी गायब होती जाती। अनारकली की तरह, जो ईटों के पीछे चुने जाने पर धीरे–धीरे गायब हो गई थी।

ढलान पर उतरने से पहले शेर खाँ थोड़ी देर पहाड़ी पर खड़ा रहता था। कभी डूबते सूरज को देखता, कभी नूरी के साये को! इसी तरह कई बरस बीत गए। सावन तो पहले बरस ही आ गया था। फिर दोनों बच्चियाँ भी आ गई। दिन हाथों से फिसलते रहे, फिसलते ही रहे। शेर खाँ के गले में फाँस अटकी ही रही, नूरी की फाँस!

 

फिर एक दिन जब वह उस गली में से जा रहा था, कतलू ने ही उसके घोड़े की रास थामकर कहा था, “शाहजी, आपको आपा बुला रही हैं।” घोड़े से उतरकर शेर खाँ नूरी के सामने वैसे ही खड़ा हो गया, जैसे जज के सामने चोर आकर खड़ा होता है।

 

नूरी ने ही मौन तोड़ा, “कैसे हो शेर खाँ?” शेर खाँ ने एक आह भरकर कहा, “सलामालेकुम बेगम साहिबा, मैं अच्छा हूँ, आप कैसी हैं?” नूरी की आँखों में आँसू भर आए, पर उसने मुसकराकर कहा, “आज कितने ही दिनों के बाद इधर आए हो! मौलवी साहब काफी बीमार हैं। इन्हें शहर के अस्पताल में पहुँचाना चाहती हूँ।“

 

शेर खाँ, जिसकी आवाज से आसपास का सारा इलाका थर्राता था, एक मासूम मेमने की तरह सिर्फ गरदन हिलाकर रह गया।

 

नूरी
ने एक टोकरी उसे थमा दी थी, “यह बच्चों के लिए ले जाओ।” शेर खाँ हिम्मत बाँधकर बोला, “अभी मैं पालकी का इंतजाम कर देता है, साथ जाऊँगा। आप घर पर ही रहिए।” फिर मौलवी साहब जब ठीक होकर आ गए तो कभी–कभी शेर खाँ वहाँ आने लगा। आने–जाने का यह सिलसिला अफवाह बनकर सरवर जान के पास भी पहुँचा था। एक दिन उसने पूछ ही लिया, “ये आए दिन बच्चों के लिए मेवे कहाँ से आते हैं? “

 

“नूरी, नूर बेगम…मौलवी साहब के घर से।”

सरवर ने मुँह खोलना चाहा, शेर खाँ ने बंद कर दिया, “ये बच्चे नूरी के भी हो सकते थे। आईंदा यह जिक्र न हो।”

 

सरवर चुप हो गई थी, पर जब भी कभी घर में मेवे आते, वह बच्चों को खूब सुनाती, “तुम लोगों को बड़ी अम्माँ ने मेवे भेजे हैं।” कभी–कभी मजाक में भी बड़ी अम्माँ का जिक्र होता, पर कहीँ अंदर मन में उससे सहन न होता। बड़े अधिकार से कतलू उसे बाजी कहता था।

 

उसी से मौलवी साहब की बीमारी और नूरी की सेवा की खबरें वह सुनती रहती और फिर मौलवी साहब का इंतकाल हो जाने पर जब शेरा ने उससे आकर कहा था, “सरो, मौलवी साहब नहीं रहे, मैं नूरी के घर जा रहा हूँ। तुम चलोगी?
”
तो उसने, “नहीं तुम्हीं जाओ,” ही बोला था!

 

शेरा घोड़े को एड़ लगाकर चला गया था और पूरी तरह से कभी घर न लौटा। सरो के बच्चे थे, घर था, पर वह मालिक की मालकिन न हो सकी थी। अपने और शेर खाँ के बीच उसे हमेशा नूरी खड़ी मिलती थी। नूरी उसकी सौत, नूरी उसकी सास, उसकी दुश्मन, उसकी साझेदार।

 

बच्चों के लिए तोहफे आते तो जिस खुशी से बच्चे उन्हें स्वीकार करते, सरवर जान से बरदाश्त न होता। कभी उसे लगता, पति तो नूरी का है ही, कहीं ये बच्चे भी” और वह थर्रा जाती। बच्चों ने अपनी बड़ी अम्माँ का अस्तित्व स्वीकार कर लिया था।

 

फिर एक घटना हुई। इतने बरसों बाद सरवर जान फिर उम्मीद से थी। गाँव की अनुभवी दाई ने कह दिया था, इस बार मेरे बस का नहीं है, इसे शहर ले जाओ। शेर खाँ तैयारी में लगा हुआ था। एक दिन सरवर जान से कहने लगा, “कल हम शहर जाएँगे। पता नहीं, कितने दिन लगें? तुम कहो तो नूरी को बुला लूँ, बच्चों को भी सहारा देगी, घर भी देखेगी।“

 

तड़पकर सरवर बोली थी, “अब ज्यादा देर क्या है? मेरे मरने के बाद यहीं ले आना।”
शेर खाँ चुप रह गया था, पर जाते–जाते कतलू को वहाँ छोड़ गया था। अस्पताल पहुँचते ही सरवर जान को दर्द उठा था, फिर डॉक्टर ने मरा बच्चा निकालकर उसकी जान बचा ली थी।

 

शेर खाँ बाहर कह रहा था, “अल्लाह पाक, मेरा ईमान रखना।”
फिर सरवर जान ने ही उससे कहा था, “मैं ठीक हूँ। तुम दाई का इंतजाम करके बच्चों को देख आओ। मुझे अच्छे सपने नहीं आते।”

 

शेर खाँ डॉक्टर से पूछकर चला गया था आठवें दिन आकर सरो को ले जाने के लिए।

 

अस्पताल में सरवर जान अब अच्छी हो चुकी थी। टाँके निकलने का इंतजार था। उसे थोड़ा होश आने लगा तो उसने पाया, रोज शाम को नीचे के वार्ड में कोई चिल्लाता है। एक औरत की गिड़गिड़ाहट, आकाश को चीर डालती गुहारें, फिर मंद पड़ती आवाजें। रोज शाम के वक्‍त एक खौफ सरवर जान के ऊपर तारी होता। जब तक वे आवाजें उभरकर मिट नहीं जाती, वह थर्राती रहती।

 

“मेरा बच्चा कहाँ है, कहाँ है मेरा लाल? कल ही तो पैदा हुआ था। अल्लाह, मेरा बच्चा कहाँ ले गए?”

 

सरवर जान ने दाई से पूछा, “इस औरत का बच्चा भी मरा पैदा हुआ था क्या?” दाई बोलो, “नहीं बीवी, इसका बच्चा कहाँ से होगा, इसका खाविंद तो अभी स्कूल जाता है। यह पागल जैसी हो गई है। घर में जेठानी के हर साल बच्चे होते थे। यही उनको पालती रही।

 

कहते हैं, इस बार उसे जुड़बाँ बच्चे हुए तो यह पागल हो गई कि एक बच्चा मेरा है, अल्लाह ने मेरे लिए भेजा हैं। जेठानी से बच्चा छीनने लग गई। घरवाले मार–पीटकर मायके छोड़ आए। अब इसके माँ–बाप ने इसे यहाँ रखा है। ससुरालवाले इसे अब नहीं रखेंगे। इतने साल वहाँ खटती रही। अब, जब चार–पाँच साल बाद इसका आदमी बड़ा होगा, तब राज करने कोई दूसरी आ जाएगी। औरतों का भाग ही खोटा है, पर तुम क्यों रोती हो?
“

“मुझे उसके पास ले चलोगी?” सरवर जान ने रोते हुए कहा।

 

दाई बोली, “तुम्हारा मन बड़ा कमजोर है बीवी, थोड़ी ठीक हो जाओ, फिर चलेंगे। दिन में वह बिल्कुल ठीक होती है। मैंने कितनी बार उससे बातें की हैं।“

“तो अभी उसे बुला सकती हो?”

“अभी, बड़ी जल्दी में हो बीवी? डॉक्टर राउंड लगाकर चले जाएँ, फिर बुला लाऊँगी।“

 

दोपहर को वह आई, हाथ में खाने की थाली लिये। सरवर जान उठ बैठी। थाली दाई को थमाकर वह औरत सरवर जान की बाँहों में समा गई। दोनों औरतें रोने लगीं। मानो एक–दूसरे की व्यथा बरसों से जानती हों!

सरवर ने उसके आँसू पोंछ लिये, अपने बहने दिए, फिर प्यार से पूछा, “मैं तुम्हारी बाजी हूँ। मेरे साथ चलो। तुम्हारा निकाह कहीं करवा दूँगी। अल्लाह ने तब तक खाने को बहुत दिया है।”

 

“नहीं बाजी, मैं यहीं ठीक हूँ।”

“सारी उम्र कोई अस्पताल में नहीं रह सकता। तुम्हारा नाम बेगमा है न, चलो मेरे साथ।”

“नहीं बाजी, हमारे गाँव में रसूल है। रसूल मेरा बचपन…”

 

“अच्छा, मैं चलूँगी तुम्हारे घर। अब सब पागलपन छोड़ दो।” खाना खाकर सरवर जान ने उसकी कंघी की। आँखों में काजल डाला और अपने गले की जुगनी उसके गले में डालकर कहा, “आज से मैं तुम्हारी बहन हूँ।“

“अच्छा बाजी, अब मैं चलूँ मुलाकाती आनेवाले हैं।”

 

“क्या रसूल आ रहा है?”

“हाँ बाजी।” उसने शरमाकर कहा।

उस रात चिल्लाने की आवाजें बंद हो गई।

 

जिस दिन सरवर जान को घर जाना था, सवेरे ही शेर खाँ पालकी लेकर आ गया था। बेगमा ने शेर खाँ से घुँघट निकाला तो सरवर ने मना कर दिया, “ये भाई है तुम्हारा ।”

 

बेगमा ने सरवर जान के लंबे–लंबे बालों में खूब तेल डालकर मीडियाँ गूँथ दीं। उसकी आँखों में काजल डाल भवों पर काला टीका लगाकर कहा, “तुम्हारी कभी कोई सौत न होगी।”

“मेरी सौत नहीं है, आपा है।“

 

“हैं! क्या कहा? ”

“कुछ नहीं। घर जाने के लिए जी तड़प रहा है।”

पालकी में बैठी सरवर जान से गले मिलकर बेगमा रोई तो नर्स दौड़कर आ गई। बेगमा ने कहा, “नहीं बहन, मैं पागल नहीं हूँ। आज तो मैं ठीक हो गई हूँ।”

 

सारे दिन की थकान के बाद सरवर जान आँगन में आकर खड़ी हुई तो चारों ओर देखकर उसने मन में सोचा, “मैं कुछ दिनों के लिए ही तो यहाँ न थी, पर कैसा लगता है। कुछ नया, कुछ पुराना।‘ शेर खाँ उसे अंदर चारपाई तक ले गया। सावन और दोनों बेटियाँ सहमी–सी खड़ी थीं। सरवर ने बाँहें फैलाकर सबको गोद में ले लिया। फिर शेर खाँ से बोली, “शाह, शाहजी।”

 

“क्या है सरो?”

“मेरी एक बात मानोगे?”

“कहो न?” शेर खाँ बोला।

 

“जाकर नूरी आपा को घर ले आओ। वहाँ उसने सब बच्चियों की शादी कर दी, पर ये दोनों भी उसी की हैं। मेरी आँखें खुल गई हैं शाह। यह घर उसी का है, उसे ले आओ। जब तक वह नहीं आएगी, मैं इस घर का पानी न पिऊँगी।”

उस
रात शेर खाँ के आगोश में सरो थी, नूरी न थी।

The End



 

 

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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