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Kafan: A Story by Munshi Prem Chand

by Engr. Maqbool Akram
July 5, 2021
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झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव–वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह–रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देनेवाली आवाज निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।

 

घीसू ने कहा—‘मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।’

माधव चिढ़कर बोला—‘मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती ?
देखकर क्या करूँ
?’’

‘तू बड़ा बेदर्द है बे’ !
साल–भर जिसके साथ सुख–चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई
!’’

‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ–पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’

 

चमारों का कुनबा
था और सारे
गाँव में बदनाम।
घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम
। माधव इतना
काम–चोर था कि आध घण्टे
काम करता तो घंटे–भर चिलम
पीता। इसलिए उन्हें
कहीं मजदूरी नहीं
मिलती थी। घर में मुट्ठी–भर भी अनाज मौजूद
हो, तो उनके
लिए काम करने
की कसम थी।

 

जब दो–चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता। और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर–उधर मारे–मारे फिरते। जब फाके की नौबत आ जाती, तो फिर लकड़ियाँ तोड़ते या मजदूरी तलाश करते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे।

 

 इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता।

 

अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो–चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जीये जाते थे।

 

संसार की चिंताओं से मुक्त! कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ–न–कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून–भानकर खा लेते या दस–पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते।

 

घीसू ने इसी आकाश–वृत्ति से साठ–साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद–चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था।

 

इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठ कर आलू भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बेगैरतों का दोज़ख भरती रहती थी।

 

जबसे वह आई, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्व्याज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव–वेदना से मर रही थी और यह दोनों शायद इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाय, तो आराम से सोएँ।

 

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा—‘‘जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!’’
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला—‘मुझे वहाँ जाते डर लगता है।’

 

‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’

‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’’

 

मेरी औरत जब मर रही थी; तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और मुझसे लजायेगी कि नहीं ?
जिसका कभी मुँह नहीं देखा; आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ !
उसे तन की सुध भी तो न होगी ?
मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ–पाँव भी न पटक सकेगी
!’’

 

‘मैं सोचता हूँ कोई बाल–बच्चा हुआ, तो क्या होगा ?
सोंठ, गुण, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में
!’’

 

‘सब कुछ आ जायगा भगवान् दें तो !
जो लोग अभी पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी–न–किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’’

 

जिस समाज में रात–दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी।

 

हम तो यही कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार–शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता।

 

इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम–से–कम उसे किसानों की–सी जी–तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फ़ायदा तो नहीं उठाते !

 

दोनों आलू निकाल–निकालकर जलते–जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गईं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा बहुत ज्यादा गर्म मालूम न होता था; लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा ख़ैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाय।

 

वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द–जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते। घीसू को उस वक्त ठाकुर की बारात याद आई, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजा थी।

 

बोला—‘‘वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूड़ियाँ खिलाई थीं, सबको ! छोटे–बड़े सबने पूड़ियाँ खाईं और असली घी की ! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, रायता, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक–टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया।

 

मगर परोसने वाले
हैं कि पत्तल
में गर्म–गर्म
गोल–गोल सुवासित
कचौड़ियाँ डाल देते
हैं। मना करते
हैं कि नहीं
चाहिए, पत्तल पर हाथ से रोके
हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं।
और जब सबने
मुँह धो लिया,
तो पान–इलायची
भी मिली। मगर मुझे पान लेने
की कहाँ सुध थी ? खड़ा हुआ न जाता था ! चटपट जाकर अपने
कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल–दरियाव था वह ठाकुर !’’

 

माधव ने इन पदार्थों का मन–ही–मन मजा लेते हुए कहा—‘अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।’

 

“अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायती सूझती है। सादी–ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया–कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर–बटोरकर कहाँ रखोगे !
बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है
!’

 

“तुमने एक बीस पूरियाँ खाई होंगी
?’’

“बीस से ज्यादा खाई थीं
!’’

“मैं पचास खा जाता
!’’

“पचास से कम मैंने न खाई होंगी। अच्छा पट्ठा था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है”

 

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े–बड़े अजगर गेंडुलियाँ मारे पड़े हों।और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

 

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा तो, उसकी स्त्री ठण्डी हो गई थी उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था। माधव भागा हुआ घीसू के पास आया।

 

फिर दोनों जोर–जोर से हाय–हाय करने लगे और छाती पीटने लगे। पडोस वालों ने यह रोना–धोना सुना तो दौडे हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे। मगर ज्यादा रोने–पीटने का अवसर न था। कफन और लकडी की फिक्र करनी थी। पर घर में तो पैसा इस तरह गायब था कि जैसे चील के घोंसले में माँस।

 

बाप–बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गए। वह इन दोनों की सूरत से नफरत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों पीट चुके थे चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा–क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।

 

घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा– सरकार! बडी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गई। रात–भर तडपती रही, सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा–दारू जो कुछ हो सका, सब–कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गई। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा, मालिक! तबाह हो गए।

 

घर उजड गया। आपका गुलाम हूँ। अब आपके सिवा कौन, उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ? जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कंबल पर रंग चढाना था। जी मैं तो आया, कह दें चल, दूर हो यहाँ से! यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पडी, तो आकर खुशामद कर रहा है।

 

हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जी में कुढते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकाला। उसकी तरफ ताका भी नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।

 

जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये–महाजनों को इन्कार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना खूब जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घण्टे में घीसू के पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गई। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकडी।

 

और दोपहर को घीसू और माधव बाजार से कफन लाने चले। इधर लोग बाँस काटने लगे। गाँव की नरम–दिल स्त्रियाँ आ–आकर लाश को देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।

 

कैसा
बुरा रिवाज है कि जिसे जीते–जी तन ढाँकने को चीथडा भी न मिले, उसे मरने पर कफन चाहिए।कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है! और क्या रखा रहता है? यहीं पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा–दारू कर लेते।

 

दोनों एक–दूसरे के मन की बात ताड रहे थे। बाजार में इधर–उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गये, कभी उसकी दुकान पर। तरह–तरह के कपडे, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गई।

 

तब दोनों ने जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे और जैसे किसी पूर्व निश्चित योजना से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खडे रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा– साहूजी, एक बोतल हमें भी देना। इसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछलियाँ आई और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।

 

कई कुज्जियाँ ताबडतोड पीने के बाद दोनों सरूर में आ गए। घीसू बोला–कफन लगाने से क्या मिलता है? आखिर जल ही तो जाता, कुछ बहू के साथ तो न जाता। माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो–दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बामनों को हजारों रुपए क्यों दे देते हैं! कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं! बडे आदमियों के पास धन है, चाहे फँूके।

 

हमारे पास फँूकने को क्या है? लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफन कहाँ है? घीसू हँसा–अबे कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गए। बहुत ढूँढा मिले नहीं। लोगों को विश्वास तो न आयेगा, लेकिन फिर वही रुपए देंगे। माधव भी हँसा, इस अनपेक्षित सौभाग्य पर बोला–बडी अच्छी थी बेचारी! मरी तो भी खूब खिला–पिलाकर! अभी बोतल से ज्यादा उड गई।

 

घीसू ने दो सेर पूरियाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दुकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारा सामान ले आया। पूरा डेढ रुपया और खर्च हो गया। सिर्फ थोडे से पैसे बच रहे। दोनों इस वक्त शान से बैठे हुए पूरियाँ खा रहे थे, जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उडा रहा हो।

 

न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फिक्र। इन भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था। घीसू दार्शनिक भाव से बोला–हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है, तो क्या उसे पुन्न न होगा? माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक की–जरूर से जरूर होगा। भगवान तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना।

 

हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला, वह कभी उम्र भर न मिला था। एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला–क्यों दादा, हम लोग भी तो एक–न–दिन वहाँ जाएँगे ही। घीसू ने इस भोले–भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया।

 

वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था। जो वहाँ वह हम लोगों से पूछे कि तुमने कफन क्यों नहीं दिया तो क्या कहेंगे? कहेंगे तुम्हारा सिर! पूछेगी तो जरूर! तू जानता है कि उसे कफन न मिलेगा?

 

तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ! उसको कफन मिलेगा और इससे बहुत अच्छा मिलेगा। माधव को विश्वास न आया। बोला–कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिए। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में सेंदुर तो मैंने ही डाला था। घीसू गरम होकर बोला–मैं कहता हूं, उसे कफन मिलेगा!

 

तू मानता क्यों नहीं? कौन देगा, बताते क्यों नहीं? वही लोग देंगे, जिन्होंने इस बार दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आयेंगे। ज्यों–ज्यों अँधेरा बढता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, को ई अपने संगी के गले लिपटा जाता था।

 

कोई
अपने दोस्त के मँुह से कुल्हड लगाये देता था। वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते। शराब से ज्यादा वहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ खींच लेती थीं, और कुछ देर के लिए वे भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं! या, न जीते हैं न मरते हैं।

 

और ये दोनों बाप–बेटा अब भी मजे ले–लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं। पूरी बोतल बीच में हैं। भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूरियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खडा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था।

 

और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का उसने अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया। घीसू ने कहा–ले, जा खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गई। पर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा।

 

रोयें–रोयें से आशीर्वाद दे; बडी गाढी कमाई के पैसे हैं! माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा–वह वैकुण्ठ में जायेगी दादा, वह वैकुण्ठ की रानी बनेगी। घीसू खडा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला–हाँ, बेटा वैकुण्ठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं।

 

मरते–मरते
हमारी जिन्दगी को सबसे बडी लालसा पूरी कर गई। वह न वैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे–मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढाते हैं! श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया।

 

अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला–मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बडा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी! वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चीेखें मार–मारकर। घीसू ने समझाया–क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया–जाल से मुक्त हो गई।

 

जंजाल से छूट गई। बडी भाग्यवान
थी जो इतनी
जल्द माया–मोह के बन्धन तोड दिये। और दोनों
खडे होकर गाने
लगे–ठगिनी क्यों
नैना झमकावै? ठगिनी!
फिर दोनों नाचने
लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे
भी, मटके भी। भाव भी बनाये,
अभिनय भी किये
और आखिर नशे से बदमस्त होकर
वहीं गिर पडे।

The End








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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
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