Blogs of Engr. Maqbool Akram

Blogs of Engr. Maqbool Akram

Menu
  • Home
  • Stories
  • Poems & Poets
  • History
  • Traveloge
  • Others
  • About us
Home Uncategorized

A Short Story “Apne Dukh Mujhe De Do”–By Rajinder Singh Bedi

by Engr. Maqbool Akram
October 3, 2020
in Uncategorized
0
491
SHARES
1.4k
VIEWS
Share on FacebookShare on Twitter

इंदू ने पहली बार एक नज़र ऊपर देखते हुए फिर आंखें बंद कर लीं और सिर्फ़ इतना कहा।“जी” उसे ख़ुद अपनी आवाज़ किसी पाताल से आई हुई सुनाई दी।

 

देर तक कुछ ऐसा ही होता रहा और फिर होले होले बात चल निकली।अब चली सो चली।वह थमने ही में न आती थी।इंदू के पिता,इंदू की माँ, इंदू के भाई, मदन के भाई बहन, बाप, उनके रेलवे सेल सर्विस की नौकरी, उनके मिज़ाज, कपड़ों की पंसंद, खाने की आदत, भी का जाएज़ा लिया जाने लगा बीच बीच में मदन बात चीत को तोड़ कर कुछ और ही करना चाहता था लेकिन इंदू तरह दे जाती थी।

 

इंतिहाई मजबूरी और लाचारी में मदन ने अपनी माँ का ज़िक्र छेड़ दिया जो उसे सात साल की उम्र में छोड़ कर दिक़ के आरिज़े से चलती बनी थी।“जितनी देर ज़िंदा रही बेचारी” मदन ने कहा।“बाबू जी के हाथ में दवाई की शीशियाँ रहीं।हम अस्पताल की सीढ़ियों पर और छोटा पाशी घर में च्यूटियों के बिल पर सोते रहे और आख़िर एक दिन 28 मार्च की शाम” और मदन चुप हो गया।

चंद ही लम्हों में वह रोने से ज़रा इधर और घिघ्घी से ज़रा उधर पहुँच गया।इंदू ने घबरा कर मदन का सर अपनी छाती से लगा लिया।उस रोने ने पल भर में इंदू को अपने पर से इधर बे–गाने पन से उधर पहुँचा दिया मदन इंदू के बारे में कुछ और भी जान्ना चाहता था लेकिन इंदू ने उसके हाथ पकड़ लिए और कहा।“मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूँ जी पर माँ बाप देखे हैं,भाई और भाभियाँ देखी हैं,बीसियों और लोग देखे हैं।इस लिए मैं कुछ समझती बूझती हूँ मैं अब तुमहारी हूँ अपने बदले में तुम से एक ही चीज़ मांगती हूँ।”

रोते वक़्त और इसके बाद भी एक नशा था।मदन ने कुछ बे सबरी और???? के मिले जुले शब्दों में कहा “क्या मांगती हो? तुम जो भी कहोगी मैं दूँगा।”

 

“पक्की बात” इंदू बोली।मदन ने कुछ उतावले होकर कहा।“हाँ हाँ कहा जो पक्की बात।”लेकिन उस बीच में मदन के मन में एक वस्वसा आया मेरा कारोबारही मंदा है,अगर इंदू कोई ऐसी चीज़ मांग ले जो मेरी पहुँच ही से बाहर हो तो फिर क्या होगा?लेकि इंदू ने मदन के सख़्त और फैले हुए होथो को अपने मुलाएम हाथों से समेटे हुए उन पर अपने गाल रखते हुए कहा।“तुम अपने दुख मुझे दे दो”

 

मदन सख़्त हैरान हुआ।साथ ही अपने आप पर एक बोझ उतरता हुआ महसूस हुआ।उसने चांदनी में एक बार फिर इंदू का चेहरा देखने की कोशिश की लेकिन वह कुछ न जान पाया।उसने सोचा ये माँ या किसी सहेली का रटा हुआ फ़िक़रा होगा जो इंदू ने कह दिया।जभी ये जलता हुआ आंसू मदन के हाथ की पुश्त पर गिरा।उसने इंदू को अपने साथ लिपटाते हुए कहा।

 

“दिए!” लेकिन इन सब बातों ने मदन से उसकी बहीमत छीन ली थी।मेहमान एक एक कर के सब रुख़्सत हुए।चकली भी दो बच्चों को उंगलियों से लगाए सीढ़ियों की ऊँच नीच से तीसरा पेट संभालती हुई चल दी।दरियाबाद वाली फूफी जो अपने “नौ–लखे” हार के गुम हो जाने पर शोर मचाती वावेला करती हुई बे–होश हो गई थी और जो ग़ुस्ल ख़ाने में पड़ा हुआ मिल गया था,जहेज़ में से अपने हिस्से के तीन कपड़े ले कर चली गई।फिर चाचा गए।जिनको उनके जे पी हो जाने की खबर तार के ज़रिए मिली थी और जो शायद बद हवासी में मदन की बजाए दुल्हन का मुंह चूमने चले थे।

 

घर में बूढ़ा बाप रह गया था और छोटे बहन भाई।छोटी दुलारी तो हर वक़्त भाभी की ही बग़ल में घुसी रहती।गली मोहल्ले की कोई औरत दुल्हन को देखे या न देखे।देखे तो कितनी देर देखे।ये सब उसके इख़्तियार में था।आख़िर ये सब ख़त्म हुआ और आहिस्ता आहिस्ता पुरानी होने लगी लेकिन काका जी की इस नई आबादी के लोग अब भी आ जाते।

 

मदन तो उसके सामने रुक जाते और किसी भी बहाने से अदंर चले आते।इंदू उन्हें देखते ही एक दम घूंघट खींच लेती लेकिन उस छोटे से वक़्फ़े में कुछ दिखाई दे जाता बिना घूँघट के दिखाई न दे सकता था।

 

मदन का कारोबार गुंदे बरोज़े का था।कहीं बड़ी सपलाई वाले दो तीन जंगलों में चेड़ और देवदार के पेड़ों की जंगल में आग ने आ लिया था और वह धड़ा धड़ जलते हुए ख़ाक सियाह होकर रह गए थे। शादी की रात बिल्कुल वह न हुआ जो मदन ने सोचा था।जब चकली भाभी ने फुसला कर मदन को बीच वाले कमरे में धकेल दिया तो इंदू सामने शालों में लिपटी हुई अंधेरे का भाग बनी जा रही थी।

 

बाहर चकली भाभी और दरियाबादी वाली फूफी और दूसरी औरतों की हंसी,रात के ख़ामोश पानियों में मिश्री की तरह धीरे धीरे घुल रही थी।औरते सब यही समझती थीं इतना बड़ा हो जाने पर भी मदन कुछ नहीं जानता।क्यूँकि जब उसे बीच रात से जगाया तो वह हड़बड़ा रहा था।“कहाँ,कहाँ लिए जा रही हो मुझे?”

 

इन औरतों के अपने अपने दिन बीत चुके थे।पहली रात के बारे में उनके शरीर शौहरों ने जो कुछ कहा और माना था,उसकी गूंज उनके थी जैसे बादल का टुकड़ा है जिसकी तरफ़ बारिश के लिए उठा कर देखना ही पड़ता है।न बुरे तो मन्नतें माननी पड़ती हैं।चढ़ावे चढ़ाने पड़ते हैं।जादू टूने करने होते हैं।

 

हालाँकि मदन कालका जी की इस नई आबादी में घर के सामने की जगह में पड़ा उसी वक़्त का मुंतज़िर था।फिर शामत–ए–आमाल पड़ोसी सबते की भैंस उसकी खाट ही के पास बंधी थी जो बार बार फनकारती हुई मदन को सूंघ लेती थी और वह हाथ उठा उठा कर उसे दूर रखने की कोशिश करता।ऐसे में भला नींद का सवाल ही कहाँ था?

 

समुंदर की लहरों और औरतों के ख़ून को रास्ता बताने वाला चाँद एक खिड़की के रास्ते से अंदर चला आया था और देख रहा था।दरवाज़े के इस तरफ़ खड़ा मदन अगला क़दम कहाँ रखता है।मदन के अपने अंदर एक घुन गरज सी हो रही थी और उसे अपना यूँ मालूम हो रहा था जैसे बिजली का खम्बा है जिसे कान लगाने से उसे अंदर की संसनाहट सुनाई दे जाएगी।

 

कुछ देर यूँ खड़े रहने के बाद उसने आगे बढ़ कर पलंग को खीच कर चांदनी में कर दिया ताकि दुल्हन का चेहरा देख सके।फिर वह ठिठुक गया। जब उसने सोचा इंदू मेरी बीवी है।कोई पराई औरत तो नही जिसे न छूने का सबक़ बचपन ही से पढ़ता आया हूँ।शालो में लिपटी हुई दुल्हन को देखते हुए उसने फर्ज़ कर लिया,वहाँ इंदू का मुंह होगा।

 

और जब हाथ बढ़ा कर उसने पास पड़ी घड़ी को छुआ तो वहीं इंदू का मुंह था।मदन ने सोचा था वह आसानी से मुझे अपना आप न देख देगी लेकिन इंदू ने ऐसा न किया।जैसे पिछले कई सालों से वह भी उसी लम्हे की मुंतज़िर हो और किसी ख़याली भैंस के सूंघते रहने से उसे भी नींद न आ रही हो।ग़ाएब नींद और बंद आँखों का कर्ब अंधेरे के बावजूद सामने फड़फड़ाता हुआ नज़र आ रहा था।

 

ठोड़ी तक पहुँचते हुए आम तौर पर चहरा लम्बूतरा हो जाता है लेकिन यहाँ तो सभी गोल था।शायद इसी लिए चांदनी की तरफ़ गाल और होंटों के बीच एक साएदार कोह सी बनी हुई थी।जैसे दो सरसब्ज़ और शादाब टीलों के बीच होती है। माथा कुछ तंग था लेकिन उस पर से एका एकी उठने वाले घुंघरियाले बाल।

 

 

जभी इंदू ने अपना चेहरा छुड़ा लिया जैसे वह देखने की इजाज़त तो देती हो लेकिन इतनी देर के लिए नहीं।आख़िर शर्म की भी तो कोई हद होती है।मदन ने ज़रा सख़्त से पूरी यूँ ही सी हों हाँ करते हुए दुल्हन का चेहरा फिर से ऊपर को उठा दिया और शराबी सी आवाज़ में कहा।“इंदू!”

 

इंदू कुछ डर सी गई।ज़िंदगी में पहली बार किसी अजनबी ने उसका नाम इस अंदाज से पुकारा था और वह अजनबी किसी ख़ुदाई हक़ से रात के अंधेरे में आहिस्ता आहिस्ता इस अकेली बे यार–व–मददगार औरत का अपना होता जा रहा था।

 

“मैंने तो अभी से चार सूट और कुछ बर्तन अलग कर डाले हैं इसके लिए और जब मदन ने कोई जवाब न दिया ते उसे झिंझोड़ते हुए बोली “तुम क्यूँ परेशान होते हो याद नहीं अपना वचन? तुम अपने दुख मुझे दे चुके हो।”

 

“ईं?” मदन ने चौंकते हुए कहा और जैसे बे–फ़िकर हो गया लेकिन अब के जब उसने इंदू को अपने साथ लिपटाया तो वहाँ एक जिस्म ही नहीं रह गया था साथ एक रूह भी शामिल हो गई थी।

 

मदन के लिए इंदू रूह ही रूह थी।इंदू का जिस्म भी था लेकिन हमेशा किसी न किसी वजह से मदन की नज़रों से ओझल ही रहा।एक पर्दा था।ख़्वाब के तारों से बना हुआ।उन्हों के धुएँ से रंगीन क़हकहों की ज़र तारी से चकाचौंद जो हर वक़्त इंदू को ढांपे रहता था।मदन की निगाहों और उसके हाथों के दोशान सदयों से द्रुवपदी का चेर हरन करते आए थे जो कि हर्फ़–ए–आम में बीवी कहलाती है लेकिन हमेशा उसे आसमानों से थानों के थान,गज़ो के गुज़र,कपड़ा नंगापन ढांपने के लिए मिलता आया था।

 

दुशासन थक हार के यहाँ वहाँ गिरे पड़े थे लेकिन द्रुवपदी वहीं खड़ी थीं,इज़्जत और पाकीज़गी की एक सफेद और बे–दाग़ सारी में मलबूस वह देवी लग रही थी।और मदन के लौटते हुए हाथ ख़ुजालत के पसीने से तर हुए,जिसे सूखाने के लिए वह उन्हें ऊपर हवा में उठा देता।

 

और फिर उंग्लियों के बीच में झांकता इंदू का मरमरीं जिस्म ख़ुश रंग और गुदाज़ सामने पड़ा होता।इस्तेमाल के लिए पास,इब्तिज़ाल के लिए दूर कभी जब इंदू की नाका–बंदी हो जाती तो इस क़िस्म के फ़िक़रे होते “हाय जी” घर में छोटे बड़े हैं वह क्या कहेंगे?मदन कहता “छोटे समझते नहीं बड़े अंजान बन जाते हैं।

 

”इसी दौरान में बाबू धनी राम की तब्दीली सहारन पुर हो गई।वहाँ वह रेलवे मेल सर्विस में सेलेक्शन ग्रेड के हेड कलर्क हो गए।इतना बड़ा क्वाटर मिला कि उसमें आठ कुंबे रह सकते थे लेकिन बाबू धनी राम उसमें अकेले ही टांगे फैलाए खड़े रहते।

 

ज़िंदगी भर वह बाल बच्चों से कभी अलाहएदा नहीं हुए थे।सख़्त घरेलू क़िस्म के आदमी।आख़िर ज़िंदगी में इस तन्हाई ने उनके दिल में वहशत पैदा कर दी लेकिन मजबूरी थी, बच्चे सब दिल्ली में मदन और इंदू के पास और वहीं स्कूल में पढ़ते थे।साल के ख़ातिमे से पहले उन्हें बीच में उठाना उनकी पढ़ाई के लिए अच्छा न था।बाबू जी के दिल के दौरे पड़ने लगे।

 

बारे गर्मी की छुट्टियाँ हुईं।उनके बार बार लिखने पर मदन ने इंदू को कुंदन,पाशी और दुलारी के साथ सहारन पुर भेज दिया धनी राम की दुनिया चमक उठी।कहाँ उन्हें दफ़्तर के काम के बाद फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत थी और कहाँ अब काम ही काम था।बच्चे बच्चों ही की तरह जहाँ कपड़े उतारते हैं वहीं पड़े रहने देते और बाबू जी उन्हें समेटते हुए फिरते।

 

अपने मदन से दूर अलसानी हुई रती,इंदू तो अपने पहनावे तक से ग़ाफ़िल हो गई थी।वह रसोई में यूँ फिरती थी जैसे कांजी हाउस में गाए,बाहर की तरफ़ मुंह उठा उठा कर अपने मालिक को ढूँढा करती हो।काम वाम करने के बाद वह कभी इंदू टरंकों पर लेट जाती।कभी बाहर कनीर के बूटे के पास और कभी आम के पेड़ तले जो आंगन में खड़ा सैंकड़ों हज़ारों दिलों को थामे हुए था।

 

सावन भादों में ढलने लगा।आंगन में बाहर का दरीचा खुलता तो कंवारियाँ, नई ब्याही हुई लड़कियाँ पींग बढ़ाते हुए गातीं झूला कुनते डारवरे अमरियाँ और फिर गीत के बोल के मुताबिक़ दो झूलतीं और कहीं चार जातीं तो मिल जाती तो भूल भुलय्याँ हो जाती।अधेड़ उम्र की बूढ़ी औरतैं एक तरफ़ खड़ी तका करती।इंदू को मालूम होता जैसे वह भी उनमें शामिल हो गई है।जभी वह मुंह फेर लेती और ढंण्डी सांसे भरती हुई सो जाती।बाबू जी पास से गुज़रते तो उसे जगाने, उठाने की ज़रा भी कोशिश न करते।

 

मैसूर और आसाम तरफ़ से मंगवाया हुआ बेरोज़ह महंगा पड़ता था और लोग उसे महंगे दामों ख़रीदने को तैय्यार न थे।एक तो आमदनी कम हो गई थी।इस पर मदन जल्दी ही दुकान और उसके साथ वाला दफ़्तर बंद करके घर चला आता।घर पहुँच कर उसकी सारी कोशिश यही होती कि सब खाएँ पिएँ और अपने अपने बिस्तरों में दुबक जाएँ।जब वो खाते वक़्त ख़ुद थालियाँ उठा उठा कर बाप और बहन के सामने रखता और उनके खा चुकने के झूटे बर्तनों को समेट कर्नल के नीचे रख देता।

 

सब समझते बहू।भाबी ने मदन के कान में कुछ फूंका है और अब वो घर के काम काज में दिलचस्पी लेने लगा है।मदन सब से बड़ा था।कुन्दन उस से छोटा और पाशी सब से छोटा।जब कुन्दन भाबी के स्वागत में सब के एक साथ बैठ कर खाने पर इसरार करता तो बाप धनी राम वहीं डांट देता।

 

“खाओ तुम।” वो कहता “वो भी खा लेंगे” और फिर रसोई में इधर उधर देखने लगता और जब बहू खाने पीने से फ़ारिग़ हो जाती और बर्तनों की तरफ़ मुतवज्जा होती तो बाबू धनी राम उसे रोकते हुए कहते। “रहने दे बहू बर्तन सुब्ह हो जाएँगे।“

 

इंदू कहती “नहीं बाबू जी मैं अभी किए देती हूँ झपाके से।“तब बाबू धनी राम एक लरज़ती हुई आवाज़ में कहते “मदन की माँ होती बहू,तो ये सब तुम्हें न करने देती।? और इंदू एक दम अपने हाथ रोक लेती।छोटा पाशी भाबी से शर्माता था।

 

इस ख़याल से कि दुल्हन की गोद झट से हरी हो, चमकी भाबी और दरियाबाद वाली फूफी ने एक रस्म में पाशी ही को इंदू की गोद में डाला था।जब से इंदू उसे न सिर्फ़ देवर बल्कि अपना बच्चा समझने लगी थी।जब भी वो प्यार से पाशी को अपने बाज़ुओं में लेने की कोशिश करती तो वो घबरा उठता और अपना आप छुड़ा कर दो हाथ की दूरी पर खड़ा हो जाता।देखता और हंसता रहता।पास आता तो दूर हटता।

 

एक अजीब इत्तिफ़ाक़ से ऐसे में बाबू जी हमेशा वहीं मौजूद होते और पाशी को डाँटते हुए कहते “अरे जाना भाबी प्यार करती है अभी से मर्द हो गया तू?” और दुलारी तो पीछा ही न छोड़ती उसका।“मैं तो भाबी के साथ ही सोऊंगी।“के इसरार ने बाबू जी के अंदर कोई जनार्धन जगह दिया था।

 

एक रात इस बात पर दुलारी को ज़ोर से चपत पड़ी और वो घर की आधी कच्ची, आधी पक्की नाली में जा गिरी।इंदू ने लपकते हुए पकड़ा तो सर से दुपट्टा उड़ गया।बालों के फूल और चिड़ियाँ,मांग का सिंदूर, कानों के करण फूल सब नंगे हो गए।“बाबू जी।” इंदू ने सांस खींचते हुए कहा एक साथ दुलारी को पकड़ने और सर पर दुपट्टा ओढ़ने में इंदू के पसीने छूट गए।

 

इस बे माँ बच्ची को छाती से लगाए हुए इंदू ने उसे एक ऐसे बिस्तर में सुला दिया जहाँ सिरहाने ही सिरहाने, तकिए ही तकिए थे।न कहीं पावंती थी न काठ के बाज़ू।चोट तो एक तरफ़ कहीं को चुभने वाली चीज़ भी न थी।

 

फिर इंदू की उंगलियाँ दुलारी के फोड़े ऐसे सर पर चलती हुई उसे दिखाई भी रही थीं और मज़ा भी दे रही थीं। दुलारी के गालों पर बड़े बड़े और प्यारे प्यारे गढ़े पड़ते थे।इंदू ने इन गढ़ों का जाएज़ा लेते हुए कहा “हाय री मन्नी!तेरी सास मरे, कैसे गढ़े पड़ रहे हैं गालों पर!”

 

मन्नी ने मन्नी की तरह कहा।“गढ़े तुम्हारे भी तो पड़ते हैं भाबी।“”हाँ मन्नू!” इंदू ने कहा और एक ठंडा सांस लिया।मदन को किसी बात पर ग़ुस्सा था।वो पास ही खड़ा सब कुछ सुन रहा था।“मैं तो कहता हूँ एक तरह से अच्छा ही है।“”क्यूँ अच्छा क्यूँ है?” इंदू ने पूछा।

 

“हाँ ना उगे बाँस न बजे बानुसरी सांस न हो तो कोई झगड़ा नहीं रहता।” इंदू ने एका एकी ख़फ़ा होते हुए कहा।“तुम जाओ जी सो रहो जा कर बड़े आए हो आदमी जीता है तो लड़ता है ना? मरघट की चुपचाप से झगड़े भले।जाओ न रसोई में तुम्हारा क्या काम?”

 

मदन खिसियाना होकर रह गया।बाबू धनी राम की डांट से बाक़ी बच्चे तो पहले ही अपने अपने बिस्तरों में यूँ जा पड़े थे जैसे दफ़्तरों में छुट्टियाँ स्टार्ट होती हैं।लेकिन मदन वहीं खड़ा रहा। एहतियाज ने उसे ढीट और बे–शरम बना दिया था लेकिन उस वक़्त जब इंदू ने भी उसे डांट दिया तो वो रोहांसा होकर अन्दर चला गया।

 

देर तक मदन बिस्तर में पड़ा कसमसाता रहा लेकिन बाबू जी के ख़याल से इंदू को आवाज़ देने की हिम्मत न पड़ती थी।उसकी बेस्ब्री की हद हो गई थी।जब मन्नी को सुलाने के लिए इंदू के लोरी की आवाज़ सुनाई दी” तो आनंद या रानी, बौराई मस्तानी।“

 

वही लोरी जो दुलारी मन्नी को सुला रही थी, मदन की नींद भगा रही थी।अपने आप से बेज़ार होकर उसने ज़ोर से चादर सर पर खींच ली।सफ़ैद चादर के सर पर लपेटने और सांस के बंद करने से ख़्वाह मख़्वाह एक मुर्दे का तसव्वुर पैदा हो गया।

 

मदन को यूँ लगा जैसे वो मर चुका है और उसकी दुल्हन इंदू उसके पास बैठी ज़ोर ज़ोर से सर पीट रही है, दीवार के साथ कलाइयाँ मार मार कर चूड़ियाँ तोड़ रही है और फिर बाहर लपक जाती है और बाँहें उठा उठा कर अगले मोहल्ले के लोगों से फ़र्याद करती है।“लोगो! मैं लुट गई।“अब उसे दुपट्टे की परवाह नहीं।क़मीज़ की परवाह नहीं।मांग का सींदूर, बालों के फूल और चूड़ियाँ, जज़्बात और ख़यालात के तोते तक उड़ चुके हैं।

 

मदन की आँखों से बे–तहाशा आँसू बह रहे थे।हालाँकि रसोई में इंदू हंस रही थी।पल भर में अपने सुहाग के उजड़ने और फिर बस जाने से बे–ख़बर।मदन जब हक़ायक़ की दुनिया में वापस आया तो आँसू पोंछते हुए अपने उस रोने पर हंसने लगा उधर इंदू तो हंस रही थी लेकिन उसकी हंसी दबी दबी थी।

 

बाबू जी के ख़याल से वो कभी ऊंची आवाज़ में न हंसती थी जैसे खिलखिलाहट कोई नंगापन है, ख़ामोशी, दुपट्टा और दबी दबी हंसी एक घूंगट।फिर मदन ने इंदू का एक ख़याली बुत बनाया और उस से बीसियों बातें कर डालें।यूँ उस से प्यार किया जैसे अभी तक न किया था वो फिर अपनी दुनिया में लौटा जिसमें साथ का बिस्तर ख़ाली था।

 

उसने होले से आवाज़ दिया इंदू एक ऊँघ सी आई लेकिन साथ ही यूँ लगा जैसे शादी की रात वाली, पड़ोसी सिब्ते की भैंस मुँह के पास फुँकारने लगी है।वो एक बेकली के आलम में उठा, फिर रसोई की तरफ़ देखते, सर को खुजाते हुए दो तीन जमाइयाँ लेकर लेट गया सो गया ।

 

मदन जैसे कानों को कोई संदेसा देकर सोया था।जब इंदू की चूड़ियाँ बिस्तर की सिलवटें सीधी करने से खनक उठीं तो वो भी हड़बड़ा कर उठ बैठा।यूँ एक दम जागने में मोहब्बत का जज़्बा और भी तेज़ हो गया था।प्यार की करवटों को तोड़े बगै़र आदमी सो जाए और एका एकी उठे तो मोहब्बत दम तोड़ देती है।मदन का सारा बदन अंदर की आग से फुंक रहा था।और यही उसके ग़ुस्से का कारण बन गया।जब उसने बौखलाए हुए अंदाज़ में कहा।

 

“तो तुम आ गईं?”

“हाँ।“

“सनी सो मर गई?”

 

इंदू झक्की झक्की एक दम सीधी खड़ी हो गई।“हाय राम” उसने नाक पर उंगली रखते हुए हाथ मलते हुए कहा।“क्या कह रहे हो मरे क्यूँ बेचारी।माँ बाप की एक न ही बेटी।“

 

“हाँ मदन ने कहा।“भाभी की एक ही नंद।“और एक दम तहक्कुमाना लहजा इख़्तियार करते हुए बोला।“ज़्यादा मुँह मत लगाओ उस चुड़ैल को।“

 

“क्यूँ इस में क्या पाप है?”

“यही पाप है” मदन ने और चिड़ते हुए कहा।“वो पीछा ही नहीं छोड़ती तुम्हारा।जब देखो जोंक की तरह चिम्टी हुई है।दफ़ान ही नहीं होती।“

 

“हा इंदू ने मदन की चारपाई पर बैठते हुए कहा।“बहनों और बेटियों को यूँ तो धुतकारना नहीं चाहिए।बेचारी दो दिन की मेहमान।।आज नहीं तो कल।कल नहीं तो परसों।एक दिन तो चल ही देगी।” इसके बाद इंदू कुछ कहना चाहती थी लेकिन वो चुप हो गई।उसकी आँखों के सामने अपने माँ बाप, भाई बहन चचा भी घूम गए।

 

कभी वो भी उनकी दुलारी थी।जो पलक झपकते ही न्यारी हो गई।और फिर दिन रात उसके निकाले जाने की बातें होने लगीं।जैसे घर में कोई बड़ी सी बाहनी है जिसमें कोई नागिन रहती है और जब तक वो पकड़ कर फूंकवाई नहीं जाती।घर के लोग आराम की नींद सो नहीं सकते।दूर दूर से कीलने वाले लथन करने वाले।

 

आख़िर एक दिन उत्तर पच्छिम की तरफ़ से लाल आंधी आई जो साफ़ हुई तो एक लारी खड़ी थी जिसमें गोटे किनरी में लिपटी हुई एक दुल्हन बैठी थी।पीछे घर में एक सर पर बुझती हुई शहनाई बैन की आवाज़ मालूम हो रही थी।फिर एक धचके के साथ लारी चल दी।मदन ने कुछ बरा फ़रोख़्तगी के आलम में कहा “तुम औरतें बड़ी चालाक होती हो।अभी कल ही इस घर में आई हो और यहाँ के सब लोग तुम्हें हम से ज़्यादा प्यार करने लगे हैं?”

 

“हाँ!” इंदू ने इस्बात में कहा।“ये सब झूट है ये हो ही नहीं सकता।“

“तुम्हारा मतलब है मैं“

“दिखावा है ये सब हाँ!”

 

“अच्छा जी?” इंदू ने आँखों में आँसू लाते हुए कहा।“ये सब दिखावा है मेरा? और इंदू उठ कर अपने बिस्तर में चली गई।और सिरहाने में मुँह छिपा कर सिसकियाँ भरने लगी।मदन उसे मनाने वाला ही था कि इंदू ख़ुद ही उठ कर मदन के पास आ गई और सख़्ती से उसका हाथ पकड़ते हुए बोली।“तुम जो हर वक़्त जली कटी कहते रहते हो हुवा किया है तुम्हें?” मुझे तुम से कुछ नहीं लेना।“

 

“तुम्हें कुछ नहीं लेना मुझे तो लेना है।” इंदू बोली।ज़िंदगी भर लेना है और वो छीना झपटी करने लगी।मदन उसे धुतकारता था और वो उस से लिपट लिपट जाती थी।वो उस मछली की तरह थी जो बहाव में बह जाने की बजाए आबशार के तेज़ धारे को काटती हुई ऊपर ही ऊपर पहुँचना चाहती हो।

 

चुटकियाँ लेते हुए, हाथ पकड़ती, रोती हंसती वो कह रही थी ।“फिर मुझे फाफ़ा कटनी कहोगे?”

“वो तो सभी औरतें होती हैं।“

 

“ठहरो तुम्हारी तो” यूँ मालूम हुआ जैसे इंदू कोई गाली देने वाली हो और उसने मुँह में कुछ मिनमिनाया भी।मदन ने मुड़ते हुए कहा।“क्या कहा?” और इंदू ने अब की सुनाई देने वाली आवाज़ में दोहराया।मदन खिलखिला कर हंस पड़ा।

 

अगले ही लम्हे इंदू मदन के बाज़ुओं में थी और कह रही थी “तुम मर्द लोग क्या जानो? जिस से प्यार होता है उसके सभी अज़ीज़ प्यारे मालूम होते हैं।क्या बाप क्या भाई और क्या बहन” और एका एकी कहीं दूर से देखते हुए बोली।“मैं तो दुलारी मन्नी का ब्याह करूंगी।“

 

“हद हो गई” मदन ने कहा।“अभी एक हाथ की हुई नहीं और ब्याह की सोचने लगीं।“

 

“तुम्हें एक हाथ की लगती है ना?” इंदू बोली और फिर अपने हाथ मदन की आँखों पर रखते हुए कहने लगी।“ज़रा आँखें बंद करो और फिर खोलो।“मदन ने सचमुच ही आँखें बंद कर लीं और जब कुछ देर तक न खोलीं तो इंदू बोली।“अब खोलो भी इतनी देर में तो में बूढ़ी हो जाऊँगी।

 

जभी मदन ने आँखें खोल दीं।लम्हा भर के लिए उसे यूँ लगा जैसे सामने इंदू नहीं मन्नी बैठी है और वो खोसा गया।बल्कि मौक़ा न पा कर उस शलवार को जो बहू धोती से बदल आती और जिसे वो हमेशा अपनी सास वाले पुराने संदल के संदूक़ पर फेंक देती, उठा कर खूंटी पर लटका देते।

 

ऐसे में इन्हीं सब से नज़रें बचाना पड़तीं लेकिन अभी शलवार को समेट कर मुड़ते ही तो नीचे कोने में निगाह बहू के महरम पर पड़ जाती।तब उनकी हिम्मत जवाब दे जाती और वो शिताबी कमरे से निगल भागते।जैसे साँप का बच्चा बिल से बाहर आ गया हो।फिर बरामदे में उनकी आवाज़ सुनाई देने लगी।

 

ओम नमूम भोते दा सौ देवा अड़ोस पड़ोस की औरतों ने बाबू जी की ख़ूबसूरती की दास्तानें दूर दूर तक पहुंचा दी थीं।जब कोई औरत बाबू जी के सामने बहू के प्यारे पन और सुडौल जिस्म की बातें करती तो वो ख़ुशी से फूल जाते और कहते “हम तो धन्य हो गए, अम्मी चंद की माँ!शुक्र है हमारे घर में भी कोई सेहत वाला जीव आया।“

 

और ये कहते हुए उनकी निगाहें कहीं दूर पहुंच जातीं।जहां दिक़ के आरिज़े थे।दवाई की शीशियाँ, अस्पताल की सीढ़ीयाँ या चियूँटियों के बिल, निगाह क़रीब आती तो मोटे मोटे गदराए हुए जिस्म वाले कई बच्चे बग़ल में जांघ पर, गर्दन पर चढ़ते उतरते हुए महसूस होते और ऐसा मालूम होता जैसे अभी और आ रहे हैं।

 

पहलू पर लेटी हुई बहू की कमर ज़मीन के साथ और कूल्हे छत के साथ लग रहे हैं और वो धड़ा धड़ बच्चे जन्ती जा रही है और इन बच्चों की उम्र में कोई फ़र्क़ नहीं।कोई बड़ा है न छोटा।सभी एक से जुड़वाँ तवाम ओम नमो भगोते आस पास के सब लोग जान गए थे।इंदू बाबू जी की चहेती बहू है।

 

चुनांचे दूध और छाछ के मटके धनी राम के घर आने लगे और फिर एक दम सलाम दीन गुजर ने फ़र्माइश कर दी।इंदू ने कहा “बीबी मेरा बेटा आर.एम.इसमें क़ुली रखवा दो।अल्लाह तुम को अच्छा देगा।“इंदू के इशारे की देर थी कि सलाम दीन का बेटा नौकर हो गया।वो भी सारटर, जो न हो सका उसकी क़िस्मत, आसामीयाँ ज़्यादा न थीं।

 

बहू के खाने पीने और उसकी सेहत का बाबू जी ख़याल रखते थे।दूध पीने से इंदू को चिड़ थी।वो रात के वक़्त ख़ुद दूध को बालाई में फेंट, गिलास में डाल, बहू को पिलाने के लिए उसकी खटिया के पास आ जाते।इंदू अपने आप को समेटते हुए उठती और कहती।“नहीं बाबू जी मुझ से नहीं पिया जाता।“”तेरा तो सुसर भी पिएगा।“वो मज़ाक़ से कहते।

 

“तो फिर आप पी लीजीए ना।“इंदू हंसती हुई जवाब देती और बाबू जी एक मस्नूई ग़ुस्से से बरस पड़ते।“तू चाहती है बाद में तेरी भी वही हालत हो जो तेरी सास की हुई?”

 

हूँ हूँ इंदू लाड से रूठने लगी।आख़िर क्यूँ न रूठती।वो लोग नहीं रूठते जिन्हें मनाने वाला कोई न हो लेकिन यहाँ मनाने वाले सब थे,रूठने वाला सिर्फ़ एक।जब इंदू बाबू जी के हाथ से गिलास न लेती तो वो उसे खटिया के पास सिरहाने के नीचे रख देते और “ले ये पड़ा है“, तेरी मर्ज़ी है तो पी नहीं मर्ज़ी तो न पी“कहते हुए चल देते।

 

अपने बिस्तर पर पहुंच कर धनी राम दुलारी मन्नी के पास खेलने लगते।दुलारी को बाबू जी के नंगे पिंडे के साथ पिंडा घुसाने और फिर पेट पर मुँह रख कर फनकड़ा फुलाने की आदत थी।आज जब बाबू जी और मन्नी ये खेल खेल रहे थे। हंस हंसा रहे थे, तो मन्नी ने भाबी की तरफ़ देखते हुए कहा।“दूध तो ख़राब हो जाएगा बाबू जी।भाबी तो पीती ही नहीं।“

 

“पिएगी ज़रूर पिएगी बेटा” बाबू जी ने दूसरे हाथ से पाशी को लिपटाते हुए कहा।“औरतें घर की किसी चीज़ को ख़राब होते नहीं देख सकतीं।“

 

अभी ये फ़िक़रा बाबू जी के मुँह ही में होता कि एक तरफ़ से “हुश हे ख़सम खानी” की आवाज़ आने लगती।पता चलता बहू बिल्ली को भगा रही है और फिर गुट गुट सी सुनाई देती और सब जान लेते बहू भाबी ने दूध पी लिया।कुछ देर के बाद कुन्दन बाबू जी के पास आता और कहता “बोजी भाबी रो रही है।“

 

“हाएं?” बाबू जी कहते और फिर उठकर अंधेरे में दूर उसी तरफ़ देखने लगते जिधर बहू की चारपाई पड़ी होती।कुछ देर यूँ ही बैठे रहने के बाद वो फिर लेट जाते और कुछ समझते हुए कुन्दन से कहते।“जा तू सो जा वह भी सो जाएगी अपने आप।“

 

और फिर लेटते हुए बाबू धनी राम आसमान पर खुले हुए परमात्मा के गुलज़ार को देखने लगते और अपने मन में भगवान से पूछते“चांदी के इन खुलते बंद हुए हुए फूलों में मेरा फूल कहा है?”और फिर पूरा आसमान उन्हीं दर्द का एक दरिया दिखाई देने लगता और कानों में मूस्लसल एक हाव की आवाज़ सुनाई देती जिसे सुनते हुए वो कहते।“जब से दुनिया बनी है इंसान कितना रोया है!” और रोते रोते सो जाते।

 

इंदू के जाने से बीस पच्चीस रोज़ ही में मदन ने वावेला शुरू कर दिया।उसने लिखा।मैं बाज़ार की रोटियाँ खाते खाते तंग आ गया हूँ।मुझे क़ब्ज़ हो गई है।गुर्दे का दर्द शुरू हो गया है।फिर जैसे दफ़्तर के लोग छुट्टी की अर्ज़ी के साथ डाक्टर का सर्टिफ़िकेट भेज देते हैं।

 

मदन ने बाबू जी को एक दूसरे से तसदीक़ की छुट्टी लिखवा भेजी।इस पर भी जब कुछ न हुआ तो एक डबल तार जवाबी।जवाबी तार के पैसे मारे गए लेकिन बला से।इंदू और बच्चे लौट आए थे।मदन ने इंदू से दो दिन सीधे मुँह बात ही न की।ये दुख भी इंदू ही का था।एक दिन मदन को अकेले में पा कर वो पकड़ बैठी और बोली।“इतना मुँह फुलाए बैठे हो मैं ने क्या किया है?”

 

मदन ने अपने आप को छुड़ाते हुए कहा।“छोड़ दूर हो जा मेर आँखों से कमी“

“यही कहने के लिए इतनी दूर से बुलवाया है?”

“हाँ!”

“हटाओ अब।“

 

“ख़बरदार ये सब तुम्हारा ही किया धरा है जो तुम आना चाहती तो क्या बाबू जी रोक लेते? “इंदू ने बेबसी से कहा।“हाय जी तुम बच्चों की सी बातें करते हो।मैं उन्हें भला कैसे कह सकती थी? सच पूछो तो तुमने मुझे बुलवा कर बाबू जी पर तो बड़ा जुल्म किया है।“

“क्या मतलब?”

“मतलब कुछ नहीं उनका जी बहुत लगा हुआ था बाल बच्चों में।“

“और मेरा जी?”

 

“तुम्हारा जी?” तुम तो कहीं भी लगा सकते हो।इंदू ने शरारत से कहा और इस तरह से मदन की तरफ़ देखा कि उसकी मुदाफ़िअत की सारी क़ुव्वतें ख़त्म हो गईं।यूँ भी उसे किसी अच्छे से बहाने की तलाश थी।उसने इंदू को पकड़ कर सीने से लगा लिया।और बोला।“बाबू जी तुम से बहुत ख़ुश थे?” ।

“हाँ” इंदू बोली।“एक दिन मैं जागी तो देखा सिरहाने खड़े मुझे देख रहे हैं।“

“ये नहीं हो सकता।“

“अपनी क़सम!”

“अपनी क़सम नहीं मेरी क़सम खाओ।“

“तुम्हारी क़सम तो मैं नहीं खाती कोई कुछ भी दे।“

“हाँ!” मदन ने सोचते हुए कहा।“किताबों में उसे सैक्स कहते हैं।“

“सैक्स?” इंदू ने पूछा वो क्या होता है?। “वही जो मर्द और औरत के बीच होता है।“

 

“हाय राम!” इंदू ने एक दम पीछे हटते हुए कहा।“गंदे कहीं के शर्म नहीं आई बाबू जी के बारे में ऐसा सोचते हुए?”

“तो बाबू जी को न आई तुझे देखते हुए?”

 

“क्यूँ?” इंदू ने बाबू जी की तरफदारी करते हुए कहा।“वो अपनी बहू को देख कर ख़ुश हो रहे होंगे।“

“क्यूँ नहीं।जब बहू तुम ऐसी हो।“

 

“तुम्हारा मन गंदा है।इंदू ने नफ़रत से कहा।इस लिए तुम्हारा कारोबार भी गंदे बरोज़े का है। तुम्हारी किताबें सब गंदगी से भरी पड़ी हैं।तुम्हें और तुम्हारी किताबों को इसके सिवा कुछ दिखाई नहीं देता।ऐसे तो जब मैं बड़ी हो गई थी तो मेरे पिता जी ने मुझ से अधिक प्यार करना शुरू कर दिया था। तो क्या वो भी वह था निगोड़ा जिसका तुम अभी नाम ले रहे थे।“और फिर इंदू बोली।“बाबू जी को यहाँ बुला लो।उनका वहाँ जरा भी जी नहीं लगता।वो दुखी होंगे तो क्या तुम दुखी नहीं होगे?”

 

मदन अपने बाप से बहुत प्यार करता था।घर में माँ की मौत ने बड़ा होने के कारण सब से ज़्यादा असर मदन पर ही किया था।उसे अच्छी तरह से याद था।माँ के बीमार रहने के बाइस जब भी उसकी मौत का ख़याल मदन के दिल में आता तो आँखें मूंद कर प्रार्थना शुरू कर देता ओम नमो भगोते दा सौ वीवा।

 

ओम नमो अब वो नहीं चाहता था कि बाप की छत्र छाया भी सर से उठ जाए।खासतौर पर ऐसे में जबकि वो अपने कारोबार को भी जमा नहीं पाया था।उसने ग़ैर यक़ीनी लहजे में इंदू से सिर्फ़ इतना कहा।“अभी रहने दो बाबू को।शादी के बाद हम दोनों पहली बार आज़ादी के साथ मिल सकते हैं।“

 

तीसरे चौथे रोज़ बाबू जी का आँसुओं में डूबा हुआ ख़त आया।मेरे प्यारे मदन के तख़ातुब में मेरे प्यारे के अलफ़ाज़ शोर पानियों में धुल गए थे।लिखा था।“बहू के यहाँ होने पर मेरे तो वही पुराने दिन लौट आए थे, तुम्हारी माँ के दिन, जब हमारी नई शादी हुई थी तो वो भी ऐसी ही अल्हड़ थी।ऐसे में उतारे हुए कपड़े इधर उधर फेंक देती।और पिता जी समेटते फिरते।वही संदल का संदूक़, वही बीसवीं ख़लजनमीं बाज़ार जा रहा हूँ।आ रहा हूँ।कुछ नहीं तो दही बड़े या रबड़ी ला रहा हूँ।

 

अब घर में कोई नहीं।वो जगह जहाँ संदल का संदूक़ पड़ा था, ख़ाली है” और फिर एक आध सतर और धुल गई थी।आख़िर में लिखा था। “दफ़्तर से लौटते समय, यहाँ के बड़े बड़े अंधे कमरों में दाख़िल होते हुए मेरे मन में एक होल सा उठता है।” और फिर“बहू का ख़्याल रखना।उसे किसी ऐसी वैसी दाया के हवाले मत करना।“

 

इंदू ने दोनों हाथों से चिट्ठी पकड़ ली।सांस खींच ली,आँखें फैलाती शर्म से पानी पानी होती हुई बोली।“मैं मर गई।बाबू जी को कैसे पता चल गया?”

 

मदन ने चिट्ठी छुड़ाते हुए कहा।“बाबू जी क्या कहते हैं? दुनिया देखी है।हमें पैदा किया है।“हाँ मगर।“इंदू बोली।“अभी दिन ही कै हुए हैं।“और फिर उसने एक तेज़ सी नज़र अपने पेट पर डाली जिसने अभी बढ़ना भी शुरू नहीं किया था और जैसे बाबू जी या कोई और देख रहा हो।उसने सारी का पल्लू इस पर खींच लिया और कुछ सोचने लगी।जभी एक चमक सी उसके चेहरे पर आई और वो बोली।“तुम्हारी ससुराल से शीरीनी आएगी।“

 

“मेरी ससुराल?”और हाँ।मदन ने रास्ता पाते हुए कहा।“कितनी शर्म की बात है।अभी छःआठ महीने शादी के हुए हैं और चला आ रहा है।“और उसने इंदू के पेट की तरफ़ इशारा किया।मदन की टांगें अभी तक काँप रही थीं।उस वक़्त ख़ौफ़ से नहीं तसल्ली से।“चला आया है या तुम लाए हो?”

 

“तमीह सब क़ुसूर तुम्हारा है।कुछ औरतें होती ही ऐसी हैं।“

“तुम्हें पसंद नहीं?”

“एक दम नहीं“

“क्यूँ?”

“चार दिन तो मज़े ले लेती ज़िंदगी के।“

 

“क्या ये जिंदगी का मजा नहीं?” इंदू ने सदमा ज़दा लहजे में कहा।मर्द औरत शादी किस लिए करते हैं? भगवान ने बिन मांगे दे दिया ना? पूछो उन से जिन के नहीं होता।फिर वो क्या कुछ करती हैं।पीरों फ़क़ीरों के पास जाती हैं।समाधियों, मुजावरों पर चोटियाँ बांधती हैं, शर्म–व–हया तज कर दरियाओं के किनारे नंगी होकर सरकण्डे काटती, श्मसानों में मसान जगाती।“

 

“अच्छा! अच्छा!” मदन बोला।“तुमने बखान ही शुरू कर दिया।औलाद के लिए थोड़ी उम्र पड़ी थी।?”

 

“होगा तो!” इंदू ने सरज़निश के अंदाज़ में उंगली उठाते हुए कहा।“जब तुम इसे हाथ भी मत लगाना।वो तुम्हारा नहीं, मेरा होगा।तुम्हें तो इसकी जरूरत नहीं, पर इसके दादा को बहुत है।ये मैं जानती हूँ।“और फिर कुछ ख़जल,कुछ सदमा ज़दा होकर इंदू ने अपना मुँह दोनों हाथों से छिपा लिया।

 

वो सोचती थी पेट में इस नन्ही सी जान को पालने के सिल्सिले में, इस जान का होता सोता थोड़ी बहुत हमदर्दी तो करेगा ही लेकिन मदन चुप चाप बैठा रहा।एक लफ़्ज़ भी उसने मुँह से न निकाला।इंदू ने चेहरे पर से हाथ उठा कर मदन की तरफ़ देखा और होने वाली पहलू टन के ख़ास अंदाज़ में बोली।“वो तो जो कुछ मैं कह रही हूँ सब पीछे होगा।पहले तो मैं बचूगी ही नहीं मुझे बचपन से वहम है इस बात का।

 

मदन भी जैसे ख़ाएफ़ हो गया ये ख़ूबसूरत “चीज़” जो हामिला हो जाने के बाद और भी ख़ूबसूरत हो गई है मर जाएगी? उसने पीठ की तरफ़ से इंदू को थाम लिया और फिर खींच कर अपने बाज़ुओं में ले आया और बोला।“तुझे कुछ न होगा इंदू मैं तो मौत के मुँह से भी छीन कर ले आऊँगा तुझे अब सावित्री की नहीं, सियह दान की बारी है“

 

मदन से लिपट कर इंदू भूल ही गई कि उसका अपना भी कोई दुख है। इसके बाद बाबू जी ने कुछ न लिखा।अलबत्ता सहारनपुर से एक सारटर आया जिसने सिर्फ़ इतना बताया कि बाबू जी को फिर से दौरे पड़ने लगे हैं।एक दौरे में तो वो क़रीब क़रीब चल ही बसे थे। मदन डर गया।इंदू रोने लगी।सारटर के चले जाने के बाद हमेशा की तरह मदन ने आँखें मूंद लीं और मन ही मन में पढ़ने लगा ओम नमो भगौते।

 

दूसरे रोज़ ही मदन ने बाप को चिट्ठी लिखी बाबू जी! चले आओ बच्चे बहुत याद करते हैं और आप की बहू भी“।लेकिन आख़िरी नौकरी थी।अपने बस की बात थोड़ी थी।धनी राम के ख़त के मुताबिक़ वो छुट्टी का बंद–व–बस्त कर रहे थे उनके बारे में दिन ब–दिन मदन का एहसास–ए–जुर्म बढ़ने लगा।“अगर मैं इंदू को वहीं रहने देता तो मेरा क्या बिगड़ जाता?”

 

विजयदशमी से एक रात पहले मदन इज़्तिराब के आलम में बीच वाले कमरे के बाहर बरामदे में टहल रहा था कि अंदर से रोने की आवाज़ आई और वो चौंक कर दरवाज़े की तरफ़ लपका।बेगम दाया बाहर आई और बोली।“मुबारक हो।“मुबारक हो बाबू जी लड़का हुआ है।“

 

“लड़का?” मदन ने कहा और फिर मुतफ़क्किराना लहजे में बोला।“बीबी कैसी है?”।बेगम बोली।“ख़ैर महर है मैंने अभी तक उसे लड़की ही बताई है ज़च्चा ज़्यादा ख़ुश हो जाए तो उसकी आँओल नहीं गिरती ना।“

 

“तो” मदन ने बेवक़ूफ़ों की तरह आँखें झपकते हुए कहा और कमरे में जाने के लिए आगे बढ़ा। बेगम ने उसे वहीं रोक दिया और कहने लगी।“तुम्हारा अंदर क्या काम?” और फिर एका एकी दरवाज़ा भेड़ कर अंदर लपक गई या शायद इस लिए कि जब कोई इस दुनिया में आता है तो इर्द गिर्द के लोगों की यही हालत होती है।

 

मदन ने सुन रक्खा था जब लड़का पैदा होता है तो घर के दर–व–दीवार लरज़ने लगते हैं।गोया डर रहे हैं कि बड़ा होकर हमें बेचेगा या रखेगा।मदन ने महसूस किया कि जैसे सचमुच ही दीवारें काँप रही थीं ज़च्गी के लिए चक्ली भाबी तो न आई थीं क्यूँकि उसका अपना बच्चा तो बहुत छोटा था अलबत्ता दरियाबाद वाली फूफी ज़रूर पहुंची थीं जिसने पैदाइश के वक़्त राम, राम, राम, राम की रट लगा दी थी और अब वही रट मद्धम हो रही थी।

 

ज़िंदगी भर मदन को अपना आप इस क़दर फ़ुज़ूल और बेकार न लगा था।इतने में फिर दरवाज़ा खुला और फूफी निकली।बरामदे की बिजली की मद्धम रौशनी में उसका चेहरा भूत के चेहरे की तरह एक दम दूधिया नज़र आ रहा था।मदन ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा “इंदू ठीक है न फूफी।“

 

“ठीक है ठीक है ठीक है!फूफी ने तीन चार बार कहा और फिर अपना लरज़ता हुआ हाथ मदन के सिर पर रख कर उसे नीचा किया, चूमा और बाहर लपक गई“

 

फूफी बरामदे के दरवाज़े में से बाहर जाती हुई नज़र आ रही थी।वो बैठक में पहुंची जहाँ बाक़ी बच्चे सो रहे थे।फूफी ने एक एक के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और फिर छत की तरफ़ आँखें उठा कर मुँह में कुछ बोली और फिर निढाल सी होकर मन्नी के पास लेट गई औंधियास के फड़कते हुए शानों से पता चल रहा था जैसे रो रही है।मदन हैरान हुआ फूफी तो कई ज़चगियों से गुज़र चुकी है, फिर क्यूँ उसकी रूह काँप उठी है फिर उधर के कमरे से हर मल की बू बाहर लपकी।

 

धोएँ का एक गुबार सा आया।जिसने मदन का अहाता कर लिया।उसका सिर चकरा गया।जभी बेगम दाया कपड़े में कुछ लपेटे हुए बाहर निकली। कपड़े पर ख़ून ही ख़ून था।जिसमें कुछ क़तरे निकल कर फ़र्श पर गिर गए।मदन के होश उड़ गए।उसे मालूम न था कि वो कहाँ है।आँखें खुली हुई थीं और कुछ दिखाई न दे रहा था।बीच में इंदू की एक नर घुली सी आवाज़ आई।“हाएए” और फिर बच्चे के रोने की आवाज़।“

 

तीन चार दिन में बहुत कुछ हुआ।मदन ने घर के एक तरफ़ गढ़ा खोद कर आंवल को दबा दिया।कुत्तों को अंदर आने से रोका लेकिन उसे कुछ याद न था।उसे यूँ लगा जैसे हरिमल की बू दिमाग़ में बस जाने के बाद आज ही उसे होश आया है, कमरे में वो अकेला ही था और इंदू नंद और जसोवहा और दूसरी तरफ़ नंद लाला नन्दो ने बच्चे की तरफ़ देखा और कुछ टोह लेने के से अंदाज़ में बोली।“बालक तुम ही पर गया है।“

 

“होगा।“मदन ने एक उचटती हुई नज़र बच्चे पर डालते हुए कहा।“मैं तो कहता हूँ शुक्र है भगवान का कि तुम बच गईं।“

“हाँ!” इंदू बोली।“मैं तो समझती थी“।“शुभ शुभ बोलो।“मदन ने एक दम इंदू की बात काटते हुए कहा।“यहाँ तो जो कुछ हुआ है मैं तो अब तुम्हारे पास भी नहीं फटकूँगा।“और मदन ने ज़बान दाँतों तले दबा ली।“

 

“तौबा करो।“इंदू बोली।मदन ने उसी दम कान अपने हाथ से पकड़ लिए और इंदू नहीफ़ आवाज़ में हँसने लगी।बच्चा होने के कई रोज़ तक इंदू की नाफ़ ठिकाने पर ना आई।वो घूम घूम कर उस बच्चे की तलाश कर रही थी जो अब इस से परे, बाहर की दुनिया में जा कर अपनी असली माँ को भूल गया था।

 

अब सब कुछ ठीक था और इंदू शांति से इस दुनिया को तक रही थी मालूम होता था उसने मदन ही के नहीं दुनिया भर के गुनाहगारों के गुनाह माफ़ कर दिए हैं और देवी बन कर दिया और करुणा के प्रसाद बांट रही है मदन ने इंदू के मुँह की तरफ़ देखा और सोचने लगा।इस सारे खूनखराबे के बाद कुछ दुबली होकर इंदू और भी अच्छी लगने लगी है जभी एका एकी इंदू ने दोनों हाथ अपनी छातियों पर रख लिए।

 

“क्या हुआ?” मदन ने पूछा।“कुछ नहीं। इंदू थोड़ा सा उठने की कोशिश कर के बोली।“उसे भूक लगी है” और उसने बच्चे की तरफ़ इशारा किया।“उसे? भूक?”मदन ने पहले बच्चे की तरफ़ और फिर इंदू की तरफ़ देखते हुए कहा “तुम्हें कैसे पता चला?”

 

“देखते नहीं” इंदू नीचे की तरफ़ निगाह करते हुए बोली।“सब कुछ गीला हो गया है।“मदन ने ग़ौर से ढीले ढाले गले की तरफ़ देखा।झर झर दूध बह रहा था और एक ख़ास क़िस्म की बू आ रही थी।फिर इंदू ने बच्चे की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा।“उसे मुझे दे दो!”

 

मदन ने हाथ पंघूड़े की तरफ़ बढ़ाया और उसी दम खींच लिया।फिर कुछ हिम्मत से काम लेते हुए उसने बच्चे को यूं उठाया जैसे वो कोई मरा हुआ चूहा है।आख़िर उसने बच्चे को इंदू की गोद में दे दिया।इंदू मदन की तरफ़ देखते हुए बोली।“तुम जाओ बाहर।“

 

“जाओ ना।इंदू ने कुछ मचलते, कुछ शरमाते हुए कहा।“तुम्हारे सामने में दूध नहीं पिला सकूंगी।” “अरे? मदन हैरत से बोला” मेरे सामने? नहीं पिला सकेगी।“और फिर नासमझी के अंदाज़ में सर को झटका दे कर बाहर की तरफ़ चल निकला।दरवाज़े के पास पहुंच कर उसने मुड़ते हुए इंदू पर एक निगाह डाली।इतनी ख़ूबसूरत इंदू आज तक नहीं लगी थी।

 

बाबू धनी राम छुट्टी पर घर लौटे तो वो पहले से आधे दिखाई पड़ते थे।जब इंदू ने पोता उनकी गोद में दिया तो वो खिल उठे।उनके पेट के अंदर कोई फोड़ा निकल आया था जो चौबीस घंटे उन्हें सूली पर लटकाए रखता।अगर मुन्ना रोता तो बाबू जी की इस से दस गुना बुरी हालत होती।

 

कई इलाज किए गए।बाबू जी के आख़िरी इलाज में डाक्टर ने अध्नी के बराबर पंद्रह बीस गोलीयाँ रोज़ खाने को दीं।पहले ही दिन उन्हें इतना पसीना आया कि दिन में तीन तीन चार चार बार कपड़े बदलने पड़े।हर बार मदन कपड़े उतार कर बाल्टी में निचोड़ता।

 

सिर्फ़ पसीने से ही बाल्टी एक चौथाई हो गई थी।रात उन्हें मतली सी महसूस होने लगी थी और उन्होंने पुकारा “बहू ज़रा दातुन तो देना ज़ाएक़ा बहुत ख़राब हो रहा है।“बहू भागी हुई गई और दातुन लेकर आई।बाबू जी उठ कर दातुन चबा ही रहे थे कि एक उबकाई आई।साथ ही ख़ून का परनाला ले आई।बेटे ने वापस सिरहाने की तरफ़ लिटाया तो उनकी पुतलीयाँ फिर चुकी थीं और कोई ही दम में वो ऊपर आसमान के गुलज़ार में पहुंच चुके थे जहाँ उन्होंने अपना फूल पहचान लिया था ।

 

मुन्ने को पैदा हुए कुल बीस पच्चीस रोज़ हुए थे।इंदू ने मुँह नोच कर,सर और छाती पीट पीट कर ख़ुद को नीला कर लिया।मदन के सामने वही मंज़र था जो उसने तसव्वुर में अपने मरने पर देखा था।फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि इंदू ने चूड़ियाँ तोड़ने की बजाए उतार कर रख दी थीं।सर पर राख नहीं डाली थी लेकिन ज़मीन पर से मिट्टी लग जाने और बालों के बिखर जाने से चेहरा भयानक हो गया था।“लोगो! मैं लुट गई।“की जगह उसने एक दिलदोज़ आवाज़ में चिल्लाने शुरू कर दिया था।“लोगो! हम लुट गए!”

 

घर बार का कितना बोझ मदन पर आ पड़ा था।अब का अभी मदन को पूरी तरह अंदाज़ा न था। सुब्ह होने तक उसका दिल लपक कर मुँह में आ गया।वो शायद बच न पाता।अगर वो घर के बाहर बदरु के किनारे सील चढ़ी मिट्टी पर औंधा लेट कर अपने दिल को ठिकाने पर न लाता धरती माँ ने छाती से लगा कर अपने बच्चे को बचा लिया था।

 

छोटे बच्चे कुन्दन, दुलारी मन्नी, पाशी यूँ चिल्ला रहे थे जैसे घोंसले पर शकरे के हमले पर चिड़िया के बोंट चोंचें उठा उठा कर चीं चीं करते हैं।उन्हें अगर कोई परों के अंदर समेटती है तो इंदूना ली के किनारे पड़े पड़े मदन ने सोचा अब तो ये दुनिया मेरे लिए ख़त्म हो गई है।क्या मैं जी सकूँगा? ज़िंदगी में कभी हंस भी सकूँगा? वो उठा और उठ कर घर के अन्दर चला आया।

 

सीढ़ियों के नीचे गुसलखाना था जिस में घुस कर अंदर से किवाड़ बंद करते हुए मदन ने एक बार फिर इस सवाल को दोहराया “मैं कभी हंस भी सकूँगा?” और वो खिलखिला कर हंस रहा था।हालाँ कि उस के बाप की लाश अभी पास ही बैठक में पड़ी थी।

 

बाप को आग में हवाले करने से पहले मदन अर्थी पर पड़े हुए जिस्म के सामने डन्डोत के अंदाज़ में लेट गया।ये उसका अपने जन्मदाता को आख़िरी परिणाम था।तस पर भी वो रो न रहा था।उसकी ये हालत देख कर मातम में शरीक होने वाले रिश्तेदार मोहल्ला सुन से रह गए।फिर हिंदू राज के मुताबिक़ सब से बड़ा बेटा होने की हैसियत से मदन को चिता जलानी पड़ी।जलती हुई खोपड़ी में कपाल कृपा की लाठी मारनी पड़ती औरतैं बाहर ही से शमशान के कुंएँ पर से नहा कर लौट चुकी थीं।जब मदन घर पहुंचा तो वो काँप रहा था।

 

धरती माँ ने थोड़ी देर के लिए जो ताक़त अपने बेटे को दी थी, रात घर के घर आने पर फिर से होल में ढल गई ऐसे कोई सहारा चाहिए था,किसी ऐसे जज़्बे का सहारा जो मौत से भी बड़ा हो।उस वक़्त धरती माँ की बेटी जनक दुलारी इंदू ने किसी घड़े में से पैदा होकर इस राम को अपनी बाँहों में ले लिया उस रात को अगर इंदू अपना आप यूँ इस पर निसार न करती तो इतना बड़ा दुख मदन को ले डूबता।

 

दस ही महीने के अंदर अंदर इनका दूसरा बच्चा चला आया।बीवी को इस दोज़ख़ की आग में धकेल कर ख़ुद अपना दुख भूल गया था।कभी कभी उसे ख़याल आता अगर मैं शादी के बाद बाबू जी के पास गई होती तो इंदू को न बुला लेता तो शायद वो इतनी जल्दी न चल देते लेकिन फिर वो बाप की मौत से पैदा होने वाले ख़सारे को पूरा करने में लग जाता कारोबार जो पहले बे–तवज्जही की वजह से बंद हो गया था मजबूरन चल निकला।

 

इन दिनों बड़े बच्चे को मदन के पास छोड़कर, छोटे को छाती से गले लगाए इंदू मैके चली गई। पीछे मुन्ना तरह तरह की ज़िद करता था जो कभी मानी जाती थी और कभी नहीं भी।

 

मैके से इंदू का ख़त आया मुझे यहाँ अपने बेटे के रोने की आवाज़ आ रही है, उसे कोई मारता तो नहीं? मदन को बड़ी हैरत हुई एक जाहिल अन पढ़ औरत ऐसी बातें कैसे लिख सकती है? फिर उसने अपने आप से पूछा क्या ये भी कोई रटा हुआ फ़िक़रा है?

 

साल गुज़र गए। पैसे कभी इतने न आए कि उनमें से कुछ पेश हो सके लेकिन गुज़ारे के मुताबिक़ आमदनी ज़रूर हो जाती थी।दिक़्क़त उस वक़्त पर होती जब कोई बड़ा ख़र्च सामने आ जाता कुन्दन का दाख़िला देना है, दुलारी मन्नी का शगुन भिजवाना है।उस वक़्त मदन मुँह लटका कर बैठ जाता और फिर इंदू एक तरफ़ से आती मुस्कुराती हुई और कहती “क्यूँ दुखी हो रहे हो?”मदन उम्मीद भरी नज़रों से उस की तरफ़ देखते हुए कहता।

 

“दुखी न हूँ? कुन्दन का बी ए का दाख़िला देना है मन्नी” इंदू फिर हंसती और कहती। “चलो मेरे साथ” और मदन भेड़ के बच्चे की तरह इंदू के पीछे चल देता। इंदू संदल के संदूक़ के पास पहुंचती जिसे किसी को, मदन समेत हाथ लगाने की इजाज़त न थी।कभी कभी इस बात पर ख़फ़ा हो कर मदन कहता।“मरोगी तो उसे भी छाती पर डाल के ले जाना।“और इंदू कहती।“हाँ! ले जाऊंगी।“फिर इंदू वहाँ से मतलूबा रक़्म निकाल कर सामने रख देती।

 

“ये कहाँ से आ गए?”

“कहीं से भी तुमहें आम खाने से मतलब है।“

“फिर भी?”

“तुम जाओ अपना काम चलाओ।“और जब मदन ज़्यादा इसरार करता तो इंदू कहती।“मैंने एक सेठ दोस्त बनाया है न।“और फिर हंसने लगती।

 

झूट जानते हुए भी मदन को ये मज़ाक़ अच्छा न लगता।फिर इंदू कहती।“मैं पूरा लुटेरा हूँ तुम नहीं जानते?”सखी और लुटेरा जो एक हाथ से लूटता है और दूसरे हाथ से गरीब गुरबा को दबा देता है”
इस तरह मुन्नी की शादी हुई जिस पर ऐसी ही लूट के ज़ेवर बिके।क़र्ज़ा चढ़ा और फिर उतर भी गया।ऐसे ही कुन्दन भी ब्याहा गया।इन शादियों में इंदू ही “हथ भरा” करती थी और माँ की जगह खड़ी हो जाती।आसमान से बाबू जी और माँ देखा करते और फूल बरसाते जो किसी को नज़र न आते।फिर ऐसा हुआ, ऊपर माँ और बाबू जी में झगड़ा चल गया।

 

माँ ने बाबू जी से कहा “तुम तो बहू के हाथ की पकी खा कर आए हो।उसका सुख भी देखा है।पर मैं नसीबों जली ने कुछ भी नहीं देखा।“और ये झगड़ा दशनो,महेश और शैव तक पहुंचा।उन्होंने माँ के हक़ में फ़ैसला दे दिया और यूँ माँ, मात लोक में आकर बहू की कोख में पड़ी और इंदू के यहाँ एक बेटी पैदा हुई फिर इंदू ऐसी देवी भी न थी।जब कोई उसूल की बात होती तो नंद देवर क्या ख़ुद मदन से भी लड़ पड़ती मदन रास्त बाज़ी की इस पुतली को ख़फ़ा होकर हरीश चन्द्र की बेटी कहा करता था।

 

चूँकि इंदू की बातों में उलझाव होने के बावजूद सच्चाई और धर्म क़ाएम रहते थे, इस लिए मदन और कुन्बे के बाक़ी सब लोगों की आँखें इंदू के सामने नीचे रहती थीं।झगड़ा कितना भी बढ़ जाए। मदन अपने शौहरी ज़अम में कितना भी इंदू की बात को रद्द कर दे लेकिन आख़िर सब ही सर झुकाए हुए इंदू ही की शरण में आते थे और उसी से छमा मांगते थे।

 

नई भाभी आई।कहने को तो वो भी बीवी थी लेकिन इंदू एक औरत थी, जिसे बीवी कहते हैं।उसके उलट छोटी भाभी रानी एक बीवी थी जिसे औरत कहते हैं।रानी के कारण भाइयों में झगड़ा हुआ और जे पी चाचा की मारिफ़त जाएदाद तक़्सीम हुईं जिसमें माँ बाप को जाएदाद तो एक तरफ़ इंदू की अपनी बनाई हुई चीज़ें भी तक़सीम की ज़द में आ गईं और इंदू कलेजा मसूस कर रह गई।जहाँ सब कुछ हो जाने के बाद और अलग होकर भी कुन्दन और रानी ठीक से नहीं बस सके थे, वहाँ इंदू का नया घर दिनों ही में जगमग जगमग करने लगा था।

 

बच्ची की पैदाइश के बाद इंदू की सेहत वो न रही।बच्ची हर वक़्त इंदू की छातियों से चिम्टी रहती जहाँ सभी गोश्त के इस लोथड़े पर थू थू करते थे वहाँ एक इंदू थी जो उसे कलेजे से लगाए फिरती लेकिन कभी ख़ुद परेशान हो उठती और बच्ची को सामने झलंगे में फेंकते हुए कह उठती।“तू मुझे भी जीने दे गी माँ?” और बच्ची चिल्ला चिल्ला कर रोने लगती।

 

मदन इंदू से कटने लगा।शादी से लेकर उस वक़्त तक उसे वो औरत न मिली थी जिसका वो मुतलाशी था।गंदाबरोज़ा बकने लगा और मदन ने बहुत सा रुपया इंदू से बाला बाला ख़र्च करना शुरू कर दिया।बाबू जी के चले जाने के बाद कोई पूछने वाला भी तो न था।पूरी आज़ादी थी।

 

गोया पड़ोसी सिब्ते की भैंस फिर मदन के मुँह के पास फनकारने लगी।बल्कि बार बार फनकारने लगी।शादी की रात वाली भैंस तो बिक चुकी थी लेकिन उसका मालिक ज़िंदा था।मदन उसके साथ ऐसी जगहों पर जाने लगा जहाँ रौशनी और साए अजीब बे–क़ाएदा सी शक्लें बनाते हैं।नुक्कड़ पर भी कभी अंधेरे की तिकून बनती है और ऊपर खट से रौशनी की एक चौकोर लहर आ कर उसे काट देती है।

 

कोई तस्वीर पूरी नहीं बनती।मालूम होता है बग़ल से एक पाजामा निकला और आसमान की तरफ़ उड़ गया।या किसी कोट ने देखने वाला का मुँह पूरी तरह से ढाँप लिया।और कोई सांस के लिए तड़पने लगा।जभी रौशनी की एक चौकोर लहर एक चोकठा बन गई और उसमें एक सूरत आ कर खड़ी हो गई। देखने वाले ने हाथ बढ़ाया तो वो आर पार चला गया।जैसे वहाँ कुछ भी न था।पीछे कोई कुत्ता रोने लगा।ऊपर तब्ल ने उसकी आवाज़ डुबो दी।

 

मदन को उसके तसव्वुर के ख़द–व–ख़ाल मिले लेकिन हर जगह ऐसा मालूम हो रहा था जैसे आर्टिस्ट से एक ख़त ग़लत लग गया या हंसी की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा बुलंद थी और मदनदाग़ सुनाई और मुतवाज़िन हंसी की तलाश में खो गया।

 

सिब्ते ने उस वक़्त अपनी बीवी से बात की जब उसकी बेगम ने मदन को मिसाली शौहर की हैसियत से सिब्ते के सामने पेश किया।पेश ही नहीं किया बल्कि मुँह पे मारा।उसको उठा कर सिब्ते ने बेगम के मुँह पर दे मारा।मालूम होता था किसी ख़ूनैन तरबूज़ का गूदा है जिसके रग–व–रेशे बेगम की नाक उसकी आँखों और कानों पर लगे हुए हैं।करोड़ करोड़ गाली बकती हुई बेगम ने हाफ़िज़े की टोकरी में से गूदा और बीज उठाए और इंदू के साफ़ सुथरे सहन में बिखेर दिए।

 

एक इंदू की बजाए दो इंदू हो गईं।एक तो इंदू ख़ुद थी और दूसरी एक काँपता हुआ ख़त जो इंदू के पूरे जिस्म का अहाता किए हुए था और जो नज़र नहीं आ रहा था मदन कहीं भी जाता था तो घर से होकर नहा धो, अच्छे कपड़े पहन, मघई की एक गिलौरी जिस में ख़ुशबूदार क़िवाम लगा हो, मुँह में रख कर लेकिन उस दिन मदन घर आया तो इंदू की शक्ल ही दूसरी थी।उसने चेहरे पर पावडर थोप रक्खा था।गालों पर रोज लगा रक्खी थी।लिपस्टिक न होने पर होंट माथे की बंदी से रंग लिए थे और बाल कुछ इस तरीक़े से बनाए थे कि मदन की नज़रें इनमें उलझ कर रह गईं।“क्या बात है आज?” मदन ने हैरान होकर पूछा।

 

“कुछ नहीं” इंदू ने मदन से नज़रें बचाते हुए कहा।“आज फ़ुर्सत मिली है।“शादी के पंद्रह बीस बरस गुज़र जाने के बाद इंदू को आज फ़ुर्सत मिली थी और वो भी उस वक़्त जब चेहरे पर झाइयाँ आ चली थीं।नाक पर एक सियाह काठी बन गई थी और ब्लाउज़ के नीचे नंगे पेट के पास कमर पर चर्बी की दो तहें सी दिखाई देने लगी थीं आज इंदू ने ऐसा बंद–व–बस्त किया था कि इन उयूब में से एक भी चीज़ नज़र न आती थी यूँ बनी ठनी।

 

कसी कसाई वो बेहद हसीन लग रही थी” ये नहीं हो सकता“मदन ने सोचा और उसे एक धचका सा लगा।उसने फिर एक बार मुड़ कर इंदू की तरफ़ देखा जैसे घोड़ों के ब्यापारी किसी नामी घोड़ी की तरफ़ देखते हैं वहाँ घोड़ी भी थी और लाल लगाम भी यहाँ जो ग़लत ख़त लगे थे, शराबी आँखों को न देख सके इंदू सचमुच ख़ूबसूरत थी।

 

आज भी पंद्रह साल के बाद फूलां, रशीदा, मिसिज़ राबर्ट और उनकी बहनें उनके सामने पानी भर्ती थीं फिर मदन को रहम आने लगा और एक डर आसमान पर कोई ख़ास बादल भी न थे लेकिन पानी पड़ना शुरू हो गया।उधर घर की गंगा तुग़यानी पर थी और उसका पानी किनारों से निकल निकल कर पूरी उतराई और उसके आस पास बसने वाले गांव और कस्बों को अपनी लपेट में ले रहा था।

 

ऐसा मालूम होता था कि इसी रफ़्तार से अगर पानी बहता रहा तो उसमें कैलाश पर्वत भी डूब जाएगा उधर बच्ची रोने लगी।ऐसा रोना जो वो आज तक न रोई थी।मदन ने उसकी आवाज़ सुन कर आँखें बंद कर लीं।खोलीं तो वो सामने खड़ी थी।जवान औरत बन कर नहीं नहीं, वो इंदू थी, अपनी माँ की बेटी, अपनी बेटी की माँ।जो अपनी आँखों के दुनिया ले से मुस्कुराई और होंटों के कोने से देखने लगी।

 

उसी कमरे में जहाँ एक दिन हरिमल की ध्वनि ने मदन को चकरा दिया था, आज उसकी ख़ुशबू ने बौखला दिया था।हल्की बारिश तेज़ बारिश से ख़तरनाक होती है।इस लिए बाहर का पानी ऊपर किसी कड़ी में से रिस्ता हुआ इंदू और मदन के बीच टपकने लगा लेकिन मदन तो शराबी हो रहा था।इस नशे में उसकी आँखें सिमटने लगीं और तनफ़्फ़ुस तेज़ होकर इंसान का तनफ़्फ़ुस न रहा।

 

“इंदू” मदन ने कहा।और उसकी आवाज़ शादी की रात वाली पुकार से दो सर ऊपर थी और इंदू ने परे देखते हुए कहा।“जी” और उसकी आवाज़ दो सर नीचे थी फिर आज चाँदनी की बजाए अमावस थी इस से पहले कि मदन इंदू की तरफ़ हाथ बढ़ाता।इंदू ख़ुद ही मदन से लिपट गई।फिर मदन ने हाथ से इंदू की ठोढ़ी ऊपर उठाई और देखने लगा।उसने क्या खोया, क्या पाया है?।इंदू ने एक नज़र मदन के सियाह होते हुए चेहरे की तरफ़ फेंकी और आँखें बंद कर लीं।

 

“ये क्या?” मदन ने चौंकते हुए कहा।“तुम्हारी आँखें सूजी हुई हैं“।“यूँ ही” इंदू ने कहा और बच्ची की तरफ़ इशारा करते हुए बोली।“रात भर जगाया है इस चुड़ैल मियाने।“

 

बच्ची अब तक ख़ामोश हो चुकी थी।गोया वो दम साधे देख रही थी।अब क्या होने वाला है? आसमान से पानी पड़ना बंद हो गया था? वाक़ई आसमान से पानी पड़ना बंद हो गया था।मदन ने फिर ग़ौर से इंदू की तरफ़ देखते हुए कहा।“हाँ मगर ये आँसू?”

 

“ख़ुशी के हैं” इंदू ने जवाब दिया। आज की रात मेरी है।और फिर एक अजीब सी हंसी हंसते हुए वो मदन से चिमट गई। एक तलज़्ज़ुज़ के एहसास से मदन ने कहा।“आज बरसों के बाद मेरे मन की मुराद पूरी हुई इंदू! मैं ने हमेशा चाहा था“

 

“लेकिन तुम ने कहा नहीं।” इंदू बोली।“याद है शादी वाली रात मैं ने तुम से कुछ मांगा था?”

“हाँ!” मदन बोला।“अपने दुख मुझे दे दो।“

“तुम ने कुछ नहीं मांगा मुझ से“

 

“मैं ने?” मदन ने हैरान होते हुए कहा “मैं क्या मांगता? मैं तो जो कुछ मांग सकता था वो सब तुम ने दे दिया।मेरे अज़ीज़ों से प्यार उन की तालीम, ब्याह शादियाँ ये प्यारे प्यारे बच्चे ये कुछ तो तुमने दे दिया।“

 

“मैं भी यही समझती थी।” इंदू बोली “लेकिन अब जा कर पता चला, ऐसा नहीं।“

“क्या मतलब?”

“कुछ नहीं।“फिर इंदू ने रुक कर कहा।“मैंने भी एक चीज़ रख ली।“

“क्या चीज़ रख ली?”

 

इंदू कुछ देर चुप रही और फिर अपना मुँह परे करते हुए बोली
“
अपनी लाजापनी ख़ुशी उस वक़्त तुम भी कह देते अपने सुख मुझे दे दो तो मैं”
और इंदू का गला रुँध गया।और कुछ देर बाद बोली।“अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं रहा।“

 

मदन के हाथों की गिरफ़्त ढीली पड़ गई। वो ज़मीन में गड़ गया।ये अन पढ़ औरत?कोई रटा हुआ फ़िक़रा? नहीं तो ये तो अभी ही ज़िंदगी की भट्टी से निकला है।अभी तो उस पर बराबर हथौड़े पड़ रहे हैं और आतिशीं बुरादा चारों तरफ़ उड़ रहा है ।

 

कुछ देर बाद मदन के होश ठिकाने आए और बोला।“मैं समझ गया इंदू” फिर रोते हुए मदन और इंदू एक दूसरे से लिपट गए इंदू ने मदन का हाथ पकड़ा और उसे ऐसी दुनियाओं में ले गई जहाँ इंसान मर कर ही पहुंच सकता है।

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this
short write up with help of materialas and images available on net. Images on
this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are
the copy right of original writers. The copyright of these materials are with
the respective owners.Blogger is thankful to original writers.

 



Share196Tweet123
Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

Latest Post

Renuka Devi: Daughter of founder of Abdullah Women’s College A.M.U.Aligarh was legendary actress of pre-partition era (Begum Khurshid Mirza)

Renuka Devi: Daughter of founder of Abdullah Women’s College A.M.U.Aligarh was legendary actress of pre-partition era (Begum Khurshid Mirza)

May 11, 2025

साहब-ए-करामात- फाताँ ने वहीं चारपाई से कहा। “हाँ…….मौलवी साहब की दाढ़ी और पट्टे।” सआदत हसन मंटो

May 5, 2025
धुंआ धुंआ ज़िंदगी लाइफ़ इन मेट्रो; ट्वंटी  ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी आगया. और वे दोनों ‘एक्स’ होगए (नंदकिशोर बर्वे)

धुंआ धुंआ ज़िंदगी-लाइफ़ इन मेट्रो; ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट की तरह तलाक़ का निर्णय भी जल्दी आ गया. और वे दोनों ‘एक्स’ हो गए. (नंद किशोर बर्वे)

May 2, 2025
IUIUIIU

तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूं: फ़ोटो में माया की तरह छरहरे शरीर, परंतु बहुत सुंदर अनुपात के अवयव की निरावरण युवती, दाईं बांह का सहारा लिये एक चट्टान पर बैठी, कहीं दूर देख रही थी (यशपाल की कहानी )

May 2, 2025
अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

May 2, 2025
जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स  की मृत्यु पर शोक मनाया।

जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स की मृत्यु पर शोक मनाया।

May 2, 2025
Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

May 2, 2025
पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

April 24, 2025
बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

March 22, 2025
नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

March 18, 2025
अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

March 17, 2025
नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

March 17, 2025
परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

March 17, 2025
आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

March 17, 2025
चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

March 18, 2025
पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें  रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

March 18, 2025
मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
Katha Saar of Karbala (Play):  By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

Katha Saar of Karbala (Play): By Munshi Premchand katha samrat ( 31 July 1880 –8 October 1936 )

March 17, 2025
  • About us
  • Contact us
  • Home

Copyright © 2025. All rights reserved. Design By Digital Aligarh

No Result
View All Result
  • About us
  • Contact us
  • Home

Copyright © 2025. All rights reserved. Design By Digital Aligarh