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Brigadier Usman: Lion of Naushera, who rejected Jinnah’s offer as chief of Pakistan’s army

by Engr. Maqbool Akram
July 3, 2020
in Uncategorized
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भारतीय सेना का वह जांबाज ब्रिगेडियर जिसके सिर पर पाकिस्तान ने रखा
था 50 हजार का इनाम।

बलूच
रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई। चूंकि उस दौर में सेना में
बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह
से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे।
पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से
परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये
दिये जायेंगे। इधर, पाक लगातार झनगड़ पर हमले करता रहा। अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी
सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे उस्मान। पाक सेना घात में बैठी थी। 3 जुलाई,
1948 की शाम, पौने छह बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर
25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे – हम तो जा रहे हैं, पर
जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये।
ब्रिगेडियर
उस्मान का जन्म 15 जुलाई, 1912 को आजमगढ़ में हुआ था। उनके पिता मोहम्मद फारूख पुलिस
में आला अधिकारी थे जबकि मां जमीलुन बीबी घरेलू महिला थीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा
स्थानीय मरदसे में हुई और आगे की पढ़ाई वाराणसी के हरश्चिंद्र स्कूल तथा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
में हुई। वह न सिर्फ अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि जबरदस्त वक्ता भी थे। वीरता उनमें कूट-कूट
कर भरी थी। तभी तो महज 12 साल की उम्र में वह अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में
कूद पड़े थे और उसे बचा भी लिया था।

Brigadier Usman

देश
के बंटवारे के समय जिन्ना और लियाकत खान ने मुसलमान होने का वास्ता देकर उनसे पाकिस्तान
आने का आग्रह किया। साथ ही पाकिस्तान की सेना का प्रमुख बनाने का ऑफर भी दिया। मगर
उन्होंने उस ऑफर को ठुकरा दिया और 1947-48 में पाकिस्तान के साथ पहले युद्ध में वे
शहीद हो गए।

उनकी
बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिए उनको ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाता है। साल 1932 में
मोहम्मद उस्मान की उम्र महज 20 साल थी। उस्मान जिस दौर में पल रहे थे, वो आजादी से
काफी पहले का दौर था। उस्मान ने तभी सेना में जाकर देश के लिए कुछ करने का जज्बा दिल
में पाल लिया था। यह वो दौर था जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी। उस्मान के अब्बा चाहते
थे कि बेटा सिविल सर्विस में जाकर खानदान का नाम ऊंचा करे। लेकिन उस्मान के ख्वाब अब्बा
की सोच से अलग थे।
20 की उम्र में उस्मान को आरएम, रॉयल मिलिट्री एकेडमी में दाखिला
मिल गया। उस वक्त पूरे भारत में केवल 10 लड़कों को इस मिलिट्री संस्थान में दाखिला
मिला था। उस्मान उनमें से एक थे। तब भारत की अपनी मिलिट्री एकेडमी नहीं थी, इसलिए सेना
में जाने वाले युवाओं को ब्रिटिश सरकार इंग्लैंड में रॉयल मिलिट्री एकेडमी भेजकर ट्रेनिंग
करवाती थी।
हालांकि
इंग्लैंड की इस एकेडमी का यह आखिरी बैच था। उसी साल भारत में उत्तराखंड के देहरादून
में पहली इंडियन मिलिट्री एकेडमी की स्थापना हो गई। उस्मान अपने अब्बा फारूख की उम्मीदों
से उलट आर्मी अफसर बनने के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए। वहां उन्होंने 3 साल तक मिलिट्री
की कड़ी ट्रेनिंग ली। इंग्लैंड की रॉयल मिलिट्री एकेडमी में प्रशिक्षण पूरा करने के
बाद एक साल उस्मान ने रॉयल मिलिट्री फोर्स में भी अपनी सेवाएं दीं।
जिसके
बाद वो भारत लौट आए। साल 1935 में उस्मान को 10वीं बलूच रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में
पहली तैनाती मिली। वर्ल्ड वॉर के दौरान मोहम्मद उस्मान को अफगानिस्तान और बर्मा में
भी तैनात किया गया। 30 अप्रैल, 1936 को उनको लेफ्टिनेंट की रैंक पर प्रमोशन मिला और
31 अगस्त, 1941 को कैप्टन की रैंक पर।
अप्रैल
1944 में उन्होंने बर्मा में अपनी सेवा दी और 27 सितंबर, 1945 को लंदन गैजेट में कार्यवाहक
मेजर के तौर पर उनके नाम का उल्लेख किया गया। बंटवारे से पहले साल 1945 से लेकर साल
1946 तक मोहम्म्द उस्मान ने 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बटालियन का नेतृत्व किया।
बलूच रेजीमेंट में तैनाती के दौरान वह युद्ध की हर बारीकियों को सीख रहे थे।
उस्मान शायद अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई
के लिए तैयार हो रहे थे। जो उन्हें बंटवारे के बाद पाकिस्तानी फौज से लड़नी थी। अपनी
काबिलियत के दम पर उन्हें लागातार प्रमोशन मिलता रहा और कम उम्र में ही वो ब्रिगेडियर
के पद पर काबिज हो गए।

उस्मान
को पता था कि भारत-पाक बंटवारे की सरगर्मियां तेज हो गई हैं। किसी भी समय में देश के
बंटवारे का ऐलान हो सकता है और सेना को हर मोर्च पर तैयार रहना होगा। साल 1947 में
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जिसके बाद दोनों देशों से हजारों लोग इस तरफ से उस
तरफ गए और वहां से यहां आए। भारत-पाक बंटवारे के बाद हर चीज का बंटवारा हो रहा था।
जमीन के टुकड़े के साथ ही विभागों और सेना की
कुछ रेजिमेंट का बंटवारा किया गया। बलूचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा बना। बंटवारे के
बाद मोहम्मद उस्मान बड़ी मुश्किल में आ गए। क्योंकि बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी
सेना का हिस्सा बन गई। उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ
तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान
ले जाना चाहते थे।
जानते
थे कि उस्मान एक काबिल और दिलेर अफसर हैं, जो पाकिस्तानी सेना के लिए महत्वपूर्ण साबित
होंगे। बावजूद इसके उस्मान ने पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया। उसके बाद उस्मान
को तोड़ने के लिए पाकिस्तानियों की ओर से काफी प्रलोभन दिए गए। इतना ही नहीं, मोहम्मद
अली जिन्ना ने मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तानी सेना का चीफ ऑफ आर्मी बनाने तक का लालच
दिया था।
मगर
जिन्ना का ये लालच भी उस्मान के ईमान को हिला नहीं पाया। उस्मान ने भारतीय सेना में
ही रहने का फैसला किया। जिसके बाद उन्हें डोगरा रेजिमेंट में शिफ्ट कर दिया गया। साल
1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद कश्मीर आजाद रहना चाहता था। लेकिन पाकिस्तान
ने बेहद चालाकी से वहां घुसपैठ किया। पाकिस्तान की मंशा कश्मीर पर कब्जा करने की थी।
उस
दौरान कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद की गुहार लगाई। इसके बाद कश्मीर भारत
का हिस्सा बन गया। भारतीय सेना ने कश्मीर को बचाने के लिए अपने सैनिकों को श्रीनगर
भेज दिया। भारतीय सेना का पहला लक्ष्य पाकिस्तानियों से कश्मीर घाटी को बचाना था।भारतीय
सेना ने कश्मीर के आम इलाकों को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया।
वहीं,
पाकिस्तानी घुसपैठ करते हुए नौशेरा तक पहुंच गए थे। पाकिस्तानी फौज कश्मीर के कुछ हिस्सों
पर कब्जा कर चुकी थी। पुंछ में हजारों लोग फंसे हुए थे। जिन्हें निकालने का काम भारतीय
सेना कर रही थी। उस समय ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान 77वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल
रहे थे। वहां से उनको 50वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभालने के लिए भेजा गया। इस रेजिमेंट
को दिसंबर, 1947 में झांगर में तैनात किया गया था।
25
दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झांगर पर भी कब्जा कर लिया था। झांगर का पाक के
लिए सामरिक महत्व था। मीरपुर और कोटली से सड़कें आकर यहीं मिलती थीं। लेफ्टिनेंट जनरल
के. एम. करिअप्पा तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर
बनाया। लक्ष्य था – झांगर और पुंछ पर कब्जा करना।
कई
अन्य अधिकारियों के साथ ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भी कश्मीर में अपनी बटालियन का नेतृत्व
कर रहे थे। उस्मान के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था। दुश्मन गुफाओं में छिपकर भारतीय
सेना पर हमला कर रहे थे। उस्मान ने झांगर क्षेत्र को पाकिस्तानियों के कब्जे से आजाद
कराने की कसम खाई थी। जो उन्होंने पूरी भी की।

Brigadier Usman and Pdt. Jawahar lal Nehru (Then Prime Minister of India) 


उसके
बाद ऐसी बहादुरी दिखाई कि एक के बाद एक इलाके दुश्मन सेना के कब्जे से छुड़ा लाए। झांगर
हासिल करने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा को भी फतह कर लिया था। जिसके बाद से
उन्हें ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा।
उस्मान
की बहादुरी के आगे पाकिस्तानी सेना चारों खाने चित्त हो गई थी। ब्रिगेडियर उस्मान की
काबिलियत और कुशल रणनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके नेतृत्व में
भारतीय सेना को काफी कम नुकसान हुआ था।
जहां इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 1000 सैनिक
मारे गए, तो वहीं भारतीय सेना के सिर्फ 33 सैनिक शहीद हुए थे। ब्रिगेडियर अपनी बहादुरी
के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे। पाकिस्तान इतना बौखला गया
था कि उसने उस्मान के सिर पर 50 हजार रुपए का इनाम भी रख दिया।
पाक
सेना घात लगाकर बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने 6 बजे होंगे। उस्मान जैसे ही अपने
टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द
थे – हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाए। ब्रिगेडियर
उस्मान 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले शहीद हो गए। ब्रिगेडियर के पद पर रहते हुए देश
के लिए शहीद होने वाले उस्मान इकलौते भारतीय थे।

पाकिस्तान के करीब 50,000 कबायली घुसपैठियों
ने एक मस्जिद में शरण ले रखी थी। हमारे सैनिक एक धार्मिक इमारत पर हमला करने से हिचकिचा
रहे थे। जब यह बात उनको पता चली तो खुद वहां पहुंचे और हमला करने का आदेश दिया। उन्होंने
कहा कि जब घुसपैठियों ने इस पर कब्जा कर लिया तो अब यह इमारत धार्मिक नहीं रह गई।
उन्हीं की कुर्बानी का नतीजा है कि आज भी जम्मू-कश्मीर की घाटियां भारत
का अभिन्न अंग हैं। उनके जनाजे में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी शामिल हुए
थे। युद्ध में अनन्य वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान को
मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया।

उस्मान
अलग ही मिट्टी के बने थे। वह 12 दिन और जिए होते तो 36वां जन्मदिन मनाते। उन्होंने
शादी नहीं की थी। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
दूसरे
विश्व युद्ध के दौरान अफगानिस्तान और बर्मा तक वे गये थे। इसी कारण उन्हें कम उम्र
में ही पदोन्नति मिलती गयी और वे ब्रिगेडियर तक बने। अपने वेतन का हिस्सा गरीब बच्चों
की पढ़ाई और जरूरतमंदों पर खर्च करते थे। नौशेरा में 158 अनाथ बच्चे पाये गये थे। उनकी
देखभाल करते, उनको पढ़ाते।
जब-जब
भारतीय फौज की जवांमर्दी, वतनपरस्ती और पराक्रम का जिक्र होगा, मां भारती के सपूत ब्रिगेडियर
मोहम्मद उस्मान का नाम वरीयता की ऊंचाईयों में बड़े अदब के साथ याद किया जायेगा।
The End
Note:–Story of
Brigadier USMAN and photos are copied from sources avaplable on Net with
thanks.

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Engr. Maqbool Akram

Engr. Maqbool Akram

I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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