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अस्प-ए-लैला: महाराजा रणजीत सिंह की घोड़ी लैला —जिसके लिए भीषण युद्ध हुआ. लैला की खूबसूरती की चर्चा फारस-अफगानिस्तान तक: (Asp Laila: The horse of Maharaja Ranjit Singh for which 12,000 lives were at stake)

by Engr. Maqbool Akram
June 2, 2022
in Uncategorized
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19वीं सदी का 30वां साल। अंदरूनी शहर की सड़कों को रगड़–रगड़ कर दो दिन तक धोया जाना इशारा दे रहा था कि जिसे इन पर चलना है वो बहुत ही खास है। लाहौर तब पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी था।

 

19 साल की उम्र में जुलाई साल
1799
में लाहौर पर कब्जा करने के बाद अपने नाम ‘रणजीत‘ यानी ‘जंग के मैदान में जीत‘ की लाज रखते हुए गुजरांवाला का ये सिख जाट योद्धा अमृतसर, मुल्तान, दिल्ली, लद्दाख और पेशावर तक अपने साम्राज्य को फैला चुका था।

 

40 वर्ष तक पंजाब पर शासन करने वाले रणजीत सिंह पांव जमीन पर रखने के बजाय घुड़सवारी करना ज्यादा पसंद करते थे। उनके शाही अस्तबल में 12 हजार घोड़े थे और कहा जाता है कि उनमें से कोई भी 20 हजार रुपयों से कम कीमत में नहीं खरीदा गया था।

 

उनमें से एक हजार घोड़े सिर्फ महाराजा के लिए थे। वो थके बिना घंटों घुड़सवारी कर सकते थे। अगर कोई समस्या होती या गुस्सा होते तो अपने आप को संयमित रखने के लिए घुड़सवारी करते थे।

 

दो घोड़े हमेशा उनकी सवारी के लिए तैयार होते थे और घोड़े की पीठ पर बैठने पर उनका दिमाग खूब चलता। उन्हें मेहमानों से घोड़ों के विषय पर ही बात करना पसंद था और उनके दोस्त जानते थे कि अच्छी नस्ल का घोड़ा रणजीत सिंह की कमजोरी है।

 

यही वजह है कि अंग्रेज बादशाह ने जहां उन्हें स्कॉटिश घोड़े तोहफे में दिए तो हैदराबाद के निजाम ने बड़ी संख्या में अरबी नस्ल के घोड़े भिजवाए।

 

रणजीत सिंह ने अपने घोड़ों को नसीम, रूही और गौहर बार जैसे शायराना नाम दे रखे थे। खूबसूरत घोड़ों के तो वो जैसे दीवाने थे और उन्हें हासिल करने के लिए वो किसी भी हद तक जा सकते थे।

 

इसका उदाहरण झंग के एक नवाब से घोड़ों की मांग और इनकार पर होने वाली कार्रवाई है। महाराजा को कहीं से पता चला कि झंग के नवाब के पास बहुत अच्छे घोड़े हैं। उन्होंने संदेश भिजवाया कि उनमें से कुछ घोड़े तोहफे में दिए जाएं।

 

नवाब ने इस बात का मजाक उड़ाते हुए घोड़े देने से मना कर दिया तो रणजीत सिंह ने हमला करके नवाब के इलाके पर कब्जा कर लिया। नवाब उस समय तो घोड़ों को लेकर फरार हो गया, लेकिन कुछ दिनों बाद वापस आया और उन्हें महाराजा की सेवा में पेश कर दिया।

Maharaja Ranjit Singh

अस्प–ए–लैला की खूबसूरती की चर्चा फारस–अफगानिस्तान तक

ऐसा ही कुछ ‘शीरीं‘ नामक घोड़े के लिए हुआ जब शहजादा खड़क सिंह की कमान में फौज की चढ़ाई हुई और उसके (शीरीं) मालिक शेर खान ने दस हजार रुपये वार्षिक की जागीर के बदले ये घोड़ा रणजीत सिंह को देना मंजूर किया।

 

तेज रफ्तार ‘सफेद परी‘ नाम की घोड़ी मुनकिरा के नवाब के पास थी। रणजीत सिंह का दिल उस पर आया तो अपने जनरल मिश्र चांद दीवान को लिखा कि वो नवाब से घोड़ा मांगें और अगर वो मना करे तो उनकी जायदाद छीन ली जाए।

 

लाहौर के
जिन रास्तों की सफाई का जिक्र लेख के शुरू में हुआ है वो भी एक घोड़ी के लिए सजाये जा रहे थे। ताकि कहीं ऐसा न हो कि अस्प–ए–लैला (घोड़ों की लैला) कहलाए जाने वाले महाराजा के इस पसंदीदा जानवर के नथनों में मिट्टी का कोई कण चला जाए।

 

लैला थी भी तो खूबसूरती में बेमिसाल लेकिन महाराजा का इसे पाने का जज्बा भी उतना ही ज्यादा था। उस घोड़ी की खूबसूरती की चर्चा फारस और अफगानिस्तान तक थी।

 

अस्प-ए-लैला  के मालिक पेशावर के शासक यार मोहम्मद थे जो रणजीत सिंह के लिए टैक्स वसूलते थे।

 

 वो इस घोड़ी के लिए शाह ईरान फतेह अली खान काचारी की पचास हज़ार रुपये नगद और पचास हजार रुपये वार्षिक जागीर और रूम के सुलतान की पेशकश ठुकरा चुके थे।

 

अस्प-ए-लैला  के लिए युद्ध

जब पेशावर रणजीत सिंह के अधीन हुआ तो उन्हें लैला के बारे में नहीं पता था, लेकिन जब 1823 में उन्हें इसकी खबर मिली तो वो ‘मजनूं‘ हो गए। रणजीत सिंह ने घोड़ी के बारे में छानबीन करने के लिए एक पूरी टीम बना दी।

 

कुछ ने कहा कि घोड़ी पेशावर में है जबकि दूसरों के अनुसार ये पता चलते ही कि महाराजा रणजीत सिंह की दिलचस्पी इस घोड़ी में है उसे काबुल भिजवा दिया गया था। 

ये सूचना मिलते ही महाराजा ने अपने खास दूत फकीर अजीज़ुद्दीन को पेशावर भेजा। वो वापसी पर तोहफे में कुछ अच्छे घोड़े साथ लाए, लेकिन लैला उनमें शामिल नहीं थी, क्योंकि यार मोहम्मद ने रणजीत सिंह के दूत को बताया था कि उनके पास वो घोड़ी नहीं है।

 

रणजीत सिंह को यकीन था कि यार मोहम्मद झूठ बोल रहे हैं। यार मोहम्मद का 12 वर्षीय बेटा महाराजा के दरबार में था। एक बार उसने महाराजा के किसी घोड़े का पीछा लैला से किया था। महाराजा ने पूछा, क्या लैला जिंदा है तो लड़के ने जवाब दिया: हां बिलकुल।

 

यार
मोहम्मद ने अपनी घोड़ी रणजीत सिंह के हवाले करना स्वीकार नहीं किया और सैयद अहमद बरेलवी से जा मिले जो उस समय महाराजा से युद्ध कर रहे थे। साल 1826 में बुध सिंह सिंधरी वालिया के नेतृत्व में एक सिख फौज सैयद अहमद से निपटने और घोड़ी लेने के लिए पेशावर जा पहुंची।

हुक्म था कि कुछ भी हो जाए, घोड़ी हर कीमत पर लाहौर दरबार पहुंचनी चाहिए। उस समय एक खूनी जंग हुई, जिसमें हजारों लोग मारे गए। बुध सिंह को भी यार मोहम्मद ने घोड़े तोहफे में दिए, मगर लैला के बारे में फिर बताया कि वो तो मर चुकी है। लेकिन रणजीत सिंह के जासूसों को खबर थी कि घोड़ी जिंदा है।

 

महाराजा ने गुस्से में शहजादे खड़क सिंह के नेतृत्व में एक और अभियान शुरू किया। फ्रांसीसी जरनल वैन्टोरा जो पहले नेपोलियन की फौज में थे और अब महाराजा के खास विश्वसनीय बन चुके थे, इस अभियान का अहम हिस्सा थे, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि उनके पेशावर पहुंचने से पहले ही, यार मोहम्मद को उनके कबीले वालों ने ही घोड़ी पर लड़ने की वजह से मार दिया था।

 

और कुछ कहावतें ऐसी भी हैं, जो यार मोहम्मद की पहाड़ों में गुम हो जाने की बात करती हैं। जो भी हो उनकी जगह उनके भाई सुल्तान मोहम्मद ने ले ली। इस अभियान में लाहौर दरबार ने जीत हासिल की। जब सुल्तान मोहम्मद से जनरल वेन्टोरा ने लैला की मांग की तो उन्हें भी यही बताया गया कि लैला मर चुकी है।

 

लेकिन वेन्टोरा ने नए शासक को उन्हीं के महल में कैद कर दिया और चेतावनी दी कि 24 घंटों के अंदर उनका सिर कलम कर दिया जाएगा। तब जाकर सुल्तान मोहम्मद घोड़ी उनके हवाले करने पर राजी हुए, लेकिन इतिहासकारों के अनुसार ऐसा करते हुए वो ‘एक बच्चे की तरह बिलख–बिलख कर रोए।‘

पेशावर से अस्प–ए–लैला को फौरन एक खास गाड़ी में 500 फौजियों की सुरक्षा में लाहौर रवाना किया गया।

ये बादामी बाग और किले के आस–पास धुली–धुलाई सड़कों से गुजरती पश्चिमी अकबरी दरवाजे पर लाहौर पहुंची। ये साल 1830 की घटना है, यानी पहली खबर से पहली झलक तक की यात्रा सात साल की रही। लैला के आने पर सिख राजधानी में जश्न का माहौल था, क्योंकि महाराजा का सपना एक अरसे के बाद पूरा हो रहा था।

 

सर लेपल हैनरी ग्रिफिन के अनुसार, रणजीत सिंह ने जर्मन पर्यटक बैरन चार्ल्स हेगल को खुद बताया कि 60 लाख रुपये और 12 हजार फौजी इस घोड़ी को पाने में काम आए। उपन्यासकार एंडो सैंडरसन लिखती हैं कि रणजीत सिंह किसी भी घोड़े पर बैठते तो उनका व्यक्तित्व ही बदल जाता। ऐसा लगता कि वो और जानवर एक हो गए हैं।

 

लैला चाहे अपनी जवानी वाली घोड़ी नहीं रही थी, लेकिन रणजीत सिंह का इससे प्यार वहीं का वहीं था और लैला के मरने पर महाराजा इतना रोये कि चुप करवाना मुश्किल हुआ। लैला को राजकीय सम्मान के साथ इक्कीस तोपों की सलामी के साथ दफन किया गया।

 

लैला को हासिल करके रणजीत सिंह इतने खुश थे कि उन्होंने 105 कैरेट का कोह–ए–नूर का हीरा जिसे वो अपने बाजू पर पहनते थे, लाखों रुपये के दूसरे आभूषणों के साथ घोड़ी को पहनाया। बाद में भी खास अवसरों पर ऐसा होता रहा।

 

गले में ऐसे छल्ले पहनाए गए जिन पर कीमती पत्थर जड़े होते थे। उसकी काठी और लगाम भी गहनों से जग–मग करती थी।

उस
समय के बड़े शायर कादिर यार ने लैला की तारीफ में नज्म कही और महाराजा से बहुत सारा इनाम पाया। जनरल वेन्टोरा को लैला लाने पर दो हजार का कीमती लिबास दिया गया और यार मोहम्मद के बेटे को भी आजाद कर दिया गया।

इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद हैं कि लैला घोड़ी थी या ये नाम घोड़े का था।

 उनका कहना है नाम से तो ये घोड़ी लगती है मगर साथ ही वो डब्ल्यू जी ओस्बोर्न के हवाले से रणजीत सिंह की ये बात उद्धृत करते हैं, ‘मैंने इससे अधिक पूरा जानवर नहीं देखा। मैं जितना ज्यादा लैला को देखता हूं उतना ही ज्यादा वो मुझे शानदार और जहीन लगता है।‘

 

क्योंकि सर ग्रिफिन समेत अधिकतर संदर्भ में लैला का उल्लेख घोड़ी के तौर पर हुआ है, इसलिए यहां जिक्र स्त्री लिंग के तौर पर है। सर ग्रिफिन का कहना है कि सिख रिकॉर्ड्स के अनुसार लैला घोड़ी थी और नाम से भी ऐसा ही महसूस होता है।

 

लैला मजबूत जिस्म, लंबे कद और फुर्तीली घोड़ी थी। हैगल ने ये घोड़ी शाही अस्तबल में देखी। वो कहते हैं, ‘ये महाराजा की बेहतरीन घोड़ी है। घुटनों पर गोल–गोल सोने की चूड़ियां हैं, गहरा सुरमई रंग है, काली टांगें हैं, पूरे सोलह हाथ लंबा कद है।‘

 

ऐमी ऐडन का कहना है कि महाराजा को लैला इतनी पसंद थी कि कभी–कभी धूप में भी उसकी गर्दन सहलाने और उसकी टांगें दबवाने चले जाते।

लैला के किसी जंग में इस्तेमाल का तो उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन ये उल्लेख जरूर मिलता है कि महाराजा ने ये घोड़ी और अपनी घुड़सवारी के कमाल 1831 में रोपड़ में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटेक को दिखाए।

 

उन्होंने
बहुत तेज रफ्तारी से लैला को भगाते हुए पांच बार अपने भाले की नोक से पीतल का एक बर्तन उठाया। देखने वालों ने बहुत ही तारीफें कीं तो महाराजा ने बढ़कर लैला का मुंह चूम लिया।

 

लैला के लिए बेटे को
शेर सिंह को जायदाद से बेदखल करने जा रहे थे

लेखक करतार सिंह दुग्गल के अनुसार, रणजीत सिंह लैला को इतना पसंद करते थे कि उन्होंने अपने बेटे शेर सिंह को लैला पर बिना इजाजत सवारी करने की वजह से लगभग बेदखल ही कर दिया था। रणजीत सिंह ने अपने खास वफादार फकीर अजीजुद्दीन से कहा कि वो शेर सिंह को जायदाद से बेदखल करने जा रहे हैं।

फकीर ने जवाब में पंजाबी में कहा, ‘जी अहोइ सजा बनदी अ. शेर सिंह ने की समझिया इ लैला ओहदे पियों दा माल अ? (बिलकुल यही सजा बनती है। शेर सिंह ने क्या समझा है कि लैला उसके बाप का माल है)।‘ महाराजा ये जवाब सुनकर हंस पड़े और शेर सिंह को माफ कर दिया।

 

सर विलियम ली वॉर्नर एक घटना के बारे में बताते हैं कि कैसे एक मुलाकात में महाराजा ने गवर्नर जनरल को दूसरे घोड़ों के अलावा लैला भी दिखाई। महाराजा ने लैला को थोड़ा चलाने–फिराने के बाद तरंग में आकर मेहमान को तोहफे में देने की पेशकश की।

 

गवर्नर जनरल को लैला से महाराजा के प्यार का पता था, इसीलिए उन्होंने पहले तो ये तोहफा स्वीकार कर लिया और फिर एक और लगाम मंगवाकर घोड़ी पर डाल कर रणजीत सिंह से कहा कि वो इसे उनकी दोस्ती और इज्जत के सबूत के तौर पर वापस स्वीकार कर लें।

 

विलियम ली वॉर्नर के अनुसार, फिर लैला शाही अस्तबल की तरफ वापस जा रही थी और महाराजा की खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी।

 

रणजीत सिंह पर फालिज का अटैक हुआ तो कहा जाता है कि जब उन्हें लैला पर बैठाया जाता तो उनकी हालत अच्छी हो जाती और ऐसा लगता जैसे वो बीमार ही नहीं, अपने होशोहवास में लौट आते। लैला ही आखिरी घोड़ी थी, जिस पर महाराजा सवार हुए।

 

विलियम बार ने लैला को उसके आखिरी दिनों में देखा।

उनका कहना है, ‘हमारा उद्देश्य ये था कि उस घोड़ी को देखा जाए कि जिसे पाने के लिए महाराजा ने पैसे और जानों की कुर्बानी दीं। जब उसे हमारे सामने लाया गया तो हमें मायूसी हुई। अगर वो अच्छी हालत में होती तो खूबसूरत लगती। अच्छी खुराक लेकिन कम वर्जिश की वजह से उस पर चर्बी चढ़ चुकी थी।‘

 

लैला चाहे अपनी जवानी वाली घोड़ी नहीं रही थी, लेकिन रणजीत सिंह का इससे प्यार वहीं का वहीं था और लैला के मरने पर महाराजा इतना रोये कि चुप करवाना मुश्किल हुआ। लैला को राजकीय सम्मान के साथ इक्कीस तोपों की सलामी के साथ दफन किया गया।


महाराजा के बेटे दिलीप सिंह की दो बेटियों में से एक का नाम बिम्बा था, जिसने सदरलैंड से शादी की थी। उम्र के आखिरी समय में बिम्बा ब्रिटेन से लाहौर शिफ्ट हो गईं। वो खुद को महाराजा रणजीत सिंह की इकलौती वारिस समझती थीं और विरासत में उन्हें रणजीत सिंह की भुस–भरी घोड़ी लैला और उसका हीरों से साजो सामान मिला।

 

बिम्बा
ने साल 1957 में मौत से पहले अपनी अधिकतर विरासत पाकिस्तान सरकार को सौंप दी ताकि उसकी देखभाल की जा सके।

 

लेखक मुस्तनसीर हुसैन तराड़ के अनुसार, इसी दौरान रहस्यमय तरीके लैला का हीरों से साजो सामान चोरी हो गया, लेकिन लैला का भुस–भरा अस्तित्व और रणजीत सिंह के साथ उस एतिहासिक घोड़ी की तस्वीर लाहौर के संग्रहालय की सिख गैलेरी में मौजूद है और देखने वालों को इंसान और जानवर के प्यार की कहानी सुनाते हैं।

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up
with help of materials and images available on net. Images on this blog are
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of original writers. The copyright of these materials are with the respective
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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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