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नैना जोगिन–गांव की एक दबंग लड़की: (लेखक: फणीश्वरनाथ रेणु)

by Engr. Maqbool Akram
September 14, 2021
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नाम तो उसका रतनी है, पर गांव में लोग उसे नैना जोगिन कहते हैं. पूरे गांव में उसका खौफ़ है. वह सरे आम किसी को भी गाली दे देती है, पर कोई कुछ पलटकर कहने की हिम्मत नहीं कर पाता. पर क्या नैना जोगिन की सिर्फ़ यही कहानी है? नहीं, इस चेहरे के पीछे भी एक चेहरा है, फणीश्वरनाथ रेणु की इस कहानी की नायिका का.

 

रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को ‘कोंचा’ की जल्दी से नीचे गिरा लिया. सदा साइरेन की तरह गूंजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई. साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका ‘आंचर’ भी उड़ गया.

 

उस संकरी पगडंडी पर, जिसके दोनों और झरबेरी के कांटेदार बाड़े लगे हों, अपनी ‘भलमनसाहत’दिखलाने के लिए गरदन झुका कर, आंख मूंद लेने के अलावा बस एक ही उपाय था. मैंने वही किया. अर्थात पलट गया. मेरे पीछे–पीछे रतनी ने अपने उघड़े हुए ‘तन–बदन’
को ढंक लिया और उसके कंठ में लटकी हुई एक उग्र–अश्लील गाली पटाके की तरह फूट पड़ी.मैं लौट कर अपने दरवाज़े पर आ गया और बैठ कर रतनी की गालियां सुनने लगा.

नहीं, वह मुझे गाली नहीं दे रही थी. जिसकी बकरियों ने उसके ‘पाट’ का सत्यानाश किया है, उन बकरीवालियों को गालियां दे रही है वह. सारा गांव, गांव के बूढ़े–बच्चे–जवान, औरत–मर्द उसकी गालियां सुन रहे हैं. लेकिन… लेकिन क्यों, शायद सच ही, उनके सुनने और मेरे सुनने में फ़र्क़ है.

 मैं ‘सचेतन रुपेण’ अर्थात जिस तरह रेडियो से प्रसारित महत्वपूर्ण वार्ताएं सुनता हूं, इन गालियों को सुन रहा हूं. कान में उंगली डालने के ठीक विपरीत… एक–एक गाली को कान में डाल रहा हूं. उसकी एक–एक गाली नंगी, अश्लील तसवीर बनाती है ‘ब्लू फिल्मों के दृश्य.

 Pharanvis Renu

 

…उदाहरण? उदाहरण दे कर ‘थाना–पुलिस–अदालत–फौजदारी’ को न्योतना नहीं चाहता.रमेसर की मां ने टोका शायद.

 

गांव–भर की बकरीवालियों को सार्वजनिक गालियां दागने के बाद रतनी ने रमेसर की मां के ‘प्रजास्थान’ को लक्ष्य करके एक महास्थूल गाली दी. रमेसर की मां ने टोका,‘पहले खेत में चल कर देखो. एक भी पत्ती जो कहीं चरी हो….’

 

 रतनी अब तक इसी टोक की प्रतीक्षा में थी, शायद. अब उसकी बोली लयबद्ध हो गई. वह प्रत्येक शब्द पर विशेष बल दे कर, हाथ और उंगलियों से भाव बतला कर कहने लगी कि ‘वह पाट के खेत में जा कर क्या देखेगी, अपना…?’ (भले घर की लड़की होती तो कहती ‘अपना सिर’, किंतु रतनी सिर के बदले में अपने अन्य हिस्से का नाम लेती है.)

 

इसके बाद बहुत देर तक रतनी की बातें सुनता रहा. …लेकिन उन्हें लिख नहीं सकता. वारंट का डर है.

 

किंतु, रतनी के बारे में अब कुछ नहीं लिखा गया तो जीवन में कभी नहीं लिखा जाएगा. क्योंकि रतनी की गालियों में मर्माहत और अपमानित करने के अलावा उत्तेजित करने की तीव्र शक्ति है–यह मैं हलफ़ ले कर कह सकता हूं.

 

रतनी का नाम ‘नैना जोगिन’ मैंने ही दिया था, एक दिन. तब वह सात–आठ साल की रही होगी. …नैना जोगिन? देहात में झाड़–फूंक करनेवाले ओझा–गुणियों के हर ‘मंतर’ के अंतिम आखर में बंधन लगाते हुए कहा जाता है–दुहाए इस्सर महादेव गौरा पारबती, नैना जोगिन… इत्यादि. लगता है, कोई नैना जोगिन नाम की भैरवी ने इन मंत्रों को सिद्ध किया था.

 

…सात साल की उम्र में ही रतनी ने गांव के एक धनी, प्रतिष्ठित वृद्ध को ‘फिलचक्कर’ में डाल दिया था. उसकी बेवा मां, वृद्ध की हवेली की नौकरानी थी. पंचायत में सात साल की रतनी ने अपना बयान जिस बुलंदी और विस्तार से दिया था, कोई जन्मजात नैना जोगिन ही दे सकती थी.

Pharanvis Renu

 अब तो उसकी जामुन की तरह कजराई आंखें भी उसके नाम को सार्थक करती हैं, किंतु सात साल की उम्र में ही इलाक़े में कहर मचानेवाली लड़की से आंख मिलाने की ताकत गांव के किसी बहके हुए नौजवान में भी नहीं हुई कभी. उसको देखते ही आंखों के सामने पंचायत, थाना, पुलिस, फौजदारी, अदालत, जेल नाचने लगते.

 

…रतनी की मां सरकारी वक़ील को भी क़ानून सिखा आई है. …बहस कर आई है सेशन–कोर्ट में.

 

सो, पिछले ग्यारह वर्षों में रतनी की मां ने मुंह के ज़ोर से ही पंद्रह एकड़ जमीन ‘अरजा’ है. पिछवाड़े में लीची के पेड़ हैं, दरवाजे पर नींबू. सूद पर रुपए लगाती है. ‘दस पैसा’ हाथ में है और घर में अनाज भी. इसलिए अब गांव की ज़मींदारिन भी है वही.

 

 गांव के पुराने ज़मींदार और मालिक जब किसी रैयत पर नाराज़ होते तो इसी तरहग़ुस्सा उतारते थे. यानी उसकी बकरी, गाय वगैरह को परती ज़मीन पर से ही हांक कर दरवाज़े पर ले आते थे और गालियां देते, मार–पीट करते और अंगूठे का निशान ले कर ही ख़ुश होते थे.

 

रमेसर की मां कल हाट जाते समय लीची की टोकरी नहीं ले गई ढो कर, इसलिए रतनी और रतनी की मां ने आज इस झगड़े का ‘सिरजन’ किया है–जान–बूझ कर.

 

रमेसर का बाप मेरा हलवाहा है. रमेसर हमारे भैंसों का रखवाला यानी ‘भैंसवार’ है. रमेसर की मां हमारे घर बर्तन–बासन मांजती है, धान कूटती है. इसलिए रतना अब अपनी गालियों का मुख धीरे–धीरे हमारी ओर करने लगी,‘तू किसका डर दिखलाती है? सहर से आए भतार का? रोज मांस–मछली और ‘ब्रांडिल’ पी कर तेरे (प्रजास्थान में) तेल बढ़ गया है. एं…?

 

मुझे अचानक रमेसर की मां की गंदी–हल्दी–प्याज़–लहसन पसीना–मैल की सम्मिलित गंध–भरी साड़ी की महक लगी. लगा, अब रतनी मुझे बेपर्द करेगी. नंगा करेगी. ख़ुद अपने को उसने पिछले एक घंटे में साठ बार नंगा किया है अर्थात जब–जब उसने गाली का रुख़ हमारी ओर किया, हर बार यह कहना ना भूली कि रमेसर की मां जिसका डर दिखलाती है वह ‘मुनसा’ (व्यक्ति.) रतनी का ‘अथि’ भी नहीं उखाड़ सकता.

 

…ऐसे–ऐसे ‘मद्दकी मुनसा’ को वह अपने ‘अथि’ में दाहिने–बाएं बांध रखेगी. …बगुला–पंखी धोती–कुरता और घड़ी–छड़ी–जूतावाले शहरी छैलचिकनियां लोग ऊपर से लकदक और भीतर फोक होते हैं. …सफाचट मोंछ मुंडाए मुछमुंडा लोगों की सूरत देख कर भूलनेवाली बेटी नहीं रतनी. …रतनी की मां को इसका गुमान है कि बड़े–बड़े वकील–मुख्तार के बेटों को देख कर भी उसकी बेटी की ‘अथि’अर्थात जीभ नहीं पनियायी कभी. डकार भी नहीं किया.

 

रतनी अपने आंगन से निकल आई थी. रमेसर की मां ने कोई जवाब दिया होगा शायद. अब रतनी और रतनी की मां दोनों मिल कर नाचने लगीं. उसका घर दरवाज़े से दस रस्सी दूर है, लेकिन सामने है.

 

मैं रतनी और रतनी की मां का नाच देखने को बाध्य था. रतनी की काव्य–प्रतिभा ने मुझे अचंभे में डाल दिया. उसकी टटकी और तुरत रची हुई पंक्तियों में वह सब कुछ था जो कविता में होता है–बिंब, प्रतीक, व्यंग्य तथा गंध.

 

बतौर बानगी–अटना का साहब और पटना की मेम, रात खाए मुरगी और सुबह करे नेम, तेरा झुमका और नथिया और साबुन महकौवा–तू पान में जरदा खाए नखलौवा….

 

रतनी और रतनी की मां की यह काव्य–नाटिका समाप्त हुई तो मैंने दरवाज़े पर बैठे–गांव के दो–तीन नौजवानों की ओर देखा. मेरा चेहरा तमतमाया हुआ था, किंतु वे निर्विकार और निर्मल मुद्रा में थे. परिवार तथा ‘पट्टीदार’ के ‘मर्द पुरुषों’ की ओर देखा, वे पान चबा रहे थे, हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे.

 

लगता था, इन लोगों ने रतनी की गालियां सुनी ही नहीं. मैंने जब भोजन के समय बात चलाई तो परिवार के एक व्यक्ति ने (जिन्हें शहर के नाम से ही जड़ैया बुखार धर दबाता है) हंस कर कहा,‘शहर से आने के बाद आप कुछ दिन तक ऐसी असभ्यता ही करेंगे, यह हमें मालूम है.

 

इन छोटे लोगों की गाली पर इस तरह ध्यान कोई भलामानुस नहीं देता. इस तरह गालियों के अर्थ को प्याज के छिलके की तरह उतार–उतार कर समझने का क्या मतलब? शहर में क्या औरतें गाली नहीं देतीं?’

 

अजब इंसाफ है–गाली सुन कर समझना अन्याय है. असभ्यता है. मन में मैल है मेरे?

 

अश्लील और घिनौने मुकदमे के कारण रतनी की बदनामी बचपन से ही फैलती गई. जवान हुई तो बदनामियां भी जवान हुईं. फलत: गांव के हिसाब से ‘पक’ जाने पर भी कोई दूल्हा नहीं मिला. मिलता भी तो ‘घर–जमाई’ हो कर नहीं रहना चाहता था.

 

दो साल हुए, निमोंछिया जवान न जाने किस गांव से आया सांझ में और रात में भात खाने के लिए घर के अंदर गया तो रतनी की मां एक हाथ में सिंदूर की पुड़िया और दूसरे में फरसा लेकर खड़ी थी–‘छदोड़ी की सीथ में सिंदूर डालो, नहीं तो अभी हल्ला करती हूं, घर में चोर घुसा है.’…तो सींकिया नौजवान जो हर सुबह को शीशम की कोमल पत्तियां तोड़ कर ले जाता है, वही है रतनी का रतन–धन.

 

पूछताछ करने पर पता चला कि हाल ही में एक रात को रतनी ने इसको लात से मारा, घर से निकाल कर चिल्लाने लगी,‘पूछे कोई इससे कि इतना दूध, मलाई, दही, मांस–मछली, कबूतर तिस पर ‘धात–पुष्टई’
दवा, तो अलान–ढेकान खा कर भी जिस ‘मर्द’
को आधी रात को हंफनी सुरु हो, उसका क्या कहा जाए? लोग ‘दोख’
देते हैं मेरे कोख को, कि रतनी बांझ है. निमकहराम और किसको कहते हैं?’

 

मैं अब इसे मानसिक विकार मानने लगा हूं. अब तक ‘सामाजिक’ समझ रहा था कि छोटी जात की औरत गांव की मालकिन हुई है….

 

नहीं, सामाजिक भी है. मेरे पट्टीदार के एक भाई ने कहा,‘कोई उसका क्या बिगाड़ सकता है. गांव के सभी किस्म के चोर अर्थात लती–पती और सिन्नाजोर दिन डूबते ही उसके आंगन में जमा हो जाते हैं. इलाके का मशहूर डकैत परमेसरा रतनी की बात पर उठता–बैठता है.

 

मुखिया और सरपंच रतनी की मां के खिलाफ चूं भी नहीं कर सकते. …रतनी की मां से कोई ‘रार’ मोल नहीं लेना चाहता इसीलिए, दिन–भर गांव के हर टोले में दोनों घूम–घूम कर झगड़ा करती फिरती है. …रतनी अकेली खस्सी (बकरे) को जिबह कर देती है, रतनी की मां चोरी का माल खरीदती है– थाली–लोटा–गिलास….’

 

सुबह को मालूम हुआ, शहर से आया हुआ मेरा प्रेस्टिज प्रेशर कुकर ग़ायब है. दोपहर के बाद धोती गुम. रात में रमेसर की मां फिसफिसा कर आंगन में कह रही थी,‘रतनी बोलती थी कि ‘सिध’ करके छोड़ेगी इस बार. …उस दिन इस तरह पीठ दिखाना अच्छा नहीं हुआ शायद.’

 

और यह सब इसलिए कि मैंने रतनी के तथाकथित ‘पुरुष’ को बुला कर उसका पता–ठिकाना पूछा था, और उसको समझाया था कि गांव में अब एक नई बात चल पड़ी है. उसने बीवी की मार सह ली–नतीजा यह हुआ है कि कई औरतों ने अपने घरवालों को पीटा इस गांव में….

 

रतनी ने चिल्ला–चिल्ला कर सारे गांव के लोगों को सूचना देने के लहजे से सुनाया था,‘सुन लो हो लोगों. अब इस गांव में फिर एक सेसन मोकदमा उठेगा सो जान लो. ई सहर का कानून यहां छांटने आया है. कोई अपने घरवाले को लात मारे या ‘चुम्मा’ ले, दूसरा कोई बोलनेवाला कौन? देहात से ले कर सहर तक तो ‘छुछुआते’ फिरता है, काहे न कोई ‘मौगी’ मुंह में चुम्मा लेती है?’

 

मैं रोज़ हारता, रतनी रोज़ जीतती. मुझे स्वजनों ने सतर्क किया–सांझ होने के पहले ही मैदान से घर लौट आया करूं. किसी ने शहर लौट जाने की सलाह दी. मुझे लगता, रोज ताल ठोक कर एक नंगी औरत–पहलवान मुझे चुनौती देती है. थप्पड़–घूंसे चलाती है. भागूंगा तो गांव की सीमा के बाहर तक पीछे–पीछे फटा कनस्तर पीटती और बकरे की तरह ‘बो बो बो बो’ करती जाएगी, गांव–भर के लोग तालियां बजा कर हंसेंगे.

 

मुझे हथियार डाल देना चाहिए. एक औरत, सो भी ऐसी औरत से टकराना बुद्धिमानी नहीं. एक सप्ताह तक चोरी–चपाटी करवाने के बाद एक नया उत्पात शुरू किया. रात–भर हमारे दरवाज़े और आंगन में हड्डियों की ‘बरखा’ होती. …नंगी औरत ताल ठोक कर ललकार रही है–मर्द का बेटा है तो मैदान में आ…

 

मैदान में मुझे उतरना ही पड़ा. रात में नींद खुली. दरवाज़े के सामने जो नया बाग़ हम लोगों ने लगाया है, उसमें भैंस का बच्चा घुस गया है, शायद. मैं धीरे–धीरे बाड़े के पास गया. पट्ट….

 

अमलतास के कोमल पौधे को तोड़ कर, गुलमोहर की ओर बढ़ते हुए हाथ को मैंने ‘खप्प’ से पकड़ा. कलम–घिसाई के बावजूद पंजे की पकड़ में अब तक खम बचा हुआ था. …‘क्यों?’ मैंने बहुत धीरे से पूछा.

 

‘छोड़िए.’ जवाब भी उसी अंदाज में मिला.

‘क्यों तोड़ा है? क्या मिला? क्यों?’

‘तोड़ा तो क्या कर लीजिएगा?’

‘मैं लोगों को पुकारता हूं.’

‘खुद फंस जाइएगा. …हाथ छोड़िए.’

‘फंसा के देखो. मैं नहीं डरता हूं.’

‘क्या चाहते है आप?’

‘मैं जानना चाहता हूं कि तुम… तुम इस तरह मेरे पीछे क्यों पड़ी हो? इस पौधे को क्यों तोड़ा है?’

 

‘वह
तो पौधा ही है. जी तो आप को ही तोड़ देने को करता है. …हाथ छोड़िए.’ मैंने देखा उसकी कनपटी पर एक सांप का फण–फण नहीं, भाला. बरछे की फली. मैंने हाथ छोड़ दिया. वह भागी नहीं, खड़ी रही. मुझे चुप और अवाक देख कर बोली,‘चिल्लाऊं?’

 

‘कोढ़ी डरावे थूक से.’

रतनी हंसी. तारों की रोशनी में उसकी हंसी झिलमिलाई.

‘जाइए, थोड़ा ‘ब्रांडिल’और चढ़ाइए.’

‘तुम–तुम नैना जोगिन….’

 

‘हां, नैना जोगिन ही हूं. तब? माधो बाबू… अब रतनी करीब सट आई,‘मेरा क्या कसूर है जो बारह साल से बनवास दिए हुए हैं आप लोग. उस बूढ़े को करनी का फल चखाया तो क्या बेजा किया?

 

मैं उस समय उसकी पोती की उम्र की थी. …सो, आप लोगों ने खासकर आप दोनों भाइयो ने हम लोगों को ‘रंडी’ से बदतर कर दिया. …आखिर आपके जन्म के दिन रतनी की मां ही सौर–घर में थी–पांच साल तक आप रतनी की मां की गोद और आंचर में रहे, और आप की आंख में जरा भी पानी नहीं.

 

…मैं जवान हुई, आप लोगों ने आंख उठा कर कभी देखा नहीं कि आखिर गांव–घर की एक लड़की ऐसी जवान हो गई और शादी क्यों नहीं होती? …अब इस बार आए हैं तो कभी आपके मन में यह नहीं हुआ कि रतनी की शादी हुए ढाई साल हो रहे हैं और रतनी को कोई बच्चा क्यों न हुआ?

 

अटना–पटना–दिल्ली–दरभंगा में आपके इतने डागडर–डागडरनी जान–पहचान के हैं–आखिर, रतनी के मां का दूध साल–भर तक पिया है आपने. रतनी की मां को बहुत दिन तक आपने मां कहा था, लोगों को याद है. …दूध का भी एक संबंध होता है.’

 

मैंने कहा,‘रतनी. रमेसर जग रहा है….मैं कुछ नहीं समझता. तुम जाओ. कोई देख लेगा.’

‘देख कर क्या कर लेगा?’

 

रतनी ने बेलाग–बेलौस एक अश्लील बात अंधेरे में, आग की तरह उगल दी,‘देख कर आपका ‘अथि’ और मेरा ‘अथि’ उखाड़ लेगा? …बोलिए, मैं पापिन हूं? मैं अछूत हूं? रंडी हूं? जो भी हूं, आपकी हवेली में पली हूं… तकदीर का फेर… माधो बाबू… रतनी नाम भी आपके ही बाबू जी का दिया है.

 

आपने उसको बिगाड़ कर नैना जोगिन दिया. किस कसूर पर? आप लोगों का क्या बिगाड़ा था रतनी की मां ने जो इस तरह बोल–चाल, उठ–बैठ एकदम बंद.’

 

मैंने धीरे से कहा,‘ऐसे गांव में अब कोई भला आदमी कैसे रह सकता है?’

लगा, नागिन को ठेस लगी, फुफकार उठी,‘भला–आदमी? भला आदमी? भला आदमी को ‘पूछ–सिंग’
होता है?’

‘नहीं
होता है. इसीलिए….’

 

पूछ–सिंग…
जानवर…
औरत–मर्द…
नंगे…
बेपर्द…
अंधकार…
प्रकाश…
गुर्राहट…
आंखों की चमक…
बड़े–बड़े नाखून…
बिल्ली…
शिवा…
गॄद्धासया…
योनिस्या भगिनी…
भोगिनी…
महांकुश…
स्वरूप…
छिन्नमस्ता
अट्टहास….अट्टहास सुन कर चौंका–रतनी कहां है? वह तो साक्षात नील सरस्वती थी.

 

इस बार गांव में, गांव के आसपास, यह ख़बर बहुत तेज़ी से फैली की नैना जोगिन का ‘जोग’ माधो बाबू पर ख़ूब ठिकाने से लगा है. …रमेसर की मां को एक दिन खोई हुई चीज़ें टोकरी में मिलीं–घर में ही. रतनी ने माधो बाबू को ‘भेड़ा’ बनाया है तो माधो बाबू ने रतनी का ‘विषदंत’ उखाड़ दिया है. बोले तो एक भी गाली–गंदी या अच्छी?

 

रतनी और उसके नामर्द मर्द को मैं अपने साथ शहर लेता आया हूं. डॉक्टर को अचरज होता है कि मैं रतनी के लिए इतना चिंतित क्यों हूं. उन्हें कैसे समझाऊं कि यदि रतनी को कोई बच्चा नहीं हुआ तो वह… वह मेरे बाग के हर पौधे तोड़ देगी, गांव के सभी पेड़–पौधे को तोड़ देगी, गांव के सभी लोगों को तोड़ेगी, गांव में हड्डियां बरसावेगी, नंगी नाचेगी, अश्लील गालियां देती हुई सभी को ललकारेगी.

 

वह सांवली–सलोनी लंबी स्वरूप पूर्ण यौवना नैना जोगिन. जांच–पड़ताल के समय जब रतनी की लंबाई नापी जाती है, वज़न लिया जाता है, पेट टटोला जाता है… तो… मेडिकल कॉलेज की लेडी स्टूडेंट्स से ले कर डॉक्टर तक हैरत से मुंह बाए रहते हैं…. औरत, ऐसी?

 

पांच दिन हुए हैं, पड़ोस के मलहोत्रा साहब की नौकरानी को दो दिन वह फ़्लैट के नीचे उठा कर फेंकने की धमकी दे चुकी है. …शहर की सड़ी हुई गरमी को रोज पांच अश्लील गालियां देती है.

 

उसका घरवाला गांव लौटने को कुनमुनाता है तो वह घुड़क देती है… ‘हां, जब आ गई हूं तो यहां हो चाहे लहेरिया सराय, चाहे कलकत्ता… जहां से हो, कोख तो भरके ही लौटूंगी, गांव तुमको जाना हो तो माधो बाबू टिकस कटा कर गाड़ी में बैठा देंगे. मैं किस मुंह से लौटूंगी खाली…?’

 कोई जादू जानती है सचमुच रतनी.कोई शब्द उसके मुंह में अश्लील नहीं लगता.

The
End

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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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March 17, 2025
चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

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March 18, 2025
पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें  रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

March 18, 2025
मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
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